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पाच ज्ञान का विवेचन
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२ दिया जाता है । वारह अग व्यवच्छेद होने आश्री अन्त सहित और व्यवच्छेद न होने आश्री आदिक अन्त रहित । समुच्चय से चार प्रकार के होते है । द्रव्य से एक पुरुष ने पढना शुरू किया उसे सादिक सपर्यवसित कहते है और अनेक पुरुष परम्परा आश्री अनादिक अपर्यवसित कहते है । क्षेत्र से ५ भरत ५ एरावत, दश क्षेत्र आश्री सादिक सपर्यवसित, ५ महाविदेह आश्री अनादिक अपर्यवसित । काल से उत्सर्पिणी अवसर्पिणी आश्री सादिक सपर्यवसित । नोउत्सर्पिणी नोअवसर्पिणी आश्री अनादिक अपर्यवसित । भाव से तीर्थंकरो ने भाव प्रकाशित किया इस आश्री सादिक सपर्यवसित । क्षयोपशम भाव आश्री अनादिक अपर्यवसित, अथवा भव्य का श्रुत आदिक अन्त सहित अभव्य का श्रुत आदि अन्त रहित । इस पर दृष्टान्त - सर्व आकाश के अनन्त प्रदेश है व एक आकाश प्रदेश मे अनन्त पर्याय है । उन सर्व पर्याय से अनन्त गुणे अधिक एक अगुरुलघु पर्याय अक्षर होता है जो क्षरे नही, व अप्रतिहत, प्रधान, ज्ञान, दर्शन जानना सो अक्षर, अक्षर केवल सम्पूर्ण ज्ञान जाना इसमे से सर्व जीव को सर्व प्रदेश के अनन्तवें भाग जानपना सदाकाल रहता है । शिष्य पूछने लगा हे स्वामिन् ! यदि इतना जानपना जीव को न रहे तो क्या होवे ? तब गुरु ने उत्तर दिया कि यदि इतना जानपना न रहे तो जीवपना मिट कर अजीव हो जाता है व चैतन्य मिट कर जडपना ( जडत्व ) हो जाता है । अत हे शिष्य । जीव को सर्व प्रदेशे अक्षर का अनन्तवे भाग ज्ञान सदा रहता है । जैसे वर्षा ऋतु मे चन्द्र तथा सूर्य ढके हुवे - रहने पर भी सर्वथा चन्द्र तथा सूर्य की प्रभा छिप नही सकती है वैसे ही ज्ञानावरणीय कर्म के आवरण के उदय से भी चैतन्यत्व सर्वथा छिप नही सकता । निगोद के जीवो को भी अक्षर के अनन्तवे भाग सदा ज्ञान रहता है ।
११ गमिक श्रुत – बारहवां अंग दृष्टिवाद अनेक बार समान पाठ आने से ।