Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ४००-४२४ वर्ष]
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
आती है ? भीम ने कहा नहीं पिताजी श्रापका तो मेरे पर बहुत उपकार है और मैं जब ही थोड़ा बहुत ऋण अदा कर सकूँगा कि आप दीक्षा ले और मैं आपकी सेवा करू १ माता पिता ने सूरिजी के उपदेश की और लक्ष दौराते हुए कहा अच्छा भीम हम दोनों दीक्षा लेने को तैयार हैं ।
बस ! फिर तो कहना ही क्या था नगर में बिजली की तौर खबर फैल गई और सूरिजी ने दीक्षा के लिये दिन माघ शुक्ल १३ का मुकर्रर कर दिया और भी कई १३ पुरुष १८ महिलाए दीक्षा लेने को तैयार होगये शाह धन्ना का जेष्ठ पुत्र रामदेव ने जिन मन्दिरों में अष्टान्हिका महोत्सव या और इस कार्य के लिये जो कुछ करना था वह सब बड़े ही ठाठ से किया और सूरिजी ने ठीक समय पर उन मोक्षा भिलाषियों को भगवती जैन दीक्षा देकर उनका उद्धार किया तथा वीर भीमदेव का नाम मुनि शांतिसागर रख दिया। मुनि शान्तिसागर बड़ा ही त्यागी वैरागी और तपस्वी था ज्ञानाभ्यास की रुपी पहले से भी अब तो बिल्कुल निवृति मिल गई इधर सूरिजी की भी पूर्ण कृपा थी मुनिजी ने स्वल्प समय में ही वर्तमान आगमों के साथ व्याकरण न्याय छन्द तर्क अलंकरादि शास्त्रों का अध्ययन कर लिया आपने निमित्त ज्ञान में भी पूर्ण निपुणता हासिल करली थी योग विद्या में तो आप इतने निपुण थे कि कई जैन जैनेतर आपकी सेवा में रह कर योगाभ्यास किया करते थे। एक समय आचार्यश्री भूभ्रमन करते हुए सिन्ध प्रान्त की और पधारे। उस समय सिन्ध में जैनों की खूब आबादी थी और उपकेशगच्छाचार्यों का अच्छा प्रभाव था सिन्ध के बहुत वीरों ने दीक्षा लेकर वहां भ्रमन भी किया था सूरिजी के पधारने से जनता का उत्साह बढ़ रहा था जहां आप पधारते वहां व्याख्यान का अच्छा ठाठ लग जाता था जैन जैनेत्तर काफी संख्या में सूरिजी का उपदेश सुन अपना अहोभाग्य समझते थे क्रमशः विहार करते हुए सूरिजी डमरेल नगर की ओर पधार रहे थे। यह शुभ समाचार वहां के श्रीसंघ को मिला तो उनके हर्ष का पार नहीं रहा महामहोत्सव के साथ सूरिजी का नगर प्रवेश करवाया सूरिजी ने मंगलाचरण के पश्चात् देशनादी और भी सूरिजी का व्याख्यान हमेशा हो रहा था जिसका जनता पर अच्छा प्रभाव पड़ता था तथा सूरिजी की प्रशंसा नगर भर में फैल रही थी वहां का राव चणोट भी आचार्य श्री का उपदेश सुनकर मांस मदिरा का त्याग कर दिया था इतना ही क्यों पर उसने अपने राज में जीव हिंसा बन्ध करवादी थी। परन्तु कहा है कि खल मनुष्य दूसरों की प्रशंसा को सुन नहीं सकता हैं अतः वहां पर एक सन्यासी आया हुआ था और वह कुछ रसायन विद्या भी जानता था उसने जनता को कुछ लोभ देकर कई लोगों को अपने वश में कर जैन धर्म और प्राचार्य श्री की निन्दा करने लगा कि जैन धर्म नास्तिक धर्म है राजपूतों को मांस मदिरा छोड़ा कर उनके शौर्य पर कुठार घात कर रहे है इनका आचार विचार इतना भद्दा है कि कभी स्नान भी नहीं करते हैं इत्यादि।
एक समय मुनि शान्तिसागर कई मुनियों के साथ जंगल (थडिले) जाकर वापिस आरहा तो रास्ता में सन्यासी मिल गया वह भी अपनी जमात के साथ था सन्यासी ने मुनि शान्ति सागर को सम्बोधन कर कहा-अरे सेवडाभों ! तुम जनता को मिथ्या उपदेश देकर नास्तिक क्यों बनाते हों वणियों को तो ठीक परन्तु क्षत्रियों को माल एवं शिकार छोड़ा कर कायर क्यों बनाते हो और तुम बिना स्नान अर्थात शुद्धि क्रिया बिन परमात्मा का भजन कैसे करते हो ?
मुनि शान्ति सागर ने कहां प्रिय महात्माजी ! आप नस्तिक आस्तिक किसको कहते हो पहला इसका अभ्यास करो १ जैनधर्म नास्तिक नहीं पर कट्टर आस्तिक धर्म है जेन ईश्वर का श्रात्मा को सृष्टि को मानता
[ मुनि शान्तिसागर और सन्यासी
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