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जैनागम स्तोक संग्रह आरे ५०० धनुष्य का देहमान व करोड़ पूर्व का आयुष्य रह जाता है। इस आरे में वज्रऋषभ नाराच संघयन व समचतुरस्र सस्थान होता है। शरीर में ६४ पांसलिये होती है व उतरते आरे केवल ३२ पांसलिये रह जाती है । इस आरे मे मनुष्यो को आहार की इच्छा एक दिन के अन्तर से होती है तब शरीर प्रमाणे आहार करते है। पृथ्वी का स्वाद गुड़ जैसा रह जाता है तथा उतरते आरे कुछ ठीक । इस आरे में दश प्रकार के कल्पवृक्ष दश प्रकार का मनोवांछित सुख देते है । मृत्यु के जब छ. महीने शेष रह जाते है तब युगलिये परभव का आयुष्य बाँधते है व उस समय युगलनी एक पुत्र व पुत्री का प्रसव करती है । बच्चे-बच्ची का ७६ दिन पालन करने के बाद वे ( पुत्र पुत्री) दम्पति बन सुखोपभोग करते हुए विचरते है और उनके माता पिता को छीक और दूसरे को उबासी आते ही मरकर देव गति में जाते है । क्षेत्राधिष्ठित देव इनके मृतक शरीर को क्षीर सागर मे डाल कर मृतक क्रिया करते है । गति एक देव की।
इन तीन आरों में युगलियों का केवल युगलधर्म रहता है । जिसमे वैर नहीं, ईर्ष्या नही, जरा नहीं, रोग नही, कुरूप नहीं, परिपूर्ण अङ्ग-उपाङ्ग पाकर सुख भोगते है ये सब पूर्व भव के दान पुन्यादि सत्कर्म का फल जानना ।
तीसरे आरे की समाप्ति में चौरासी लाख पूर्व तीन वर्ष व साड़े आठ माह जब शेष रह जाते है, उस समय सर्वार्थसिद्ध विमान में ३३ सागरोपम का आयुष्य भोग कर तथा वहाँ से चलकर वनिता नगरी के अन्दर नाभिराजा के यहां मरुदेवी रानी की कुक्षि (कोख) में श्री ऋषभ देव स्वामी उत्पन्न हुए। (माता ने) प्रथम ऋषभ का स्वप्न देखा इससे ऋषभ देव नाम रखा गया जिन्होने युगलिया धर्म मिटा कर १ असि २ मसि ३ कृषि इत्यादिक ७२ कला पुरुषों को सिखाई व ६४ कला स्त्री को। वीस लाख पूर्व तक आप कौमार्य