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। कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः ।।
।। अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ।।
।। गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः ।।
।। योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
। चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
आचार्य श्री कैलाससागरसूरिज्ञानमंदिर
पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा.
जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प
ग्रंथांक :१
जैन आराधना
न
कन्द्र
महावीर
कोबा.
॥
अमर्त
तु विद्या
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र
शहर शाखा
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) (079) 23276252, 23276204 फेक्स : 23276249 Websiet : www.kobatirth.org Email : Kendra@kobatirth.org
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर परिवार डाइनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ (079)26582355
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Copy right Registered under Sections 18 and 19 Act XXV of 1867.
अथ वेदाङ्गप्रकाशः ||
तत्रत्यः । नवमो भागः ॥
सौवरः॥
श्रीमत्स्वामिदयानन्द सरस्वतीकृतव्याख्यासहितः । पाणिनिमुनिप्रणीतायामहाध्याय्यामष्टमो भागः ।
पठनपाठनव्यवस्थायामेकादशं पुरु.कम् ।
यज्ञदत्त शर्मशास्त्रिणः प्रबन्धन वैदिक यन्त्रालय अजमेरनगर मुद्रितः ।
इस पुस्तक के छापने का अधिकार किसी को नहीं।
__ कोंकि इस को रजिसरी कराई गई है।
संवत् १८४८ माघ शुक्ला ।
र दूसरी बार २००० पुस्तक छपे ]
[ मूल्य :
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अथ भूमिका॥
इस सौवर ग्रन्थ के बनाने का मुख्य प्रयोजन यही है कि जिस से सब मनुष्ये उदात्तादि खरी की व्यवस्था का बोध यथार्थ हो जावे। जब तक उदातादि को ठीक २ नहीं जानते तब तक लौकिक वैदिक वाक्यों वा छन्दों का स्पष्ट उच्चारण मान और ठीक २ अर्थ भी नहीं जान सकते। और उच्चारण आ यथार्थ होने के बिना लौकिक वैदिक शब्दों से यथार्थ सुखलाभ भी किर्स नहीं होता । देखो इस विषय में प्रमाण । दुष्टः शब्दः स्वरतो वर्णतो वा मिथ्याप्रयुक्तो न तमर्थम स वाग्वजो यजमानं हिनस्ति यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोऽपराधात् ॥१
जो शब्द अकारादि वर्गों के स्थान प्रयत्न पूर्वक उच्चारण नियम और र तादि स्वरों के नियम से विरुद्ध बोला जाताहै उस को मिथ्याप्रयुक्त कहते हैं। कि जिस अर्थ को जताने के लिये उसका प्रयोग किया जाता है उस अर्थ को शब्द नहीं कहता किन्तु उस से विरुद्ध अर्थान्तर का कहता है । इसलिये उच्च किया हुआ वहशब्द अभीष्ट अभिप्राय को नष्ट करनेसे वज्र के तुल्य वाणीरूप कर यजमान अर्थात् शब्दार्थसम्बन्ध को सङ्गति करने वाले पुरुष हो को दुःख देता है। अर्थात् प्रयोता के अभिप्राय को बिगाड़ देनाही उस को दुःख ६ है । जैसे ( इन्द्रशत्रुः ) शब्द स्वर के विरोध सेहो विरुद्धार्थ हो जाता है। बुट शत्रु तत्पुरुष समास में तो अन्तोदात्त होता है इन्द्र अर्थात् सूर्य का शत्र मेघ बरे कर विजयी हो।(इन्द्र शत्रुः) यहां बहुव्रीहि समासमें पूर्वपद प्रकतिखरसे आद्यदा स्वर होता है । और शत्र शब्द का अर्थ यही है कि शान्त करने वा काटनेवाला प्रमाण निरुत का-इन्द्रोस्य शमयिता वा शातयिता वा से तत्पुरुष समास में इन्द्र नाम सूर्यका शत्रु शान्त करने वाला मेघ आया और बहुव्रीहि समासमें मृ जिसका शत्र शान्त करने वा काटने वाला है ऐसा अन्य पदार्थ मेघ आया। पुरुष सूर्य का शान्त करने वाला मेघ है इस अभिप्राय से पून्द्रशत्र शब्द उच्चारण किया चाहताहै तो उसको अन्तोदात्त उच्चारण करना चाहिये परन्तु . वह आद्युदात्त उच्चारण कर देवे उसका अभिप्राय नष्ट हो जाये क्योंकि आद्यदात्त उच्चारण से बानीहि समास में मेघ का शान्त करने वा काटने वाला सूर्य ठहरै
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भूमिका ॥
(सलिये जैसा अपना इष्ट अर्थ हो वैसे स्वर और वर्ण का नियमपूर्वक हो ण करना चाहिये । जब मनुष्य को उदात्तादि खरों का ठीक २ बोध हो है तब स्वर लगे हुए लौकिक शब्दों के नियत अर्थों को शीघ्र जान लेता है केसी एक शब्द को आद्युदात्तस्वरयुक्त देखा तो जान लेगा कि अमुक अर्थ कजित् वा नित प्रत्यय हुआ है इसलिये इस का यही अर्थ होना चाहिये free अर्थ नहीं हो सकता ऐसा निश्चय स्वरन पुरुष को हो जाता है । कर्त्ता । स कर्त्ता । इन दो वाक्यों में दो प्रकार के स्वर होनेसे दाही प्रकार होते हैं पहिले वाक्य में लुट् लकार की क्रिया है । अर्थ- वह अगले दिन
·
और दूसरे में कदन्त टच प्रत्ययान्त शब्द है । अर्थ- वह करने वाला पुरुष सौ प्रकार इत्यादि एक प्रकार के शब्दों का अर्थभेद स्वरव्यवस्था के जानहो निकलता है । जो स्वरव्यवस्था का बोध न हो तो श्रर्थों का लौट पौट वार हो जाने से बड़ा अन्धेर फैल नावे | इसी प्रकार समासे के पृथक २ सखरों को जान के उन २ समासों के नियत अर्थों को शीघ्र जान लेता र्थात् उदात्तादि स्वरज्ञान के विना अर्थ को भ्रान्ति नहीं छूटती । और उदास्वरबोध के विना वेदमंत्रों का मान और उच्चारण भी यथार्थ नहीं हो क्योंकि षड्जादि स्वर गानविद्या में उपयोगी होते हैं वे उदात्तादि के नहीं हो सकते । जैसेः
1
चौ निषादगांधारौ नीचावृषभधैवतौ । शेषास्तु स्वरिता ज्ञे: षड्जमध्यमपंचमाः ॥ १ ॥
स्थान महाराणा जी का उदयपुर
संवत् १९३८ पाखि० व०
१३
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यह वचन याज्ञवल्क्यशिक्षा का है षड्जादिकों में निषाद और गांधार तो रात के लक्षण से ऋषभ और धैवत अनुदान्त के लक्षण से तथा षड्ज मध्यम र पंचम ये तीनों स्वरितस्वर से गाये जाते हैं । उदात्तादि के विना वेदमत्रों का धारण भी प्रिय नहीं लगता और जब उदात्तादि के सहित उच्चारण किया ता है तब अतिप्रिय मनोहर उच्चारण होता है । इस ग्रन्थ में स्वरव्याख्या
से को है परन्तु जो मुख्य २ स्वरविषय के पाणिनीय अष्टाध्यायीस्थ सूत्र हैं इस में लिख दिये हैं और सब अष्टाध्यायी को वृत्ति में लिखे जायंगे ॥
इति भूमिका ॥
(स्वामी) दयानन्द सरस्वती
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अथ सौवरः।
१-महाभाष्य-स्वयं राजन्त इति स्वराअन्वग्भवतिव्यञ्जनम्॥
स्वर उन को कहते हैं कि जो विना किसी की सहायता से उच्चारित और स्वयं प्रकाशमान, और व्यञ्जन वे कहाते हैं कि जिन का उच्चारण स्वर के आधीन
२-उच्चैरुदात्तः ॥०॥ १।२ । २९ ॥ किसी एक मुख के स्थान में जिस अच का ऊंचे स्वर से उच्चारण हो वह उदात्त संज्ञक होता है । जैसे । ओ प गवः । यहाँ अण् प्रत्यय का प्रकार उदात्त हुआ है । २॥
३.महाभाष्य-आयामो दारुण्यमणता
खस्येत्युच्चैःकराणि शब्दस्य ॥ उदात्त खर के उच्चारण में इतनी बातें होनी चाहिये (आयामः) शरीर के सब अवयवों को रोक लेना अर्थात् ढीले न रखमा (दारुण्यम्) शब्द के निकलते समय तोखा रूखा स्वर निकले और (अणता खस्य ) कण्ठ को रोक के बोलना चाहिये फेलाना नहीं। ऐसे प्रयत्न से जो स्वर उच्चारण किया जाता है वह उदात्त कहाता है । यही उदात्त का लक्षण है ॥३॥
४-नीचैरनुदात्तः ॥ अ०॥१।२।३०॥ ___ जो किसी एक मुखस्थान में नीचे प्रयत्न से उच्चारण किया हुआ स्वर है उस को अनुदात्त कहते हैं । जैसे। औ प गवः । यहां जिम के नीचे तिौं रेखा है वेतौनां वर्ण अनुदात्त है ॥ ४ ॥ ५-महाभाष्य-अन्ववसों मार्दवमुस्ता खस्येति
नीचैःकराणि शब्दस्य ॥ अनुदाप्त उच्चारण में (अन्ववसर्गः ) शरीर के अवयवों को शिथिल करदेना (मार्दवम्) कोमलता स्निग्ध उच्चारण करना ( उरुता खस्य) और कण्ठ को कुछ फैला के बोलना । इस प्रकार के प्रयत्न से उच्चारण किये खर को अनुदात कहते हैं यही इस का लक्षण है ॥ ५ ॥
६-समाहारः स्वरितः ॥ ॥१।२। ३१॥ उदात्त और प्रबुदात्त गुण का जिस में मेल हो वह अच् स्वरित संजक होता
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सौवरः॥ है । जो उदात्त स्वरहै । उस का कोई चिन्ह नहीं होता किन्तु बहुधा खरित वा अनुदात्त से पूर्व ही उदात्त रहता है। अनुदात्त वर्ण के नीचे जैसा ( क ) यह तिळ चिन्ह किया जाता है। और स्वरित के ऊपर (क) ऐसा खड़ा चिन्ह किया जाता है। दो वस्तु को मिला के जो बनता है उस का तीसरा नाम रखते हैं। जैसे श्वेत और काला ये रङ्ग अलग २ होते हैं परन्तु जो इन दोनों को मिलाने से उत्पन्न होता है उस को (कल्माष ) खाखी वा आसमानी कहते हैं इसी प्रकार यहां भी उदाप्त और अनुदात्तगुण पृथक् २ हैं परन्तु जो बूम दोनों को मिलाने से उत्पन्न हो उस को स्वरित कहते हैं ॥ ६ ॥ ७-तस्यादित उदात्तमर्द्धहस्वम् । अ०॥ १।२ । ३२ ॥
जो पूर्व सूत्र में स्वरित विधान किया है उस के तीन भेद होते हैं। स्वस्त्ररित, दीर्घखरित और प्लतस्वरित । सो इन स्वरित की आदि में आधी मात्रा उदात्त होती और सब अनुदात्त रहती हैं जैसे । कं। कन्या । शक्तिके'३ शक्तिके। यहां इखदीर्घ और प्लत तीनों क्रम से स्वरित हुए हैं । इस सूत्र में इस्त्र के कहने से यह सन्देह होता है कि दीर्घस्वरित और प्लतखरित में उदात्त का विभाग न होना चाहिये क्योंकि इस्वसंज्ञा से दीर्घ प्लतसंज्ञा भित्रकालिक है। इसीलिये अईहखशब्द के आगे प्रमाण अर्थ में मात्रचप्रत्यय का लोप महाभाष्यकार ने माना है कि इस का अद्धभाग मात्र अर्थात् आदि की आधी मात्रा व दीघ लत किसी में हो उदात्त हो जाती है। इस सूत्र के उपदेश करने में प्रयोजन यह है कि जो मिली हुई चीज होती है उस में नहीं जाना जाता कि कौनसा कितना भाग है। जैसे दूध और जल मिलादें तो यह नहीं विदित होता कि कितना दूध और कितना जल है तथा किधर दूध और किधर जल है इसी प्रकार यहां भी उदात्त और अनुदात्त मिले हुए हैं उसकारण जाना नहीं जाता कि कितना उदात्त और कितना अनुदात्त और किधर उदात्त और किधर अनुदान है । इसलिये सब के मित्र हो के पाणिनि महाराज ने इस सूत्र का उपदेश किया है जिस से ज्ञात होजावे कि इतना उदात्त इतना अनुदात्त तथा इधर उदात्त और इधर अनुदात्त है ( प्रश्न ) नो पाणिनि महाराज सब के ऐसे परम मित्रथे तो इस प्रकार की और बातें क्यों नहीं प्रसिद्ध कौं। जैसे स्थान करण प्रयत्न नादानप्रदान आदि ( उत्तर) जब व्याकरण अष्टाध्यायी बनाई गई थी उस से पूर्व ही शिक्षा आदि कई ग्रन्थ बन चुके थे। जिन में स्थान करण आदि का प्रकार लिखा है क्योंकि शब्द के उच्चारण में जितने साधन हैं वे मनुष्य को प्रथम हो जानने चाहिये । और जो बातें उन ग्रन्थों में लिख चुके थे उन को फिर अष्टाध्यायी में भी लिखते तो पिष्टपेषणदोषवत् पुनरुता दोष समझा
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सौवरः॥
नाता । इसलिये जो बातें वहां नहीं लिखों वे यहां प्रसिद्ध की हैं। तथा गणना से भी व्याकरण तीसरा वेदाङ्ग है इसलिये पाणिनि जी महाराज ने सब कुछ अच्छा डी किया है। जो इस सूत्र का प्रयोजन और इस पर प्रश्नोत्तर लिखे है सो सब महाभाष्य में स्पष्ट कर के सौ सूत्र पर लिखे हैं *i.॥
८-एकश्रुति दूरात्सम्बुद्धौ ॥ अ० ॥ १।२ । ३३॥ दूर से अच्छे प्रकार बल से बुलाने अर्थ में उदात्त अनुदात्त और स्वरित दून तीनों खरी का एकति अर्थात् एकतार श्रवण हो पृथक २ सुनने में न आवें ऐसा उच्चारण करना चाहिये । जैसे । आगक भो माणवक देवदास ३ । यहां उदात्तानुदात्तस्वरित का पृथक् २ श्रवण नहीं होता। दूरात् ग्रहण इसलिये है कि । आगच्छ भो भवदेव । यहां उदात्त अनुदात्त और स्वरितां का अलग २ (उच्चारण होता है ॥८॥
९-उदात्तादनुदात्तस्य स्वरितः ॥ अ०॥८।४।६६ ॥
सब स्वरप्रकरण में यह सामान्य नियम समझना चाहिये कि जो उदात्त से 'परे अनुदात्त हो तो उस को स्वरित हो जाता है । जैसे । ऋतेन । यहां (ते )
उदात्त है उस से परे नकार अनुदात को स्वरित हो जाता है । ऋतेन । तथा। 'गाग्य':। यहां गा उदात्त है और (ग्य) अनुदात्त था उस को (ग्य') स्वरित हो जाता है। इसी प्रकार उदात्त से परे जहां २ स्वरित आता है वहां २ सर्वत्र असंख्य शब्दों में इसौ सूत्र से अनुदात्त को स्वरित जानना चाहिये। और जहां उदात्त से परे अनेक अनुदात्त हों वहां एक को स्वरित औरी को जो होना चाहिये सो आगे लिखेंगे । उदात्त से परे जो अनुदात्त उस से परे उदात्त वा स्वरित होने में विशेष इतना है कि-॥2॥ १०-नोदात्तस्वरितोदयमगार्यकाश्यपगालवानाम् ॥
अ०॥८।४।६७॥ उदात्त से परे जिस अनुदात को स्वरितविधान किया है यदि उस से परे
* (तस्यादित.) इस सूत्र के व्याख्यान में काशिकाकार जयादित्य और भटोजिदीक्षित धादि लोगों ने लिखा है कि इस सूत्र में हुस्वग्रहण शास्त्रविरुद्ध है सो यह केवल उन को भूल है क्योंकि जो हुस्वग्रहण का कुछ प्रयोजन नहीं होता तो महाभाध्यकार अवश्य प्रसिद्ध कर देते उन्हों ने तो जो इस में सन्देह हो सकता है उस का समाधान किया है कि अईहस्व प्राब्द के व्यागे मात्रच् प्रत्यय का लोप जानो जिस से दीर्घ तत स्वरित में भी उदात्त का विभाग हो जावे । हस्वस्थाई मई हस्वम् । एक मात्रा का हस्त्र है उस की व्याधी मावा जो प्यादि में है वह उदात्त और शेष दस से परे सब अनुदात्त है यह बात इस (पर्वहस्व ) के ग्रहण हो से जानी गई।
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सौवरः॥
उदात्त वा स्वरित हो तो उस अनुदात को स्वरित न हो। परन्तु गाग्य,काश्यप, गालव इन ऋषियों के मत को छोड़ के अर्थात् इन तीनों के मत में तो उस अनुदात को भी स्वरित हो जावे कि जिस से परे उदात्त वा स्वरित हो । परन्तु यह गाग्य अदि ऋषियों का मत वेद में प्रवृत्त नहीं होता क्योंकि वेद सनातन हैं वहां किसी का मत नहीं चलता । लौकिकप्रयोगों में गाग्य आदि का मत चल जाता है। वेद में सर्वत्र उदात्त स्वरितोदय हो तो भी अनुदात्त ही बना रहता है । जैसे। कस्य नून के तमस्यामृतानां मनामहे चार देवस्य नाम । यहाँ । देवस्य नाम । नाम शब्द आद्यदात्त के परे होने से भी 'व' उदात्त से परे 'स्य' अनुदात्त को स्वरित नहीं हुआ । तथा। न व्यं त दुकष्टयम् । यहां तकार उदात्त से परे दु अनुदात्त को आगे “कष्टय" खरित होने से भी स्वरित नहीं होता। इसी प्रकार सर्वत्र समझना चाहिये । लौकिक उदाहरण । गा ग्यं ऋषिः । यहां गाय और ऋषि दोन शब्द आद्यदात्त हैं। ऋकार उदात्त के उदय में अनुदात्त 'ग्य का स्वरित नहीं होता । गाग्य ऋषिः। और गाय आदि के मत में। गाय ऋषिः । ऐसा भी होता है । अब एकश्रुतिस्वरविषय में लिखते हैं ॥१०॥
११-यज्ञकर्मण्यजपन्यवसामसु ॥ अ० ॥ १।२।३४॥ यज्ञकर्म अर्थात् यज्ञसम्बन्धी कम करने में जो मन्त्र पढ़े जाते हैं वहां उदात्त अनुदात्त और स्वरित को एकश्रुतिस्वर हो उदात्तादि का पृथक २ श्रवण न हो परन्तु जप करने में तथा न्यूज किसी प्रकार के वेद के स्तोत्री का नाम है वहाँ और सामवेद में उदात्तादि के स्थान में एकश्रुति न हो किन्तु तीनों स्वर पृथर बोते जावें जैसे । समिधाग्नि दुवस्यत घर्बोधयतातिथिम् । आस्मिन् हव्या जुहोतन ॥ १॥ इत्यादि मन्त्र होम करते समय स्वरभेद के विना ही पढ़े जाते हैं । तीनों स्वर के विभाग से वेदमन्त्रों का पाठ होना चाहिये इस कारण यज्ञकर्म में भी पृथक् २ उच्चारण प्राप्त था इसलिये इस सूत्र का प्रारम्भ है ॥ ११ ॥
१२-उच्चस्तरां वा वषट्कारः ॥ प्र०॥१।२। ३३॥ ___जो यज्ञकर्म में वषट्कार शब्द है वह विकल्प कर के उदात्ततर हो और पक्ष में एकश्रुतिखर होता है । जैसे । वषट्कारैः सरस्वती। वषट्कारैः सरखती। यहां उदात्त और एकथति दोनों का चिन्ह न होने से एक ही प्रकार का खर दौख पड़ता है परन्तु उच्चारण में भेद जान पड़ता है ।। १२ ॥
१३-विभाषा छन्दसि ॥ ॥ १।२ । ३६ ॥ वेदमन्त्रों के सामान्य उच्चारण करने में उदात्त अनुदात्त और खरित को
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सौवरः ॥
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एकश्रुति स्वर विकल्प करके होता है । एकश्रुतिपक्ष में उदात्तादि का भिन्न ३. उच्चारण नहीं होता । सो ये दो पच तीन वेदों में घटते हैं । सामवेद में तीनों स्वर भिन्न २ उच्चारण किये जाते हैं क्योंकि ( ११ ) सूत्र से सामवेद में एकश्रुति होने का निषेध कर चुके हैं ॥ १३ ॥
१४ - न सुब्रह्मण्यायां स्वरितस्य तुदात्तः ॥ अ० ॥ १ । २ । ३७ ॥
जो सुब्रह्मण्या ऋचा में यज्ञकर्म में पूर्वसूत्र से एकश्रुतिस्वर प्राप्त है सो न हो किन्तु जो उस में स्वरित वर्ण हों उन के स्थान में उदात्त होजावे । सुब्रह्मण्या एक ऋचा का नाम है । उस का व्याख्यान शतपथ ब्राह्मण में तृतीय काण्ड aate प्रपाठक के प्रथम ब्राह्मण में सत्रहवीं कण्डिका से लेके बीसवीं कण्डिका पय्यंन्त किया है । उस ऋचा में जितने शब्द हैं उन सब में खर का विशेष नियम समझना चाहिये ॥
भा०- सुब्रह्मण्यायामोकार उदात्तो भवति ॥
सुब्रह्मन् शब्द से स्वाध्वर्थ में यत् प्रत्यय होके स्वरितान्त होता है । उसका टापु और आकार के साथ एकादेश होके खरित हो उस खरित को इस सूत्र से उदात्त आदेश हो जाता है और तीन वर्ण अनुदान्त रहते हैं | सुब्रह्मण्यम् ॥
भा० - आकार आख्याते परादिश्व वाक्यादौ च द्वे द्वे ॥
जहां आख्यातक्रिया परे हो वहां उस से पूर्व का आकार और उस क्रिया का आदि वर्ण उदास होता है जैसे । इन्द्र आग छ । हरि व आग के | यहां ऐसा समझो कि ( इन्द्र ) और ( हरिवः ) शब्द आमंत्रित होने से आद्युदात्त हैं उन के दूसरे वर्ण अनुदान्त हैं उन को उदात्त से परे स्वरित हो जाता है । उस स्वरित को इस सूत्र से उदात्त करते हैं । इस प्रकार इन्द्र शब्द सब उदात्त और हरिव शब्द में भी जो दो उदात्त और वकार अनुदात है उस को पूर्व उदात्त के अमि मानने से स्वरित नहीं होता । आगच्छ । में आकार तो प्रथम हो उदात्त है उस से परे दोनों अक्षर अनुदात्त है । आकार उदात्त से परे गकार अनुदात्त को स्वरित होके इस सूत्र से खरित को उदान्त होजाता है । इस प्रकार | इन्द्र आग इस वाक्य में एक छकार अनुदात्त और चार वर्ण उदान्त रहते हैं तथा । हरिव आग कुछ इस वाक्य में वकार इकार दो वर्ष अनुदान्त और चारवर्ष उदात्त रहते हैं | सुब्रह्मण्यो ३ मिन्द्र बाग एक हरि व आगच्छ मेधा तिथे र्मेष वृषणगौरा व कन्दिन ल्याये जा र । कौशिक ब्राह्मण गौतमब्रुवा ग श्वः सुत्यामागच्छ म व वन ॥ १ ॥ मेधातिथे में ष। यहां आमंत्रित मेष शब्द के
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पर पूर्व सुबन्तको पराङ्गवत् आद्युदात्त होके सबअक्षर अनुदात्त होनाते हैं । फिर'मे' उदात्त से परे 'धा' अनुदात्त को स्वरित होकर उस स्वरित को इस सूत्र से उदात्त हो के आदि में दो उदात्त और चार वर्ण अनुदात्त रहते हैं इसी प्रकार । वृष ण. ख स्य मे ने । गौरा व स्क न्दिन् । अहल्या ये जार । कौशिक ब्राह्मण गौ त म. ब्र वा ण। इन सब में दोर आदि में उदात्त और सब वर्ण अनुदात्त रहते हैं । खस और सुत्या शब्द अन्तोदात्त हैं । खस् उदात्त शब्दसे पर सु अनुदान को खरित होके उदात्त हो जाता है इस प्रकार तीनों उदात्त रहते हैं । श्वः सुत्याम् । आगच्छ मघवन् । यहांभी उदात्त आकार से परे गकार अनुदात्त को स्वरित होके उदात्त होजाता है । मघवन शब्दआमंत्रित के होने से सब अनुदात्त होजाता है। यहां जितने पड़ों का व्याख्यान किया है वे सब सुब्रह्मण्या ऋचा के हो हैं । अब आगे एक अपूर्व बात लिखते हैं कि जो इस सूत्र से भी सिद्ध नहीं है ॥ १४ ॥
१५-वा०-सुत्यापराणामन्तः ॥ सुत्या शब्द जिन से परे हो उन को अन्तोदात्त हो । व्यहे सुत्याम् । त्यह सुत्याम् । यहां उद्यह, वह शब्दों को अन्तोदात्त होके उससे परे 'सु' अनुदात्त को स्वरित और स्वरित को उदात्त होजाता है । १५ ॥
१६-वा०-प्रसावित्यन्तः॥ वाका में जो प्रथमान्त पद है वह अन्तोदात्त हो । गाग्र्यो य ज ते । गाय शब्दप्रथम आद्युदात्त प्राप्त है उस का बाधक यह अन्तोदात्त होके उस उदात्त से पर यकार को स्वरित और स्वरित को इस से उदात्त हो जाता है और (यजते) क्रिया में अन्त्य के दो वर्ण अनुदात्त होजाते हैं ॥ १६ ॥
१७-वा०-अमुष्येत्यन्तः ॥ अमुष्य यह षष्ठी के एक वचन का संकेत है। जो षष्ठ्येकवचनान्त पद है वह अन्तोदात्त हो जैसे । दाक्षः पिता य ज ते । यहां दाक्षी शब्दषष्ठी का एक वचनहै उस इज प्रत्ययान्त को आद्युदात्तस्वर प्राप्त है उसको अन्तोदात्त होजा. ता है और पिता शब्द च प्रत्ययान्त होने से अन्तोदात्त ही है। अन्तोदात्त दाक्षिशब्द से परे 'पि' अनुदात्त को खरित होके उदात्त और अन्तोदात्त पिट शब्द से परे अनुदात्त यकार को स्वरित होकर उदात्त होजाता है। इस प्रकार मध्य में चार उदात्त तथा आदि में एक अन्त में दो अनुदात्त रहते हैं। जैसे दा ः पिता य ज ते ॥ १७ ॥
१८-वा०-स्यान्तस्योपोत्तमं चान्त्यश्च ॥ जहां षष्ठी का एकवचन स्यान्त हो वहां उपोत्तम अर्थात् ढतीय वा चतुर्थवर्ण
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सौवरः ॥
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उदात्त होता है और उस शब्द को भी अन्तोदात्त होजाता है । गार्ग्यस्य पित यजते । यहां तृतीय वर्ण ( स्य) और द्वितीय ( ग्य) को उदात्त और (पिता यजते. यहां पूर्ववत् उदात्त होता है । इसलिये पांचवर्ण मध्य में उदात्त और आदि में एक अन्त में दो अनुदात्त रहते हैं । जैसे । गार्ग्यस्य पिता य न ते । वात्स्यस पिता य ज ते १८
१९ - ० -त्रा नामधेयस्य ||
जो किसी के नामवाचौ स्यान्त षष्ठ्येकवचन में उपोत्तम तृतीय वर्ण आदि हैं वे विकल्प करके उदात्त होते हैं पक्ष में जैसा प्राप्त है वैसा बना रहता है। देवदशस्य पिता यजते । यहां दत्तस्य ये तीनों उदात्त और पिता यजते । यहां पूर्ववत् उदान्त होके मध्य में छः वर्ष उदात्त और आदि अन्त में दो २ अनुदात्त हो जाते हैं जैसे । देवदत्तस्य पिता य ज ते । यज्ञदत्तस्य पिता य ज ते । और पच में देवदत्त शब्द अन्तोदात्त है सो ज्यों का त्योंही बना रहता है और । पिता यजते यहां पूर्ववत् वरित को उदान्त होजाता है जैसे । देव दत्त स्य पिता य ज ते ॥ १८ ॥ २०- देवब्रह्मणोरनुदात्तः ॥ अ० ॥ १ । २ । ३८ ॥ भा०- देवब्रह्मणोरनुदात्तत्वमेके ॥
I
पूर्व सूत्र से सुब्रह्मण्या ऋचा में देव और ब्रह्मन् शब्द के स्वरित को उदात पाता है सो न हो किन्तु उस स्वरित को अनुदाप्त हो होजावे । भाष्यकार का अभिप्राय यह है कि जो देव और ब्रह्मन् शब्द को अनुदान्त कहते हो सो किन्हीं आचार्यों का मत है अर्थात् विकल्प करके होना चाहिये । देव और ब्रह्मन् शब्द आमंत्रित हैं इस से विशेष वचन आमंत्रित ब्रह्मन् शब्द के परे पूर्व आमंत्रित देव शब्द को विकल्प करके अविद्यमानवत् होने से पर आमंत्रित को जहां एक पक्ष में निघात नहीं होता वहां दोनों आमंत्रित को आयुदात्त होकर उदात्त से परे दूसरा २ वर्ण स्वरित होके उस को फिर इस सूत्र से अनुदान्त होजाता है जैसे । देवा ब्रह्माः । और दूसरे पक्ष में जहां पूर्व आमंत्रित को विद्यमान मानते हैं वहां पर आमंत्रित को निवात होकर पूर्व आमंत्रित को आयुदात्त हो 'जाता है पीछे 'दे' उदात्त से परे 'वा' अनुदात्त को खरित होके जिन के मत में अनुदात्त होता है वहां तो । देवा ब्रह्माण: । ऐसा प्रयोग, और जिन के मत में स्वरित को अनुदात्त नहीं होता वहां पूर्व सूत्र से स्वरित को उदान्त होकर । देवा ब्रह्मणः | ऐसा प्रयोग होता है । और जिन आचायों का ऐसा मत है कि देव और ब्रह्मन् शब्द समानाधिकरण सामान्यवचन हैं वहां येही दो प्रयोग होते हैं क्योंकि अविद्यमानवत् का निषेध होने से पर आमंत्रित को नित्य हो निघात होजाता है ॥ २० ॥
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१०
सौवरः ॥
२१ - स्वरितात्संहितायामनुदात्तानाम् ॥ अ० ॥ १ । २ । ३९ ॥ स्वरित से परे संहिता में एक दो और बहुत अनुदान्तों को भी पृथक् २ एकश्रुति स्वर होता है ॥
भा०- एकशेष निर्देशो ऽयम् । अनुदात्तस्य चानुदात्तयो
इचानुदात्तानामिति ॥
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भाष्यकार का अभिप्राय यह है कि जो इस सूत्र में बहुवचनान्त अनुदात्त शब्द पढ़ा है उस में एकशेष समझना चाहिये अर्थात् एक दो और बहुत अनुदातों को भी पृथक् २ कार्य होता है । जैसे । अग्निमो'ड़े पुरोहितम् । यहां 'मौ' स्वरित से परे एक 'डे' अनुदात्त को एक श्रुतिखर हुआ है । एकश्रुति का नियम यही है कि वरित से परे उस पर कोई चिन्ह नहीं होता (होतारं रन॒धात॑मम् ) यहां 'ता' स्वरित से परे दो रेफ अनुदान्त वर्णों को एकश्रुतिस्वर हुआ है तथा । इ॒मं मे' गङ्गे यमुने सरस्वति शुतुद्रि । यहां मे स्वरित वर्ण है उससे परे द्रि पर्यंत सब अनुदात्त हैं उन सब को एकश्रुतिखर इस सूत्र से हुआ है । संहिताग्रहण इसलिये हैकि । इमम् । मे । गङ्गे । यमुने । सरस्वति । शु तु द्रि । यहां पृथक् २ पदों का अवसान होने से एकश्रुतिखर न हुआ ॥ २१ ॥
२२- उदात्तस्वरितपरस्य सन्नतरः ॥ भ० ॥ १ । २ । ४० ॥
उदास और स्वरित जिस से परे हों उस अनुदात्त को एकश्रुतिस्वर न हो किन्तु सन्नतर अर्थात् अनुदात्ततर होजावे । पूर्व सूत्र से सामान्य विषय में एकश्रुतिखर प्राप्त है उस का इस सूत्र से विशेष विषय में निषेध किया है जैसे । पूर्वेभऋषिभिः | यहां ऋषिशव्द आयुदान्त के परे भिस् विभक्ति को कति स्वर प्राप्त है सो न हुआ । किन्तु उसको अनुदात्ततर होगया । तथा । मरुतः क' सुविता | यहां के शब्द स्वरित के परे 'त' अनुदात्त को खरित नहीं होता किन्तु अनुदात्ततर होजाता है ॥ २२ ॥
ง
२३- प्रद्युदात्तश्च ॥ भ० ॥ ३ । १ । २ ॥
धातुओं वा प्रातिपदिकेों से जितने प्रत्यय होते हैं उन सब के लिये यह उत्सर्गसूत्र है कि सब प्रत्यय आद्युदात्त हों । जो एकाचर के हो प्रत्यय हैं वे श्रयन्त वह्नाव से उदात्त होजाते हैं जैसे प्रियः । यहां एकाक्षर
क प्रत्यय किया है ।
:
aforan | यहाँ इकवक प्रत्यय आयुदात्त हुआ है । इस के अपवाद विषय में अन्य प्रत्ययस्वर विधायकसूत्र बहुत हैं उन में से थोड़े यहां भी आगे लिखे हैं ॥ २३ ॥
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सौवरः ॥
१५ २४-अनुदात्तौ सुप्पितौ ॥०॥३।१।३॥ जो सुप अर्थात् सु आदि कीस और पित् प्रत्यय हैं वे अनुदात्त हो जैसे । सो म सुतौ। सो मसुतः । यहां सुप् में औ तथा जस् अनुदात्त होके उदात्त से परे स्वरित होगये है। भवति । पचति । इत्यादि। यहाँ शप और तिप पित् प्रत्यय होने से अनुदात्त हुए हैं ॥ २४ ॥ __२५-अनुदात्तं पदमेकवर्जम् ॥ ० ॥ ६ । १ । १५८ ।।
स्वरप्रकरण में यह परिभाषासूत्र सर्वत्र प्रवृत्त होता है। जो दो वा अनेक कितने ही पदों का समास होताहै वह भी एक पद कहाता है । स्वरप्रकरण में जिस एक पद में उदात्त वा स्वरित जिस वर्ण को विधान करें उससे पृथक जि. तने वर्ण ही वे सब अनुदात्त हो जावें । इस बात का स्मरण सब स्वरप्रकरण में रखना चाहिये । इस सूत्र का प्रयोजन महाभाष्यकार दिखलाते हैं।
का०-प्रागमस्य विकारस्य प्रकृतेः प्रत्ययस्य च ।
पृथकस्वरनिवृत्त्यर्थमेकवर्ज पदस्वरः ॥ गोलार्थ । पागम, विकार, प्रकृति और प्रत्यय का पृथक स्वर न होने के लिये इस सूत्र का प्रारम्भ किया है । आगम जो टित कित् मित् चिन्ह के साथ अपूर्व उपजन होजाता है । उस का पृथक् स्वर हो नावे । जैसे । चत्वारः । अनडाहः । यहाँ चतुर और अनडुह शब्द को आम आगम हुआ है उसी का पृथक स्वर रहता और प्रकृतिस्वर को निवृत्ति हो जाती है। अर्थात प्रकृति
और पागम के दोनों स्वर एक पद में एक साथ नहीं रह सकते । विकार जो किसी वर्ण वा शब्द को आदेश हो जाता है। जैसे। प्रस्थना । दध्ना । अस्थनि । दधनि । यहां अस्थि और दधि शब्द प्रथम आद्युदात्त हैं पथात् तीयादि प्र. नादि विभक्तियों में इन को अनङ आदेश हो के प्रकृति और आदेश के दो स्वर प्राप्त हैं सा नहीं होते किन्सु प्रकृति स्वर को बाध के आदेश का उदात्त स्वर हो जाता है । प्रकति धातु वा प्रातिपदिक जिस से प्रत्यय उत्पन्न होते हैं जैसे । गो पायति । ५ पायति । यहां प्रकृतिस्वर गोपाय धूपाय धातु को अन्तोदात्त और प्रत्ययस्वर आय प्रत्यय को प्राद्युदात्त दो स्वर प्राप्त हैं सो न हो किन्तु प्रत्ययस्वर कोबाध के प्रतिस्वर हो जावे । प्रत्यय जो धातु वा प्रातिपदिक से परे वि. धान किया जाता है जैसे । कर्तव्यम् । ते त्तिरीयः । यहां वधातु और तित्तिरि प्रातिपदिक से तव्य और छ प्रत्यय हुआ है प्रकृति और प्रत्यय के दोनों खर प्राप्त हैं सो न हो किन्तु प्रति वरको बाधके प्रत्यय कापायदात्त स्वर हो आवे२५॥
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१२
सौवरः ॥
वा०-२६-ततिशिष्टस्वरबलीयस्त्वञ्च ॥ भा०-सत्येकस्मिन् स्वरे विशिष्टो दितीयःस्वरो बलवान् भवति॥
सतिशिष्ट वह कहाताहै कि एक स्वर के वर्तमान में द्वितीय विशेष विधान किया जावे वही बलवान् रहता है। प्रथम का स्वर निवृत्त हो जाता और पश्चात् वि. हितस्वर प्रधान रहता है।
- भा०-तच्चानेकप्रत्ययसमासार्थम् ॥ सतिशिष्ट का प्रयोजन यह है कि अनेक प्रत्यय और अनेक समासों में उत्तरोत्तर खर बलवान होते जावें । जैसे अनेक प्रत्यय । औ प गवः। यहां उपगु शब्द से अण हुआ है उसी का स्वर रहता है। प्रोपगव शब्द से त्व । औपगवत्वमा यहाँ स्वर का बाधक व प्रत्यय का स्वर । औपगवत्वमेव, श्री प ग व त्वकम । यहां त्व प्रत्यय के स्वर का बाधक क प्रत्यय का स्वर रहताहै तथा । पुरूणां राजा, पौर वः । यहां अण प्रत्यय का स्वर प्रकृतिस्वर का बाधक । पौरवस्यापत्यम् । ज । आद्यदात्त पौरविः । तस्य युवापत्य फक । अन्तोदात्त । पौ र वा यणः । पौरवाय. णानां समूह: वुज । आद्यदात्त । पौरंवायणकम । पौरवायणकानां छात्राः । पौर वा य णकीयाः । यहां छ प्रत्यय आधदात्त । पौरवायणकीयः प्रोझमधीयते तेपि, पौर वा य ण कीयाः ।अण का स्वर अन्त में रहता है। इसी प्रकार बहुत कुछ प्रत्ययमाला बन सकती है । अनेक समास । वीरथासौ राजा, बी र रा नः । टच -अन्तोदात्त । वीरराजस्य पुरुषो वोर रा ज पुरुषः । वीरराजपुरुषस्य पुत्रः, वीर राज पुरु ष पुत्रः । वीरराजपुरुषपुत्रः प्रधाना येषां ते, वो र गज पुरु ष पुत्र. प्रधानाः । यहां पूर्वपदप्रकृतिस्वर होता है । इसी प्रकार के इन से बहुत बड़े २ समास हो सकते हैं । और उनके स्वर भो तदनुकूल हो जावें गे ॥ २६ ॥
वा०-२७-विभक्तिस्वरान्नस्वरो बलीयान् ॥ विभक्तिस्वर से नवर बलवान होता है जैसे । न तिस्त्रः, अतिस्त्रः, यहां विभक्तिखर-नस विभति को उदात्त प्राप्त है उसका बाधक नस्वर पूर्वपदप्रकृति. भाव हो जाता है । २७॥
वा०-२८--विभक्तिनिमित्तस्वराञ्च नस्वरो बलीयानिति
वक्तव्यम् ॥ विभति जिस का निमित्त है उस को जो स्वर होता है उस को बाध के न . स्वर होना चाहिये । जैसे । अचत्वारः ।अननडाहः । यहां विभक्ति को मानकेजो पाम् पागम होता है उस का बाधक नञ् प्रकृतिस्वर हो जाता है ॥ २८ ॥
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सौवरः ॥
२९ - नित्यादिर्नित्यम् ॥ अ० ।। ६ । १ । १९७॥
चित् नित् प्रत्ययों के परे पूर्व प्रकृति को श्रद्युदान्तस्वर हो । यह सूत्र (२४) सूत्र का अपवाद है । और इस के अपवाद आगे कुछ लिखेंगे। उदाहरण । जित्घ्यञ्- ब्राह्मण्यम् । चातु' वण्यम् । त्रैलोक्यम् । यत्र - गार्ग्य: । शार्कल्यः । माध॑व्यः । बाभ्रव्यः । इत्यादि । ब्रञ् - दातिः । सौधातकिः । वैयासकिः । फिञ् - तैकायनिः 1 कैर्तवायनिः । इत्यादि । नित् । वुन् वासुदेवकः । अर्जुनकः । ठन् - वकिः । कन्-द्रव्यकः । इत्यादि शब्द आद्युदास हो जाते हैं ॥ २८ ॥
१३
३० - कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः ॥ अ० ।। ६ । १
। १५९ ॥
घञन्त कर्ष धातु और आकारवान् घञन्त शब्दों के अन्त में उदात्तवर हो । कर्षधातु के कहने से भ्वादिगण वाले का ग्रहण होता है । गुणनिषेध वाले तुदादि का ग्रहण नहीं होता। जैसे । कर्षः । त्यागः । रागः । दायः । धायः । पाकः । पाठः । इत्यादि । आकारवान् कहने से कर्ष को नहीं प्राप्त था इसलिये पृथक्ग्रहण किया है । आकारवान् ग्रहण इसलिये है कि । मन्थः । योगेः । यहां न हो ॥ ३० ॥
३१ - उञ्छादीनां च ॥ अ० ।। ६ । १ । १६० ॥
उच्छ आदि गणपठित शब्दों को अन्तोदात्त स्वर हो । जैसे । उञ्छः । म्लेच्छः । नञ्जः । जल्पः । इन चार घञन्त शब्दों में आयुदात्त प्राप्त था सो न हुआ। जपः । व्यधः । ये दो शब्द अप् प्रत्ययान्त हैं इन को भी आद्युदात्त स्वर प्रास था ॥
गणसूत्र - युगः कालविशेषे रथाद्युपकरणे च ॥ १ ॥
युग शब्द कालविशेष अर्थात् कलियुग द्वापरयुग इत्यादि वा पोढ़ौ तथा रथ आदि के उपकरण अर्थात् अवयव जुना आदि अर्थ में अन्तोदान्त होता है अन्यत्र नहीं व्हता । युगः । घञन्त होने से आद्युदात्त प्राप्त था
सू० - गरो दृष्ये ॥ २ ॥
दूध्य अर्थात् विष अर्थ में गर शब्द अन्तोदान्त हो । जैसे | गुरः । अन्यत्र आद्युदान्त रहेगा ।
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सू० - वेगवेदवेष्टबन्धाः करणे ॥ ३ ॥
>
करणकारक में प्रत्यय किया हो तो घञन्त वेग आदि चार शब्द अन्तोदात हौं । वियजते येन स, वेगः । वेत्ति येन स वेदः । वेष्टते येन स वेष्टः । बन्धाति येन स बन्धः । और भाव वा अधिकरण में प्रत्यय होगा तो आयुदात्त हो समर्भ नावेंगे ॥
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१४
सौवरः॥
सू०-स्तुयुद्रुवश्च छन्दसि ॥ ४ ॥ विवन्त स्तु आदि तीन धातुओं को अन्तोदात्तस्वर हो। जैसे । परिष्ट त् । संयुत् । परिद्रत् । यहां उपसर्गों को प्रतिभाव प्राप्त था।
स०-वर्तनिः स्तोत्रे॥५॥ जो स्तुतिप्रकरण में वर्तनि शब्द पढ़ा हो तो अन्तोदात्त स्वरहो जैसे। व निः । अन्यत्र अनि प्रत्यय आद्युदात्त होने से मध्योदात्त स्वर होगा । वत्त निः।
सू०-श्वभ्रे दरः ॥ ६ ॥ खभ्र अभिधेय हो तो दर शब्द अन्तोदात्त हो । जैसे। दरः । अन्यत्र आयुदात्त हो समझा जाता है जैसे । दरः ।।
सू०--साम्बतापौ भावगर्हायाम् ॥ भावगर्हा अर्थात् धात्वर्थ की निन्दा में साम्ब और तापशब्द अन्तोदात्त हो। जैसे । साम्बः । तापः । अन्यत्र । आद्युदात्त हो समझे जांव गे।
सू०-उत्तमशश्वत्तमौ सर्वत्र ॥ उत्तम और शश्वत्तम ये दोनों शब्द सामान्य अर्थों में अन्तोदात्त ही जैसे । उत्तमः । श एव तमः । तथा भक्षः । मन्थः । भोगः । देहः । इत्यादि॥३१॥
३२-अनुदात्तस्य च यत्रोदात्तलोपः॥०॥६।१।१६१॥ जिस अनुदात्त के परे उदात्त का लोप हो उस अनुदात्त को उदात्त हो। से। औप गव-ई। यहां ई अनुदात्त के परे अन्तोदात्त औपगव शब्द के अन्त्य वर्ण का लोप हो कर ईकार उदात्त हो जाता है। औप गवी। तथा । दाक्षायणी। माक्षा यणी । कुमारी।इत्यादि । अस्थन्, दधन शब्द दोनों अन्तोदात्त हैं तोया दि अजादि विभतियों में उपधा प्रकार का लोप हो कर । अस्था। दधा । अस्थ। दछ । इत्यादि । इसी प्रकार इस सूत्र का बहुत विषय है नहीं कहीं अनुदात्त के परे उदात्त का लोप हो वहां सर्वत्र इसी से उदात्त समझा नावे गा । यत्र ग्रहण इसलिये है कि । भार्गवः । भार्गवौ । भगवः । यहां न विभक्तिके आने से प्रथम हौ प्रत्यय का लुक होजाता है। उदात्तग्रहण इसलिये है कि जहां अनुदात्त के परे अनुदात्त हो का लोप हो वहां उदात्त न हो ॥ ३२ ॥
३३-धातोः ॥ ५० ॥ ६ । १ । १६२ ॥ * धातु को अन्तोदात्त स्वर हो । पर्चति । पठति । चि चौषति । तुष्टषति । अर्णोति । पा पच्यते' । जागत्ति' । गो पायति । इत्यादि इन में जितने अंश की धातु संज्ञा है उसी को अन्तोदात्त हुआ है । ३३॥
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सौवरः ॥
३४-चितः ॥ १० ॥६।१ । १६३॥ चित् अर्थात् चकार इत् हो के लोप जिस में हो उस समुदाय को अन्तोदात्त स्वर हो । प्रत्यय के पायदात्त स्वर का अपवाद यह सूत्र है । घुरच-भङ्गरः। भा सुरः । मे दुरः । कौण्डिन्य को कुण्डिनच् आदेश । क गिडनाः । अकचस वकः । उञ्चकः । नौ चकः । बहुच-बहु कतम् । बहु भुक्तम् । बहु पटु । इत्यादि ॥ ३४ ॥
३५-तद्वितस्य च ॥०॥६।१ । १६४ ॥ नो तद्धित संज्ञक चित प्रत्यय है वह अन्तोदात्त हो । जैसे । फज । को ना. यनः । भौजायनः । इत्यादि । पूर्व सूत्र में चित् के कहने से यहां भौ अन्तोदात होजाता फिर इस सूत्र का पृथक आरम्भ इसलिये किया है कि जहां दो अ नुबन्धों से दो स्वर प्राप्तही वहां भी चित् का स्वर अन्तोदात्त हो हो । जैसे फज प्रत्ययान्तों को हुआ ॥ ३५ ॥
३६-कितः ॥ १० ॥ ६ । १ । १६५॥ जो तहित संज्ञक कित् प्रत्यय है वह अन्तोदात्त हो जैसे ।फक-नाडा यनः। चारा यणः । दाक्षायणः । ठक -रे व तिकः । आ क्षिकः । को हा लकः । पारिधिकः ॥ ३६॥
३७--सावेकाचस्ततीयादिविभक्तिः॥०॥६।१।१६८॥
नो सु अर्थात् सप्तमी के बहुवचन में एकाच शब्द हो उस से परे नो टतो. यादि विभक्ति सो अन्तादात्त हो जैसे । वाचा । वाग्भ्याम् । वागभिः, वाचे, वाचः, त्वचे, त्वचः ।इत्यादि ।सु ग्रहण इसलिये है कि, राजा । राज। यहां नहो । एकाच ग्रहण इसलिये है कि । किरिणा । गिरिगा। यहां विभक्ति उदात्त न हो। हतीयादिग्रहण इसलिये है कि । वाचौ' । वाचः । यहां न हो। विभक्तिग्रहण इसलिये है कि । वाकतरा । यहाँ न हो । सप्तमी का बहुवचन सुसलिये लिया है कि । त्वया । यहां भौ विभक्ति उदात्त नहो । २७ ।
३८-शतुरनुमोनद्यजादी ॥ १०॥६। १ । १७३ ॥ नुमहित जी शटप्रत्ययान्त प्रातिपदिक उस से परे जो नदीसंज्ञक प्रत्यय और अनादि असर्वनामस्थान विभक्ति वह उदात्त हो । नदोसनक डोप । तु दतो। नु दती । लु नतो' इत्यादि अनादि असर्वनामस्थान विभते । ल नते। ल नतः । लु नतोः । लु नति । अनुम्ग्रहण इसलिये है कि । तुदन्तो'। नुदन्ती' इत्यादि में नदो उदासन हो । नद्यनादि ग्रहण इसलिये है कि तुदद् भ्याम् । तदभिः । यहां विभशि उदात्त नहो ॥ ३८ ॥
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CA
सौवरः ॥
३९ - वा० - नद्यजाद्युदात्तत्वे बृहन्महतोरुपसंख्यानम् ॥
जो बृहत् और महत् शब्द से परे नदी और अजादि श्रसर्वनामस्थान विभक्ति है वह उदास हो जैसे । बृहती । महतो । हता । हते । म हता । महते | इत्यादि पृषत् | आदि शब्दों को शट प्रत्ययान्त के सब काय होते हैं । फिर इस वार्त्तिक के कहने का प्रयोजन यह है कि पृषत् आदि सब शब्दों से परे नदी और अजादि विभक्ति उदात्त न हो किन्तु बृहत् और महत् से ही हो ॥ ३८ ॥ ४० - उदात्तयणो हल्पूर्वीत् ॥ अ० ।। ६ । १ । १७४ ॥ हत् वर्ण जिसके पूर्व हो ऐसा जो उदात्त के स्थान में ' यण् उस से परे जो नदीं संज्ञक प्रत्यय और अजादि असर्वनामस्थान विभक्ति सो उदान्त हो जैसे नदो - कर्त्री । हर्बो । कर्त्री । लवित्रौ । सवित्री । इत्यादि । यहां सर्वत्र टच् अन्तोदान्त के स्थान में या हुआ है । अनादि असर्वनामस्थान विभक्ति । कर्त्रा । क । त्रीः । लवित्रा । लवित्रे । लषत्रोः । इत्यादि । यहाँ उदा"तग्रहण इसलिये है कि । कर्त्री । हर्बो' । कर्त्री । हर्त्री । यहां तृनन्त शब्दों के आयु दात न होने से अनुदात्त के स्थान में य हुआ है । यहां हल् पूर्वग्रहण इसलिये है कि । ब॒ह॒ तित॒वा' । ब॒ह॒ तित॒वे' । यहां उदात्त के स्थान में बहुतितउ शब्द के उकार को यस् तो हुआ है परन्तु वह उदात्त केवल अच् था | फिर विभक्ति: को उदात्त का निषेध होके श्रष्टमिक सूत्र से स्वरित होता है ॥ ४ ॥
४१ - नकारग्रहणं च कर्त्तव्यम् ॥
जो नकारान्त से परे नदी संज्ञक प्रत्यय हो वह उदात्त हो । वाक् पत्नी । चित्ती । यहां उदात्त के स्थान में यण नहीं है ॥ ४१ ॥
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४२- ह्रस्वनुभ्यां मतुप् ॥ अ० ।। ६ । १ । १ ७६ ॥ .
जो स्वान्त अन्तोदात्त प्रातिपदिक और नुट् का आगम इन से परे जो मतुप् प्रत्यय होता वह उदात्त हो । पित् प्रत्यय के अनुदांत होने का यह अपवाद है । ख । अग्निमान् । वा यमान् । भानुमान् । कर्टमान् । इत्यादि । नुट् । । शीतः । मुन्वतौ ॥ ४२ ॥
४३ - वा० - मतुबुदात्तत्वे रे ग्रहणम् ॥
रे शब्द से परे जो मतुप् होतो वह भी उदात्त हो । श्रदे॒वाने 'तु नो विशः । यहां रेवान् शब्द में ह्रस्व के नहीं होने से नहीं प्राप्तथा ॥ ४३ ॥ ४४ - वा० - त्रिप्रतिषेधश्व ॥
त्रि शब्द से परे मतुप् उदान्त नहो । त्रिर्वतौः । यहां उदान्त महुआ ॥ ४४ ॥
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सौवरः ॥ १५-नामन्यतरस्याम् ॥ अ० ॥६।१।१७७॥ मतुप प्रत्यय के पो नो इख अङ्गा उस से परे षष्ठी का बहुवचन नाम विभक्ति होतो वह विकल्प करके उदात्त हो । जैसे । अग्नीनाम् । अग्नीनाम् । वा युनाम्। वायूनाम्। ति मृणाम्। तिहणाम्। च त मृणाम्। च तणाम् । यहां हत्व ग्रहण इस लिये है कि । कु मारोणम् । कि शोरोणाम् । इत्यादि में विभक्ति उदात्त न हो ॥ ४५ ॥
१६-ड्याश्छन्दसि बहुलम् ॥ अ० ॥ ६ । १ । १७८॥ जो बस से परे नाम होतो वह बहुल कर के उदात्त हो अर्थात् कहीं हो और कहीं न हो। देव से नाना म भि भ ल तीनाम् । यहां होगई तथा । नदोनों पार जयन्तीमा मरुतः । यहां विभक्ति उदात्त नहीं होती ॥ ४६॥
४७-तित्वरितम् ॥ अ० ॥ ६ ॥ १।१८५॥ जो तित् प्रत्यय है वह स्वरित हो । यह आद्यदात्तप्रत्ययवर का अपवाद है। यत्-चि कोयम् । जि होयम्। चि चौध्यम् । तु ष्ट्रध्यम्। ण्यत् - कार्यम् । हार्यम् । इत्यादि । ४७ ॥ ... ४८-तास्यनुदात्तेङिददुपदेशाल्ल सार्वधातुकमनुदात्त--
मह न्विङोः ॥ अ०॥६।१।१८६ ॥ तास् प्रत्यय, अनुदासेत् धातु, ङित् धातु, और अदुपदेश धातु इनसे पर जो सार्वधातुक संजक लकार के स्थान में तिप आदि प्रत्यय वे अनुदात्त हो परन्तु यह कार्य हनुङ और धातु को छोड़ के होवे क्योंकि ये दोनों ङित् हैं। जैसे तास. प्रत्यय-कर्ता । कर्तारौ' । कर्तारः । अनुदात्तत् । आस्ते । पासाते । पासते । जित् । शेते । सूते । दोधोते' । वेवोते । अदुपदेश,पठतः। पठन्ति । पर्चतः । पर्च fत तासि प्रादि से परे ग्रहण इसलिये है कि । स नुतः । सुन्वन्ति । यहाँ महो सार्वधातुक ग्रह प. इसलिये है कि । सुषुवे । स षुवाते' । यहां न हो और हना तथा इनका निषेध इसलिये है कि हनुते । अधोते । यहां अनुदात्त नहो ॥४८॥
१९--लिति ॥ अ० ॥६।१। १९३ ॥ लकार जिस का इत् गयाहो उस प्रत्यय से पूर्व उदात्त हो जैसे। चि कोषकः। जिदीक्षकः। यहां चिकीर्ष जिहोष धातु से गवुल हुप्राहे । भौ रि किविधम्। यहाँ
तक्षित का विधल प्रत्यय है। ऐषु कारिभताः । और यहां तड़ित का भताल प्रत्यय | हुआ है इत्यादि ।
५०--आमंत्रितस्य च ॥ प्र०॥६।१।१९८॥ बोप्रामंत्रित अर्थात् सम्बोधन में प्रथमाविभक त्यन्त शब्द है। उन को पाद्य.
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-१८
सौवरः ॥ दात्तस्वर हो जाता है जैसे । अग्ने । वायो । इन्द्र' । देवदत्त । देवदत्ती । देवदत्ताः। धनञ्जय । इत्यादि ॥ ५० ॥
__५१--यतोऽनावः ॥ अ० ॥६।१ । २१३ ॥
दो स्वर पाले यत् प्रत्ययान्त शब्दों को श्राद्युदात्तखर हो परन्तु नौ शब्द को छोड़ के । जैसे । देयम् । धेयम् । चेयम् । जेयम् । शरीरावयवाद्यत् । कण्ठयम्। ओष्ठ्यम् । अयम् । जिहव्यम् । इत्यादि (तित्वरितम्) इस पूर्व लिखितसूत्र से दव्यच् प्रातिपदिकों को भी स्वरित पाता से उस का अपवाद यह सूत्र है । व्यच ग्रहण इसलिये है कि । उ रस्यम् । ल लाव्यम् । ना सिक्यम् । यहाँ प्राद्युदात्त न हो।नो शब्द का निषेध इसलिये है कि। नाव्यम् । यहां भी पायुदात्त महो ॥५१॥
५२-समासस्य ॥ १०॥ ६ । १ । २२३ ॥ समास किये शब्दमात्र को अन्तोदात्तस्वर हो । अब समास के स्वर का थोड़ासा विषय लिखा जाता है। समास के स्वर का सामान्य मूत्र यह है। और यह सब समास के स्वर का उत्सर्ग सूत्र है आगे सब प्रकरण इसका अपवाद है । राज पुरुषः । ब्रा र ण क म्बलः । न दो घोषः । प ट ह शब्दः । वीर पुरुषः । प र मेश्वरः । इत्यादि ॥ ५२॥
५३-परिभा०-स्वरविधौ व्यंजनमविद्यमानवत् ।। उदात्तादि वर्ग के विधान में व्यंजनवणों को अविद्यमानवत् समझना चाहिये। जैसे । रा ज दृषत् । ब्राह्मण ममित् । यहां समासान्त हल वर्ण के होने से उस हल को उदात्त प्राप्त है उस का अविद्यमानवत् मान के उस से पूर्ववर्ण को उदात्त होजाता है। इसी प्रकार और भी बहुत से प्रयोजन हैं । अब समासस्वर का विशेष नियम कुछ लिखते हैं । ५३ ॥ ५४--बहुव्रीहौ प्रकृत्या पूर्वपदम् ॥ अ०॥ ६ । २।१॥
जो बहुव्रीहि समास में पूर्व पद का स्वर हो वह प्रकृति करके अर्थात् अन्तोदात्त नहो ज्यों का त्यों बना रहे । जेसे । स्थल'षती । हिरण्य बाहुः । ब्रह्मपारिप रिस्कन्दः । स्नातकपुत्रः । पण्डितपुत्रः । अध्यापकपुत्रः । इत्यादि ॥५४॥
५५--तत्पुरुषे तुल्यार्थतृतीयासप्तम्युपमानाव्यय-.
हितीयाकृत्याः ॥ अ०॥ ६ । २।२॥ तस्परुष समास में जो तुल्यार्थ, टतोयान्स, सप्तम्यन्त, उपमानवाचौ, अव्यय, हितीयान्त और अत्यप्रत्ययान्त पूर्वपद हो तो उस में प्रतिवर हो। जैसे।
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सौवरः ॥
१९
तुल्यार्थ-तल्यश्वेतः । तुल्यलोहितः । तुल्य॑महान् । सदृकश्खेतः । मदृग्लो हितः । यहां तुल्या) शब्दों के साथ कर्मधारयतत्परुष समास हुआहै। बतायातत्परुष शा लया खण्डः, शगुलाखण्डः । किरिकाणः । सप्तमीतत्पुरुष-अक्षशो'ण्डः । पार्न शौण्डः । उपमान वाची-घनश्यामः । तडिद्गौरी। शस्त्रीश्या'मा । कुमुदश्ये नौ । इत्यादि। अव्ययपर- ५५ ॥
५६-वा०-भव्यये नकुनिपातानाम् ।। अव्यय के कहने से सामान्य अव्यय का ग्रहण न हो इसलिये इस वार्तिक से परिगणन किया है कि अव्ययों में नज, कु और निपातों को ही पूर्वपदप्रवतिखर हो। जैसे । मञ्-अब्राह्मणः । अशलः । कु-कुब्राह्मणः । कुछ 'मलः । निपात-निष्को गाम्बिः । निर्वा राणसिः । परिगणन इसलियेहै कि । ना त्या कालकः । पो त्वा स्थि रकः। यहां पूर्वपदाकतिखरन हो। द्वितीयान्त-मुहत्तसुखम्। मु इतरमणीयम् । स व रात्रक ल्याणी । स व रात्रशोभना । यहाँ अत्यन्तसंयोग में हितीया का समास है । कत्यान्त-भोज्यञ्च तदुषणंच भोज्यो'णम् । भोज्य लवणम् । पानीयंगीतम् । हरणीयचूर्णम् । इत्यादि । ५६ ॥
५७--गतिरनन्तरः ॥ अ० ॥ ६ । २ । ४९ ॥ जो कर्मवाची तान्त उत्तरपद पर और अनन्तर अर्थात् समीप गति हो तो प्रकृतिस्वर हो जेसे । प्रतः । प्रहतः । इत्यादि । अनन्तरग्रहण इसलिये है कि । अभ्यु इतम् । उ प स मा हृतम् । इत्यादि में पूर्वपदपक तिस्वर न हो । कर्मवार्च का ग्रहण इसलिये है कि । प्रकृतः कटं देवदत्तः । यहां कर्नामें ता प्रत्यय है एस. लिये नहीं होता यह पूर्वपदप्रकृतिस्वर पूरा हुआ अब पूर्वपद आधुदात्त आदि प्रकरण कुछ २ लिखेंगे । ५७ ॥
५८--आदिरुदात्तः॥ १० ॥६।२।६४॥ पूर्वपद प्राद्युदात्त होने के लिये यह अधिकार सूत्रहे ॥ ५८ ॥
५९-णिनि ॥ अ० ॥ ६ । २ । ७९ ॥ . गिनि प्रत्ययान्त उत्तरपद परे होतो पूर्वपद आधुदात्त हो जैसे । उष्ण भोगी। शीतभोजी । स्थण्डिलगायो । पण्डितमानी । सोमयाजी । कुमारघाती । शीर्ष'पा. तो । फलहारी । पर्णहारी । इत्यादि ॥ ५८ ॥
६०-अन्तः ॥ अ०॥६।२। ९२ ॥ पूर्वपद अन्तोदात्तप्रकरण में यह अधिकार सूत्र है । ६० ॥
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सौवरः॥
६१-सर्व गुणकात्स्न्ये । अ०॥६ । २ । ९३ ।।
जो गुणों की संपूर्णता अर्थ में वर्तमान पूर्वपद सर्व शब्द हो तो वह अन्तो. दात्त हो । जैसे । सर्वश्वतः । सर्वकष्णः । मर्वलोहितः । सर्वहरितः । सर्व श्यामः । सर्वसारङ्गः । सर्वकल्माषः । सर्वमहान् । इत्यादि । ६१ ॥
६२-उतरपदादिः । अ० ॥६।२।१११ ॥ उत्तरपदाद्युदात्तप्रकरण में यह अधिकार सूत्र है । ६२. ६३-अकर्मधारये राज्यम् ॥ १०॥६।२।१३०॥
कर्मधारय समास से भिन्न तत्पुरुष समास में जो राज्य उत्तरपद होतो वह पायदात्त हो जैसे । बाह्य णराज्यम्। क्षत्रियराज्यम्। य व नराज्यम् । कुरुराज्यम्। इत्यादि अब उत्तरपद तथा उभयपद प्रकृतिस्वर के विषय में कुछ लिखते हैं ॥ ६॥
६४-गतिकारकोपपदात्कृत् ॥ अ० ॥ ६ । २ । १३९ ॥ ___ जो तत्पुरुषसमास में गति, कार और उपपद से परे बदन्त उत्तरपद हो तो वह प्रकृतिस्वर हो जैसे । गति-प्रकारकः । प्रहारंकः । प्रकरणम् । प्रहरणम् । कारक-इध्म प्रवचनः । पला शशातनः । श्म शुकल्पनः । उपपद-ई पत्करः। दष्करः । सुकरः । गतिकारकोपपदग्रहण इसलिये है कि । देवदत्तस्य कारको दवदत्तकारकः । यहां नहो ॥ ६४. . । ६५-उभे वनस्पत्यादिषु युगपत् ।। अ०॥ ६ । २ । १४०॥ . वनस्पति आदि समास किये हुये शब्दों में पूर्वपद उत्तरपद दोनों एककात 'में प्रकतिस्वर हो । वनस्पतिः । यहां वन और पति दोन शब्द आधदात है। पति शब्द को समास में सुट् होजाता है । सहस्पतिः । यहां भी सुट हुआ है। शचीपतिः । तनूनपात् । न राशंसः । स नःशेषः । गडामों' । कृष्णावरूत्री। बम्बा विश्व यसौ । म मृत्युः ॥ ६ ॥
६६--देवताइन्हे च ॥ १०॥ ६ । २ । १४१॥ देवतावाची शब्दों के इन्द्वसमास में एककाल में दोनों शब्द प्रकृतिस्वर हो । इन्द्रासोमौ' । इन्द्रावरुणौ । इन्द्राब हस्पती'। द्यावाट धिव्यो' । सोमा रुद्रौ । इन्द्रापूषणो । शुक्रा मन्यिनो' । इत्यादि ॥ ६ ॥
६७. अन्तः ॥ अ०॥६।२ । ११३॥ उत्तरपद अन्तोदात्त प्रकरण में यह अधिकार सूत्र है । ६ ॥
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सौवरः ॥
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६८--थाथवक्ताजबित्रकाणाम् ॥ १० ॥ ६ । २ । १४४ ।।
गति, कारक और उपपद से परे जो थ, अथ, घ, ता, अच,अप, इन और करतने प्रत्ययान्त शब्द उत्तरपद उन को अन्तोदात्तस्वरहा। जैसे । थ-मु. नोथः । अव भृथः । अथ- आ व सधः । उ प व सथः । धन । प्र मेदः । काठ. भेदः । र ज्य छदः । ता-दुरा दा गतः । वि शुष्कः । प्रा त प शुष्कः । अच्. प्र पयः । विनयः । विजयः । आश्रयः । व्य त्ययः । अन्वयः । इत्यादि । अप-प्र लवः । प्रसवः। इत्र-प्रसवित्रम् । प्रसवित्रम् ।क- गोदः । कम्बलदः ।
शंस्थः। ए हस्थः । वनस्थः । इत्यादि । अब इस के पागे अनुदात्त का प्रकरण संप से लिखते हैं। ६८ ।
६९--पदात् ॥ ३०॥८।१ । १७॥ यह अधिकार सूत्र है यहां से आगे पद से परे कार्य होगा ॥ ६ ॥
७०-पदस्य ॥ १०॥८।१।१६ ॥ यह भी अधिकार सूत्र है । यहां से आगे जो कार्य कहेंगे वह पदके स्थानमें समझा जावेगा ।। ७०॥
७१-अनुदात्तं सर्वमपादादौ ॥ १०॥ ८।१।१८॥
यह भी अधिकार सूत्र है । अपादादि अर्थात् जो पाद को आदि में न हो किन्तु मध्य वा अन्त में हो तो पद से परे सब पद अनुदात्त हो । यह अधिकार चोगा। ७१ ।।
७२- आमंत्रितस्य च ॥ १०॥८।। १९॥ नो पद से परे अपादादि में वर्तमान आमंत्रित पद हो तो वह सब अनु. दात्त हावे । जैसे-पठसि देवदत्त । होसि देवदत्त । आमंत्रित पद को पो. ता ( ५० ) सूत्र से प्रायुदात्त प्राप्त था इसलिये यह विधान है ॥ ७२ ॥ ७३-परिभाषा-मामंत्रितं पूर्वमविद्यमानवत्॥०॥८।१७२॥
पद से परे जिस पद को अनुदात्त आदि विधान करते हैं उस से पर्व जो आमंत्रित हो तो उस को अविद्यमानवत् समझना चाहिये । अर्थात् पर्व कुछ नहीं है ऐसा माना जावे जसे। देवदत्त यद त । यहां यजदत्त शब्द को पद से परे निघात नहीं हुआ । तथा । देवदत्त पचसि । यहाँ अविद्यमानवत् होने से क्रिया को निधात नहीं होता । तथा । देवदत्ततव या मरवम् । देव'दर मम ग्रामस्वम् । यहां पद से परे ते, मे, आदेश नहीं होते । इत्यादि ॥७३॥
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२२
सौवरः॥
७४-नामंत्रिते समानाधिकरणे सामान्यवचनम् ॥
___ अ०॥८।१।७३॥ सामान्यवचन समानाधिकरण आमंत्रित पद पर होतो पूर्व जो प्रामंत्रित. पद है वह अविद्यमानवत न हो जैसे । अग्ने वतपते । अग्ने ग्रहपते । पूर्थिवि देवयजनि । अर्थात पद से परे निघात आदि कार्य हो जाव । समानाधिकरण ग्रहण इसलिये है कि पूर्व सूत्र के विषय में यह सूत्र न लगे । सामान्यवधनग्रहण का प्रयोजन यह है कि अन्य देवि सरस्वति ईई का व्ये विहव्ये' । यहां पर्यायवाची शब्दों में न हो । ७४ ॥ ७५--विभाषितं विशेषवचने बहुवचनम् ॥ ५० ॥ ८।१।७४॥
विशेषवचन सामानाधिकरण आमंत्रित पद परे हो तो पूर्व जो आमंत्रितपद है वह विकल्प करके अविद्यमानवत हो । जैसे । देवा ब्रह्माणः । देवा' ब्रह्माणः । ब्राह्मणा वैयाकरणाः । ब्राह्मणा वैयाकरणाः । यहां अविद्यमानवत् पक्ष में दोनों पद के स्वर और विद्यमानवत् पक्ष में उत्तरपद निघात हो जाता है । इत्यादि। विशेषवचनग्रहण इसलिये है कि । माणव क जटि लक । यहां विकल्प न हो।७५॥ ७६ --युष्मदस्मदोःषष्ठीचतुर्थीहितीयास्थयोर्वान्नावौ ॥
अ०॥८।१।२०॥ षष्ठी चतुर्थों और द्वितीया विभक्ति के सह वर्तमान अपादादि में पद से परे जो युष्मद् अस्मद् पद उन को क्रम से वाम् और नौ आदेश हों और वे सब अनु. दात्त हों। जैसे षष्ठीस्थ-ग्रामो वां स्वम् ! जन पदो नौ स्वम् । चतुर्थीस्थ । ग्रामोवां दीयते। न न पदो नौदीयते । द्वितीयास्थ-मा ण वको वां पश्यति । मा ण वको नौ' पश्यति । इत्यादि । इस सूत्र में स्थग्रहण इसलिये है कि । दृष्टो मया युष्मत्पुत्रः । यहां षष्ठी का लुक् होजाने से आदेश और अनुदात्त नहीं होता ॥ ७ ॥
७७-बहुवचनस्य वस्नसौ ॥ अ०॥८।१।२१॥
षष्ठी, चतुर्थी और हितीया विभक्ति के सह वर्तमान अपादादि में पद से पर बहुवचनान्त जो युष्मद् अस्मद् पद उन को क्रम से वस् और मस् प्रादेश हों तथा वेसब अनुदात्त हो। जैसे । नमो वः पितरः । नमो वो देवाः । मा ना. बधीः ।मा नो गो षु मा नो अश्वेषु रीरिषः । शत्र': इत्यादि ॥ ७॥ .. ७८-तेमयावेकवचनस्य ॥ अ०॥८।१।२२॥ अपादादि में वर्तमान पद से परे जो एकवचनान्त युष्मद् अस्मद् पद उम को
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सौवरः ॥ ते, मे, प्रादेश हो और वे सब अनुदात्त हों जैसे। गुरुस्ते' पण्डितः । गुरुमें'पfण्डतः । देहि मे ददामि ते । इत्यादि । ७८ ॥
७९--वामौ द्वितीयायाः ॥ अ०॥८।१ । २३ ॥ पद से परे अपादादि में वर्तमान हितीयेकवचनान्त जो युष्मद् अस्मद् पद उन को त्वा,मा, आदेश हो और वे सब प्रायुदात्त हो । जैसे । कस्त्वा युन ति स वा युनक्ति । पुनन्तु मा । इत्यादि ॥ ७ ॥
८०-तिङतिङः ॥ १०॥ ८।१।२८ ॥ जो अपादादि में प्रतिङन्त पद से परे तिङन्त पद होतो वह सब अनुदात्त हो जावे जैसे । त्वं पंचसि । अहं पठामि । स गति । तौ गलतः । इत्यादि । यहां तिङ ग्रहण इसलिये है कि । शुक्ल वस्त्रम् । यहां नहीं होता। अतिङ्ग्रहण इसलिये है कि । पठति । पचंति । यहां न हो। ८०॥
८१-यावद्यथाभ्याम् ॥ अ०॥८।१ । ३६ ॥ जो यावत् और यथा से युक्त तिङन्त पद हो तो वह अनुदात्त न हो । या. वटु भुङ त । यथा भुक्त। याव दधीते । यथाऽधीते । दे व दत्तः पति यावत् । दे व दत्तः पचति यथा । इत्यादि । ८१ ॥
८२-यत्तान्नित्यम् ॥ प्र०॥८।१।६६ ॥ जो यत् शब्द के प्रयोग से युक्त तिङन्त पद होतो वह अनुदात्त न हो । जैसे यो मुखौ । यं भोजयति । ये न भुत । इत्यादि ॥ २ ॥
___८३-गतिर्गतौ ॥ अ०॥८।१।७० ॥ जो गति से परे पूर्व गति हो तो वह निवात हो जाती है जैसे । अभ्युचरति । स मदानयति। उ प सं व्यान यति । उ पसंहरति । अभ्यवहरति । इत्यादि । ८३॥ ८४-उदात्तस्वरितयोर्यणः स्वरितोनुदात्तस्य ।। म०॥ ८॥२॥४॥
जो उदात्त और स्वरित के स्थान में यण उस से परे अनुदात्त हो तो उस को स्वरित हो जावे जसे। सुप्वा । यहां सुपू शब्द अन्तोदात्त और विभक्ति अनुदात्त है उस को स्वरित हो जाता है। नीचे नो- यह वक्र चिन्ह होता है वह भी स्व. रित हो का चिन्ह है । इसी प्रकार । पृथिव्यसि । यहां पृथिवी शब्द अन्तोदात्त है । उस से परे प्रकार अनुदास को स्वरित हो जाता है । स्वरित यण -सवाल वि.
