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श्री गुणस्थान द्वार
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गाथा :मद, विषय, कसाया, निदा, विगहा पचमी, भरिणया।
ए ए पच पमाया, जीवा पाडन्ति ससारे ।। इन पाँच प्रमाद का त्याग व उक्त १५ प्रकृति और १ सज्वलन का क्रोध एव १६ प्रकृति का क्षयोपशम करे इससे किस गुण की प्राप्ति होवे ? जीवादि नव पदार्थ द्रव्य से, काल से, भाव से तथा नोकारसी आदि छमासी तप ध्यान युक्तिपूर्वक जाने, श्रद्ध, परूपे, फरसे वह जीव जघन्य उसी भव मे उत्कृष्ट तीसरे भव में मोक्ष जावे । गति प्राय: कल्पातीत की पावे । ध्यान में, अनुष्ठान में, अप्रमत्त पूर्वक प्रवर्ते व शुभ लेश्या के योग सहित अध्यवसाय प्रर्वतता हुआ जिसके प्रमत्त कषाय नही वह अप्रमत्त सयति गुरणस्थान कहलाता है।
८ नियट्टीबादर गुणस्थान :-उक्त १६ प्रकृति व सज्वलन का मान एव १७ प्रकृति का क्षयोपशम करे, तब आठवे गुणस्थान आवे ( तब गौतम स्वामी हाथ जोड़ पूछने लगे आदि उपरोक्त समान ) इस गुणस्थान वाले को किस गुण की प्राप्ति हो। जो परिणामधारा व अपूर्व करण जीव को किसी समय व किसी दिन उत्पन्न नही हुआ हो ऐसी परिणाम धारा व करण की श्रेणी जीव को उपजे । जीवादिक नव पदार्थ द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से, भाव से नोकारसी आदि छमासी तप जाने श्रद्ध, परूपे फरसे । यह जीव जघन्य उसी भव मे, उत्कृष्ट तीसरे भव मे मोक्ष जावे । यहाँ से दो श्रेणी होती है-१ उपशम श्रेणी, २क्षपक श्रेणी। उपशम श्रेणी वाला जीव मोहनीय कर्म की प्रकृति के दलो को उपशम करता हुआ ग्यारवे गणस्थान तक चला आता है। पडिवाई भी हो जाता है व हीयमान परिणाम भी परिणमता है। क्षपक श्रेणीवाला जीव मोहनीय कर्म की प्रकृति के दलो को क्षय करता हुआ 'शुद्ध परिणाम से निर्जरा