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पांच ज्ञान का विवेचन
२१६ अज्ञान । सम्यक् दृष्टि का श्रु त सो श्रत ज्ञान और मिथ्यादृष्टि का श्रुत सो श्रु त अज्ञान । १ मति ज्ञान, २ श्रुत ज्ञान ये दोनो ज्ञान अन्योन्य-परस्पर एक दूसरे में क्षीर नीर समान मिले रहते है । जीव और आभ्यन्तर शरीर के समान दोनो ज्ञान जब साथ होते है, तब भी पहले मतिज्ञान और फिर श्रु त ज्ञान होता है । जीव मति के द्वारा जाने सो मति ज्ञान और श्रु त के द्वारा जाने सो श्रुत ज्ञान ।
मति ज्ञान का वर्णन
मति ज्ञान के दो भेद : १ श्रुत निश्रीत-सुने हुए वचनो के अनुसार मति फैलावे ।
२ अश्रुत निश्रीत-जो नही सुना व नही देखा हो तो भी उसमे अपनी मति (बुद्धि) फैलावे ।
अश्र त निश्रीत के चार भेद : १ औत्पातिका, २ वैनयिका, ३ कामिका, ४ परिणामिका ।
औत्पातिका बुद्धि-जो पहले नही देखा हो व सुना हो, उसमे एकदम विशुद्ध अर्थग्नाही बुद्धि उत्पन्न हो व जो बुद्धि फल को उत्पन्न करे उसे औत्पातिका बुद्धि कहते है।
वैनयिका बुद्धि-गुरु आदि की विनय भक्ति से जो बुद्धि उत्पन्न हो व शास्त्र का अर्थ रहस्य समझे वह वैनयिका बुद्धि ।
कामिका (कामीया) बुद्धि-देखते, लिखते, चितरते, पढते सुनते, सीखते आदि अनेक शिल्प कला आदि का अभ्यास करते करते इनमे कुशलता प्राप्त करे वह कार्मिका बुद्धि ।
पारिणामिका बुद्धि-जैसे जैसे वय (उम्र) की वृद्धि होती जाती है, वैसे वैसे बुद्धि बढती जाती है तथा बहुसूत्री स्थविर प्रत्येक वृद्धादि प्रमुख का आलोचना करता बुद्धि की वृद्धि हो, जातिस्मरणादि ज्ञान उत्पन्न हो वह परिणामिका बुद्धि ।