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आशा | खलप्वि-आमा । यहाँ सकलवि खलप्पि सप्तम्यन्त स्वरितान्त शब्द है उन के यण से परे आकार अनुदात्त को स्वरित हो जाता है जैसे । स क व्यागा। रख लपव्याशा । इत्यादि ॥ ८४ ॥
८५-एकादेश उदात्तेनोदात्तः ॥०॥८।२।५॥ उदात्त के साथ जो अनुदाप्त का एकादेश है वह भी उदात्त ही हो नाता है। जैसे । अग्नी। वायू । यहाँ अग्नि वायु शब्द अन्तोदात्त हैं। उन का अनु.
दात्त विभक्ति के साथ एकादेश हुआहै । इसी प्रकार। वृक्षः । लक्षः। इत्यादि।८५॥ . ८६-स्वरितो वाऽनुदात्ते पदादौ । अ० ॥ ८।२। ६ ॥
नो उदात्त के साथ एकादेश है वह पदादि अनुदात्त के परे विकल्प करके 'खरित हो पक्ष में उदात्त हो । सु उत्थितः । सूतिय तः । सूस्थितः। वि-ईक्षतेवो क्षते । वौक्षते । इत्यादि ८६ ॥ इति श्रीमदयानन्दसरस्वतीनिर्मितः सौवरो ग्रन्थः समाप्तः ॥
संवत् १९३९ भाद्रशुक्ल १३ चन्द्रवार ॥
ART
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वेदाङप्रकाश: ॥
तवत्यः।
दशम मागः।
पारिभाषिकः। पाणिनिमुनिप्रणीतायामष्टाध्याय्यां नवमो भागः । श्रीमत्स्वामिदयानन्दसरस्वतीकृतव्याख्यासहितः । पठनपाठनव्यवस्थायां हादशं पुस्तकम् ।
यज्ञदत्तशमी शास्त्री के प्रबन्ध से वैदिक यन्त्रालय
अजमेर में मुद्रित हुया।
इस पुस्तक के छापने का अधिकार किसी को नहीं है।
क्योंकि - इस की रजिस्टरी कराई गई है ॥
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संवत् १६४८ पौष शकला १० दितीयबार २००० पुस्तक छपे
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॥ भूमिका॥
संज्ञापरिभाषाविधिनिषेधनियमातिदेशाधिकाराख्यानिसप्सविधानि सूत्राणि भवन्ति । सम्यग् जानीयुर्यया सा संज्ञा; यथा (वृद्धिरादेच ) इत्यादि । परितः सर्वतो भाष्यन्ते नियमा याभिस्ताःपारिभाषाः; यथा (इको गुणवृद्धी) इत्यादि । यो विधीयते स विधिविधानं वा; यथा (सिचि वृद्धिः परस्मैपदेषु) इत्यादि। निषिध्यन्ते निवार्यन्ते कार्याणि यैस्ते निषेधाः; यथा (न धातलोप आर्द्धधातु के)इत्यादि । नियम्यन्ते निश्चीयन्ते प्रयोगा यैस्ते नियमाः; यथा (अनुदात्तङित आत्मनेपदम्) इत्यादि । अतिदिश्यन्ते तुल्यतया विधीयन्ते कार्याणि यैस्तेऽतिदेशाः; यथा ( आद्यन्तवदेकस्मिन्) इत्यादि । अधिक्रियन्ते पदार्था यैस्तेऽधिकाराः; यथा ( कारके ) इत्यादि । एषां सप्तविधानां सूत्राणां मध्याद्यतोऽयं परिभाषाणां व्याख्यानो ग्रन्थोऽस्ति तस्मात्पारिभाषिको वेदितव्यः ॥
सूत्र सात प्रकार के होते हैं ( संज्ञा, परिभाषा, विधि, निषेध, अतिदेश, | अधिकार ) अच्छे प्रकार जिस से जानें वह संज्ञा कहाती है जैसे ( वृद्धिरादैच ) इत्यादि । निन से सब प्रकार नियमों को स्थिरता की जाय वे परिभाषा सूत्र कहाते हैं जैसे ( दूको गुणवृद्धी ) इत्यादि। जो विधान किया जाय बा जो विधान है वह विधि कहाता है जैसे (सिचि वृद्धिः परम्मैपदेषु ) इत्यादि । निषेध उस को कहते हैं कि जिस से कार्यों का निवारण किया जाय जैसे (न धातुलोप आईधातुके ) इत्यादि । नियम उनको कहते हैं कि जिन से प्रयोगों का निश्चय किया जाय जैसे ( अनुदात्तङित श्रात्मनेपदम् ) इत्यादि । जिस से किसी की तुल्यता लेकर कार्य कहें वह अतिदेश कहाता है जैसे ( आद्यन्तवदेकसिन ) वृत्यादि । और जिन से पदार्थों को विशेष अनुवृत्ति हो उन को अधिकार कहते हैं जैसे ( कारके ) इत्यादि । दून सात प्रकार के सूत्रों में से जिसलिये यह परिभाषाओं का व्याख्यानरूप ग्रन्थ है इसलिये इस का नाम पारिभाषिक रक्खा है
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॥ भमिका ॥
इन परिभाषाओं में से जो अष्टाध्यायीस्थ परिभाषासूत्र हैं वे संधिविषय में व्याख्यापूर्वक लिख दिये हैं यहां केवल महाभाष्यस्थ परिभाषासूत्रों का व्याख्या. न है। परिभाषाओं का मुख्य तात्पर्य यही है कि दोषों का निवारण करके व्यव. स्था कर देना । इसीलिये इस ग्रन्थ को बनाया है कि व्याकरण के सन्धि आदि प्रकरणों में जो २ संदेह पड़ते हैं वे इन परिभाषाओं के पठन पाठन से अवश्य निवृत्त हुआ करेंगे । इत्यादि अनेक प्रयोजन हैं। और इस में मूल परिभाषा के आगे जो संख्या. पड़ी है वह अष्टाध्यायो के सूत्र की है उस सूत्र को व्याख्या में महाभाष्य में वह परिभाषा लिखी है । और परिभाषा के पहिये जो संख्या है वह इस ग्रन्थ को है।
इति भूमिका
स्थान महाराणा जी का उदयपुर । आश्विन शुक्ल संवत् १८३८
दयानन्द सरस्वती
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ओ३म्
अथ पारिभाषिकः ।
परितो व्याप्तां भाषां पारिभाषां प्रचक्षते । सब ओर से वैदिक लौकिक और शास्त्रीय व्यवहार के साथ जिस का सम्बन्ध रहे अधात उक्त तीनों प्रकार का व्यवहार जिस से सिद्ध हो उस को परिभाषा कहते हैं। इस पारिभाषिक ग्रन्थ में प्रथम परिभाषा को भूमिका लिख कर आगे लक्ष्य अर्थात् उदाहरण लिख के पुनः मूल परिभाषा लिखेंगे । और उस के आगे उस का स्पष्ट व्याखान करेंगे । अब प्रथम पाणिनीय व्याकरण अष्टाध्यायी के प्रत्या. हारसूत्रों में (अण, लण ) इन दो सूत्रों में लोप होने वाला हल णकार पढ़ा है इस णकार से (अण) और (वण ) दो प्रत्याहार बनते हैं। सो जिन सूत्रों में अण पूण प्रत्याहारों से काम लिया जाता है वहां सन्देह पड़ता है कि किन २ सत्रों में पर्व और बिन में पर णकार से (अण् ) तथा(इश् )प्रत्याहार माने इस सन्देह की निवृत्ति के लिये यह परिभाषा है ।
१-व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिर्नहि सन्देहादलक्षणम् ॥
लण सूत्र पर।
जिस सूत्र वा वात्तिक आदि में सन्देह हो वहां व्याख्यान से विशेष बात का निश्चय कर लेना चाहिये किन्तु सन्देहमात्र के होने से सूत्र आदि ही को अन्यथा न जान लेवें । जहां पृथक २ देखे हुए दो पदार्थों के समान अनेक विरुद्ध धर्म एक में दीख पड़ें और उपलब्धि अनुपलबधि को अव्यवस्था हो अर्थात् जो पदार्य है और जो नहीं है दोनों की उपलब्धि और दोनों को अनुपलब्धि होती है कौकि पदाथा के साधारण धर्म को लेकर सन्देह होता है उन में से जब विशेष अर्थात किसी एक को निश्चय हो जाता है तब सन्देह नहीं रहता जिन सूत्र
आदि में सन्देह पड़ता है, वहां उन में छ: प्रकार का व्याख्यान करना चाहिये पदच्छेद, पदार्थ, अन्षय, भावार्थ, पूर्वपक्ष-शङ्का, उत्तरपक्ष-समाधान इन छ: प्रकार के व्याख्यानों से संदेही की निवृत्ति कर लेनी चाहिये ( प्रश्न ) जैसे प्रथम (ढलोपे.
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॥ पारिभाषिकः ॥ पूर्वस्य दोघाऽणः ) इस सूत्र में (अण) प्रत्याहार पूर्व कार से लेना वा पर से यह संदेह है ( उत्सर ) इस में निस्संदेह पूर्व णकार से लेना चाहिये क्योंकि जो पर णकार से लिया जाये तो इस सूत्र में ( अग) का ग्रहण करना व्यर्थ है क्योंकि (अचथ) इस सूत्र से हव दीर्घ प्लत अच हो के स्थान में होते हैं इस से (अच को उपस्थिति होहो जाती फिर (अण) ग्रहण का यही प्रयोजन है कि इत्यादि सूत्रों में पूर्व णकार हो से लिया जावे ( प्रश्न) और (अणदित्सवर्णस्य चाप्रत्ययः )इस चुत्र में (अण) प्रत्याहार पूर्व णकार से वा पर णकार से लेना चाहिये (उ०)निस्संदेह परणकार से (अण) प्रत्याहार का ग्रहण है क्योंकि (उऋत्) इससूत्र में ऋकार तपर इसीलिये पढ़ा है कि ( अचीकृतत् ) इत्यादि प्रयोगों में ऋकार को हस्व ऋकार हो आदेश हो अर्थात् सवर्णग्रहण ( अणुदित्. ) परिभाषा सूत्र से हस्व का सब। ी दीर्घन हो जावे । जो पूर्व णकार से अण ग्रहण होता तो पूर्व अण में ऋकार के होने से ऋकार को सवर्ण ग्रहण प्राप्त ही नहीं फिर तपर क्यों पढ़ते । इस से स्पष्ट हुआ कि ( अणदित्० ) इस सूत्र में पर णकार से और इसी एक सूत्र को छोड़ के अन्यत्र सब सूत्रों में पूर्व णकार से अण् ग्रहण है (प्र०) और (इग कोः) इत्यादि जिनर सूत्रों में इण त्याहार पढ़ा है,वहार पूर्व वा पर णकार से ग्रहण करना चाहिये (उ०) यहां सर्वत्र निस्सन्देह पर णकार से इंण समझना चाहिये
क्योंकि पूर्व से इण प्रत्याहार में(इ, उ) दो ही वर्ण आते हैं सेा नहीं बन दो वा | से कार्य लिया है वहां (वोः) ऐसा इ उ को विभक्ति के साथ सन्धि करके पढ़ा है | यहां पढ़ते तो कुछ गौरव नहीं था किन्तु आधी मात्रा का लाघव हो या फिर दूण प्रत्याहार के न पढ़ने से निश्चय हुआ कि सर्वत्र पर णकार से चूण प्रत्याहार लिया जाता है । अन्यत्र भी जहां कहीं शिष्ट वचन में सन्देह पड़े वहां व्याख्यान से विशेष करके सत्य विषय का निश्चय कर लेना चाहिये किन्तु उस वचन को व्यर्थ जान के नहीं छोड़ देना चाहिये और सन्दिग्ध लौकिक व्यवहारों का भी विशेष व्याख्यान से निर्णय किया जाता है ॥१॥
___ (सार्वधातुकाईधातुकयोः) यह गुणकार्य होने का काल है यहां(अलोन्त्यस्य,
को गुणग्रही) उन दो परिभाषाओं को विधिसूत्र के साथ परिभाषाबुद्धि से एकवाक्यता हो इस लिये कार्यकाल परिभाषापक्ष, और जब ( हयवरट, हल) यहां दो हकारों का उपदेश इत्यादि विषयों में सन्देह पड़े तब उस विषय के साथ सामान्य विषयकबुद्धि से परिभाषारूप व्याख्या की एकवाक्यता हो । सलिये यबोहेश पक्ष है । इस से ये दोनों परिभाषा की गई हैं।
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पारिभाषिकः ।
२-कार्यकालं संज्ञापरिभाषम् ॥ ३-यथोद्देशं संज्ञापरिभाषम् ॥ १० ॥ १ । १ । १५ ॥ (कार्यस्य कालः कार्यकालः कार्यकालः कालोऽस्य तत् कार्यकालम, संज्ञा च परिभाषाच तत्संज्ञापरिभाषम्, उद्देशमनतिक्रम्य यथोद्देशम ) संज्ञा और परिभाषा कासमय वही है जो कार्य करने का काल होता है उसी समय उन को उपस्थिति होती है । जैसे दीपक एक स्थान पर रक्खा हुआ सब घर को प्रकाशित करता है वैसे परिभाषा भी एकदेश में स्थित हो कर सब शास्त्र के विषयों को प्रकाशित करती है इस में प्रमाण (परिभाषा पुनरेकदेशस्था सती कत्स्नं शास्त्रमभिज्वलयति प्रदीपवत्, यथा प्रदीपःसुप्रज्वलितःसवेश्माभिज्वलयति ) महाभाष्य० २।१।१॥ और यथोद्देश पक्ष से प्रयोजन यह है कि जिस विषय पर जिस परिभाषा का उच्चारण किया हो वह उस का उल्लंघन न करे अर्थात् उस विषय के अनुकूल उस की प्रवृत्ति होवे । दून दोनों पक्षों में भेद यह है कि कालपक्ष को परिभाषा किसी को दृष्टि में असिद्ध नहीं मानी जाती । और यथोद्देश पक्ष को परिभाषा असिद्ध प्रकरण में नहीं लगती ॥ २ ॥ ३ ॥
(दाधाघवदाप ) दूस सूत्र में अदाप कहने से दाप लवने धातु का निषेध हो सकता है फिर देप गोधने धातु को घुसंज्ञा हो जावे तो(अवदातं मुखम् यहां अमिष्ट दत् आदेश प्राप्त है इसीलिये दैप धातु की संज्ञा इष्ट नहीं है इत्यादि प्रयोजनों के लिये यह परिभाषा की गई है ॥
४-अनेकान्ता अनुबन्धाः ॥ अ० ॥ १।१ । २०॥ प, ञ,ङ,क इत्यादि अनुबन्ध जिन धातु आदि के साथ युक्त होते हैं उन के . एकान्त अर्थात् अवयव नहीं किन्तु वे अनुबन्ध उन धातु आदि से पृथक हैं। इस से यह सिबहुआ कि“दैप धातु को एजन्त मान करआकारादेश किये पीछे दाप मानकर इसी घुसंज्ञा का निषेध होता है उसी से (अवदातं मुखम् यहां दोष नहीं आता॥४॥ ___ अब (अनेकाल शिसर्वस्य) इस सूत्र से (अनेकाल) और (शित्) आदेश संपूर्णके स्थान में होते हैं (इदम इश, अष्टाभ्य और यहां (इंश) औरोश भी शकार के सहित अनेकाल हैं फिर अनुबन्ध! * के एकान्तपक्ष में शित ग्रहण ज्ञापक है इस से यह परिभाषा निकली।
* अमुबन्धा में एकान्त और अनेकान्त दोने पक्ष माने जाते हैं से। अनेकान्त पक्ष में परिमाषा का प्रयोजन दिखा दिया और एकान्तपन इसलिये मानते हैं कि अनेकान्त पक्ष में क जिस का इस गया ही वह कित् नहीं हो सकता क्योकि कित् शब्द में बहुव्रीहि समास से अन्य पदार्थ प्रत्यय के साथ ककार अनुब
का मुख्य सम्बन्ध नहीं घटता और एकान्त पक्ष में घट जाता है और अनेकान्त पक्ष में शकार अनुबन्ध से शित् अनेकाल नहीं हो सकता फिर एकान्तपक्ष के लिये ही अगली ५/६ । ७ तोनां परिभाषा हैं |
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पारिभाषिकः ।
५-नानुबन्धकतमनेकालत्वम् ॥०॥ १।१ । ५५ ॥ अनुबन्ध के सहित जो अनेकाल हो उसको अनेकाल नहीं मानना किन्तु जो अनुबन्धरहित अनेकाल हो वही अनेकाल कहाता है इस से यह पाया कि (श) आदि आदेश शित होने से अनेकाल नहीं होते तो (शिव) आदेश सार्थक होकर स्वार्थ में इस परिभाषा का चरितार्थ होगया और अन्यत्र कल यहहै कि जो अवन शब्द का अर्वण स्त्रसावनञः)इस सूत्रसे (ट)आदेश कहाहै उस केाकारअनुबन्ध. के सहित अनेकाल मान लेतो सर्वादेश अनिष्ट प्राप्त हो अन्त्य को इष्ट है अनुबन्ध कत अनेकाल न होने से सर्वादेश नहीं होता इत्यादि अनेकप्रयोजन हैं।
अब इस पांचवीं परिभाषा के एकान्तपक्ष में होने से दप धातु के पकार का लोप प्रथम होगया क्योंकि लोपविधि सब से बलवान है। लोप किये पीछे आकारादेश करने से ( अदाप) इस से घुसंज्ञा का निषेध नहीं हो सकता। और किसी प्रकार पकार का लोप प्रथम न करें तो अनुबन्धों के एकान्तपक्ष में देप धातु एजन्त नहीं पुनः आकारादेश नहीं प्राप्त है तो (अवदातं मुखम् ) यहां घुसंज्ञा होनी चाहिये इसलिये ज्ञापकसिच यह परिभाषा है ।
६-नानुबन्धकतमनेजन्तत्वम् ॥५०॥ ३ । ४ । १९ ॥
___अनुबंध के होने से एजन्तपन को हानि नहीं होतो (उदीचा माङो०) इस सूत्र में ( मेङ) धातु का मानिर्देश नहीं करते तो व्यतिहारग्रहण भी नहीं करने पड़ता क्योंकि मेधातु का व्यतिहार अर्थ ही है फिर उदीचां मेड: इतने छोटे मूत्र से सब काम निकल नाता तो बड़ा सूत्र करने से यह आया कि अनुबन्ध के बने रहते हो आकारादेश हो जाता है कि जैसे मेङका माङ बम गया अर्थात् अनुबन्ध के होने से भी एमन्तत्व की हानि नहीं होती। जैसे कि मेड में (ङ) अनुबन्ध के बने रहतेही एच निमित्त आकारादेश होगया इससेयह परिभाषा स्वार्थमें चरितार्थ हुई और अन्यत्र फल यह है कि दैपधातु कोभीअनुबन्ध के वर्तमान समय ही में एजन्त मान कर आकारादेश होजाताहै फिर अदात निषेध के प्रवृत्त होने से घुसंज्ञा का प्रतिषध होकर अवदातं मुखम् प्रयोगसिद्ध होताहै ॥६॥
अब अनुबन्धों के एकान्तपक्ष में यह भी दोष आता है कि (अण ) और (क ) प्रत्यय में ( ण,क् ) अनुबन्धों के लगे होने से भिन्नरूप वाले समझे नावें फिर सरूप प्रत्यय नित्य बाधक होते हैं अर्थात् अपवाद विषय में उत्सर्ग | को प्रवृत्ति नहीं होती यह बात नहीं बनेगी इस से ( गोदः, कम्बलदः ) यहां
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॥ पारिभाषिकः । | (अण् ) का अपवाद ( क ) प्रत्यय हो जाता है इस अपवाद के विषय में उत्सर्ग अण् भी होना चाहिये इसलिये ज्ञापकसिद्ध यह परिभाषा है ।
७-नानुबन्धकतमसारूप्यम् ॥ अ० ॥३।१ । १३९॥
जिन में अनुबन्धमात्र का भेद हो, वे भिवरूपवाले असरूप नहीं कहाते । (ददातिदधात्याविभाषा) इस सूत्र में विभाषा ग्रहण इसलिये है कि (श ) प्रत्यय के पक्ष में आकारान्त से विहित उत्सग रूप (ण) प्रत्यय भौ होजावे और (अणु, क) प्रत्यय के समान (ण, श, प्रत्यय भी अनुबन्ध से असरूप और अनुबन्ध रहित सरूप ही है फिर असरूप प्रत्ययों में ता ( वाऽसरूपोऽस्त्रियाम् ) इस परिभाषा सूत्र से उत्सर्गापवाद विकल्प होहो जाता फिर विभाषाग्रहण व्यर्थ होकर यह जनाता हे अनुबन्धमात्रभेद के होने से असारूप्य नहीं होता अधात् ( ण, श) प्रत्यय असरूप नहीं है कि जो (वाऽसरूप०) परिभाषा से विभाषा होजावे इस से विभाषा ग्रहण स्वार्थ में चरितार्थ और अन्यत्र फल यह है कि सौ से ( गोदः, कम्बलदः) यहां (क) अपवाद के विषय में (अण) उतसग भी नहीं होता।। ___ अब संज्ञा दो प्रकार को होती है एक तो नो वाच्यवाचक संकेत से किन्हीं विशेष प्रयोजनों के लिये किसी का कुछ नाम रख लेना उस को कृत्रिमसंज्ञा कहा ते हैं और जो प्रकृति प्रत्यय के योग से यौगिक अर्थ होता है उस को अकत्रिम संज्ञा कहते हैं । सो लौकिक व्यवहारी में तो यही रीति है कि जहां कृत्रिम और अकृत्रिम दोनों संज्ञाओं का सम्भव हो वहां कृत्रिम संज्ञा ली जावे अकत्रिम नहीं। यथा ( केनचिदुक्तं गोपालकमानयेति ) जैसे किसी ने कहा कि गोपालक को लेा एक तो यहां गोपालक किसी निज मनुष्य का नाम है । और दूसरा जो कोई गौत्रों का पालन करे उसको गोपाल कहते हैं तो यह अर्थ किसी निज के साथ नहीं है । फिर इस कृत्रिमसंज्ञा वाले निज गोपालक का हौ ग्रहण होता है ऐसे अब व्याकरण में जहाँ कृत्रिम अकृत्रिम दोनों संज्ञाओं का सम्भव है जैसे धातु, प्रातिपदिक, बहुव्रीहि, तत्पुरुष, वृद्धि, गुण, सवर्ण, सम्प्रसारण, नदी इत्यादि शब्दों में कृत्रिम संज्ञा का ग्रहण हो वा अलत्रिम का इसलिये यह परिभाषा है।
-कृत्रिमाकृत्रिमयोःकत्रिमे कार्यसम्प्रत्ययः॥०॥११॥२३॥
नहां कृत्रिम और प्रकृत्रिम दोनों संज्ञाओं में कार्य होना सम्भव हो वहां क. त्रिम संज्ञा में कार्य होना निश्चित रहे अतविममें नहीं इस से व्याकरणमें भी धात आदि कत्रिम संज्ञाओं से कार्य लेने चाहिये सुवर्ण आदि धातु संज्ञक से नहीं।
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८
|| पारिभाषिकः ॥
अब इस कृत्रिम परिभाषा के होने से दोष श्राते हैं कि जहां कृत्रिमसंज्ञा के लेने से कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होता जैसे ( कर्त्तरि कर्मव्यतिहारे ) इस सूत्र में जो कृत्रिम कर्मसंज्ञा का ग्रहण होवे तेा ( देवदत्तस्य धान्यं व्यर्तालुनन्ति ) यहां कर्त्ता को ईप्सिततम धान्य कर्म के होने से आत्मनेपद होना चाहिये वह यहां इष्ट नहीं है इसलिये यह परिभाषा है |
९ – उभयगतिरिह भवति ॥ अ० ॥। १ । १ । २३ ॥
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इस व्याकरण शास्त्र में दोनों प्रकार का बोध होता है अर्थात् कहीं कलिम और कहीं कृत्रिम का भी ग्रहण होता है जैसे (कर्मणि द्वितीया) यहाँ कत्रिम कर्मसंज्ञा और (कर्त्तरि कर्मव्यतिहारे) कृषीवला व्यतिलुनते। यहां अकृत्रिम क्रियारूप कर्म का गहण है इसलिये ( देवदत्तस्य धान्यं व्यतिलुनन्ति ) यहां अकृत्रिम कर्म के होने से (आत्मनेपद) नहीं होता तथा ( कर्तृकरण्यास्वतीया ) देवदत्तेन ग्रामो गम्यते, रथेन गच्छति । यहां कृत्रिम करणसंज्ञा और ( शब्दवेर कलहा. भ्रकण्वमेघेभ्यः करणे) शब्दं करोति शब्दायते । यहां अकृत्रिम करणसंज्ञा लौजाती है इत्यादि अनेक प्रयोजन हैं ॥ ८ ॥
( श्रव्यता, शयिता ) इत्यादि प्रयोगों में बुङ और शीङ धातु को गुणनिषेध होना चाहिये क्योंकि अनुबन्धों के एकान्तपक्ष में दोनों धातु ङित है और अनेकान्तपच में अनुबन्ध पृथक् भी हैं इस में गुणनिषेध कार्य और इगन्त कार्यो है ॥
१० - कार्यमनुभवन् हि कार्य निमित्तत्वेननाश्रीयते ॥
कार्य करते हुए कार्यो का निमित्तपन से आश्रय नहीं किया जाता है अर्थात् जिसके श्राश्रय से कार्य होता हो वही उसका निमित्त कार्यो नहीं होता है जैसे
निषेध का निमित्त ङित् इगन्त नहीं कि जो वह ङित् इगन्त गुणनिषेध का निमित्त गन्त कार्यों होता तो अवश्य गुण का निषेध हो जाता ( स्वरिडला च्कयितरि०) इस सूत्र में (शोङ) धातुको गुणपठनज्ञापक सेयह परिभाषा निकली है । तथा सन्नन्त यङन्त को कहा दिवऊणु धातु के नुभाग कोहोजाता है क्योंकिसन का निमित ऊणु धातु हे ( ऊनविषति' ऊर्णा नुविषति ) इत्यादि ॥ १० ॥ (प्रणिदापयति, प्रणिधापयति ) इत्यादिप्रयोगों में (दा, धा) रूप को कही हुई संज्ञा पुगन्त (दाप, धाप,) को न प्राप्त होने से संज्ञक धातुओं के परे (प्र) उपसर्गसे उत्तर नि के नकार कोणत्व नहोना चाहिये इसलिये यह परिभाषा की गई है |
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पारिभाषिकः । ११-अर्थवत आगमस्तद्गुणीभूतोऽर्थवग्रहणेन गृह्यते* ॥ अ. १।१ । २० ॥
जो अर्थवान् प्रकृति आदि को टित् कित् और मित् आगम होते हैं वे उन्हीं प्रकृति आदि के स्वरूपभूत होने से उन्हीं के ग्रहण से ग्रहण किये जाते हैं अर्थात वे पुक आदि आगम प्रकति आदि से पृथक स्वतन्त्र नहीं समझे जाते इस से(प्रणिदापयति आदि में पुगन्त को भी घुसज्ञा के होजाने से णत्व आदि कार्य होजाते हैं तथा ( सर्वेषाम् ) इत्यादि प्रयोगों में भी सुडादि आगमों के तद्गुणीभूत होने से साम्)को भलादि सुप मानकर एकारादेश होहोजाता है इसी प्रकार लोक में भी किसी प्राणी का कोई अङ्ग अधिक होजावे तो वह उसी के ग्रहण से ग्रहण किया जाता है ॥ ११ ॥
अब ( पादः पत्) इस मूत्र से जो पाद शब्द को (पत) आदेश कहा है यहां तदन्तविधि परिभाषा के आश्रय से द्विपात्, त्रिपात्) शब्दों काभी भसंज्ञा में (पत) आदेग होता है उस पत् आदेश के अनेकाल होने से द्विपात् त्रिपात् संपूर्ण के स्थान में प्राप्त है सो जो संपूर्ण के स्थान में हो तो ( हिपदः पश्य, त्रिपदः पश्य ) इत्यादि प्रयोग न बन सकें इसलिये यह परिभाषा कही है। १२-निर्दिश्यमानस्यादेशा भवन्ति ॥ अ० ६ । ४ । १३० ॥
षष्ठी विभक्ति से दिखाये हुए स्थानो के स्थान में प्राप्त जो प्रथमानिर्दिष्ट आदेश वह निर्दिश्यमान अर्थात् सूत्रकार वा वार्तिकार ने जितने स्थानी का निर्देश किया हो उसी के स्थान में हो अर्थात् तदन्तविधि से जो पूर्व पद वा अन्य उसके सदृश कोई आजावे तो उस सब के स्थान में न हो। दूस से द्विपात् शब्दमें पादमात्र को पत् आदेश हो जाता है (दि,त्रि) आदि बच जाते हैं इसौ से( विपदः पश्य ) इत्यादि प्रयोग बन जाते हैं ॥ १२ ॥ ___ अब ( चेता, स्तोता )इन प्रयोगों में (स्थानेऽन्तरतमः)इस सूत्र से प्रमाणात
आन्तयं माने तो इस कार उकारके स्थान में अकार गुण प्राप्त है इससे अभीष्ट प्रयोगों को सिद्धि नहीं होती इसलिये यह परिभाषा को है।
* जो नागेश और भट्टी जिदीक्षित आदि नवीन लोग इस परिभाषा की(यदागमासादगुणीभूतास्त रोहणेन गृह्यन्ते ) इस प्रकार की लिखते मामते और व्याख्यान भी करते हैं सा यह पा. महाभाष्य से विरुद्धमा हाभाष्य में यह परिभाषा ऐसौ कहीं नहीं लिखो इसलिये इन लोगों का प्रमाद है।
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१०
॥ पारिभाषिकः
१३ - यत्रानेकविधमान्तर्य तत्र स्थानत एवान्तर्यं बलीयः ॥ अ०
१।१।५० ॥
जहाँ अनेक प्रकार का अर्थात् स्थानकत, अर्थकृत, गुणकृत और प्रमाणकत यह चार प्रकार का आन्तर्य प्राप्त हो वहां जो स्थान से आन्तर्य है वही बलवा होता है इस से प्रमाणक्कत आन्तर्य्यके हट जाने से स्थानकत आन्तर्य के आश्रय से एकार ओकार गुण होकर ( चेता, स्तोता ) प्रयोग बन जाते हैं स्थानकात आदिके . विशेष उदाहरण सन्धिविषय में लिख चुके हैं ॥ १३ ॥
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( संख्याया श्रतिदन्तया: कन् ) यहां ति और शत् जिस के अन्त में हो उस से कन् प्रत्यय का निषेध किया है । सो ( कतिभिः क्रीतम्, कतिकम् ) यहां भीत्यन्त से निषेध होना चाहिये और कन् प्रत्यय तो इष्ट हो है इसलिये यह परिभाषा है |
१४ - अर्थवद्ग्रहणे नानर्थकस्य ॥ श्र० ५ । १ । २२ ॥
अर्थवान् के ग्रहण होने में अनर्थक शब्दों का ग्रहण नहीं होता इससे अर्थवान् (ति) शब्द के ग्रहण में निरर्थक उतिप्रत्ययान्त के ति का ग्रहण नहीं होता इस से(कतिकम्)यहां कन् का निषेध नहीं हुआ । इसी प्रकार प्रशब्द से ऊढ़ के परे
कही है सो (X ऊढवान् = प्रोटवान् ) यहां जेढ़ शब्द निरर्थक है इसलिये afs नहीं होती इत्यादि अनेक प्रयोजन हैं ॥ ४ ॥
अव अर्थवदुग्रहणपरिभाषा के होने से भी ( श्रमहान् महान् संपत्री महद्भूतचन्द्रमाः ) इस प्रयोग में महत् शब्द का आकारादेश होना चाहिये और आत्वके होने से अनिष्टसिद्धि प्राप्त है इसलिये यह परिभाषा है ॥
१५ - गौमुख्ययोर्मुख्ये कार्य संप्रत्ययः ॥ अ० ६ । ३ । ४६ ॥
जो गुणों से प्राप्त होवे वह ( गौण और जो गुणी से प्राप्त होवे वह (मुख्य) कहाता है उस गौण से प्राप्त और मुख्य दोने। में एककाल में एककार्य प्राप्त होतो मुख्य में कार्य होवे और गौण में नहीं इससे (महदभूतश्चन्द्रमाः) यहां आकारादेश नहीं होता क्योंकि यहाँ महत् शब्द अभूततद्भाव अर्थ में मुख्य और चन्द्रमा के साथ समानाधिकरण में गौण विशेषण है इसी प्रकार ( अगोः, गौः संपद्यत, गोभवत् ) यहां प्रत्ययान्त गो शब्द निपातसंज्ञक है परन्तु मुख्य श्रोकारान्त निपात नहीं इसलिये (श्रत्) सूत्र से प्रगृह्यसंज्ञा नहीं होती इत्यादि अनेक प्रयोजन हैं ॥ १५ ॥
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११
। पारिभाषिकः । अर्थवान के ग्रहण में अनर्थक का ग्रहण नहीं होता यह कह चुके हैं सो ( राज्ञा) राजन शब्द में कनिन् प्रत्यय का अन् अथवान् है इसलिये अन्नन्त के अकार का लोपहोना ठीक है और ( साना ) यहां सामन् शब्द में मनिन् प्रत्यय का मन् अर्थवान् और अन् अनर्थक है इस समाधान के लिये यह परिभाषा है ।
१६-अनिनस्मन्ग्रहणान्यर्थवता चानर्थकेन च तदन्तविधि प्रयोजयन्ति ॥ ०१ । १।७२ ॥ ___ अन्,इन् ,अस्, मन ये जिन सूत्रामें ग्रहण हैं वहाँ अर्थवान् और अनर्थक दोनों से तदन्तविधि होता है । अन् में तो अर्थवान और अनर्थक दोनों के उदाहरण दे दिये । इन्दण्डौ) यहां इनि प्रत्यय के अर्थवान् वन्त को दीर्घ और वाग्मी) यहां अर्थवान् ( असन् ) प्रत्यय के अस् को दीर्घ और ( पीतवाः ) यहां पीत पूर्वक ( वस ) धातु से किप हुआ है सो वस में अनर्थक अस को दीर्घ होता है। मन् (सुष्टुशर्म यस्याः सा सुशम्मी) यहां ता अर्थवान् मन्वन्त से ङोप का निषेध है और( सप्रथिमा) यहां मनिच प्रत्यय का मन अयवान और मन भाग निरर्थक को भी डीप का निषेध होता ही है ॥ १६ ॥ ___ और भागे एक परिभाषा लिखेंगे कि समीपस्थ का विधान वा निषेध होताहै इस में यह दोष आता है कि जैसे (लिङ सिचावात्मनेपदेषु) इस सूत्र को अनुवृत्ति । उच्च ) इस में आती है । सो जो समीपस्थ के विधि निषेध का नियम है तो
आत्मनेपद को अनुवृत्ति पानी चाहिये क्योंकि आमनेपद को अपेक्षा में (लिङ, मिच दर हैं और (लिङ, सिच) को अनुवृत्ति के विना कार्यसिद्धि नहीं हो सकती इसलिये यह वक्ष्यमाण परिभाषा है। १७-एकयोगनिर्दिष्टानां सह वा प्रवृत्तिः सह वा निवृत्तिः ।।
नोक सत्र में निर्देश किये पद हैं उन को अन्य सूत्रों में एकसाथ प्रवृत्ति और एकसाथ नित्ति हो जाती है इस से ( उपच )सूत्र में लिङ सिच को भी अनुत्ति आ जाती है। इसी प्रकार अन्यत्र बहुत स्थलों के सूत्र वालिकों में यह रोति दीख पड़ती है कि जेसे कहीं दो पदों की अनुवृत्ति आती है उन में से जब एक को छोड़ना होता है तब द्वितीय पद को फिर के पढ़ते हैं तो यही प्रयोजन है कि उन दोनों पदों को अनुवत्ति एक साथ ही चलती है उस में से एक को छोड़ के दूसरे पद को अनुवृत्ति नहीं जा सकतौ ॥ १७॥ . .
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१२
॥ पारिभाषिक: ।
अब इस पूर्व परिभाषाके होने में यह दोष है कि ( अलगुत्तरपदे ) इस सब सूत्र का अधिकार चलता है उस में अलुक अधिकार तो आनङ विधान से पूर्व २ हो रहता है फिर उत्तर पदाधिकार पाद पर्यन्त क्यों जावे इसलिये यह परिभाषा है।
१८-एकयोगनिर्दिष्टानामप्येकदेशानुवत्तिर्भवति ॥ अ० ४।१।२७॥
एक सूत्र में पृथक पठित पदी में से भी कही एकदेश को अनुप्ति होती है इस से उत्तरपदाधिकार कापादपर्यन्त जाना सिद्ध हो गया। तथा ( दामहाय. नान्ताच्च ) यहां पूर्वसूत्र से संख्या को अनुहत्ति आती है और अव्यय को नहीं और ( पक्षात्तिः) इस सूत्र में पूर्व सूत्र से मूल शब्द को अनुत्ति आ जाती है पाक को नहीं आती इत्यादि ॥ १८ ॥
(आणदित्सवर्णस्य चाप्रत्ययः ) यहां प्रत्ययग्रहण से सवर्ण का निषेध किया है इस का यही प्रयोजन है कि (सनाशंसभिक्ष उ:) दयादि में उ आदिप्रत्यय अपने सवर्णोदी आदि के ग्राहक न हो सो जब स्त्री प्रत्यय को छोड़ के अन्यदीर्घ प्रत्यय से किसी अर्थ को प्रतीति ही नहीं होती तो दीर्घप्रत्यय नहीं होसकता इसलिये प्रत्ययग्रहण के व्यर्थ होने से यह ज्ञापक होता है कि इस सूत्र में यौगिक प्रत्यय का निषेध है ( प्रतीयते विधीयते भाव्यतेऽनेनाऽसौ प्रत्ययः, न प्रत्ययोऽप्रत्ययः) इसी व्याख्यान से यह परिभाषा निकली है।
१९-भाव्यमानेन सवर्णानां ग्रहणन्न ॥अ० १।१ । ६९ ॥
जो विधान किया जाता है उस से सवर्णी का ग्रहण नहीं होता जैसे ( त्यदा. टोनामः) यहां अकार का विधान किया है उस से दोघं सवर्णों का ग्रहण नहीं होता और(ज्यादादीयसः)यहाँ ईयरुन् प्रत्यय के ईकार को आकारादेश न कहते किन्तु अकार कहते तो सवर्ण ग्रहण से दोघ हो ही जाता फिर निश्चित हुआ कि यहां भी पूर्ववत् भाव्यमान अकार सवर्णग्राही नहीं हो सकता इसलिये दीर्घ कहा इत्यादि
यटि भाव्यमान से सवर्णी का ग्रहण नहीं होता तो (दिव रत,ऋत उत्)वून सूत्रों में भाव्यमान उकार को तपर करना व्यर्थ है । क्योंकि तपर करने का यही प्रयोजन है कि कार तत्काल का ग्राहक हो अपने सवर्णी का ग्रहण न करे फिर (अणुदित्०) परिभाषा से सवर्णग्रहण तो प्राप्त ही नहीं उकार तपरक्या पढ़ा इस | लिये यह परिभाषा है।
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। पारिभाषिकः ।
Mai
c
२०-भवत्युकारेण भाव्यमानेन सवर्णानां ग्रहणम्।। अ०६ । १ । १८५॥ भाव्यमान उकार से सवर्णी का ग्रहण होता है इस से पूर्वात उकार में तपर सार्थक हुआ और अन्यत्र फल यह है कि अदसेोऽसेर्दादुदोमः)यहांभाव्यमान हस्त्र उकार सवर्णी का ग्राही होता है तभी ( अमूभ्याम् ) आदि में दीर्घ अकारादेश हुआ ॥२०॥
( गवहितं,गोहितम् ) यहां समास में चतुर्येकवचन प्रत्यय का लक् किये पोछे (प्रत्ययलोपे०) सूत्र से प्रत्यय लक्षण कार्य माने ता (गो) शब्द के प्रोकार को अवादेश प्राप्त है इसलिये यह परिभाषा है ।
kastasia-..-...-.
२१--वर्णाश्रये नास्ति प्रत्ययलक्षणम् ॥
वर्ण के आश्रय से जो कार्य कर्तव्य हो तो प्रत्ययलक्षण न हो अर्थात् उस प्रत्यय को मान के वह कार्य न होवे इसलिये अच् को मान के अवादेश नहीं. होता इत्यादि ॥ २१॥
(अतःककमिकस० ) इस सूत्र में कंस शब्द का पाठ व्यर्थ है कोंकि उणादि में कमेः सः) उस सूत्र से कम् धातु का कंस शब्द बना है कम् धातु के सामान्य प्रयोगों के ग्रहण में कंस शब्द का भी ग्रहण होजाता फिर कंस शब्द क्यों पढ़ा इसलिये यह परिभाषा है। २२-उपादयोऽव्युत्पन्नानि प्रातिपदिकानि ॥१० १।१।६१॥
उणादि प्रातिपदिक अव्युत्पन्न अर्थात् उन का सर्वत्र प्रकृति, प्रत्यय, कारक आदि से यौगिक यथार्थ अर्थ नहीं लगता अर्थात् उणादि शब्द बहुधा रूढ़ि होते हैं इसलिये ( अतः ककमिकंस० ) सूत्र में कंस ग्रहण सार्थक है। इसी प्रकार (प्रत्ययस्य लुक्०) इस सूत्र से (परशव्य) शब्द का लुक् कहा हुआ उकार प्रत्यय होने से भी अव्यत्पत्रपक्ष मान के परशु शब्द के उकार का लुक नहीं होता। इत्यादि अनेक प्रयोजन हैं ॥ २२ ॥
( देवदत्तथिकोर्षति ) इत्यादि प्रयोगों में देवदत्त आदि शब्दों को सन्नन्त के धातुसंज्ञा आदि कार्य प्राप्त हैं सेा को नहीं होते ।जो देवदत्त के सहित सब वाक्य को धातुसंज्ञा होजावे तो ( सुपो धातु०) इस सूत्र से जो देवदत्त के आगे विभक्ति है उस का लुक प्राप्त होवे इसलिये यह परिभाषा है।
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१४
॥ पारिभाषिकः ॥
२३ - प्रत्ययग्रहणे यस्मात्स प्रत्ययो विहितस्तदादेस्तदन्तस्य च
ग्रहणं भवति ॥
१। ४ । १३॥
जिस से जो प्रत्यय विधान किया हो वह जिस के आदि वा अन्त में हो उसी का ग्रहण हो और जो उस वाक्य में प्रत्यय विधि से पद पृथक हो उस का सामान्य कार्यों में ग्रहण न हो। इस से सनन्तको धातुसंज्ञा में देवदत्त का ग्रहण न हुआ ता विभक्ति का लुक् भो बचगया इसी प्रकार ( देवदन्ती गार्ग्यः ) यहां समुदाय को प्रातिपदिक संज्ञा हो तो मध्य विभक्तिका लुक् हो जावे तथा (ऋस्य राज्ञः पुरुषः) इस समुदाय को समाससंज्ञा हो तो मध्य विभक्तियों का लुक् प्राप्त हो इत्यादि इस परिभाषा के अनेक प्रयोजन हैं ॥ २३ ॥
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(ये विधिस्तदन्तस्य ) इस परिभाषा सूत्र से (दृषतीर्णा, परिषतीर्णा ) इत्यादि प्रयोगों में (रदाभ्यां निष्ठातो नः पूर्वस्य च दः) इस सूत्र से दृषदु परिषद् दकारान्त शब्दों से परे धातु के तकारको अनिष्ट नकारादेश प्राप्त है इसलिये यह परिभाषा है |
२४ - प्रत्ययग्रहणे चापञ्चम्याः ॥ अ० १ । १ । ७२ ।।
जिन सूत्रों में प्रत्ययग्रहण से कार्य होते हैं वहां पञ्चम्यन्त से परे वह कार्य हो अर्थात् पंचयत से परे प्रत्ययग्रहण में तदन्तविधि न होवे इस से (परिषतोर्णा) आदि में धातु के तकार को नकार आदेश नहीं होता इत्यादि ॥ २४ ॥ कुमारीगौरितरा । इत्यादि प्रयोगों में तदन्त विधि मानें तो कुमारी शब्द को भी स्व प्राप्त है इसलिये यह परिभाषा है ॥
२५- उत्तरपदाधिकारे प्रत्ययग्रहणे रूपग्रहणं द्रष्टव्यम् ॥ प्र० ६ । ३ । ५० ।।
(अलुगुत्तरपदे) जो षष्ठाऽध्याय के तृतीय पाद में प्रत्ययनिमित्त कार्य है वहां स्वरूप का ग्रहण होना चाहिये अर्थात् तदन्तविधि न हो इस से (कुमारी गौरितरा ) यहां कुमारी शब्द को हख नहीं होता और रूपग्रहण से यह भी प्रयोजन है कि (हृदयस्य हृल्लेखयद एलासेषु) जो इस सूत्र में ( २३ ) वीं परिभाषा के अनुकूल (यत्) और (अण्) प्रत्यय जिस से विहित हों उस उत्तरपद के परे पूर्व को कार्य होजावे से इष्ट नहीं है। क्योंकि जो तदन्तविधि होता केवल हृदय शब्द से (हृद्यम्, हार्दम्) प्रयोग नहीं बनें इस में लेख ग्रहण ज्ञापक है कि अणन्त उत्तरपद का ग्रहण होतेा लेख शब्द ( अ ) प्रत्ययान्त पृथग् ग्रहण व्यर्थ है । इस से यह निश्चित हुआ कि इस उत्तरपदाधिकार के प्रत्ययाश्रितकार्यविधायक सूत्रों में तदन्तविधि नहीं होती ॥ २५ ॥
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पारिभाषिकः । (प्रत्ययग्रहणे०) इस २३ यो परिभाषासे ( प्यङः संप्रसारणं पुत्र पत्या तत्पुरुष) यहां तत्पुरुष में पुत्र ) और (पति) उत्तरपदों के परे (ध्यड़ा)को संप्रसारण कहा है तो (व्यङ)का जो आदि वा ध्यङन्त को कार्य होगा। इस से (कारोषगन्ध्यायाः पुत्रः कारोषगन्धी पुत्रः, कारोषगन्धीपतिः, वाराहीपुत्रः, वाराहीपतिः ) इत्यादि प्रयोग तो सिद्ध हो जावेंगे परन्तु (परमकारोषगन्धोपुत्रः, परमकारोषगन्धीपतिः) इत्यादि प्रयोग नहीं सिद्ध होंगे क्योंकि जिस ( कारोषगन्धि ) शब्द से (व्यङ) प्रत्यय विहित है तो वही जिस के आदि में हो ऐसे (प्यङ्) का ग्रहण हो सकता है और परम के सहित ग्रहण नहीं हो सकता इसलिये यह परिभाषा है । २६-अस्त्रीप्रत्ययेनानुपसर्जनेन ॥ अ०६।१।१३॥
(तदादिग्रहणपरिभाषा) स्त्रीप्रत्यय और उपसर्जन को छोड़ के प्रवृत्त होने इस से सामान्य स्त्रीप्रत्य य ( परमकारोषगन्धोपुत्रः ) इत्यादि में तदादि ग्रहण के दोष से संप्रसारण का निषेध नहीं होता और कारोषगन्ध्य मतिक्रान्तोऽतिकारी षगन्ध्यः,अतिकारोषगन्ध्यस्य पुत्रः अतिकारोषगन्ध्यपुत्रः)यहां व्यङन्त स्त्रीप्रत्यय उपसर्जन अर्थात् स्वार्थ में अप्रधान है इसलिये संप्रसारण नहीं होता इत्यादि॥२६॥ (सुप्तिङन्तं पदम् )स सूत्र में अन्त ग्रहण व्यर्थ है क्योंकि जो (सुपतिङन्तंपदम) ऐसा सूत्र करते तो तदन्त विधिपरिभाषा से अन्त की उपलब्धि से (सुबन्त, तिङन्त) की पदसंज्ञा हो ही जाती फिर अन्तग्रहण व्यर्थ हो कर इस परिभाषा का जापक है। २७-संज्ञाविधौ प्रत्ययग्रहणे तदन्तविधिन भवति ॥ अ० १॥
४।१४॥ प्रत्ययों की संज्ञा करने में तदन्तविधि नहीं होती। इस से अन्तग्रहण सार्थक होना तो स्वार्थ में चरितार्थ है और अन्यत्र फल यह है कि ( तरतमयौ पः) यहां (तरप तमप) प्रत्य यान्त को (घ) संज्ञा नहीं होती जो तरप प्रत्ययान्त की (घ) संज्ञा होजावे तो ( कुमारोगौरितरा) यहां घसंज्ञक के परे कुमारी शब्द को हव हो नावे सा रस परिभाषा से नहीं होता । और (कत्तद्धितसमासाय) यहाँ कत्तवित प्रत्य यों में अन्तग्रहण नहीं किया और प्रातिपदिकसंज्ञा के होने से तदन्तविधि भी नहीं हो सकती इसलिये क्वत्तद्धित में अर्थवान की अनुवृत्ति करने से कदन्त और तद्धितान्त हो अथवान् होते हैं केवल ( कत् , तद्धित ) महीं क्योंकि ( न केवला प्रक्क तिःप्रयोक्तव्या न च केवलप्रत्ययः) इस महाभाष्य के
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१६
॥ पारिभाषिकः ॥
प्रमाण से प्रत्ययान्त हो अर्थवान् होता है । और ( बहुच् ) प्रत्यय प्रातिपदिक से नहीं होता किन्तु सुबन्त से पूर्व बहुच् कहा है बहुच् प्रत्यय के सहित जो समुदाय है वहां प्रातिपदिकसंज्ञा होने को कुछ आवश्यकता नहीं है जैसे ( बहुपटवः ) यहां बहुच् के होने से पहिले ही अथवा पटु शब्द को प्रातिपदिकसंज्ञा तो सिद्ध हो है । फिर बहुच् प्रत्यय की विवचा में जिस विभक्ति और वचन का प्रयोग करना हो उस को रख के बहुच् प्रत्यय लाना चाहिये जैसे ( पटु, जस्) बस सुबन्त के पूर्व बहुच् आकर (बहुपटवः) प्रयोग सिह हो गया । इसी प्रकार अन्य प्रयोगों में जान लेना चाहिये और ( सर्वक: ) ( विश्वकः) इत्यादि में जो कच प्रत्यय मध्य में होता है उस के आगे परिभाषा लिखी है कि ( तदेकदेशभूतस्तद्यह) (सर्व) प्रातिपदिक के एक देश के मध्य में आया कच् उसी प्रातिपदिक के ग्रहण से ग्रहण किया जाता है ।। २७ ।।
"
(२३) व परिभाषा के होने में ये भी दोष हैं कि (अवतते नकुलस्थितं त एतत् ) यह क्त प्रत्ययान्तस्थित शब्द के साथ सप्तम्यन्त का समास कहा है सो गतिसंज्ञक अव शब्द के सहित सप्तम्यन्त और कर्त्तृकारकवाची नकुल शब्द के सहित तान्त कदन्त स्थित शब्द है इस कारण समास नहीं प्राप्त है इसलिये यह परिभाषा है । गतिकारक पूर्वस्यापि ग्रहणं भवति ॥ प्र०
२८ - कद्ग्रहणे
१ । ४ । १३ ॥
'जहां कृत्प्रत्यय के ग्रहण से कार्य हो वहां उस कदन्त के पूर्व गतिसंज्ञक और कारक हो तो भी वह कार्य हो जाये । इस से गतिसंज्ञक अव और कारक नकुल के होने से भी समास हो जाता है, तथा सांकूटिनम् यहां ( बनुण् ) कृत्प्रत्ययान्त से ( अ ) तद्धित होता है सो जो ( कूटिन ) शब्द से करें तो उसी के आदि का वृद्धि होवे इस परिभाषा से गतिसंज्ञक ( सम् ) के सहितके (ण) के होने से ( सम् ) के सकार को वृद्धि होती है इत्यादि अनेक प्रयोजन हैं ( गतिरनन्तरः ) इस सूत्र में (अनन्तर) ग्रहण इस परिभाषा के होने में ज्ञापक है ॥
( येन विधिस्तदन्तस्य ) इस परिभाषासूत्र में सामान्य करके तदन्तविधिकही है विशेष विषय में उस का अपवादरूप वच्यमाण परिभाषा है ॥
२९ -- पदाङ्गाधिकारे तस्य तदन्तस्य च ॥ अ० १ । १ । ७२ ।।
उत्तरपदाधिकार अर्थात् षष्ठाध्याय के तृतीयपाद में और अङ्गाधिकार में जिस को कार्यविधान हो वा जिस के आश्रय हो उस का और वह जिस के अन्त में
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॥ पारिभाषिकः । हो उन दोनों का ग्रहण होता है जैसे ( कूष्टकषोकामालानां चिततलभारिषु ) इस सूवमें (इष्टकचितं चिन्वौत ) यहां उसौष्टका शब्द को हस्व और (पक्केष्ट कचितं चिन्वीत ) यहां तइन्त को भी हव होता है ( उषीशतलेन, मुझेषीकतूलेन, मालभारिणी कन्या, उत्पलमालभारिणीकन्या) यहां भी इषौका और माला शब्द को दोनों प्रकार हस्व हुआ है । अङ्गाधिकार में ( सान्तमहतः संयोगस्य ) महान् यहां उसी महत् शब्द को उपधा को दीर्घ और ( परममहान ) यहां तदन्त को भी होता है इत्यादि अनेक उदाहरण महाभाष्य में लिखे हैं ॥ २८ ॥
(एकाचो हे प्रघमस्य ) यहां अनेकाच् धातु के प्रथम एकाच अवयव को हित्व होता है जैसे जनागार ) यहां जाभाग को हित्व हुआ है । जो केवल एकाच धातु है उसमें प्रथम एकाच अवयव कहां है जिस को द्वित्व हो जैसे ( पपाच, यान) दूत्यादि । तथा( एकाच शब्द में भी बहुनौहि समास है कि एक अच जिस मेंहो अर्थात् अन्य एक वा अधिक हल हो वह (एकाच) अवयव कहाता है। सो जहां केवल एकही अच धातु है जैसे (इयाय,भार ) यहाँ (द, ऋ) धातुओं को हित्व कैसे हो सके इसलिये यह परिभाषा है।
३०-व्यपदेशिवदेकस्मिन् ॥ ०१।१।२१॥
सत् निमित्त के होने से मुख्य जिस का व्यपदेश (व्यवहार हो वह व्यपदेशी जाता है और एक वह है जिस के व्यवहार का कोई सहायौ कारण नहो उस एक में व्यपदेशो के तुल्य कार्य होता है इस से ( एकाच) धातु (पपाव )आदि में हित्व और केवल एक ही अचधातु (व्याय, आर) आदि में भी हिर्वधन हो जाता है । कोकिएकाच और एकही अधातु की अपेक्षा में अनेकाच व्यपदेशोहै तहत कार्य सामने से सर्वत्र हित्व हो जाता है (आदेश प्रत्यययोः) इस सूत्र में प्रत्यय के अवयव शकार को मूर्खन्य कहा है सो ( करिष्यति) आदि में तो होहो जाता है। और ( स देवान् यक्षत् ) यहां यवत् क्रिया में केवल सिप विवरण का सकारमात्र प्रत्यय है उसको ( व्यपदेशिव द्वाव)मान के मूद्धन्य होता है । इत्यादि अनेक प्रयोकान हैं। लोक में भी यह व्यवहार होता है कि किसी के बहुत पुत्र हैं वहां तो ज्येष्ठ मध्यम और कनिष्ठ का व्यवहार बनता है और जिस का एक ही पुत्र हैतो. वहां उसी में ज्येष्ठ मध्यम और कनिष्ठ व्यवहार होता हैं ॥ ३०॥ तहित में जैसे नडादि, गर्गादि और शिवादि इत्यादि प्रातिपदिकों से अपत्य
में अग आदि प्रत्यय कहे हैं सो उत्तमनड़ परमगग और महाशिव आदि प्रातिपदिकी से तदन्तविधि में क्यों नहीं होते इसलिये यह परिभाषा है।
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। पारिभाषिकः। ३१-ग्रहणवता प्रातिपदिकेन तदन्तविधिः प्रतिषिध्यते ॥ अ. ५।२।८७॥
प्रत्यय का ग्रहण करने वाले प्रातिपदिक से तदन्त विधि नहीं होता इसलिये (उत्तमनड़) और (परमगर्ग) आदि प्रातिपदिकों से (फक) और (यअ) आदि प्रत्यय नहीं होते और इस परिभाषा के निकलने का ज्ञापक ( पूर्वादिनिः, सपू. वोच्च ) ये दोनों सूत्र है क्योंकि जो पूर्व शब्द से विधान किया इनि प्रत्यय तदन्त से भी हो जाता तो द्वितीय सूत्र व्यर्थ हो नाता फिर व्यर्थ होकर यह ज्ञापक होता है कि यहां तदन्तविधि नहीं होता ॥ ३१ ॥
सूत्रान्त प्रातिपादिकों से (ठक) और दशान्त आदि प्रातिपदिकोंसे(ड) आदि प्रत्यय कहे हैं सो (३०) वीं परिभाषा से ( व्यपदेशिवगाव ) माम कर केवल सूत्र और दश आदि से ( ठक) तथा (ड) आदि प्रत्यय क्यों नहीं हो जाते इसलिये यह परिभाषा है।
३२-व्यपदेोशिवदभावोऽप्रातिपदिकेन ॥ ०१।१।७२॥
व्यपदेशियज्ञाव की प्रवत्ति प्रातिपदिकाधिकार को छोड़ के होती है । इसलिये केवल सूत्रादि शब्दोंसे ठक आदि प्रत्यय नहीं होते और इस परिभाषा का ज्ञापक भी ( पूर्वादिनिः,सपूर्वाञ्च ) ये दोनों सूत्र हैं क्योंकि जो यहाँ व्यपदेशिवशाव हो. तातो (पूर्वान्तादिनिः)ऐसा एक सूत्र कर देते तो सब काम सिद्ध हो जाता फिर पृथकर दो सूत्र करनेसे ज्ञात हुआ कि यहां व्यपदेशिवडाव नहीं होता ॥ ३२॥
अचि अनुधातु. ) यहां ( थियौ, भुवौ ) उदाहरणों में तो केवल (अच) के पर (इयडा, उवङ) होजाते हैं और ( श्रियः,भ्रवः ) यहाँ (श्यङ, उवाडा) न होने । चाहिये क्योंकि यहां केवल ( अच् ) परे नहीं है इसलिये यह परिभाषा है।
३३-यस्मिन् विधिस्तदादावलग्रहणे ॥१०१।१।७०॥ जिस प्रत्याहाररूप पर विशेषण के आश्रय से विधि हो वह जिस के आदि में हो उस के पर वह कार्य होना चाहिये इस से अजादि प्रत्यय के परे ( इयड उबङ) होते हैं तो (श्रियः, भ्रवः) यहां प्रजादि [जस्] में भी दोष नहीं आता। तथा अवश्यलाव्यम्, अवश्यपाव्यम् ] इत्यार में वान्तो यि प्रत्यये ] सूत्र से यकारादि प्रत्यय के परे वान्तादेश हो जाता है(इको झल) यहां भलादिसन लिया जाता है। इत्यादि इस परिभाषा के अनेक प्रयोजन ॥३३॥
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॥ पारिभाषिकः। (तिष्यपुनर्वस्वोनक्षत्रन्ह बहुवचनस्य हिवचनं नित्यम् )इस सूत्र में बहुवचनग्रहण न करते तो भी प्रयोजन सिद्ध हो जाता। क्योंकि एक (तिष्य ) और दो (पुनर्वस) इन तीन के होने से बहुवचन तो प्राप्त हो था फिर द्विवचन के कहने से उसी बहुवचन को प्राप्ति में द्विवचन हो जाता इस प्रकार बहुवचनग्रहण व्यर्थ हो कर ज्ञापक है कि (तिष्य,पुनर्वसु ) में कहीं एकवचन भी होता है वहां एकवचन को द्विवचन न हो इसलिये यह परिभाषा है।
३४-सा इन्हो विभाषैकवद्धवति ॥ अ० १।२।६३॥
दो वा अधिक किन्हीं शब्दों का इन्हसमास हो वह सब विकल्प करके एकवः | चन होता है। इस से तिष्य पुनर्वसु के एकवचनपक्ष में द्विवचन हो इसलिये बहुवचनस्थानी का ग्रहण है । तथा इसी परिभाषा से (घट पटम्, घटपटी, ईपलोमकूलम्, मायोत्तरपदव्यमुपदम् ) इत्यादि में भी एकवचन सिद्ध हो जाता है । समाहार इन्ध सर्वत्र एक ही वचन होता है । और यह परिभाषा इतरेतर. इन्हसमास मेंलगतौहै इसीसे इसके उदाहरण भोसब इतरेतरहन्द के दियेहैं॥३४॥
(व्यत्ययोबहुलम्) पूस से स्य आदि विकरणों का व्यत्यय होना सूत्रार्थ है तथा (षष्ठीयुताएछन्दसि वा) इस सूत्र से भी षष्ठीयुक्ता पति शब्द को घिसंज्ञा का वेद में विकल्प है इन दोनों में भाष्यकारने विभाग करके यह परिभाषा सिद्ध को है। ३५-वाच्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति ॥ १।४।९॥
वेद में सब कार्य विकल्प करके होते हैं जैसे (दक्षिणायाम) इस सप्तम्यन्त की प्राप्ति में (दक्षिणायाः ) ऐसा प्रयोग होता है। इत्यादि अनेकप्रयोजन हैं ॥३५॥
किसी विद्यार्थी ने अग्नी ) ऐसा द्विवचनान्त शब्द उच्चारण कियाजो उसका कोई अनुकरण करे कि ( अग्नी त्याह) तो यहां अनुकरण में साक्षात हिवचन के न होने से जो प्रग्यसंज्ञा न होवेतो इकार के साथ संधि होना चाहिये इसलिये यह परिभाषा है ।
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३६-प्रतिवदनुकरणं भवति ॥ ० ८।२।१६ ॥
नो अनुकरण किया जाता है वह प्रकृति के तुल्य होता है इस से ( अग्नी) दिवचनप्रकति के तुल्य अनुकरणको मानके प्रय घसंज्ञा होनेसे संधि नहीं होती। और एकवचन बहुवचन में तो संधि होता है(कुमायं तृतक वृत्याह)यहां (ऋतक) शब्द के अनुकरण (लतक) के परे भी यणादेश होता है (हिः पचन्वित्याह) यहां
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पारिभाषिकः ॥
(हि: पचन्तु ) शब्द के अनुकरण में भी अतिङ्से पर तिङ् पद मिघात होजाता है । ( अर्थवदधातुरप्रत्यय: ० ) इस सूत्र में धातु का पर्युदास प्रतिषेध मानें कि धातुसे अन्य धर्यवान् को प्रातिपदिकसंज्ञा हो इस से क्षि आदि धातुओं के अनुकरण को प्रकृतिवत् होने से स्वाश्रय कार्य मान कर प्रातिपदिकसंज्ञा होजातीहै फिर पंचमी विभक्ति के एकवचन में विधातु को (इयङ् ) आदेश नहीं प्राप्त है इसलिये धातु के अनुकरण को प्रकृतिवत् मान के ( इयङ्) आदेश भी होजाता है इस से (चियो दीर्घीत्, परौभुवोऽवज्ञाने, नेर्विशः) इत्यादि सब निर्देश ठोक बन जाते हैं ॥ २६ ॥
( भवतु, पचतु ) इत्यादि को पदसंज्ञा न होनी चाहिये क्योंकि तिङन्त की पदसंज्ञा कही है यहां तो तिप् के इकार को उकार हो जाने से तिङ् नहीं रहा इसलिये यह परिभाषा है ।
३७- एकदेशविकृतमनन्यवद्भवति ॥ अ० ४ । १ । ८३ ॥
जिस किसी का एक अवयव विपरीत हो जावे तो वह अन्य नहीं हो जाता किन्तु वही बना रहता है । इससे बूकार के स्थान में उकार हो जाने से भी पदसंज्ञा हो जाती है ( प्राग्दीव्यतोऽण् ) इस सूत्र से (दोव्यत् ) शब्दपर्यन्त ( अण् ) प्रत्यय का अधिकार करते हैं और दीव्यत्शब्द कहीं नहीं है किन्तु ( दोव्य सि) शब्द है इस का एकदेश इकार के जाने से ( दीव्यत्) रह जाता है इसी ज्ञापक से यह परिभाषा निकली है । लोक में भी किसी कुत्ते का कान वा पूंक काट लिया जावे तो उस को घोड़ा वा गधा नहीं कहते किन्तु कुत्ता हो कहते है इत्यादि अनेक प्रयोजन हैं ॥ ३७ ॥
( स्योन: ) यहां (सिवु ) धातु से उणादि ( न ) प्रत्यय के परे वकार को ( ऊठ् ) होकर वकार को स्थानिवत् मानने से धातु के बूकार को (लघूपधगुण) और उसी इकार का ( यणादेश ) दोनों प्राप्त हैं । इस में गुण पर और यणादेश ( अन्तरङ्ग ) है अब दोनों में से कौनसा कार्य होना चाहिये इसलिये यह परिभाषा है।
३८ - पूर्व पर नित्यान्तरङ्गाऽपवादानामुत्तरोत्तरं बलीयः ॥
पूर्व से पर, पर से नित्य, नित्यसे अन्तरङ्ग और अन्तरङ्ग से अपवाद ये सब पूर्व २ से उत्तर २ बलवान् होते हैं । यह परिभाषा महाभाष्य के अभिप्रायानुकूल है अर्थात् इसी प्रकार की कहीं नहीं लिखो । पूर्व से पर बलवान् होना यह विषय (विप्रतिषेव परं कार्यम् ) इसी सूत्र का है जैसे ( अत्रि ) इस शब्द से
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पारिभाषिकः ।
अपत्याधिकार में ऋषिधाची होने से(अप)प्राप्त और "जूकारान्तठाच्” होने से ढक प्राप्त है से पूर्व (अण) को बाध के परविहित (ढक्) होता है जैसे (अनेर पत्यम् , आत्रेयः) इत्यादि । भू धातु से लिट् लकार के णल प्रत्ययके परे (भूXअ) इस अवस्था में हित्व, यणादेश, उवङ, गुण, वृद्धि और वुक आगम ये सब प्राप्त हैं (द्विवचन ) नित्य होने से पर यणादेश का बाधक है ( उवङ) अन्तरङ्ग होने से नित्य हित्व का भी बाधक है और ( उपङ्) का अपवाद (गुण) गुण का अपवाद (कृषि) और इन दोनों का अपवाद निरवकाश होने से ( वुक ) हो जाता है। इसी प्रकार अन्य भी बहुत प्रयोगों में यह परिभाषा लगतीहै ( दुबूषति ) यहां सन् प्रत्यय के परे (दिव ) धातु के वकार को जठ किये पीछे द्विवचन और यणादेश दोनों प्राप्त हैं नित्य होने से हिवंचन होना चाहिये फिर नित्य द्विवचन से भी अन्तरङ्ग होने से यणादेश प्रथम हो जाता है। इत्यादि ॥ ३८ ॥
(ईजतुः) यहां यज् धातु से (अतुस्) प्रत्यय के परे हित्व को बाध के परत्व से (संप्रसारण) होता है फिर हित्व होना चाहिये वा नहीं इसलिये यह परिभाषा है। ३९-पुनः प्रसङ्गविज्ञानात् सिद्धम् ॥ अ. १ । ४ । २ ॥
परत्व से वा अन्य किसी प्रकार से प्रथम बाधक कार्य हो जावे । फिर जो उत्स में कार्य की प्राप्ति हो तो उत्सर्ग भी हो जावे। इस से(यज)धातु को संप्रसा. रण किये पीछे भी हित्व होजाता है।इसीप्रकार परत्व से (हि) के स्थान में तातङ आदेश होने से फिर हि को धि न होना चाहिये सो भी ( तातड) के निषेध पक्ष में (हि) को (धि ) होकर (भिन्धि) आदि प्रयोग बन जाते हैं पूत्यादि अनेक प्रयोजन हैं ॥ ३८॥ ___ लोक में यह रीति है कि तुल्य अधिकारी दो स्वामियों का एक भत्य होता के तो वह आगे पीछे दोनों के कार्य किया करता है परन्तु जो उस भत्य को दोनों स्वामी अनेक दिशाओं में एक काल में कार्य करने के लिये आज्ञा दें तो उस समय जो वह किसी का विरोधी न हुआ चाहै तो दोनों के कार्य न करे क्योंकि एक को एक काल में दोदिशाओं में जाके दो कार्य करना असम्भव है फिर जिस का पोछे करेगा वही अप्रसन होगा , इसी प्रकार सूत्रों में भी दोमें जो बलवान् होगा वह प्रथम हो जावे गा और जो दोनेां तुल्यबल वाले होंगे तो एक दूसरे को हटाने से लोक के तुल्य एक भी कार्य न होगा। जैसे स्त्रीलिङ्ग में वर्तमान (त्रि, चतुर ) शब्द को सामान्य विभक्तियों में (तिस्, चतस ) आदेश कहे हैं और (त्रि ) शब्द को (श्राम ) विभक्ति के परे (त्रय) आदेश भी कहा है
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२२
॥ पारिभाषिकः ॥
फिर ( विप्रतिषेधे परं कार्यम्) इस सूत्र से पर विप्रतिषेध मान के प्रथम (ति) आदेश हो गया । फिर उस को स्थानिवत् मान के (त्रय) आदेश भी होना चा हिये तो लोकवत् अनिष्टप्रसङ्ग आजावे इसलिये यह परिभाषा है #
४० - सद्गतौ विप्रतिषेधे यद् बाधितं तद् बाधितमेव ॥ अ० १ । ४ । २॥
एककाल में जब दो कार्यों को प्राप्ति होती है तब विप्रतिषेध में पर का कार्य होकर फिर दूसरे पूर्व सूत्र का कार्य प्रवृत्त नहीं हो सकता क्योंकि जो बाधक हुआ से हुआ इस से फिर स्थानिवत् मान के (लय) आदेश नहीं होता इस कारण[तिसृणाम् ] इत्यादि प्रयोग शुद्ध ठौक बन जाते हैं । और जो दूसरा काव्य भी पश्चात् प्राप्त हो और प्रथम हुआ काव्यं कुछ न बिगड़े तो [२८] वौं परिभाषा के अनुकूल वह भी कार्य हो जावे गा ॥ ४० ॥
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अब यह विचार भी कर्त्तव्य है कि धातुओं से परे जो लकारों के स्थान में तिप आदि परस्मैपद और आत्मनेपद प्रत्यय होते हैं वे पहिले हों किंवा विकरण हों आत्मनेपदादि के करने से प्रथम और पीछे भी विकरणों की प्राि इस से वे नित्य हैं | और आत्मनेपद परस्मैपद विधायक प्रकरण से पर भी विक रण ही है और विकरण किये पोछे आत्मनेपद नियम को प्राप्ति नहीं क्योंकि (अनुदात्तति० ) यह पञ्चमीनिर्दिष्ट कार्य व्यवधानरहित उत्तर को होना चाहिये विकरणों के व्यवधान से फिर आत्मनेपद नहीं पाता और जो आमनेपद नियम को अवकाश माने से भी नहीं क्योंकि अदादि और जुहोत्यादिगण में जहां विकरण विद्यमान नहीं रहते वहां और (लिङ्, लिट् ) लकारों में (आत्मनेपद, परस्मैपद ) को अवकाश हो है फिर ( एधते, स्पडते ) आदि में आत्मनेपद नहीं हो सकता इसलिये यह परिभाषा है ।
४१ - विकरणेभ्यो नियमो बलीयान् ॥ अ० १ । ४ । १२ ॥
विकरण विधि से आत्मनेपद परस्मै पद नियमविधान बलवान् है क्योंकि जो आत्मनेपद आदि के होने से पहिले विकरण ही होते होतो (आत्मनेपदेष्वन्यतरस्याम्, पुषादिद्युताद्य्ऌदितः परस्मैपदेषु ) इन विकरण विधायक सूत्रों में ग्राममपद के आश्रय से विकरणविधान क्यों किया इससे यह ज्ञापक है कि विकरणविधि से पहिले ही आत्मनेपद परस्मैपद नियम कार्य होते हैं । इस से ( एधते, स्पर्धेते) आदि में आमनेपद सिद्ध हो गया इत्यादि प्रयोजन इस के हैं ॥ ४१ ॥
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॥ पारिभाषिकः ।
(न्यविशत, व्य कोणीत ) यहां (नि, वि) उपसगों से परे ( विश) और (को) धातु से प्रामनेपद होता है सो विकरण आत्मनेपद और अट् आगम तीनों कार्य एक साथ प्राप्त है इन में से आत्मनेपद सब से पहिले होकर अब विकरण करने के पहिले और पीछे भी (अट) प्राप्त है इस से अनित्य हुआ और विकरण भी अट करने से पहिले तथा पोछे भी प्राप्त है तो विकरण भी नित्य हुए । नब दोनों नित्य हुए तो परत्वसे अट प्राप्त है । और अङग कार्य अटसे विकरणों का होना प्रथम इष्ट है क्योंकि विकरण के प्रानाने पर सब को ( अङ्ग ) संज्ञा हो और अङ्गसंज्ञा के पश्चात् अट होवे इसलिये यह परिभाषा है । ४२-शब्दान्तरस्य च प्रान्तुवन विधिरनित्यो भवति।।१० १॥३॥६॥
नो दो कार्य एकसाथ प्राप्त हो और वे दोनों नित्य ठहरते हो तो उन में एकविधि के होने से पहिले जिस शब्द को दूसरा विधि प्राप्त है और पहिले काय के होने पात वह विधि दूसरे शब्द को प्राप्त हो तो वह अनित्य होता है यहां ( अट ) आगम पहिले तो केवल (विश ) को प्राप्त है और विकरण किये पौछे विकरणसहित सब को अंगसंज्ञा होने से सब को प्राप्त है इसलिये अट अनित्य हुआ। फिर प्रथम विकरण हो कर पुनः प्रसंग मानने से ( अट ) हो जाता है । इत्यादि प्रयोजन है ॥ ४२ ॥
[नकुया भवः नाकुंटः, नपतेरपत्यं नापत्यः ] यहां जो (न) शब्दको एन्धि होती है उसी बधिरूप आकार का सहचारी रेफ रहता है उस रेफ की खर प्रत्याहार के परे [खरवसानयोर्विसर्जनीयः] इस सूत्र से विसर्जनीय होने चाहिये इसलिये यह परिभाषा है।
४३-प्रसिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्गे ॥ ० ८।३। १५॥ ४४-प्रसिद्ध बहिरङ्गलक्षण मन्तरङ्गलक्षणे॥ ०६।४।१३२॥
