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सत्तर
चारित्र चक्रवर्ती
की आवश्यकता ही नहीं रही । आचार्य श्री का यह लोकोत्तर जीवन ही भव्य जनों को सहज ही चरणों में वंदन करने को बाध्य कर देता था । उस काल के मुनियों में भी पाठको, चारित्रगत दोष नहीं थे और न ही तप में कोई कमी थी, दोनों से ओत प्रोत भव्य आत्मायें थीं वे, यदि दूषण था तो मात्र आहार चर्या का, वह भी मार्गदर्शक के अभाव में उत्पन्न हुआ हुआ || वरना वैसे तपस्वी व आचारवान साधु दुर्लभ हैं ।
इसी प्रकार आचार्य श्री के जीवन में कठोर स्वानुशासन में जीते हुए लोक कल्याण सापेक्ष स्वकल्याण को दर्शाने वाले उपवासों व व्रतों की भी न्यूनता नहीं थी । इन उपवासों व व्रतों में जो उनके द्वारा साधा गया व अन्यों को दुर्लभ ऐसा उत्कृष्ट सिंहनिः ष्क्रिड़ित व्रत भी सम्मिलित है, जिसे कि उनके पश्चात अन्य कोई आज अर्थात् सन् २००६, जनवरो तक साध नहीं सका || मेरी लेखनी इस सिंहनिः ष्क्रिड़ित व्रत की मात्र विधि कह सकती है, किंतु इसे करने में निरंतर न्यून होते जा रहा शारीरिक बल व वृद्धिगत होती हुई अशक्तता के मध्य चित्त को साधे रखना, वह भी परंपरा मोक्ष को साधने योग्य धर्म ध्यान से युक्त रहते हुए, का बखान नहीं कर सकती, इसकी सामर्थ्य तो आचार्य श्री में ही थी, आचार्य श्री के अतिरिक्त अन्य किसी में नहीं । उनके पश्चात् तो उस क्षयोपक्षम व बल का अनुभवन व बखान कथा - कहानियों का ही विषय बन कर रह गया, प्रत्यक्ष नहीं हुआ।
निश्चित ही दिगम्बर जैन आम्नायियों का एक बहुत बड़ा वर्ग आचार्य श्री के इस दुर्लभ चारित्र से न सिर्फ प्रभावित हुआ, अपितु श्रद्धावनत हो आचार्य श्री का अनुगामी भी बना ॥ ३) प्रज्ञा से प्रभावित : संसार में कई हैं, जिन्हें न तो चारित्र आकर्षित करता है, और न ही परिषह जय अथवा उग्र से उग्र तप ॥ ये वे हैं जो ज्ञान अर्थात् प्रज्ञा आराधक हैं।
इन्हें हम परीक्षाप्रधानी भी कह सकते हैं। इनमें विशेषता यह रहती है कि ये न तो मूढ़ ही होते हैं और न ही भावुक, अपितु प्रज्ञावान होते हैं ।।
इन परीक्षाप्रधानियों में प्रथम पंक्ति में प्रारंभ के दो नाम अत्यंत महत्वपूर्ण है | इन दोनों में प्रथम नाम है सेठ श्री रावजी सखाराम दोशी और दूसरा नाम है सोलापुर के सेठ ब्र. जीवराज गौतमचंद दोशी | ये दोनों ही महानुभाव लक्ष्मी व सरस्वती, दोनों के ही पूंज थे इन दोनों को ही आचार्य श्री की स्वकल्याण सापेक्ष लोक कल्याणकारी निर्दोष छवि ने चरणों में वंदन करने को बाध्य कर दिया था ||
पं. मक्खनलाल जी शास्त्री, मौरेना (म.प्र.), आचार्यश्री के विषय में लिखे अपने लेख में आचार्य श्री की प्रज्ञा की तुलना भगवन् जिनसेनाचार्य जी द्वारा श्री आदि पुराण के पर्व ४१ में भरतचक्रवर्ती की व्याख्यायित प्रज्ञा से करते हुए कहते हैं कि राजसिद्धांततत्त्वज्ञो धर्मशास्त्रार्थतत्त्ववित् ।
परिख्यातः कलाज्ञाने सोऽभून्मूनि सुमेधसाम् ॥ १५४॥
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