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जैनागम स्तोक सग्रह
लघु स्वर ( ह्रस्व स्वर-अ, इ, उ, ऋ लु ) का उच्चारण करने में जितना समय लगे उसे अन्तमुहूर्त कहते है।
४ क्रिया द्वार काइया क्रिया इत्यादि २५ क्रिया मे से जो-जो क्रिया जिस-जिस जीव स्थानक पर जिन-जिन कारणो से लगती है, उसका विस्तार पूर्वक वर्णन :-कर्म आठ है, जिनमें चौथा मोहनीय कर्म सरदार है । इसकी २८ प्रकृति :-कर्म प्रकृति के थोकड़े में लिखे हुए मोहनीय कर्म की प्रकृति की सत्ता, उदय, क्षयोपशम, क्षय आदि से जो-जो क्रिया लगे और जो-जो नही लगे उसका वर्णन :
(१) प्रथम मिथ्यात्व जीव स्थानक पर-मोहनीय कर्म की २८ प्रकृति में से अभव्य को २६ प्रकृति की सत्ता है-' समकित मोहनीय, २ मिश्र मोहनीय ये दो छोड कर शेष २६, कुछ भव्य जीव को २८ प्रकृति का उदय होता है, जिसमें मिथ्यात्व का बल विशेष । दो की नीमा व तीन की ( वाद ) भजना १ समकित मोहनीय २ मिश्र मोहनीय इन दो की नीमा, १ अक्रिया वादी, २ अज्ञानवादी, ३ विनयवादी इन तीन की भजना इस तरह चौवीस संपराय क्रिया लगे।
(२) दूसरे जीव स्थानक में मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियो में से वीस का उदय होता है, उसमें सास्वादन का वल विशेप होता है उसमें दो की नीमा १ मिथ्यात्व मोहनीय, २ मिश्र मोहनीय । दो का वाद होता है-१ अक्रियावादी, २ अज्ञानवादी जिससे चौवीस संपराय क्रिया लगती है।
(३) मिश्र दृष्टि जीव स्थानक मे मोहनीय कर्म की २८ प्रकृति में से २८ का उदय इनमें मिश्र का बल विशेष है, उसमें दो की नीमा और दो का वाद १ समकित मोहनीय, २ मिथ्यात्व मोहनीय।