इन में से पहिसी परिभाषा बहुधा व्यवहारकालमें प्रवृत्त होती और दूसरी बहुधा व्याकरणादिशास्त्रों में लगती है। बहिरंग कार्य करने में अन्तरंग कार्य प्रसिद्ध हो जाता है । बहिर और अन्तर इन दोनों शब्दों के आगे जो अंग शब्द है वह उपकारकवाची और अंग शब्द के साथ दोनों शब्दों का बहुवीहि समास है [निमित्तसमुदायस्य मध्ये यस्य कार्यस्यांगमुपकारि निमित्तं बहिः कार्यान्तरा. पेक्षया दूरमधिकं वा वर्तते तबहिरङ्गं कार्यम्, एवं निमित्तसमुदायस्य मध्ये
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२४
॥ पारिभाषिकः ॥
यस्य कार्यस्याङ्गमुपकारिनिमित्तमन्तः कार्यान्तरापेचया सन्निहितं वा न्यूनं वर्त्तते तदन्तरङ्गं कार्यम्, तथा बढपेक्षं बहिरङ्गमल्पापेक्षमन्तरङ्गम् ) वहिरङ्ग उस को कहते हैं कि प्रकृति, प्रत्यय, वर्ण और पद के समुदाय में जिस कार्य के उपकारी अवयव दूसरे कार्य की अपेक्षा से दूर वा अधिक हों । और अन्तरङ्ग वह कहाता है कि प्रकृति आदि निमित्तों के समुदाय में जिस कार्य के उपकारी अवयव दूसरे कार्य को अपेक्षा से समीप वा न्यून हो । तथा जो बहुत नि मित्त और व्याख्यान को अपेक्षा रकवे वह बहिरङ्ग तथा थोड़े निमित्त और व्याख्यान को अपेक्षा रकखे वह अन्तरङ्ग कहाता है । इसलिये प्रायः अन्तरङ्ग - कार्य प्रथम होता है और बहिरङ्ग असिद्ध हो जाता है । और कहीँ २ बहिररङ्ग प्रथम हो भी जावे तो अंतरङ्गकार्य की दृष्टि में असिद्ध अर्थात् नहीं हुआ सही रहता है । अब प्रकृत में (नार्कुट, नापत्य) यहां ककार पकार विसfate के निमित्त अंतरङ्ग और वृद्धि का निमित्त तद्धित बहिरङ्ग है सो प्रथम बहिरङ्ग कार्य वृद्धि हो भी जाती है । परन्तु अंतरङ्गकार्य विसर्जनीय करने में वृद्धि के सिद्ध होने से रेफ ही नहीं फिर विसर्जनीय किस को हो तथा ( वाह ऊठ् ) इस सूत्र में ( ऊठ् ) नहीं पढ़ते ते संप्रसारण की अनुवृति आकर ( प्रष्ठ वा XX अस् ) इस अवस्था में गिव प्रत्यय के परे वकार को ( उ ) संप्रसारण और पूर्वरूप हो कर । ( प्रष्ठ उह् वि अस् ) इस अवस्था में उकार का ओकार (गुण) और उस ओकार के साथ वृद्धि एकादेश होकर ( प्रष्ठोह :) आदि प्रयोग सिद्ध होही जाते फिर ऊठ् ग्रहण व्यर्थ हो कर यह ज्ञापक होता है कि ( प्रष्ठौ :) आदि में गुण करते समय संप्रसारण ( प्रसिद्ध ) होता है अर्थात् जादिप्रत्ययनिमित्त भसंज्ञा और भसंज्ञाके आश्रय संप्रसारण होता है इसप्रकार बहुत अपेक्षा वाला होने से संप्रसारण बहिरङ्ग और (वि) प्रत्यय को मान के गुण अंतरङ्ग है फिर अंतरङ्ग गुण करने में जब संप्रसारण असिद्ध हुआ तो गुण कौ प्राप्ति नहीं जब गुण नहीं हुआ तो वृद्धिहोकर ( प्रष्ठोह :) आदि प्रयोग भी नहीं बन सकते इसलिये ऊठ्ग्रहण करना चाहिये इसी ऊठ ग्रहण के ज्ञापक से यह परिभाषा निकली है तथा ( पचावेदम्, पचामेदम् ) यहां लोट् के उत्तम पुरुष के एकार को ऐकारादेश प्राप्त है सेा ऐत्व अंतरङ्ग की दृष्टि में ( श्राद्गुणः) मूत्र से हुआ गुण बहिरङ्ग होने से असिद्ध है इसलिये वहां एकारही नहीं तो ऐकार किसको हो । इत्यादि इस परिभाषा के असंख्य प्रयोजन हैं। लोक में भी अंतरंग कार्य करने में बहिरङ्ग असिही माना जाता है जैसे । मनुष्य प्रातःकाल उठकर ( पहिले निज शरीरसंबन्धी अंतरङ्गकार्यों को करता है पीछे मित्रों के और उस
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पारिभाषिकः ।
के पीछे सम्बन्धियों के काम करता है क्योंकि मित्र आदि के कार्य निज शरीर को अपेचा में बहिरङ्ग हैं । १३ ॥ ४॥
अब असरगावहिरङ्ग लक्षण परिभाषा में ये दोष हैं कि (अच>व्यति अक्षद्यः, हिरण्यः ) यहां ( दिव ) धातु से किप प्रत्यय के परे विप को मान के वकार को जठ् होता है उस बहिरङ्गऊड को असिद्ध मानें तो यणादेश नहीं हो सकता इत्यादि दोषों को निवृत्ति के लिये यह अगली परिभाषा है । ४५-नाजानन्तर्य बहिष्ट्वप्रक्लप्तिः ॥ अ० १ । ४ । २ ॥ . अहां दोनों प्रश्नों के समीप वा मध्य में कार्य विधान करते हो वहां अन्तरङ्ग बहिरङ्ग लक्षण परिभाषा नहीं लगतो इस से (अक्षयूः) आदि में वहिरङ्ग ऊठको जब असिब नहीं माना तो यणादेश भी होगया तथा ( षत्वतुको रसिद्धः ) इस सूत्र में तक ग्रहण का यही प्रयोजन है कि ( अधोत्य, प्रेत्य ) इत्यादि प्रयोगों में तुक अन्तरङ्ग और सवर्णदोषं तथा गुण एकादेश बहिरङ्ग है जो तुक अन्तरङ्ग के करने में बहिरङ्गएकादेश असिद्ध होजाता तो तुक हो ही जाता फिर तुग. विधि में एकादेश को असिद्ध करने से यह ज्ञापक निकला कि जो दो अचों के आश्रय बहिरङ्ग कार्य हो वह अन्तरङ्ग कार्य की दृष्टि में असिद्ध नहीं होता। इसी तुकग्रहणमापक से यह परिभाषा निकली है ॥ ४५ ॥
(गामान प्रिया यस्य स गामप्रियः,यवमप्रियः,गोमानिवाचरति गोमत्यते, यवम यते) इत्यादि प्रयोगों में समासाश्रित अन्तर्वतिमीविभक्ति का लुक हिपदा. श्रय होने से बहिरङ्ग और (हल्यादि) सूत्र से प्राप्तसुलोप एकापदायय होने से अन्तरङ्ग है सो नो बहिरङ्गका बाधक अन्तरङ्ग होजाये तो नुम् आदि कार्य होकर (गोमत् प्रियः) प्रयोग सिद्ध नहीं किन्तु (गोमान् प्रियः) ऐसा प्राप्त होवे से अनिष्ट है इसलिये यह परिभाषा है । ४६-अन्तरङ्गानपि विधीन बाधित्वा बहिरङ्गो लुग् भवति ।। अ० ७।२।९८॥
अन्तरङ्ग विधियों को बाध के भी बहिरङ्गलक होताहै अर्थात् जब अन्तर्वर्तिनी विभक्ति का लक समासाश्रय होने से बहिरङ्ग हुआ एकपदाश्रय सुलोप आदि अंतर. ङ्गों का बाधक होगयातो(नलमतांगस्य) इस सूत्र से नुवादि करनेमें प्रत्ययलक्षण का निषेध होकर गोमप्रियः) त्यादि प्रयोग बनजाते हैं तथा प्रत्ययोत्तरपदयोस)
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२६
॥ पारिभाषिकः
इस सूत्र का यही प्रयोजन है कि ( त्वामिच्छति, त्वद्यति, मद्यति, तव पुत्रस्त्वत्पुत्रः, मत्पुत्रः स्वं नाथोस्य त्वन्नाथः, मन्नाथः) इत्यादि प्रयोगों में (युष्मद, अस्मद) शब्दों को (त्व,म) आदेश होनावे ( त्वं नाथोऽस्य) इस अवस्था में मध्यवर्त्तिनो विभक्ति का लुक् (त्व, म) आदेश होने के पहिले और पीछे भी प्राप्त होने से नित्य और ( त्वम) आदेश अन्तरङ्ग है नित्य से अंतरङ्गबलवान् होता है यह तो कह चुके हैं । सेा जो अन्तरङ्ग होने से (त्व, म ) आदेश पहिले हो जायें तो इस सूत्रका कुछ प्रयोजन न रहे क्योंकि वर्तमान विभक्ति के परे ( त्वमावेकवचने ) सूत्र से (त्व, म) होहो जावेंगे फिर व्यर्थ हो कर यह ज्ञापक हुआ कि अन्तरङ्ग विधियों का भी बहिरङ्ग लुक बाधक होता है फिर जब बहिरङ्ग लुक् पहिले हुआ तो सूत्र सार्थक रहा और इसी ज्ञापक से यह परिभाषा निकली ॥ ४६ ॥
( पूर्वेषुका मशम: ) यहां ( पूर्वेषुकामशमी ) शब्द से सहित ( अ ) प्रत्यय होता है ( पूर्व काम ममी X ) इस अवस्था में जो तद्धित प्रत्ययाश्रित बहिरङ्ग उत्तरपदवृद्धि से अन्तरङ्ग होने के कारण कार इकार का गुण एकारादेश पहिले हो जावे तो पूर्वोत्तरपद के पृथक २ न रहने और उभयाश्रय कार्य में अन्ताविज्ञान के निषेध होने से ( दिशोऽमद्राणाम् ० ) इस सूत्र से उभ यपद वृद्धि नहीं हो सकतो इत्यादि दोषों को निवृत्ति के लिये यह परिभाषा है 89-पूर्वोत्तरपदयोस्तावत्कार्यं भवति नैकादेशः ॥ श्र० १ | ४|२॥
A
पूर्वी र पदनिमित्तकार्य से अन्तरङ्ग भी एकादेश पहिले नहीं होता किन्तु पूर्वोत्तरपदनिमित्त कार्य अन्तरङ्ग एकादेश से पहिले हो जाता है इस से ( पूर्वेषुकामशम: ) यहां अन्तरङ्ग मान कर प्रथम गुण एकादेश नहीं होता किन्तु पहिले उत्तरपद को वृद्धि होकर वृद्धि एकादेश हो जाता है । यह भी परि भाषा (४५) वीं परिभाषा को सहचारिणी है । इस का आापक यह है कि ( नेन्द्रस्य परस्य ) इस सूत्र में उत्तरपदवृद्धिका निषेध है कि उत्तरपद में इन्द्र शब्द को वृद्धि न हो जिस से ( सौमेन्द्र : ) प्रयोग सिद्ध होजावे । सेा जो साम के साथ इन्द्र का एकादेश अन्तरङ्ग होने से पहिले होजावे तो इन्द्र शब्द का बूकार तो एकादेश में गया अन्त्य का अच् तद्धित प्रत्यय के परे लोप में गया फिर जब उत्तरपद इन्द्र शब्द में कोई अच् हो नहीं तो वृद्धि का निषेध क्यों किया इस से व्यर्थ हो कर यह ज्ञापक हुआ कि अन्तरङ्ग भी एकादेश पूर्वोत्तरपद कार्य के पहिजे नहीं होता किन्तु अन्तरङ्गका बाधक उत्तरपदवृषि पहिले होतौ ६ इसलिये उत्तरपद में इन्द्र शब्द का वृद्धि का निषेत्र किया है ॥ ४७ ॥
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। पारिभाषिकः । (प्रधाय, प्रस्थाय ) त्यादि प्रयोगों में (क्ता ) प्रत्यय के स्थान में (ल्यप् ) आदेश होता है सो ल्यप होने से पहिले ( प्रधात्वा ) इस अवस्था में धा के स्थान में हि) और (स्था) को कारादे ग तथा (त्वा ) को ( ल्यप् ) भी प्राप्त है इस में हि आदि आदेश पर और अन्तरङ्ग हैं और ल्यप बहिरङ्ग है सो पर और अन्तरङ्ग मान के हि आदि आदेश कर लें तो प्रवाय, प्रस्थाय) आदि प्रयोग नहीं बन सके इसलिये यह परिभाषा है।
४८-अन्तरङ्गानपिविधीन् बहिरङ्गोल्यब्बाधते॥१०॥४॥३६॥ अन्तरङ्ग विधियों का भी बहिरङ्ग ल्यवादेश बाध करता है । इस से ( हि) आदि आदेशों को बाध के प्रथम ( ल्यप् ) हो गया फिर हि आदि को प्राप्ति नहीं तो ( प्रदाय, प्रधाय, प्रस्थाय) आदिप्रयोग सिद्ध हो गये और ( अदो जग्धयंति किति ) इस सूत्र में ल्यप का ग्रहण नहीं करते तो तकारादि प्रत्ययमात्र को अपेक्षा रखने वाला अदु धातु को ( जन्धि ) श्रादेश अन्तरङ्ग होने के कारण पूर्व पद कोअपेक्षा रखने वाले समासाश्रित बहिरङ्ग ल्यप आदेश से प्रथम हो जाता फिर ल्पप ग्रहण व्यर्थ होकर बस का ज्ञापक हुआ कि ( अन्तरङ्गविधियों को भौ बाध के पहले ल्यप होता है) फिर तकारादि कित् न होने से ( जग्धि) आदेश प्राप्त नहीं होता इसलिये ल्थप ग्रहण किया है । यही ख्यप ग्रहण इस परिभाषा के निकलने में ज्ञापक है । ४८॥
(व्याय, श्ययिथ ) इत्यादि प्रयोगों में पर होने से गुण वृद्धि और नित्य होने से हित्वप्राप्त है हित्व होने के पश्चात् (४४,५४५४थ) इस अवस्था में परत्व से गुण वृद्धि और अन्तरङ्ग होने से सवर्णदीर्घ एकादेश प्राप्त हे सो जो बलवान होने से अन्तरङ्गः सवर्ण दीर्घ एकादेश हो जावे तो ( इयाय, इयिथ ) आदि प्रयोग सिद्ध नहीं हो सके इसलिये यह परिभाषा है ।।
४९-वारणादाङ्गं बलीयो भवति ॥० ६।४।७८॥ वर्णकार्य से अङ्गकार्य बलवान् होता है। यहां वर्ण कार्य सवर्णदीर्घ एकादेश और अंगकार्य गुणवृद्धि हैं उस वर्ण कार्य से अंग कार्य को बलवान होनेसे गुणवृद्धि प्रथम हो कर (इयाय, इययिथ ) इत्यादि प्रयोग सिद्ध हो जाते हैं ( अभ्यासस्यासवर्षे ) इस सूत्र में असवर्ण अच् के परे अभ्यास के वर्ण उवर्ण को ( इवङ, उवङ । आदेश को हैं सो जो गुण वृद्धि का बाधक एकादेश हो जाये तो अभ्यास से परे
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अ
"पारिभाषिकः । असवयं अच् हो ही नहीं सकता फिर उस असवर्ण गुण वृद्धि किये अच के परे (व्यङ्, उवङ् ) कहने से निश्चित ज्ञात हुआ कि ( वर्ण कार्य का बाधक अंगकार्य होता है ) यही असवर्ण अंच के परे (इयडन, उवङ ) का विधान स परिभाषा के होने में ज्ञापक है ॥ ४ ॥
यह बात प्रथम लिख चुके है कि अन्तरङ्ग से भी अपवाद बलवान होता है ( जुसि च ) इस सूत्र से जो गुणविधान है सो (कडिति च) आदि निषेधप्रकरण का अपवाद है क्योंकि ( झि ) के ङित होने से उसके स्थान में जुस भी डित ही आदेश होता है सो जैसे ( अविभयुः, अबिभरुः ) इत्यादि में निषेध का बाध जुस में गुण होता है वैसे ही [ चिमुवुः,सुनुयुः ] यहाँ [थासुट ] के आश्रय से प्राप्त गुण निषध का भी बाधक होजावे तो (चिनुयुः, सुनुयुः ) आदि प्रयोग में गुण होना चाहिये इसलिये यह परिभाषा है । ५०-येन नाप्राप्ते यो विधिरारभ्यते स तस्य बाधको भवति ॥
अ० १।१ । ६ ॥ जिस कार्य की प्राप्ति में अपवाद काप्रारम्भ किया जाता है वह अपवाद उसो मायका बाधक होता है और जिस को प्राप्तिअप्राप्ति में सर्वथा अपवाद काप्रारम्भ है उसका बाधक नहीं होता इस से यह पाया कि ( चिनुयुः, सुमुवः ) यहां दोडिन्त हैं एक सार्वधातुक जुस् प्रत्यय का और दूसरा यासुट का सो सार्वधातुकप्रत्ययाथित जो डिस्व है उसी को मान के प्राप्त गुण का निषेध है उस निषध की प्राप्ति मेंजस के परे गुण कहा है और यासुट के डिवनिमित्तप्राप्त निषेध के होने वा न होने में उभयत्र जुस के परे गुण कहा है क्योंकि (अविभयुः ) आदि में यासट के बिना केवल सार्वधातुक के आश्रयगुण का निषेध प्राप्त है इस लिये ( चिनुयः ) आदि में गुण नहीं होता । ल्यादि इस परिभाषा के अनेक प्रयोजन हैं॥५॥
अब इस पूक्ति परिभाषा के विषय में यह विशेष विचार है कि (नासिको. दरीष्ठ अन्धादन्तकर्णशृङ्गान) यह सूत्र अगले (न क्रोडादिबतचः, सहनत्र.) इन दो सूत्रों का अपवाद है और दोनों को प्राप्ति में इस का प्रारम्भ भी है पूर्व परिभाषा के अनुकूल माना जावे तो सह, नञ् और विद्यमानपूर्वक शब्दों से प्राप्त निषेध का बाधक डोष प्रत्यय (सनासिका, अनासिका, विद्यमाननासिका।
आदि में भी ( डोष ) प्रत्यय होना चाहिये तो ये प्रयोग नहीं बनसके इसलिये यह परिभाषा है।
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.॥ पारिभाषिकः ।
५१-पुरस्तादपवादा अनन्तरान् विधीन् बाधन्ते न परान्॥
प्र० ।।४।१ । ५५ ॥
जो पहिले अपवाद और पीछे उत्सर्ग पढ़ा हो तो वह अपने समीपस्थ कार्य का बाधक हो और परविधि अर्थात् जिस के साथ व्यवधानहै उस का बाधक नहीं होवे । इस से बच लक्ष ए से प्राप्त [डी] के निषेध का बाधक हुआ और सह, नज, विद्यमान पूर्वक नासिका से प्राप्त ङोष के निषेध का बाधक नहीं हुआ। स प्रकार सनासिका, अनासिका) आदि प्रयोग सिद्ध हो गये। इसी प्रकार अन्यत्र भी इसका विषय जानना । ५१ ॥
अब ( नासिकोदरौष्ठ ० ) इस सूत्र में जो भोष्ठ आदि पांच संयोगोपध शब्द हैं उन से निषेध भी प्राप्त है उस का बाधक पूर्व परिभाषा नहीं हो सकती क्योंकि ( नासिकोदर०) सूत्र से भी संयोगोपध का निषेध पूर्व है (नासिकादर ) सूत्र में नासिका और उदर शब्द तो सह आदि पूर्व होने से पर दोनों सूत्रों के अप. वाद हैं और प्रोष्ठ आदि शब्द सह आदि पूर्व हो तो ( सहनञ् ) इस पर सूत्र के और सामान्य उपपद में (स्वाङ्गाचोप०) इस पूर्व सूत्र के भी अपवाद हो। सो दोनों के अपवाद होने चाहिये या किसी एक के । इस सन्देह को निवृत्तिके लिये यह परिभाषा है।
५२-मध्येऽपवादाः पूर्वान् विधीन् बाध्यन्ते नोत्तरान् ॥ ०
४।१।५५॥ ___ जो पूर्व पर दोनों ओर उत्सर्ग और मध्य में अपवाद पढ़ा होतो वह अपने से पूर्व विधि का बाधक होता है उत्तर का नहीं इस से ( विम्बोठों, विम्बोष्ठा, दीर्घजडी, दोघंजवा) इत्यादि उदाहरणों में संयोगोपधलक्षण निषेध का बाधक होगया और (सदन्ता,अदन्ता, विद्यमानदन्ता) इत्यादि में परसूत्र से प्राप्त निषेध को बाधा नहीं हुई । इसी प्रकार सर्वत्र योजना करलेनी चाहिये । ५२ ॥
(सुडनपुंकस्य) इस सूत्र में सुट् को सर्वनामसंज्ञा का निषेध है सो कुण्डानि तिष्ठन्ति, वनानि तिष्ठन्ति) यहां भी जो नपुंसक के सुट को सर्वनामस्थानसंज्ञा का निषेध होजावे तो ( नुम् ) आदि होकर ( कुण्डानि ) आदि प्रयोग सिद्ध होते हैं सो न होसके इसलिये यह परिभाषा है।
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॥ पारिभाषिक: । ५३-अनन्तरस्य विधिर्वा प्रतिषेधो वा ॥१०१ । १।४३॥
जिस में कुछ अन्तर न हो अर्थात् जो अत्यन्त समीप हो उस का विधि वा निषेध होता है दूरस्थ का नहीं। इससे सुट करके जो सर्वनामस्थानमंनाको प्राप्ति है उसो का निषेध करता है (शि) को सर्वनामस्थानसंज्ञा का निषेध नहीं इस से कु गड़ा ने आदि प्रयोग बन जाते हैं । और ( नेटि ) सूत्र में इडादि सिच के परे वृद्धि का निषेध होता है सोजोदूरस्थ वृद्धि का भी होतो अमाऊत, अलावीत, अपात्रौत् इत्यादि में भी हड का निषेध होना चाहिये इस परिभाषा से समीपस्थ हलन्तलक्षण वदि का निषेध हो जाता है सामान्य करके नहीं इत्यादि प्रयो. जन हैं। ५३ ॥
( ददति, दधति ) इत्यादि प्रयोगों में जो प्रत्ययादिझकार को अन्तरङ्ग होने से अन्तादेश प्रथम हो जाये तो अभ्यम्त संज्ञों से विहित प्रत्ययादि भकार को अत् आदेग व्यर्थ और अनिष्ट प्रयोग सिद्ध होने लगे इसलिये ये परिभाषा हैं ।
५४-नचापवादविषये उत्सोऽभिनिविशते ॥ ५५-पूर्व ह्यपवादा अभिनिविशन्ते पश्चादुत्साः ॥ ५६-प्रकल्प्य चापवादविषयमुत्सर्गः प्रवर्त्तते॥१०६७।५॥
ये तीनों परिभाषा उत्सर्गापवाद की व्यवस्था के लिये हैं अपवादविषय में उत्सर्ग को प्रहत्ति नहीं होती। प्रथम अपवादों को और पश्चात् शेषविषय में उत्सों को प्रहत्ति होती है । अपवाद के विषय को छोड़ के अपने विषय में उत्सर्ग प्रवृत्त होते हैं । इस से यह आया कि अभ्यस्त संज्ञक से प्राप्त जो प्रत्ययादि झकार को अत्, आदेश उस अपवाद के विषय में उत्सर्ग को प्रकृत्ति न होने से प्रघम अपवाद प्रवृत्त हुआ तो प्रत्ययादि झकार को अत् आदेश हो कर [ ददति, दधति] आदि प्रयोग सिद्ध हो गए । और जैसे अन्त आदेश का बाधक पचेयुः,अजागरुः] आदि प्रयोगों में झि को जुस होता है वैसे ऐप्सन् ] आदि प्रयोगों में उत्सर्ग का विषय है उस में झिको जुस नहीं होता । अर्थात् अपवाद के विषय में उत्सर्गको प्रहत्ति नहीं होती और उत्सग के विषय में अपवाद को प्रवृत्ति होहो जातीहै।५६॥
अब पूर्व परिभाषाओं से यह आया कि अपवाद विषय में उत्सगों कोप्रवृत्ति नहीं होती किन्तु स्वविषय में अपवाद उत्सर्ग का बाधक होताहै तो दोऽकितः दूस सुत्र में अकित् ग्रहण व्यर्थ होता है क्योंकि जो सामान्य से अभ्यास कोदोघ
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पारिभाषिकः ।
कहते तो अनुनासिकान्त अकारोपध धातुओं के अभ्यास को दीर्घ का बाधक ( नुक ) आगम हो कर अजन्त के न रहने से दोव की प्राप्ति हो नहीं थी तो (यंबम्यते, रंरम्यते ) आदि प्रयोग सिद्ध हो हो जाते फिर अकित् ग्रहण व्यर्थ हो कर इस वक्ष्यमाण परिभाषा के निकलने में ज्ञापक है । ५७-अभ्यासविकारेष्वपवादा उत्पन्न बाधन्ते ॥१०७/४८३॥ ___ अभ्यास के आदेशविधानप्रकरण में अपवाद उत्सगों के बाधक नहीं होते तो जब दोघरूप उत्सर्ग का बाधक नुक, न रहा तो (यंयम्यते) आदि में दीर्घ को प्राप्ति हुई इसलिये अकित् ग्रहण सार्थक हुआ यह तो स्वार्थ में चरितार्थ और अन्यत्र फल यह है कि (डोढौकाते,तोत्रौक्यते) इत्यादि प्रयोग में उत्सगरूप हखका बाधक दीर्घ नहीं होता और जो इत्व का अपवाद होने से औकार को श्रीकार ही दौर्ष कर लेवें तो फिर हव होकर गुण न होवे तो ( डोढौक्यते ) आदि प्रयोग भी सिद्ध न हों इत्यादि इस परिभाषा के अनेक प्रयोजन हैं ॥ ५७॥
तकोलादि अर्थों में ( टन् प्रत्यय बुल का अपवाद है और ( गवुल ) तथा (न असरूप प्रत्यय भी हैं सो धावधिकार में असरूप प्रत्य य उ सर्ग का बाधक विकल्प करके होता है पक्ष में उत्सर्ग भी होजाता है अब ( निन्दहिं सक्लिश० ) इस सूत्र में (वुञ्) प्रत्यय का (टन) अपवाद क्यों पढ़ा क्योंकि टन के द्वितीय पक्ष में गवुल होकर (निन्दकः, हिंसकः) आदि प्रयोग बन ही जाते कि जो वुञ) प्रत्यय के होने से बनते हैं और (निन्दकः) आदि में (गत्रुल, वुञ ) का स्वर भी एक ही होता है एक (असूयक) शब्द के स्वर में तो (एवुल, वुञ) के होने से भेद पड़ेगा । ण्वुल का स्वर [ असूयकः ] वुञ का [ असू' यकः ] और [ निन्द'कः
आदि में आद्यदात्त हो रहेगा । फिर निन्द आदि धातुओं से वुविधान व्यर्थ हुआ इसलिये यह ज्ञापकसिद्ध परिभाषा है।
५८-ताच्छीलिकेषु सर्व एव तृजादयोवाऽसरूपेण न भवन्ति। अ० ३।२। १४६ ॥ वृचआदि अपवादों के साथ असरूप उत्सर्ग रूप प्रत्यय तकोलाधिकार विहित अपवादों के पक्ष में नहीं होते । इस से तकोलाधिकार वहित टन के पक्ष में जब एवुल नहीं होसकता तो निन्द आदि धातुओं से विधान सार्थक होगया और [ असूयकः ] में स्वर भेद होने के लिये [ वुत्र ] कहना आवश्यकही है। यादि .नेक प्रयोजन हैं । ५८ ॥
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॥ पारिभाषिकः ॥
अब धाव धिकार में सर्वत्र वासरूपविधि के मानने से (हसितं, हसनं वा छात्रस्य शोभनम् ) यहाँ (ता) और ल्युट के विषय में बञ् (इकति भोक्तुम् ) यहां (लिङ, लोट) और (ईषत्पानः सोमो भवता) यहां (खल ) असरूप उत्सर्ग होने से प्राप्त हैं इस सन्देह की निवृत्ति के लिये यह परिभाषा है । ५९-तल्युटतुमुन्खलर्थेषुवाऽसरूपविधिनास्ति ।०३।१।९४॥
त, ल्यूट, तुमन, और खलर्थप्र ययों के विषय में असरूप उसग प्रत्यय अपवादपक्ष में नहीं होते इस से (हसितम्, 'हसनम् ) आदि प्रयोगों के विषय में घा
आदि उसमें प्रत्यय नहीं होते ( अहे सत्य वचच) इस सूत्र में कृत्य और च प्रत्यय नहीं कहते तो अहं अर्थ में कहे हुए लिङ्ग के साथ असारूप्य होने से अहं अर्थ में कत्य और तृच हो ही जाते फिर कृत्य और ढच् ग्रहण व्यर्थ होकर यह जनाले हैं कि ( वासरूपोऽस्त्रियाम् ) यह परिभाषा अनित्य है ।। ५८ ॥
( हगस्वतोलङच) इस सूत्र में लङ् ग्रहण नहीं करते तो भूतानद्यतनपरो. क्षकाल में विहित (लिट ) के साथ असरूप ( लङ] का समावेश हो ही जाता फिर लङ व्यर्थ होकर इस परिभाषा का ज्ञापक होता है ।
६०-लादेशेष वाऽसरूपविधिन भवति ॥१० ३।१।९४ ॥ __ लकारार्य विधान में वाऽशरूपविधि नहीं होती। इस से सङ् लकार का ग्रहण सार्थक हुा । और [म्स टःशगानचा०] यहां विकल्पको अनुहति इसलिये करते हैं कि जिस से तिङ का भी पक्ष में समावेश हो जावे जो वासरु प. विधि होजाती तो तिङ समावेश के लिये विकल्प नहीं लाने पड़ता इत्यादि अनेक प्रयोजन इस परिभाषा के समझने चाहिये। ६० । ___ अब तस्मिन्निति,तम्मादित्युत्तरस्य इन सूत्रों से सप्तमीनिर्दिष्ट कार्य अव्यवहित पूर्व के और पंचमीनिर्दिष्ट उत्तर के होता है सा[बको यणच ] यहां सप्तमीनिर्दिष्ट पूर्वका और ठद्यन्तरुपसर्गभ्योऽपईत होपम् । यहां पंचमीनिर्दिष्ट उत्तर को होता है। परन्तु जहां पंचमी और सप्तमी दोन विभक्तियों का निर्देश हो वहां किसको कार्य होना चाहिये इस संदेह को निवृत्ति के लिये यह परिभाषाहै । ६१-उभयनिर्देशे विप्रतिषेधात् पंचमीनिर्देशः॥प्र० ११ ११६६॥
जहां सप्तमौ पंचमी दोनों विभक्तियों से निर्देश किया है वहां [तस्मिन् नति. | तस्मादित्य.] इन दोनों सूत्रों में पर विप्रतिषेध मान के पंचमौनिर्दिष्ट का कार्य
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॥ पारिभाषिकः ॥
३३
होना चाहिये जैसे ( बहोर्लोपोभूच बहोः ) यहां ( बहु ) शब्द पंचमीनिर्दिष्ट और ( इष्ठन्, इमनिच्, ईयसुन् ) सतमोनिर्दिष्ट हैं यह बहु से परे इष्ठन् आदि को वा इष्ठन् आदि के परे बहु शब्द को कार्य होवे इस सन्देह की निवृति इस परिभाषा से हुई कि पंचमीनिर्दिष्ट को कार्य होना चाहिये अर्थात् बहु से परे इष्ठन् श्रादि को कार्य होवे सोपरको विहितकार्य अर्थात् ईयसुन् के आदि का लोप हो जाता हे भूयान्, भूमा तथा ( ङमो हुस्वादचिङयुग् नित्यम् ) यहां ङम् से परे अच् को वा अच् परै हो तो ङम् को कार्य हो यह सन्देह है । सो ह्रस्व से परे जो उम् से परे अच् को कार्य होता है ( तिङतिङ : ) कुर्वन्द्रास्ते । इत्यादि बहुत सन्देह निवृत्त हो जाते हैं ॥ ६१ ॥
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इस व्याकरणशास्त्र में ( स्वं रूपं शब्दस्या० ) इस परिभाषासूत्र के अनुकूल ( पवस्कुभो, पयस्पात्री) इत्यादि प्रयोगों में विसर्जनीय को सकारादेश न होना चाहिये क्योंकि कुम्भ और पात्र आदि शब्दों के परे कहा है उन के स्वरूप ग्रहण होने से स्त्रीलिङ्ग में नहीं हो सकता। इसलिये यह परिभाषा है |
६२ - प्रातिपदिकग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणं भवति ॥
श्र०
४।१।१ ॥
प्रातिपदिक के परे वा प्रातिपदिक को जहां कार्य कहा हो वहां पठित लिङ्ग से विशेषलिङ्ग का भी ग्रहण होना चाहिये इस से पयस्कुम्भी आदि प्रयोग भी सिद्द हो जाते हैं जैसे सर्वनाम को सुट कहा है सो ( येषाम्, तेषाम् ) यहां तो होता ही है ( यासां तासां ) यहां भी हो जावे असे ( कष्टं श्रितः कष्टश्रित: ) यहां समास होता है वैसे ( कटं श्रिता कष्टविता ) यहां भी हो जावे जैसे ( हस्तिनां समूहो हास्तिकम् ) यहां ठक् होता है वैसे ( हस्तिनीनां समूहो हास्तिकम् ) यहां भी हो जावे जैसे ( ग्रामवासी ) यहां सप्तमी का अलुक् होता है वैसे ( ग्रामे वासिनी ) यहां भी हो नावे इत्यादि अनेक प्रयोजन हैं ॥ ६२ ॥
जब प्रातिपदिक के ग्रहण में लिङ्गविशिष्ट का भी ग्रहण होता है तो जैसे ( यूनः पश्य ) यहां युवन् शब्द को सम्प्रसारण होता है वैसे. ( युवतीः पश्य ) यहां स्त्रीलिङ्ग में भी होना चाहिये इत्यादि सन्देहों को निवृत्ति के लिये यह परि० ॥
६३ - विभक्तौ लिङ्गविशिष्टग्रहणं न ॥ श्र० ७ । १ । १ ॥
विभक्ति के आश्रय कार्य करने में पठितलिंग से अन्य लिंग का ग्रहण नहीं होता । इस से भसंज्ञाश्रय सम्प्रसारण युवति शब्द को नहीं होता तथा जैसे
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पारिभाषिकः । (गोमान्, यवमान्) यहां नुम् औरदीर्घ होते हैं वैसे (गोमती, यवमती यहां होवे सो सर्वनामस्थ विभक्तयाश्रित कार्य होने से नहीं होताजैसे (सखा, सखायौ) यहाँ सखि शब्द को आकारादेश होता है वैसे सखो,सख्यो,सख्यः) यहां स्त्रीलिङ्ग में विभक्तयात्रित आकार नहीं होता इत्यादि इस परिभाषा के भी बहुत प्रयोजन । ६३ ।
(तस्यापत्यम्) इस सूत्र में (तस्य) यह पुल्लिङ्गः षष्ठी का एक वचन और अपत्य शब्द नपुंसकलिंग प्रथमैकवचननिर्देश किया है तो (कन्याया अपत्यं,कानीनः)यहाँ स्त्रीलिंग शब्दसे कानोन शब्द नहीं सिद्ध होना चाहिये और (इयोर्मात्रोरपत्यं वैमा. तुरः ) यहां द्विवचन से प्रत्ययोत्पत्ति भी नहीं होनी चाहिये इसलिये यह परिभाषा है।
६४-सूत्रे लिङ्गवचनमतन्त्रम् ॥ ०४।१। ९२ ॥
जो सूत्र में लिंग और बचन पढ़े है वे कार्य करने में प्रधान नहीं होते अर्थात् | जहां स्त्रीलिंग, पुल्लिंग वा नपुंसकलिंग से तथा एकवचन, दिवचन बहुवचन से निर्देश किये जायें वहां उसो पठितलिंग वा वचन से कार्य लिया जाय यह नि
यम नहीं समझना चाहिये किन्तु एक किसी लिग वा वचनसे शब्द पढ़ा हो तो । सभी लिङ्ग वचने से कार्य हो सकते हैं इस से (कानीनः, द्वैमातुरः ) इत्यादि
शब्द सिद्ध हो जाते हैं । इत्यादि अनेक प्रयोजन इस परिभाषा से सिद्ध होते हैं।६४॥ ____ अब अच्व्यन्त भशादि प्रातिपदिकों से जो भू धातु के अर्थ में ( क्यङ्) प्रत्यय होता है वह (क दिवा भृशा भवन्ति) यहां भी भृश शब्दसे होना चाहिये वृत्यादि सन्देहों को निवृत्ति के लिये यह परिभाषाहै । ६५-जत्रिवयुक्तमन्यसहशाधिकरणे तथाह्यर्थगतिः ॥ ०
३।१ । १२॥ वाक्य में जो नजयुक्त पद है उस के समान जो वाक्य में युक्त और उस नजयुक्त पदार्थ के सदृश धर्मवाला हो उस में कार्यविधान होना चाहिये । ऐसा ही अर्थ लोक में प्रतीत होता है । अर्थात् वाक्य में जिसपदार्थ को जिस क्रिया का निषेध होवे उस पदार्थ के तुल्य धर्म वाले को उसी क्रिया का विधान कर लेना चाहिये। जैसे लोक में किसी ने कहा कि (अब्राह्मणमानय) ब्राह्मण से भिन को लेता तो ब्राह्मण से भिन्न क्षत्रियादि किसी मनुष्य को ले आता है क्योंकि ब्राह्मण के तुल्य धर्मवाला मनुष्य ही होता है किन्तु यह नहीं होता कि ब्राह्मणसे इतर को मंगवाने में मही वा पत्थर आदि किसी पदार्थ को लेा के अपना अभीष्ट
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॥ पारिभाषिकः ।
सिद्ध कर लेवे । इसी प्रकार शास्त्रों में भी जिस का निषेध किया हो उसके सदृश दूसरे का विधान करना चाहिये । यहां जो विप्रत्ययान्त से अन्य भशादिशब्दों से क्या प्रत्यय विधान किया है वह विप्रत्ययान्त के तुल्य अर्थ वाले भशादिको से क्या होना चाहिये । चि प्रत्यय का अर्थ अभूततझाव है उसी अर्थ में यह होता है अभशो भयो भवति,भशायते ) इत्यादि ( क्वदिवा भशा भवन्ति) यहां प्रभूततनाव के न होने से (क्यङ) नहीं होता। तथा (दधिकादयति, मधुका दयति ) इत्यादि प्रयोग में (तुक) आगम को अभक्त माने कि न पूर्वान्त और न परादि दोनों से पृथक है तो अतिङ् से परे तिङ् पद को निघात होजाये । सो तक तिड से भिव तिङ के तुल्य धर्मवाला पद नहीं है इस से निघात नहीं पावेगा और निघात होना न्ष्ट है इसलिये (तुक) को प्रभक्त नहीं करना किन्तु पूर्वान्त हो करना चाहिये इत्यादि अनेक प्रयोजन हैं । ६५ ॥
(उपपदमतिङ) इस सूत्र में अतिङग्रहण का यही प्रयोजन है कि तिङन्त उपपद का समास न होवे सा जो (सुप, सुपा) इन दोनों को अनुप्ति चली
आती है तब तो तिङ उपपद का समास प्रासही नहीं फिर निषेधार्थ करना व्यर्थ हुआ इसलिये ऐसा ज्ञापक होना चाहिये कि असुबन्त के साथ पसुबन्तका भी समास होता है तब तो अतिङ्ग्रहण सार्थक होता है इसलिये यह प० । ६६-गतिकारकोपपदानां कृद्भिःसह समासवचनंप्राकसुबुत्
पत्तेः ॥ अ० ४ । । ४८॥ ___ गति कारक और उपपद जून का कदन्त के साथ सु आदि की उत्पत्ति से पहिले हो समास होजाता है । यहां केवल सुपरहित वदन्त के साथ समास हुआ तो अतिङग्रहण सार्थक होने से स्वार्थ में चरितार्थ होगया । और अन्यत्र फल यह है कि गति, (सांकूटिनम्) यहां जो तड़ितोत्पत्ति से पहिले सम् और कुटिन सुबन्तों का समास करके पीछे तहित उत्पन्न किया चाहें तो तदितोत्पत्ति को विवक्षा में कूटिन शब्द को पृथक् पदसंज्ञा रहने से सम् शब्द को वृद्धि नहीं हो सकती। और जब सुपरहित केवल कूटिन् कृदन्त के साथ समास होता है तब समास समुदाय की एक पदसंज्ञा होकर तचितोत्पत्ति होने से सम को वृद्धि होजाती है। कारक, (वा वस्त्रेण क्रीयते सा वस्त्र क्रीती,अश्वक्रीती) इत्यादि शब्दों में केवल क्रीत कदन्त के साथ वस्त्र आदि शब्दों का समास होकर करण पूर्व कीतान्त प्रातिपदिक से (डीए) प्रत्यय होजाता है । और जो सुबन्त के साथ ही समास नियम रहे तो समास को विवक्षा में हो अन्तरङ्ग होने से
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॥ पारिभाषिकः ।
अकारान्तकीत शब्दसे टाप होजावे पुनः अकारान्त होजानेसे अकारान्तसे विहित डोष प्रत्यय नहीं होवे तो(वस्त्रकोती) आदि प्रयोग भी सिद्ध न हो सके । उपपद, (मासवापिणी, ब्रीहिवापिणौ ) यहां प्रातिपदिकान्त नकार को णत्व होता है । सो जो सुबन्तों का ही समास करें तो समास को विवक्षा में ही नकारान्त (वापिन्) शब्दसे ङोप होकर पोछे समास हो तब उस ङोबन्त ( माषवापिनी) समुदाय को प्रातिपदिकसंज्ञा होवे तो प्रातिपदिकान्त ईकार के होने से फिर णत्व नहीं होसके । और जब केवल हादन्त वापिन् शब्द के साथ समास होता है तब केवल माषवापिन नकारान्त शब्दको प्रातिपदिकसंज्ञा होकर डीप होताहै तो प्राति. पदिकान्त नकार को णत्व होजाता है इत्यादि अनेक प्रोजन हैं ॥ ६६ ॥ (उगिदचा सर्वनामस्थानधातोः ) इस सूत्र में उगित् धातु के निषेध का यही प्रयोजन है कि (उखास्मत्, पर्णध्वत्) इत्यादि में नुम् आगम न हो सा यह प्रयो. जन तो (अज) धातु के ग्रहण से निकल जाता कि (उगित्) धातुको (नुम) श्रा. गम हो तो अञ्च हो को हो इस नियम से अन्य उगित् धातु का नुम् होता हो नहीं फिर अधातु ग्रहण व्यर्थ हुआ । इसके व्यर्थ होने रूप ज्ञापक से यह परि. भाषा निकली है। ६७-साम्प्रतिकाऽभावे भूतपूर्वगतिः ॥
जो पदार्थ वर्तमान काल में अपनी प्रथमावस्था से पृथक होगया होतो उसो पूर्वावस्था के सम्बन्ध से उस को वर्तमान में भी कार्य हो जैसे (गोमन्तमिलति,. गोमत्यति , गोमत्यते, विप,गोमान्) यहां प्रथम तो गोमान् प्रातिपदिक है पोछे उस से क्यच हुआ तो धातुसंज्ञा हुई फिर क्यच्प्रत्ययान्त से क्विप होने से धातु. मंशा उसको बनी रहो। सो पूर्व रहो प्रातिपदिकसंजा के स्मरण से पोछ धातुसंज्ञा के बने रहते भौ (नुम्) होता है अर्थात् अधातुनिषेध नहीं लगता इस से अधात निषेध भी सार्थक रहा । तथा (आत्मनः कुमारी मिकति, कुमारीयति, कमारीयतेः कर्तरि किप,कुमारी ब्राह्मणः,तस्मे कुमाय *ब्राह्मणाय) यहां कुमारों शब्द प्रथमावस्था में स्त्रीलिङ्गई कारान्त है तब तो स्न्याख्य ईकारान्त नदी. संज्ञा सिद्धहै पीछे जब पुल्लिङ्गवादी हो गया तब भी पूर्वावस्था के भूतपूर्व स्त्रीत्व को लेकर नदीसंज्ञा होके नदीसंज्ञा के कार्य भी होते हैं । इत्यादि अनेक प्रयो
--
मतपर्वगति परिभाषा के मानने से कार्य भी चल जाता तथा अन्यत्र भी सब काम चलता है फिर बाहाणाय । इत्यादि प्रयोगसिद्धि के लिये नदीसंज्ञा मैं ( प्रथमलिजयहणच ) इम वाचिक का भी
नही रहा क्योंकि इस परिभाषा के होने से सब काम निकल जाते हैं वार्तिक एकदेशी और परिभाषा सर्व देशी है। ..
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॥ पारिभाषिकः ॥
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बहुव्रीहिसमासमें अन्य पदार्थ प्रधान होता है अर्थात् जिन दो वा अधिक पदों का समास किया जावे उन पदों से पृथक् पद वाच्य अन्य पदार्थं कहाता है जैसे (चित्रा गावो यस्य स चित्रगुः, शवलगुः ) यहां गौओं का विशेषण (चित्रगुण) और गौ इन दोनों पदों से भिन्न इन का स्वामी ( चित्रगु ) कहाता है इसी प्रकार (सर्व दिर्येषां तानि सर्वादीनि ) यहां सर्व और आदि दोनों शब्द से पृथक् अन्यपदार्थ लिया जावे तो सर्वग्रब्दको सर्वनाम संज्ञा नहीं होसके इसलिये यह परिभाषा है।
६८ - भवति हि बहुव्रीहौ तद्गुएासं विज्ञानमपि ॥ ०१।१।२७॥
बहुव्रीहि दो प्रकार का होता है एक ( तद्गुणसंविज्ञान ) और दूसरा ( अतगुणसंविज्ञान ) तद्गुणसंविज्ञान उस को कहते हैं कि जहां उस अन्य पदार्थ के साथ उसके निज गुणों का समवायसम्बन्ध हो जैसे (लम्बकर्णः, तुङ्गनासिकः, दीर्घबाहु:, क्लृप्तकेशनखश्मश्रुः) इत्यादि में अन्य पदार्थ का बोध कान आदि के सहित होता है । तद्गुणसंविज्ञान वह है कि जिन पदों का समास किया जावे उन से अन्य पदार्थ का पृथक् सम्बन्ध बना रहे कि जैसे ( चित्रगु ) शब्द में दिखा दिया है । इस से सर्वादि में भी तद्गुणसंविज्ञान मान के सर्व शब्द कोभी सर्वनामसंज्ञा हो जाती है । इसी प्रकार अन्यत्र भी जानना चाहिये ॥ ६८ ॥
जहां समास को अन्तोदात्त स्वर कहा है वहां (ब्राह्मणसमित्, राजदृषत् ) इत्यादि प्रयोगों के अन्त में तकार है तो विधानसामर्थ्य से उस व्यञ्जन काही उदात्त होजाना चाहिये 'इत्यादि सन्देह को निवृत्ति के लिये यह परि० ॥
६९ - हल्स्वरप्राप्तौ व्यंजनम विद्यमानवद्भवति ॥ श्र० ६ १/२२३॥ က် व्यञ्जनको उदात्तादि स्वर प्राप्त होता वह व्यञ्जन श्रविद्यमानवत् होता है इससे ( ब्राह्मणस मित्) आदि प्रयोगों में अन्त्य तकार को अविद्यमानवत् मानके इकार
* इस परिभाषा के आगे नागेश ने ( चामुक्कष्टं नात्तरत्र ) यह परिभाषा लिखो है सेा ठोकनहीं क्योंकि उसका मूल कहीं महाभाष्यसे वा मूचों से नहीं निकलता । और न कोई उदाहरण मुख्य प्रयोजन का दिया |
+ इस परिभाषा को नागेश भट्ट तथा अन्य लोग भी महाभाष्य से विरुद्ध लिखते पढ़ते हैं कि ( स्वरविधौ व्यञ्जनमविद्यमानवत्) ऐसा पाठ करने में महाभाष्यकारने ये दोषभौ दिखाये हैं कि उदात्तादि खरे के विधानमात्र में जो व्यञ्जन अविद्यमानवत् माना जाये तो (विद्युत्वान वलाहकः ) यहां विद्युत् के तकार को अवद्यमान मानें तो दुख से परे मतुप् का उदात्त खर ( छूखनुभ्यां०) सूत्र से प्राप्त है० इत्यादि अनेक दोष आयेंगे । और ( हल्वरप्राप्तौ० ) इस प्रकार की परिभाषा कोई दोष नहीं आता इसलिये नागेश आदि का मानना
ठीक नहीं है ।
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॥ पारिभाषिकः । को उदात्त हो जाता है । इस का ज्ञापक ( यतोऽनावः ) इस सूत्र में यत् प्रत्ययान्त उद्यच् प्रातिपदिक को आद्युदात्त कहा है । और (नौ) शब्द का निषेध इसीलिये है कि (नाव्यम्) यहां आद्यदात्त न हो सो जब आदि में नकारहै तब स्वर के होने से आद्यदात्त प्राप्त ही नहीं फिर निषेध करने से यही प्रयोजन है कि उस नकार का भी स्वर प्राप्त होता है सो अविद्यमामवत मान के आकार को होजाता इसलिये निषेध किया। तथा अनुदात्तादि वा अन्तोदात्त से परे जो कार्य कहे हैं उन में जहां आदि और अन्त में व्यञ्जन हैं वहां उन कार्याको प्राप्ति नहीं होगी वहां भी अविद्यमानवत् मान कर काम चल जाता है । और जो कदाचित् ऐसा मान लिया जावे कि उदात्तादि गुण व्यंजनों के ही हैं उन के संयोग से अचोंके भी धर्म समझ जाते हैं सो नहीं बन सकता क्योंकि व्यंजन के विना भी केवल अचों में उदात्तादि धर्म प्रसिद्ध है और घच के विना व्यंजन का उच्चारण होना भी कठिन है इसलिये उदातादि गुण स्वतंत्र व्यंजनों के नहीं होसकते । परन्तु यह बात तो माननी चाहिये कि अच् के संयोग से व्यंजन को भी उदात्तादि गुण प्रामहो जाते हैं । जैसे दो रङ्गवस्त्रों के बीच एक खत वस्त्र हो तो वह भी कुछ रङ्गित प्रतीत होता है ॥ ६ ॥
(वामदेवाड घडड्यौ) इस सूत्र में यत् श्री ह्य प्रत्यय हित इसीलिये पढे हैं कि डित के परे वामदेव शब्द के टि भाग का लोप होजावे सो ( यस्येति च ) सूत्र से तड़ित के पर भसंज्ञक अवर्ण का लोप हो ही जाता फिर डितकरण व्यर्थ हो कर इन परिभाषाओं के निकलने में ज्ञापक है।
७०-अननुबन्धकग्रहणे न सानुबन्धकस्य ग्रहणम् ॥ ७१-तदनुबन्धकग्रहणे नातदनुबन्धकस्य ग्रहणम्॥१०४।२।९।। ___ अनुबन्धरहित प्रयोगों के ग्रहण में अनुबन्धसहितका ग्रहण नहीं होसकता अर्थात् जहां यत प्रत्यय डकार अनुबन्ध से रहित पढ़ा है और ड्यत् में डकारको इत्संज्ञा होकर यही रह जाता है जहां यत् और य प्रत्यय का ग्रहण किया है वहां ( ड्यत, ड्य ) प्रत्यय का ग्रहण न हो। और जिस अनुबन्धसे जो प्रत्ययपढ़ा है उस में द्वितीय अनुबन्ध के सहित प्रत्यय का ग्रहण न हो अर्थात् यत् कहनेसे ण्यत् अङ् कहने से च और अच् कहने से णच् का ग्रहण न हो इस से यह
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॥ पारिभाषिकः ॥
कि ( यतो वातदर्थे ) इस स्वर विधायक सूत्र में नत्र से परे ( य, यत् ) प्रत्ययान्त को अन्तोदात्त खर होता है सो जो ( यत्, व्य) का भी ग्रहण होवे ता ( वामदेव्यम् ) यहां भी अन्तोदात्त स्वर होजावे और पूर्वपदप्रकृतिस्वर इष्ट है इसलिये डित्ग्रहण का सार्थक होना स्वार्थ में चरितार्थ और अड़ के परजो गुणश्रादि कार्य कहा है सो चङ् के परे नहीं होता और चङ् के परे जोद्दित्वादि कार्य कहा है सो अङ् के पर नहीं होता इत्यादि अनेक प्रयोजन हैं ॥ ७० ॥०१॥
( एचः स्त्रियामञ् ) यहां णच् प्रत्ययान्त से स्वार्थ में अन् प्रत्ययकहा है सेा (कर्मव्यतिहारेणस्त्रियाम्) इस सूत्र से णच प्रत्यय का तो स्त्रीलिंगमें हो विधान है फिर स्वार्थ में णच् प्रत्ययान्त से अञ् कहने से स्त्रीलिंग हो हो जाता क्योंकि स्वार्थिक प्रत्ययों के होने में प्रकृति के लिङ्ग और वचन को अनुवृत्ति होती है फिर स्वीग्रहण व्यर्थ हुआ इसलिये यह परिभाषा है ।
७२ - कचित्स्वार्थिका अपि प्रकृतितो लिङ्गवचनान्यतिवर्त्तन्ते ॥
अ० ५ । ३ । ६८ ॥
कहीँ २ स्वार्थिक प्रत्यब भी प्रकृति के लिङ्ग वचनों को छोड़ देते हैं" जब प्रकृति के लिङ्ग वचन स्वार्थप्रत्ययोत्पत्ति में सर्वत्र नहीं बने रहते तो (चःस्त्रियामञ् ) सूत्र में स्त्रीग्रहण सार्थक हो गया । तथा ( अप्कल्पम् ) यहां नियत स्त्रीलिङ्ग बहुवचनान्त अप शब्द से कल्पप्प्रत्यय स्वार्थ में हुआ है सो अपने लिङ्ग वचन छोड़ के नपुंसकलिङ्ग एकवचन रह जाता है तथा (गुड़कल्पा द्राक्षा, पयस्कल्पा यवागूः) यहां गुड़पुलिङ्ग और पयः नपुंसकलिङ्ग से कल्पप् प्रत्यय होकर स्त्रीलिङ्ग हो जाता है । और कचित् कहने से यह प्रयोजन है कि (बहुगु• डो द्राक्षा, बहुपयो यवागूः ) इत्यादि में प्रकृति के अनुकूल हो लिङ्ग वचन रहते इत्यादि अनेक प्रयोजन हैं ॥ ७२ ॥
( प्रतेरंश्वादयस्तत्पुरुषे ) इस सूत्र के अंश्वादिगण में राजन् शब्द पढ़ा है तो उस का यही प्रयोजन है कि प्रति से परे तत्पुरुष समासमें राजन् शब्द अन्तोदात होजावे सो जब प्रतिपूर्वक राजन् शब्द से तत्पुरुष समास में समासान्तरच प्रत्यय प्राप्त है तब तो चित् होने से अन्तोदात्त हो ही जाता फिर राजन् शब्द का पाठ व्यर्थ हुआ इसलिये यह परिभाषा है ।
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४०
# पारिभाषिकः
७३ - विभाषा समासान्तो भवति ॥ अ०
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६ । २ । १९७ ॥
समासान्त सब प्रत्यय विकल्प करके होते हैं तो प्रतिपूर्वक राजन् शब्दसेजिस पक्ष में समासान्त टच् न हुआ वहां (प्रतिराजा ) में भी अन्तोदान्त होजावे इस लिये राजन् शब्द का अंखादिगण में पढ़ना सार्थक हो गया । तथा ( द्वित्रिभ्यां पाइन्) इस सूत्र से भी बहुव्रीहिसमास में हित्रिपूर्वक मूर्ख शब्दको अन्तोदात स्वर कहा है सो यहां भी हित्रिपूर्वक मूर्ख से जब समासान्त ष प्रत्ययविधान है तो प्रत्ययवर से अन्तोदात्त सिद्ध हो है फिर मूर्ख शब्द का ग्रहण इसीलिये है कि समासान्त प्रत्यय विकल्प होते हैं सो जिस पक्ष में समासान्त नहीं होता ( मूडी, त्रिमूर्द्धा) यहां भी ग्रन्तोदात्त खर हो जावे । इत्यादि प्रयोजनोंके लिये यह परिभाषा है ॥ ७३ ॥
,
( शतानि सहस्राणि ) यहां जब सर्वनामस्थान शि को मान के नुम् श्रागम होता है तब ( शतन्, सह खन्) शब्दों के नकारान्त हो जाने से ( ष्णान्ता षट् सूत्र से षट्संज्ञा होजावे तो( षड्भ्यो लुक् ) सूत्र से शिका लुक् होना चाहिये इत्यादि समाधान के लिये यह परिभाषा है |
७१- सन्निपातलक्षणो विधिरनिमित्तं तद्विघातस्य ॥ ० १|१|३९॥
जो एक के श्राश्रय से दूसरे का सम्बन्ध होना है वह सन्निपात कहाता है उसी सन्निपातसंबन्ध का जो निमित्त हो ऐसा जो विधि कार्य है वह उस अपने निमित्तके बिगाड़नेको अनिमित्त अर्थात् असमर्थ होता है । यहां शत, सहस्रशब्द से जस आकर शि आदेश हुआ अब शि के आश्रय से शत शब्द को नुम् हो कर शत नान्त हुआ अब जिस के आश्रय से शत को नान्तत्व गुण मिला उस नान्तगुण से उसी का विघात करे यह ठीक नहीं इस से ( शतानि सहस्राणि श्रादि में शि का लुक नहीं होता तथा ( दूयेष, उवोप) यहां एल् प्रत्यय के आश्रय से ( दूष, उष) धातु का गुण होता है गुण होने से बजादि मान कर आम् प्राप्त है और
,
इस परिभाषा का नागेश भट्ट ने ( समासान्तविधिरनित्य ) ऐसा लिखा है सेो महाभाष्य में विरुद्ध है क्योंकि अनित्य चीरविभाषा में बहुत भेद है अनित्य उस का कहते हैं कि जो कभी हो और कभी नही और विकल्प के दो पक्ष सदा बने रहते हैं और इस परिभाषा को भूमिका में (सुपथी नगरी ) यह महाभाष्य का उदाहरण करके रक्खा है कि पथिन् शब्द से ( इम: स्त्रियाम्) सूत्र से समासान्त कप् नहीं हुआ तो समा सान्त अनित्य हैं । सेा यह नहीं विचारा कि (न पूजनात् ) सूव से ( सुपथो नगरी) आदि सब में पूजनवाची समास से समासान्त का निषेध सिद्ध है जब कप् प्राप्त हो नहीं तो समासान्तविधि के अनित्य होने में (सुपथ नगरी ) यह प्रयोग कब समर्थ हो सकता है । देखो व्याकरण में नागेश को कितनी बड़ी भूल है ।
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पारिभाषिकः ।
४१
पाम् के हो जाने से उस से परे लुक् कहा है तो उसी गन् का विघात हो कि जिस के आश्रय से इस उष जादि हुए हैं इत्यादि बस के अनेक प्रयोजन है। और लोक के साथ भी इस परिभाषा का सम्बन्ध है कि जो पुरुष जिस धनाढ्य के धन से स्वयं धनवान हुआ हो वह उसो धन से धनाव्य का विघात कर यह बहुत विरुद्ध है अर्थात् ऐसा कभी न होना चाहिये कि जिस के संग से जो सामथ्र्य प्राप्त हो उस सामथ्र्य से उसी को नष्ट करे ॥ ७४ ॥
(पञ्चन्द्राण्यो देवता अस्य स पञ्चेन्द्रः स्थालौपाकः ) पञ्चन्द्राणी शब्द से देवता अर्थ में विहित अण् प्रत्यय का (हिंगोलुगनपत्ये ) सूत्र से लक होकर ( लतादि. तलुकिसूत्र से ईकार स्त्रीप्रत्यय का भी लुक हो जाता है। तब डोष के संयोग से आया जो प्रानुक् आगम उस का लुक विधान किसी सूत्र से नहीं किया सो उस आनुक का श्रवण हो तो (पञ्चेन्द्रः ) आदि शब्द सिद्ध नहीं हो सके इसलिये यह परिभाषा है। ७५-संनियोगशिष्टानामन्यतराऽभावे उभयोरप्यभावः ॥ ० ६।४ । १५३ ॥
जिस कार्य के होने में एक साथ दो का नियम हुआ हो उन में से जम एकका अभाव होजावे तब दूसरे का अपने पाप प्रभाव होजाताहै। जैसा किसी कार्य का नियम है कि देवदत्त यज्ञदत्तदोनों मिलके इस काम को करें सो नो देवदत्त न रहे तो यन्नदत्त उस कार्य से स्वयं मित्त होजाता है। इसी प्रकार यहां भी इन्द्र शब्द से स्त्रीत्व रूप कार्य को विवक्षा को डोष और आनुक दोने पूरी करते हैं। सो नब डोष का प्रभाव होता है तब प्रामुक भी यहां से निकृत्त होजाता है । तथा ( पञ्चाग्नाय्यो देवता प्रस्य स पञ्चाग्निः) । यहां स्त्री प्रत्यय के लुक होने के पशात ऐकार पागम को भी निवृत्ति होनाती है। इस परिभाषा का ज्ञापक यह है कि (विल्यकादिभ्यश छस्म लुक ) इस सूत्र में विल्यकादि से परे छ प्रत्यय का लुक कहा है और उसो छ प्रत्यय के संयोग से विल्यादि शब्दों को कुक होता है। सो विल्वादि शब्दों से छ का लुक कहदेते तो कुक आगम को भी निहात्ति हो जाती। इसलिये विल्वादि शब्दों को कुक आगम के सहित पढ़ उन से परे छ प्रत्ययमान का लुक कहा है। इस से सिद्ध हुआ कि आगमी को निवृत्ति में पागम को नियत्ति होजाती है। तब कृत कुगागम विल्वकादि से छ प्रत्यय का लुक कहा है इत्यादि अनेक प्रयोजन हैं । ७५ ॥
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४२
। पारिभाषिकः ।
तदनुबन्धकग्रहणे इस पूर्व लिखित परिभाषा के अनुकूल अगा प्रत्यय के आश्रय कार्य है वह ण प्रत्यय को मान के न होना चाहिये तो ( काम स्ताकोल्ये ) इस सूत्र का यही प्रयोजन है कि तालोल्य अर्थ में ण प्रत्यय परे होता कमन् शब्द के टि भाग का लोप हो सो (नस्तद्धिते)सूत्र से नान्त भ संज्ञक अङ्ग के टिका लोप सिह ही है तो ताकील्य अर्थ में ( काम:) प्रयोग बन हो जाता फिर यह सूत्र व्यर्थ होकर इस परिभाषा का जापक है। ८६-ताच्छीलिकेणेऽण् कतानि भवन्ति ॥१०६।४। १७२ ॥
तकोल अर्थ में विहित ण प्रत्यय के परे अण प्रत्य याश्रित कार्य भी होते है इस से यह पाया कि ( अन् ) सूत्र से अण प्रत्यय के परे अवन्त को प्रकृतिभाव कहा है सो ताछोल्य अर्थ में ण प्रत्य य के परे अनन्त कर्मन् शब्द को भी प्राप्त था इसलिये ( कार्मस्ताकोल्ये ) सूत्र में टिलोपनिपातन सार्थक होगया यह स्वार्थ में चरितार्थ है ! अन्यत्र फल यह है कि (तुरागोलमस्याः सा चौरी, तपः शोलमस्याः सा तापसी इत्यादि प्रयोगों में ताकौलिक ण प्रत्ययान्तसे (टिड्ढाणज०) सूत्र में अपन्त से कहा डोप हो जाता है इत्यादि अनेक प्रयोजन हैं । ७६ ॥
(दाण्डिनाय०) इस सूत्र में भ्रौणहत्य शब्द निपातन किया है उस से यही प्रयोजन है कि (भ्रणघ्नो भावः भ्रौणहत्यम्) यहां निपातन से तकारादेश होजावे सो जो ( हनस्तोऽचिसालोः) सूत्र से ध्यञ् प्रत्यय के परे हन् के नकार के तका. रादेश होजाता तो फिर निपातन करना व्यर्थ है इसलिये यह परिभाषा है । ७७-धातोः कार्यमच्यमानं तत्प्रत्यये भवति ॥प्र०७२।११४॥ जो धातु को कार्य कहा है वह उसी धातु से विहित प्रत्यय के परे हो अर्थात् धात को कार्य प्रातिपदिक से विहित तड़ित के परे नहो इससे हन् धातु को कहा तकारादेश भौणहत्य में प्रातिपदिक से विहित तद्धित व्यज के परे नहीं हो सकता। इसलिये भौणहत्य में तकारादेश निपातन करना सार्थक हुआ और अन्यत्र फल यह है कि (भ्रौणनः) यहां पण प्रत्ययके परे तकारादेश नहीं होता तथा (कंसपरिमृड्भ्याम्) यहां प्रातिपदिक से विहित विभक्ति के परे मृज् धातु को कही वृद्धि नहीं होती(रज्जुसृड्भ्याम्,देवग्भ्याम्)यहां झलादि अकित् विभक्ति के पर सुज् धातु को अम् प्रागम नहीं होता। इत्यादि अनेक प्रयोजन हैं॥७॥
( सर्वके, विश्वके,उच्चकैः,नोचक:)यहां सर्वनाम और अव्ययसंज्ञा नहीं होनी चाहिये कोंकि सर्वादि में सर्व विश्व शब्द और अव्ययों में उच्चैस नीरैस् शब्द पढ़े हैं
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पारिभाषिकः ॥ सो जब शब्द के स्वरूप का ग्रहण होता है तो उक्त शब्दों को सर्वनाम और अव्ययसंज्ञा कैसे होगी और संज्ञा के बिना सर्वनाम और अव्यय के कार्य भी नहीं हो सकते सलिये यह परिभाषा हे।
७८-तदेकदेशभृतस्तद्ग्रहणेन गृह्यते ॥ १।१। ७२ ॥
कसो के एकदेश में कोई अन्य आजावे तो वह उसी के ग्रहण से ग्रहण किया नाता है इस से यहां सर्व आदि शब्दों के मध्य में अकच प्रत्यय आगया वह उसौ के ग्रहण से ग्रहण किया गया तो सर्वनामसंज्ञा हो गई। इसी प्रकार (उच्चकः)
आदि में अव्ययसंज्ञा होना जागो । तथा ( अहंपटामकि ) यहां अतिङ् से परे तिङ्पद अनुदात्त भी हो जाता है । इत्यादि अनेक प्रयोजन हैं ॥ ७८ ॥
( गातिस्थाधुपा० ) इस सूत्र में गाति निर्देश से तो अदादि के इण् धातु का ग्रहण होना ठीक है । परन्तु पा धातु के ग्रहण में संदेह है कि अलुक विकरण भ्वादि और लुकविकरण अदादि इन दोनों में से किस का ग्रहण किया जावे सो जो अदादि के पा धातु का भी ग्रहण हो तो ( अपासोद्धनम् ) यहां भी सिच का लुक् हो जाना चाहिये इसलिये यह परिभाषा है।
७९-लुग्विकरणालुम्विकरणयोरलुग्विकरणस्यैव ग्रहणम् ॥
प्र. ७।२।११॥ लुग्विकरण और अलुग्विकरण के ग्रहण में अहां संदेह पड़े वहां अलुग्विकरण का हो ग्रहण होना चाहिये इस से उक्त (गातिस्था०) सूत्र में (पा पाने) अलुग्विकरण धातु का ग्रहण हो जाता है । और लुग्विकरण (पारक्षणे) का ग्रहण नहीं होता। इस का ज्ञापक यह है कि ( स्वरतिसूतिसूयति ) इस सूत्र में ( सूति, सूयति) दोनेके स्थान में सूङ पढते तो उन्हीं दोनों का ग्रहण हो जाता क्योंकि ये हो दोने सूङ हैं तीसरा नहीं परन्तु मूति लुग्विकरण अदादि और सूयति अलुग्विकरण दिवादि का है। इससे यहीाया कि सामान्य सूङ के पढ़ने से अलुगविकरण सूयति का ग्रहण होता और सूति का नहीं होता इसलिये पृथक् २ दोनों का निर्देश किया गया है इत्यादि इसके अनेक प्रयोजन हैं ॥ ७ ॥
(हेरचडि ) पूस सूत्र में अभ्यास से परे हि धातु के हकार को कुत्व कहा है परन्तु वह कुत्व चङ् में न हो सो चङ् णिजन्त से होता है उस च के परे हि की अङ्गसंज्ञा ही नहीं किन्तु णिच् के सहित और खिच के परे हि को अगसंज्ञा है और
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४४
पारिभाषिक: ॥
अंगाधिकार में अङ्ग को कार्य का विधान वा निषेध होता है इस घङ के परे कुत्व प्राप्त हो नहीं फिर निषेध क्यों किया इसलिये यह परिभाषा है । .८०-प्रतिग्रहणे ण्यधिकस्यापि कुत्वंभवति ॥ ५० ७॥५६॥
कृत्वप्रकरण में जहां मूलप्रकृति का ग्रहण है वहां णिच सहित प्रकृति का भी ग्रहण हो जावे । एप्त से चङ् के परे निषेध सार्थक होगया और अन्यत्र फल यह है कि ( प्रजिवाययिषति ) यहाँ णिजन्त हि धातु को सन् प्रत्यय के परे कुत्व हो जाता है इत्यादि प्रयोजन हैं। ८० ।
(ज्यादादीयसः) इस सूत्र में जो ज्य से परे ईयसन् प्रत्यय को आकारादेश न कहते तो भी लोप को अनुकृत्ति आकर पर के आदि ईकार का लोप होकर अक्कत् यकारादि प्रत्यय के परे ज्य को दोष हो के (ज्यायान) प्रयोग सिद्ध होही जावेगा फिर प्राकारादेश विधान व्यर्थ होने से यह परिभाषा है।
८१-अङ्ग वृत्ते पुनवृत्तावविधिः ॥ ०६।४ । १६० ॥
अंगाधिकार में कोई कार्य निष्पन्न हो गया होतो फिर दूसरे कार्य में प्रवृत्ति न होवे । इस से यह पाया कि अंगाधिकार के एक ईयसन्लोप कार्य होने में फिर द्वितीय कार्य दीर्घ नहीं हो सकता इसलिये पूर्वोक्त (ज्यादादीयसः) सूत्र में आकारादेश सार्थक हो गया तथा (रोड ऋतः ) यहाँ जो दीर्घ रोङ्न कहते तो भी (मात्रौयति) आदि में अक्कत् यकारादि प्रत्यय के परे दीर्घ हो जाता फिर दोघं रोङ् ग्रहण का यही प्रयोजन है कि रिङ् किये पोछे दीर्घ नहीं हो सका इसलिये दीर्घ रोङ पढ़ना चाहिये । इत्यादि अनेक प्रयोजन है ॥ ८१ ॥
(परमात्मामं नमस्करोति नमस्यति वा ) इत्यादि प्रयोगों में नमः शब्द के योग में चतुर्थी विभक्ति ( नमःस्वस्तिस्वाहास्वधाऽलंवषट्योगाच) इस सूच से होनी चाहिये सो इस समाधान के लिये यह परिभाषा है। ८२-उपपदविभक्तेः कारकविभक्तिर्बलीयसी ॥१०२३।१९॥
उपपदविभक्ति से कारकविभक्ति बलवान होतोहे। उपपदविभक्ति यह कहाती | है कि नहीं कर्मादि कारक व्यवस्था से किसी निज विभक्ति का नियम न किया | हो और जहां कर्मादि कारक व्यवस्था से नियत विभति होती है उस को कारक विभक्ति कहते हैं सो (परमात्मने नमः, गुरवे नमः) इत्यादि में तो उपपदविभक्ति चतुर्थी हो जाती और ( परमात्मानं नमस्करोति ) इत्यादि में उपपदविभक्ति
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॥ पारिभाषिकः । को बाध के कारकविभति हो जाती है । तथा (गाः स्वामी व्रजति) यहां स्वामी शब्द के योग में उपपद विभक्ति षष्ठी सप्तमौ (स्वामौखराधिपति. ) इस सूत्र से प्राप्त है परन्तु व्रजति क्रिया में गोत्रों को कर्मत्य होने से हितोयाविभक्ति हो जाती है । इत्यादि । ८२ ।। (मिमार्जिषति) यहां (मृज् सन् तिप्-) इस अवस्था में बरपेक्ष वृद्धि की अपेक्षा में अल्पापेक्ष अन्तरङ्ग होने से हित्व हो कर परत्व से अभ्यास कार्य होके (मिम. जसन् तिप्-८) यस अवस्था में कार ऋकार दोने को वृद्धि प्राप्त है सो जो अभ्यास कोभी वृद्धि होजाये तो इस्त्र का अपवाद होनेसे फिर इस्व नहीं होसकता तो (मिमाजिषति ) आदि प्रयोग भी सिद्ध नहीं हो सकते इसलिये यह परि०॥ ८३-अनन्त्यविकारेऽन्त्यसदेशस्य कार्यं भवति ॥०६।१।१३॥
नहां अनन्त्य और अन्त्य वर्ण के समीपस्थ दोनों वर्ण को जो कार्य प्राप्त हो वहां अन्त्य के समीपस्थ वर्ण का कार्य होना चाहिये और दूरस्थ व्यवहित पूर्ववर्ण को नहीं होवे एस से (मिमार्जिषति में अभ्यास का वृद्धि नहीं होती तथा (अहोऽ. वति, प्रदमुयङ्) यहां क्विप् प्रत्ययान्त अञ्जु धातु के परे अदम शब्द के टि भाग को अद्रि आदेश हो कर ( अदद्यङ्) इस अवस्था में ( अदसोऽसे दो मः) इस सत्र से दोनों दकाग से परे उ और दकारी को मकार प्राप्त है से इस परिभाषा से अन्त्य को होता है अनन्त्य पूर्व को नहीं इत्यादि अनेक प्रयोजन हैं।८३ ॥
देहि, धेहि ) इत्यादि प्रयोगों में जो अभ्यास कालोप होता है सो अलोन्त्यविधि मान के अन्त्य अल् का लोप होवे तो (देहि,धेहि) आदि प्रयोग सिध नहीं हो सके इसलिये यह परिभाषा है । ८४-नानर्थक लोन्त्यविधिरनभ्यासविकारे॥१०१।११६५॥
अनर्थक शब्द को कहा कार्य अन्त्य अल् को न हो परन्तु अभ्यास विकार को छोड़ के धातु को नो हित्व किया जाता है उस में एक भाग अनर्थक और दोनों भाग सार्थक होते हैं क्योंकि वहाँ शब्दाधिक्य होने से अर्थाधिक्य नहीं हो जाता इस से अनर्थक अभ्यास का लोप अन्त्य अल् को न हुआ तो ( देहि,धेहि ) आदि प्रयोग सिद्ध हो गये । तथा (अव्यक्तानुकरणस्यात इतौ) इस से अत् भाग को कहा पररूप इस परिभाषा के पाश्रय से अन्त्य पल को नहीं होता (घटत अतिघटिति, पटिति ) इत्यादि अनेक प्रयोजन है । ८४ ॥
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४६
।पारिभाषिकः । जैसे ( ब्राह्मणव, ब्राह्मणौ च ब्राह्मणो, वत्सश्च वत्मा च वत्सौ ) यहा स्त्री वाचक शब्द के साथ पुरुषवाची शब्द एकशेष रह जाता है वैसे ( ब्रामणवत्मा च ब्राह्मणोवत्सश्च ) यहां भी एकशेष होना चाहिये इसलिये यह परिभाषा है। ८५-प्रधानाप्रधानयोः प्रधाने कार्यसम्प्रत्ययः॥ .
