________________ स्थानांग : प्रथम स्थान सार : संक्षेप / द्वादशाङ्गी जिनवाणी के तीसरे अंगभूत इस स्थानाङ्ग में वस्तु-तत्त्व का निरूपण एक से लेकर दश तक की संख्या (स्थान) के आधार पर किया गया है। जैन दर्शन में सर्वकथन नयों की मुख्यता और गौणता लिए हुए होता है / जब वस्तु की एकता या नित्यता आदि का कथन किया जाता है, उस समय अनेकता या अनित्यता रूप प्रतिपक्षी अंश की गौणता रहती है और जब अनेकता या अनित्यता का कथन किया जाता है, तब एकता या नित्यता रूप अंश की गौणता रहती है / एकता या नित्यता के प्रतिपादन के समय द्रव्याथिकनय से और अनेकता या अनित्यता-प्रतिपादन के समय पर्यायाथिक नय से कथन किया जा रहा है, ऐसा जानना चाहिए / तीसरे अंग के इस प्रथम स्थान में द्रव्याथिक नय की मुख्यता से कथन किया गया है, क्योंकि यह नय वस्तु-गत धर्मों की विवक्षा न करके अभेद की प्रधानता से कथन करता है। दूसरे अादि शेष स्थानों में वस्तुतत्त्व का निरूपण पर्यायाथिक नय की मुख्यता से भेद रूप में किया गया है। " 'प्रात्मा एक है' यह कथन द्रव्य की दृष्टि से है, क्योंकि सभी आत्माएँ एक सदश ही अनन्त शक्ति-सम्पन्न होती हैं। 'जम्बूद्वीप एक है, यह कथन क्षेत्र की दृष्टि से है / 'समय एक है। यह कथन काल की दृष्टि से है और 'शब्द एक है' यह कथन भाव की दृष्टि से है, क्योंकि भाव का अर्थ यहाँ पर्याय है और शब्द पुद्गलद्रव्य की एक पर्याय है / इन चारों सूत्रों के विषयभूत द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में से एक-एक की मुख्यता से उनका प्रतिपादन किया गया है, शेष की गौणता रही है, क्योंकि जैन दर्शन में प्रत्येक वस्तु का निरूपण द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भाव के आधार पर किया जाता है। द्रव्याथिक नय के दो प्रमुख भेद हैं-संग्रहनय और व्यवहारनय / संग्रहनय अभेदग्राही है और व्यवहारनय भेदग्राही है। इस प्रथम स्थान में संग्रह नय की मुख्यता से कथन है / आगे के स्थानों में व्यवहार नय की मुख्यता से कथन है / अतः जहाँ इस स्थान में आत्मा के एकत्व का कथन है वहीं दूसरे आदि स्थानों में उसके अनेकत्व का भी कथन किया गया है। प्रथम स्थान के सूत्रों का वर्गीकरण अस्तिवादपद, प्रकीर्णक पद, पुद्गल पद, अष्टादश पाप पद, अष्टादश पाप-विरमण पद, अवपिणी-उत्सपिणीपद, चतुर्विंशति दण्डक पद, भव्य-अभव्यसिद्धिक पद, दृष्टिपद, कृष्ण-शुक्ल पाक्षिकपद, लेश्यापद, जम्बूद्वीपपद, महावीरनिर्वाणपद, देवपद और नक्षत्र पद के रूप में किया गया है। इस प्रथम स्थान के सूत्रों की संख्या 256 है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org