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सकता है, परन्तु तर्क-बुद्धिप्रजापर प्रभाव डाल कर कार्य करनेवाला कदाच थोडे समयके लिये अल्पांशमें या अधिकांशमें विजय प्राप्त करे, परन्तु परिणाममें तो उसीकी सम्पूर्ण विजय होती है इसके स्पष्ट करनेकी आवश्यकता नहीं है, कारण कि बालजीवोंको वर्ग अज्ञानी होता है और उनका धार्मिक तत्त्वज्ञान, कथाश्रवण
और ईश्वरस्मरणमें परिपूर्ण होता है, जबकि बुद्धिमानोंका कर्त्तव्य तत्त्वज्ञानके गूढ रहस्योंकों पढ़कर, मननकर, समझकर उनके तात्पर्यको ढूंढकर समझने में होता है। सामान्य नियमानुसार ऐसी दृढ नींबपर बन्धे हुए शास्त्रकी ही जय होना सम्भव है, परन्तु वह कार्य उसका द्व्यानुयोग किस स्थितिमें है, किसने बतलाया है, किस प्रकार बतलाया है, उसका अन्तिम साध्यबिन्दु क्या है
और उसमें अरस्परस रूपसे कोई विरोध है या नहीं यह (इन) प्रश्नोंपर अवलम्बित है । अतएव किसी भी धर्मकी महत्ताको समझनेके लिये उसके द्रव्यानुयोगकी महत्ताको समझनेकी आवश्यकता होती है और उसकी किमत भी उसीसे होती है। इस द्रव्यानुयोगकी महत्ता कितनी है यह विचारने योग्य है। कर्मकी शक्ति, उसके बंधउद्यादि चतुष्टय, उसके उद्वर्तन, संक्रमण, अपवर्तनादि प्रकार परमाणुका स्वभाव, निगोदका स्वरूप, प्रात्मद्रव्यका स्वरूप आदि प्रश्न इस अनुयोगमें किये गये हैं। शास्त्रकारका कथन है कि शुद्ध देव, गुरु और धर्म ऊपर श्रद्धा हो तब ही समकितकी प्राप्ति हो सकती है और समकितरहित क्रिया तो बिना अंकोंवाली शून्यों ( Zero )के बराबर है । इस श्रद्धाकी स्थिर रखनेवाला तत्वज्ञानतत्त्वबोध ही है। तत्त्वज्ञानसे भाग्यहीन हुआ प्राणी सहजमें ही श्रद्धासे प्रष्ट हो जाता है, कारणकि उसकी श्रद्धाकी नींव गहरी नहीं होती है, जबकि बुद्धिमान् विद्वानके सम्बन्धमें ऐसा नहीं हो सकता है। अनेक उपयोगी विषयोंका वर्णन करनेके उपरान्त श्रद्धाको स्थिर रखनेवालेके रूपमें द्रव्यानुयोग ही अधिक उपयोगी है।
द्रव्यानुयोगका विषय बहुत विशाल है । इसके पेटे विभाग में अनेकों उपयोगी विषयोंका समावेश हो जाता है। प्रत्येक धर्मका
व्यवस्थापूर्वक अभ्यास, उन सबका परस्पर द्रव्यानुयोगमें विषय समतौल, तर्क, मीमांसा, धर्मशास्त्र आदि विषय
इसीप्रकार वस्तुस्वभावशास्त्र. Metaphysics