जहां प्रधान और अप्रधान दोनों में कार्य प्राप्त हों वहां प्रधान में कार्य होना निश्चित रहे अप्रधान में नहीं (ब्राह्मणवत्सा च ब्राह्मणोवत्स च) यहां स्त्रीत्व
और पुंस्त्व स्वार्थ में अप्रधान और स्वस्वामिसम्बन्ध में प्रधान हैं इसलिये एकशेष नहीं होता इत्यादि । तथा लोक में भी और किसी ने किसी से पूछा कि यह कौन जाता है उसने उत्तर दिया कि राजा यद्यपि राजा के साथ सेनादि सब थे तथापि प्रधान राजा का ग्रहण होता और दो मनुष्यों का देवदत्त नाम हो तो उन में जो प्रधान होता है उसी से व्यवहार किया जाता है ॥ ८५ ॥ • स्वस्त्रादिगण में माट शब्द पढ़ा है उस से डोप प्रत्यय का निषेध किया है सो जननीवाचक है और परिमाण अर्थात् तोलन करने वाली सामान्य स्त्री को भी मार कहते हैं सा दोनों का निषेध हो वा किसी एक का इस सन्देह की निवृत्ति के लिये यह परिभाषा है । ८६-अवयवप्रसिद्धः समुदायप्रसिद्धिर्बलीयसी ॥
अवयव को प्रसिद्धि से समुदाय की प्रसिद्धि बलवान होती है। अवयव की प्रवृत्ति थोड़े अंश में और समुदाय की प्रवृत्ति बहुत अंश में होती है। इस कारण जननीवाचक मात्र शब्द के रूढि होने से अवयव मान कर स्वस्रादिगण से डीप का निषेध होजाता है और परिमाणकर्तवाचक माट शब्द के यौगिक होने से समुदायवाची मान कर स्वस्त्रादि गण से डीप का निषेध नहीं होता अर्थात परिमाणवाचक मार पुरुष होतो (माता,मातारी,मातारः) और स्त्री होतो(मात्री, मान्यौ,मात्यः ) ऐसे प्रयोग होंगे इस परिभाषा के इत्यादि प्रयोजन है ॥ ८६ ॥
(अचि विभाषा ) इस सूत्र में गृ धातु के रेफ को लकारादेश होता है । सो जहां क एट वाचौ गल गब्द है वहां भी लत्वका विकल्पहोतो गर शब्दभी कण्ठवाचक होजावे सो नियम से विरुद्ध है क्योंकि गर शब्द केवल विष का वाची और गल शब्द कण्ठवाची है. इन दोनों के अर्थ में लव के विकल्प से ध्यभिचार होजाना चाहिये इस के समाधान के लिये यह परिभाषा है।
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॥ पारिभाषिकः ॥
८७ - व्यवस्थितविभाषयाऽपि कार्याणि क्रियन्ते ॥
व्यवस्थित विभाषा से भी कार्य किये जाते हैं । व्यवस्थित विभाषा उस को कहते हैं कि जिस कार्य का विकल्प किया हो वही कार्य किसी नियतार्थवाचक शिष्टप्रयुक्त शब्द में नित्य हो जाये और किसी में होही नहीं और जहां सब प्रयेागों में उस कार्य का होना न होना दोनों भेद रहें तो उस को अव्यवस्थित . विभाषा कहते हैं इस से कण्ठवाची गल शब्द में नित्य लत्व हो जाता है इस के उदाहरणों की कारिका महाभाष्य की यह है कि:
देवत्रातो गलो ग्राह इतियोगे च सद्दिधिः ।
68
मिथस्ते न विभाष्यन्ते गवाक्षः संशितवतः ॥ १ ॥
(देवयास त्रातो देवत्रातः) यहाँ संज्ञावाचक त्रात शब्द में ( नुदविदोन्दत्रा० ) इस मूत्र से निष्ठा के सकार को नकार नित्य हो नहीं होता और क्रियावाचक में तो ( त्राणम्, वातम् ) दोने होते हैं । गल शब्द का लिख दिया । सामान्य यौगिकवाची (गरः, गलः) दोनों हो होते हैं (विभाषा ग्रहः) इस सूत्र में ग्रह धातु से ण प्रत्यय होकर ( ग्राह: ) प्रयोग बनता है से। यह जलजन्तु को संज्ञा है इस में नित्य ण हो जाता है । और जहां नक्षत्र आदि लोकवाची में ग्रह शब्द अच् प्रत्ययान्त होगा वहां ण नहीं होता तथा (इति) शब्द के योग में संकट, सत् शानच् ) प्रत्यय विकल्प से प्राप्त भी हैं जैसे ( हन्तीति पलायते, वर्षतीति धावति ) यह प्रथमासमानाधिकरण में व्यवस्थितविभाषा मान कर नित्य नहीं होते ( गवाक्षः) यह झरोखा की संज्ञा है यहां गो शब्द को अवङ् आदेश विकल्प से प्राप्त है सो नित्यही हो जाता है । और जहां गौ के अक्ष नेत्र का नाम होगा वहां (गवाक्षम्, गोअक्षम्' गोऽचम् ) ये तीन प्रयोग होजायेंगे और ( संशितव्रतः ) यहाँ (शाकोरन्यतरस्याम् ) इस सूत्र से तादि कित् के परे शो धातु का विकल्प से प्रांत कारादेश निव्य होता है इत्यादि अनेक प्रयोजन हैं ॥ ८७ ॥
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( श्राशंसायां भूतवच्च) इस सूत्र में प्रिय पदार्थ को इच्छा संबन्धो भविष्यत् काल में भूतवत् और वर्तमानवत् प्रत्यय कहे हैं अर्थात् भूतकालिक जिस अर्थ में प्रति से जो प्रत्यय कहा है वह प्रत्यय उसी अर्थ में उसी प्रकृति से होना चाहिये सेा सामान्यभूत में निष्ठा और लुङ् आदि होते हैं और अनद्यतनभूत में लङ् तथा परोक्षानद्यतनभूत में लिट् होता है इस में यह सन्देह है कि भूतवत् कहने से सामान्यभूतकालिक प्रत्ययों का अतिदेश होवे वा सामान्य विशेष दोनों का । इसलिये यह परिभाषा है ॥
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४८
॥ पारिभाषिकः ॥
८८-सामान्यातिदेशे विशेषानतिदेशः ॥
जहां सामान्य और विशेष दोनेका अतिदेश प्राप्तहो वहां विशेषका अतिदेश नहीं होता । इस से सामान्यभूत के अतिदेश में विशेषभूत में विहित लङ् लिट का अतिदेश नहीं होता इत्यादि । ८८ ॥
( सनाशंसभिक्ष उ: ) इस सूत्र में सन् धातु वा सन् प्रत्यय का ग्रहण होना चाहिये इस सन्देह को निवृत्ति के लिये यह परिभाषा है।
८९-प्रत्ययाप्रत्यययोः प्रत्ययस्यैव ग्रहणम् ॥१०६।४।१।।
जहां प्रत्यय और अप्रत्यय दोनों का एकस्वरूप होने से ग्रहण हो सकता हो । वहां प्रत्यय हो का ग्रहण हो अप्रयत्य का नहीं। इसलिये सन् धातु का ग्रहण | नहीं होता किन्तु सन् प्रत्ययान्त से उ प्रत्यय होता है तथा(चिचौषति,तुष्टषति) यहां सन् के परे अजन्त को दीर्घ होता है सो (दधि सनाति, मधु सनाति) यहाँ सन् धातु के परे दीर्घ नहीं होवे । इत्यादि अनेक प्रयोजन है।८en
(विपराभ्यां जः) इस सूत्र में वि परा पूर्वक जि धातु से प्रात्मनेपद कहा है सो (परा जयति सेना) यहां सेना शब्द के विशेषण परा शब्द से परे भी आत्मने पद होना चाहिये इस संदेह की निवृत्ति के लिये यह परिभाषा है। ९०-सहचरितासहचरितयोः सहचरितस्यैव ग्रहणम् ॥
सहचारी और असहचारी दोनों का जहां ग्रहण होसकताहो वहाँ सहचारी काही ग्रहण हो । और असहचारी का नहीं (विजयते,पराजयते) यहां आत्मनेपद होगया और (बहुविजयति वनम्, पराजयति सेना) यहां न हुआ। क्योंकि जहां वि, परा, केवल उपसर्ग हैं वहां हो। यहां बहुवि वन का और परा, सेना का विशेषण अर्थात् दोनों अनुपसर्ग हैं वहां आमनेपद नहीं होता । वन और सेना के विशेषण में वि और परा शब्द उपसर्ग के सहचारी नहीं है इस कारण वहां आत्मनेपद नहीं हुआ तथा ( पंचम्यपाङपरिभिः) यहां कर्मप्रवचनीय अष आङ और परि के योग में पंचमी विभक्ति होती है सो धर्जनाथ अप शब्द के साहचर्य से (हक्षं परि विद्योतते विद्युत् ) यहाँ लक्षण अर्थ में पंचमौ विभक्ति नहीं होती। दूत्यादि अनेक प्रयोजन हैं ॥२०॥
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॥ पारिभाषिकः ॥
जैसे ( अहो आश्चर्यम्, उताहो मे ) इत्यादि में श्रीकारान्त निपात की प्रग्टह्य - संज्ञा हो कर प्रकृतिभाव हो जाता है वैसे ( अतिरस्तिरः समपद्यत, तिरोऽभवत् ) यहां विप्रत्ययान्त लाक्षणिक ओकारान्तको निपातसंज्ञा होकर प्रग्टद्यसंज्ञा हो. जावे तो प्रकृतिभाव होना चाहिये इसलिये यह परिभाषा है ॥ ९१ - लक्षणप्रतिपदोक्तयोः प्रतिपदोक्तस्यैव ग्रहणम् ॥ अ०१/१/१५ ॥
४६
लक्षण नाम जो सूत्रसे कार्य होकर बना हो वह लाक्षणिक और जो खाभाविक है वह प्रतिपदोक्त कहाता है । उन लाक्षणिक और प्रतिपदोक्त के बौध में जहां संदेह पड़े वहां प्रतिपदोक्त को कार्य हो और लाक्षणिक को नहीं इस से (तिरोऽभवत् ) यहां लाक्षणिक अकारान्त निपात की प्रग्टद्यसंज्ञा होकर प्रकतिभाव नहीं होता । तथा (आशिषा तरति श्राशिषिकः ) यहां इस भाग के लाक्षणिक होने से ( इसुसुक्तान्तात्कः ) सूत्र से ठक् प्रत्यय को ककारादेश नहीं होता इत्यादि अनेक प्रयोजन हैं ६१ ॥
"
,
इस परिभाषा के होने में ये दोष हैं कि जो (दाधाघ्वदाप् ) सूत्र से दाधा की संज्ञा होती हे सो ( देङरक्षणे, दोश्रवखण्डने धेट् पाने ) आदि की घु संज्ञा नहीं होनी चाहिये क्योंकि ( डुदाञ् डुधाञ् ) प्रतिपदोक्त और देङ् आदि लाक्षणिक हैं इस संदेह को निवृत्ति के लिये यह परिभाषा है ॥
९२ - गामादाग्रहणेष्वविशेषः ॥ अ० १ । १ । २० ॥
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गा, मा, दा ये तीनों जिन सूत्रों में ग्रहण किये हों वहां सामान्य करके araणिक और प्रतिपदोक्त दोनों का ग्रहण होता है इस से ( देङ् ) आदि लाक्षणिक धातुओं की भी घु संज्ञा हो जाती है ( प ) धातु में पित् पढ़ने का यही प्रयोजन है कि जो दाप को घु संज्ञा का निषेध हे सो दे मात्र के पढ़ने से प्राप्त नहीं था इसलिये पित् किया सो जो लाक्षणिक है मात्र की घु संज्ञा प्राप्त
नहीं थी तो निषेध के लिये पित् क्यों पढ़ा। इस से यह आया कि लाच. fun को भी घु संज्ञा होती है (घुमास्यागापाजहातिसां हलि ) यहां मा करके मेड़ आदि को भी ईकारादेश होता है ( मौयते, मेमोयते ) इत्यादि गा करके आदि भी लिये जाते हैं ( गौयते, जेगीयते ) इङ् धातु के स्थान में जो गाड़ आदेश होता है उस का भी ग्रहण होता है जैसे ( अध्यगौष्ट, श्रध्यगीषाताम् ) इत्यादि बहुत प्रयोजन हैं ॥ ८२ ॥
( वृद्धिरादैच् ) सूत्र में आ, ऐ, औ, इन तीनों की वृद्धिसंज्ञा होती है । इस में यह संदेह होता है कि जो तीनों वर्णको एक साथ वृद्धिसंज्ञा होजावेतो (कारकः) . आदि में एक साथ तीनों वर्ण वृद्धि होने चाहिये । इसलिये यह परिभाषा है । ९३ - प्रत्यवयवं वाक्यपरिसमाप्तिः ॥ अ० १ । १ । १ । वाक्य की समाप्ति प्रत्येक अवयव के साथ होती है अर्थात् जहां समुदाय को
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। पारिभाषिकः ॥
कार्य कहा है वहां वाक्यस्थ क्रिया जब प्रत्येक अवयव के साथ सम्बन्ध करलेती है तब उस को पूर्णवाक्य कहते हैं । जैसे किसी ने कहा कि (देवदत्तयज्ञदत्तविष्णुमित्रा भोज्यन्ताम् यद्यपि यहां यह नहीं कहा कि देवदत्त, यज्ञदत्त और विष्णमित्र को पृथक २ भोजन कराओ तथापि भोजन क्रिया प्रत्येक के साथ सम्बन्ध रखती है इसी प्रकार यहां आ, ऐ, औ की दिसंज्ञा पृथक कही है इसौ से प्रत्येकवर्ण के साथ वृद्धि का सम्बन्ध पृथक २ रहता है ऐसे ही गुण आदि संज्ञा भी प्रत्येक की होती है । ८३ ॥ ___अब इस पूर्वोक्त परिभाषा से यह दोष आया कि जो (हलोऽनन्तराः संयोगः) यहाँ प्रत्येक वर्ण को संयोगसंज्ञा रहे तो ( निर्यायात्, निर्वायात् ) यहां या,वा धात को संयोगादि मान कर (वान्यस्य संयोगादेः) इस सूत्र से एकारादेश होना चाहिये इत्यादि अनेक दोष आवेंगे। इसलिये यह परिभाषा है । ९४-समुदाय वाक्यपरिसमाप्तिः ॥ अ० १।। ७॥
कहीं ऐसा भी होता है कि समुदाय में वाक्य को परिसमाप्ति होवे अर्थात् वाक्यस्थ क्रिया का केवल समुदाय के साथ सम्बन्ध रहे। और प्रत्येक अवयव के साथ पृथक २ संबन्ध न होवे जैसे राजा ने आज्ञा किई कि (गर्गाःपतन्दण्ड्यन्ताम) यहां गर्गो पर सौ रुपये दण्ड कहा तो उन में प्रत्येक पर सौर दण्ड कि या जावे वा समुदाय पर तो जैसे समुदाय पर एक दण्ड होताहै वैसे ही समुदित हलों की संयोगसंज्ञा होती है । इत्यादि अनेक प्रयोजन हैं।८४॥
(डिरादैच) सूत्र में आ,ऐ, औ, वन तीन दोघं वर्गों को वृद्धिसंज्ञा की है फिर आकार तपर क्यों पढ़ा क्योंकि सवर्णग्रहणपरिभाषा से अक्षरसमाम्नाय का ही अण् सवर्णग्राहक है परन्तु जो अक्षरसमाम्नाय में इस्ख पढ़ते हैं उन्हीं का ग्रंक्षण होगा दी? का नहीं फिर दीर्घ से सवर्णग्रहण की प्राप्ति ही नहीं और तपरकरण का यही प्रयोजन होता है कि तपर से भिन्न कालिक सवर्णों का ग्रहण न हो। दूस के समाधान के लिये यह परिभाषा है ॥ ९५-भेदका उदात्तादयः॥ ०१।१।१॥
निस वर्ण के साथ जो उदातादिगुण लगताहै वह उसको स्वभावसे भिन्न कर देता परन्तु कालभेद नहीं होता दोघं उदात्त,दीर्घ अनुदात्त,दीर्घ स्वरित इन में काल का तो भेद नहीं परन्तु उच्चत्व, नीचत्व, समत्वादिका भेदहै सो जो आकार को तपर न पढ़ते तोभी अभेदकों का ग्रहण होहो जाता फिर तपर से यही प्रयोजन है कि भिन्नधर्मवाले तात्कालिक उदात्तादि का भी ग्रहण होजावे इस लिये आकार में तपरकरण सार्थक हुआ तथा अन्यत्रभी दोघवणे को तपरपढ़ने का यही प्रयोजन है।और लोक में भी उदात्तादिका भेद दौखपड़ता है जैसे कोई
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॥ पारिभाषिकः ॥
५१
विद्यार्थी उदात्त के स्थान में अनुदास बोले तो अध्यापक उसको शासन करता है कि तू अन्यथा क्यों बोलता है । सो जो उदात्तादिमें भेद नहीं होता तो शासन भी नहीं बन सकता । और यह भी दृष्टान्त है कि एकजल शीत, उष्ण औरखारी आदि भेदक गुणों के होनेसे भिनर होजाता है इत्यादि अनेक प्रयोजन हैं ॥ ८५ ॥
इस पूर्वोक्त विषय में ऐसे भी दृष्टान्त मिलते हैं कि एक देवदतं बालक युवा आदि अवस्था गुणे और मुण्ड जटिल आदि गुणों से वही बना रहता है कोई भिन्न नहीं होजाता । ब्रूस से यह भी आया कि गुण अभेदक हैं और (यासुट् परस्मैपदेषूदातो ङिच्च) इस सूत्र में यासुट् को उदात्त न कहते किन्तु उस को उदास हो पढ़ देते तो उदात्तादि गुणों के भिन्न २ होने से उदान्तके पढ़ने में अनुदात होहो नहीं सकता फिर उदात्तग्रहण व्यर्थ हुआ इसलिये यह परिभाषा है । ९६ - प्रभेदका गुणाः ॥ श्र० १ । १ । १ ।।
उदात्तादि गुण अभेदक होते हैं अर्थात् गुणो के स्वरूप को कुछ भी नहीं बदल सकते । इसीलिये (अस्थिदधि०) इत्यादि सूत्रों में उदात्त वा अनुदात्त पढ़ा है जो उदात्तादि शब्दों से उदास नहीं पढ़ते तो अभेदक होने से विशेष गुणोका ज्ञान नहीं होता इस से उदात्तादि शब्दों का पढ़ना सार्थक होगया । इन गुणों के अभेदक पक्ष में दोघों का तपर पढ़ने का द्वितीय समाधान है ( श्रदेच्) यहां तो आकारके तपर पढ़ने का यही प्रयोजन है कि तकार से परे ऐ औ तपर माने जावे तो (महा ओजाः, महौजाः) यहां चार मात्रिक स्थानो के स्थान में चार मात्राओं का आदेश भी प्राप्त होता है सो नहो किन्तु हिमात्रिक हो ( ए, ऐ, ओ, श्रौं) आदेश होवें इत्यादि अनेक प्रयोजन हैं इन दोनों में गुणों का अभेदकपक्ष ही बलवान् है ॥ ८६ ॥
(सर्वादीनि सर्वनामानि ) इस सूत्र में सर्वनामपद में णत्वनिषेध निपातन किया है सो उस को सूत्र में चरितार्थ हो जाने से लौकिकप्रयोगविषय में सर्वनाम शब्द को णत्व होना चाहिये इसलिये यह परिभाषा है |
९७ - बाधकान्येव हि निपातनानि ॥ ०१ | १| २७ ॥
जिस प्राप्त कार्य का विधान वा प्राप्त का निषेध निपातन से करदिया हो वह सर्वथा बाधक होजाता है फिर वह वैसा ही प्रयोगकाल में भी रहेगा । इस से सर्वनाम आदि शब्दों में णत्वनिषेध आदि कार्य सिद्ध होजाते हैं ॥ ७॥
(स्यन्त्स्यति) इस स्यन्दू धातु के प्रयोग में इट् का विकल्प अन्तरङ्ग और निषेध बहिरङ्ग है सो जो अन्तरङ्गकार्य करने में बहिरङ्ग प्रसिद्ध माना जावे तो परस्मैपद में भी इटका विकल्प होना चाहिये । इस सन्देह को निवृत्ति के लिये यह परिभाषा है |
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॥ पारिभाषिकः ।
९८-प्रतिषेधाश्च बलीयांसो भवन्ति ॥१०१।१।६३॥
पर, नित्य और अन्तरङ्ग से भी प्रतिषेध बलवान होते हैं इस से अन्तरङ्ग भी विकल्प को बाध के नित्य प्राप्त बूट का निषेध होजाता है इत्यादि प्रयोजन हैं । ८ ॥ __ (अइउण) आदि प्रत्याहार सूत्रों में जो (ए क्)आदि अनुबन्ध पढ़े हैं उनका अच के ग्रहण से ग्रहण किया जावे तो (दधि णकारीयति, जरीकरोति ) इत्यादि में णकार ककार के परे कार ईकार को यणादेश होना चाहिये इसलिये यह परिभाषा है। ९९-सर्वविधिभ्यो लोपविधिबलीयान् ॥
सब विधियों से लोपविधि बलवान होती है । इस से ण क ) श्रादि अनुबन्धी का प्रत्यहार को प्रवृत्ति से पहिले हो लोपहोजाता है फिर अचमें णकार ककार के म रहने से (दधि णकारीयति, ऊरीकरोति ) आदि में यणादेश नहीं होता। इत्यादि । और लोक में भी यही रोति है कि किसी का मृत्यु भानावे तो सब कामों का बाधक होनाता है । अर्थात् अदर्शन अग्रहण होता है ॥ ॥
( अर्थं प्रत्याययति स प्रत्य यः) जो अर्थ का निश्चय करावे वह प्रत्यय कहाता है इस अर्थ के न होने से केवल स्वार्थ में विहितों की प्रत्ययसंज्ञा नहीं होवे इस. लिये यह परिभाषा है । १००-अनिर्दिष्टार्थाश्च प्रत्ययाः स्वार्थे भवन्ति ॥ ३२॥४॥
जिन प्रत्ययों की उत्पत्ति में कोई विशेष अर्थ नियत न किया हो वे स्वार्थ में हो अर्थात् प्रवत्यर्थ के सहायक और बोधक रहैं । इसी से वे प्रत्यय कहावें जैसे (गुपतिजकिदभ्यः सन्, यावादिभ्यः कन्) इत्यादि प्रत्यय स्वार्थ में होते हैं(जुगमते, यावकः )इत्यादि ॥ १० ॥
(सुपिस्थः )इस सूत्र से कर्नामें प्रत्यय होते हैं इसलिये (आखनामुत्थानमा. खत्थः) इत्यादि प्रयोगों में भाव में क प्रत्यय नहीं हो सकता इसलिये यह परिभाषा है ॥ १०१-योगविभागादिष्टसिद्धिः ।।
नहीं इष्ट कार्य की सिद्धि न हो वहां योगविभाग करना चाहिये। और योग. विभाग कर के चूष्ट कार्य साधलेना अनिष्ट नहीं होने देना (सुपि) इतना पृथक सूत्र किया तो यह अर्थ हुआ कि सुबन्तउपपद होतो आकारान्त धातुसे कप्रत्यय हो स से ( कच्छेन पिबति कच्छपः, कटाहपः, हाभ्यां पिबति दिपः) इत्यादि प्रयोग सिद्ध हुये पौछ (स्थः)इतना पृथक किया तो यह अर्थ हुआ कि स्था धातु से सुबन्त उपपद होतो क प्रत्यय हो यहां योगविभाग करके कर्ता से हटाया तो स्वार्थ भाव में आखत्थ आदि प्रयोग सिद्ध होगये।इसीप्रकार सर्वत्र नानो॥१०१०
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॥ पारिभाषिकः ।
५३
लाघव गौरव का विचार सर्वत्र रहता है कि । जहां तक हो थोड़ा वचन पढ़के बहुत अर्थ निकालना परन्तु ॥
१०२ - पर्यायशब्दानां लाघवगौरवचर्चा नाद्रियते ॥
पर्याय शब्दों में थोड़े बहुत होने का विचार नहीं करते कि जहां थोड़े वचन से काम चल सकता है तो उस का पर्याय अधिक अक्षर का शब्द न पढ़ना जैसे ( अन्यतरस्याम्, विभाषा, वा उभयथा ) इत्यादि एकार्थ शब्दों में किसी को पढ़ दिया यह नियम नहीं कि इतना अधिक क्यों पढ़ा इत्यादि ॥ १०२ ॥
1. जो ज्ञापकरूप परिभाषाओं से कार्य सिद्ध होते हैं वहां सर्वत्र ज्ञापक सिद्ध की प्रवृत्ति नहीं होती इसलिये यह परिभाषा है |
१०३ - ज्ञापक सिद्धं न सर्वत्र ॥
जैसे अर्थवान् और अनर्थक के ग्रहण में ज्ञापक सिद्ध परिभाषा से अर्थवान् को कार्य होता है सेा अनन्त को कहा कार्य कनिन् प्रत्यय के परे सार्थक अन् को और मन् प्रत्यय के निरर्थक अन् को भी होते हैं ॥ १०२ ॥
त्रिपादी में हुआ कार्य सपादसप्ताऽध्यायों में असिड माना जाता है सेा (द्रोग्धा, द्रोग्धा, द्रोटा, द्रोढा) यहां विपादिस्थ ( वा द्रहमुह ० ) सूत्र से हकार को घ और ढ आदेश होते हैं सेा जो द्दित्व करने में उस घ को असि मानें तो द्दित्व के एकभाग में और द्वितीय भाग में ढ आदेश रहना चाहिये इसलिये यह परिभाषा है |
घ
१०४ - पूर्वत्रासिद्धी यमद्विर्वचने ॥ ० ८ । १ । १ ॥
त्रिपाद का कार्य द्दित्व करने में असिद्ध न माना जावे इस से ( द्रोग्धा द्रोग्धा) आदि में ढत्व नहीं होता तथा (नुनं नुन्नम्, नुतं नुत्तम्) वहां भी द्दित्व के एक भाग में न और एक में तकार प्राप्त है सेा नहो इत्यादि ॥ १०४ ॥
जैसे (गोषु स्वाम्यश्वेषु च ) यहां एक स्वामी शब्द के योग में दोनों भिन्नाकृति शब्दों में एaraति सप्तमी विभक्ति होती है वैसे गो शब्द में सप्तमी और अख में षष्ठी विभक्ति क्यों नहीं होती इसलिये यह परिभाषा है ।
१०५ - एकस्या प्राकृतेश्वरितः प्रयोगो द्वितीयस्यास्तृतीयस्याश्च न भवति ॥ अ० १ । ३ । ३९ ॥
जहाँ एक प्राकृति का प्रयोग चरितार्थ होता है वहां द्वितीय वा तृतीय अन्यार्थ सम्भव कारक का प्रयोग नहीं होता इस से वहां अश्व शब्द में षष्ठी नहीं
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५४
॥ पारिभाषिकः ।
होसकती क्योंकि एकाक्कति सप्तमीविभक्ति का चरितार्थ है और षष्ठी के होने से भिन्नाथं भी सम्भव होनावे ॥ १०५ ॥
(विव्याध)इत्यादि प्रयोगांमें परत्व से (हलादिःशेषः)इस सूत्रसे अभ्यासके यकार का लोप होनावे तो वकारको संप्रसारण प्राप्त होताहै इसलिये यह परिभाषाहै । १०६-संप्रसारणं संप्रसारणाश्रयं च कार्य बलीयो भवति
अ०१।१।१७॥ जो संप्रसारण और संप्रसारण के आश्रय कार्य है वे दोनों बलवान होते हैं इस से ( हलादिः शेषः ) सूत्र से प्राप्त परलोप को भी बाध के प्रथम यकार को संप्रसारण होगया तो फिर (विव्याध ) आदि प्रयोग बन गये। तथा ( जुहवतः, जुहुवुः) यहां संप्रसारण और वा धातु के आकार का अजादि आईधातक के परे लोप भी प्राप्त है परत्व से लोप होना चाहिये बलवान होने से संप्रसारण हो जाता है और संप्रसारण हुये पीछे भी आकारलोप तथा संप्रसारणाश्रय पूर्वरूप भी प्राप्त है परत्व से आकारलोप होना चाहिये बलवान् होने से संप्रसारणाश्रय पूर्वरूप हो जाता है । इत्यादि अनेक प्रयोजन हैं । १०६ ।
जब शुक्ल नील आदि गुणवाचकशब्द अपने केवल गुणवाचकपन अर्थात् स्वतन्त्र अर्थ में पल्लिङ्गादि किसी विशेष निङ्ग वा एकत्वादि वचन का प्राश्रय करने से नहीं प्रतीत होते पुनः जब दून का द्रव्य के साथ समानाधिकरण हो तब कौन लिङ्ग वचन इन में होना चाहिये इसलिये यह परिभाषा है। १०७-गुणवचनानां हि शब्दानामाश्रयतो लिङ्गवचनानि
भवन्ति ॥ ०१ ।२ । ६४ ॥ ... गुणवाची शब्द जिस द्रव्य के आश्रित ही उस द्रव्यवाचकशब्द के जो लिङ्गवचन हो वे ही गुणवाचक शब्द के भी हो जायें जैसे । शक्ल वस्त्रम् । शुक्ला शाटौं । शुक्लः बना शक्ती कंबली । शलाः कम्बलाः । इत्यादि इसी प्रकार सर्वत्र जानो।१०७॥
जैसे । कष्टं श्रितः, कष्टश्रितः । इत्यादि में समास हो जाता है वैसे । महत कष्टं श्रितः । यहां भी समास होना चाहिये इसलिये यह परिभाषा है।
१०८-सापेक्षमसमर्थ भवति ॥ अ०२।१।१॥
जो पद विशेष्यविशेषणभाव से हितोय पद के साथ सम्बन्ध रखता हो वह मापिक्ष होने से समास होने में असमर्थ कहाता है उस का समास नहीं हो सकता। इस कारण महत् शब्द विशेषण के साथ कष्टसापेक्ष होने से पर के साथ समास को प्राप्त नहीं होता तथा (भार्या राजः पुरुषो देवदत्तस्य ) यहां
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पारिभाषिकः ।
भार्या के साथ राजन् शब्द सापेक्ष विशेषण और देवदत्त विशेषण के साथ पुरुष | सापेक्ष है इसलिये राजन और पुरुष दोनों के परस्पर असमर्थ होने से समास | नहीं होता। इत्यादि अनेक प्रयोजन हैं। १०८॥ ... (परोयात्, अतीयात् ) यहां परि-इयात् । दो इकार को दीर्घ एकारादेश हुआ है सो जो अन्तादिवत् मानें तो ( एतेलिङि ) सूत्र से उपसगों से परे इण् धातु को अस्व प्राप्त है इसलिये यह परिभाषा है।
१०९-उभयत आश्रयेनान्तादिवत् ॥ अ०६।१ । ८५॥ ___ पूर्व पर के स्थान में जो एकादेश हुआ हो वह पूर्व पर दोनोंके आश्रयकार्यको प्राप्ति में अन्तादिवत् न हो इस से ( परीयात्, अतीयात् ) आदि में ह्रस्व नहीं होता । इत्यादि अनेक प्रयोजन हैं । १०८॥
जो टित, कित्, मित् आगम होते हैं उन में किसी टकारादि अनुबन्ध से कोई उदात्तादि विशेष स्वर का विधान नहीं किया है वहां क्या वर होना चाहिये इसलिये यह परिभाषा है ।
११०-भागमा अनुदात्ता भवन्ति ॥ ०३।१।३॥ टित आदि आगम अनुदात्त होते हैं । यद्यपि यह बात है कि अर्थवत आगम इस परिभाषा के अनुकूल जो प्रत्यय वा प्रकृति का स्वर है वही आगम का भी हो तो एक पद में दो स्वर नहीं रहते इसलिये ( भविता) इत्यादि में आगम भी अनुदात्त विधान किये हैं इस में ज्ञापक यह है कि (यासुट परस्मैपदेषदा.) न्स सूत्र में उदातादि करने का यही प्रयोजन है कि आगम सब अनुदात्त होते हैं बस से उदात्त प्राप्त नहीं था और जो प्रत्यय का आद्यदाप्त स्वर होता है वह आगम को नहीं प्राप्त था इसलिये उदात्त कहा इत्यादि । ११०॥
गुप,तिन, कित्,मान आदि धातुओंसे स्वार्थ में सन् प्रत्यय होता है उस सन के नित्य होने से प्रथम गण में शुद्ध प्रयोग नहीं होता तो यह सन्देह होताहै कि दून से आत्मनेपद हो वा परस्मैपद हो जो सन्नन्त से पहिले कोई पद विधान होता हो वह (पूर्ववत्मनः) इस सूत्र से सनन्त से भी होजाता सो तो नहीं होता और सन्नन्तों में कोई विशेष अनुबन्ध भी नहीं है इसलिये यह परिभाषा है । १११-अवयवे कृतं लिङ्गतस्य समुदायस्य विशेषकं भवति यं समुदायं सोऽवयवो न व्यभिचरति ॥ ०३।१।५॥
अवयव में किया हुआ चिन्ह उस समुदाय का विशेषक होता है कि जिस को वह अवयव फिर न छोड़ देवे । इस से यह पाया कि जिन गुप आदि धातों में
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॥ पारिभाषिकः । जो अनुदात्तेत् चिन्ह किया है उन का सन् के विना कहीं पृथक् प्रयोग भी नहीं होता इसलिये गुप् आदि धातुओं का अनुदात्तत् सन्नन्त का विशेषक हो के | अर्थात् गुप आदि सबन्तों को भी अनुदात्तत् मान कर पात्मनेपद हो (जुगुपसते, मौमांसते ) यहां आत्मनेपद हो गया और जुगुपसयतिवा जुगुपसयते मौमांसयति, वा मौमांसयते यहां णिजन्त समुदाय को णिच् छोड़ देता है इसलिये परस्मैपद और आत्मनेपद दोनों होते हैं तथा पण धातु अनुदात्तत् है उस के (पणायति) प्रयोग में आय प्रत्ययान्त से परस्मैपद ही होता है क्योंकि आत्मनेपद तो व्यवहार अर्थ में और एकपक्ष में आईधातुक विषय में चरितार्थ है(शतस्य पणते) मणायां. चकार । पेणे। पेणाते । और आय प्रत्ययान्त समुदाय को पण छोड़ भी देता है। इसलिये आय प्रत्ययान्त से आत्मनेपद नहीं होता और लोक में भी बैल को
सो अवयव में दाग देते हैं तो वह चिन्ह उस बैल का विशेषक हो जाता है कि यह अति बैल है उसी अवयव का और सब साथ के बैसों का भी विशेषक नहीं होता ॥ १११ ॥
( अपृक्त एकाल प्रत्ययः ) इस सूत्र में एक ग्रहण का यही प्रयोजन है कि (दविः, जाग्यविः) यहां वि प्रत्यय की अपतसंज्ञा नहीं सो जो एकग्रहण न कर ते और अल प्रत्यय कहते तो भी अनेकाल में नहीं होती फिर एकग्रहण व्यर्थ हुआ इस से यह ज्ञापकसिद्ध परिभाषा निकली। ११२-वर्णग्रहणे जातिग्रहणम् ॥ अ० १।२।११॥
वर्ण के ग्रहण में वर्ण जाति का ग्रहण होता है इस से एकग्रहण तो सार्थक होगया कोंकि अलमात्र पढ़ते तो जातिग्रहण होने से अनेक अलों का ग्रहण होजाता फिर एकग्रहण से नहीं हुआ और ( धोपसति, धिपसति) यहां दम्भ धात के दो हलों में भी हलजाति मानकर (हलन्ताच) सूत्र से इक समीप हल मान के सन् प्रत्यय कित् होजाता है । इत्यादि अनेक प्रयोजन हैं ॥ ११२ ॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां श्रीयुतविरजानन्द सरस्वतीस्वामिनां शिष्यण श्रीमह यानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचिते वेदाङ्गप्रकाशे दशमोऽष्टाध्याय्यांनवमश्च
पारिभाषिको ग्रन्थोऽलङ्कृतिमगात् ॥
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ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका विना जिल्द की
जिल्द की
वर्णोच्चारण शिक्षा
सन्विविषय
co
वैदिकयन्त्रालय अजमेर के पुस्तकों का सूचीपत्र. और संक्षिप्त नियम |
( १ ) मूल्य रोक भेज कर मंगावें ( २ ) रोक भेजने वालों को १०५ रु० वा इस से अधिक पर २०) रु० सैकड़ा के हिसाब से कमीशन के पुस्तक अधिक मेजे atra ( २ ) डाकमहसूल वेदभाष्य छोड़ कर सब से अलग लिया नायगा ५) रु० इस से अधिक के पुस्तक ग्राहक की आज्ञानुसार रजिस्टरी भेने जायगे ! (४) मूल्य नीचे लिखे पते से भेजें और पता तथा आशय स्पष्ट लिखें ॥ ऋग्वेदभव्य अं० १-१४० ४६) यजुर्वेदभाष्य सम्पूर्ण
नामिक
कारकीय
सामासिक
स्वणता ि
श्रव्ययार्थ
सौवर
आख्यातिक पारिभाषिक
धातुपाठ
गणपाठ
उणादिकोष
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अष्टाध्यायी मूल itacaratप्रबोध हवनमन्त्र
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३८)
व्यवहारभानु
मू० डा० भ्रमोच्छेदन
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अनुभ्रमोच्छेदन
6) मेलाचांदापुर
注) 1) आर्योद्देश्यरत्नमाला
गोकरुणानिधि
(१)
॥ स्वामीनारायणमतखण्ड
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सत्यार्थप्रकाश
)။
संस्कारविधि
मेनेजर - वैदिकयन्त्रालय - अत्रमे
वेदविरुडमतखण्डन
वमन्तव्याऽमन्तव्यप्रकाश शास्त्रार्थ फीरोजाबाद शास्त्रार्थ काशी आर्याभिविनय जिल्द की ॥ वेदान्तिध्वान्तनिवारण " भ्रान्तिनिवारण पञ्चमहायज्ञविधि " जिल्द की आर्यसमाज के नियम -
पनियम
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3E
॥अथ वेदाङ्गप्रकाशः॥
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तत्रत्यः। चतुर्दशो भागः ॥ गण पाठः।
पाणिनिमुनिप्रणीतायामष्टाध्याय्याम्
__ एकादशो भागः । श्रीमत्स्वामिदयानन्दसरस्वतीकतव्याख्यासहितः। पठनपाठनव्यवस्थायां चतुर्दशं पुस्तकम् ।
वैदिक यन्त्रालय अजमेर में मुद्रित हुआ
-- x--- इस पुस्तक के छापने का अधिकार किसी को नहीं है ।
क्योंकि - इस की रनिसरी कराई गई है ॥ .
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16 दूसरी बार १०००
संवत् १९५५ वि० २
मूल्य ।)
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अथ गणानां सूचीपत्रम् ॥
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पृ०
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उञ्छादयः " .. अक्षयतादयः ... ... ...
उत्करादयः .. .. मङ्गल्यादयः ... ...
उत्सादयः .. .. अजादयः ... ... ...
उत्संगादयः .. .. अजिरादयः .. ..
उद्गात्रादयः .. .. .. अध्यात्मादयः
उपकादयः .. .. .. अनुप्रवचनादयः
उरःप्रभृतयः .. .. अनुशतिकादयः अपूपादयः ..
उर्यादयः .. .. .. भर्द्धर्चादयः .. अर्शश्रादयः . अरीहणादयः
ऋगयनादयः .. .. ..
ऋश्यादयः .. .. .. अश्मादयः । अश्वादयः " अंश्वादयः ..
१९ / ऐषुकार्यादयः .. .. .. अश्वादयः .. .. अश्वपत्यादयः
कच्छादयः .. .. मा
कडारादयः .. .. आकर्षादयः .. ..
करवादयः .. .. चितादयः .. .. आहिताग्न्यादयः .. ..
कव्यादयः ..
कथादयः उक्थादयः . . ... २५ १ कादयः .. ..
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गणानां सूचीपत्रम् ॥ गणा:
गमा: वर्णादयः .. .. .. कर्णादयः .. .. ..
मम्यादयः .. .. कल्याण्यादयः ..
गगादयः कंवोजादयः .. ..
गवादयः कस्कादयः .. ..
गवाश्वप्रभृतयः क्रत्वादयः .. .. क्रमादयः .. ..
गहादयः .. कातकौमपादयः ..
गुडादयः .. काशादयः .. ..
गृप्ट्यादयः काश्यादयः .. ..
गोपवनादयः काष्ठादयः .. ..
गोषदादयः किशरादयः ..
गौरादयः किंशुलादयः .. .. कुनादयः .. कुम्भपदीप्रभृतयः ..
घोषादयः .. .. .. ५२ कुमुदादयः ... कुमुदादयः .. ..
चतुवादशः कुर्वादयः ..
चादयः कुलालादयः .. ..
चिहणादयः .. शुभनादयः .. ..
चूर्णादयः .. कृतापकृतादयः . कृशाश्वादयः .. .. कोटरादयः .. .. ..
छत्रादयः .. क्रोडादयः .. ..
छेदादयः .. .. .. ३९ १३ कौड्यादयः .. ..
तक्षादयः .. .. .. | खसिडकादयः .. .. .. २३/२२ तारकादयः .. .. ...
गौरादयः ..
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" " 9m 25
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तालादयः
तिककितवादयः
तिकादयः
तिष्ठद्गुप्रभृतयः
गणा:
तुन्दादयः
तृणादयः
तवत्यादयः
द
दण्डादयः
यादयः
दामन्यादयः
दासीभारादयः
द्वारादयः
दिगादयः
द्विदण्ड्यादयः ..
हृढादयः
देवपथादयः
ध
धूमादयः
न
मडादयः
नडादयः
नद्यादयः
व्यङ्कादयः
निरुदकादयः निष्कादयः
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गणानां सूचीत्रम् ॥
पृ० प०
३४ १
प
१२
१
पक्षादयः
२२ | १३ | प्रगदिन्नादयः
प्रकृत्यादयः
४
७
२७
१
१० २२
३६ | १४
६ ३
४८ ७
५१ १८
५४ २२
३२ | २६
४१ १९
४० २१
४७
१२
१८ १३
३६
७
२१ / १६
५. ५.
भयाः
५३ | १३
३८१८
प्रज्ञादयः
प्रतिजनादयः
परिमुखादयः
पर्णादयः
परवीदयः
पलद्यादयः
पलाशादयः
सज्ञादयः
प्रवृद्धादयः
पात्रेसम्मितादयः
प्रादयः
पिच्छादयः
प्रियादयः
३० १६ पीलादयः
पुरोहितादयः
पुष्करादयः
पामादयः
पाशादयः
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बलादयः
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प० | पं०
२७ १७
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गया : .
गणानां सूचीपत्रम् ॥ पृ० | पं० गणाः ४७, ७| यौधेयादयः .. .. .. २३ १२
४ यौधेयादयः .. .. .. ४८
..
बलादयः .. ब्राह्मणादयः .. बिदादयः .. बिल्वादयः .. ब्रीह्यादयः ..
:
रजतादयः . ." रसादयः राजदन्तादयः .. राजन्यादयः .. .. रेवत्यादयः .. ..
२३ १७
भर्गादयः भस्त्रादयः .. भिक्षादयः भिदादयः .. भीमादयः .. भृशादयः भौरिक्यादयः ..
१८ | लोमादयः .. .. ..
लोहितादयः .. .. ..
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मध्वादयः .. .. मनोज्ञादय : .. .. मयूरव्यंसकादयः महिण्यादयः ... .. मालादयः ..
वनस्पत्यादयः .. ."
वरणादयः .. .. ..२८ १६
वराहादयः .. वंशादयः .. वसंतादयः .. वह्वादयः व्याघ्रादयः .. वाकिनादयः .. वाह्वादयः विनयादयः .. विमुक्तादयः ..
व्युष्टादयः ." " ५१ २२ | वृषादयः . ..
वेतनादयः ..
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यषादयः .. ... यस्कादयः . .. .. याजकादयः .. .. यावादयः युक्तारोह्यादयः .. .. युवादयः .. ..
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गणाः
पृ००
शण्डिकादयः .. " शर्करादयः .. .. शरादयः .. .. शरादयः .. .. शाकपार्थिवादयः शाखादयः .. .. शारवादयः .. .. शिवादयः .. .. शुण्डिकादयः ... शुभ्रादयः .. .. श्रेण्यादयः .. .. शोएडादयः .. शौनकादयः .. ..
गणानां सूचीपत्रम् ॥ go | dol _गणाः
संधिवेलादयः " ३३ १३ / संपदादयः ४७ २१| सर्वादयः
सवनादयः .. स्वरादयः स्वस्त्रादयः .. साक्षात्प्रभृतयः स्वागतादयः .. " सिध्मादयः सिंध्वादयः .. सुखादयः " सुतंगमादयः सुवास्त्वादयः सुषामादयः .. " स्थूलादयः .. ..
v 22
संकलादयः .. .. संकाशादयः .. सख्यादयः .. .. संतापादयः .. ..
हरीतक्यादयः " " हस्त्यादयः .. .. ..
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भूमिका।
इस पुस्तक का नाम गणपाठ इस लिये है कि एकत्र मिला के बहुत २ शब्दों का समुदाय पठित है। यह पुस्तक पाणिनि मुनि जी का बनाया है इस के कार्यकर अष्टाध्यायी के सूत्र हैं यद्यपि काशिकादि पुस्तकों में तत्तत् सूत्र पर गणपाठ भी छप गया है तथापि बीच २ सूत्रों के दूर २ होने से गण भी दूर २हैं इस से कण्ठस्थ करना विचारना वा अनुवृत्तिकरना कठिन होता था इस लिये उस २ गणकार्य सूत्र को सार्थक लिख कर एक दो उदाहरण देके जहां २ एक ऐसा (:-) चिन्ह बना के लिखा है वहां २ से गण पाठ का आरम्भ समझना चाहिये और जिस २ शब्द की विशेष व्याख्या अपेक्षित थी उस २ पर एक आदि अङ्क लिख और रेखा देकर नीचे विवरण ( जिस को नोट कहते हैं ) लिखा है । उस को भी यथायोग्य समझ लेना चाहिये इन के अर्थ अष्टाध्यायी निरुक्त निघण्टु और उणादिकोष तथा प्रकृति प्रत्ययादि की उहा से समझ लेना योग्य है । यद्यपि भ्वादि और उणादि भी एक २ सूत्र पर गण हैं तो भी उन के बड़े और विलक्षण ( १ ) होने से पृथक् श्रीपाणिनि मुनि जी ने लिखे हैं और सूत्र के समान वार्तिक गण हैं उन को भी वात्तिक के आगे लिख दिया है जो साधारणता से व्याकरण के बोध युक्त हैं वे भी इन का रूप और अर्थ पढ़ पढ़ा सकते हैं ।
अलमतिविस्तरेण विपश्चिद्वशिरोमणिपु ॥
स्थान महाराणानी का उदयपुर । मिति माघ शुक्ला १० सं० १९३९ ।
दयानन्द सरस्वती
(१) भ्वादि धातु अनुबन्ध सहित और उणादि में प्रकृतिप्रत्ययसाधुत्व पूर्वक / लेख है और सर्वादि में सिद्ध. शब्दों का पाठ अनुक्रम से है इसी लिये उन दोनों गणों । से यह और इस से वे पृथक् २ रक्खे हैं ।
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ओ३म्
अथ गणपाठः।
१-सादीनि सर्वनामानि ॥ १० ॥१।१ । २७॥
सर्वादीनि प्रतिापदिकानि सर्वनामसंज्ञानि भवन्ति । सर्वे । सर्वस्मै । सर्वेषां नामानि सर्वनामानीति समासेनान्वर्थसंज्ञाविज्ञानात् सर्वो नाम काश्चन् मनुष्यविशेषस्तस्मै सर्वाय देहीति सर्वनामसंज्ञा न भवति । अत एव विशेषणवाचकानि सर्वादीनि प्रादिपदिकानि विज्ञेयानि
सर्व । विश्व । उभ । उभय । डतर । डतम । इतर । अन्य । अन्यतर । त्व । त्वत् । नेम । सम ( १ ) सिम ( २ ) पूर्वपरावरदक्षिणोत्तरापराधराणि ध्यवस्थायामसंज्ञायाम् ॥ स्वमज्ञातिधनाख्यायाम् ॥ अन्तरम्बहियोंगोपसंव्यानयोः ॥ त्यद् । तद् । यद् । एतद् । इदम् । अदस् । एक । द्वि । युष्मद् । अस्मद् । भवतु । किम् । इति सर्वादिगणः॥
२-स्वरादिनिपातमव्ययम् ॥०॥ ११॥ ३७॥ स्वरादयश्च निपाताश्चैषां समाहारः स्वरादिनिपातमव्ययसंज्ञं भवति । निपाताश्चादयो वक्ष्यन्ते
स्वर । अन्तर् । प्रातर् । एते अन्तोदात्ताः । पुनर् । आधुदात्तः । सनुतर् । उच्चैम् ।। नीचैस् । शनैस् । ऋधक् । पारात् । ऋते । युगपत् । पृथक् । अन्तोदात्ताः । ह्यस् ।। श्वस् । दिवा । रात्रौ । सायम् । चिरम् । मनाक् । ईषत् । जोषम् । तूष्णीम् । बहिस।।
आविस । अवम् । अधस् । समया । निकषा । स्वयम् । मृषा। नक्तम् । नञ् । हेतौ । प्रद्धा । इद्धा । सामि । ह्यस्प्रभृतयोऽप्यन्तोदात्ताः । वत् ( ३ ) सन् । सनात् । सनत् ।
(१) सूत्रान्तरे समानामिति निर्देशात्सर्वपर्यायस्यैव समशब्दस्य सर्वनामसंज्ञेष्यते तेन तुल्यवाचकस्य न भवति ॥
(२ ) इमानि त्रीणि सूत्राण्यष्टाध्याय्यामपि पठ्यन्ते । तत्र जसि विभाषा सर्वनामसंज्ञा । अत्र तु सामान्यन ॥
( ३ ) वदिति तदन्तस्य वतिप्रत्ययान्तस्य ग्रहणम् । ब्राह्मणवत् । क्षत्रियवत् ।। स्थानिवत् । इत्यादि ॥
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गणपाठः ॥
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तिरस । एतद्युदात्ताः । अन्तरा । अयमन्तोदात्तः । अन्तरेण । ज्योक् । कम् । शम् । सना । सहसा । विना । नाना । स्वस्ति । स्वधा । अलम् । वषट् । अन्यत् । अस्ति | उपांशु । क्षमा । विहायसा । दोषा । मुधा । मिथ्या । ( १ ) तूवातोसुन्कसुनः । कृन्मेकारान्तः सन्ध्यक्षरान्तोऽव्ययीभावश्च ॥ पुरा । मिथो । मिथस । प्रत्राहुकम् । आर्यहलम् । अभीक्ष्णम् । साकम् | सार्द्धम् । समम् । नमस् | हिरुक् । ( २ ) तसिलादयः प्राकृपाशपः । शस्प्रभृतयः प्राक् समासान्तेभ्यः । मान्तः । कृत्वर्थः । तसिः । आच्यालौ । प्रतान् । प्रशान् । इति स्वरादिर्गणः ॥
३ - चादयोऽसत्त्वे ॥ अ० ॥ १ । ४ । ५७ ॥
अद्रव्यवाचकाश्चादयो निपातसंज्ञा भवन्ति । असत्त्व इति किम् । पशुर्वेपुरुषः । अत्र पशुशब्दस्य द्रव्यवाचकत्वादव्ययसंज्ञा न भवति
च । वा । ह । अह । एव । एवम् । नूनम् । शश्वत् । युगपत् । सूपत् । कूपत् । कुवित् । त् । चेत् । चण् । कञ्चित् । यत्र । नह । हन्त । माकिम् । नकिम् । माङ् । नञ् । यावत् । तावत् । त्वा । त्वै । द्वै । रे । श्रौषट् । वौषट् । स्वाहा । वषट् । स्वधा । श्रम् | किल । तथा । अथ । सु । स्म । अस्मि । अ । इ । उ । ऋ । लृ । ए । ऐ । ओ । औँ । अम् । तक। उञ् । उकञ् । वेलायाम् । मात्रायाम् । यथा । यत् । यम् । तत् । किम् । पुरा । अद्धा । धिकू । हाहा । है । है । प्याट् । पाट् । थाट् । श्रहो । उताहो | हो । तुम् । तथाहि । खलु । आम् । आहो । अथो । ननु । मन्ये । मिथ्या । असि । ब्रूहि । तु । नु । इति । इव । वत् । चन । बत । इह । शम् । कम् ! अनुकम् । नहिकम् । हिकम् । सुकम् | त्यम् । ऋतम् । वाकिर् । नकिर् । आङ् | अ | मा । नो । ना । वाकिरादयः । प्रतिषेधे । उत । दह । श्रद्धा । इद्धा | मुधा । नोचेत् । नचेत् । नहि । जातु । कथम् । कुतः । कुत्र । अव । अनु । हाहौ । हैहा। ईहा । आहोखित् । छम्वट् । खम् । दिष्ट्या | पशु । वट् । सह । आनुषक् । श्रङ्ग । फटू । ताजक् । अये | अरे । चटु । बाट् । कुम् । खुम् । घुम् । हुम् । श्रईम् । शीम् । सम् । वै ।
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( १ ) क्वादीनामष्टाध्याय्यां सूत्रपाठे ग्रहणमस्ति । तेषामेवात्र स्वर दिषु परिगणनं कृतम् । न कश्चिद्विशेषः ॥
(२) तद्धितश्चाऽसर्वविभक्तिरिति सूत्रेण येषामव्यय संज्ञा तेषामेव तद्धितप्रत्ययानामत्र विस्पष्टार्थं परिगणनम् ॥
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गणपाठः॥
त्वे । तुवै । न्वै । नुवे । अध । अधम् । स्मि । अच्छ । अदल् । दह । हेहे । हैहै। नौ। म । आस् । शस् । शुकम् । शम् । वव । वात् । डिकम् । हिनुक । वशम् । शिकम् । श्वकम् । सनुकम् । नुकम् । अन्त । यौ । सुक् । माजक् । अले। वट् । वाट् । किम् । उपसर्ग: विभक्तिस्वरप्रतिरूपकाश्च निपाताः ( १ ) इति चादिर्गणः ॥
४-प्रादयः ॥ भ०॥ १।४।५८ ॥
असत्त्ववाचकाः प्रादयो निपातसंज्ञा भवन्ति । परामृशति । पराजयते इत्यादि । असत्त्व इति किम् । परा जयति सेना । अत्रोपसर्गसंज्ञयाऽऽत्मनेपदं मा भूत् - प्र । परा । अप । सम् । अनु । अव । निस् । निर् । दुस् । दुर् । वि । श्राङ् । नि । अधि । अपि । अति । सु । उत् । अभि । प्रति । परि । उप । इति प्रादयः ॥
५-ऊ-दिविडाचश्च ॥ ५० ॥ १।४।६१॥ ऊर्यादयः शब्दाश्च्च्यन्ता डानन्ताश्च क्रियायोगे गतिसंज्ञा भवन्ति । च्चि । शुक्लीकृत्य । शुक्लीकृतम् । डाच । पटपटाकृत्य । पटपटाकृतम् । ऊरीकृत्य । शुक्ली करोति । पटपटाकरोति । उरीकरोति । इत्यादि
ऊरी। उररी । पापी । ताली । आताली । वेताली । धूसी । शकला । संशकला । ध्वंसकला । भ्रंशकला ॥ शकलादयो हिंसायाम् ॥ गुलुगुधा पीडार्थे ॥ सनः सहार्थे ॥ फल, फली, विक्ली,आक्ली । इति विकारे ॥ आलोष्टी । कराली। केवाली। शेवाली । वर्षाली । मस्मता । मसमप्ता । एतेहिंसायाम् । वषट् । वौषट् । श्रौषट् । स्वाहा । स्वधा । बन्ध। । प्रादुस् । श्रत् । श्रावित् । इत्यूर्यादयः ॥
६-साक्षात्प्रभतीनि च ॥ १०॥ १।४। ७४ ॥ साक्षादादीनि प्रातिपदिकानि कृयोगे विभाषा गतिसंज्ञानि भवन्ति । असाक्षात् साक्षात्कृत्वा । साक्षात्कृत्य । साक्षात्कृत्वा । इत्यादिसाक्षात् । मिथ्या। चिन्ता । भद्रा । लोचना । विभाषा । सम्पत्का । आस्था । अमा। श्रद्धा । प्राजर्या । प्राजरुहा । वीजर्या । वीनरुहा । संसर्या। अर्थे । लवणम् । उष्णम् ।
(१) उपसर्गप्रतिरूपकाः । अवदत्तम् । विदत्तम् । प्रदत्तम् । अत्राच उपसगादिति तत्वं न भवति । विभक्ति प्रतिरूपकाः । चिरेण । चिरात् । चिराय । इत्यादयः स्वरप्रतिरूपकाः-- अ । इ । उ । ऋ । ए । ओ। इत्येवमादयः॥
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गणपाठः॥
शीतम् । उदकम् । आर्द्रम् । ( १ ) अग्नी । वशे । विकम्पने । विहसने । प्रहसने । प्रतपने । प्रादुस् । नमस् । आविस् । इति साक्षात्प्रभृतयः ।।।
७-तिष्ठद्गुप्रभृतीनिच ॥ भ० ॥२।१ । १७॥ तिष्ठद्मादयः समुदायाः कृतसमासा अव्ययीभावसंज्ञका विभाषया निपात्यन्ते । तिष्ठन्ति गावो यस्मिन् काले दोहनाय स तिष्ठद्गु कालविशेषः । खलेयवादीनि प्रथमातानि विभक्त्यन्तरेण नैव संबध्यन्ते । अन्यपदार्थच काले वर्तन्ते ।
तिष्ठद्गु। वहद्गु। आयतीगवम् । खलेयवम् । खलेवुसम् । नूनयवम् । लूयमानयवम् । पूतयवम् । पूयमानयवम् । संहृतयवम् । संहियमाणयवम् । संहृतबुसम् । संहियमाणबसम् । एते कालशब्दाः । समभूमि । समपदाति । सुषमम् । विषमम् । निष्पमम् । दुष्षमम् । अपरसमम् । आयतीसमम् । प्राहम् । प्ररथम् । प्रमृगम् । प्रदक्षिणम् । अपरदक्षिणम् । सम्प्रति । असम्प्रति । पापसमम् । पुण्यसमम् । इचकर्मव्यतिहारे (२) इति तिष्ठद्गुप्रभृतयः ।।
८-सप्तमी शौण्डैः ॥१०॥२।।४०॥
शौण्डेरिति बहुवचनादेव गणनिर्देशः । सप्तम्यन्तंसुचन्तं शौण्डादिभिः सह विभाषा समस्यते सप्तमीतत्पुरुषश्च स समासो भवति । अक्षेषु धूर्तोऽक्षधूर्तः । अक्षाकतवः । इत्यादि
शौण्ड । धूर्त । कितव । व्याड । प्रवीण । संवात । अन्तर्। अधिपटु । पण्डित। कुशल । चपल । निपुण । संव्याड । मन्थ । समीर । इति शौण्डादयः ॥
९-पात्रेसमितादयश्च ॥ १० ॥२।१।४८॥ पात्रे संमितादयाः समुदायाः क्षेपे गम्यमाने सप्तमीतत्पुरुषसंज्ञा निपात्यन्तेः
( ३ ) पात्रेसम्मिताः। पात्रेबहुलाः । उदरकृमिः । कूपकच्छपः । कूपचूर्णकः । अ| वटकच्छपः । कूपमण्डूकः । कुम्भमण्डूकः उदपानमण्डकः । नगरकाकः । नगरवायसः।
( १ ) लवणादय आर्द्रपर्यन्ताः शब्दा गतिसंज्ञासम्बन्धेन मकारान्ता निपात्यन्ते नतु सर्वत्र ॥
(२) कर्मव्यतिहारेऽर्थे समासान्तो इचप्रत्ययान्ता अपि शब्दा अव्ययीभावसंज्ञा भवन्ति । दण्डादण्डि । मुसलामुप्तलि । नखानखि । केशाकेशि । इत्यादि।
(३)येऽत्र गण क्तान्तास्तत्र क्षेप इति पूर्वसूत्रेणैव सिद्धे पुनः पाठो युक्तारोह्याधन्तर्गतपात्रेसम्मितादीनां पूर्वपदायुदात्तार्थः ॥
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गणपाठः॥
मातरिपुरुषः । पिण्डीशूरः । गेहेशूरः । गेहेनर्दी । गेहेक्ष्वेडी । गेहेविनिती । गेहेव्याडः । गेहेतृप्तः । गेहेधृष्टः । गर्भेतृप्तः । आखनिकवकः । गोष्ठेशूरः। गोष्ठेविनिता । गोप्ठे. वेडी । गेहेमेही । गोष्ठेपटुः । गोष्ठेपण्डितः । गोष्ठेप्रगल्भः । कर्णटिटिभः । कर्णेचुरचुरा । प्राकृतिगणोयम् ॥ १०-उपमितं व्याघ्रादिभिः सामान्याप्रयोगे॥०॥२॥१५६॥
सामान्यधर्मस्याप्रयोगे सत्युपमेयवाचि सुबन्तमुपमानवचनेव्याघ्रादिमिः सह विभाषा समस्यते स समानाधिकरणतत्पुरुषः समासो भवति व्याघ्र इव पुरुषः पुरुषव्याघ्रः। पुरुषसिंहः । इत्यादि । सामान्याप्रयोग इति किम् । पुरुषो व्याघ्र इव शूरः । उपमानोपमेयप्रधानो धर्मः शूरत्वमत्र प्रयुज्यतेऽतः समासनिषेधः
व्याघ्र । सिंह । ऋक्ष । ऋषभ । चन्दन । वृक्ष । वृष । वराह । हस्तिन्। कुञ्जर रुरु । पृषत् । पुण्डरीक । बलाहक ( १ ) आकृतिगणोऽयम् । इति व्याघ्रादयः ॥
११-श्रेण्यादयः कृतादिभिः॥०॥२।१। ५९
श्रेण्यादयः सुवन्ताःकृतादिमिः समानाधिकरणैः सह विभाषा समस्यन्ते । अश्रेणयः श्रेणयः कृताः श्रेणिकृताः ( २) एककृता वसन्ति वणिजः । इत्यादिश्रेणि । एक । पूग । कुण्ड । राशि । विशिख । निचय । निधान । इन्द्र । देव । मुण्ड । भूत । श्रवण । वदान्य । अध्यापक । ब्राह्मण । क्षत्रिय । पटु । पण्डित । कुशल । चपल । निपुण । कृपण । इतिश्रेण्यादयः । कृत । मित । मत । भूत । उक्त । समाज्ञात। समानात । समाख्यात । सम्भावित । अवधारित । निराकृत । अवकल्पित । उपकृत। उपाकृत । प्राकृतिगणोऽयम् । इति कृतादयः ॥
१२-वाकतापकतादीनामुपसंख्यानम् (३)॥२॥१६॥ कृतापकृतम् । भुक्तविभुक्तम् । पीतविपीतम् । गतप्रत्यागतम् । यातानुयातम् । क्रयाक्रयिका । पुटापुटिका । फलाफलिका । मानोन्मानिका । इतिकृतापकृतादयः ।
(१)अत्राकृतिगणनेदमपि सिद्धं भवति । मुखं पद्ममिव, मुखपद्मम् । मुखकमलम् । करकिसलयम् । पार्थिवचन्द्रः ।।
( २ )अत्र श्रेण्यादिषु च्च्यर्थ वचनीमति वात्तिकेन च्च्यर्थलाभः । यदा च च्व्यन्ताः श्रेण्यादयस्तदा च्चिप्रत्ययान्तानां गतिसंज्ञत्वात्गतिप्रादय इति नित्यसमासः श्रेणीकृताः इत्यादि ॥
(३) अनविशिष्टक्तान्तेनापि समासो यथास्यादिति वात्तिकम् । कृतचापकृतं च कृतापकृतं । वार्तिकोपरि तत्सूत्रसंख्या सर्वत्र धरिष्यते । यस्योपरि महाभाष्ये वार्तिकमस्ति।
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गणपाठः॥
१३-वा०-समानाधिकरणाधिकारे शाकपार्थिवादीनामपसंख्यानमुत्तरपदलोपश्च (१)२ । १।६९ ॥
शाकभोनी पार्थिवः शाकपार्थिवः । कुतपसौश्रुतः । अनातोल्वलिः । यष्टिमौद्गल्यः । इत्यादि ।
१४-मयूरव्यसकादयश्च ॥ अ० ॥ २ । १ । ७२ ॥
मयूरव्यंसकादयः समुदायाः कृतसमासाः समानाधिकरण तत्पुरुषसंज्ञका निपात्यन्ते । चकारो निश्चयार्थः । परममयूरव्यंसकहातसमासान्तरं न भवति__ मयूरव्यंसकः । छात्रव्यंसकः (२)। काम्बोजमुण्डः । यवनमुण्डः । ( ३ ) छन्दसि । हस्तेगृह्य । पादेगृह्य । लाङ्गलेगृह्य । पुनर्दाय ॥ ( ४ ) एहीडादयोऽन्यपदार्थे ॥ एहीडम् । एहियवं वर्तते । एहिवाणिजाक्रिया । अपेहिवाणिना । प्रेहिवाणिजा। एहिस्वागता । अपेहिस्वागता। प्रेहिस्वागता । एहिद्वितीया । अपेहिद्वितीया । पोहकटा। अपोहकटा । प्रोहकर्दमा । अपोहर्कदमा । उद्धरचूड़ा । आहरचेला । आहरवसना । प्रा. हरवनिता । कृन्तविचक्षणा । उद्धरोत्सृजा । उद्धमविधमा । उत्पचविपचा । उत्पतनिपता । उच्चावचम् । उच्चनीचम् । अपचितोपचितम् । अवचितपराचितम् । निश्चप्रचम् । अकिंचनम् । स्नात्वाकालकः । पीत्वास्थिरकः । भुक्त्वा सुहितः । प्रोष्य पापीयान् । उत्पत्यव्याकुला । निपत्यरोहिणी । निषण्णश्यामा । अपेहिप्रघसा । इहपञ्चमी । इहद्विताया । जहिकर्मणा बहुलमाभीक्षण्ये कर्तारंचाभिदधाति ( ५ ) । जहिजोडः ।।
(१) शाकपार्थिवादिषु समानाधिकरणतत्पुरुषः समासो यथा स्यात् । पूर्वसमासे यदुत्तरपदं तस्य च लोपः । यथा दृष्टं विज्ञेयम् ॥
(२) मयूर इव व्यंसको धूतॊ मयूरव्यंसकः । छात्र इव व्यंसकः । कम्बोज इव मुण्डः । इत्युपमानसमासापवादोऽयं समासः ॥
(३ ) अतोऽचत्वारः शब्दाश्छन्दसि वेदविषये निपात्यन्ते ॥
( ४ ) त्वं यस्येडामन्नस्तुतिं वा-एहि प्राप्नुहि तत् एहीडम् । एवमेहियवादिषु यथाप्रयोगमर्थानुकूलः समासोज्ञेयः॥
(५) जहिक्रियाऽऽमीक्ष्ण्येऽर्थे स्वेनैव कर्मणा सह बहुलंसमस्यते समाससमुदायश्च कर्तृवाचको भवति । त्वंजोड़नहि, इति जहिजोड़स्त्वम् ।उज्जहिजोडः । जहिस्तम्बः । इत्यादि । आख्यातः क्रियाशब्द पाख्यातेनैव सह समस्यते । अश्नीत च पिबति च, इति समासे कृते प्रातिपदिकसंज्ञायां क्रियाविशेषणे टापू । प्रश्नीतपिक्ता । इत्यादि।
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गणपाठः॥
उज्जहिजोडः । जहिस्तम्बः । उज्जहिस्तम्बः । (पाख्यातमाख्यातेन क्रियासातत्ये ) ॥ अश्नीतपिवता । पचतभृज्जता । खादतमोदता । खादताचमता । आहरनिवपा । श्रावपनिकिरा । उत्पचविपचा । भिन्द्धिलवणा । छिन्द्धिविचक्षणा । पचलवणा । पचप्रकूटा।(१) इतिमयूग्ठ्यसकादयः ॥
१५-याजकादिभिश्च ॥ भ• ॥ २ । २।९ ॥
षष्ठचन्तं सुबन्तं यानकादिभिः सुबन्तैः सह समस्यते स षष्ठीतत्पुरुषः समासो भवति । ब्राह्मणयाजकः । क्षत्रिययाजकः । प्रतिषेधबाधकमिदं सूत्रम् :--
याजक । पूनक । परिचारक । परिषेचक । परिवेषक । स्नातक । अध्यापक । उ. सादक । उद्वर्त्तक । हर्तृ । वर्तक । होतृ। पोतृ । भर्तृ । रथगणक । पतिगणक । इति याजकादयः ॥
१६-राजदन्तादिषु परम् ॥ ०।५।२।३१ ॥
राजदन्तादिषु परमुपसर्ननं प्रयोक्तव्यम् । पूर्वनिपातापवादः । दन्तानां राजा, राज. दन्तः । अनेन दन्तशब्दस्य पूर्वनिपातो बाध्यते । :___रामदन्तः । अग्रेवणम् । लिप्तवासितम् । नग्नमुषितम् । सिक्तसंमृष्टम् । मृष्टलुञ्चि तम् । अवक्लिन्नपक्वम् । अर्पितोप्तम् । उप्तगाढम् । उलूखलमुसलम् । तण्डुलकिण्वम् । दृषदुपलम् । पारग्वायनबन्धकी । चित्ररथबालीकम् । श्रावन्त्यश्मकम् । शूद्रायम् । स्नातकरानानौ । विश्वक्सेनार्जुनौ । अचिभ्रुवम् । दारगवम् । धार्थो । अर्थधर्मों । कामार्थो । अर्थकामौ । शब्दार्थों ( २ ) । अर्थशब्दौ । वैकारिमतम् । गजवाजम् । गोपालधानीपूलासम् । पूलासककरण्डम् । स्थूलपूलासम् । उशीरबीजम् । सिम्जास्थम् । चि. त्रास्वाती । भा-पती । जायापती (३) । जम्पती । दम्पती । पुत्रपती । पुत्रपशू । केराश्मश्रू । श्मश्रुकेशौ । शिरोबीजम् । सर्पिमधुनी । मधुसर्पिषी । प्रायन्तौ । अन्तादी गुणवृद्धी । वृद्धिगुणौ । इति रानदन्तादयः ॥
( १ ) अविहितलक्षणस्तत्पुरुषो मयूरव्यंसकादिषु द्रष्टव्यः ।
(२) धादिषूभयमिति वात्तिकेन कृतद्वन्द्वयोर्द्वयोरपि पर्यायेण पूर्वनिपातः । अत्र गणान्तेऽपि केशादयो धादिषु द्रष्टव्याः ॥
( ३ ) अत्र जायाशब्दस्य जम्भावो दम्भावश्च निपात्यते । अस्मिन् गणे सर्वेषु । समासेषूपसर्जनमनुपर्सजनं वा निपात्यते । सर्वेषां च यथाप्राप्तानामपवादः ।।
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गणपाठः ॥
ग्न्यादयः ॥
१७ - वाऽऽहिताग्न्यादिषु ॥ अ० ।। २ । २ । ३७ ॥ श्राहिताग्न्यादिषु निष्ठान्तस्य विभाषा पूर्वनिपातो भवति पक्षे च परनिपातः । आहितोऽग्निर्येन सः :
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श्राहिताग्निः । अग्न्याहितः । जातपुत्रः । पुत्रजातः । जातदन्तः । जातश्मश्रुः । तैलपीतः । घृतपीतः । ऊढभार्यः । गतार्थः । श्राकृतिगणोऽ यम् ( १ ) । इत्याहिता -
१८ - कडाराः कर्मधारये ॥ अ० ।। २ । २ । ३८ ॥
कर्म्मधारये समासे कडारादयः शब्दा विमाषा पूर्वं प्रयोक्तव्याः । कडारश्चासौ जैमिनिश्च कडारजैमिनिः । जैमिनिकडारः । इत्यादि । कडारादीनां गुणवाचकत्वाद्विशेषणस्य पूर्वनिपातः प्राप्तः स बाध्यते : -
I
1
कडार । गडुल । काण । खञ्ज । कुण्ठ । खञजर | खलति । गौर | वृद्ध | भितुक | पिङ्गल । तनु । वटर । इति कडारादयः । कर्म्मधारय इति किम् । कडारपुरुपोग्रामः । अत्र बहुव्रीहौ मा भूत् ॥
१९ - वा० - तृतीयाविधाने प्रकृत्यादिभ्य उपसंख्यानम्
( २ ) ॥ २ । ३ । १८ ॥
प्रकृति । प्राय । गोत्र । सम । विषम । द्विद्रोण । पञ्चक । साहस्र | आकृतिगणोऽयम् । इति प्रकृत्यादयः ॥
२० - गवाश्वप्रभृतीनि च ॥ अ० ॥ २ । ४ । ११ ॥ गवाश्वप्रभृतीनिकृतैकवद्भावानि द्वन्द्वरूपाणि सिद्धानि प्रातिपदिकानि निपात्यन्ते ।
गौश्चाश्वश्च
गवाश्वम् । गवाविकम् । गवैडकम् | अजाविकम् । अजैडकम् । कुब्जवामनम् । कुब्रतम् । पुत्रपौत्रम् । श्वचण्डालम् । स्त्री कुमारम् । दासीमाणवकम् । शाटीपिच्छकम् । उष्ट्रखरम् । उष्ट्र्शशम् । मूत्रशकृत् । मूत्रपुरीषम् । यकृन्मेदः । मांसशोणितम् । ( १ ) श्राकृतिगणेन गडुकण्ठादयोऽपि द्रष्टव्याः । कण्ठेगडुः । गडुकण्ठः । ग शिराः । इत्यादि ||
( २ ) प्रकृत्यादिभ्यस्तृतीयाविभक्तिर्यथा स्यात् । कर्तृकरणाभावादप्राहावेधीय(ते । प्रकृत्याऽभिरूपः । प्रकृत्या दर्शनीयः । इत्यादि ॥
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गणपाठः ॥
दर्भशरम् । दर्भपूतीकम् । अर्जुनशिरीषम् । तृणोलपम् । दासीदासम् । कुटीकुटम् । भा
गवती भागवतम् ( १ ) । इति गवाश्वप्रभृतयः ||
२१ - न दधिपय आदीनि ॥ अ० ॥ २ । ४ ॥ १४ ॥
दधिपयदीनि शब्दरूपाणि द्वन्द्वे नैकवद्भवन्ति :--- दधिपयसी । सर्पिर्मधुनी । मधुसर्पिषी । ब्रह्मप्रजापती । शिववैश्रवणो । स्कन्दवि शाखौ । परिव्राट्कौशिकौ । परिव्राजक कौशिकौ । प्रयपसदो । शुक्लकृष्णौ । इध्मानहिंषी । दीक्षातपसी । श्रद्धातपसी । मेघातपसी । अध्ययनतपसी । उलूखलमुसले । आद्यावसाने । श्रद्धामेधे । ऋक्सामे । वाङ्मनसे । इति दधिपयश्रादयः ॥
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२२- अर्द्धर्चः पुंसि च ॥ अ० ॥ २ । ४ । ३१ ॥ अर्द्धर्चादयः शब्दाः पुंसि चान्नपुंसके च भाष्यन्ते :
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अर्द्ध । गोमय । कषाय । कार्षीपण । कुतप । कपाट । शङ्ख । चक्र। गूथ । यूथ | ध्वज । कबन्ध । पद्म । गृह । सरक । कंस । दिवस । यूप । अन्धकार | दण्ड । कमण्डलु । मण्ड । भूत । द्वीप । द्यूत । चक्र | धर्म | कर्मन्ं । मोदक । शतमान । यान । नख । नखर | चरण । पुच्छ | दाडिम । हिम । रजत । सक्तु । पिधान । सार । पात्र । घृत । सैन्धव । औषध | आढक | चषक | द्वोण | स्वलीन | पात्रीव । षष्टिक । वार । बाण | प्रोथ । कपित्थ । शुष्क ! शील । शूल्व । सीधु । कवच | रेणु । कपट । सीकर । मुसल । सुवर्ण । यूप । चमस । वर्ण । क्षीर । कर्ष । श्राकाश । अष्टापद । मङ्गल । निधन | निर्यास | जम्भ | वृत्त । पुस्तं । क्ष्वेडित । शृङ्ग । शृङ्गल । मधु । मूल । मूलक । शराव । शाल । वप्र । विमान । मुख । प्रग्रीव । शूल । वज्र । कर्पट 1 शिखर । कल्क । नाट । मस्तक । वलय । कुसुम । तृण । पङ्क । कुण्डल | किरीट अर्बुद | अङ्कुश । तिमिर । आश्रम | भूषण । इल्कस | मुकुल । वसन्त । तडाग । पिटक । विटङ्क । माष । कोश । फलक । दिन । दैवत । पिनाक । समर । स्थाणु | अनीक । उपवास । शाक । कर्षांस । चषाल ! खण्ड | दर | विटप | रण । बल । मल । मृणाल । हस्त । सूत्र । ताण्डव । गाण्डीव । मण्डप । पटह । सौध । पार्श्व । शरीर । फल । छल । पुर । राष्ट्र । विश्व । अम्बर । कुट्टिम । मण्डल । ककुद । तोमर ।
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( १ ) अत्र गणे यथेोच्चारित एव द्वन्द्वो द्रष्टव्यः । तेन रूपान्तरे न भवति । गोश्वम् । गोश्वौ । अत्र पशुद्वन्द्वो विभाषैकवद्भवति ||
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गणपाठः॥
तोरण । मञ्चक । पुल । मध्य । बाल । वल्मीक । वर्ष । वस्त्र । देह । उद्यान । उद्योग । स्नेह । स्वर । सङ्गम । निष्क । क्षेम । शूक । छत्र । पवित्र । यौवन । पानक । भूषिक । बल्कल । कुज । विहार । लोहित । विषाण । भवन । अरण्य । पुलिन । दृढ ।
आसन । ऐरावत । शपे । तीर्थ । लोमश । तमाल । लोह । दण्डक । शपथ । प्रतिसर । दारु । धनुस् । मान । तङ्क। वितङ्क । मव । सहस्र । प्रोदन । प्रवाल । शकट । अपराह । नीड । शकल । कुणप। मुण्ड । पूत । मरु । लोमन । लिङ्ग । सीर । क्षत। ऋण । कडार । पूर्ण । पणव । विशाल । बुस्त । पुस्तक | पल्लव । निगड । खल । स्थूल । शार । नाल । प्रवर । कटक । कण्टक । छाल । कुमुद । पुराण । जाल । स्कभ । ललाट । कुक्कम । कुशल । विडङ्ग । पिण्याक । आई । हल । योध । बिम्ब । कुक्कुट । कुडप । खण्डल । पश्चक । वसु । उद्यम । स्तन । स्तेन । क्षत्र । कलह । पा. लक । वर्चस्क । कूर्च । तण्डक । तण्डुल । इत्यर्द्ध दयः ॥
२३-पैलादिभ्यश्च ॥ १० ॥२।४। ५९ ॥
पैलादिप्रातिपदिकेभ्यो युवप्रत्ययस्य लुग्भवति । पीलाया अपत्यं पैलः । तस्य युवापत्यमिति फिञ् तस्य लुक् । पैलः पिता । पैलः पुत्रः । एवं शालाङ्किः । इत्यादि ।
पैल । शालकि । सात्यकि । सात्यकामि । दैवि । औदमज्जि । श्रौदवाजि । औदमेघि । औदबुद्धि । देवस्थानि । पैङ्गलायनि । राणायनि । रोहक्षिति । भौलिङ्गि ।
औद्गाहमानि । औज्निहानि । रागक्षति । राणि । सौमनि। उहमानि । तद्राजाच्चाणः (१) आकृतिगणोऽयम् । इतिपैलादयः ।।
२४-तौल्वलिभ्यः॥०॥ २।४ । ६१॥
तौल्वल्यादिभ्यः परस्य युवप्रत्ययस्य लुङ् न भवति तुल्यलस्य गोत्रापत्यं तौल्वलिः तस्ययुवापत्यं तौललायनः
तौल्वलि । धाराण । रावाण । पाराणि । दैलीपि। दैवलि। देवमति। दैवयज्ञि। प्रा. वाहणि । मान्धातकि । आनुहारति । श्वाफल्कि । आनुमति । श्राहिंसि । आसुरि ।
आयुधि । नैमिषि । आसिबन्धकि । बैकि । पौष्करसादि । वैराक । वैलकि वैहति । वैकर्णि । कारेणुपालि । कामलि । रान्धाक । आसुराहति । प्राणाहति । पौष्कि । कान्दकि। दौषकगति । अान्तराहति । इति तौल्वल्यादयः ॥
(१) बङ्गानांराजावाङ्गः। तस्ययवापत्यम् वाङ्गः । अङ्गस्यापत्यमाङ्गः पिता पुत्रो वा ॥
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गणपाठः॥
२५ -यस्कादिभ्यो गोत्रे ॥ भ० ॥ २॥ ४ । ६३॥
यस्कादिभ्यः प्रातिपदिकम्यः परस्यास्त्रीलिङ्गस्य बहुवचनेवर्तमानस्य गोत्रप्रत्ययस्य लुग्भवति यदि तेनैव गोत्रप्रत्ययेन कृतं बहुत्वं भवेत्तदा । यस्कस्य गोत्रापत्यं यास्कः । यास्कौ । यस्काः। लभ्याः । तेनैवेति किम् । प्रियो यास्को येषां ते प्रिययास्काः स्त्रियामिति किम् । यास्क्यः स्त्रियः । गोत्र इति किम् । यास्काश्छात्राः । :
यस्क । लभ्य । दुह्य । अयःस्थूण । तृणकर्ण ( १ ) । सदामत्त । कम्बलमार । अहियोग । कर्णाटक । पर्णाडक । पिण्डीजङ्घ । बकसक्थ ( २ )। वस्ति । कद्रु । विधि । कद्रु । अजबस्ति । मित्रयु ( ३ ) रक्षामुख । जङ्घारथ । मन्थक। उत्कास। कटुक । मन्थक । पुष्करसद् । विषपुट । उपरिमेखल । कोष्टुमान । क्रोष्टुपा द । शीर्षमाय ( ४ ) । खरप ( ५ ) । पदक । वर्मक ( ६ ) भन्दन (७) । भडि. ल । भाण्डिल । भडित । भण्डित (८) । इतियस्कादयः ।।
२६-न गोपवनादिभ्यः ॥ • ॥ २ । ४ । ६७॥ गोपवनादिप्रातिपदिकेभ्यः परस्य गोत्रप्रत्ययस्य बहुवचनविभक्तौ लुङ् न भवति यत्रमोश्चेतिप्राप्तो लुक् प्रतिषिध्यते । गोपवनस्य गोत्रापत्यं गौपवनः । गौपवनौ । गौपवनाः ।:
गौपवन । शिग्रु । विन्दु । भाजन । अश्व । अवतान । श्यामाक । श्वापर्ण । इत्यष्टौ विदाद्यन्तर्गता गोपवनादयः ।।
२७-तिककितवादिभ्यो इन्हे ॥ भ० ॥ २।४ । ६८॥ तिकादिभ्यः कितवादिभ्यश्च परस्य गोत्रप्रत्ययस्य द्वन्द्वसमासे बहुवचनविभक्तौ लुग्भवति । तैकायनयश्च कैतवायनयश्चेत्यत्र तिकादिम्यः फिञ् तस्य लुक् :
(१) यस्कादिपञ्चम्यः शिवादित्वादण || (२) सदामत्तादिसप्तम्य इञ् ॥ ( ३ ) बस्त्यादिषड्भ्यो गृष्ट्यादित्वाड् ढञ् ॥ (४) रक्षामुखायेकादशभ्य इञ् ॥ ( ५ ) खरपशब्दान्नडादित्वात्फक् ।। ( ६ ) पदकवर्मकाम्यामि ॥ (७ ) भन्दनशब्दाच्छिवादित्वादण् । (८) भाडिलादिचतुर्योऽश्वदित्वात् फल ।।
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१२
गणपाठः॥
तिककितवाः । वलरभण्डीरथाः ( १ ) उपकलमकाः ( २ ) पफकनरकाः । बकनखश्वगुदपरिणद्धाः ( ३ ) । उब्जककुभाः ( ४ ) । लङ्कशान्तमुखाः ( ५ ) उरसलङ्कटाः ( ६ ) । भ्रष्टककपिष्ठलाः । कृष्णाजिनकृष्णसुन्दराः (७ )। अग्निवेशदासेरकाः ( ८ ) ॥ इति तिककितवादयः ।।
२८-उपकादिभ्योऽन्यतरस्यामहन्दे ॥ १०॥ २।४ । ६९॥
उपकादिप्रातिपदिकेभ्यः परस्य गोत्रप्रत्ययस्य बहुवचनविभक्तौ द्वन्द्वे चाद्वन्द्वे च विभाषा लुग्भवति । अद्वन्द्वग्रहणं द्वन्द्वाधिकारनिवृत्त्यर्थम् । एतेषां मध्ये त्रयो द्वन्द्वास्तिककितवादिषु पठिताः । उपकलमकाः । भ्रष्टककपिष्ठलाः । कृष्णाजिनकृष्णसुन्दराः । तेभ्यः पूर्वसूत्रेणैव नित्यलुग्भवति । अद्वन्द्वत्वनेन विकल्पः । उपकाः। औपकायनाः । लमकाः । लामकायनाः । शेषाणां द्वन्द्वेऽद्वन्द्वे च विकल्पः :
उपक । लमक । भ्रष्टक । कपिष्ठल । कृष्णाजिन । कृष्णसुन्दर । पण्डारक । श्रएडारक | गडुक । सुपय्यर्क । सुपिष्ट । मयूरकर्ण। खारीजङ्घ । शलाबल । पतञ्जल । कठराण । कुषीतक । काशकृत्स्न । निदाघ । कलशीकण्ठ । दामकण्ठ । कृष्णपिङ्गल । कर्णक । पर्णक । जटिलक । बधिरक । जन्तुक । अनुलोम । अर्द्धपिङ्गलक । प्रतिलोम । प्रतान । अनभित । चूडारक । उदङ्क । सुधायुक । प्रबन्धक । पदञ्चल। अनुपद । अपजग्ध । कमक । लेखाभ्र । कमन्दक । पिजल । मसूरकर्ण । मदाघ । कदामत्त । इत्युपकादयः ॥
२९-भशादिभ्यो भुव्यच्वेलॊपश्च हलः॥ अ०॥३१॥१२॥ अच्च्यन्तेभ्यो भृशादिप्रातिपदिकम्यो भवत्यर्थे क्यङ् प्रत्ययो भवति हलन्तानां (१) वाङ्खरयश्च भांडीरथयश्चेतीञ् ॥ (२) औपकायनश्च लामकायनश्चेति नादित्वात् फक् ।
(३) पाफकयश्च नारकयश्च, बाकनखयश्च, श्वागुदपरिणद्धयश्च सर्वेभ्योऽत इञ् तस्य लुक् ॥
(४) औब्जयश्च, इञ् । काकुभाश्च, शिवादित्वादण् । तयोर्लक् ।। (५) लाङ्कयश्च शान्तमुखयश्च, इन तस्य लुक् ॥ ... (६) औरसायनश्च, तिकादित्वात् फिञ् । लाङ्कटयश्च, इञ् तयोर्लुक् ॥
(७ ) भ्राष्टकयश्च, कापिष्ठलयश्च । काष्णाजिनयश्चं कार्णसुन्दरयश्च । प्रत इन तस्यलुक् ॥
(८) आग्निवेश्याच्च, गर्गादित्वाद् यज । दासेरकयश्च, अत इन तयोर्लक् ।
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गणपाठः॥
१३ चान्त्यलोपः । अभृशो भृशो भवतीति भृशायते । सुमनायते । अच्चेरिति किम् । भृशीभवति । अत्र मा भूत् :___ भृश । शीघ्र । मन्द । चपल । पण्डित । उत्सुक । उन्मनस् । अभिमनस् । सुमनम् । दुर्मनस् । रहस् । रेहस् । शश्वत् । बृहत् । वेहत् । नृषत् । शुधि । अधर । प्रोजम् । वर्चस् । विमनस् । रभन् । हन् । रोहत् । शुचिस् । अजरम् । इति भृशादिः ॥
३०-लोहितादिडाज्भ्यः क्यप् ॥ भ० ॥३।१।१३ ॥ ___ अच्च्यन्तेभ्यो लोहितादिभ्यो डाजन्तभ्यश्च भवत्यर्थे क्यष् प्रत्ययो भवति । अलोहितो लोहितो भवति लोहितायते। लोहितायति। अपटपटा पटपटा भवति पटपटायति पटपटायतेः
लोहित । नील । हरित । पीत । मद्र । फेन । मन्द । आकृतिगणत्वात् । वर्मन् । निद्रा । करुणा । कृपा । इति लोहितादयः ॥ . ३१-भविष्यति गम्यादयः ॥ अ० ॥ ३।३।३॥
गम्यादयः शब्दा भविष्यति काले साधवो भवन्ति । ग्रामंगमी :
गमी । अागामी । प्रस्थायी । प्रतिरोधी । प्रतिबोधी । प्रतियोधी । प्रतियोगी। प्रतियायी । आयायी । भावी । इति गम्यादयः ॥
३२-षिद्भिदादिभ्योऽङ् ॥ अ० ॥ ३ । ३ । १०१ ॥ पिझ्यो भिदादिभ्यश्च धातुभ्यः स्त्रियामङ् प्रत्ययो भवति । जृष्-जरा । त्रपा । भिदादयः पठ्यन्ते :---
भिदा ( १ ) । छिदा । विदा । क्षिपा । गुहा गिर्योषध्योः ॥ श्रद्धा । मेधा । गोधा । पारा । हारा । कारा । क्षिया। भारा । धारा । रेखा । लेखा। चूडा । पीडा । वपा । वसा । सृजा ॥ क्रपेःसंप्रसारणं च ॥ कृपा । भिदा, विदारणे ॥ छिदा, द्वैधीकरणे ॥ आरा, शास्त्र्यम् ॥ धारा प्रपाते । इति भिदादयः ॥ ३३-वा०-संपदादिभ्यः विप् (२) ॥म ॥ ३।३।१०८॥ संपत् । विपत् । प्रतिपत् । आपत् । परिषत् । इति संपदादपः॥
(१)भिदादिगणे येप्वर्थ नियमः स महाभाष्यकारेणेव कृतोऽस्ति । विदारणादन्याथै भित्तिरिति सर्वत्रार्थान्तरे क्तिन् । - (२) संपदादिगणपठितेभ्य एव स्त्रियां विप् प्रत्ययो भवति । संपदादिश्चाकृतिगणो विज्ञेयः । कृत्यल्युटो बहुलमिति बहुलवचनात् क्तिन्नपि भवति । संपत्तिः। विपत्तिः । इत्यादि ॥
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. गणपाठः॥
३४-भीमादयोऽसादाने ॥ भ. ॥ ३ । ४ । ७४ ॥ भीमादयः शब्दा उणादिस्था अपादानकारके निपात्यन्ते :भीमः । भीष्मः । भयानकः । वरुः । चरुः । भूमिः । रजः । संस्कारः । संक्रन्दनः । प्र. पतनः । समुद्रः । त्रुचः । उक् । खलतिः ॥ इति भीमादयः ।।
३५-अलायतष्टाप् ॥ भ० ॥ ४ । १।४॥ अनादिभ्यः प्रातिपदिकेभ्योऽकारान्ताच्चस्त्रियां टाप् प्रत्ययो भवति । अजा । देवदत्ता । अदितितपरकरणं तत्कालार्थम् । कीलालपाः, ब्राह्मणी । अत्र टाप् न भवति अजादिग्रहणं तु नात्यादिलक्षणस्य ङीषादेर्वाधनार्थम् :__ अना । एडका। चटका । अश्वा । मूषिका (१) । बाला । होड़ा । पाका । वत्सामन्दा । विलाता । पूर्वापहरणा । अपरापहरणा (२) ।। संभस्त्राजिनशणपिण्डेभ्यः फलात् ॥ संफला । (३) भत्रफला । अनिनफला। शणफला । पिण्डफला । सदच्काण्डप्रान्तशतैकेभ्यःपुष्पात् ॥ (४) सत्पुष्पा । प्राक्पुष्पा । प्रत्यक्पुष्पा । काण्डपुष्पा । प्रान्तपुष्पा । शतपुष्पा । एकपुष्पा ॥ शूद्राचामहत्पूर्वा नातिः ॥ ( ५ ) कुञ्चा । उष्णिहा । देवविशा (१) ज्येष्ठा । कनिष्ठा । मध्यमा । (७) कोकिला। (८) मूलानमः । (१) अमूला । इत्यनादयः ॥
(१) अनादिभ्यः पञ्चभ्यो जातिलक्षणो यो ङीष् प्राप्तः स बाध्यते ॥ (२) बालादिभ्यः षड्भ्यो वयसि डीप् प्राप्तः ॥ (३) प्राभ्यां टिल्लक्षणो ङीप् प्राप्तः ।।
( ४ ) समादिभ्यः फलात् सदादिभ्यश्चपुष्पाद् बहुव्रीहौ यः पाककर्णेति सूत्रेण डीए प्राप्तः स बाध्यते ॥
( ५ ) अमहत्पूर्वाच्छूद्रशब्दाज्जातो टाप् । शूद्रा । योगे तु ङीषेव शूद्रस्य स्त्री शूद्री । अमहदिति किम् । महाशूद्री ॥
(६ ) क्रुञ्चादिभ्यस्त्रिभ्योऽप्राप्तष्टा विधिः ॥ (७) ज्येष्ठादिभ्यस्त्रिभ्यः पुंयोगे डीए प्राप्तोऽनेन बाध्यते ज्येष्ठस्य भार्या ज्येष्ठा॥ (८) कोकिलशब्दाज्नातिलक्षणो ङीष् प्राप्तः ॥ ( १ ) मूलशब्दाद् बहुब्रीही पाककर्णेति ङीष् प्राप्तः । नास्तिमूल मस्या सा अमूला
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गणपाठः॥
३६- न षट्स्वस्त्रादिभ्यः ॥ प्र० ॥ ४ । १।१० ॥
षट्संज्ञकेभ्यः स्वस्त्रादिभ्यश्च प्रातिपदिकेभ्यः स्त्रीप्रत्ययो न भवति , सप्त । अष्ट । स्वसा । दुहिता । ननान्दा । याता । माता । तिनः । चतस्त्रः । इति स्वस्त्रादयः ।।
३७-पिगौरादिभ्यश्च ॥ अ. ॥४।१ । ४१ ।। षिद्भ्यो गौरादिभ्यश्च प्रातिपदिकेभ्यः स्त्रियां ङीष् प्रत्ययो भवति । नत्तकी । खनकी । रजकी । गौरादिभ्यः । गौरी । मत्सी :-- गौर। मत्स्य। मनुष्य । शृङ्ग । हय । गवय । मुकय । ऋष्य । पुट । गुण । द्रोण। हरिण। कण । पटर। उकण । आमलक । कुवल । बदर । बिम्ब । तीर । शकीर । पुष्कर । शिखण्ड । सुपम । सलन्द । गडुन । अानन्द । सपाट । सृगेठ । आढक । शष्कुल । सूम । सुत्र । सूर्य । पूष । मूष । घातक । सकलक । सल्लक । मालक । मालत । सा. वक । वेतस । अतस । पृस । मह । मठ । छेद । श्वन् । तक्षन् । अनडुही । अनड्वाही । एषण, करणे । देह । काकादन । गवादन । तेनन । रजन । लवण । पान । मेध । गौतम । श्राप । स्थ ण । भौरि । भौलिक । भौलिङ्गि । औद्गाहमानि । आलिङ्गि। प्रापिच्छिक । पारट । टोट । नट । नाट । मूलाट । ज्ञातन । पातन । पावन । आ. स्तरण । अधिकरण । एत । अधिकार । अाग्रहायणी । प्रत्यवरोहिणी । सेवन । सुमङ्गलात् संज्ञायाम् । मुन्दर । मण्डल । पट । पिण्ड । विटक । कुई । गूई । पाण्ट । लोफाण्ट ! कन्दर । कन्दल । तरुण । तलुन । बृहत् । महत् । सौधर्म । रोहिणी, न. क्षत्रे रेवती, नक्षत्रे । विकल । निष्कल । पुष्कल ॥ कटाच्छोणिवचने ।। पिङ्गल । भट्ट । दहन । कन्द । काकण । पिप्पल्यादयश्च । पिप्पली । हरीतकी। कोशात की। शमी। करीरी । पृथिवी । क्रोष्ट्री । मातामह ( १ )। पितामह । इति गौरादयः ॥ .
३८-बबादिभ्यश्च ॥ १०॥४।१।४५॥ बबादिप्रातिपदिकेभ्यः स्त्रियां वा ङीष् प्रत्ययो भवति । बही । बहः ।
बहु । पद्धति । अङ्कति । अञ्चति । अंहति । वहति । शकटि ॥ शक्तिः शस्त्रे ॥ शारि । वारि । गति । अहि । कपि । मुनि । यष्टि ॥ इतः प्राण्यङ्गात् ॥ कृदिकाराद
( १ ) अत्र डामहच प्रत्ययस्य पित्वादेव डीषि सिद्धे पुनः पाठेन पिल्लक्षणस्य डीपोऽनित्यत्वं ज्ञाप्यते तेन दंष्ट्रा, इति सिद्धं भवति । पृथिवीशब्दे औरणादिकः षिवन् प्रत्ययस्य पित्वान् डीषि सिद्धे उणादीनामव्युत्पन्नत्वज्ञापनार्थः पाठः ।।
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१६
गणपाठः ॥
क्तिनः ॥ सर्वतोऽक्तिन्नर्थादित्येके ( १ ) || चण्ड | अराल । कमल । कृपाण । विकट । विशाल । विशंकट । भरुज । ध्वज || चन्द्रभागान्नद्याम् || चन्द्रभागी | कल्याण। उदार । पुराण | अहर् ॥ इति बह्वादयः ॥
३९ - न क्रोडादिवचः ॥ अ० ॥ ४ । १ । ५६ ॥
क्रोडायन्ताद् बह्वजन्ताच्च प्रातिपदिकात् स्त्रियां ङीष् प्रत्ययो न भवति । स्वाङ्गादिति प्राप्तः प्रतिषिध्यते । शोभनक्रोडा । शोमनखरा । पृथुजवना :
क्रोड । खुर । बाल । शफ । गुद । घोण । नख । मुख । भग। गल । श्राकृतिगणोऽयम् । इति क्रोडादयः ॥
१० - शार्ङ्गरवाद्यत्रो ङीन् ॥ भ० ॥ ४ । १ । ७३ ॥ शार्ङ्गरवादिभ्योऽञन्तेभ्यश्च प्रातिपदिकेभ्यः स्त्रियां ङीन् प्रत्ययो भवति । शार्ङ्गरवी । बैदी । जातिग्रहणमत्रानुवर्त्तते तेन जातिलक्षणो ङीपनेन बाध्यते न पुंयोगल
क्षणः :
शार्ङ्गरव । कापटव । गौलव । ब्राह्मण । गौतम । कामण्डलेय । ब्राह्मकृतेय | श्रनिचेय । आनिधेय । आशोकेय । वात्स्यायन । माब्जायन । केकसेय । काव्य । शैव्य । एहि । पय्यैहि । आश्मरथ्य । औदपान । अराल । चण्डाल । वतण्ड । भो - गवद्गौरिमतोः संज्ञायाम् || भोगवती । गौरिमती || नृमैंरयोवृद्धिश्च ॥ नारी । इति शार्ङ्गरवादयः ॥
४१ - कौड्यादिभ्यश्च ॥ अ० ॥ ४ । १ । ८० ॥ क्रौड्यादिप्रातिपदिकेभ्यः स्त्रियां ष्यङ् प्रत्ययो भवति । श्रगुरूपोत्तमार्थ आरम्भः । क्रौड्या | लाड्या :
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क्रौडि । लाडि । व्याडि । श्रपिशलि । आपक्षिति । चौपयत । चैटयत । शैकयत । वैल्वयत । वैकल्पयत । सौधातकि || सूतात् युवत्याम् ॥ सूत्या, युवतिः ॥ भोज, क्षत्रिये ॥ भोज्या, क्षत्रिया । भौरिकि । भौलिक । शाल्मलि । शाला स्थलि । कापि - ष्ठलि । गौकक्ष्य ॥ इति कौडचादयः ॥
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( १ ) इकारान्तात् प्राण्यङ्गवाचकान् ङीष् भवति । अङ्गली । इकारान्तात् कृदन्तात् स्त्रियां ङीष् । कृषी । भूमी । वापी । केषांचिन्मते क्तिन्नधिकारस्थादिकारान्तमात्रादेव ङीष् न भवति । तदा कृषिः । वापिः । इत्येव ॥
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गणपाठः॥
१२-प्रश्वपत्यादिभ्यश्च ॥ अ०॥४।१।८४॥
अश्वपत्यादिप्रातिपदिकेभ्यः प्राग्दीव्यतीयेष्वर्थेष्वण प्रत्ययो भवति । पत्युत्तर पदात् । प्राप्तस्य ण्यस्यापवादः । श्राश्वपतम् । शातपतम् :
अश्वपति । शतपति । धनपति । गणपति । राष्ट्रपति। कुलपति । गृहपति। धान्यपति । पशुपति । धर्मपति । सभापति । प्राणपति । क्षेत्रपति । स्थानपति । यज्ञपति । धन्वपति । अधिपति । बन्धुपति । इत्यश्वपत्यादयः ॥
१३-उत्सादिभ्योऽञ् । अ०॥४।१।८६ ॥
उत्सादिभ्यः प्राग्दीव्यतीयेप्वर्थेष्वञ् प्रत्ययो भवति । औत्सः । औदपानः । अणस्तदपवादानां च बाधकः :
उत्स । उदपान । विकर । विनोद । महानद । महानस । महाप्राण । तरुण । तलुन । वष्कयासे । (१) ॥ धेनु । पृथिवी । पङ्क्ति । जगती । त्रिष्टुप् । अनुष्टुप् । जनपद । भरत । उशीनर । ग्रीष्म । पीलु । कुल । उदस्थान, देशे ॥ पृष, दंशे (२)॥ मल्लकीय । रथन्तर । मध्यन्दिन । बृहत् । महत् । सत्वन्तु ( ३ ) । कुरु । पञ्चाल। इन्द्रावसान । उष्णिक् । ककुप् । सुवर्ण । सुपर्ण । देव । ग्रीष्मादच्छन्दसि ( ४ ) ॥ इत्युत्सादयः ॥
४४-बाह्वादिभ्यश्च ॥ ५० ॥ १।१ । ९६ ॥ बाह्वादिशब्देभ्योऽपत्यसामान्ये इच् प्रत्ययो भवति । वाहोरपत्यं बाहविः । सौमित्रिः । इत्यादि :
बाहु । उपवाहु । विवाकु । शिवाकु । बटाकु । उपबिन्दु ।। वृक । चूडाला । मूषिका । बलाका । भगला । छगला । ध्रुवका । धुवका । सुमित्रा । दुर्मित्रा । पुष्करसत् । अनुहरत् । देवशर्मन् । अग्निशमन् । कुनामन् । सुनामन् । पञ्चन् । सप्तन् । अष्टन् । अमितौजसः सलोपश्च ( ५ )॥ उदञ्चु । शिरस् । शराविन् । क्षेमवृद्धिन् । शङ्खला
(१) वष्कयशब्दादसेऽर्थात् केवलादेवाञ् । तदन्तात्त्वणव भवति ॥ ( २ ) उदस्थानशब्दाद्देशार्थ एवाञ । अन्यार्थेऽणेव भवति । एवमन्यत्रापि ॥ (३) अत्र सत् शब्दान्मतुप्-सत्वन् , तु, अव्ययम् । सत्वतोऽपत्यं सात्वताः ॥ ( ४ ) अत्र छन्दःशब्देन वृत्तं गृह्यते न तु वेदः । ततोऽन्यत्रा ॥ ( ५ ) अमितौजसोऽपत्यमामितौजिः ॥
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गणपाठः॥
तोदिन् । खरनादिन् । नगरमदिन् । प्राकारमर्दिन् । लोमन् । अनीगर्त । कृष्ण । सलक । युधिष्ठिर । अर्जुन । साम्व । गद । प्रद्युम्न । राम । उदङ्कः संज्ञायाम् ॥सम्भयोऽम्भसोः सलोपश्च ।। ( १ ) आकृतिगणोऽयम् (२ ) ॥ इति बाह्यादयः॥
४५-गोत्रकुजादिभ्यश्कञ् ॥१०॥ १।१।९८ ॥
गोत्रसंज्ञकेऽपत्ये वाच्ये कुजादिभ्यश्च्कञ् प्रत्ययो भवति । इमोऽपवादः ।कुञ्जस्य गोत्रापत्यं को जायन्यः। कौञ्जायन्यौ । कोजायनाः । स्वार्थ अयस्तस्य तद्रानत्वाद्वहुषु लुक् । गोत्र इति किम् । कुञ्जस्यानन्तरापत्यं कौन्जिः :
कुञ्ज । बध्न । शङ्ख । मस्मन् । गण । लोमन् । शठ । शाक । शाकट । शुण्डा । शुभ । विपाश । स्कन्द । स्कम्भ । शुम्भा । शिव । शुभंया । इति कुञादयः ।।
१६-नडादिभ्यः फक् ॥ अ०॥४।१ । ९९ ॥ नडादिप्रातिपदिकम्यो गोत्रापत्ये फक् प्रत्ययो भवति । नडस्य गोत्रापत्यं नाडायनः । चारायणः :
नड । चर । बक । मुञ्ज । इतिक । इतिश । उपक । लमक ॥ शलङ्कुशलङ्कञ्च ( ३ ) ॥ सप्तल । वानप्य । तिक । अग्निशर्मन् वृषगणे । प्राण । नर । सायक । दास । मित्र । द्वीप । पिङ्गर । पिङ्गल । किङ्कर । किङ्कल । कातर । कातल । काश्य । काश्यप । काव्य । अज । अमुष्य ॥ कृष्णरणौ ब्राह्मणवासिष्ठयोः ( ४ ) ॥ अमित्र । लिगु । चित्र | कुमार ॥ क्रोष्ट क्रोष्टश्च (५ ) ॥ लोह । दुर्ग। स्तम्भ । शिशपा । अन । तृण । शकट । सुमनस् । मुमत । मिमत । ऋक् । नत् । युगन्धर । हंसक । द. ण्डिन् । हस्तिन् । पञ्चाल । चमसिन् । सुकृत्य । स्थिरक । ब्राह्मण । चटक । बदर । अश्वक । खरप । कामुक । ब्रह्मदत्त । उदुम्बर । शोण । अलोह । दण्ड । एक । वा - नव्य । शावक । नाव्य । अन्वजत् । अन्तजन । इत्वरा । अंशक । अश्वला । अध्वरादण्डय । इति नडादयः ॥
(१) सम्भूयसोऽपत्यं साम्भूयिः । श्राम्भिः ॥
(२) सूत्रस्थचकारेणात्राऽऽकृतिगणत्वं बोध्यते । तेन । जाम्बिः । ऐन्द्रशाम्मः । आजधेनविः । आजवन्धविः । औडुलोमिः । इत्यादिष्विन सिद्धो भवति ।। .. ( ३ ) शलङ्कु शब्दस्य शलङ्कादेशः । शलङ्कोरपत्यं शालङ्कायनः॥
(४) कृष्णस्यापत्यं काणायनो ब्राह्मणः । राणायनो वासिष्ठः ॥ (५)कोष्टोरपत्यं क्रौष्टः॥
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गणपाठः॥
४७-अनुष्यानन्तर्ये विदादिभ्योऽञ् ॥ अ०॥४।१।१०४॥
विदादिप्रातिपदिकम्यो गोत्रापत्येऽञ् प्रत्ययो भवति । येऽत्र गणेऽनृषिवाचकास्ते. भ्यस्त्वनन्तरापत्य एव । विदस्य गोत्रापत्यं वैदः । पुत्रस्यानन्तरापत्यं पौत्रः । दौहित्रः :
विद । उर्व । कश्यप । कुशिक । भरद्वाज । उपमन्यु । किलालप । किदर्भ । वि. श्वानर । ऋष्टिषेण । ऋतभाग। हर्यश्व । प्रियक । आपस्तम्ब । कूचवार । शरद्वत् । शुनक । धेनु । गोपवन । शिग्रु । विन्दु । भाजन । अश्वावतान । श्यामाक । श्यमाक । श्यापर्ण । हरित । किन्दास । वयस्क । अकलूप । वध्योष । विष्णुवृद्व । प्रतिबोध । रथन्तर । रथीतर । गविष्ठिर । निषाद । मठर । मृद । पुनर्भू । पुत्र । दुहित । ननान्ह । परस्त्री,परशुंच ( १ ) ॥ किता। सम्वक । शावली । श्यायक । अलस । इति बिदादयः
४८-गर्गादिभ्यो यञ् ॥ अ०॥ ४ । १ । १०५ ॥ गर्गादिभ्योऽन्तरे गोत्रापत्ये यञ् प्रत्ययो भवति । गायः । अनन्तरापत्ये तु गार्गिरित्येव :___ गर्ग । वत्स । वाजाऽसे ( २ ) संकृति । अज । व्याघ्रपात् । विदभृत्। प्राचीनयोग । अगस्ति । पुलस्ति । रेभ । अग्निवेश । शङ्ख । शठ । धूम । अवट । चमस । धन
जय । मनस । वृक्ष । विश्वावसु । जनमान । लोहित । संशित। बभ्रु । मण्डु। मनु। अलिगु । शङ्क । लिगु । गुलु । मन्तु । जिगीषु । मनु । तन्तु । मनायी । भूत। कथक । कष । तण्ड । वतण्ड । कपि । कत । कुरुकत । अनडुह । कण्व । शकल । गोकक्ष। अगस्त्य । कुण्डिन । यज्ञवल्क । उभय । जात । विरोहित । बृषगण । रहूगण । शण्डिल । वण । कचुलुक । मुद्गल । मुसल । पराशर । जतूकर्ण । मन्त्रित । संहित । अश्मरथ । शर्कराक्ष । पूतिमाष । स्थूण । अररक । पिङ्गल । कृष्ण । गोलुन्द । उलूक । तितिक्ष । भिषज् । भडित । भन्डित । दल्भ । चिकित । देवहू । इन्द्रहू । एकलू । पिप्पलु । वृदग्नि । जमदग्नि । सुलोभिन् । उकत्थ । कुटीगु ॥ इति गर्गादयः ॥
१९-अश्वादिभ्यः फन ॥ अ०॥४।१।११०॥
अश्वादिभ्यो गोत्रापत्ये फञ् प्रत्ययो भवति । आश्वायनः । आश्मायनः । येस्मिन् गणेऽपत्यैकप्रत्ययान्ताः पठ्यन्ते तेषु सामर्थ्यानिप्रत्ययो विज्ञायते :
(१) परस्त्रिया अपत्यं पारशवः ॥ (२) असेऽसमासे वाजशब्दाद्यञ् । सवाजस्यापत्यं सौवानिः। अत्र यञ् न भवति॥
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गणपाठः॥
अश्व । अश्मन् । शङ्ख । बिद । पुट । रोहिण । खजूर । खजूंल । पिजूर । भडिल । भण्डिल । भडित । भण्डित । भण्डिक । प्रहृत । रामोद । क्षत्र । ग्रीवा । काश । गोलाङ्कय । अर्क । स्वन । धन । पाद । चक्र । कुल । पवित्र । गोमिन् । श्याम । धूम । धूम्र । वाग्मिन् । विश्वानर । कुट । वेश । आत्रेय । नत्त । तड। नड । ग्रीष्म । अहं । विशम्य । विशाला । गिरि । चपल । चुनम । दासक । वैल्य । धर्म । आनडुह्य । पुंसिनात । अर्जुन । शूद्रक । सुमनस् । दुर्मनस् । क्षान्त । प्राच्य । कित । काण । चुम्प । श्रविष्ठा । वीक्ष्य । पविन्दा । कुत्स । आतव । कितव। शिव । खदिर ॥ आत्रेय, भारद्वाने । भरद्वाज, आत्रेये ( १ ) ॥ पथ । कन्थु । श्रुव । सूनु । कर्कटक । रुक्ष । तरुक्ष । तलुक्ष । प्रचुल । विलम्ब । विष्णुज । इत्यश्वादयः ।।
५.-शिवादिभ्योऽण ॥ अ०॥ ४ । १।११२॥ शिवादिभ्यः सामान्यापत्येऽण् प्रत्ययो भवति । यथाप्राप्तानामिञादीनामणपवादानां च बाधकः । शिवस्यापत्यं शैवः
शिव । प्रौष्ठ । प्रोष्ठिक । चण्ड । मण्ड । जम्भ । मुनि । सन्धि । भूरि । कुठार । अनभिन्लान । अनभिग्लान । ककुत्स्थ ! कहोड । लेख । रोध । खजन । कोहड । पिष्ट । हेहय । खजार । खनाल । सुरोहिका । पर्ण । कहूष । परिल । वतण्ड । तृण । कर्ण । क्षीरहूद । जलहूद । परिषिक । जटिलिक । गोफिलिक । बधिरिका । मजी| रक । वृष्णिक । रेख । आलेखन । विश्रवण । खण । वर्तनाक्ष । पिटक । पिटाक । तृ
क्षाक । नभाक । ऊर्णनाभ । जरत्कारु । उत्क्षिपा । रोहितिक । आर्यश्वेत । सुपिष्ट । खजूरकर्ण । मसूरकर्ण । तूनकर्ण । मयूरकर्ण । खडरक । तक्षन् । ऋष्टिषेण । गङ्गा । विपाशा । यस्क । लह्य । द्रुघ' अयःस्थूण । भलन्दन । विरूपाक्ष । भूमि । इला । स-। पत्नी ॥ द्वयचो नद्याः ॥ त्रिवेणी, त्रिवणंच (२) कहवय । कबोध । परल । ग्रीवाक्ष । गोभिलिक । राजल । तडाक । वडाक । इति शिवादयः ॥
५१-शभ्रादिभ्यश्च ॥ अ॥४।१।१२३ ॥ . शुभ्रादिप्रातिपदिकम्योऽपत्ये ढक् प्रत्ययो भवति । यथा प्राप्तमिञादीनामपवादः । शुभ्रस्यापत्यं शौभ्रेय :
( १ ) आत्रेयशब्दाद् भारद्वाजगोत्रे फञ् । आत्रेयायणो भारद्वाजः । भारद्वाज शब्दादात्रेयगोत्रे फञ् । भारद्वाजायन आत्रेयः ॥
(२) स्त्रीवाचकाद् व्यच इति सूत्रेण ढक् प्राप्तः स नदीवाचकान्मा भूत् ।रेवायाअपत्य रैवः । त्रिवेण्यास्त्रिवणादेशो विशेषः । त्रिवेण्या अपत्यं त्रैवणः ॥
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गणपाठः॥
शभ्र । विष्टपुर । ब्रह्मकृत । शतद्वार । शतावर । शलाका । शालाचल । शलाकाभ्रू । लेखाभ्रू । विमातृ । विधवा । कृकसा । रोहिणी । रुक्मिणी। दिशा । शालक । अजवस्ति । शकन्धि । लक्षणश्यामयोर्वसिष्ठे ( १ ) ॥ गोधा । कृकलास । अणीव । प्रवाहण । भरत । भारत । भारम । मृकण्डु । मघष्टु । मकष्टु । कपूर । इतर । अन्यतर । आलीढ । सुदत्त । सुचक्षस् । सुनामन् । कट्ठ । तुद । अकशाप । कुमारिका । किशोरिका कुवेणिका । निमाशिन । परिधि । वायुदत्त । ककल । खट्वर । अम्बिका । अशोका । शुद्धपिङ्गला । खडोन्मत्ता । अनुदृष्टि । जरतिन् । बलिवर्दिन् । विग्रन । वीन । श्वन् । अश्मन् । अश्व । अनिर । स्थूल । मृकण्डू । मकथु । यमष्टु । कष्टु । सृकण्ड । मृकण्ड । गुद । रूद । कुशेरिका । शकल । शवल।उग्र।अनिन ॥ इतिशुभ्रादयः॥
५२-कल्याण्यादीनामिन ॥ प्र०॥४।१ । १२६ ॥
कल्याणादिप्रातिपदिकेभ्योऽपत्ये ढक् प्रत्ययो भवति तस्मिन् सति इनडादेशः । कल्याण्या अपत्यं काल्याणिनेयः । सौभागिनेयः ( २ )।:
कल्याणी । सुभगा । दुर्भगा । बन्धकी । अनुदृष्टि । अनुसृष्टि । जरती । बलीवर्दी । ज्येष्ठा । कनिष्ठा । मध्यमा । परस्त्री । इति कल्याण्यादयः ॥ .
५३-गृष्ट्यादिभ्यश्च ॥ अ० ॥४।१ । १३६ ॥
गृष्ट्यादिप्रातिपदिकेभ्योऽपत्ये ढञ् प्रत्ययो भवति । अणादीनामपवादः । गृष्टेरपत्यं गायः । :___गृष्टि । हृष्टि । हलि । बलि । विधि । कुद्रि। अजवस्ति । मित्रयु । फलि । अलि । दृष्टि । इति गृष्ट्यादयः ।।
५४-रेवत्यादिभ्यष्ठक् ॥ अ. ॥४।१।१४६ ॥ - रेवत्यादिभ्योऽपत्ये ठक् प्रत्ययो भवति । ढगादीनामपवादः । रेवत्या अपत्यं रैवतिकः । :
रेवती । अश्वपाली । मणिपाली । द्वारपाली । वृकवञ्चिन् । वृकग्राह । कर्णमा ह । दण्डग्राह । कुक्कुटाक्ष । वृकबन्धु । चामरगाह । ककुदाक्ष ॥ इति रेवत्यादयः ॥
(१) लक्षणस्यापत्यं लाक्षणेयो वसिष्ठः । श्यामाया अपत्यं श्यामेयो वसिष्ठः । मा- 1 नुषी वाचकात् श्यामाशब्दादण प्राप्तः सोऽनेन बाध्यते ॥
(२) कल्याण्यादिभ्यो ढक तु सिद्ध आदेशार्थं वचनम् । हृद्भसिन्ध्वन्त इ. त्युभयपदवृद्धिः ॥
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P
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२२
गणपाटः ॥
५५-कुर्वादिभ्यो ण्यः ॥ अ० ॥४।१ । १५१ ॥ कुर्वादिप्रातिपदिकेभ्योऽपत्ये एयः प्रत्ययो भवति। कुरोरपत्यं कौरव्यः । काव्यः। :--
कुरु । गर्ग । मङ्गुष । अनमारक । रथकार । वावदूक । सम्रानः क्षत्रिये (१) कवि । मति । वाक् । पितृमत् । इन्द्र नालि । दामोष्णीषि । गणकारि । कैशोरि । कापिनलादि । कुट । शलाका । मुंर । एरक । अभ्र । दर्भ । केशिनी । वेनाच्छन्दसि ॥ शूर्पणाय । श्यावनाय । श्यावरथ । श्यावपुत्र । सत्यंकार । वडभीकार । शङ्क । शाक । पथिकारिन् । मूढ । शकन्धु । कर्तृ । हर्तृ । शाकिन् । इनपिण्डी । विस्फोटक । काक । स्फाण्टक । शाकिन् । घातकि । धेनुनि । बुद्धिकार । वामरथस्य करवादिवत् स्वरवर्नम् ( २ ) । इतिकुर्वादयः ।। ___५६-तिकादिभ्यः फित्र ॥ ॥ अ०। ४ । १ । १५४ ॥
तिकादिप्रातिपदिकेभ्योऽपत्ये फिञ् प्रत्ययो भवति । तिकस्यापत्यं तैकायनिः । केतवायनिः । :
तिक । कितव । संज्ञा । बाल । शिखा । उरम् । शाढ्य । सैन्धव । यमुन्द। रूप्य । ग्राम्य । नील । अमित्र । गौकक्ष्य । कुरु । देवरथ । तैतिल । ओरस । कौरव्य । भौरिकि । भोलिकि । चौपयति । चैटयत । शक्यता। क्षेतयत । ध्वाजवत। चन्द्रमम् । शुभ । गङ्गा । वरेण्य । सुयामन् । पारद्ध । वह्यका । खल्य । वृष । ( ३ ) । लोमक । उदन्य। यज्ञ । ऋष्य । भीत । जाजल । रस । लावक । ध्वजवद । वसु । बन्धु श्राबन्धका । सुपामन् ।। इति तिकादयः ॥
५७-वाकिनादीनां कुकच ॥ १०॥ १।१।१५८॥
वाकिनादिशब्देभ्योऽपत्ये फिझ प्रत्ययो भवति । तत्सन्नियोगेन चैषां कुगागमः वाकिनस्यापत्यं वाकिनकायनिः :
( १ )सम्राटशब्दात् क्षत्रिये वाच्येण्यो भवति सम्रानोऽपत्यं साम्राज्यः क्षत्रियः ।।
(२)वामरथशब्दाण ण्यप्रत्ययो भवति करवादिवच्च स्वरवनकार्यमतिदिश्यते । कण्वादयो गर्गाद्यन्तर्गतास्तेभ्यः शैषिकोऽण यथा काव्यस्येमे छात्राः कारवाः । ए.
वं वामरथादपि शैषिकोऽण वामरथस्य छात्रा वामरथाः । बहुवचने यञ्वणण्यस्याऽपि लुक्। | वामरथाः । यज्ञश्चेति डीप । वामरथी । इत्यादि स्वरसत्वन्तोदात्त एव ।।
(३) फिञ् प्रत्यसम्बन्धे वृषशब्दस्य यकारान्तत्वं महाभाष्ये कृतम् । वृषस्यापत्य वाप्यायणिः ॥
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गणपाठः ॥
वाकिन । गारेध । कार्कट्य । काक । लङ्का ॥ चर्मिवर्मिणोर्नलोपश्च ( १ ) । इ. ति वाकिनादयः ॥
५८-वा.-कम्बोजादिभ्यो लुगवचनम् ॥ ४।१।१७५॥ कम्बोनादिशब्देभ्योऽपत्ये तद्राननि विहितस्य लुग्भवति कम्बोजस्यापत्यं तद्राजो वा कम्बोजः :कम्बोज । चोल । केरल । शक । यवन । इति कम्बोजादयः ।।
५९-न प्राच्यभर्गादियौधेयादिभ्यः ॥ ॥ ४ । १११७८॥ प्राच्यक्षत्रियवाचकेभ्यो भर्गादिभ्यो यौधेयादिभ्यश्चोत्पन्नस्य तद्रामप्रत्ययस्य लुङ न भवति । अतश्चेति प्राप्तः प्रतिषिध्यते । प्राच्य । पञ्चालानां राज्ञी पाञ्चाली । वैदेही । भार्गी । यौधेयी :
भर्ग । करूष । केकय । कश्मीर । साल्व । सुस्थाल । उरश । कौरव्य । इति भर्गादयः यौधेय । शौभ्रेय । शौक्रेय । ग्रावाणेय । वार्तेय । धार्तेय । त्रिगत । भरत। उशीनर । इति यौधेयादयः ॥
६०-भिक्षादिभ्योऽण् ॥ अ० ॥ ४१२ १३८ ।
षष्ठीसमर्थभिक्षादिशब्देभ्यः समूहार्थेऽण् प्रत्ययो भवति । अनादिवाधनार्थमण्नहणम् । भिक्षाणां समूहो भैक्षम् । गार्भिणम् :
भिक्षा । गर्भिणी । क्षेत्र । करीष । अङ्गार । चर्मिन् । धर्मिन् । चर्मन् । धर्मन् । सहस्र । युवति । पदाति । पद्धति । अर्थान् । अर्वन् । दक्षिणा । भूत । विषय । श्रोत्र ॥ वृतादिभ्यः खण्डः (२)॥ वृक्षखण्डः। वृक्ष । तरु । पादप । इति भिक्षादयः ।
६१-खण्डिकादिभ्यश्च । अ० ॥५।२।४५॥ खण्डिकादिभ्यः समूहार्थेऽञ् प्रत्ययो भवति । खण्डिकानां समूहः खाडिकम् :
खडिका । वडवा ।। क्षुद्रकमालवात्सेनासंज्ञायाम् ॥ (३) भिक्षुका । शुक । उलूक । श्वन् । युग । अहन् । वरत्रा । हलबन्ध । इति खण्डिकादयः ॥
(१) चार्मिकायणिः । वार्मिकायाणः ॥
( २ ) खण्डशब्दःपुस्तकान्तरपठितो न सर्वत्र कचित्तु वृक्षादिभ्यः षण्डः । इति पाठः । वृक्षपण्डः ॥
(३) क्षुद्राश्च मालवाश्चेति क्षत्रियद्वन्द्वः। ततः पूर्वेणैवानिसिद्धे गोत्रवञ् वाधनार्थ वचनम् । तुद्रकमालवानां समूहः क्षौकमालवी सेना । सेनासंज्ञतिनियमार्थम् । अन्यत्राज न भवति । क्षौदकमालवकम् ॥
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२४
गणपाठः॥
६२-पाशादिभ्यो यः ॥ अ० ॥ १।२ । १९ ॥ षष्ठीसमर्थपाशादिभ्यः समूहार्थे यः प्रत्ययो भवति । पाशानां समूहः पाश्या रज्जः । तृण्या :
पाश । तृण । धूम । वात । अङ्गार । पोत । बालक । पिटक । पिटाक । शकट । | हल । नड । वन । पाटलका । गल । इति पाशादयः ॥
६३--राजन्यादिभ्यो वुत्र ॥ अ. ॥४।२। ५३ ॥ ___ राजन्यादिप्रातिपदिकेभ्यो विषयो देश इत्येतस्मिन्नर्थे वुञ् प्रत्ययो भवति । राजन्यानां विषयो देशः, राजन्यकः :--
राजन्य । देवयान । शालङ्कायन । जालन्धरायण । प्रात्मकामेय । अम्बरीषपुत्र । वसाति । वैलवान। शैलूप । उदुम्बर । बैल्ववल । आर्जुनायन । संप्रिय । दाक्षि । ऊर्णनाभ । आप्रीत । अब्रीड । वैतिल । वात्रक ( १ ) इति राजन्यादयः ॥ ६४-भौरिक्यायषुकार्यादिभ्यो विधलभक्तलौ ॥१०॥४॥५४॥
विषयो देश इत्येतस्मिन् विषये षष्ठीसमर्थेभ्यो भौरिक्यादिम्य ऐषुकायर्यादिभ्यश्च यथासंख्यविधलभक्तलौ प्रत्ययौ भवतः । अणोऽपवादः । भौरिकीणां विषयो देशः, भौरिकिविधः । ऐषुकारिभक्तः ॥
· भौरिकि । भौलिकि । वैपेय । चैटयत । काणेय । वाणिजक । कालिज । वालिज्यक । शैकयत । वैकयत । इति भौरिक्यादयः ॥ ऐषुकारि । सारस्यायन । चान्द्रायण । द्वयाक्षायण । व्यायण । औडायन । जौलायन । खाडायन । सौवीर । दासमित्रि । दासमित्रायण । शौद्रायण । दाक्षायण । शयण्ड । ताायण । शौभ्रायण । सायण्डि । शौण्डि । वैश्वमाणव । वैश्वधेनव । नद । तुण्डदेव । अलायत । औलालायत । शौएड । शयाण्ड । वैश्वदेव ॥ इत्यैषुकार्यादयः ॥ . ६५-ऋतूकथादिसूत्रान्ताट्ठक् ॥ भ० ॥४।२। ६० ॥
तदधीते तद्वदेत्यस्मिन् विषये ऋतुविशेषवाचिभ्य उकथादिभ्यः सूत्रान्ताच्च प्रातिपदिकाट ठक् प्रत्ययो भवति । अणोऽपवादः । अग्निष्टोममधीते वेद वा आग्निष्टोमिकः वाजपैयिकः । औथिकः । वात्तिकसूत्रमधीते । वार्तिकसूत्रिकः । सांग्रहसूत्रिकः :
... (१)अयमाकृतिगणस्तेन मालवानां विषयो देशः। मालवकः । वैराटकः । गर्त्त| कः । इत्यादयः शब्दाः सिद्धा भवन्ति ।।
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गणपाठः॥
३५
उक्थ । लोकायत । न्याय । न्यास । निमित्त। पुनरुक्त । निरुक्त । यज्ञ । चर्चा । धर्म । क्रमेतर । श्लक्षण । संहिता । पद । क्रम । संघात । वृत्ति । संग्रह । गुणागुण । आयुर्वेद ॥ द्विपदी, ज्योतिषि ( १ ) ॥अनुपद । अनुकल्प । अनुगुण । इत्युक्थादयः ॥
६६-क्रमादिभ्यो वुन् ॥ ० ॥ ४ । २ । ६१ ।। तदधीते तद्वदेत्यर्थेक्रमादिभ्यो वुन् प्रत्ययो भवति । क्रममधीतेक्रमकः । पदकः :क्रम । पद । शिक्षा । मीमांसा । सामन् । इति क्रमादयः ॥
६७-वसन्तादिभ्यष्ठक् ॥ ४।२।६३ ॥ तदधीते तद्वदेत्यस्मिन् विषये वसन्तादिप्रातिपदिकेभ्यष्ठक् प्रत्ययो भवति । वसन्तसहचरितो ग्रन्थो वसन्तस्तमधीते वेद वा स वासन्तिकः । वार्षिकः । एवं सर्वत्र :
बसन्त । वर्षा । शरद् । हेमन्त । शिशिर । प्रथम । गुण । चरम । अनुगुण, अपर्वन् । अथर्वन् । ॥ इतिवसन्तादयः ।।
६८-संकलादिभ्यश्च ॥ ॥ ४ । २ । ७५॥ संकलादिप्रातिपदिकेभ्यश्चातुरर्थिकोऽञ् प्रत्ययो भवति । अणोऽपवादः । पुष्कलास्मिन् सन्तीति पौष्कलो देशः । सिकताया अदूरभवो ग्रामः सैकतः । यथासम्भवमर्थसंबन्धः___संकल । पुष्कल । उद्वय । उडुप । उत्पुट । कुम्भ । विधान । सुदक्ष । सुदत्त । सुभूत । मुनेत्र । सुपिङ्गल । सिकता । पूतीकी । पूलास । कूलास । पलाश । निवेश । गवेश । गम्भीर । इतर । शर्मन् । अहन् । लोमन् । वेमन् । वरुण । बहुल । सद्योज । अभिषिक्त । गोभृत् । राजभृत् । गृह । भृत । भल्ल । माल । ( वृत् ) इति संकलादयः॥
६९-सुवास्त्वादिभ्योऽण् ॥ अ०॥ ४ । २ । ७७ ॥
सुवास्त्वादिप्रातिपदिकेभ्यश्चातुरधिकोऽण् प्रत्ययो भवति । अनोऽपवादः । सुवास्तोरदूरं नगरं, सौवास्तवम् । सौवास्तवी नदी :__सुवास्तु । वर्गु । भण्डु । खण्डु । कण्डु । सेचालिन् । कर्पूरिन् । शिखण्डिन् । गर्त । कर्कश । शटीकर्ण । कृष्ण । कर्क । कर्कन्धमती । गोह्य । गाहि । अहिसक्थ । ( वृत् ) इति सुवास्त्वादयः ॥
( १ ) द्विपदी ज्योतिःशास्त्रमधीते जानाति वा स द्वैपदिकः ॥
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गणपाठः ॥
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७० - कुञ्छण्कट जिल से निरढय यफ फि ञिञञ्चकक्ठको Site कशाश्व कुमुदकाश गुण प्रेचाश्म सखिसंकाशबल पक्षकसुनङ्गमप्रग दिन्वराहकुमुदादिभ्यः ॥ प० ॥ ४ । २ । ८० ॥
श्ररोहणादिसप्तदशगणस्थप्रातिपदिकेभ्यश्चातुरर्थिका वृलादयः सप्तदशैव प्रत्यया यथासंख्येन भवन्ति । श्रादिशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते । यथासम्भवमर्थसम्बन्धः । श्ररीहणादिभ्यो वुञ् । शिरीषाणामदूरभवो ग्रामः शैरषिकः । भरोहणानां निवासो देश श्र रहणकः :
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श्रहण | द्रुण। खदिर । सार । भगल । उलन्द । सांपरायण । क्रौष्ट्रायण । भास्त्रायण । मैत्रायण । त्रैगर्त्तायन | रायस्पोष । विपथ । उद्दण्ड । उदञ्चन । खाडायन । खण्ड । वीरण । काशकृत्स्न । जाम्बवन्त । शिंशपा । किरण । रैवत । वैल्व । वैमतान । मैमतायण | सौसायन । शाण्डिल्यायन । शिरीष । बधिर । वैगतीयण । गोमतायण । सौमतायण । खाण्डायण । विपाश । सुयज्ञ । जम्बु । सुशर्म्मा । इत्यरीहणादयः ॥ कृश। श्वादिभ्यश्छृण कार्शाश्वीयः । अरिष्टन निर्वृतमारिष्टीयम् :
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कृशाश्व । अरिष्ट । अरीश्व | वेश्मन् । विशाल । रोमक । शवल । कूट । रोमन् । वर्वर । सुकर | सूकर । प्रतर । सदृश । पुरंग । सुख । धूम । श्रजिन । विनता । वनिता । अवनत | विकुधास । अरु | अवयास । श्रयावस | मौद्गल्य । इति कृशाश्वादयः ॥ ऋश्यादिभ्यः कः ॥ न्यग्रोधानामदूरभवं वनं न्यग्रोधकम् :
ऋश्य । न्यग्रोध । शिरा । निलीन । निवास । निधान । निवास । निबद्ध । विबद्ध | परिगूढ़ | उपगूढ । उत्तराश्मन् । स्थूलबाहु । खदिर । शक्करा । अनडुह । परिवंश | वेणु । वीरण | खण्ड | परिवृत्त । कर्दम । अंशु । इति ऋश्यादयः ॥ कुमुदादिभ्यष्ठच ॥ बल्वजाः सन्त्यस्मिन् स वल्वजिको देशः :--
1
कुमुद । शर्करा । न्यग्रेोध । उकट । इत्कट । गर्त्त । बीज । अश्वत्थ । वत्स्वज । परिवाप 1 शिरीष । यवाप । कूप । विकङ्कन । कण्टक। कङ्कट । संकट । पलाश। त्रिक। कत । दशग्राम । इति कुमुदादयः ॥ काशादिभ्य इलः । काशाः सन्तियत्र स काशिला देश: :काश । वाश । अश्वत्थ । पलाश । पीयूष । विश । विस । तृण । नर । चरण । कईर्म । कर्पूर | कटक | गूह । आवास । नड । वन । बधूल । बवर । इति काशादयः || तृणादिभ्यः शः ॥ तृणानि यत्र सन्ति स तृणशो देशः :
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गणपाठः ॥
२७
तृण । नड । बुस । पर्ण । वर्ण । चरण । अर्ण । जन । बल । लव । वन । इति तृणादयः ॥ प्रेक्षादिभ्य इनिः । प्रेक्षयानिवृत्तः प्रेक्षी :
प्रेक्षा । हलका । फलका । बन्धुका । ध्रुवका । क्षिपका । न्यग्रोध । इर्कुट । बुधका । संकट । कूपका । कर्कटा । सुकटा । मङ्कट । सुक । महा । इति प्रेक्षादयः ॥अश्मादिभ्योरः । अश्मना निवृत्तः, अश्मरः :
अश्मन् । यूष । रुष । मीन । दर्भ । वृन्द । गुड । खण्ड । नग। शिखा । यूथ । रुष। नद। नख । काट । पाम । इत्यश्मादयः ॥ सख्यादिभ्यो ढझ । सखायः सन्न्यत्र साखेयो देशः:___ सखि । साखिदत्त । वायुदत्त । गोहित । गोहिल । भल्ल ! पाल । चक्रपाल । चक्रवाल । छगल । अशोक । करवीर । सीकर । सकर । सरस । समन । चर्क । वनपाल । उशीर । सुरस । रोह । तमाल । कदल। सप्तल । इति सख्यादयः ॥
संकाशादिभ्यो एयः । सांकाश्यम् । काम्पिल्यस्यादूरभवो ग्रामः काम्पिल्यः :
संकाश । काम्पिल्य । समीर । कश्मर । शूरसेन । सुपथिन् । सक्थच । यूप । अं. श। राग । अश्मन् । कूट । मलिन । तीर्थ । अगस्ति । बिस्ता चिकार । विरह । नासिका । इति संकाशादयः ॥ बलादिभ्यो यः प्रत्ययः । बलेन निवृत्तो बल्यः :
बल । वुल । तुल । डल । डुल । कवल । वन । कुल । इति बलादयः ॥ पक्षादिभ्यः फक् प्रत्ययः । पक्षण निवृत्तः पाक्षायणः :
पक्ष । तुष । अण्ड । कम्बलिक | चित्र । अश्मन् । अतिस्वन् । पथिन्, पन्थच (१)|कुम्भ । सरिज । सरिक । सरक । सलक । सरस । समल । रोमन् । लोमन् । हंसका । लोमक । सकण्डक । अस्तिबल । यमल । हस्त । सिंहक । इति पक्षादयः । कर्णादिभ्यः फिञ् प्रत्ययः । कर्णस्य निवासः कार्णायनिः :___कर्ण । वसिष्ठ । अलुश । शल । डुपद । अनडुह्य पाञ्चजन्य । स्थिरा । कुलिश । कुम्भी । जीवन्ती । जित्व । आण्डीवत् । अर्क । लूष । स्फिक् । ज्ञावत् । इतिकर्णादयः ॥ सुतङ्गमादिभ्य इञ् प्रत्ययो भवति । सुतजमेन निर्वतः सौतङ्गमिः ।
सुतङ्गम । मुनिचित्त । विप्रचित्त । महापुत्र । श्वेत । गडिक । शुक्र । विग्र । बीजवापिन् । श्वन् । अर्जुन । अजिर । जीव । इति सुतङ्गमादयः॥ प्रगदिन्नादिभ्यो भूयः प्रत्ययो भवति । प्रगदिनो यत्र सन्ति स प्रागद्यो देशः :
प्रगदिन् । मगदिन् । शरदिन् । कलिव । खडिव । गडिव । चूडार । मार्जार । (१) पथोऽदूरभवं वनं पान्यायतनम् ।।
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२८
गणपाठः ॥
कोविदार ॥ इति प्रगदिन्नादयः ॥ वराहादिभ्यः कक् प्रत्ययः । वराहाः सन्ति यत्र स वाराहको देशः । पालाशकः :
वराह । पलाश । शिरीष । पिनद्ध । स्थूण । विदग्ध । विभग्न । बाहु । खदिर । शर्करा । विनद्ध । निवद्ध | विरुद्ध । मूल । इति वराहादयः ॥ कुमुदादिभ्यष्ठक् प्रत्ययो भवति । कुमुदाः सन्ति यस्मिन् देशे स कौमुदिको देशः :
कुमुद । गोमथ । रथकार । दशग्राम । अश्वत्थ । शाल्मली । कुण्डल । मुनिस्थूल । कूट । मुचुक । कुन्द | मधुकर्ण । शुचिकर्ण । शिरीष । इति कुमुदादयः ॥ ७१ - वरणादिभ्यश्च ॥ अ० ॥ ४ । २ । ८२ ॥ वरणादिप्रातिपदिकेभ्य उत्पन्नस्य चातुरर्थिकप्रत्ययस्य लुबू भवति वरणानामदूरभवं नगरं वरणाः :
वरणाः । पूर्वौगोदौ । पूर्वेणगोदौ । श्रपरेण गोदौ । आलिङ्ग्यायन । पर्णी । शृङ्गी । शल्मलयः । सदावी । वणिकि । वणिक् । जालपद । मथुरा । उज्जयिनी । गया । तक्षशिला । उरशा | आकृत्त्या ( १ ) । इति वरणादयः ॥
७२ - मध्वादिभ्यश्च ॥ अ० ॥ ४ । २ । ८६ ॥ मध्वादिशब्देभ्यश्चातुरर्थिको मतुप्प्रत्ययो भवति । मध्वस्मिन्नस्तीतिमधुमान् :मधु । विस । स्थाणु । मुष्टि । हृष्टि । इक्षु । वेणु । रम्य । ऋ । कर्कन्धु । शमी । किरीर । हिम । किशरा । शर्पणा । मरुत् । मरुव । दावघाट । शर । इष्टका । तक्षशिला । शक्ति | आसन्दी । श्रसुति । शलाका । श्रामिधी । खड़ा । वेटा । इति
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मध्वादयः ॥
७३ - उत्करादिभ्यश्छः ॥ अ० ॥ ४ । २ । ९० ॥ उत्करादिप्रातिपदिकेभ्यश्चातुरर्थिकश्छः प्रत्ययो भवति । यथासम्भवमर्थसम्बन्धः । कामदूरभवो ग्रामः अर्कीयः :
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उत्कर । संफल । संकर । शफर । पिप्पल । पिप्पलीमूल । अश्मन् । अर्क । पर्ण । सुपर्ण । खलाजिन । इडा । अग्नि । तिक । कितव । तप । श्रनेक | पलाश । तृणव । पिचुक । अश्वत्थ । शकाक्षुद्र । भस्त्रा । विशाला । अवरोहित । गर्त्त | शाल ।
( १ ) अत्र सूत्रस्थचकारेणाकृतिगणत्वं बुध्यते । तेन कटुकवदर्य्या अदूरभवो | ग्रामः कटुकबदरी । शिरीषाः । काञ्ची इत्यादिषु लुप् सिद्धो भवति ॥
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गणपाठः॥
अन्य । जन्या । अजिन । मञ्च । चमन् । उत्क्रोश । शान्त । खदिर । शूर्पणाय । श्यावनाय । नैव । बक । नितान्त । वृक्ष । इन्द्रवृक्ष । आवृक्ष । अर्जुनवृक्ष । इत्युः
करादयः॥
७४-नडादीनां कुक् च ॥ म० ॥ ४ । २ । ९१ ॥ नडादिप्रातिपदिकेभ्यश्चातुरर्थिकश्छः प्रत्ययो भवति तस्मिन् सति कुगागमश्च । यथासंभवमर्थसंबंधः । नडाः सन्ति यत्र तन्नडकीयं वनम् :
नड । लक्ष । बिल्व । वेणु । वेत्र । वेतस । तृण । इक्षु । काष्ठ । कपोत । क्रुश्चाया हस्वत्वं च ( १ ) ॥ तक्षनलोपश्च ॥ इति नडादयः ॥
७५-कल्यादिभ्यो ढकम् ॥ अ० ॥ ४।२। ९५॥ कल्यादिशब्देभ्यः शेषार्थे ढकञ् प्रत्ययो भवति । कत्तौ मवः कात्तेयकः :
कत्ति । उम्भि । पुष्कर । पुष्कल । मोदन । कुम्भी । कुण्डिन । नगर । वजी । भक्ति । माहिष्मती । चर्मण्वती। वर्मती । ग्राम । उख्या। कुल्याया यलोपश्च (२)॥ इति कत्त्र्यादयः ॥
७६-नद्यादिभ्यो ढक् ॥ अ०॥४।२।९७॥ नद्यादिम्यः प्रातिपदिकेभ्यः शैषिको ढक् प्रत्ययो भवति । नद्यां भवं नादेयम् :
नदी । मही । वाराणसी । श्रावस्ती । कौशाम्बी । नवकौशाम्बी । काशफरी। खादिरी । पूर्वनगरी (३) । पावा । मावा । साल्वा । दार्वा । दाल्वा । वासेनकी । वडवायावृषे ॥ इति नद्यादयः ॥ ७७-प्रस्थोत्तरपदपलद्यादिकोपधादए । अ० ॥ ४ ॥२॥११०॥ ___ प्रस्थोत्तरपदात् पलद्यादिभ्यः कोपधाच्च प्रातिपदिकादण् प्रत्ययो भवति शैषिकः । मद्रीप्रस्थे भवो माद्रीप्रस्थः । माहकीप्रस्थः । पलयां भवः पालदः । पारिषदः । कोपधात् । नैलीनकः :
पलदी । परिषत् । यकृल्लोमन् । रोमक । कालकूट । पटच्चर । वाहीक । कल( १ ) क्रुञ्चाः सन्त्यस्मिन् तत् क्रुञ्चकीयं वनम् । तक्षकीयो ग्रामः ॥ (२) कुल्यायां भवः कौलेयकः । यकारलोपः ॥
( ३ ) पूर्वनगयो भवः पौर्वनगरेयः । अत्र-पू: । वन । गिरि । इतिपाठान्तरम् । तदा-पोरेयम् । वानेयम् । गैरेयमिति विभक्तं रूपत्रयं सिध्यति ॥
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otonal
गणपाठः॥
कीट । मलकोट । कमलकोट । कमलभिदा । कमलकीर । बाहुकोट । नैतकी । परिखा। शूरसेन । गोमती। उदपान । पक्ष । कललकीट । कललकीकटा । गोष्ठी । नैधिकी । नैकेती । सकृल्लोमन् । इति पलधादयः ॥
७८-कराचादिभ्यो गोत्र ॥ अ० ॥ ४ । २ । १११॥ गोत्रप्रत्ययान्तकणवादिप्रातिपदिकेभ्यः शैषिकोऽण् प्रत्ययो भवति । काण्ठ्यस्येमे काण्वाश् छात्राः । गर्गाद्यन्तर्गताः कण्वादयः । अतएवात्र न लिख्यन्ते ।।
७९-काश्यादिभ्यष्ठािठी ॥ म० ॥ ४ । २ । ११६॥ काश्यादिप्रातिपदिकेभ्यः शैषिको ठनिठौ प्रत्ययौ भवतः । प्रत्यययोजकारविपर्ययभेदात् स्त्रीप्रत्यये विशेषः । ठजन्तान् डीप मिठान्तात् तु टावेव भवति । काश्यां भवः काशिकः । काशिकी । काशिका :____ काशि । चेदि । वैदि। संज्ञा । संवाह । अच्युत । मोहमान । शकुलाद । हस्तिकर्पू । कुदामन् । कुनामन् । हिरण्य । करण । गोधाशन । भौरिकि । भालङ्गि । अ. रिन्दम। सर्वमित्र । देवदत्त। साधुमित्र। दासमित्र। दासग्राम । सौधावतान । युवराज । उपराज। सिन्धुमित्र । देवराज । आपदादिपूर्वपदान्तात् कालान्तात् ॥ आपत्कालिकी । आपत्कालिका । और्वकालिकी । और्वकालिका । तात्कालिकी । तात्कालिका । इतिकाश्यादयः।।
८०-धमादिभ्यश्च ॥ १०॥ १।२ । १२७ ।।
देशवाचिभ्यो धूमादिप्रातिपदिकेभ्यः शैषिको वुज प्रत्ययो भवति । अणोऽपवादः धूमे भवो धौमकः :___ धूम । खण्ड । खडण्ड । शशादन । प्रार्जुनाद। दाण्डायनस्थली। माहकस्थली। घोषस्थली । माषस्थली । राजस्थली । राजगृह । सत्रासाह । मक्षास्थली । मद्रकूल । गत्तकूल । आजीकूल । द्वयाहाव। त्रयाहाव । संहीय । वर्वर । वर्चगर्त । विदेह । आनर्त्त । माठर । पाथेय । घोष । शिष्य । मित्र । वल । पाराज्ञी ! धात्तराज्ञी ।अवयात । तीर्थ। कूलात्सौपा वीरेषु ॥ समुद्रान्नावि मनुष्ये च ( १ ) ॥ कुक्षि। अन्तरीप। द्वीप । अरुण । उज्जतु यिनी । दक्षिणापथ । साकेत । मानवल्ली । वल्ली । सुराज्ञी । इति धूमादयः ॥
(१) समुद्रशब्दान्नावि मनुष्ये च वाच्ये वुञ् । समुद्रे भवा सामुद्रिका नौः। साग्रा मुद्रिको मनुष्यः । अन्यत्र सामुद्रं जलम् ॥
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गणपाठः॥
८१-कच्छादिभ्यश्च ॥ अ०॥ ४।२। १३३ ॥ कच्छादिदेशवाचिप्रातिपदिकेभ्यः शैषिकोऽण प्रत्ययो भवति । वुञआदेरपवादः । कच्छे भवः काच्छः :
कच्छ । सिन्धु । वर्ण । गन्धार । मधुमत् । कम्बोज । कश्मीर । साल्व । कुरु । रकु । अणु । अण्ड । खण्ड । द्वीप । अनूप । अजवाह । विनापक । कुलून । इति कच्छादयः ॥
८२-गहादिभ्यश्च ॥ अ० ॥ ४ । २।१३८॥
गहादिप्रातिपदिकेभ्यः शैषिकश्छः प्रत्ययो भवति अणोरपवादः । अन्तःस्थे भव अन्तःस्थीयः :
गह । अन्तःस्थ । सम । विषम । मध्यमध्यमं चाण चरणे ( १) उत्तम । अङ्ग । वङ्ग । मगध । पूर्वपक्ष । अपरपक्ष । अधमशाख । उत्तमशाख । समानशाख । एकग्राम । एकवृक्ष । एकपलाश । इप्वन । इप्पनीक। अवस्यन्दी । अवस्कन्द । कामप्रस्थ । खाडायनि । खाण्डायनी । कावेराण । कामवेरणि । शैशिरि । शौङ्गि ।आसुरि । आहिसि । श्रामित्रि । व्याडि । वैदजि । भौजि ।श्राद्धयश्वि । आनृशंसि । सौवि । पारकिाअग्निशमन् ।देवशर्भन् श्रौति ।आरटकि । वाल्मीकि । क्षेमवृद्धिन् । उत्तर । अन्तर ।। मुखपार्श्वतसोलापः ।। जनपरयोः कुक् च ॥ देवस्य च ॥ वेणुकादिभ्यश्छण( २ ) इति गहादयः ॥
८३-सन्धिवेलायूतुनक्षत्रेभ्योऽण ॥ अ०॥४॥३॥ १६॥ सन्धिवेलादिभ्य ऋतुभ्यो नक्षत्रेभ्यश्च कालवाचिभ्यः प्रातिपदिकेभ्यः शैषिकोऽण् प्रत्ययो भवति । ठोऽपवादः । अण्ग्रहणं वृद्धाच्छस्य बाधनार्थम् । सन्धिवेलायां जातः सान्धिवेलः । ग्रैष्मः । तैपः । पौषः :
सन्धिवेला । सन्ध्या । अमावास्या । त्रयोदशी । चतुर्दशी । पञ्चदशी । पौर्णमासी ।
(१) अस्यैव सूत्रस्य शेषवार्तिकप्रमाणेन पृथिवीमध्यशब्दस्य मध्यमादेशश्चरणे. ऽभिधेये निवासलक्षणोऽण् प्रत्ययः। अन्यत्र तु छ एव । पृथिवीमध्ये निवास एषां ते मा. ध्यमाश्चरणाः । चरणादन्यत्र । मध्ये भवो मध्यमीयः ।। ___(२ ) मुखपार्श्वयोस्तसन्तयोरन्त्यलोपः । मुखतोभवं मुखतीयम् । पार्श्वतीयम् । जने भवो जनकीयः । परकीयः । देवो भक्तिरस्य देवकीयः । वेणुकादिराकृतिगणः । वेणुकदेशे भवो वैणुकीयः । वरेणकीयः । पालाशकीयः ॥
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३२
गणपाठः॥
प्रतिपत् ॥ संवत्सरात् फलपर्वणोः ॥ सांवत्सरं फलम् । सांवत्सरं पर्व ॥ इति सन्धिवेलादयः ॥
८४-दिगादिभ्यो यत् ॥ १०॥ ४ । ३६ ५४ ॥
सप्तमीसमर्थदिगादिप्रातिपदिकेभ्यो भवार्थ यत् प्रत्ययो भवति । अणश्छस्य चापवादः । दिशि भवं दिश्यम् :
दिश । वर्ग । पूर्ग । गण । पक्ष । धाय्या । मित्र । मेधा । अन्तर । पथिन् । रहस् । अलीक । उखा । साक्षिन् । आदि । अन्त । मुख । जघन ( १ )। मेघ । यूथ। उदकात्संज्ञायाम् ( २ ) न्याय । वंश । अनुवंश । विश । काल । अप् । आकाश। इति दिगादयः ॥ ८५-वा-ज्यप्रकरणे परिमुखादिभ्य उपसंख्यानम्॥४३३५९॥ ___ अव्ययीभावसंज्ञकेभ्यः परिमुखादिप्रातिपदिकेभ्यो न्यप्रत्ययो भवति । नियमार्थ वार्तिकमिदम् । सूत्रेण सामान्याव्ययीभावाद् ज्यः प्राप्तो नियम्यते । परिमुखं भवं पारिमुख्यम् । पारिहनव्यम् । नियमादिह न भवति । उपकूलं भवमीपकूलम् :
परिमुख । परिहनु । पर्योष्ठ । पर्युल । औपमूल । खल । परिसीर। अनुसीर । उ पसीर । उपस्थल । उपकलाप । अनुपथ । अनुखड्ग । अनुतिल । अनुशीत । अनुमाप । अनुयव । अनुयूप। अनुवंश । अनुस्वङ्ग । इति परिमुखादयः ॥
८६-वा- अध्यात्मादिभ्यश्च ॥ ४ । ३ । ६० ॥ अध्यात्मादिभ्यो भवार्थे ठञ् प्रत्ययो भवति । अध्यात्म भवमाध्यात्मिकम् :अध्यात्म । अधिदेव । अधिभूत । आकृतिगणोऽयम् । इत्यध्यात्मादयः ॥
८७-अण् ऋगयनादिभ्यः । अ० ॥ ४ । ३ । ७३ ॥ षष्ठीसप्तमीसमर्थेभ्य ऋगयनादिप्रातिपदिकेभ्यो भवव्याख्यानयोरर्थयोरण प्रत्ययो भवति । ऋगयने भवमार्गयनः । तस्य व्याख्यानो वा । अण्ग्रहणं बाधकबाधनार्थम् वाव स्तुविद्याया व्याख्यानो ग्रन्थो वास्तुविद्यः । अत्र छप्रत्ययो माभूत् :
(१) मुखजघनशब्दाभ्यां शरीरावयवत्वादेव यति सिद्ध पुनरत्र दिगादिपु पाठो पऽशरीरावयवार्थः । सेनामुखे भवः सेनामुख्यम् । सेनाजघन्यम् । सेनाया अग्रपश्चाद्भागौ गृह्यते । तदन्तविधिना यत् ॥
(२) उदके भवा उदक्या रजस्वला । संज्ञाग्रहणादिह न भवति । उदके भव ग्र औदको मत्स्यः ॥
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गणपाठः॥
ऋगया । पदव्याख्यान । छन्दोमान । छन्दोभाषा । छन्दोविचिति । न्याय । पुनरुक्त । व्याकरण । निगम । वास्तुविद्या । अङ्गविद्या । क्षत्रविद्या । उत्पात । उत्पा• द । संवत्सर । मुहूर्त । निमित्त । उपनिपद् । शिक्षा । छन्दोविनिनी । व्याय । निरुक्त । विद्या । उद्याव । भिक्षा । इति ऋगयनादयः ॥
८८-शुण्डिकादिभ्योऽण ॥ ॥ ४ । ३ । ७६ ॥ पञ्चमीसमर्थशुण्डिकादिप्रातिपदिकेभ्य आगतार्थेऽण् प्रत्ययो भवति । शुण्डिकादागतः शौण्डिकः :
शुण्डिक । कृकण । स्थाण्डल । उदपान । उपल । तीर्थ । भूमि । तृण । पर्ण । इति शुण्डिकादयः ॥
८९-शण्डिकादिभ्यो ज्यः ॥ १०॥४।३।९२ ॥
प्रथमासमर्थशण्डिकादिप्रातिपदिकेभ्योऽभिजनेऽभिधेये ज्यः प्रत्ययो भवति शण्डिकोऽभिजनोऽस्य स शाण्डिक्यः :
शाण्डिक । सर्वकेश । सर्वसेन । शक । सट । रक । शङ्ख । वोध । इति शण्डिकादयः ॥
९०-सिन्धुतक्षशिलादिभ्योऽणौ ॥०॥४॥३।९३ ॥ प्रथमासमानाधिकरणेभ्यः सिन्ध्वादिभ्यस्तक्षशिलादिभ्यश्चाभिजनेऽर्थे यथासंख्यमणी प्रत्ययौ भवतः । सिन्धुरभिजनोऽस्य स सैन्धवः । तक्षशिलाऽभिजनोऽस्य स ता. शिलः । प्रत्ययभेदः स्वरभेदार्थः :
सिन्धु । वर्ण । गन्धार । मधुमत् । कम्बोज । कश्मीर । साल्व । किष्किन्धा। गब्दिका । उरस । दरत् । कुलन । दिरसा । इति सिन्ध्वादयः ॥
तक्षशिला । वत्सोद्धरण । कौमेदुर । काण्डवारण । ग्रामणी । सरालक । कंस । किन्नर । संकुचित । सिंहकोप्ठ । कर्णकोष्ठ । बर्बर । अवसान । इतितक्षशिलादयः ॥
९१-शौनकादिभ्यश्छन्दसि ॥ अ०॥४।३ । १०६॥
तृतीयासमर्थशौनकादिप्रातिपदिकेभ्यश्छन्दसि वेदे प्रोक्तार्थे णिनिः प्रत्ययो भवति । छाणोरपवादः । शौनकेन प्रोतमधीयते, शौनकिनः । वाजसनेयिनः । छन्दसीति किम् । शौनकीया शिक्षा । अत्र छन्द एव भवति :
शौनक । वाजसनेय । साङ्गरव । शाङ्गरव । सांपेय । शाखेय। खाडायन। स्कन्द।
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गणपाठः॥
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स्कन्ध । देवदत्तशठ । रज्जुकण्ठ । रज्जुभार । कठशाड । कशाय । तलककार । पुरु. पासक । अश्वपेय । स्कम्भ । इति शौनकादयः ॥
९२-कुलालादिभ्यो वुञ् ॥ अ० ॥ ४ । ३ । १३८ ।
तृतीयासमर्थकुलालादिप्रातिपदिकेभ्यो वुञ् प्रत्ययो भवति । कृतमित्येतस्मिन्नर्थ संज्ञायां गम्यमानायाम् । कुलालेन कृतं कौलालकम् । वारुडकम् :--
कुलाल । वरुड । चण्डाल । निषाद । कार । सेना । सिरिध्र । सेन्द्रिय । देवराज । परिषत् । बधू । रुरु । ध्रुव । रुद्र । अनड्डह् । ब्रह्मन् । कुम्भकार । श्वपाक । इति कुलालादयः ॥
९३-बिल्वादिभ्योऽण ॥ भ०॥ ४ । ३ । ११६ ॥
षष्ठीसमर्थविल्वादिप्रातिपदिकेभ्यो विकारावयवयोरर्थयोरण प्रत्ययो भवति विल्वस्य | विकारोऽवयवो वा बैल्वः :
बिल्व । ब्रीहि । काण्ड । मुद्ग । मसूर । गोधूम । इक्षु । वेणु । गवेधुका (१)। कर्पासी । पाटली । कर्कन्धू । कुटीर ॥ इति बिल्वादयः ॥
९४-पलाशादिभ्यो वा ॥ अ० ॥ ४ । ३ । १४१॥ पलाशादिप्रातिपदिकेभ्यो विकारावयवयोरञ् प्रत्ययो भवति । पलाशस्य विकारः पालाशम् । खादिरम् :
पलाश । खदिर । शिशपा । स्यन्दन । करीर । शिरीष । यवास । विकत । इति | पलाशादयः ॥
९५-नित्यं वद्धशरादिभ्यः॥५०॥४।३ । ११४॥ वृद्धेभ्यःशरादिभ्यश्च प्रातिपदिकेभ्यो भक्ष्याच्छादनयोर्विकारावयवयोर्भापायां विषये नित्यं मयट् प्रत्ययो भवति । वृद्ध-अाम्रमयम् । शालमयम् । शरमयम् । दर्भमयम्:
शर । दर्भ । गृत् । कुटी । तृण । सोम । वल्वन । इति शरादयः ।।
९६-तालादिभ्योऽण् । अ० ॥ ४ । ३ । १५२ ॥ . तालादिप्रातिपदिकेभ्यो विकारावयवयोरण प्रत्ययो भवति । तालस्य विकारः तालं धनुः । अन्यत्र तालमयम् । वृद्धत्वान्मयट् :
( १ ) अस्मात्कोपधाचेत्याणि सिद्धे पुनःपाठो मयड्बाधनार्थः एतस्मिन् पक्षेऽपि मयण् मा भूदिति ॥
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गणपाठः ॥ तालाद्धनुषि । बाहिण । इन्द्रालिश । इन्द्रादृश । इन्द्रायुध । चाप । श्यामाक । पीयुक्षा ॥ इति तालादयः ॥
९७-प्राणिरजतादिभ्योऽण् ॥ १० ॥ १।३ । १५४ ॥
प्राणिवाचिभ्यो रजतादिभ्यश्च प्रातिपदिकेभ्यो विकारावयवयोरञ् प्रत्ययो भवति । कपोतस्य विकारः कापोतम् । राजतम् :
रजत । सीस । लोह । उदुम्बर । नीच । नील । दारु । रोहितक । विभीतक । कपीत । दारु । तीबदारु । त्रिकण्टक । कण्टकार । इति रजतादयः ॥
९४-लक्षादिभ्योऽण् ॥०॥ ४ । ३ । १६४ ॥ प्लक्षादिप्रातिपदिकेभ्यो विकारावरावत्वेन विवक्षिते फलेऽभिधेयेऽण् प्रत्ययो भवति।। प्लक्षस्य विकारः लाक्षम् नैयग्रोधम् :___ लक्ष । न्यग्रोध । अश्वत्थ । इङ्गदी । शिनु । कर्कन्धु । कर्कन्तु । ऋक्रतु। बृहती। काक्ष । तुरुरु ।। इति लक्षादयः ॥
९९-हरीतक्यादिभ्यश्च ॥ ५० ॥ ४ | ३ । १६७॥ हरीतक्यादिप्रातिपदिकेभ्यः फलेऽभिधेये प्रत्ययस्य लुब् भवति । लुकि प्राप्ते लुपो विधानं युक्तवद्भावार्थम् । हरीतक्याः फलं हरतिकी । हरीतक्याः फलानि हरीतक्यः ( १ ) :__हरीतकी । कोशातकी । नखरजनी । नखररजनी। शष्कण्डी। शाकण्डी । दाडी। दोडी । दडी । श्वेतपाकी । अर्जुनपाकी । काला । द्राक्षा । ध्वाक्षा । गर्गरिका । कएटकारिका । शेफालिका ॥ इति हरीतक्यादयः ॥
१००-पर्पादिभ्यः ष्ठन् ॥ १०॥४।१।१० ॥ पपीदिभ्यश्चरतीत्यर्थे ष्ठन् प्रत्ययो भवति । षकारो डीपर्थः । पर्पण चरति, पर्पिकः । पर्पिकी :--
पर्प । अश्व । अश्वत्थ । रथ । जाल । न्यास । व्याल ॥ पादः पञ्च ॥ पदिकः ।। इति पर्पादयः ॥
(१) हरीतक्यादिषु व्यक्तिर्भवति युक्तवद्भावेनेति वात्तिकेन लिङ्गस्यैवयुक्तवद्भावो न तु वचनस्य ॥
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३६
गणपाठः॥
१०१-वेतनादिभ्यो जीवति ॥ अ०॥ ४ । ४ । १२॥
तृतीयासमर्थवेतनादिप्रातिपदिकेभ्यो जीवतीत्यर्थे ठक् प्रत्ययो भवति । वेतनेन जी. वति, वैतनिकः
वेतन । वाह । अर्द्धवाह । धनुर्दण्ड (१) । जाल । वेस । उपवेस । प्रेषण उपस्ति । सुख । शय्या । शक्ति । उपनिषत् । उपवेष । स्रक् । पाद । उपस्थान । इति वेतनादयः ॥
१०२-हरत्युत्सङ्गादिभ्यः ॥ अ० ॥ ४ । ४ । १५॥
तृतीयासमत्सङ्गादिप्रातिपदिकेभ्यो हरतीत्यर्थे ठक् प्रत्ययो भवति । उत्सङ्गेन ह. | रति, औत्सङ्गिकः :उत्सङ्ग । उडुप । उत्पत । पिटक । उडप । पिटाक । इत्युत्सङ्गादयः ॥
१०३-भस्त्रादिभ्यः ष्ठन् । अ० ॥ ४ । ४ । १६ ॥
भस्त्रादितृतीयासमर्थप्रातिपादिकेभ्यो हरतीत्यर्थे ष्ठन् प्रत्ययो भवति । भस्त्रया हरति, भस्त्रिकः , भस्त्रिकी :--
भस्त्रा । भरट ।भरण । भारण । शीर्षभार । शीर्षेभार । अंसभार । अंसेभार । इति भस्त्रादयः ॥
१०४-निवृत्तेऽक्षयूतादिभ्यः ॥ अ.॥४।४।१९॥ अक्षयूतादितृतीयासमर्थप्रातिपदिकेभ्यो निवृत्तेऽर्थे ठक् प्रत्ययो भवति । अक्षयूतेन निवृत्तम्, प्राक्षयूतिकं वैरम् :-- ___ अक्षयूत। जानुप्रहृत । जाप्रहृत । पादस्वेदन । कण्टकमर्दन । गतागत । यातोपयात । अनुगत । इत्यक्षद्यूतादयः ॥
१०५--अण महिष्यादिभ्यः॥ अ० ॥ ४ । ४।४८॥ पष्ठीसमर्थमहिष्यादिप्रातिपदिकेभ्यो धर्म्यमित्यर्थेऽण प्रत्ययो भवति । महिष्या धर्म्य माहिषम् :--
महिषी । प्रजावती । प्रलेपिका । विलेपिका । अनुलेपिका । पुरोहित । मणिपाली अनुचारक । होतृ । यजमान । इति महिष्यादयः ॥ ( १ ) अत्र संघातविगृहीतयोर्ग्रहणं भवति । धनुर्दण्डेन जीवति धानुर्दण्डिकः । धनुषा जीवति धानुष्कः । दाण्डिकः ॥
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गणपाठः ॥
१०६--किशरादिभ्यः ष्ठन् । अ० ॥ ४ । ४ । ५३ ॥
प्रथमासमानाधिकरणकिशरादिप्रातिपदिकेभ्यः पण्यमित्यर्थ ष्ठन्प्रत्ययो भवति । गन्धविशेषवाचकाः किशरादयः । किशराः पण्यमस्य, किशरिकः । किशरिकी :
किशर । नरद । नलद । सुमङ्गल । तगर । गुग्गुल । उशीर । हरिद्रा। हरिद्रायणी ॥ इति किशरादयः॥
१०७-छत्रादिभ्यो णः ॥ ४ । ४ । ६२॥ प्रथमासमानाधिकरणछत्रादिप्रातिपदिकेभ्यः शीलमित्यर्थे णः प्रत्ययो भवति । इव शब्दस्यात्र लोपो द्रष्टव्यः । छत्रभिव शीलमस्य स छात्रः शिष्यः । छत्रवद्गुरुरक्षकः :
छत्र । बुभुक्षा । शिक्षा । पुरोरु । स्था ( १ )। चुरा । उपस्थान । ऋषि । कर्मन् । विश्वधा । तपस् । सत्य । अनृत । शिविका । इति छन्त्रादयः ॥
१०८-प्रतिजनादिभ्यः खञ् ॥ अ०॥४।४।९९ ॥ सप्तमीसमर्थप्रतिननादिप्रातिपादिकेभ्यः साधुरित्यस्मिन्नर्थे खञ् प्रत्ययो भवति । प्रतिजने साधुः, प्रातिजनीनः । जने जने साधुरित्यर्थ : :__प्रतिजन । इदंयुग । संयुग । समयुग । परयुग । परकुल । परस्यकुल । अमुष्यकुल । सर्वनन । विश्वजन । पञ्चजन । महाजन । इति प्रतिजनादयः ॥
१०९-कथादिभ्यष्ठक् ॥ अ० ॥ ४।४।१०२ ॥ सप्तमीसमर्थकथादिप्रातिपदिकेभ्यः साधुरित्यर्थे ठक् प्रत्ययो भवति । कथायां साधुः काथिकः :
कथा । विकथा । वितण्डा । कुष्टचित् । जनवाद।जनेवाद! वृत्ति । सद्गृह । गुण । गण । आयुर्वेद । इति कथादयः ॥
११०-गुडादिभ्यष्ठा ॥ अ०॥४।४।१०३॥
सप्तमीसमर्थगुडादिप्रातिपदिकेभ्यः साधुरित्यर्थ ठञ् प्रत्ययो भवति । गुडे साधुः, गौडिक इक्षुः :--
गुड । कुल्माष । सक्तु। अपूप। मांसौदन । इक्षु । वेणु । संग्राम । संघात । प्रवास । निवास । उपवास । इति गुडादयः ॥
( १ ) अत्र स्थग्रहणेन सोपसर्गस्य ग्रहणमिष्यते । आस्था शीलमस्य स, आस्थः । सांस्थः । आवस्थः ॥
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गणपाठः ॥
१११ - उगवादिभ्यो यत् ॥ प० ॥ ५ । १ । २॥
उवर्णान्ताद् गवादिभ्यश्च प्रातिपदिकेभ्यः प्राक्क्रीतीयेष्वर्थेषु यत् प्रत्ययो भवति । शङ्कवे हितं शङ्कव्यम् दारु । गवे हितं गव्यम् :
गो । हषिस् । बर्हिस । खट । अष्टका | युग । मेधा । स्रुक् ॥ नाभि नभं च ॥ शुनः संप्रसारणं वाच दीर्घत्वं तत्सनियोगेन चान्तोदात्तत्वम् (१) ॥ शुन्यम् | शून्यम् ॥ ऊधसोऽनङ् च ॥ ऊधन्यः । कूपः । उदर । खर । स्खद | अक्षर । विष । स्कन्द । अध्वा । इति गवादयः ॥
११२ - विभाषा हविरपूपादिभ्यः ॥ अ० ॥ ५ । १ । ४ ॥ हविर्विशेषवाचिभ्योऽपूपादिभ्यश्च प्रातिपदिकेभ्यः प्राक्क्रीतीयेष्वर्थेषु विभाषा यत् प्रत्ययो भवति । पक्षे छः । पुरोडाशाय हिताः पुरोडाश्याः पुरोडाशया वा तण्डुलाः । अपूपेभ्यो हितं, अपूप्यम् । अपूयम् :
अपूय । तण्डुल । अभ्यूष । अभ्योष । पृथुक | अभ्येष | अर्गल । मुसल | सूप | 1 कटक । कर्णवेष्टक । किण्व || अन्नविकारेभ्यश्च ( २ ) ॥ पूप । स्थूणा । पीप । अश्व । पत्र । कट । अयःस्थूण । ओदन । श्रवोष । प्रदीप । इत्यपूपादयः ॥
1
1
११३ - असमासे निष्कादिभ्यः ॥ भ० ॥ ५ । ११२० ॥ असमस्तेभ्यो निष्कादिप्रातिपदिकेभ्य आर्हीयेष्वर्थेषु ठक् प्रत्ययो भवति । निष्कं परिमाणमस्य तन्नैष्किकम् । असमासे किम् । परमनैष्किकम् । अत्र ठञ्स्वरे भेदः :निष्क | पण | पाद । माष । वाहद्रोण । षष्टि । इति निष्कादयः ॥ ११४ - गोइय चोऽसङ्ख्यापरिमाणाश्वादेर्यत् ॥ प्र० ॥ ५ । १ । ३९ ॥
संख्यापरिमाणाश्वादि विवर्जिताद् गोशब्दाद द्वयचश्च प्रातिपदिकाद्यत् प्रत्ययो भवति । तस्य निमित्त संयोगोत्पातावित्यर्थे । गोर्निमित्तं संयोग उत्पातो वा गध्यः । द्वयच्धनस्यनिमित्तं संयोग उत्पातो वा । धन्यम् । स्वर्ग्यम् | यशस्यम् । आयुष्यम् । संख्या
( १ ) नामये हितो नभ्योऽक्षः । नभ्यमञ्जनम् । यस्तु शरीरावयववाची नाभि शब्दस्ततः शरीरावयवादिति यति कृते नाभये हितं नाभ्यम् तैलमिति भवति । चकारस्यानुक्तसमुच्चयार्थत्वान्नस्तद्धित इति लोपो न भवति ।।
( २ ) अन्नविकारवाचिभ्यो यत् प्रत्ययो भवति । शष्कुलीभ्यो हितं शष्कुल्यम् । सूप्यम् । श्रदन्यम् ॥
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गणपाठः ॥
पञ्चानां निमित्तं पञ्चकम् । परिमाण - प्रास्थिकम् । अश्वादिः - पाश्विकम् । सर्वत्र यत् न भवति :
अश्व । अश्मन् । गण । ऊर्णा । उमा । वसु । वर्ष । मङ्ग । इत्यश्वादयः ॥ ११५-तद्धरतिवहत्यावहतिभाराइंशादिभ्यः ॥०॥५॥५०॥
द्वितीयासमर्थाद् वंशादिभ्यः परस्माद् भारशब्दाद्धरत्यादिषु यथाविहितं प्रत्ययो भवति । वंशभारं हरति वहत्यावहति वा, वांशभारिकः । कौटजमारिकः । भारादिति किम् । वंशं हरति । वंशादिभ्य इति किम् । ब्रीहिमारं हरति । अत्र मा भूत् :
वंश । कुटन । बल्वन । मूल । अक्ष । स्थूणा । अशमन् । अश्व । इक्षु । खट्वा । इति वंशादयः ॥
११६-छेदादिभ्यो नित्यम् ॥ १० ॥ ५॥ १।६४॥ द्वितीयासमर्थछेदादि प्रातिपदिकेभ्यो नित्यमहतीत्यर्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति । छदनं नित्यमर्हति । छैदिकः :
छेद । नेद । द्रोह । दोह । वर्त । कर्ष । संप्रयोग । विप्रयोग । प्रेषण । संप्रश्न। विप्रकर्ष । विराग विरंगं च । वैरङ्गकः । इति छदादयः ॥
११७-दण्डादिभ्यो यः ॥ अ०॥५।१।६६॥ द्वितीयासमर्थदण्डादिप्रातिपदिकेभ्योऽर्हतीत्यर्थे यः प्रत्ययो भवति । दण्डमर्हति. दयडयः :
दण्ड । मुसल । मधुपर्क । कशा । अर्घ । मेधा । मेघ । युग । उदकं । वध । गुहा। भाग । इम । इति दण्डादयः ।
११८- व्युष्टादिभ्योऽण ॥ म०॥५।।९७॥
सप्तमीसमर्थव्युष्टादिप्रातिपदिकेभ्यो दीयते कार्यमित्येतयारर्थयोरण प्रत्ययो भवति । व्युष्टे दीयते कार्य वा वैयुष्टम् :
व्युष्ट । नित्य । निष्क्रमण । प्रवेशन । तीर्थ । संभ्रम् । मास्तरण । संग्राम । सं. घात । अग्निपद । पालुमूल । प्रवास । उपसंक्रमण । दीर्घ । उपवास। इति व्युष्टादयः॥
१५९-तस्मै प्रभवति संतापादिभ्यः ॥१०॥५॥१११०१॥. चतुर्थीसमर्थसन्तापादिप्रातिपदिकेभ्यः प्रभवतीत्यर्थे ठञ् प्रत्ययो भवति । सन्तापाय प्रभवति, सान्तापिकः :
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गणपाठः ।।
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सन्ताप । संनाह । संग्राम । संयोग । संपराय । संपेष । निष्पेष । निसर्ग । भस. । विसर्ग । उपसर्ग । उपवास । प्रवास । संघात । संमोदन । सक्तु ।। मांसौदनाद्विग. । हीतादपि । मांसौदनिकः । मासिकः । औदानिकः ॥ निर्घोष । सर्ग । संपात । संवाद । | संवेशन । इति संतापादयः ॥
१२.-अनुप्रवचनादिभ्यश्छः ॥ भ०॥५॥१।१११॥
प्रथमासमानाधिकरणानप्रवनाप्रातिपदिकम्यः प्रयोजनमित्यर्थेछः प्रत्ययो भवति अनुपाचन प्रयोजनमस्य, अनुप्रवधनीयम् :... अनुप्रावन । उत्थापन | मोशन । अनुमोशन । अस्थापन । संवेशन । अनुवे. | शन । अनुवचन । भनुपादन । भनुशासन । भारम्भण । आरोहगा । प्ररोहण । अन्या. रोहण । इत्यानुप्रवचनादयः ।।
१२१- पृथ्वादिभ्य इमनिज्वा ॥ ॥ ५।१ । १२२॥
षष्ठीसमर्थपृथवादिप्रातिपदिकम्यो भावय इमविच प्रत्ययो वा भवति । वा वचन. मणादेः समवेशार्थम् । पृयोर्भावः प्रथिमा । पार्षवम् । पृथुत्वम् । पृथता :
पृथु । मृदु । महत् । पटु । तनु । लत्रु । बहु । साधु । वे । भाउ । बहुल । गुरु । दराड । उह । खपड । घरड माल । अकिंचन । होड । पाक । वत्स । मन्द । सादु । इस । दीर्घ । प्रिय । वृष । अनु । क्षिप्र । क्षुद्र । इति पृथतादयः । ।
१२२-वर्णदृढादिभ्यः व्यञ् च ॥ म०॥५॥१११२३ ॥ वर्णविशेषवाचिभ्यो हादिम्यश्त्र प्रातिपदिकम्यो भावेष्यन चादिमनिचप्रत्ययो भपति । शुक्लत्य भावः शोकयाम् । शक्तिमा । शुक्लस्वम् । शुक्लता । दायम्। ढिमा । हरयम् । दृढता:
ह। परिवृत । भृग । कृरा । चक्र | प्रान । लपण । ताम्र । अम्ल । शीत । । उ । जड। यथिए । पण्डित । मधुर । मूर्व । मक। वेर्यातलाममतिमनःशारदानाम् ॥ समो मति मनसोनाने ( १ ) ॥ बाल । तरुण । मन्द । स्थिर । बहुल । दीर्घ । मूढ । आकृष्ट । इति दृवादयः ।। . ५१३-गुणवचनत्राह्मणादिभ्यः कर्मणि च ॥५०॥
....... ५। १ । १२१॥ (१) वेः परेभ्योयातादिम्यःण्यत्र । वैयात्यम् । वेलाम्यम् । वैमत्यम् । वैमनस्यम्।। माधम् । समः पराभ्यां मतिमनोम्यां बेगेऽर्थे प्य । साम्मात्यम् । साम्मनस्यम् ।।
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गणपाठः ॥
81
गुणवचनेभ्यो ब्राह्मणादिभ्यश्च प्रातिपदिकेभ्यो मावे कर्मणि यानिधेचे प्यन प्रत्ययो भवति । स्यभावः कर्म वा जाडयत् । वाह्मणस्य भावः कर्म वा रायम् :---
। अतो नुम् च ॥
ब्राह्मण | वाढ | मारा | चोर | मूक | भारावय । विराय | अपराध | पराधय । एकभाव | द्विना । अभाव | समस्य । विषमस्य । परमस्य । मध्यमस्य । श्रनीशर | कुशल । कपि । चाल । प्रक्षेत्रज्ञ । निषु श्रर्हन्त्यम् | संवादिन् | संवेशिर बहुमावित् । वालिश । दुष्युरुष का पुरुष । दायाद । विऽसि । भूर्त | राजन् । संभावि । शीर्षति । अपि । श्राल । विशाच । पिशुन । विशाल | गणपति । धनवति । नरपति | गल । निए। निवान विष सर्ववेदादिम्यः स्वार्थ (१) ॥ नस्योदधि ॥ चातुर्वेम् । स्वभाव | निबातिन् । विघातिन् । राजपुरुष । विशस्ति । विधान | विज्ञान | विमान । नयात । सुहित । दीन । विद । उचित । समग्र | शूली । तत्पर । इदम्पर । यथातथा । पुरम् । पुनः। पुनर् । अभीक्षण | तरतन | प्रकाम । यथाकाम | निष्कुल । सराज | महारान । युवराज | सम्राज | अविदूर । अपिशुन । अनृशं । अयथातथ। श्रयथापुर । स्वर्म्म | अनुकूल । परिमायडल । विश्वा । ऋत्विज ।। उदासीन | ईश्वर । प्रतिभू । साक्षि । मानुष । श्रास्तिक | नास्तिक । युगपत् । पूर्वापर । उत्तराधर । इति ब्राह्मणादयः || १२४ - वा· - चातुर्वएर्यादीनां स्वार्थ उपसंख्यानम् ॥ ० ॥
५ । १ । १२४ ॥
चत्वार एव वर्णाश्वातुर्वर्यम् । चातुराश्रमम् :
चतुर्वर्ण । चतुराश्रम | त्रिलोक | त्रिसर | पगुण | सेना । रानिधि । समीप । उपमा | सुख । इति चतुर्वणीदयः ॥
१२५ - पत्यन्त पुरोहितादिभ्यो यक् ॥ २ ॥ ५।१।१२८॥ षष्ठीसमयः पत्यन्तेभ्यः पुरोहितादिभ्यश्च प्रातिपदिकेभ्यो भावकर्मणोचक प्र त्ययो भवति । सेनापतेर्भावः कर्म, सा सैन्यापत्यम् । प्राजापत्यम् । पुरोहितस्य भावः कर्म या पौरोहित्यम् :
( १ ) सर्वे एवं वेदाः सार्ववेद्यम् । सार्वलोक्यम् । सार्वराज्यम् । सार्वगुण्यम् । आकृतिगणोऽयम् ॥
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गणपाठः ॥
- पुरोहित । राजन् । संग्रामिक । एषिक । वर्मित । खण्डिक । दण्डिक । छत्रिक । मिलिक । पिण्डिक । बाल । मन्द । स्तनिक । चडितिक । कृषिक । पूतिक । पत्रिक । प्रतिक । अजानिक । सलनिक । सूचिक । राकर । सूचक । पक्षिक । सारथिक । जलिक सूतिक । प्रजालिक । शर्मिक । चर्मिक । कर्मिक । शीलिक । मूलिक । तिलिका । तिथ्विक । प्रज्जतिका । ऋषिक । पुत्रक । पथिका । प्रचिक । प्रविक । परिक्षक । पूजनिक । राजाऽसे ( १ )। मूर्चिक । स्वरिक । पडिक ॥ इति पुरोहितादयः ।। १२६-प्राणभृजातिवयोवचनोदात्रादिभ्योऽञ् ॥ ० ॥
५। १ । १२९ ॥ प्राणभृमातिभ्यो वयोवचनेभ्यः उद्गात्रादिभ्यश्च प्रातिपदिकेभ्यो भावकर्मणोरञ् प्रत्ययो भवति । अश्वस्य मावः कर्म वा, श्राश्वम् । औष्ट्रम् । कौमारम् । कैशीरम् । औद्गात्रम् :--- - उद्गातृ । उन्नेतृ । प्रतिहर्तृ । रथगणक । पक्षिगणक । पत्रिगणक । मुष्ठ । दुष्ठ । अध्वर्यु । वधू ।। सुभग मंत्रे (२)॥प्रशास्तृ । होतृ । पोतृ । कर्तृ । इत्युद्गात्रादयः॥
१२७-हायनान्तु युवादिभ्योऽण् ॥ अ० ॥५।१।१३०॥ - हायनान्तेभ्यो युवादिभ्यश्च षष्ठीसमर्थप्रातिपदिकेभ्यो भावकर्मणोरथयोरण प्रत्ययो भवति । विहायनस्य भावः कर्म वा, द्वैहायनम् । यूनो भावः कर्म वा यौवनम् :
युवन् । स्थविर । होतृ । यजमान । कमण्डलु ॥ पुरुषाऽसे ( ३ ) ॥ सुहृत् । यातृ । श्रवण । कुस्त्री । सुस्त्री । सुहृदय । सुभ्रातृ । वृषल । दुर्भातृ ॥ हृदयाऽसे ( ४ )॥ क्षेत्रज्ञ । कृतक । परिबानक । कुशल । चपल । निपुण । पिशुन । सब्रह्मचारिन् । कु. तूहल । अनृशंस । भ्रातृ । कुचुक । कन्दुक । दुःस्त्री।दुहृदय । दुईत् । मिथुन । कुलली। महस् । कतक । कितव । पोत ॥ इति युवादयः ।।
१२८-इन्दमनोज्ञादिभ्यश्च ॥ १० ॥५।१ । १३३॥ द्वन्द्वसंज्ञकेभ्यो मनोज्ञादिभ्यश्च षष्ठीसमर्थप्रातिपदिकम्यो मावकर्मणोरर्थयोवु प्र. (१) राज्ञो भावः कर्म वा राज्यम् । समासे तु ब्राह्मणादित्वात्ष्यञ् सौराज्यम् ।।
( २ ) सुभगस्य भावः सौभगो मंत्रः ॥ .( ३ ) पुरुषस्य भावः कर्म पौरुषम् सुपुरुषत्वमिति समासे ॥
(४) हार्दयम् । समासे तु परमहृदयत्वमित्येव ॥
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गएरापाठः॥
त्ययो भवति । गोपालपशुपालानां भावः कर्म वा, गोपालपशुपालिका । शैष्योपाध्यायिका। मनोज्ञस्य भावः कर्म वा, मानोज्ञकम् :
मनोज्ञ । कल्याण । प्रियरूप । छान्दस । छात्र । मेधाविन् । अभिरूप । श्राव्य । कुलपुत्र । श्रोत्रिय । चोर । धूर्त । वैश्वदेव । युवन् । ग्रामपुत्र । ग्रामखण्ड । ग्रामकुमार । अमुष्यपुत्र । अमुष्यकुल । शतपुत्र । कुशल । बहुल। अवश्य । अहोपुरुष ॥इतिमनोज्ञादयः ॥ १२९-तस्य पाकमलेपील्वादिकर्णादिभ्यः कुणलाहवौ
॥०॥ ५। २ । २४॥ पील्वादिभ्यः कर्णादिभ्यश्च षष्ठीसमर्थप्रातिपदिकेभ्यो यथासंख्यं पाकमूलयोरर्थयोः कुणब्जाहची प्रत्ययौ भवतः । पीलूनां पाकः पीलुकुणः । कर्णस्य मूलं, कर्णजाहम् :
पील । कर्कन्धु । शमी । करीर । कुवल । बदर । अश्वत्थ । खदिर । इति पील्वादयः॥
कर्ण । अक्षि । नख । मुख । मख । केश । पाद । गुल्फ । भ्रूभङ्ग । दन्त । ओष्ठ । पृष्ठ । अङ्गष्ठ ॥ इति कर्णादयः॥ - १३०-तदस्य संजातं तारकादिभ्य इतच ॥ म०॥५॥२॥३६॥
प्रथमासमर्थेभ्यस्तारकादिप्रातिपदिकेभ्योऽस्येति षष्ठ्यर्थे इतच् प्रत्ययो भवति। ता. रकाः संजाता अस्य, तारकितं नमः । पुष्पितो वृक्षः संजातग्रहणप्रकृतिविशेषणम् :
तारका । पुष्प । मुकुल । कण्टक । पिपासा | सुख । दुःख । ऋजीष। कुड्मल । सूचक । रोग । विचार । तन्द्रा । बेग । पुता । श्रद्धा । उत्कण्ठ । भर। द्रोह । गर्मादप्राणिनि (१)॥ फल । उच्चार । स्तवक । पल्लव । खण्ड । धेनुष्या । अभ्र । अङ्गारक । अङ्गार । वर्णक । पुलक । कुवलय । शैवल । गर्व । तरङ्ग । कल्लोल । पएडा । चन्द । स्रवक । मुदा । राग । हस्त । कर । सीमन्त । कर्दम। कज्जल । कलङ्क। कुतूहल । कन्दल । आन्दोल । अन्धकार । कोरक । अङ्कर । रोमाञ्च । हर्ष। उत्कर्ष । क्षुधा । ज्वर । गोर । दोह । शास्त्र । मुकुर । तिलक । बुभुक्षा । निद्रा । तारकादिराकृतिगणः ॥ इति तारकादयः ।।
१३१-विमुक्तादिभ्योऽण् । भ० ॥५।२।६१ । (१) गर्मिताः शालयः। अप्राणिनीतिवचनाद् गर्भिणी भार्या। इत्यतन गति
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४१
गणपाठः ॥
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अध्यायानवाकयोरभिधेययाविमुक्तादिप्रातिपदिकम्यो मत्वर्थेऽण् प्रत्ययो भवति । विमुक्तं वत्ततेऽस्मिन् स वैमुक्तोध्यायाऽनुवाको वा । दैवासुरः :
विमुक्त । देवासुर । वसुमत् । सत्वत् । उपसत् । दशाहपयस । हविर्धान । मित्री । सोमापूषन् । अग्नाविष्ण । वृत्रहति । इडा । रक्षोऽसुर । सदसत् । परिषादक् । वसु । मरुत्वत् । पत्नीवत् । महीयल । सत्वत् (१ )। दशाह । वयस् । पतत्रि । सोम । महित्री । हेतु । अस्यहत्य । दशार्ण । उर्वशी । सुपर्ण । इति विमुक्तादयः ।।
१३३-गोषदादिभ्यो वुन् ॥ प्र०॥ ५॥ २॥१२॥
अध्यायानुवाकयोरभिधे पयोगीपदादिप्रातिपदिकम्यो मत्वर्षे वुन् प्रत्ययो भवति ।। गोषदशब्दो ऽस्मिन्नस्ति, गोपदकोऽध्यायोऽनुवाको वा । इसेवकः :___ गोषद । इपेत्वा । मातरिश्वन् । देवस्यत्वा । देवीरापः । कृष्णोऽस्याखरेष्टः । देवीधियम् । रक्षाहण । अञ्जन । प्रभूत् । प्रतूत । दृशान । युनान । सहस्रशीपी । वात. स्पते । कृशास्व । स्वाहाप्राण । प्रसुस्त ॥ इति गोषदादयः ॥
१३३-आकर्षादिभ्यः कन् ॥ ॥५।२।११॥
आकर्षादिभ्यः सप्तमीसमर्थप्रातिपदिकेभ्यः कुशल इत्यर्थे कन् प्रत्ययो भवति । भा. कर्ष कुशल अाकर्षकः :
आकर्ष । सरु । पिपासा । पिचण्ड । अनि । अश्मन् । विचय । चय । नय । भारय । भय । नय ।निपाद । गद्गद । दीप । इद । बाद । बाद । शकुनि । पिशाव । पिण्ड ॥ इत्याकर्षादयः ।।
१३४-रसादिभ्यश्च ॥५०॥५।२।९५॥
प्रथमासमानाधिकरणरसादिप्रातिपदिकेभ्योऽस्यास्त्यस्मिन्नित्यय मतुप् प्रत्ययो भवति। रसादिगुणवाचकेभ्योऽन्येमस्वीयाः प्रत्यया माभवन्निति सूत्रारम्भः । रूपिणी कन्येस्यत्र तु शोभापरस्व रूपस्य । रसोऽस्मिन्नस्तीति, रसवान् । रूपवान् : -
रस । रूप । गन्ध । स्पर्श । शब्द । स्नेह । गुणात् एकाचः २॥ इतिरसादयः ।।
(१) सत्वदिति शब्दोऽस्मिन् गणे द्विवारं पठ्यते । यधेकस्तालव्यादिर्भवेत्तदा तु युक्त मन्यया प्रामादिकः पाठः ।।
(२) अत्र गुणशब्दो । रसादीनां विरोषणम् । एकाच् शब्दादपि मतुम् भवति मस्पतइनिठनौ । स्ववान् । खवान् ।।
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गणपाठः॥
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१३५-सिध्मादिभ्यश्च ॥०॥५। २।९७॥
सिध्मादिप्रातिपदिकम्यो मत्वर्थे विकल्पेन लच प्रत्ययो भवति । सिमोऽस्यास्तीति सिध्मलः । सिध्ममान् । अत्र पक्षे मतुविष्यते नत्वत इनिठनौ :
सिप । गडु । मणि । नामि । जीव । निष्पाप । पांसु । सक्त । हनु। मांस । पररा।। पाणिमन्योर्वरक ।। पालिः । धमनीलः । पर्ण । उदक । प्रज्ञा । मएड । पाव । गएड । ग्रन्थि । वातदन्तरलललाटगलानामा च ॥ वातूलः । दन्तलः । बललः । ललाटलः । गल्लः ।। मटाघटाकालाः क्षो । नटालः । घटालः । कालालः । सकथि । कर्ण । स्नेह । शीत श्याम । पिङ्ग । पित्त । शुष्क । पृथु । मृदु । मञ्ज । पत्र । चट। कपि । करहु । संज्ञा । सुदमन्तूपतापाश्चेष्यते । शुद्रनन्तुः। युकालः । मक्षिकालः । उपतापविचत्रिकालः । विपादिकालः । मूलिः । इति सिध्मादयः ॥ १३६-लोमादियामादि पिच्छादिभ्यः शनेलचः॥ ॥
५।२।१०.॥ लोमादिभ्यः पामादिभ्यः पिच्छादिभ्यश्च प्रातिपदिकम्यो मत्वर्थे यथासंख्यं श, न, इलन इत्येते प्रत्यया भवन्ति । लोमान्यस्य सन्तीतिलोमशः । लोमवान् । पाम विद्यतेऽस्य स पामनः । पामवान् । पिछमस्यास्तीति पिच्छिलः । पिच्छलवान् :--.
लोमन् । रोमन् । बल्गु । बनु । हरि । कपि । शुनि । तरु । इति लोमादयः । पामन् । वामन् । हेमन् । श्लेष्मन् । कट्ठः । बलि । श्रेष्ठ । पलल ।सामन् । अनाकल्या! | शाकीपलालीदना इस्वत्वं च ॥ विश्वगित्युत्तरपदलोपश्चाकृतेसन्धेः ॥ लक्ष्म्या अञ्च (१) ।। इति पामादयः ॥ पिच्छ । उरस् । ध्रुवका । तुवका । जराघटाकालात् क्षेप (२)॥ वर्ण । उदक । पङ्क । प्रज्ञा । इति पिच्छादयः ॥
१३७-ब्रीह्यादिभ्यश्च ।। अ० ॥ ५। २।११६ ॥ प्रपमासमानाधिकरणब्रीह्यादिप्रातिपदिकम्यो मत्वर्षे इनिठनी प्रत्ययो भवतः बीह.. योऽस्य सन्तीति ब्रोही । मीहिकः । ब्रीहिमान् :
( १ ) अङ्ग शब्दात्कल्याणे नः प्रत्ययः । कल्याणकरमंगं शरीरमस्याः सा, अ. जना । शाकिनः । पलालिनः । दद्रुणः । विषु-अच इत्यवस्थायां नः प्रत्ययस्तदेवोत्तरपदस्याज भागस्य लोपः । विष्वगस्यास्तीति विष्णः । लक्ष्मी अस्यास्तीति लक्ष्मणः ।
(२) कुतासिता जटा अस्य सन्तीति जटिलः । एवं घटिलः । कालिलः ॥
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गणपाहः ॥
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ब्रीहि । माया । शिखा । मेखला । संज्ञा । बलाका । मालग वीणा । वडवा । अष्टका । पताका । कर्मन् । चर्मन् । हंसा (१) । यवखद । कुमारी । नौ ( २ )। शर्षािन्ननः ॥ अशीर्षी अशीर्षिका । इति ब्रीह्यादयः ॥
१३८-तुन्दादिभ्य इलच॥ भ० ॥५।२। ११७॥ ___तुन्दादिप्रातिपदिकेभ्यो मत्वर्थे इलच्चकारादिनिठनौ मतुप च प्रत्यया भवन्ति तुन्दोऽस्यास्तीति तुन्दिलः । तुन्दी । तुन्दिकः । नुन्दवान् :
तुन्द । उदर । पिचण्ड । घट । यव । ब्रीहि । स्वाङ्गाद्विवृद्धौ च (३) ॥ इति०
१३९-अर्श मादिभ्योऽच् ॥ भ०॥५। २ । १२७ ॥ ____ अर्श भादि प्रातिपदिकम्योमत्वर्थेऽच् प्रत्ययो भवति । प्रीस्यस्य विद्यन्ते स, श्र. शंसः :
अर्शस् । उरस् । तुन्द । चतुर । पलित । जटा । घटा । अभ्र । कर्दम । श्राम । लवण । स्वाङ्गाद्धीनात् ।। वर्णात् ( ४ ) ॥ आकृतिगणोयम् । इत्यर्श श्रादयः ।।
१४०-सुखादिभ्यश्च ।। अ०॥५। २ । १३१॥ सुखादिप्रातिपदिकेभ्यो मत्वर्थे इनिः प्रत्ययो भवति । मतुबादीनामपवादः । सुखमस्यास्तीति सुखी । दुःखी :
. सुख । दुःख । तृप्त । कृच्छ् । आम्र । अलीक । करुणा । कृपण । सोढ । प्रमीप । शील । हल ॥ माला क्षेपे (५) ॥ प्रणय । इति सुखादयः ॥
१४१-पुष्करादिभ्यो देशे। अ०॥५।२। १३५॥ ___पुष्करादिप्रातिपदिकेभ्यो मत्वर्थे देशेऽभिधेये इनिः प्रत्ययो भवति । पुष्करोऽस्मिन्निति पुष्करी देशः । पद्मी वा । देश इति किम् । पुष्करवान् हस्ती :
(१) सिखादिभ्य इनिरेवेष्यते नतु ठक् ॥ (२) यवखदादिभ्यष्ठगेवेष्यते शेषादुमयम् ॥
(३) विवृद्ध्युपाधिभूतात् स्वाङ्गवाचिनः प्रातिपदिकादिलच । दीर्घा नासिकाsस्यास्तीति नासिकिलः । लम्बौकरें यस्य स कर्णिलः । श्रोष्ठिलः ॥
(४) हीनशब्दात्परस्मात् स्वाङ्गादजेव स्यान्नतु मतुवादिः । अक्षिभ्यां हीनो ही. नाक्षः । हीनहस्तः । हीनबाहवः । वर्णादिति श्वेतादेग्रहणंनत्वकारादेः । श्वेतो वर्णोऽस्यास्तीति श्वेतः । नीलः । कालः । पीतः हरितः । इत्यादि ।
(५) कुत्सिता मालाऽस्यास्तीति माली । मतुम्माभूत् प्रणयी ॥
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गणपाठः ॥
पुष्कर । पद्म । उत्पल । तमाल । कुमुद । नड । कपित्थ । बिस । मृणाल । क. दम । शालूक । विगर्ह । करीष । शिरीष। यवास । प्रवास । हिरण्य । कौरव । कल्लोल । तरङ्ग । वयस । इति । पुष्करादयः ।।
१४२-बलादिभ्यो मतुबन्यतरस्याम् ।। अ० ॥५॥२।१३६॥ बलादिप्रातिपदिकेभ्यो मत्वर्थे विकल्पेन मतुप् पक्ष इनिः ठक् तु न मवति । बलमस्यास्तीति बलवान् । बली :
पल । उत्साह । उभाव । उद्वास । उद्वाम । शिखाबल । वूगमूल । दंश । कुल मायाम । व्यायाम । उपयाम । अारोह । अवरोह । परिणाह । युद्धं ॥ इति बलादयः
१४३-देवपधादिभ्यश्च ॥ अ. ॥५। ३ । १०० ।।
देवपथादिप्रातिपदिकेभ्यो स्वार्थ प्रतिकृती संज्ञायां च विहितस्य कन् प्रत्ययस्य लुब् भवति । देवपयस्येव प्रतिकृतिः, देवपथः । हंसपथः :
देवपथ । हंसपथ । वारिपथ । जलपथ। राजपथ । शतपथ। सिंहगति । उष्ट्रगी. वा । चामरज्जु । रज्जु । हस्त । इन्द्र । दण्ड । पुष्प । मत्स्य । रथपथ । शकुपथ । सिंहपथ । प्राकृतिगणोऽयम् । इति देवपथादयः ।।
१४४-शाखादिभ्यो यत् ।। भ.॥५।३।१०३॥ शाखादिप्रातिपदिकेभ्यो इवार्थे यत् प्रत्ययो भवति । शाखेव शाख्यः । मुख्यः :
शाखा । मुख । नधन । शृङ्ग । मेघ । चरण । स्कन्ध । शिरस् । उरस् । अन । शरण । इति शाखादयः ॥
११५-शर्करादिभ्योऽण ॥म० ॥ ५। ३ । १०७॥ शर्करादिप्रातिपदिकम्यो इवार्थेऽण प्रत्ययो भवति । शर्करेव, शार्करम् :- .
शर्करा । कपालिका । पिष्टिका ।कनिष्ठिक । कपिष्ठिक । पुण्डरीक । शतपत्र । गोलोमन् । गोपुच्छ । नरालि । नकुल । सिकता। इति शर्करादयः ॥ ___ ११६-मगुल्यादिभ्यष्टक् ॥ ५० ॥५। ३ । १०८॥ __अगुल्यादिप्रातिपदिकेभ्यः इवार्थे ठक् प्रत्ययो भवति । अङ्गुलिरिवाश. लिकः :
मगुलि । मरुन । बभ्रु । वल्गु । मगउर। मण्डल । शष्कुल । कपि । उदश्वित् ।। गाणी । उरस् । शिखा । कालश । इत्यगुल्यादयः ।।
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१८
गणपाठः॥
१४७-दामन्यादित्रिगषष्ठाच्छः॥०॥५।३।११६॥ दामन्यादिभ्यस्त्रिगर्तषष्ठेम्यश्चायुधजीविसंघवाचिभ्यः प्रातिपदिकेभ्यः स्वार्थे छः प्रत्ययो भवति । त्रिगतः षष्ठो येषां ते त्रिगर्त्तषष्ठाः । दामन्येवदामनीयः । दामनीयौ । दामन्यः । तद्राजत्वाद् बहुवचने लुक् । त्रिगर्तषष्ठाः । कौरोपरथएव, कौरडोपरथीयः । अन्यत्पूर्वत् । दाण्डकि । कौष्टकि । जालमानि । ब्रमगुप्त । नानकि । इति विगतषष्ठाः ।. अत्र जानकिरित्यस्यैव त्रिगर्तइति नामान्तरम्:___ दामनी । औलपि । प्राकिदन्ती । काकरन्ति ।काकदन्ति । शत्रुन्तपि । सार्यसेनि । बिन्दू । मौज्जायन । उलभ । सावित्रीपुत्र । अच्युतन्ति । कोकतन्ती । तुलम । देववापि । श्रीतकी । मपच्युतकी । कर्की । पिण्ड ।। इति दामन्यादयः ।।।
१४८-पादियौधेयादिभ्यामणो॥ भ.॥५।३।११७॥ पर्यादिभ्यो यौधेयादिभ्य श्चायुध विसंघवाचिभ्यः प्रातिपदिकेभ्यः स्वार्थेऽणबौ प्र. स्ययौ यथासंख्यं भवतः । पशुरेव, पार्शवः । यौधेयः :_। असुर । रक्षम् । वाल्हीक । वयस् । मरुत् । दशाई । पिशाच । विशाल । प्रशनि । काषार्पण । सत्वत् । वसु । इति पवादपः ॥
यौधेय । कौशेय । क्रौशेय । शौक्रेय । शौभ्रेय । धार्तय । वार्तेय । जाबालेय । त्रिगर्त । मरत । उशीनर । इति यौधेयादयः ।।
१९९-स्थूलादिभ्यः प्रकारवचने कन मम॥५॥४॥३॥ स्थूलादिप्रातिपदिकेभ्यःप्रकारवचनेद्योत्येकन् प्रत्ययो भवति । स्थूलप्रकारः,स्थूलका:
स्थूल । अणु । माप । इषु ॥ कृष्णतिलेषु ॥ यवत्रीहिषु ॥ इतिलपाधकालवदाताः मुरायाम् ॥ गोमूत्र आच्छादने ॥ सुराया अहौ ॥ जीर्णशालिषु । पत्रमूले समस्तव्यस्ते (१) कुमारी पुत्र । कुमार । श्वशुर । मणि ॥ इति स्थूलादयः ।।
१५०-यावादिभ्यः कन् ॥ भ०॥५।१।२९ ॥ यावादिमातिपदिकेभ्यः स्वार्थे कन् प्रत्ययो भवति । याव एव, यावकः :याव । मणि । अस्थि । चण्ड । पीतस्तम्ब । ऋतावुष्णशीते । पौ लूनवियाते
(१) कृष्ण प्रकाराः कृष्णकास्तिलाः । यवका ब्रीहपः । इतुका । तिलका । पायका । कालका । अवदातका वासुरा । मूत्रक्रमाच्छादनम् । मुराकः सर्पः। भीर्यकाः गालयः । पत्रकं समस्तम् । मूलकं व्यस्तम् ।।
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गणपाठः॥
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अणुनिपुणे । पुत्रकृत्रिमे । स्नात वेदसमाप्तौ ॥ शून्यरिक्ते । दानकुत्सिते ॥ तनुसूत्रे ॥ (१) । ईयसश्च ॥ श्रेयस्कः । ज्ञात । कुमारीकीडनकानिच । इति यावादयः ।। .....
१५१-विनयादिभ्यष्ठक । प.॥५।४।३४॥ विनयादिप्रातिपदिकेभ्यः स्वार्थे ठक् प्रत्ययो भवति । विनय एव, वैनयिकः :--
विनय । समय । उपायाधुस्वत्वं च । श्रीपयिकः । सङ्गति । कथंचित् । प्रक. स्मात् । समयाचार । उपचार | समाचार । व्यवहार । सम्प्रदान । समुत्कर्ष । समूह । विशेष । प्रत्यय । अस्थि । कण्डु । इति विनयादयः ॥
१५२-प्रज्ञादिभ्यश्च ॥१०॥५।४ । ३८ ॥
प्रजानातीति प्रज्ञः । प्रज्ञादिप्रातिपदिकेभ्यः स्वार्थेऽण् प्रत्ययो भवति । प्रज्ञ एवं प्राज्ञः । प्राज्ञी स्त्री । यस्यास्तु प्रज्ञा विद्यते सा प्राज्ञा भवति :..
प्रज्ञ । वणिक् । उशिक । उष्णिक । प्रत्यक्ष । विद्वस । विदन् । पोउन् । षोडश। विद्या । मनम् । श्रोत्रशारीरे । श्रोत्रम् । जुहीत् । कृष्णमृगे। कार्ष्णः । चिकीर्षत् । चोर । शक । योध । वक्षस् । चतुस् । धूर्त । वस् । एत् । मरुत् । कुङ् । राजा । सत्वन्तु । दशाई । वयस् । पातुर । असुर । रक्षस । पिशाच । अशनि । कार्षापण । देवता। बन्धु ॥ इति प्रज्ञादयः ॥
१५३-हिदण्डयादिभ्यश्च ॥०॥५।१।१२८॥ द्विदण्ड्यादिशब्देषुबहुव्रीहिसमासेसमासान्तइच प्रत्ययो निपात्यते । द्वाभ्यांदण्डाभ्यां हन्यतेऽसौद्विदरिड । अन्ययीभावसमासे परिगणनमतोव्ययत्वम् । एवं द्विमुसाले :
द्विदण्डि । द्विमुसलि । उभानमलि । उभयान्जलि । उभाकाण । उभयाकर्णि । उभादन्ति । उभयादन्ति । उभाहस्ति । उमयाहस्ति । उमापाणि । उमयापाणि । उ. भावाहु । उभयावाहु ( २ )। एकपदि । प्रोडपदि । श्राव्यपदि । सपदि । निकुच्यकर्णि । सहनपुच्छि॥ इति द्विदण्ड्यादयः॥
(१) उष्णकः, शीतको वातुः । नूनकः, वियातको वा पशुः । श्रगुको निपुः णः । पुत्रकः कृत्रिमः । स्नातको वेदपारगः । शून्यकं रिकम् । कुत्सितं दानं दानकम् । तनुकं सूत्रम् ॥
(२) अत्रोभयत्र निपातनादिप्रत्यस्य लोपः । प्रत्ययलक्षणेन चाव्ययीमावसंज्ञा भवत्येव । अत्रापिकचिच्छब्दातत्पुरुषसमासान्ता निपात्यन्ते । तेऽर्थसङ्गत्या ज्ञेयाः ॥
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गणपाठः॥
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१५४-पादस्य लोपोऽहस्त्यादिभ्यः॥०॥५।४।१३८॥
हस्त्यादिवनितादुपमानात्परस्य पादशब्दस्य लोपो बहुव्रीहौ । व्याघ्रपादाविव पादा। वस्य, स व्याघ्रपात् । अहस्त्यादिभ्य इति किम् । हास्तपादः :
हास्तन् । कटोल । गण्डोल । गण्डोलक । महिला । दासी।गणिका। कुमूल । इति. । १५५-कुम्भपदीषु च ॥.॥५।१।१३९ ॥
कुम्भपदीप्रभृतयः कृतपादसमासान्त्रलोपः समुदायाबहुव्रीहौ समासेमिपात्यन्ते :| कुम्भपदी । शतपदी । अष्टापदी । जालपदी । एकपदी । मालापदी । मुनिपदी। गोधापदी । गोपदी । कलशीपदी । घृतपदी । दासीपदी । निष्पदी। आईपदी । कुणपदी । कृष्णपदी । द्रोणपदी । द्रुपदी । शकृत्पदी । सूपपदी । पञ्चपदी । अर्वपदी । स्तनपदी । स्थूलपदी । सूत्रपदी । कलहंसपदी। द्विपदी । विषुपदी। सुपदी । सूकरपदी । सूचीपदी । इति कुम्भपदीप्रभृतयः ॥
१५६-उरः प्रभृतिभ्यः कप् ॥५०॥ ५। १ । १५१ ॥
उरः प्रभृत्यन्ताद्वहुब्रीहेः समासान्तः कप् प्रत्ययो भवति । व्यूढमुरोऽस्य स व्यूढोरस्कः । प्रियसर्पिष्कः :--
उरस । सर्पिस । उपानह । पुमान् । अनड्वान् । नौः । पयः । लक्ष्मीः । दधि । मधु । शालिः ॥ अर्थान्ननः अनर्थकः । इत्युरः प्रभृतयः॥
. १५७-उञ्छादीनाञ्च ॥ प्र० ॥ ६ । । १६०॥ उन्छादीनां शब्दानामन्त उदात्तः स्वरो भवति :...
उन्छ । म्लेच्छ । जज । जल्प । जप । व्यध । वध ॥ युगकालविशेषे ग्थाधु|| पकरणे च ॥ गरो दृष्येऽबन्तः ॥ वेगवेदचेष्टबन्धाः करणे ॥ स्तुयद्रुवश्वन्दसि । परि
टत । संयुत् । परिद्रुत् ॥ वत्तनिः स्तोत्र ॥ श्वभ्रेदरः ॥ साम्बतापी भावगायाम् ॥ उत्तमशश्वत्तमो सवत्र ॥ भक्षमन्थभोगदेहाः ॥ इत्युञ्छादयः ।।
१५८-वृषादीनाञ्च ॥ भ० ॥ ६ । १ । १०३॥ वृषादीनामादिरुदात्तो भवति :
वृषः । जनः । ज्वरः । ग्रहः । हयः । । गयः । नयः । तयः । पयः। वेदः । अंशः। दवः । सदः । गुहा ॥ शमरणो संज्ञायां संमतौ भावकर्मणोः ॥ मंत्रः शान्तिः । कामः। यामः । पारा । धारा । कारा । वहः । कल्पः । पादः ॥ प्राकृतिगणोऽयम् । अवि. हितलक्षणमायुदात्तत्वं वृषादिषु द्रष्टव्यम् ।। इति वृषादयः॥
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गणपाठः॥
१५९-कार्तकोजपादयश्च ॥ प्र० ॥ ६।२ । ३७ ॥ कृतद्वन्द्वसमासाः कातकौनपादयः शब्द': पूर्वपदप्रकृतिस्वरा भवन्ति । कृतस्यापत्यं कार्तः । कुनपस्यापत्यम् कौनपः । कार्तश्च कौनपश्च :___ कात्तकौनपी । सावर्णिमाण्डू कयौ । श्रावन्त्यश्मकाः । पैलश्यापर्णेयाः । पैलश्यापर्णयौ । कपिश्यापर्णेयाः । रैतिकाक्षपांचालेयाः । कटुकवाच लेयौ । शाकलशुनकाः । शाकलसणकाः । शुनकधात्रेयाः । साकबाभ्रवाः । प्रार्चाभिमौद्गलाः । कुन्तिसुराष्ट्राः । चितिसुराष्ट्राः । तरडवतण्डाः । गर्गवत्साः। अविमत्तकामविद्धाः । बाभ्रवशालकायनाः । बाभ्रवदानच्युताः । कठकालापाः । कठकौथुमाः। कौथुमलौकाक्षाः । स्त्रीकुमारम् । मौदपेप्यलादाः । मौदपैप्यलादाः । द्विःपाठः समासान्तोदात्तार्थ । वत्सनरत् । सौश्रुतपार्थवाः । नरामृत्यू । याज्यानुवाक्ये ॥ इति कार्तकौनपादयः ॥
१६०-कुरुगाईपतिरिक्तगुर्वसूतजरत्यश्लीलढरूपापारेवस्वातैतिलकः पण्यकम्बलोदासीभाराणाञ्च ॥ प्र.॥
.६।२।१२ ॥ कुरुगार्हपत , रिक्तगुरु, प्रसूतनरती, अश्लीलदृढरूपा, पारेबडवा, तैतिलकट, प. रायवकम्बल इत्येषां समासानां दासीभारादीनां च पूर्वपदं प्रकृतिस्वरं भवति । कुरूणां गार्हपतं कुरुगाहपतम् । रिक्तो गुरुः रिक्तगुरुः । असूता जरती, अमृतजरती । अश्ली. ला दृढरूपा अश्लीलादृढरूपा । दास्या मारो दासीभारः :
दासीभारः । देवहूतिः । देवजूतिः । देवसूतिः । देवनीतिः । वसुनीतिः । ओषधिः। चन्द्रमाः । अविहितलक्षणः पूर्वपदप्रकृतिस्वरो दासीमारादिषु दृष्टव्यः ।।
१६१-युक्तारोह्यादयश्च ॥ भ०॥६।२।८१॥ युतारोह्यादिषु पूर्वपदमायुदात्तं निपात्यते :
युकारोही । आगतरोही । आगतयोधी । आगतवञ्ची । आगतनर्दी । भागतप्रहारी । अागतमत्स्या। तोरहोता । भगिनीमा । ग्रामगोधुक् । अश्वत्रिरात्रः। गर्गत्रिरात्रः । व्युष्टत्रिरात्रः । शलपादः । समपादः । एकशितिपात् ॥ पात्रसम्मितादयश्च ।। इति.
१६२-वोषादिषु च ॥ भ०॥६।२। ८५॥ घोषादिषु चोत्तरपदेषु परेषु पूर्वपदमाधुदात्तं भवति :
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गणपाठः ||
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दाक्षिघोषः । दाक्षिकटः । दाक्षिपल्वलः । दाक्षिवल्लभः । दाक्षिहदः । दाक्षिबदरी । दाक्षिपिङ्गलः । दाक्षिपिशङ्गः । दाक्षिशालः । दाक्षिरक्षः । दाक्षिशिल्पी | दाक्ष्यश्वत्थः । कुन्दतृणम् । दात्शिाल्मली । श्राश्रयमुनिः । शाल्मलिमुनिः । दाक्षिपुंसा । दाक्षिकूटः । इति घोषादयः ॥
१६३ - प्रस्थेऽवृद्धमकर्यादीनाम् ॥ भ० ॥ ६ । २ । ८७॥ प्रस्थ उत्तरपदकक्र्यादिरहितमवृद्धं पूर्वपदमायुदात्तं भवति । इन्द्रप्रस्थः । कुण्डप्रस्थः । वृद्धमिति किम् । दातिप्रस्थः । श्रकर्त्यादीनामिति किम् । कर्कप्रस्थ: : -- कर्की । मघी । मकरी । कर्कन्धू । शमी । करीर । कटुक । कुरल । कवल । बरद ॥ इति ०
१६४ - मालादीनां च ॥ अ० । ६ । २ । ८८ ॥ प्रस्थ उत्तरपदे मालादय श्रायुदात्ता भवन्ति । मालाप्रस्थः । शालाप्रस्यः :माला | शाला । शोणा | द्राक्षा | क्षौमा । क्षामा । काम्ची । एक । काम । इति०
१६५ - क्रत्वादयश्च ॥ अ० ॥ ६ १२ । ११८ ॥ सोरुत्तरपदस्थाः क्रत्वादयो बहुब्रीहौ समासे आद्युदात्ता भवन्ति । सुक्रतुः :ऋतु । दृशीक । प्रतीक । प्रपुर्ति । हव्य । भग । इति क्रत्वादयः ॥
:--
१६६ - मादिचिहणादीनाम् ॥ भ० ॥ ६ । २ । १२५ ॥ कन्यान्ते नपुंसके तत्पुरुषेचिहणादिपूर्वपदानामादिरुदात्तो भवति । चिहणकन्थंम : चिहण । मडर । मडुर । वैतुल । पटक्क | वैडालिकर्णः । वैतालिकर्णिः । कुक्कुट चित्कण | चिक्कण || इति चिहणादयः ।
१६७ - चूर्णादीन्यप्राणिषष्ठ्याः ॥ प्र० || ६ |२| १३४ ॥ तत्पुरुषसमासेऽप्राणि वाचिनः षष्ठ्यन्तात्पराणि चूर्णादीन्युत्तरपदानि श्राद्युदासा. ने भवन्ति । मुद्गस्य चूर्णे मुद्गचूर्णम् :
1
चूर्णं । करिष । करिव । शाकिन । शाकट | द्राक्षा | तूस्त । कुन्दम् । दलप । चमसी । चकन | चक्कन । चौल || इति चूर्णादीनि ॥
१६८ - उभे वनस्पत्यादिषु युगपत् ॥ अ० । ६ । २ । १४० वनस्पत्यादिषु समासेषमे पूर्वोत्तर पदे युगपत्प्रकृतिस्वरे भवतः :
वनस्पतिः । बृहस्पतिः । शचीपतिः । तनूनपात । नराशंसः । शुनःशेपः । शण्डा
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गणपाठः॥
मौं । तृष्णावरूत्री । बम्माविश्ववयसौ । मर्मृत्युः । इति वनस्पत्यादयः ।।
१६९-संज्ञायामनाचितादीनाम् ॥०॥ ६ । २।११६॥
संज्ञायां विषये गतिकारकोपपदात्परंक्तान्तमुत्तरपदमन्तोदात्तं भवति । आचितादान वयित्वा संभूतः । धनुषखाता । अनाचितादीनामिति किम् :
आचितम् । पाचितम् । प्रस्थापितम् । परिगृहीतम् । निरुक्तम् । प्रतिपन्नम् । प्रश्लिष्टम् । उपहतम् । उपस्थितम् । संहिताऽगवि ।। इत्याचितादयः ।।
१७०-प्रवृद्धादीनां च ॥म०॥६।२।१४७॥ प्रवृद्धादिशब्दानांक्तान्तमुत्तरपदमन्तोदात्तं भवति । प्रवृद्धंयानम् :
प्रवृद्धो वृषलः । प्रयुक्तरः सक्तवः । आर्षेऽवहितः । अवहितो भोगेषु । खट्वारूढः । कविशस्तः । प्राकृतिगणत्वात् पुनरुत्स्यूतं वासोदेयम् । पुनर्निष्कृतो रथः । इति.
१७१-निरुदकादीनि च ॥ म०॥ ६ । २ । १८४ ॥ निरुदकादीनि च शब्दरूपाण्यन्तोदात्तानि निपात्यन्ते :
निरुदकम् । निरुलपम् । निरुपलम् । निर्मशकम् । निर्मक्षिकम् । निष्कालकः । निष्कालिकः । निप्पेपः । दुस्तरीपः । निस्तरीपः । निस्तरीकः । निराजिनम् । उदाजिनम् । उपा. जिनम् ॥ परेहस्तपादकेशकर्षाः । परिहस्तः । परिपादः । परिकेशः । परिकर्षः । प्राकृतिगणोऽयम् ॥ इति निरुदकादयः ।
१७२-प्रतेरंश्वादयस्तत्पुरुषे ॥ ५० ॥ ६ ॥ २॥ १९३ ॥ तत्पुरुषसमासे प्रतेरुत्तरा अंश्वादयोऽन्तोदात्तामवान्त । प्रतिगतोंशुः प्रत्यंशुः :
अंशु । जन । राजन् । उष्ट्र । रोटक । अनिर । आर्द्रा । श्रवण । कृतिका । अर्द्ध । पुर ॥ इत्यंश्वादयः ॥
१७३-उपाद् राजजिनमगौरादयः ॥१०॥ ६॥२११९४ ॥ उपादुत्तरंयच्छब्दरूपमजिनं च तत्पुरुषसमासे गौरादिवनितमन्तोदात्तं भवति । उपगतोदेवमुपदेवः । उपसोमः । उपाजिनम् । अगौरादय इति किम् । उपगौरः:___गौर । नैष । तैल । लेट । लोट । जिह्वा । कृष्णा । कन्या । गुड । कल्प । पाद । इति गौरादयः ॥
___१७४-स्त्रियाः पुंवद्भाषितपुंस्कादनूङ समानाधिकरणेस्त्रियामपूरणीप्रियादिषु ॥ म० ॥ ६ । ३ । ३४ ॥
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५४
गणपाठः॥
भाषितपुंसकशब्दात्परस्य समानाधिकरणस्त्रीलिङ्गे पूरणीप्रियादिवजिते उत्तरपदे परतः पुंशब्दस्येवरूपं भवति । दर्शनीया भार्या यस्य स दर्शनीयमार्यः । दीर्घनकः। अप्रियादिस्वितिकिम् । कल्याणीप्रियः : - . प्रिया । मनोज्ञा । कल्याणी । सुमगा । दुर्गा । भक्तिः । सचिता । अम्बा । का. न्ता। क्षान्ता । समा । चपला । दुहिता । वामा ॥ इति प्रियादयः ।। १७५-वनगिर्योः संज्ञायांकोटरकिंशुलकादीनाम् ॥
भ०॥६।३।११७॥ वन, गिरि, इत्येतयोरुत्तरपदयोः परयोर्यथासंख्य कोटरादीनां किंशुलकादीनां च सं. ज्ञायां विषये दी| भवति । कोटरावणम् । किंशुलकागिरिः :
कोटर । मिश्रक । पुरक । सिधक । सारिक । इति कोटरादयः ॥ किंशुलक । साल्वक । अन्जन । लोहित । कुक्कुट । इति किंशुलकादयः ।।
१७६-मतौ बह्वचोऽनजिरादीनाम् ॥०॥६॥३।११९॥ मतौ प्रत्यये परतोऽनिरादिवर्जितस्य बद्दचो दीर्घो भवति संज्ञायां विषये । उदुम्ब रावती । मशकावती । अमरावती । अननिरादीनामिति किम् :. अजिरवती। खदिरवती। पुलिनवती । हंसकारण्डवती । चक्रवाकवती । इत्यनिरादयः ॥
१७७-शरादीनां च ॥०॥ ६ । ३ । १२० ॥ संज्ञायां विषये मतौ परतः शरादीनां च दी? मवति । शरावती । वंशावती :शर । वंश । धूम । अहि । कपि । मणि । मुनि । शुचि । हनु । इति शरादयः ॥
१७८-हारादीना च ॥०॥ ७॥ ३ ॥४॥ .. द्वारादीनां युवाभ्यामुत्तरस्याचामादेरचः स्थाने वृद्धिन मवति । किन्तुपुवाम्यां पूविनागमौ भवतः । द्वारेनियुक्तः, दौवारिकः । स्वरमधिकृत्य कृतो ग्रन्थः, सौवरः :- | द्वार । स्वर । व्यल्कश । स्वस्ति । स्फयकृत । स्वादुमृदु । श्वन्स्व । इति द्वारादयः ।।
१७९-स्वागतादानां च ॥ भ०॥७।३ । ७॥ स्वागतादीनों शब्दानां यवाभ्यां पूर्वी जित् णित् कित् तद्धिते परत ऐनागमो न मवतः वृद्धिस्तुमवत्येव । स्वागतमित्याह स्वागतिकः । स्वाध्वरेण चरति,स्वावरिकः :स्वागत । स्वध्वर । स्वङ्ग । व्यङ्ग । व्यङ । व्यवहार । स्वपति । इतिस्वागतादयः।। १८०-अनुशतिकादीनां च ॥ म०॥७॥ ३ ॥२०॥
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गरापाठः॥
अितिणितिकितिचतद्धिते परतोऽनु शतिकादिशब्दानां पूर्वपदस्योत्तरपदस्यचाचामादेरचःस्थानेवृद्धिर्भवति । अनुशतिकस्येदमानुशातिकम् :
अनुशतिक । अनुहोड । अनुसंवत्सर । अङ्गारवेणु । असिहत्य । बध्योग । पुष्करसत् । अनुहत् । कुरुकत । कुरुपञ्चाल । उदकशुद्ध । इहलोक । परलोक । सर्वलोक । सर्वपुरुष । सर्वभूमि । प्रयोग । परस्त्री । राजपुरुषात् प्यजि ॥ सूत्रनड । प्राकृतिगणोऽयम् ( १ ) ॥ इत्यनुशतिकादयः ॥
१८१-न्यङ्कादीनां च ॥ ५० ॥७॥ ३॥ ५३॥ न्यवादिषु कुत्वं निपात्यते । नितरामञ्चतीति :
न्यकुः । मद्गुः । भृगुः । दूरेपाकः । फलेपाकः । क्षणेपाकः । फलेपाका । दू. रेपाकृः । फलेपाकुः । तक्रम् । वक्रम् । व्यतिषङ्गः । अनुषङ्गः । अवसर्गः । उपसर्गः । मेघः । श्वपाकः । मांसपाकः । कपोतपाकः । उलकपाकः । संज्ञायामधः । अबदाघः । निदाघः (२) । न्यग्रोधः ॥ इति न्यवादयः ॥ ___१८२-पूजनात्पूजितमनुदात्तंकाष्ठादिभ्यः॥०॥८1१६७॥
पूजनवाचिभ्यः काष्ठादिभ्यः परं पूजितमुत्तरपद मनुदात्तं भवति । काष्ठश्चासावध्यापकः काष्ठाध्यापकः :
काष्ठ । दारुण । अमातापुत्र । अयुत । अद्भुत । अनुक्त । भृश । घोर । परम । सु । अति । अनुज्ञात । कल्याण । वेश ॥ इति काष्ठादयः ॥
१८३-मादुपधायाश्च मतोर्वोऽयवादिभ्यः॥१०॥८२१९॥
मकारान्तान्मकारोपधादवर्णान्तादवर्णोपधाच्च परस्य मतुपोमकारस्य वकारादेशो भ. वति नतु यवादिभ्यः परस्य मस्य वो भवति । मान्तात् किंवान् । शंवान् । मकारोपधात् । शमीवान् । दाडिमीवान् । अवर्णान्तात् । वृक्षवान् । खट्वावान् । अवर्णोपधात् । यशस्वान् । भास्वान् । मादुपधाश्चेति किम् अग्निमान् । अयवादिम्य इति किम् । यवमान् :
यव । दल्मि। ऊर्मि । भूमि । कृमि । क्रुच्चा । बशा । द्राक्षा । वृक्षा । वेशा । 5. (१)अत्राकृतिगणनेदमपि सिद्धं भवति । अभिगममर्हति, अभिगामिकः । अधिदेवेभवमधिदैविकम् । आधिभौतिकम् । आध्यात्मिकम् । चतस्रएवविद्याः, चातुर्वैद्यम् । स्वार्थेष्यन् ।
(२) अर्घ, अवदाघ, निदाघ, इति त्रिषु शब्देषु संज्ञायामेव कुत्वम् । अन्यत्र । अर्हः । अवदाहः । निराहः ॥
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गणपाठः॥ .
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| नि । ध्वनि। सब्जि । वनि । ब्रनि । शनि । सिजि । हरित् । ककुत् । गरुत् । इक्षु । मधु । हुम । मण्ड । धम । श्राकृतिगणोऽयम् ।।
१८४-कस्कादिषु च ॥ अ० ॥ ८।३।१८॥ कस्कादिशब्देषु विसर्जनीयस्य सः घो वा कवर्गपवर्गयोः परतः :---
कस्कः । कौतस्कुतः। भ्रातुपुत्रः । शुनस्कर्णः । सद्यस्कालः । सद्यस्कीः । सद्यस्कः | कांस्कान् । सर्पिष्कुण्डिका । धनुष्कपालम् । बर्हिप्पूलम् । यजुप्पात्रम् । अयस्काण्डः । मेदस्पिण्ङः । प्राकृतिगणोऽयम् । इति कस्कादयः ॥ --. १८५-सपामादिषु च ॥ अ०॥८३।१८ ॥ सुषामादिषु सकारस्यमूर्धन्यादेशोनिपात्यते । शोभनं सामयस्यासी सुषामाबामणः :... सुषामा । निषामा । दुप्लेधः । सुषन्धिः । दुःषन्धिः। निधिः । सुष्ठ । दुष्ठु । गौरिषक्थः संज्ञायाम् ॥ प्रतिष्णिका । जलाषाहम् । नौवनम् । दुन्दुभिः पवनम् ॥ अविहितलक्षणो मूर्द्धन्यः सुषामादिषु द्रष्टव्यः । इति सुपामादयः ॥ १८६-न रपरसृपिसृजिस्मृशिस्पृहिसवनादानाम् ॥ भ० ॥
८।३ । ११०॥ रेफपरस्य सकारस्य सृपिसृनिस्पृशिस्पृह सवनादीनां सस्यमूर्द्धन्यादेशो न भवति । रंपर, विस्त्रंसिका । विस्त्रब्धः । विसृपः । विप्सर्जनम् । सुस्पृशम् । निस्पृहम् :.. सवने सवने । सूते सूते । सामे सामे । सवनमुखे सवनमुखे । अनुसवनमनुसवनम् । बृहस्पतिसवः । शकुनिसवनम् । संवत्सरे संवत्सरे । मुसलं मुसलम् । गोसनिम् । अश्व. सनिम् । इति सवनादयः ॥
१८७-दुभ्नादिषु च ॥ १०॥८।४।३९ ॥ तुभूना इत्यादि शब्देषु नस्य णकारादेशो न भवति । यथाप्राप्तिनिषेधः :---
तुम्नाति । तुभनीतः । चुभनन्ति । नृनमन । नन्दिन् नन्दिन् । नगर । नरीनृत्यते । तम् । नर्तन । गहन । नन्दन । निवेष । निवाश । अग्नि । अनूप ॥ प्राचार्यादणत्वंच ॥ आचार्यभोगीनः । आचार्यानी । हायन । इरिकादिभ्यः । वनोत्तरपदेभ्यः संज्ञायाम् ॥ इरिका । तिमिर । समीर । कुबेर । हरि । कर्मार । क्षुम्नादिराकृतिगणः ।। इति
___ समाप्तश्चार्य ग्रन्थः ॥
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शुभनादयः ॥
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अथ गणपाठ शुद्धाशुद्धपत्रम् ॥
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वाच
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तादयः
-
भमिका॥
३२ २२ मागयनः | आर्गयनः | पृष्ठे पंक्तौ अशुद्धम् शुद्धम् | ३२ २ (नोट) भवः । भवं. १ ६ चिन्ह | चिह वा (-)ऐसा | ३३ १७ स ता स ताक्ष १ १३ वातिक | वार्तिक
३८ ५ वाच
३१ २ न् पृष्ठे पंक्तौ अशुद्धम् शुद्धम्
४० ६ समान | समाना १ ४ प्रति प्राति
३६ १२ छेदन २ ६ कृत्वर्थः । कृत्वोर्थः
३६ १४ वैरङ्गकः
| वैरङ्गिकः ३ १ (नोट)
,,, प्रवचना | प्रवचनादि उपसगा | उपसा
४० १० इत्या इत्य(४ २० तादयाः |
४१ १६ राश्रम ४ ३ (नोट)तोइच् | तेच
| राश्रम्य ५ ४ (नो.) गतिप्रा कुगतिमाः
४१ १५ परिमाण्डल परिमण्डल ६ १०(नो.) पिवति पिवत
४१ २४ सांसैन्या | वा सैना 1८ ३ (नोट) बैधि | विधी .
४२ १० कैशीर | कैशोर 1१० १ (नोट) यूवा | युवा
४२ १० नान्तु '१२ ८ (नोट) निन- जिनयश्च
४४ २ ध्याया
४४ ३(नोट)शब्दो।| शब्दो . १९ २ (नोट)सवाज सुवांज
४५ १८ कृते कृत |२१ ३ (नोट) हृद्भ हृद्भग
,, २२ प्रत्ययो । प्रत्ययौ २२ ५ (नोट) यञ् | यज
,, २(नोट)पलालिनः पलालिनः २२ ६ (नोट)प्रत्य प्रत्यय
४७ २३ प्टक . | ठक् २४ २५ वाजपैयि | वाजपेयि
४६४(नोट)प्रत्यस्य प्रत्ययस्य २४ २० . विश्वदेव
,, ५ (नोट) च्छब्द च्छब्दाः २८३ ० । विजग्ध
५० ६ लोपः लोपाः २६६ संबंध सबन्ध
५१ २६ वोषा घोषा २६ २१ माहकी | माहिकी ५१ १७ अश्लीला | अश्लील |३१ १६ छण छण
५२ २१ न्यूत्तर | न्यसर
याध्यायो
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शुद्ध
गणपाठ शुद्धाशुद्धपत्रम् ॥ पृ० पं० अशुद्ध
, ३ दिस्विति | दिष्विति
, १६ द्वारदीना | द्वारादीनां ५३ २१ धज । द्वयन
, २० युवाभ्य | यवाभ्या ५४ १ पुंसक ।
" , युवाभ्यां यवाभ्यां ५४ ११ . भजन ५५ २२ दुपधा । दुपधाया
पुंस्क
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|| अथ वेदाङ्गप्रकाशः ||
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तत्रत्यः ।
चयोदशो भागः ॥
उणादिकोषः ।
पाणिनिमुनिप्रणीतायामष्टाध्याय्यां
द्वादशी भागः ॥ श्रीमत्स्वामिदयानन्दसरस्वती कृतव्याख्यासहितः ।
यज्ञदत्तशर्मशास्त्रिणा संशोधितः । पठनपाठनव्यवस्थायां चतुर्दशं पुस्तकम् ।
वैदिक यन्त्रालय अजमेर में मुद्रित हुआ । इस पुस्तक छापने का अधिकार किसी को नहीं है ।
क्योंकि
इस की रजिस्टरी कराई गई है ।
संवत् १९४८ पौष कृष्ण
द्वितीयबार २००० पुस्तक छपे मूल्य 112) डा० व्य ०
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अथ भूमिका ॥
~--:00:-- सब उणादिगणस्थ शब्द इस वक्ष्यमाण एक सूत्र की विशेष व्याख्या में हैं:
उणादयो बहुलम् ॥ ५० ॥३॥ ३ ॥१॥ वर्तमान काल में धातुओं से उणादि प्रत्यय बहुल करके होते हैं । भूतेऽपि दृश्यन्ते ॥ १० ॥ ३।३।२॥ और कहीं २ भूतकाल में भी इन का विधान दीख पड़ता है ॥ भविष्यति गम्यादयः ॥ अ० ॥ ३।३।३॥
और गमी आदि गणपटित वक्ष्यमाण शब्द भविष्यत्काल में ही होते हैं। उणादिप्रत्ययों के होने के लिये यह तीनों काल का नियम है । गम्यादि शब्द। गमी । आगामी । प्रस्थायी । प्रतिरोधी । प्रतिबोधी । प्रतियोधी । प्रतियोगी । प्रतियायी । आयायो । भावी । इन से अन्य शब्द भूत
और वर्तमान अर्थों के बोधक होते हैं। अब जितनी प्रकृतियों में जितने उणादि प्रत्यय कहे हैं उतने ही जानना चाहिये वा कुछ विशेष इस लिये :
बाहुलकं प्रकतेस्तनुदृष्टेः प्रायसमुच्चयनादपि तेषाम् । कार्यसशेषविधेश्च तदुक्तं नैगमरूढिभवं हि सुसाधु ॥ १ ॥ नाम च धातुजमाह निरुक्त व्याकरणे शकटस्य च तोकम् । यन्न पदार्थविशेषसमुत्थं प्रत्ययतः प्रकृतेश्चतदूह्यम् ॥ २ ॥ संज्ञासु धातुरूपाणि प्रत्ययाश्च ततः परे । कार्यादिद्यादनूबन्धमेतच्छास्त्रमुगादिषु ॥ ३॥ महाभाष्ये ॥
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भूमिका ॥
nd
इसी सूत्र की व्याख्या में महाभाष्यकार पतञ्जलिमुनि उणादिपाठ | की व्यवस्था बांधते हैं कि (बाहुलकम् ) उणादि पाठ में थोड़े से धातुओं से प्रत्यय विधान किया है तो बहुल के होने से वे प्रत्यय अन्य धातु
ओं से भी होते हैं । इसी प्रकार प्रत्यय भी थोड़े से संकेतमात्र पढ़े हैं। सत्प्रयोगों में देख के इन से अन्य भी नवीन प्रत्ययों की कल्पना कर लेनी चाहिये । जैसे ( ऋफिडः ) इस शब्द में ऋ धातु से पिड प्रत्यय समझा जाता है । इसी प्रकार अन्यत्र भी जानना चाहिये । तथा जितने शब्द उणादिगण से सिद्ध होते हैं उन में जितने कार्य सूत्रों से प्राप्त हैं वे सब नहीं होते यह भी बहुल ग्रहण का ही प्रताप है । इस में यदि कोई ऐसा प्रश्न करे कि उणादिपाठ में जितने धातुओं से जितने प्रत्यय विधान किये और शब्दों की सिद्धि में जितने कार्य सूत्रों से हो सकते हैं उन से अधिक वा न्यून क्यों होते हैं ? तो इस का उत्तर यह है कि (नैगम०) वैदिक शब्द और लौकिक सञ्ज्ञा शब्द से सब अच्छे प्रकार सिद्ध नहीं हो सकते । इस जिये पूर्वोक्त तीन प्रकार के कार्य उणादिगण में बहुल वचन से होते हैं इस बहुल के होने से अनेक प्रकार के सहस्रों शब्द सिद्ध होते हैं ॥ १ ॥
संज्ञा शब्द वे ही कहाते हैं जो किसी निज वाच्य के साथ सम्बन्ध रक्खें फिर उन की सिद्धि करने से क्या प्रयोजन है क्योक्ति वे संज्ञाशब्द जिस निज अर्थ के बोधक हैं उस का बोध तो प्रकृति प्रत्ययार्थ सम्बन्ध के बिना भी कराते ही हैं वही पश्चात् होगा इस लिये (नाम च0) इस विषय में निरुक्तकारों और वैयाकरणों में शाकटायन ऋषि का ऐसा मत है कि सब संज्ञा ( रूढि ) शब्द प्रति प्रत्ययार्थ के सम्बन्ध से यौगिक तथा योगरूडता से अर्थों के बोधक होते हैं। इन से भिन्न अन्य ऋषियों के
a
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भूमिका ॥
मतानुसार सब संज्ञा शब्द रूढ अर्थात् अत्युत्पन्न होते हैं । अब जहां शब्दों में प्रकृतिप्रत्यय कुछ भी नहीं जान पड़ता वहां ( प्रत्ययत: ० ) यदि प्रत्यय जान पड़े तो धातु की कल्पना और धातु जान पड़े तो नवीन प्रत्यय की कल्पना कर लेनी चाहिये । इस प्रकार उन शब्दों का अर्थज्ञान कर लेना चाहिये ॥ २ ॥ संज्ञा शब्दों में धातुओं का रूप पूर्व भाग में और शब्द के पर भाग में धातु से परे प्रत्यय की कल्पना करनी चाहिये । और जिस शब्द में जिस अनुबन्धका कार्य्य दीख पड़े वैसे ही सानुबन्धक धातु वा प्रत्ययों की ऊहा करनी चाहिये । अर्थात् आत्मनेपद दीख पड़े तो अनुदातेत् वा ङित् धातु जानना और जो आयुदात्त स्वर हो तो जित वा नित् प्रत्यय की कल्पना करनी चाहिये । यह कल्पना सर्वत्र नहीं करनी किन्तु वैदिक वा लौकिक सत्प्रयुक्त शब्दों के अर्थ जानने के लिये शब्दों के पूर्व भाग में धात्वर्थ की और पर भाग में प्रत्ययार्थ की कल्पना करनी चाहिये । यह सब सम्बन्ध ऋषि लोगों ने इस लिये बांधा है कि अथाह शब्दों के सागर की थाह व्याकरण से भी नहीं मिल सकती । जो कहें कि ऐसा व्याकरण क्यों नहीं बनाया कि जिस से शब्दसागर के पार पहुंच जाते तो यह समझना चाहिये कि कितने ही पोथा बनाते और जन्मजन्मान्तरों भर पढ़ते तो भी पार होना दुर्लभ ही था इस लिये यह पूर्वोक्त व्याकरण से सब प्रबन्ध जताया है || ३ || उणादिगण में कारक व्यवस्था का यह नियम है कि
३
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दागोनौ संप्रदाने ॥ अ० || ३ | ४ | ७३ ॥
यह सूत्र सामान्य कृदन्त का नियामक है कि दाश और गोधन शब्द औणादिक हो वा अष्टाध्यायी से सिद्ध हों परन्तु प्रत्यय संप्रदान कारक में ही हों । इस नियम से ये दो ही शब्द संप्रदान में होते हैं अन्य नहीं ॥
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भूमिका ॥ भीमादयोऽपादाने ॥ अ० ॥ ३।४ । ७४ ।।
भीमादि शब्दों में अपादानकारक में ही प्रत्यय होते हैं । भीमादि शब्द औणादिक हैं जैसे-भीमः । भीष्मः । भयानकः । वरुः । चरुः । भूमिः । रजः । संस्कारः । संक्रन्दनः । प्रतपनः । समुद्रः । मुचः । सक। खलतिः । इति भीमादि गणः ॥
ताभ्यामन्यत्रोणादयः ॥ अ० ॥ ३।४ । ७५॥
उन संप्रदान और अपादान दोनों कारकों से भिन्न अन्य कारकों में उणादि प्रत्यय होते हैं । व्युत्पन्न पक्ष में उणादि प्रत्ययान्त शब्दों के यौगिक होने से प्रत्ययों को कृतसंज्ञक मान के कर्ता में प्राप्त हैं इस लिये यह कारकनियम है । और भाव में भी उणादि प्रत्यय होते हैं। संप्रदान और अपादान को छोड़ के अन्य कारकों में तो उणादि प्रत्ययों का यथेष्ट विधान है परन्तु बहुलवचन से कहीं संप्रदान में भी कोई प्रत्यय कर दिये हों तो चिन्ता नहीं । इस उणादिगण की एक वृत्ति छपी भी है परन्तु वही पोपलीला आदि का जगड्वाल बहुत और प्रयोजन थोड़ा सिद्ध होता है । इस लिये यह कोष बनाना पड़ा। इस ग्रंथ में सूत्रों का पाठ तथा अर्थ बहुधा सुगम है इसी लिये प्रति सूत्र का अर्थ वृत्ति में नहीं किया और जहां कुछ कठिन जान पड़ा वहां खोल दिया है। अनुवृत्ति भी बहुधा जनादी है । इस का मूल ऊपर २ पथक् इस लिये छप वाण है कि अध्येता लोगों को पाठ करने और घोषण से कण्ठस्थ करने में सुगमता रहेगी। जो अंक मूत्र के अन्त में लिखा है वही नीचे वृत्ति के आदि में डाल दिया है। इस से बड़ी सगमता होगी। इस में विशेष करके लौकिक शब्द और सामान्य से वैदिक लौकिक दोनों ही सिद्ध किये हैं। निघण्टु में जितने वैदिक शब्द हैं उन में से बहुतों का निर्वचन वृत्ति में मिले गा । सो दोनों की
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भूमिका ।
अकारादि सूची को देख के खोज लेना चाहिये। निर्वचन तो सब शब्दों का कर दिया है परन्तु वे धातुगणानुबन्ध और अर्थ के सहित यहां नहीं लिखे हैं क्योंकि ग्रन्थ बहुत बढ़ जाता इस लिये धातु के प्रयोग से गण अनुबन्ध तथा उस के पर्याय शब्द से धातु के अर्थ का बोध कर लेना चाहिये । संस्कृत में वृत्ति बनाने का यही प्रयोजन है कि जो लोग पठनपाठन व्यवस्था के पहिले पुस्तकों को पढ़ें गे उन के लिये संस्कृत कुछ कठिन नहीं होगा और संस्कृत भी सरल ही बनाया है। कई शब्दों के अर्थ इति शब्द लगा कर भाषा में भी खोल दिये हैं ।
इति भूमिका
स्थान महाराणा जी का उदय पुर । माघ कृष्णा १. संवत् १९३६
६ दयानन्द सरस्वती )
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श्रश्म् ॥
थोणादिकेाषः ॥
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कृवापाजिभिस्वदिसाध्यशूभ्य उण् ॥ १ ॥ कारुः । वायुः ।
पाथुः । जायुः । मायुः । स्वादुः । साधुः । आशु । आशुः ॥ १ ॥ छन्दसीएणः ॥ २ ॥ आयुः ॥ २ ॥
दूसनिज निचरिचटिरहिभ्यो ण् ॥ ३ ॥ दारु । सानुः । जानु । चारु । चाटु | राहुः ॥ ३ ॥
(१) करोतीति कारुः कर्त्ता शिल्पी या । वाति गच्छति जानाति वेति वायुः पवनः परमेश्वरो वा । पाति रक्षति स पायू रक्षकः गुदेन्द्रियं वा । जयत्यभिभवति तिरस्करोति शत्रुनितिजायुः शूरः । जयति रोगानिति जायुरौषधं वैद्यो वा । यो मिनोति प्रक्षिपति स मायुः । अथवा मिनोति प्रचिपत्यूष्माणमिति मायुः पित्तम् । गां विकृतां वाचं मिनोतीति गोमायुः शृगालः । स्वद्यते भोक्तुमभीप्स्यते तत्स्वादु भोज्यमन्नं वा । साध्नोति धर्म्यं कर्मैत साधुः सज्जनः । प्रश्नुते व्याप्नोति तदाशु शीघ्रम् | अश्नुते सद्योऽध्वानमित्याशुरश्वः । वाऽश्यते भुज्यते शीघ्रमित्या शुधीन्यं वीहि: बहुलवचनात् -स्नाति शोधयत्यङ्कानीति स्वायनीड़ी वा । कक्यते लोलश्चञ्चलो भवति येनेति काकुः । भयादिः ध्वनेर्विकारो वा । हल्यते द्विदयतेऽन्नमनेनेति हालुः। दन्तो वसति जगदस्मिन् वा सर्वस्मिन् यो वसति स वासुरीश्वरः । इत्यादि ।
(२) वेद इण् धातोरुण् । एति प्राप्नोति सर्वानित्यायुर्जी' वनकालः । सान्तस्तु द्वितीयपादे वक्ष्यते ॥
(३) दीर्यते भिद्यत इति दारु काष्टं वा । सनति सम्भजति सनोति ददाति वा स सानुः । पर्वतैकदेशशृङ्गबुधमार्गवात्यापर्णवनानि च सानूनि वा । जायन्तेऽस्मातज्जानु जङ्घाया उपरिभागेा वा । जनिवध्योश्चेति प्रतिषिद्धाऽप्यनुबमधद्वयसामर्थ्यादृद्धिर्भवति । चरति चक्षुरादिष्विति चारुशोभनम् । चटतिभिनतीति चाटु प्रियंवची वा । रहति त्यजति दोषानिति राहुः । ग्रहविशेषो वा ॥
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पा० १॥
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किंजरयोः भिणः ॥ ४ ॥ किंशारु । जरायुः ॥ ४ ॥ जोरश्चलः ॥ ५॥ तालु ॥५॥ कके वचः कश्च ॥ ६ ॥ ककवाकुः ॥६॥
भमशीतचरित्सरितनिधनिमस्जिभ्य रः ॥ ७ ॥ भरुः । मरूःशयुः। तराचरुः।त्सरुः।तनुः।धनुः। मयुः। मद्गुः ॥७॥
अपाश्च ॥ ८॥ अणुः ॥ ८॥ ___ (४) किं श्रयतेऽनेनेति किंशारुः धान्यविशेषो धा । जरां जीर्णतामेति जरायुः । गर्भाशयो गभीवरणं वा ॥
(५) त धातार्जुण रेफस्य लत्वम् । तरन्ति निःसरन्ति वर्णी यत इति तालु मुखैक्रदेशः । बाहुलकात-अर्यते प्राप्यत इत्यालु भक्षयं कन्दं वा । भृणाति स्वतापेन छेदयति पदार्थानिति भालुः सूर्यः । शृणाति चित्तं हिनस्तीति शालुः । कषायद्रव्यं वा । इत्यादि ।
(६) कृकोपपदावचधातार्जुण । कृकेन कण्ठेन वक्तीति कृकवाकुर्यवनादिर्मयूरो वा ।
() भरति विभर्ति वेति भरुः । स्वामी । नियन्ते भूतान्यस्मिन्निति मर्निर्जलो देशो वा । शेतेऽसौ शयुः शयनशीलः । यस्तरति येन वा स तरुः वक्षो वा । चरति चयतेनिना भक्षयत इति चरः । यज्ञपाको वा। त्सरति कुटिलं गच्छतीति त्सरुः । खड्गमुष्टिवी । तन्यन्ते काण्यनेनेति तनुः शरीरं स्वल्पं वा । धन्यते धनं प्राप्यतेऽनेनेति धनुः शास्वं शस्त्रं वा । मिनोति सुशब्दं प्रक्षिपतीति मयुः वानरो वा । मज्जति शुद्धो भवतीति मद्गुः जलपवी पक्षी वा । न्यवादित्वात्कुत्वम् । बाहुलकात-गण्डति स गण्डः वदनैकदेशः । उपधानम-तकिया इतिप्रसिद्ध नैलं वा ॥
(1) अति शब्दयतोत्याः अतिसूक्ष्म वा अत्र चकार ग्रहणाद् वा कति विकारयतीति कटू रसः । वति गुणकर्माणि विभजतीति वटुः। द्विजसुतोवा॥
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उणादिकोषः।
धान्ये नित् ॥ ९॥ अणवः ॥ ९॥
शस्वस्निहित्रप्यसिवसिहनिक्लिदिवन्धिमनिभ्यश्च ॥ १०॥ शरुः।स्वरुः।स्नेहुः। त्रपु। असुः। वसुः।हनुः । क्लेदुः।वन्धुः।मनुः।। १०॥
स्यन्देः सम्प्रसारणं धश्च ॥ ११ ॥ सिन्धुः ॥ ११ ॥ उदेरिञ्चादेः ॥ १२ ॥ इन्दुः ॥ १२॥ ईषेः किञ्च ॥ १३ ॥ इषुः ॥ १३॥
(E) अणन्ति शब्दायन्ते यैस्ताणवोन्नविशेषा वा नित्करणमायदातस्वरार्थम् ।
(१०) अत्र चादुप्रत्ययोनिदिति सम्बन्धः । एवमर्य एव पृथक्पाठः । शृणाति हिनस्ति येति शहरायुधं कोपो वा। स्वर्यन्त उपतप्यन्ते प्राणिनाऽनेनेति स्वर्वजम् । नियति यस्मिन स स्नेहुाधिर्वा । अग्नि प्राप्य यत पते लज्जितमिव भवतीति तत् त्रपु सोमकं रंगं वा। अस्यति प्रक्षिपति वायुमिन्यसुः प्राणः । असुं प्राणं राति ददातीत्यसुरो मेघः । वस्त आच्छादयति दुःखं येन तद्वसु धनं वा । वसन्ति प्राणिनो गेषु ते वसवोऽग्न्यादयोऽटौ। हन्य. तेऽनेनेति हनुः कपोलावयवः प्रहरण मृत्युवी । निद्यत्या करोति चितमिति क्लेदुश्चन्द्रमा वा। प्रेम्णा वधातीति बन्धुः सज्जनो वा । मन्यते चराचरं जगज्जानातीति मनुरीश्वरः मनुतेऽवबुध्यते शास्त्रमिति मनुर्विद्वान राजर्षिः। बहुलवचनात् । विन्दत्यवयवोभवतीति विन्दुः परिमाणं जलादिकणी वा ।
(११) स्यन्दन्ते प्रस्रवन्त्युदकायस्मिन्निति सिन्धुः ॥
(१२) उन्दधातोरुः प्रत्यय आदिवर्णस्येकारादेशश्च । उनतत्याद्रीकरोति पदार्थानितोन्दुश्चन्द्रमाः वा ॥
(१३) अत्र चकारादिच्चेत्यनुवर्तते तेन दोर्घस्य हस्वो भवति । ईपति गच्छति हिनस्ति वा शनिति, इषुर्वाणो वीरो वा । कित्वाद् गुणाऽभावः ।।
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पा० १ ॥
स्कन्देः सलोपश्च ॥ १४ ॥ कन्दुः ॥ १४ ॥ सृजेरसुम् च ॥ १५॥ रज्जुः ॥ १५॥ कृतेराद्यन्तविपर्ययश्च॥ १६ ॥ तर्कुः १६ ॥ नावञ्चेः ॥ १७॥ न्यङ्कः ॥ १७॥ फलिपाटिनमिमनिजनां गुपटिना किधतश्च ॥ १८ ॥फल्गुः । पटुः । नाकुः । मधुः । जतुः ॥ १८ ॥
बलेणुक् च ॥ १९ ॥ बलगुः ॥ १९ ॥
( १.४ ) स्कन्दति गच्छति शुष्यति वा येन स कन्दुः कुमाराणां क्रीडायै गेंद इति प्रमिदं वा ॥
(१५) अच पूर्वमूत्रात्सलोप इत्यनुवर्तते । धातोरसुमागम आदिसकारलापश्च । पुनर्ऋकारस्य यणादेश आगमसकारस्य जशत्वं च । सृजन्त्युदनिस्सारणायेति रज्जुर्जलोद्धरणं वा ॥
(१६) आद्यन्तविपर्ययोऽर्थादादौ तकारोऽन्ते ककारः । उश्च प्रत्ययः कृन्तति छिनति वस्त्रादिकमनेन स तद्दुः । कर्तनी वा ॥
(१०) ये नितरामञ्चन्ति गन्ति तेन्यवो जातिविशेषाः हरिणा वा ॥
(१८) उप्रत्यये फलधातागुंगागमः फलति निष्पद्यते स फलगुः असारो वा । नपुंसके फलगु फलम् । पाटिधातोः पटिरादेशः । पाटयति ज्ञापयति सदसत्पदार्थान् स पटुवाग्मी विशारदो वा । नमधातोनीकिरादेशः नमतीति नाकुः । बल्मीको वा । मनधातार्धकारादेशः । मन्यन्ते विशेषेण जानन्ति यस्मिन स मधुश्चैत्रो मासः । मधको मद्यं क्षौन्द्रं पुष्परसो वा । जनधातास्तकारादेशः । जायते प्रादुर्भयतेऽनेनेति जतु लाक्षा वा ॥
(१६) बलते प्राणयतीति बलगुः । नपुंसके बल्गु शोभनम् ॥
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१०
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उणादिकोषः ॥
शः कित्सन्वच्च ॥ २० ॥ शिशुः ॥ २० ॥ यो दे च ॥ २१ ॥ ययुः ॥ २१ ॥ कुभ्रैश्च ॥ २२ ॥ बभ्रुः ॥ २२ ॥
पृभिदिव्यधिराधिघृषिहृषिभ्यः || २३ || पुरुः । भिदुः । विश्रुः ।
गृधुः । धृषुः । हृषुः ॥ २३ ॥
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कोरुच्च ॥ २४ ॥ कुरवः । गुरुः ॥ २४ ॥
( २० ) सम्वद्भावाद् द्वित्वादिकम् । श्यति तनूकरोति पित्रोः शरीरमिति शिशुवालको वा ॥
( २१ ) अत्र सन्वदित्यनुवर्तमानेपि ग्रहणमभ्यासेत्वनिवृत्यर्थम् । यान्ति प्राप्रवन्ति देशान्तरमनेनेति ययुरश्वो वा ॥
(२२) अद्वे इत्यनुवर्तते भृधातोः कुः प्रत्ययो द्वित्वं च । विभर्ति सर्वमिति बभ्रुर्नकुन्नः पिङ्गलो वा । सूचे चकारग्रहणादन्यधातुभ्योऽपि कुः प्रत्ययस्तेषां द्वित्वं च भवति तद्यथा । करोतीति चक्रुः कती । हन्तीति जघ्नुर्हन्ता । पाति रक्षतीति पपुः पालकः । इत्यादि ॥
( २३ ) एभ्यः कुः । पिपर्ति पालयति पूरयति वा स पुरुः । बहुरिन्द्रियं वा | नितीति भिदुर्व वा । विध्यति दुर्गन्धिं दिवसं वेति विधु: कर्पूरं चन्द्रमा वा । व्यधेग्रहिज्येति सम्प्रसारणम् । गृध्नोत्यभिकाङ्क्षते येन स गृधुः : कामो वा । धृष्णोति प्रगल्भो भवतीति धृषुर्दचः । हृष्यति स हृषुकः । दृशीति पाठान्तरे दृशुर्दर्शक: ॥
( २४ ) यः करोति येन वा स कुरुः । कुरवो राजानो वा । गृणात्युपदिशति वेदशास्त्रविद्यामाचारं च स गुरुः । सर्वेषां गुरुत्वादीश्वरः । आचार्यः पिता वा ॥
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पा० १॥
अपदुःसुषु स्थः ॥ २५॥ अपर्छ । दुष्ठु । सुष्टु ॥ २५ ॥
रपेरिचोपधायाः ॥ २६ ॥ रिपुः ॥ २६ ॥ अर्जिशिकम्यमिपसिबाधामृजिपशितुकधुक्दर्घिहकाराश्च॥२७॥ ऋजुः । पशुः । कन्तुः । अन्धुः । पांसुः । बाहुः ॥ २७॥ प्रथिम्रदिभ्रस्जां सम्प्रसारणं सलोपश्च॥२८॥टथुः। मृदुःभृगुः॥२८॥
(२५) अप, दुः, सु, इत्येतेषूपपदेषु स्थाधातोः कुः । अपतिष्ठतीत्यपष्टु वामभागः प्रतिकूलः पदार्थो वा । निन्दितस्तिष्ठतीति दुष्ठ अविनीतः । सुतिघटतीति मुष्टु शोभनम् । सर्वत्र सुषामादित्वात् षत्वम् ॥
( २६ ) अनिष्टं रपति वदतीति रिपुः शत्रुः । चकारग्रहणात्कुप्रत्यये परे इकारादेश एव समुच्चीयते ॥
(२०) कुप्रयये सति-अयादिप्रकृतीनामृज्यादय आदेशा भवन्ति अर्जयति सञ्चिनोति गुणानिति, ऋजुः कोमलो वा । पश्यति समिति पशुः पान्त येन वा म पशुरग्निः । पश्यति जानाति स्वामिति पशुर्गवादिः । कमधातो. स्तुक । कामयन्ते यं स कन्तुः कामो वा । अमधातोवुक । अमति रुजति गच्छति वेत्यन्धुः कूमो वा। अस्मिन सूत्रे चकारग्रहणाबहुलवचनाद्वा अमधातावुगागमोऽपि भवति ।अमन्तिगच्छन्ति चेष्टन्ते प्राणिनो येन तदम्बु जलम। पंसर्यात नष्टमिव भवतीति पांसुलिवी पंसधातोदीर्घः क्षेत्रार्थ चिरकालात्मञ्चितं गोमयं वा। इत्याद्येवार्थेषु पांशुरिति तालव्यान्तोऽपि शब्दो दृश्यते। बाध्यन्ते विलोड्यन्ते पदार्था याभ्यां तो बाहू भुजौ। प्रायेणाऽयं द्विवचनान्तः ।।
(२८) प्रथ्यादिभ्यः कुः प्रत्ययस्तस्मिन सति प्रथिम्रद्योः सम्प्रसारणं सलोपश्च ! प्रयते कोर्तिवा प्रख्यापयति स पृथराजविशेषो प्रख्यातः पदार्थी वा । मदते म्रदितुं शक्यते स मृदुर्मादकः । कोमलं वा । भृजति तपसा शरीरमिति भृगुऋषिः प्रतापी वा । न्यवादित्वात्कुत्वम् ॥
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१२
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उणादिकोषः ॥
लङ्घिबंह्यो लोपश्च ॥ २९ ॥ लघुः | बहुः ॥ २९ ॥ ऊर्णेीतेर्नुलोपश्च ॥ ३० ॥ ऊरुः ॥ ३० ॥ महति ह्रस्वश्च ॥ ३१ ॥ उरु ॥ ३१ ॥ लिपेः कश्च ॥ ३२ ॥ दिलकुः ॥ ३२ ॥ आङ् परयोः खनिशृभ्यां ङिच्च ॥ ३३॥ आखुः | परशुः ॥३३॥ हरिमितयोर्हुवः ॥ ३४ ॥ हरिद्रुः | मितद्रुः ॥ ३४ ॥ शते च ॥ ३५ ॥ शतद्रुः ॥ ३५ ॥
( २६ ) लंघिहिभ्यां कुरनयोर्नलोपश्च । लङ्घति गन्तुं शक्नोतीति लघुः स्वल्पो वा । अस्यैव बालमूललघ्वसुरालमङ्गुलीनां वालोरत्वमापद्यत इति वार्तिकेन रेफः । रघु राजविशेषः । बंहते वर्धतेऽन्येभ्य इति बहुः।
प्रचुरः सङ्ख्या वा ॥
( ३० ) ऊर्णे त्याच्छादयति या सा ऊरुर्जङ्घा । कुप्रत्यये नुभागलीपः ॥ ( ३१ ) ऊर्णुधातोः कुप्रत्ययस्तस्मिन् नुभागलोप ऊकारस्य ह्रस्वत्वं चऊ त्याच्छादयत्यल्पा नित्युरु महत् ॥
(३२) श्लिष्यति पदार्थैः सह सम्बध्यते स श्लिकुः । परवशो ज्योतिषं वा ॥
( ३३ ) आसमन्तात्खनति भूमिमित्या खुषको वराहो वा । परान् शत्रून शृणाति हिनस्ति येन स परशुः । शस्त्रभेदः कुठारो वा पृषोदरादित्वादकारलोपे पूर्वार्थ एव पर्शुरपि दृश्यते ॥
(३४) हरिणाश्वेन वा द्रवति गच्छतीति हरिदुः । दारुहरिद्रा वा । मितं परिमितं द्रवतीति मितद्रः शोभनगमनो वा ॥
(३) शतधा बहुप्रकारैर्द्रवति गच्छतीति शतद्रुः
: । नदीभेोगङ्गा वा । अच बाहुलकात्केवलादपि द्रुधातोः कुप्रत्ययो दृश्यते । यं द्रवन्ति कार्यार्थं प्राणिनः प्राप्नुवन्तीति स दुर्वृक्षः शाखा वा । द्रवः शाखा अस्मिन् सन्तोति द्रुमो वृक्षः (द्युद्रुभ्यां मः ) इति सूत्रेण मत्वर्थी यो मः प्रत्ययः ॥
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पा० १
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१३
खरुङ्कुपीयुनीलङ्गुलिगु ॥ ३६ ॥ मृगय्वादयश्च ॥ ३७ ॥ मृगयुः । देवयुः । मित्रयुः ॥ ३७ ॥
( ३६ ) खरु इत्येवमादयश्शब्दाः कुप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । खनधातोः कुर्नम्य रः खनति शरीरमिति खरुः कामः । दन्तः संहर्ता दर्पेऽश्व वा । श्वेतार्थे तु वाच्यवत् यथा खरुरियं ब्राह्मणी । खरु कुलम् खरुः पुमान् । य दृष्ट्वा शङ्कते सन्दिग्धो भवतीति तत् शङ्कु विषम् । कीलं शर संख्या वृक्षभेदी जलभेदः पापं स्थाणुर्वा । पिवति पाति वा स पीयुः कालः काका वा । कुप्रत्यये धातोरोकारादेशो युगागमश्च । नितरां लङ्गति गच्छतीति नीलङ्गुः । क्रिमिजातिभ्रमरः पुष्पं वा । कुप्रत्यये उपसर्गस्य दीर्घत्वम् । सर्वच लगति संगच्छते तत् लिग चितं वा । लगे धातोरुपधाया इत्वम् । बाहुलकात्-खज्जतिगमने विकला भवतीति पङ्गुः । गतिहीना वा कुप्रत्यये खज्जधातोः पङ्गादेशः । स्वगन्धेनान्यगन्धान् हन्तीति हिङ्गुर्वणिग्व्यम् ॥
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(३०) मृगयुप्रभृतयः कुप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते मृग, देव, मित्र, कुमार, अध्वर इत्येतेषूपपदेषु या प्रापण इत्यस्मात् कुप्रत्ययो भवति । मृगान् याति प्राप्नोतीति मृगयुव्याधः । देवान् विदुषो याति स देवयुधर्मिकः । मित्रान् यातीति मित्रयुकव्यवहारवित् । कुमारावस्थां यातीति कुमारयुः राजपुत्रो वा । अध्वरं यज्ञं यातीत्यध्वर्यु याजकः । अध्वरस्यान्त्यलोपश्च बहुलवचनात् — कोहयति विस्मापयतीति कुहुः । यस्यां चन्द्रो न दृश्यते सामावास्या वा कुहूः । पण्डति गच्छतोति पाण्डुः रङ्गविशेषो राजविशेषो वा । पीलति प्रतिष्ठभ्नोति निरुणद्धि जीवानिति पीलुईस्ती | वृक्षः काणुः परमाणवः पुष्पाणि वा । मंजिः सौत्रो धातुस्तस्मात् कुः । मञ्जति चित्तं प्रसादयतीति मञ्जु शोभनम् । एवं निघण्टु पलाण्डु कर्करेटु करेटु डमरु प्रभृतयः शब्दा अप्यत्रैव द्रष्टव्या आकृतिगणत्वादस्य ॥
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१४
उणादिकोष। ॥
मन्दिवाशिमथिचतिचङ्ग्यशिकम्य उरच् ॥३८॥ मन्दुरा। वारा । मथुरा । चतुरः । चङ्कुरः । अङ्कुरः ॥ ३८॥
व्यथेः सम्प्रसारणं धः किञ्च ॥ ३९ ॥ विधुरः ॥ ३९ ॥ मकुरदर्दुरौ ॥ ४०॥ मधुरादयश्च ॥ ११॥ मधुरः । कर्बुरः । बन्धुरः।
(३८) मन्दते स्तौति माति वा यस्यां सा मन्दरा । अश्वशाला वा । वाश्यते शब्दं करोतीति वाशुरा रात्रिवी । मति विलोडयतीति मथुरा नगरी वा । ___ चतते याचते स चतुरो दक्षः कुशलो वा । चङ्कः इति सौत्रो धातुः। चङ्कति सर्वता भ्रमति येन स चङ्कुरो रथो वा । अक्यते लक्ष्यते निःसृतं दृश्यते सोऽङ्कुरो वीजोत्पादो वा । अत्र खजूरादिवक्ष्यमाणगणेन ऊर प्रत्ययेऽडकर इयपि । अर्थः स एव ॥
(३६) व्यथते बिभेति यस्मात् स विधुरोऽत्यन्तवियोगः शरीरत्यागो वा । संप्रमारो सति गुणनिषेधाय कित्वम् । बाहुलकात्यकारस्य धकारो न तेन विथुर इत्यपि मिटुं भवति । विथुरश्चौरो दुष्टो वा ॥
(४० ) मरदर्दराबुर चप्रत्ययान्ती निपात्येते । मङ्कतेऽनङ्कगेति येन स मकुरो दर्पणो वा । मङ्कधातोर्नलोपः । बाहुलकाद्धातोरकारभ्योकारे कृते दर्पणार्थ एव मुकुर इत्यपि सिद्धम् । दृणाति विदारयत्युष्णमिति दर्दुरो मेघो मण्डूको वाद्यभेदः पर्वतभेदो वा । उरचि दृधातोर्द्ववचनमभ्यासस्य रुगागमो धातोष्टिलोपश्च निपात्यते ।
(४१. ) मदगुरप्रभृतयः शब्दा उरजन्ता निपात्यन्ते । माद्यति दृष्यतोति मद्गुरो मत्स्यभेदो वा । धातो गागमः कबते वर्णविशेषो भवतीति स कर्बुरः श्वेतो दष्टो वा धातोरुमागमः । बध्नाति माईवेन स बन्धुरो नमः सुन्दरो वा । खजूरादित्वादूरप्रत्यये बन्धूरोपि उक्तार्थ एव । चिनोत्येकी
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पा० १
१५
कुक्कुरः । कुकुरः॥ १३ ॥ असेरुरन् ॥ ४२ ॥ असुरः॥ ४२ ॥ मसेश्च ॥ ४३ ॥ मसुरा ॥ ४३ ॥ शावशेराप्ता ॥ ४४ ॥ श्वशुरः ॥ ४४ ॥ अविमह्योष्टिषच ॥ ४५ ॥ अविषः । महिपः ॥ ४५॥
अमेर्दीर्घश्च ॥ ४६ ॥आमिषम् ॥ १६ ॥ करोति स चिकुरः। अत्र धातोः कुगागमः । कोकत आदते परपदार्थमिति कुकुरः कुकुरः श्वा । एकार्थो । पक्षान्तरे कुगागमोनिपात्यते अतिनिरन्तरं गच्छतीति आतुरोऽशान्तः । धातोरादौ दीर्घः । वान्ति मृगान प्राप्नुवम्ति यया सा वागुग मृगबन्धनी मृगबन्धनार्थं जालम् । अत्र धातोगुगागमोनिपात्यते । शक्नोति तरितुमिच्छति शकुलोमत्स्यः । वङ्कतेकुटिलो भवतीति वकुलो वृक्षभेदी वा । अवोभयत्र प्रत्ययरेफस्य लत्वम् । वड्के लापश्च ॥
(४२) अस्यति प्रक्षिपति धर्म शुभगुणांश्च सासुरः । मेघोदर्जनादिवी । नित्करणमादादात्तस्वरार्थम् ॥
(४३) मस्यन्ति सुष्ठ तया परिणमन्ते ते मसुरा द्विदलविशेषाः । अचैव पञ्चमपादे मसधातोरूरन प्रत्यये मसूर इत्यपि सिद्धम् । एकार्थाविमौ द्विदलान्नेषु मसूर इति प्रसिद्धम् ॥
(४४) शु इति शीघार्थवाचिन्युपपद प्राप्तो गम्यमानायां अशधातोरन शु शीघ्रमश्नुत आप्नोति जामाता य स श्वशुरः । दम्पत्योः पिता ॥
(४५) अवन्ति नद्यो गच्छन्ति यस्मिन् स अविषः समुद्रः । महति पूजयति स्वपुरुषार्थेन इति महिषो महान राजा वा तद्योगान्महिषी राज्ञी पशुविशेषो वा । अवति प्रोणाति प्राणिन इत्यविषो नदी वा ॥
(४६) टिषच । असन्ति गच्छन्ति येन तदामिषं मांस वा । अथवाऽमन्ति रोगिणो भवन्ति येन भक्षितेन तदामिषम् । इत्येकार्थः ।
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१६
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उणादिकोषः ॥
रुहेर्वृद्धिश्च ॥ ४५ ॥ रौहिषम् ॥ ४७ ॥ तवेर्णा ॥ ४८ ॥ ताविषी । तविषी ॥ ४८ ॥
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नञि व्यथेः ॥ ४९ ॥ श्रव्यथिषः ॥ ४९ ॥ किलेर्बुक् च ॥ ५० ॥ किल्बिषम् ॥ ५० ॥
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इषिमदिदिखिदिछिदिभिदिमन्दिचन्दितिमिमिहि मुहिमुचि रुचिरुधिबन्धिशुषिभ्यः किरच् ॥ ५१ ॥ इषिरः । मदिरा । मुदिरः । खिदिरः । छिदिरः । भिदिरम् । मन्दिरम् । चन्दिरम् | तिमिरम् |
(४०) टिषच् रुहन्त्युत्पद्यन्ते यानि तानि रौहिषाणि तृणानि । रोहिषो मृगभेदा वा ॥
( ४८ ) तव इति सौत्रो धातुस्तस्माद्विषच् णिद्विकल्पेन भवति तवतीति ताविषी तविषी नदी बलं सेना भूमिव ॥
( ४६ ) न व्यथत इत्यिव्यथिषः समुद्रः सूर्येौ वा । अव्यथषी पृथिवो राजिव ॥
(५०) क्लिति क्रीड़ति विचारशून्यतया कार्येषु प्रवर्तते येन तत् किल्विषं पापम् ॥
( ५१ ) इत्यादि षोडश धातुभ्यः किरच् । इच्छतोष्ट' साध्नुवन्त्यनेनेति' इषिरोऽग्निः । माद्यति मत्तो भवति यया स । मदिरा सुरा मद्यम् । मोदी मुदिर: कामुको वा । मोदन्तेऽनेनेति मुदिरो मेघः । खिद्यति येन स खिदिर: चन्द्रमा वा । छिनत्ति येन स छिदिरोऽसिः । कुठारो वा । भिर्नाति येनेति भिदिरं वज्रम् | मदन्ते स्तुवन्ति स्वपन्ति वा यस्मिंस्तन्मन्दिरं गृहं नगरं वा । चन्दन्त्याहा दयन्ति येन स चन्दिरश्चन्द्रमा हस्ती वा । मत्या भवत्यस्मिन् तत्तिमिरम् | नेत्ररोगो वा । यो मेहयति
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पा० १॥
मिहिरः । मुहिरः । मुचिरः । रुचिरम् । रुधिरम् । बधिरः । शुषिरम् ॥ ५१ ॥
अशेनित् ॥ ५२ ॥ अशिरः ॥ ५२ ॥
अजिरशिशिरशिथिलस्थिरस्फिरस्थविरखदिराः॥ ५३ ॥ सेचयति पृथिवों मेघजलेन स मिहिरः । सूर्यो वा । मुह्यति यस्मै वा यो मुह्यति स मुहिरः । काम्य: पदार्थोऽसभ्यो जनो वा । यो मुञ्चति स्वपदार्थमन्येभ्यो ददाति स मुचिरो दानशीलो वा । यद्रोचते प्रीतिकरं भवति तमुचिरं शोभनम् । रुचिरं वस्त्रं रुचिरः पुचो रुचिरा कन्या वा । रुध्यते चर्मणा यतदधिरं शोणितम् । बध्यते शब्दश्रवणानिरुध्यते स बधिरो श्रोत्रविकलः । किलच प्रत्यस्य कित्वादनिदितामिति नलापः । शुष्यन्ति पदार्था येन तच्छुषिरं छिद्रमाकाश वा !
( ५२ ) अश्नाति यः पदार्थान सोऽशिरोऽग्निः । धृष्टतयाऽश्नाति वाऽशीरो दुर्जनः ॥
(५३ ) अजिरादयः सप्त किरच प्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । अन्ति गच्छन्ति यच तजिरमङ्गनम् । गृहाग्रभागः । आंगन इति प्रसिद्धम् । शति दिनाल्पत्वाच्छीघ्र गच्छति तििशरमूर्हिमं शीतलं वस्तु वा । अर्थात विमुचति पुरुषार्थीमति शिथिलः पुरुषः । शिथिला कन्या । शिथिलानि तृणानि मदनीत्यर्थः । धातोरुपधाया इत्वं रेफस्य लोपः प्रत्ययस्थस्य रेफस्य लत्वं च निपात्यते । गमनागमनिवृत्या तिष्ठतोति स्थिरं निश्चलम् । धातोराकारलाप: । स्फायते प्रवर्द्धते स स्फिरः । प्रभावो वा । आयभागस्य लोपो निपातनम् । गमनेऽसमर्थत्वातिष्ठतीति स्थविरः । वदो भिक्षुको वा । धातोवुक हस्वत्वञ्च । खदति हिनस्तीति खदिरः । वृक्षभेदो वा ॥ बाहुलकात-यः शेते स शिविरः शेरते यस्मिन् तत् शिविरं स्थानं वा । शोङ् धातोर्वक इस्वत्वञ्च ॥
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उणादिकोषः ॥
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सलिकल्यनिमहिभडिभण्डिशण्डिपिण्डितुण्डिकुकिभूभ्य इलच्॥५४॥ सलिलम् । कलिलम्। अनिलः । महिलः।भडिलः। भण्डिलः। शण्डिलः। पिण्डिलः। तुण्डिलः कोकिलः।भविलः॥५४
कमेः पश्च ॥ ५५ ॥ कपिलः ॥ ५५ ॥ गुपादिभ्यः कित् ।। ५६ ॥ गुपिलः । तिजिलः । गुहिल म्॥
(५४ ) सल्यादिभ्य इलच् । सलति गच्छतोति सलिलम् । जलं वा । कलनि सङ्ख्याति तत् कलिलम् । मिश्रं दुःखेन साध्यं गहनामति वा । अनिति जीवति जीवति वा स अनिलः । वायुा । यो मयति यं महयन्ति येन वा मह्यते पूज्यते स महिलः पुमान् । महिलं स्थानम् । महिला स्त्री वा । बाहुलकादिलच् इकारस्यैकारे सति महेला स्त्री इत्यपि सिद्ध भवति । भड इति सौत्रो धातुः । भडति हिनस्तीति डिलः शूरो वा । भडति परिचरति स्वामिनमिति भडिलः सेवकः । इत्यादि । भण्डयति परिहसति येन म भण्डलः । कल्याणं वा । शण्डति रोगयुक्तो भवतीति शाण्डिलः। ऋषिविशेषो वा ।यस्य गोचापत्यं शाण्डिल्य इति प्रसिद्धम् । पिण्डति सङ्घातं करोति स पिण्डिलः गणका वा । तुण्डति तोड़ति पृथक् करोति स तुण्डिलः । उच्चनाभिर्जनो वा । कोकत आदतेऽसौ कोकिलः । पक्षिविशेषो वा । यो भवति स विलः । भवितुं योग्यो वा । बाहुलकात । कुटति कौटिल्यं करोति स कुटिलः करकमी वा ॥
(५५) कमेरिलच मस्य पः कामयतेऽसौ कपिलः । वर्णभेदो मुनिविशेष वा ॥ (५६) इलचः कित्वं गुणनिषेधार्थम् । गोपायर्यात रक्षति प्रजा इति गुपिलः । राजा वा । तेजते तोक्षणी करोति वा तिज्यते सह्यते सर्वैः स तिजिलः । चन्द्रमा वा । गूहते बृक्षराच्छादितो भवतोति गुहिलं वनं वा अन्योप पूजितमादत योग्यः पूजिला विद्वान् । शोषयति समिति शुषिलो वायुः । देवते प्रकाशयति धीमति देविलो धार्मिको वा।
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पा० १॥
१६
मिथिलादयश्च ॥ ५७ ॥ मिथिला ॥ ५७॥
पतिकठिकुठिगडिगुडिदंशिभ्य एरक् ॥५८॥ पतेरः । कठेरः। कुठेरः । गडेरः । गुडेरः । दशेरः ॥ ५८॥
कुम्बेर्नलोपश्च ।। ५९ ॥ कुबेरः ॥ ५९ ।। शदेस्तश्च ॥ ६० ॥ शतेरः ॥६॥
मूलेरादयः ॥ ६१ ॥ मूलेरः । गुधेरः। गुहेरः । मुहेरः॥६१॥ ( ५७ ) मिथिलादय इलच् प्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । मथ्यते या सा मिथिला मथ्यन्ते शत्रवो यत्र सा मिथिला विदेहानां राज्ञां नगरी वा । अकारस्येत्वं निपात्यते। गच्छन्ति प्राप्नुवन्ति यां सा गतिला वेत्र लता वा। गमेस्तकारान्तादेशः । या तति कृच्छ ण जीवति सा तकिला । नलोपः । आपधिर्वा । चमति भक्षयतीति चण्डिला काचिन्नदी वा। धातोढुंगागमः । यः पति निरन्तरं गच्छति स पथिलः पथिको वा । इत्यादि ।
(५८) पतति गच्छतोति पतेरो गन्ता पक्षी वा । कठति कृच्छण जीवतीति कठेरः । कारागारिको वा कुठेरोषि कृच्छ जीवी पाशो वा । कटहर इतिप्रसिदुम् । गडति सिञ्चतीति गडेरा मेघो वा । गुडति रक्षति स गुडेरी रक्षकः । दशति दंष्टाभ्यामिति दशेरः । हिंसको जीवो वा। अनुनासिकलापः ॥
(५६) कुम्बत्यन्यानाऽऽच्छादयति कुबेरः । धनाध्यक्षो विद्वान वा ।इदि त्वादप्राप्तो नलोपः एक विधीयते ॥
(६०) शीयते शातर्यात दुःवाकरोतीति शतरः शची । धातोर्दकारस्य तकारादेशः ॥
(६) मलेरादय एरक् प्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । यो मूलति सर्वोपरि तिष्ठति स मूलेरः । भूपतिर्वा । गुर्धात सर्वतो वेष्टयतीति गुधेरः । रक्षको वा । गूहते येन स गुहेरः । लोहघातनो वा । मुह्यति विक्षिप्तइव भवतीति मुहेरी मूर्खः । मुह्यत्यनेन वृषभादिरिति वा मुहेरः कणमदनादौ वृषभमुखबन्धनम् । मुहेर इत्येव भाषायां प्रसिद्धम् ॥
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उणादिकोषः ॥
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कबेरोतच पश्च ॥ ६२ ॥ कपोतः ॥६२ ॥ भातेर्डवतुप् ॥ ६३ ॥ भवान् ॥ ६३॥ कठिचकिभ्यामोरन् ॥ ६४ ॥ कठोरः । चकोरः ॥ ६४॥ किशोरादयश्च ।। ६५ ।। किशोरः । सहोरः ॥ ६५॥
कपिगडिगण्डिकटिपटिभ्य ओलच् ॥६६॥ कपोलः ।गडोलः गण्डोलः । कटोलः । पटोलः ॥ ६६ ॥
(६२) श्रोतच प्रत्ययो बकारस्य पकारः । कबते विचित्रवर्णो भवतीति कपोतः । पक्षिभेदो वा ।
(६३ ) भाति दीप्तो भवति दीपति वा स भवान् । सर्वनामवाचकः सर्वनामसंज्ञकश्चाऽयं शब्दः ॥
(६४ ) कठति कृच्छ ण जीवति येन स कठोरः कठिनः पूर्णी वा । चकते तृप्यति स चकोरः पक्षिविशेषो वा ॥ ( ६५ ) किशोरादय ओरन् प्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । किंशृणाति हिनस्तीति किशोरः । अश्वशावको वा ।किमो मलोपः शृधातोष्टिलोपश्च निपातनम् । सोढुशीलः सहोरः साधर्वा । गायति शब्दं करोतीति गौरः । अरुणे श्यते पोते निर्मले च वालिङ्गः । गौरः कुमारः । गौरी कन्या । गौरं कुलम् । गौरं कमलम् ॥ गौरः सर्षपः । इत्यादि। गैधातोराकारादेशे कृत पोरना सह वृध्दोकादेशः। आयादेशस्त्वात्वाप्राप्तौ भवति ।
(६६) कम्पते चलति स कपीलः । वदनैकदेशो वा । सूत्रेनिर्देशादेव नलोपः । गति सिंचति स गडीलः । गण्डति स गण्डोलः । वदनैकदेशो वा । गडोलगण्डोलौ गुडकपर्यायौ वा । कति वर्षत्यावृणोति वा स कटोलः कटुश्चालो वा । पति गच्छति स पटोलः। फलविशेषो वस्त्रविशेषो
। बाहुलकात-कण्डति मादयतीति कण्डोलः । चाण्डालो वा ॥
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पा० ॥
मीनातेरूरन् ॥ ६७ ॥ मयूरः ॥ ६७॥ स्यन्देः संप्रसारणं च ॥ ६८ ॥ सिन्दूरम् ॥ ६८॥
सितनिगमिमसिसच्यविधाशिभ्यस्तुन् ॥ ६९ ॥ सेतुः। तन्तुः । गन्तुः । मस्तुः। सक्तः । ओतुः । धातुः । क्रोष्ट : ॥ ६९॥
वसेरगारे णिञ्च ॥ ७० ॥ वास्तु ॥ ७० ॥ पः किञ्च ॥ ७१ ॥ पीतुः ॥ ७१ ॥
( ६० ) मीनाति हन्तीति मयूरः । पक्षिविशेषो वा । धातोर्गुणादेशः । बहुलवचनात-मोनातेरावनिषेधः ।
(६८) स्यन्दते प्रस्रवति तत् सिन्दूरम् । रक्तचूर्ण वृक्षभेदो वा । इत्यादि । ऊरन् प्रत्यये यकारस्य संप्रसारणम् ।।
( ६६ ) सिनोति बधनातीति सेतुः । समुद्री वा । (तितुतथ० ) इतीट् निषेधः । तनोति विस्तृणातीति तन्तुः। सूत्र वा। वरामुत्तमा विद्यां तनोति स वरतन्तुर्मुनिः। वरतन्तुना प्रोक्तो वारतन्तबीयो ग्रन्थः । गच्छतीति गन्तुः । पथिको वा। समन्ताद् गच्छति ममतीति आगन्तुरभ्यागतो वा । मर्यात परिणमतीति मस्तुः । दर्धान निस्सृतमुदकं वा । सच्यन्ते समवेताः क्रियन्ते ते सक्तवः । पक्वयवादिचणं वा । अति रक्षणादिकं करोति स ओतुः । विडालो वा । अव धातावरत्वर इति सूत्रेणोपधावकरायोरूठ । दधाति धरति पोति वा स धातुः । अश्मनो विकारः । सुवर्णादिः शरीरस्थवातादि । क्रोशत्याच्यति रोदिति वा स क्रोष्टुः । क्रोष्टा शृगालो वा ।
(00) वसन्ति प्रापिनो यत्र तद्वास्तु गृहं वा । अगारादन्यत्र णित्वाभावः । वसन्ति येन तद्वस्तु दव्यं वा।
(०१) पिबत्युदकादिकं पाति प्राणिनो रक्षति वा स पीतुः । अग्निः सूर्यो वा । कितत्वादीत्वम् ॥
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उगादिकोषः ॥
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अत्तैश्च तुः ॥ ७२ ॥ ऋतुः ॥ ७२ ॥
कमिमनिजनिगाभायाहिभ्यश्च ॥ ७३ ॥ कन्तुः । मन्तुः । जन्तुः । गातुः । भातुः । यातुः । हेतुः ॥ ७३ ॥
चायः की ॥७४ ॥ केतुः ॥ ७४ ॥
आप्नोतेईस्वश्च ॥ ७५ ॥ अपतुः ॥ ७५ ॥ रुनः कतुः ॥७६ ॥ क्रतुः ॥ ७६ ॥ एधिवह्योश्च तुः ॥ ७७ ॥ एधतुः । वहतुः ॥ ७७ ।।
( ०२ ) चकारातः किद्भवति पुनः पुन:च्छति गच्छत्यागच्छतीति ऋतुः । वसन्तादिः स्त्रीणां रजःपतनकालो वा ॥ - (०३ ) कामयते येन स कन्तुः काश्चित्तं वा । मन्यते जानाति वा येन स मन्तुः । अपराधो वा । जन्यते शरीरादिधारणेन प्रादुर्भवति स जन्तुजीवः । गायति षड्जादिस्वरानाऽऽलापयति स गातुर्गाथकः । गाते गच्छतोति गातुः पथिको वा । भृङ्गगन्धा वा । भाति प्रकाशयतीति भातुः सूर्यो वा । याति प्रापयतीति यातुः । अध्वगः कालो वा । हिनोति येन यो वा कार्यरूपेण वर्धतेऽसौ हेतु : कारणम् ॥
(०४ ) चायते पूजयति । नशामति श्रावति वा स केतुर्ग्रहः । पाताका वा । धूमकेतुरुत्पात: ॥
( ०५ प्राप्नोति व्याप्नोति सर्वान पदार्थानिति, अप्तुः । शरीरं वा । तप्रत्यये आप्लधातोई स्वत्वम् ॥
( ०६ ) कृञ् धातोः कतुः प्रत्ययो भवति यः क्रियते यया करोति वेति क्रतुः । प्रज्ञा यज्ञो वा कित्वाद् यण गुणाऽभावश्च ॥
(७) एधते बर्द्धतेऽसावेधतुः । पुरुषो वा । वहति भारमिति वहतुः । अनड्वान् वा । चित्करणमन्तोदात्तार्थम् ॥
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पा० १॥
जीवेरातुः ॥ ७८ ॥ जीवातुः ॥ ७८ ॥ आतकन् वद्धिश्च ॥ ७९ ॥ जैवातकः ॥ ७९ ॥
कृषिचमितनिधनिसर्जिखर्जिभ्य ऊः स्त्रियाम् ॥८॥कर्षुः । चमः । तनूः । धनः । सर्जूः । खजूः ॥ ८०॥
मृजेर्गुणश्च ॥ ८१ ॥ मर्जूः ॥ ८१ ॥ खडेटुंडा ॥ ८२ ॥ खड्डूः । खडूः ॥ ८२ ॥ वहेर्धश्च ॥ ८३ ॥ वधूः । ८३ ॥ कषेश्छश्च ॥ ८४ ॥ कच्छुः ॥ ८४ ॥ ( S८ ) जीव्यते येन यो वा जीवति स जीवातुः । जीवनमौषधं वा ।।
(SE) जीवधातोरातृकन प्रत्ययस्तस्मिन सति वृद्धिश्च भवति। यो जीवति पूणावस्थापर्यन्तं स जैवातृक आयुष्मान निशाकरो वा ॥
(८०) कृष्यादिभ्य ऊः प्रत्ययः कर्षत्याकर्षति पदार्थानिति कर्ष : शुष्कगोमयोऽग्निर्नदी वा । चमति भक्षयतीति चमः । शत्रभक्षिणी सेना वा। तनोति कार्याणि येन सा तनः शरीरं वा । दन्ति धनमर्जयति स धनः शस्त्रं वा । सीत) उपार्जति कार्याणीति सज: वैश्यो वा । खर्जति पीड़यतीति खजू: । कण्डूवी ॥
(८१) माटि शोधयतीति मज: । शुद्धिवा । ऊप्रत्ययस्याकितवानित्यापि प्राप्ता वृद्धि गुणेन बाध्यते ।।
(८२) खडति भिनतोति खड्डूः । खडूः । बाहुजङ्घयोराभूषणं मृतशय्या वा।
(८३ ) वहति सुखानि प्रापयतीति वधः । नवोढा स्त्री वा ॥
( ८४ ) कति हिनस्ति दुःखयतीति कच्छूः पामा वा ! खाज इति प्रसिद्धा । पकारस्य छकारः ॥
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उणादिकोषः ॥
मित्कशिपद्यर्तेः॥८५॥ काशः । पादूः। आरूः ॥ ८५ ॥ अणो डश्च ॥ ८६ ॥ पाडूः ॥ ८६ ।। लम्बेर्नलोपश्च ॥ ८७ ॥ अलाबूः ॥ ८७॥ के श्र एरङ् चास्य ॥ ८८ कशेरूः ॥ ८८ ।। त्रो दुट् च ॥ ८९ ॥ तर्दूः ॥ ८९ ॥ दरिद्रातेर्यालोपश्च ॥ ९॥ दईः ॥ ९० ॥ नृतिशृध्योः कः ॥ ९१ ॥नृतः । शृधः॥९१ ॥
(८५) कश्यादिभ्य ऊ णिद्वति । कष्टे गच्छति शास्ति वेति काशः । विकलधातर्जनः । शक्तिी पद्यते गच्छति यया स पादः । उपा. नहीं वा । ऋच्छति प्राप्नोति स आरूः पिङ्गला वा ॥
(८६) अणति शब्दयतीति आडूः । णस्य डः । जलगामि द्रव्यं वा॥
(८०) ऊप्रत्यये लम्बधातोनलोपा भवति । न लम्बतेऽधो न स्रवति गच्छति सा अलाबूः । तुम्बी वा।
(८८ ) ककारोपपदात शृधातोरूप्रत्ययस्तस्मिन् प्रकृतेरेडादेशः । कष्ट शास्ति स कशेरूः । तृणकन्दं वा । वहुलवचनादूप्रत्ययस्य इस्वे कृते कशेरुरिति हस्वान्तोऽपि दृश्यते ॥
(८६) तति येन यया वा स तः दारुहस्तः पुरुषो यष्टिवा । तृधातादंगागमः ॥
(६०) दरिद्राधातोरूप्रत्यये (इआ ) इत्येतयोर्वर्णयोर्लीपः । दरिद्राति दुर्गातं करे.तोति दद् कुठभेदो वा । मृगटवादित्वात् (रि) आ ) इत्यनयोलीपे दरित्याप सिद्धम् । अत्र सूत्रपि (रि आ ) इत्येतयोलीपे दरिति भवति ॥ ___(६१) नृत्यतीति नूतनर्तकः शर्धते कुत्सितं शब्दयोति शृधः अपानवायुवी । प्रत्ययस्य कित्वाद् गुणनिषेधः ॥
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पा० १॥
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ऋतेरम् च ॥ ९२ ॥ रतूः ॥ ९२ ॥ अन्दूहम्फूजम्बूकम्बूकफेलूकर्कन्धूदिधिषः ॥ ९३ ॥ मृग्रोरुतिः ९४ ॥ मरुत् । गरुत् ॥ ९४ ॥ यो मुट्च ।। ९५ ॥ गर्मुत् ।। ९५ ॥ हृषेरुलच् ॥ ९६ ।। हर्षुलः ॥ ९६ ॥
(६२) ऋत इति सौचो धातुः ऋतीयते घृणां करोतीति रतः सत्यं दिव्यनदी वा । धातोरमागमः ॥
(६३) अन्दूप्रभृतयः शब्दाः कूप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । अन्दति बध्नाति येन यया वा सा अन्दूः हस्तिबन्धनी शृङ्खला वा । जंजीर इति प्रसिद्धा । दृम्फ त्युत्कृष्टं क्लेशं ददातीति दृम्फूः सर्पजातिवी । जमन्ति भक्षयन्ति यां सा जम्बूः वृक्षविशेषजातिवी । धातोर्तुगागमः । बाहुलकादूप्रत्ययस्य हस्वे कृते जम्बुरियाप दृश्यते । कामयते स कम्बूः परद्रव्यापहारी वा । धातोर्बुक । कर्फ श्लेष्माणं लात्याददातोति कफेलः । ओषधिविशेषा वा । एकारान्तत्वं कफशब्दस्य निपातनम् । कर्क कण्टकं दधाति धरतीति कर्कन्ध : । वदरीफलं वा । कित्वादाकारलोपः । उपपदस्य नगागमो निपातनम् । दिधिं धैमिन्द्रियदौर्बल्यात स्यति त्यजतीति दिधिषः । पुनभू वी निपातनात् षत्वम् ।
(६४ ) म्रियते मारयति वा स मरुत् मनुष्यजातिः पवनो वा। गिरति निगलतीति गरुत् पक्षो वा ॥
(६५ ) गिति येन तत् गर्मुत सुवर्ण तृणजातिभेदो वा ॥
(६६) हष्यति तुष्टो भवतीति हषलः । मृगः कामी वा । बाहुलकातचटति वर्षत्यावृणोति वा स चटुलः शोभना वा ॥
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२६
उणादिकोषः ॥
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हसरुहियुषिभ्य इतिः ।। ९७ ॥ हरित् । सरित् । रोहित्। योषित् ।। ९७ ॥ . ताडेर्णिलक च ॥ ९८ ॥ तडित् ।। ९८ ॥ शमः ।। ९९ ।। शण्ढः ॥ ९९ ॥ कमेरठः ॥ १०० ॥ कमठः ॥ १० ॥ रमेवृद्धिश्च ।। १०१ रामठम् ।। १०१ ।। शमेः खः ॥ १०२ ॥ शवः ।। १०२ ॥ करोष्ठः ।। १०३ ॥ कण्ठः ।। १०३ ।।
(६७) आहरति गृह्णाति द्रव्यमिति हरित दिक् वर्णस्तृणमश्वविशेषो वा । सरति गच्छतीति सरित् नदी वा।रोहति प्रादुर्भवतीति रोहित लताविशिष्टा हरिणी वा । युष इति सोचो धातुः । अथवा जुष इत्यस्य वर्णविकारेण पाठः । जुष्यते सेव्यते प्रीणयति वा सा योषित स्त्री वा ॥
(८) तोंडयति पीडयतीति तडित् । विद्युद्वा । प्रत्ययक्षलणेन गिलोपेऽपि वृद्धिः स्यादिति लुग्विधीयते ॥
(EC ) शाम्यति शान्तो भवतीति शण्डः स्वन्तत्रो वृषभः । सांड इति प्रसिद्धः । नपुंसकं वा ।। ॥
(१०० ) कामयतेऽसी कमठः कच्छपो वा। कमठमिति भाण्डभेदो वा। बाहुलकात -जीर्यत्यवस्थाहीनो भवतीति जरठः पाण्डरको वा। शमठः । शान्तो वा।
(१०१) रमतेऽस्मिन्निति रामठं हिगुर्वा । अठ प्रत्यये रमधातोदिः ॥
( १०२ ) शाम्यतीति शङ्खः । निधिभेदः । जलजं ललाटास्थि । बहुलवचनात-खकारस्येत्संज्ञा न भवति ॥
( १०३ ) कति येन शब्दं करोतीति कण्ठः । गली ध्वनि ।
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पा० १॥
कलस्तृपश्च ॥ १०४ ॥ तृपला ॥ १०४ ॥ शमेवश्च ॥ १०५ ॥ शवलः ॥ १०५॥ वृषादिभ्यश्चित् ॥ १०६ ॥ वृषलः ॥ १०६ ॥ कमेर्बुक ॥ १०७ ॥ कम्बलः ॥ १०७॥
( १.०४ ) तृपधातोः कलप्रत्ययः । तृप्यति यया सा तृपला लता वा । अत्र सूजे चकारग्रहणात् तृफधातोपि कलप्रत्ययस्तेन तृफला इत्यपि सिद्धम् । तृफला त्रिफला इत्योधिविशेषपर्यायौ । बाहुलकात-काम्यतेऽसौ कमलः । कमलं पद्म वा। उदकं ताम्रमौषधं च। मृगभेदः कमलः । कमला श्रीपतिप्रिया वा । मण्डति भूषयति प्रतिपादति वा स मण्डलः । मण्डलं चक्राकारं देशभेदो बिम्बं कदम्बः कुष्ठं यज्ञभेदः श्वा च । कुण्डति दहतीति कुण्डलम्। वलयं पाशं कर्णभूषणं वा । पति गच्छतोति पटलः । अक्षिरोगस्तिलकं वा । इत्यादि । छ्यति छिनति पराऽभिप्रायमिति छलम् ॥
( १०५ ) शपत्याक्रोति स शवलः वर्णभेदो वा ॥
( १०६ ) वृषादिधातुभ्यः कलप्रत्ययश्चिद्भवति । वर्षति सिञ्चतीति वृषलः शूद्रो वा । तस्य स्त्री वृषली। कोशति श्लिष्यति कोशति व्यवहर्त जानातीति वा कुशलो निपुणः कुशलं क्षेममिति वा । बाहुलकाद्गुणे कोशल इति देशभेदी वा । पलति गच्छति येन तत् पललम् । तिलचर्ण पङ्क मांसं वा। दीव्यत्यर्मिणो विजिगीषतीति देवलो धार्मिकः । सरति सर्वत्र गच्छतीति सरलः । अकुटिल उदारो वा । धावति गच्छति शुद्धो भवति वा स धवलः । श्वेतः शुद्धो वा । धावुधाताबर्बाहुलका दुस्वत्वम् । वृषादेराकृतिगणत्वात् केवलकबलतरलानलजम्मलपेशलमर्दलादयोऽपि शब्दा द्रष्टव्या मुस्थति खण्डयति मोषयति चोरयति वा स मुसलः । मुषलो वा । मुशलं मुसलमिति लोहाग्रभागि कुटनसाधनम् । मुषलश्चौरो वा ॥
( १०० ) काम्यतेऽभीपस्यते यः स कम्बलः । ऊर्णाविकार उदकं वा। कमधातोः कलप्रत्यये बुक ।।
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उणादिकोषः ॥
लङ्गवृद्धिश्च ॥ १०८॥ लाङ्गलम् ॥ १०८ ॥
कुटिकशिकौतिभ्यो मुट् च ॥ १०९ ॥ कुट्मलम् । कश्मलम् । कोमलम् ॥ १०९॥
मृजेष्टिलोपश्च ॥ ११० ॥ मलम् ॥ ११०॥ चुपेरच्चोपधायाः॥ १११ ॥ चपलम् ॥ १११॥ शकिशम्योर्नित् ॥ ११२॥ शकलम् । शमलम् ॥ ११२॥ छो गुग्घ्रस्वश्च ॥ ११३ ॥ छगलः ॥ ११३॥
( १०८ ) लङ्गन्ति प्राप्नुवन्ति, अन्नादिकं येन तल्लाङ्गलम् । हलं वा । बहुलवचनात-कन्दत्या वयात सा कदली । वृक्षभेदः केला इति प्रसिद्धा वा । बाहुलकाद्धातोर्नलोपः ॥
(१०६ ) कुटादिभ्यो विहितस्य कलप्रत्ययस्य मुट् । कुटतीति कुटमलः । बाहुलकात-कुण्डति दहतीति कुण्मलः । किंचद्विकसितपुष्पनाम्नो वा । कष्टे गच्छति शास्ति वा स कश्मलःकश्मलं कल्मष पापं वा । कौतिशब्दयतीति कोमलः । कोमलं मृदु जलं वा । बाहुलकात्-पिङ्क्ते वर्णयतोति पिङ्गलः । वर्णभेदो वा ।
(११० ) यन् मृज्यते शोध्यते तन्मलम् । पुरीषं पापम्। कृपणः पुरुषो वा । मृजधातोष्टिलापः ॥
(१११ ) चोपति मन्दं मन्दं गच्छति स चपलः । क्षणिकं शीघ्र वा । चपला पिप्यली विद्युद्वा । धातोरुकारस्याकारादेशः ॥
(११२ ) शक्नोतीति शकलः खण्डो मत्स्यभेदो वा । शाम्यतीति शमलः । अशुद्ध वा ॥
(११३ ) छ्यति छिनीति छगलः छागो वर्करो वा । धातागुंगागमो हस्वश्च ॥
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पा० १॥
अमन्ताड्डः॥११४ ॥ दण्डः। रण्डा । खण्डः । मण्डः ।। बण्डः । अण्डः । षण्डः। गण्डः । चण्डः। पण्डः । पण्डा ॥ ११ ॥ क्वादिभ्यः कित्॥११५॥कुण्डम् ।काण्डम् ।गुडः। घुण्डः॥११५॥
स्थाचतिमृजेरालज्वालबालीयचः ॥ ११६ ॥ स्थालम् । चात्वालः । मार्जालीयः ॥ ११६ ॥
( १.१४ ) अमिति प्रत्याहारग्रहणाम् । ञ, म, ङ, ण, न इत्येते वर्ण। अन्तेऽस्य तस्माड्डः प्रत्ययो भवति बहुलवचनादित्संज्ञानिषेधः । दाम्यन्त्युपशाम्यनत्यनेन स दण्डः । यष्टिभेदो वा । रमते सौ रण्डा विधवा नारी वा। खण्डतेऽवदीर्यतेऽसौ खण्डः । विभागा मिष्टभेदो वा । खाण्ड इति प्रसिद्धः भिन्नः पदार्थो वा । मन्यते जानातोति मण्डः । मण्डा धात्री समाख्याता मण्डं पक्कौदनोदकम् । बनति शब्दयति सम्झजति वा । स बण्डः । छिन्नहस्तको वा । अन्ति संप्रयोगं प्राप्न वन्ति येन सोऽण्डः प्राण्यङ्गावयको वा । सनोति ददातोति षण्डः । नपुंसको बनं गोपः सङ्घातो वा। गच्छतीति गण्डः । कपोलव्याधिविशेषो वा । चति ददातोति चण्डः हिंसकस्तोवो वा । कोपना स्त्री चण्डी । चडिकोप इत्यस्य घन्तोपि चण्डः क्रोधी । पणायते व्यवहरति स्तौति वा । स पण्डः नपुंसकः पण्डा बुद्धिी । फणति गच्छत्यति फण्डः । पन्था फण्डमुदरं वा ॥
(१.१५) कवर्गादिधातुभ्यो डः किद् भवति । कुति शब्दयत्युपकरोति वा स कुण्डः । पत्यौ जीवति पुरुषान्तरादुत्पन्नः पुत्री जलाधारविशेषो वा । कुण्डा कुण्डिका वा। गवतेऽव्यक्तशब्दं करातीति गुडः । गोल इक्षुपाको वा । घोणते भ्राम्यतीति घुण्डः । भ्रमरो वा । काम्यते जनस्तत्काण्डम् । ग्रन्थैकदेशः । परिमाणविशेषो वाणोऽवसरो वा ॥
(११६ ) तिष्ठन्त्यस्मिन तत्स्थालम् । पात्रभेदो वा । थाल इति प्रसिदुम् । स्थाली सूपादिपचनी । गौरादित्वान् ङीष् । चतधातोवालञ् । चतने याचतेऽसौ चात्वालः चात्वालं यज्ञकुण्डं दी वा । मृजेरालीयच । माष्टो ति मार्जालीयः । विडालो वा ॥
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३०
उणादिकोषः ॥
पतिचण्डिभ्यामाला॥११७॥पातालम् । चण्डालः॥११७॥ तमिविशिविडिमृणिकुलिकपिपलिपश्चिभ्यः कालन् ॥ ११८॥ तमालः । विशालः। विडालः। मृणालम् । कुलालः । कपालम् पलालम् । पञ्चलाः ॥ ११८॥ पतेरङ्गच पक्षिणि ॥ ११९ ॥ पतङ्गः ॥ ११९ ॥ तरत्यादिभ्यश्च ॥ १२० ॥ तरङ्गः । लवङ्गः ॥ १२० ॥
(११० ) पतन्ति गन्ति यत्र स पातालो देशः पादस्य तले वर्तत. इति वा । पातालः पृषोदरादित्वात सिद्धः । चण्डति कुप्यतीति चाण्डालः मातङ्गो वा । चण्डं कुपितमलं भूषणमस्येति समासेऽपि चण्डालः सिद्धः ॥
(११८ ) ताम्यन्ति काञ्जन्ति यं स तमालः वृक्षभेदो वा । विशति सर्वत्रेति विशाल: । विशाला मानिनी भायी विशालः सुन्दरः पुमान् । विशालोजयिनी प्रोक्ता विशालं च बृहद् गृहम् । विडत्याक्रोशतीति विडालः । मार्जारे। वा । स्त्री विहाली। मृति हिनस्तोति मृणालः मृणालं पद्ममूलं वा । कोलति सङ्घातयतीति कुलालः । कुम्भकारो वा । कम्पते येन तत्कपालम् । नृशिरो घटखण्डो वा । पल्यते प्राप्यतेऽसौ पलालः । निष्फलानि ब्रोहितृणानि वा । प्यार इति प्रसिदुम् । पञ्चति व्यक्त करीतोति पञ्चालः । देशविशेषो वा । बहुलवचनात-शोधातोरपि कालन् । श्यन्ति सूक्ष्माणि कार्याणि कुर्वन्त्यत्र सा शाला गृहम् ॥
( ११६ ) पक्षिण्यभिधेये पतधातोरङ्गच प्रत्ययो भवति पतति गच्छतीति पतङ्गः पक्षी पक्षिणीत्युच्यमानेऽपि बाहुलकात पतङ्गः सूर्योऽग्निरश्वः शलभः शालिभेदो वा । इत्यादीनामपि नामानि भवन्ति ।
( १२० ) तरति प्लवत्यनेन स तरङ्गः । जलार्मिर्वस्त्र भङ्गा वा । लुनात्यनेन स लवङ्गः । ओषधिर्वा । तरत्याद्याकृतिगणः ॥
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पा० १॥
विडादिभ्यः कित्।।१२१॥विडङ्गः । मृदङ्गः । कुरङ्गः॥१२१॥ सवृत्रोवृद्धिश्च ॥ १२२ ॥ सारङ्गः । वारङ्गः ॥ १२२॥ गन् गम्यद्योः ॥ १२३ ॥ गङ्गा । अद्गः ॥ १२३ ॥ छापूरखडिभ्यः कित् ॥१२४॥ छागः । पूगः । खड्गः ॥१२॥ भृत्रः किन्नुट् च ॥ १२५ ॥ भृङ्गः ॥ १२५ ॥
( १२१ ) विडत्याक्रोशतीति विडङ्गः । ओषधिविशेषो वा। मृनाति यं स मृदङ्गः । वाद्यभेदो वा । कति विक्षिपीति कुरङ्गः । हरिणो वा । कुरङ्गी हरिणी स्त्रियां गौरादित्वान ङीष् । बाहुलकाद्-ऋकारस्योत्त्वं रपरत्वं च ॥
(१२२ ) सवअभ्यामगच धातोर्वद्धिश्च । सरति सर्वत्र गच्छतोति सारङ्गः । पत्नी हरिणो भगो वा । यो वृणोति गृह्णाति स वारङ्गः खड्गादिमुष्टिवी । बाहुलकात्-नृणाति नयति स नारङ्गः । रसः पिप्यलोवृक्षफलभेदो वा ॥
( १२३ ) गच्छतीति गङ्गा । नदीभेदो वा । अतिवाऽद्यते भक्ष्यतेऽसावद्गः । पुरोडाशो वा । बाहुलकात्-अमगत्यादिष्वित्यस्मादपि गन् । गच्छति प्राप्नोति कर्माणि विषणन वा येन तदङ्गम् । गात्रमुपायः प्रतीकमप्रधानं देशविशेषो वा ॥
(१२४ ) छादिभ्यो गन् किद् भवति । छिनतोति छागः । वर्करो वा। पूयते मुखं येन स पूगः । क्रमुकः फलविशेषः । सुपारीति प्रसिद्धः। समूहो वा। खडति भिनति येन स खड्गः । शस्त्रं गण्डकः-गड़ा इति प्रसिद्धः । बाहुलकात-सेटत्यनाद्रियते स षिड्गः । चञ्चलमना हारमध्यस्थो मणिवी । बहुलवचनादेव सत्वनिषेधः ॥
(१२५ ) भृधातोर्गन प्रत्ययः कित् तस्य च नुट् बिभर्ति धरति पुष्यति वा स भृङ्गः । भ्रमरो वा ।
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उणादिकोषः ॥
शृणातेर्हस्वश्च ।। १२६ ।। शृङ्गः ।। १२६ ।। गए शकुनौ ॥ १२७ ॥ शार्ङ्गः ॥ १२७ ॥ मुदिग्रोग्गौ ॥ १२८ ॥ मुद्गः । गर्गः ॥
१२८ ॥
अण्डन् कृसृभृवृञः ॥ १२९ ॥ करण्डः । सरण्डः । भरण्डः
1
e c
वरण्डः ॥ १२९ ॥ शृदृभसोऽदिः ॥ १३० ॥ शरत् | दरत् । भसत् ॥ १३० ॥
:
( १२६ ) ति नुट् चेत्यनुवर्तते शृणाति हिनस्ति येन तत् शृङ्गम् विषाणं पर्वतानं मत्स्यभेद औषधिभेदः सुवर्णभेदा वा ।
( १२० ) गणप्रत्ययस्य गित्वाद्वातोवृद्धिः पूर्वत्रनुट् च । शृणातीति शार्ङ्गः पक्षी । बाहुलकात्प्रत्ययस्यादा वकारागमेन शारङ्ग- इत्यपि सिद्धं भवति ॥ ( १२८ ) मुदधातोर्गक । मोदतेऽसौ मुद्गः अन्त्रभेदो वा । मुद्गान् लाति गृणातीति मुद्गलो मुनिः । यस्य गोत्रापत्यं मौद्गल्य इति प्रसिद्धम् । गृणात्युपदिशतीति गर्गः । ऋषिविशेषो वा । गृधातोर्गः प्रत्ययः ॥
( १२६) कृप्रादिभ्योऽण्डन् प्रत्ययः । क्रियतेऽसौ करण्डः पुष्पभाण्डभेदः करण्डो वंशविकारपात्रम् । पिटारी इति प्रसिद्धा । सरति गच्छतीति सरण्डः पक्षी वा । विभर्त्ति पुष्यतीति भरण्डः स्वामी । वणोति स्वीकरोतीति वरण्डः । मुखरोगः सन्दोहोवा । बाहुलकात - तरति येन स तरङ्गः । जलतरणसाधनं वा । वनति संभजति धर्ममिति वतण्डः । ऋषिविशेषो वा । धातोस्तकारान्तादेशः । छमति भक्षयतीति छमण्डः । मातापितृशून्यो वा । शेतेऽसैौ शयण्डः।विषया वा इत्यादयः शब्दा बहुलवचनादेव सिद्धा भवन्ति । (१३) शुभसधातुभ्यो ऽदिः प्रत्ययः शृणाति हिनस्त्यस्मिन्निति शरत् । कालविशेष ऋतुर्वा । दीर्यतेऽदो दरत हृदयं कुलं वा । विभस्ति भर्त्सयति प्रकाशते वा । सभसत् जघनं वा । बाहुलकात् - पर्षति स्निह्यति प्रीतिकरं प्रसन्नं भवति चित्तमस्यां मा पर्षत् । सभा समाजो वा ॥
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पा० १ ॥
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BB
दृणातेः घुग्घुस्वश्च ॥ १३१ ॥ दृषत् ॥ १३१ ॥ त्यजितनिय जिभ्यो डित् ॥ १३२ ॥ स्यद् । तद् । यद् ॥ १३२ ॥
एतेस्तुट् च ॥ १३३ ॥ एतद् ॥ १३३ ॥ सर्तेरटिः ॥ १३४ ॥ सरद् ॥ १३४ ॥ लर्नलोपश्च ॥ १३५ ॥ लघट् ॥ १३५ ॥ पारयतेरजिः ॥ १३६ ॥ पारक् ॥ १३६ ॥ प्रथेः किंत्सम्प्रसारणं च ॥ १३७ ॥ पृथक् ॥ १३७ ॥ भियः पुग्घ्रस्वश्च ॥ १३८ ॥ भिषक् ॥ १३८ ॥
( १३१ ) दीर्यतेऽसौ दृषत् । पाषाणो वा । अदिप्रत्यये धातोः क् ह्रस्वागमश्च भवति ।
(१३२) त्यजति क्लेशादिहीनो भवतीति त्यद् । तनुते विस्तृतो भवतीति तद् । यजति सर्वैः पदार्थः सङ्गतो भवतीति यत् । ब्रह्मणो नामानि त्रयाणि । त्यदादीनां सर्वनामसञ्ज्ञा भवति तेन सामान्यवाचकास्त्यदादयः ॥
(१३३) इग्धातोरदिः प्रत्ययस्तस्य तुडागमश्च । एति प्राप्नोतीत्येतत । अस्यापि सर्वनामसञ्ज्ञा ॥
( १३४ ) सरति गच्छतीति सरट् । वायुर्मेघो वा ! सृधातोरटिः प्रत्ययः ॥ ( १३५ ) लङ्घति शोषयतीति लघट् । वायुवी । धातोर्नलोपः ॥ ( १३६) पारयति कर्म समापयतीति पारक सुवर्णं वा । चौरादिकात्पारिधातोरजिः प्रत्ययः ॥
( १३० ) प्रथयति सङ्घाताद्विस्तृतो भवतीति पृथक् नानात्वं वा । स्वरादिपाठादव्ययत्वम् ॥
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(१३८) बिभेत्यसौ भिषक् । वैद्यो वा । सुमङ्गलभेषजाच्चेति निपातना - द् गुणे कृते भेषजम् । भैषजमेव भैषज्यम् ॥
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३४
उणादिकोषः ॥
युष्यसिभ्यां मदिक् ॥ १३९ ॥ युष्मद् । अस्मद् ॥ १३९॥ अर्तिस्तुसहसक्षिक्षुभायावापदियक्षिनीभ्यो मन् ॥ १४०॥
अमः । स्तोमः। सोमः। होमः । सर्मः। धर्मः । क्षेमम् । क्षोमम् । भामः । यामः । वामः। पद्मम् । यक्ष्मः। नेमः ॥१४॥
जहातेः सन्वदाकारलोपश्च ॥ १४१ ॥ जिह्मः । १४१ ॥ अवतेष्टिलोपश्च ॥ १४२ ॥ ओम् ॥ १४२॥
( १३६ ) योषति सेवतेऽसौ युष्मद् । युष सौत्रो धातुः । अस्यति प्रक्षिपत्यन्यमित्यस्मद् । सर्वनामवाचकाविमौ ॥
(१४० ) ऋच्छति प्राप्नोति सोऽर्मः । चक्षरोगो वा । स्तौति येन स स्तोमः । सङ्घातो वा। सवत्यैश्वर्यहेतुर्भवतीति सोमः । कर्पूरश्चन्द्रमा वा। हूयते दीयतेऽसौ होमः । यज्ञो वा। नियते गम्यते स समी गमनम् । धियते सुखप्राप्तये सेव्यते स धर्मः । पक्षपातरहितो न्यायः सत्याचारी वा । क्षयत्यज्ञानं नाशयतीति क्षेमम् । कुशलं वा । क्षौति शब्दयतीति क्षोमम् । वस्त्रभेदो वा । दुकूलमतसीकुसुमं च । भाति प्रकाशतेऽसौ भामः । क्रोधः सर्या दीप्तिी । यायते प्राप्यते स यामः । प्रहरी वा । वाति गच्छति ग्रन्थं वा गृहणातीति वामः । शोभनः दुष्टः पार्श्वभेदी वा । पद्यते प्राप्नोतीति पद्म कमलं निधिः शङ्खो वा । यक्षयते पूजयतीति यक्षमः । राजरोगो वा । नयतीति नेम: । प्रकारमूलं वा । अर्दुवाची तु सर्वनामसञ्जकः ॥
(१.४१. ) मनित्यनुवर्तते । जहाति त्यजतीति जिह्मः । कुटिलो मन्दो वा ॥
(१४२ ) मन् प्रत्ययस्य टिलोपो धातोस्पधावकारयोरूठ् । अवति रक्षादिकं करोतोति ओम् । प्रणव प्रारम्भोऽनुमतिर्वा । चादिषु पाठादस्या. ऽव्ययत्वम् ॥
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पा० १ ॥
つりゆ
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ग्रसेरा च ॥ १४३ ॥ ग्रामः ॥ १४३ ॥ अविसिविसिशुषिभ्यः कित् ॥ १४४ ॥ ऊमम् । स्यूमः । सिमः । शुष्मम् ॥ १४४ ॥
इषियुधीन्धिदसिश्याधूसूभ्यो मक् ॥ १४५ ॥ इष्मः । युध्मः । इध्मः । दमः । श्यामः । धूमः । सूमः ॥ १४५ ॥ युजिरुचितिजां कुश्च ॥ १४६ ॥ युग्मम् | रुक्मम् । तिग्मम् ॥ १४६ ॥
३५
( १४३ ) मन् । ग्रसतेऽति यो वा ग्रस्यते स ग्रामः | शालासमुदायः प्राणिनिवासो वा । सङ्ग्रामो युद्धं वा । शालीनां ग्रामः समूहः शालिग्रामः । एवं शब्दग्रामः । ग्रामो गानविद्यायां स्वरभेदश्च ॥
(१४४) मन्- कित् । अवति रचणादिकं भवति यत्र तत् ऊमम् । नगरं वापि कृते बाहुलकाद्धस्वे च । उमा । विशिष्टा स्त्री वा । सीव्यति तन्तून संतनोतीति स्यमः । रश्मिर्वा । मिनीति बध्नातीति सिमः । सर्वनाममज्ञः सर्वपय्यायः । शुष्यति निस्सारं करोतीति शुष्मम् । श्रमिव युवी ॥
( १४५ ) य इच्छति य इष्यते स इष्मः । कामो वसन्त ऋतु । युध्यते यो येन वा स युध्मः । वाणो वा य इन्धे दीप्यते वा येनेन्धे स इध्मः । समिद्भुः । दस्यत्युपक्षयति दुःखयति वा स दस्मः । यजमानो वा । श्यायति गच्छति प्राप्नोति वा स श्यामः । हरितः कृष्णो वा । अप्रसूता स्त्री श्यामा लतौषधी वा । इत्यादि । धूनोति कम्पयतीति धूमः । अग्निसम्भवो वा । सूते जनयति प्राणिगर्भ विमुञ्चतीति सूक्ष्मोन्तरिक्षं वा । बाहुलकात - गच्छति कम्पते वा तदीर्मम् । वृणं वा । क्षौति शब्दयतीति सा क्षुमा । अतसी वा । जजन्ति जायते तज्जन्म | उत्पत्तिव ॥ ( १४६ ) मक् । युज्यते तद्युग्मम् | द्वयेोरेककर्मणि सम्बन्धः । रोचते प्रदीप्तवर्णै। भवति स रुक्मा वर्णभेदो वा । तद्वर्णयोगादुक्मं सुवर्णम् । रुकमा वस्यास्तीति रुकमिणी स्त्री । तेजते छिनतीति तिमम् । तीक्ष्णम् । विशेयलिङ्गोऽयं शब्दः तिग्मा धोः । तिग्मस्तोवो वा ॥
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३६
उणादिकोषः ॥
हन्तेर्हि च ॥ १४७ ॥ हिमम् ॥ १४७ ॥ भियः षुग् वा ॥ १४८ ॥ भीमः । भीष्मः ॥ १४८ ॥
धर्मग्रीष्मौ ॥ १४९ ॥
प्रथेः पिवन् पवनुष्वनः संप्रसारणं च ॥ १५० ॥ पृथिवी । पृथवी । पृथ्वी ॥ १५० ॥
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अशूशुषिल टिकपिखटित्रिशिभ्यः कन् ॥ १५१ ॥ अश्वः | ध्रुवः । लट्ठा | कण्वम् । खट्टा | विश्वः ॥ १५१ ॥
(१४०) मक् । इत्युष्णं दुर्गन्धिं वा तद्धिमम् । हेमन्त ऋतुस्तुषारश्चन्दनं वा । महत् हिमं हिमानी । ङीष् आनुक्
( १४८ ) विभेति बिभ्यति वा यस्मात् यस्या वा स भीमः । भीमा वा । भीष्मः । भीष्मा वा। भीमो भयानकः । पाण्डुपुत्रो वा । भीमा भयानका सेना यस्य स भीमसेनः । एवं भीष्मसेनो वा ॥
( १४६ ) मक् प्रत्ययान्तो निपात्येते । जिघर्ति चरति नश्यति दीप्यते वा प्राणिनो जगद्दा येन स धर्म्मः । यज्ञ आतपो ग्रीष्म ऋतुः स्वेदो वा । ग्रसते शीतं रसादिकं वा स ग्रीष्म: । अत्युष्णकालो वा । ग्रसधातोग्रो भावः । षुगागमश्च निपातनात् ॥
( १५० ) प्रथते विस्तीर्णी भवतीति पृथवी । पृथिवी । पृथ्वी । इत्येकार्थस्त्रयः । भूमिरन्तरिक्षं वा ॥
I
(१५१) अश्नुते व्याप्नोतीत्यश्वः । तुरङ्गो वह्निव । अजादिपाठात् स्त्रियामश्वा । यः पुष्णाति स्निह्यति सिञ्चति पूरयति वा सपुध्वः । ऋतुः सूख वा । लटति बाल इव भवति सा लटा । नियत स्त्रीलिंगः । करञ्जभेदः। फलं वाद्यं पतिभेदो वा । ऋणति निमीलति चेष्टतेऽसौ कण्वः । कण्वं पापं वा मुनिव । येनादावध्यापिता काण्वी शाखेति प्रसिद्धा वा । खट्यते काङ्क्ष्यते या सा खटा । शय्याभेदो वा । विशति सर्वत्र स विश्वः । विश्वं जगत् । विश्वाऽतिविषया वा सर्वादिपाठात्सर्वनामसङ्गश्च ॥
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पा० १॥
६EEE
इगशीभ्यां वन् ॥ १५२ ॥ एवः । शेवः ॥ १५२ ॥ सर्वनिघृष्वरिष्वलष्वशिवपट्टप्रद्वेष्वा अतन्त्रे ॥ १५३ ॥ शेवायतजिह्वाग्रीवाऽपवामीवाः ॥ १५४ ॥ कृगशदभ्यो वः ॥ १५५॥कर्वः । गर्वः। शर्वः । दर्वः ॥१५५॥
( १५२ ) एति प्राप्नोतीत्येवः । बाहुलकात-एवेत्यवधारोऽव्ययम् । शेतेऽसौ शेवः । सुखं मेद वा ॥
( १५३ ) सर्वादयो वनप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । सरतोति सर्वः । संपूर्णवाची सर्वनामसज्ञो विशेषणम् । नितरां घर्षति पिनष्टीति निघृष्वः । गुणाभावः। खुरं वा। रेपति हिनस्तोति रिवो हिंसकः। लपति कामयतेऽसौ लष्वः । नर्तको वा । शेतेऽसौ शिवः । धाताईस्वत्वम् । शिव ईश्वरः शिवं भद्रं सुखमुदकं च । शिवा हरीतकी । पद्यन्ते गच्छन्त्यति पदः । भूलोको वा । प्रजहाति त्यजति स प्रहः । नम्रो वा । अकारलोपो निपातनम् । ईषते हिनस्त्यज्ञानमिति ईध्वः । आचार्यों वा । अतन्त्र इति किम् । सर्ता, सारक इत्यादि सूत्रेषु पठिताः सर्वादिशब्दा यौगिका माभूवन । बाहुलकात-हसति शब्दयति हुस्वः । वामन एकमात्रो वर्णी वा ॥
(१५४ ) शेवादयो वनन्ता निपात्यन्ते । शतेऽसौ शवा। लिङ्गाकृतिवी। यजतोति यः यजमानो वा । जकारस्य हकारः जयति यया सा जिला । इन्द्रियं वा । धातोर्डक। निगलति यया सा ग्रीवा शरीराङ्ग वा । धातोग्रो भावः । आप्नोति यया सा अपवा । कसठस्थानं वा । मोनाति हिनस्तोति मोवः । उदरकृमिवी ॥
(१५५ ; किरति विक्षिपति चित्तमिति कर्वः । कामो वा। गिरतीति गर्वः। अहङ्कारो वा । शणाति दःखमिति शर्वः परमेश्वरः सुखं वा । दृणाति विदारयति प्राणिन इति दर्वः हिंसको जनो वा ॥
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उणादिकोषः ॥
कनिन् युवृषितक्षिराजिधन्विद्युप्रतिदिवः ॥१५६॥ युवा । वृषा । तक्षा । राजा । धन्वा । धुवा । प्रतिदिवा ॥ १५६ ॥
सप्यशूभ्यां तुट च ॥ १५७ ॥ सप्त । अष्ट ॥ १५७॥ ननि जहातेः ॥ १५८ ॥ अहः ॥ १५८ ॥
श्वनक्षन्पूषन्प्लीहन्क्लेदस्नेहन्मजन्नर्यमन्विश्वपसन्परिज्वन्मातरिश्चन्मघवन्निति ॥१५९॥श्वा। उक्षा । पूषा । प्लीहाक्दा।
( १.५६ ) यौति मियत्यामिश्रति वा स युवा मध्यावस्थस्तरुणो जना वा । वर्षतीति वृषा सूर्यो वा । तक्षति तनकरोति स तक्षा वकी । राजते प्राप्तो भवतीति राजा भूपतिश्चन्द्रमा वा । धन्वति गच्छतीति धन्वा । वाणक्षेपणं वा। द्यौभिगच्छतोति दावा । सूर्यो वा । प्रतिदीव्यन्ति यस्मिन् स प्रतिदिवा । दिवसो वा । बहुलवचनात-केवलाप दिवधाताः कनिन् तेन दिवा दिवानौ । इत्याद्यपि सिटुम् । दशतीति दशन् । संख्याविशेषो वा ! नौतोति नवन संख्या वा । बाहुलकाद् गुण: ॥
(१.५० ) सपति समवेतोति सप्तन संख्याभेदो वा । अश्नुते व्यानोतोत्यष्टत् । संख्या वा । बाहुलकात-पञ्चति व्यक्तीकरोतीति पञ्चन संख्यावाचको वा ॥
( १५८ ) जहाति त्यजति पृथक्करोत्यन्धकारमित्यहः दिनम् ।
( १५६ ) श्वनादयस्त्रयोदश शब्दा: कनिनन्ता निपात्यन्ते । श्वर्यात गच्छति वर्द्धत सौ श्वा । कुक्करा वा। स्त्रियां डोष शुनी । उक्षति सिञ्चतीति) उक्षा बलीवी वा। पूति वर्धतेऽसौ पूषा। सूर्यो वायुवी । प्लिह्यते प्राप्यतेन्तरिति प्लीहा । कुक्षिव्याधिर्वा । धातोरुपधादीर्घत्वम् । क्लियत्याद्री भवतीति क्लेदा चन्द्रमा वा । धातोर्गुणः । स्निह्यात प्रीति
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. पा० १॥
स्नेहा। मजा । मद्धा अर्यमा । विश्वप्सा। परिज्वा । मातरिश्वा । मघवा ॥ १५९ ॥
इत्युणादिषु प्रथमः पादः ॥ १ ॥ करोतीति स्नेहा । व्याधिवी । धातोगुणः । मूति बध्नाति स मी शिरो वा । उकारस्य दीर्घा वकारस्य धकारश्च । मज्जति शुन्धतीति मज्जा अस्थिसारो वा । अयं स्वामिनं मिमीते मन्यते जानातीति अर्यमा । आदित्यो वा । आकारलोपः। विश्वं प्साति भक्षयतीति विश्वप्सा अग्निर्वा । परितो जवति वेगवान् भवतीति परिज्वा । चन्द्रमाः । जु इति सौत्रो धातस्तस्य यणादेशः । मातरि अन्तरिक्षे श्वयति गच्छति वर्द्धते वा,अथवा मातरिश्वसिति जीवति शेते वा, स मातरिश्वा वायुर्वा । माते पूज्यतेऽसौ मघवा सूर्यो वा । महधाताहकारस्य चत्वंयुगागमश्च । मघवदिति तकारान्तोऽप्ययं शब्दो दृश्यते । तत्र मघं धनमस्यास्तीति मघवान मघवन्तौ। मघवन्तः । इति मतुबन्तः । कनिनन्तस्तु । मघवा । मघवानौ । मघवानः । मघवन् । मघवानम् । मघवानी । मघोनः । अस्मिन् सूत्र इति शब्दः प्रकारार्थे । एवं विधा अन्येऽपि कनिनन्ता शब्दा यथाप्रयोगं साध्याः । पादसमाप्त्यर्थो वेति शब्दः ॥
इत्यणादिव्याख्यायां वैदिकलौकिककोषे प्रथमः पादः ॥ १॥
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up
अथ द्वितीयपादारम्भः
कृहभ्यामेणुः ॥ १ करेणुः । हरेणुः ॥ १ ॥ हनिकुषिनीरमिकाशिभ्यः क्थन् ॥ २॥ हाथः । कुष्ठः । नीथः । रथः । काष्ठम् ॥ २॥ . अवे भूत्रः ॥ ३॥ अवभृथः ॥ ३॥ उषिकुषिगात्ति भ्यस्थन् ॥४॥ोष्ठः।कोष्ठः। गाथा । अर्थः॥४॥
सर्तेर्णित् ॥ ५॥ सार्थः ॥ ५॥
(१) करोतीति करेणुः हस्ती हस्तिनी वा । हरति स हरेणः । गन्धद्रव्यं कलापो वा । मटर इति प्रसिद्धः ॥
(२) यो हन्यते येन वा स हथः । दुःखितः शस्त्रविशेषो वा । कुष्णाति निरन्तरं कर्षतीति कुष्ठम् । व्याधिभेदः । कूट इत्याख्यौषधिर्वा । नीयते स नोथः । नयनं वा । शोभना नीथोऽस्यास्तीति सुनीथो धर्मशीलः । रमते यस्मिन् येन वा स रथः । यानं शरीरं पादो वेतसो वा । काशते दीप्यते तत्काष्ठम् । इन्धनं स्थानं कालमानं वा । काष्ठा दिक दारहरिद्रा वा ॥
(३) कथन् । अवबिभत्तीति, अवभृथः । पक्षिभेदो यज्ञान्त स्नानं वा।
(४) ओषति यो दहति येन वा स ओष्टः । मुखावयवो वा । कुष्णाति निरन्तरं कति स कोष्ठः । कोष्ठं कुक्षिः कुशलमन्तर्गहं वा। गीयते या सा गाथा वाग्भेदः श्लोको वा । अर्यते प्राप्यतेऽसावर्थः । शब्दानां वाच्या धनं कारणं वस्तु प्रयोजनं निवृत्तिर्विषयो वा । बाहुलकात-श्यति तनकरोतीति शोथः । रोगविशेषो वा । शोतनकरण इत्यस्यात्वनिषेधः ॥
(५) सरति गच्छति स सार्थः समूहो वा । थन्प्रत्ययस्य णित्वाद् वृद्धिः॥
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पा० २।
जवभ्यामूथन् ॥ ६ ॥ जरूथम् । वरूथः ॥ ६ ॥ पात्रतुदिवचिरिचिसिचिभ्यस्थक् ॥७॥ पीथः । तीर्थम् । तुत्थः । उक्थम् । रिक्थम् । सिक्थम् ॥ ७॥ अर्जेनिरि ॥ ८॥ निथः ॥ ८॥ निशीथगोपीथावगथाः ॥ ९॥ . गश्चोदि ॥ १०॥ उद्गीथः ॥१०॥ समीणः ॥ ११ ॥ समिथः ॥ ११ ॥
(६) जीति क्योहीनो भवति स जरूथः मांसं वा । वृणोति येन स्वीकरोति स वरूथः । लोहेन रथावरणं वा ॥
(७) यः पिबति यं वा स पीथः । सूर्यो घृतं वा । सन्ति येन यन्नवा ततीर्थम्।गुरुय॑ज्ञः पुरुषार्थों मन्त्री जलाशयो वा । यो येन वा तुर्दात व्यथां प्राप्नोति स तुत्थः । अग्निरञ्जनं तुत्था नोली ओषधिौर्बडवा वा । सूक्ष्मलावा । छोटी इलाची इति प्रसिदा । उच्यते परितो भाष्यते यत्तदुक्थम् । सामवेदो वा । य उक्थमधीते वेत्ति वा स औथिकः । रिक्ति पृथक्करोतोति यत्तदुरिकथम् । दायादधनं सुवर्ण वा । बाहुलकात-ऋचस्तुतावित्यस्मादपिथकाचति यदर्थ स्तोतीति ऋक्यम्।धनं वा।सिञ्चति प्रसादयति तत्सिक्थम् । मच्छिष्टम् । मोम इति प्रसिद्धम् । ओदनानिसृतं मण्डं वा ।
(८) निरन्तरमृच्छन्ति गच्छन्ति यस्मिन्नसौ निथः । सामवेदो वा॥
(६) नितरां शेतेऽस्मिन् स निशीथः । अर्दुराचः । सर्वरात्रो वा । गां वाणों पृथिवी वा पातीति गोपीथः । पण्डितो राजा वा। गावः पिबन्त्यदकस्मिन् स जलाशयो वा । अवगातेऽवगच्छते जानीतेऽसाववगाथः । प्राप्तः स्नानं वा ॥
(१०) उदुपपदाद्गाधातास्थक। य उद्गीयत उच्चैः शब्दायते स उद्गीथः । सामध्वनिः प्रगावो वा ॥
(११) समेति सम्यक् प्राप्नोति पदार्थानिति समिथः । अग्निवा ॥
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४२
उणादिकोषः ॥
तिथपृष्ठगूथयथप्रोथाः ॥ १२ ॥
फायितञ्चिवञ्चिशकिक्षिपिादिसृपितृपिपिवन्युन्दिश्वितिवत्यजिनीपदिमदिमुदिखिदिछिदिभिदिमन्दिचन्दिदहिदसिदम्भिवसिवाशिशीहसिसिधिशुभिभ्यो रक् ॥ १३ स्फारम् । तक्रम् । वक्रः । शक्रः । क्षिप्रम् । क्षुद्रः । सृप्रः । तृपः। हषः। वन्द्रः । उद्रः। शिवत्रम् । वत्रः । वीरः । नीरम् ।
(१२) तिथादयस्थकप्रत्ययान्ता निपाताः । तेजते सह्यतेऽसौ तिथः । अग्निः कामो वा । पति सिञ्चति यो येन वा तत् पृष्ठम् । शरीरस्य पश्चाद्वागः स्तोत्रं वा । यो येन वा गवतेऽव्यक्तशब्दं करोति तद् गूयम् । अपानमार्गः पुरीषं वा । यौति मिश्रयामप्रति वा स यूथः । समुदायो वा । यः प्रवते गच्छति येन वा स प्रोथः । तुरङ्गनासिका । प्रस्थितः पुरुषो वृत्तभेदः प्रियमुदकमन्नं स्त्रीगर्भश्च । प्रोथ उच्यते ॥
(१३ ) यः स्फायते बर्द्धतेऽसौ स्फारः । सुवर्णार्विकारो बुबुदो वा। वलि रेफे यलोपः । तनक्ति संकोचयतीति तक्रम् । मथितं दधि वा । वञ्चति प्रलम्भते स वक्रः । कुटिलः । करो वा। शक्नोति यः स शक्रः । समर्थः कुटजो वृक्षविशेषो बा। क्षिप्यते प्रेर्यते तत् क्षिप्रम् । शीघ्र वा। क्षत्ति संपिष्टि य: स क्षुद्रः। अधमः करः कृपणो वा। अल्पे वायलिङ्गः । क्षुद्रा वेश्या । कण्टकारिका (भटकटाई) तथा मधुमक्षिका चासर्पति गच्छतोति सप्रः । चन्द्रमा वा । यस्तृण्यात येन वा स तृप्रः । पुरोडाशो वा । दृति हात मुह्यति वास दप्रः ।बलवानवा । वन्दतेऽभिवदति स्तौति वा स वन्द्रः सतकर्ता वा। उनति क्लियति स उद्रः । जलचरो वा । सम्यगुनतीति समुद्रः । अनिदितामिति नलोपः । श्वेतते वर्णविशिष्टो भवतीति विचम् । कुष्ठभेदो वा । वर्तते सदैवासौ वृत्रः । मेघः । शत्रुस्तमः । पर्वतश्चक्रं वा । अजति गच्छति शत्रन वा प्रक्षिपति स वीरः। सुभटः श्रेष्ठश्चतुष्पथं वा।वोरा क्षीरका कोली,पतिपुत्रवती स्त्री मदिरा मधुपर्णि कौषधिर्वा । नात शरीमिति नीरम् । जलम् वा ।
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पा० २॥
४३
पद्रः । मद्रः । मुद्रा । खिद्रः । छिद्रम् । भिद्रम् । मन्द्रः। चन्द्रः । दहः । दरः। दभ्रः । उस्त्रः । वाश्रः । शीरः । हस्तः। सिध्रः । शुभ्रम् ॥ १३ ॥
चकिरम्योरुखोपधायाः ॥ १४ ॥ चुक्रम् । रुम्रः ॥ १४ ॥
वौकसेः ॥ १५ ॥ विकस्त्रः ॥ १५ ॥ पद्यते गच्छन्त्यस्मिन् वा स पद्रः । ग्रामः संवेशः स्थानं वा । माद्यतीति मद्रः । हर्षो देशभेदो वा । मोदन्ते दृष्यन्ति यया सा मुद्रा यन्त्रिता सुवर्णादिधातुमया वा । यः खिद्यते येन वा दोनो भवति स खिद्रः । रोगो दरिद्रो वा। छिदाते यतच्छिद्रम् । विवरं वा । भिनति येन तद् भिद्रं वजो वा । मन्दते स्तीतीति मन्द्रः गम्भीरध्वनिर्वा । चन्दति हर्षति दीपयति वा स चन्द्रः कर्पूरश्चन्द्रमा वा। दहति भस्मीकरोतीति दहः दावाग्निर्वा । दस्यति रोगानुपक्षयतीति दनः । वैद्यश्चौरो वा । यो दभनोति दम्भं करोति स दभ्रः। क्षुद्रो जनः समुद्रो वा । वसतोति उसः । रश्मिर्वा । उस्रा गौः । वाश्यते शब्दयतीति वाम् । पुरीषं दिवसो मन्दिरं चतुष्पथं वा । शेते
सौ शीरः । महासपी वा । हसतीति हमः । मी वा । सेति गच्छति सिति वा स सिधः । साधुर्वक्षजातिवी । कुत्सिताः सिद्धा वृक्षाः सिधका स्तासां वनं सिधकावणम्। वनं पुरगामिप्रकासिधकेति सूत्रेण गात्वम् । शोभते दीप्यते तत् शुभ्रम चिरं शुक्नं पाण्डुरं वा। बाहुलकान मेति शब्दयति मिश्रः संयोगो वा।पुण्डति खण्डयतीति पुण्डः। दुष्टो वा । सिनोति बध्नाति मांसरुधिरादिकमिति सिरा । नाड़ी वा । मुस्थति खण्डयतीति मुसम्। नेत्रोदकं वा । अस्यतीति,अमम् । रुधिरं वा । अमम् पिबतीति, अम्रपो दंशः ॥
(१४ ) चकते तृति प्रतिहन्यते वा । स चुक्रः । अम्बमलवेतसमित्यादि । रमन्तेऽस्मिन् स सम्रः । अरुणः शोभना वा ॥
( १५ ) विकसति विशेषतया गच्छतीति विकुस्रः । चन्द्रमा वा कस धातोरुपधाया उत्यम् ॥
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४४
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उणादिकोषः ॥
अमितयोर्दीर्घश्च ॥ १६ ॥ आम्रम् । ताम्रम् ॥ १६ ॥ निन्देर्मलोपश्च ॥ १७ ॥ निद्रा ॥ १७ ॥ अर्देर्दीर्घश्च ॥ १८ ॥ आर्द्रम् ॥ १८ ॥ शुर्दश्च ॥ १९ ॥ शूद्रः ॥ १९ ॥ दुरीण लोपश्च ॥ २० ॥ दूरम् ॥ २० ॥ कृतेश्छः क्रू च ॥ २१ ॥ कृच्छ्रम् | क्रूरः ॥ २१ ॥ रोदेर्णिलुक् च ॥ २२ ॥ रुद्रः ॥ २२ ॥
( १६ अम्यते सम्भज्यते सेष्यते तदनम् । चूतो था । ताम्यति काङ्चतीति । ताम्रम् | धातुभेदो रक्तवर्णे वा ।
(१०) या निन्दति यया वा सा निद्रा शयनं वा ॥
1
(१८) प्रादतिगच्छति याचते वासत् आर्द्रं । सरसद्रव्यमाद्रा नक्षचं वा ॥ (१६) दीर्घश्चानुवर्तते । शोचतीति शूद्रः सेवकी वा । पुंयोगे शूद्रस्य स्त्री शूद्री शूद्रा तज्जातिवी ||
( २० ) दुरुपदादिधातेोरक् धातोश्च लोपः । दुःखेनेयते प्राप्यते सहरम् । विप्रकृष्टं वा ॥
( २१. ) कृतधातोरन्त्यस्य छः सर्वस्य च क्रू इत्येतावादेशी रक् च । कृन्तति द्विनतीति कृच्छ्र क्रूरश्च कठिनं दुःखं खलो वा ॥
A
1
(२२) पापिनो रोदयतोति रुद्रः । ईश्वरः प्राणादिदेश रुद्रा जीवो वा । बाहुलकादन्यत्रापि धात्यन्तरे सज्जाछन्दसोः सामान्यप्रत्ययादीच गोर्लुक । पाशं बन्धनं धारयतीति पाशधरः । शूलधरः । चक्रधरः । वज्रधरः । शक्तिधरो वा । कुमारः । उदकधरो मेघः । दण्डधरो राजा । श्रच सर्ववाचि प्रत्ययै घृधातोः परस्य लुक् । पर्णानि शोषर्यंत मोचयति रोहयति वा स पर्णशुट् । पर्णमुट् । पर्णरुट् । इति ण्यन्तात् शुषधातोः विप लुक् । त्वत्वादिकार्यम् । वान्ति पर्णशुषो वाता वान्ति पर्णमुचोऽपरे । ततः पर्णा वान्ति ततो देवः प्रवर्षति ॥
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पा० २ ॥
जोरी च ॥ २३ ॥ जीरः ॥ २३ ॥ सुधागृधिभ्यः क्रन् ॥ २४ ॥ सुरः । सूरः । धीरः ।
गृधः ॥ २४ ॥
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शुसिचि मीनां दीर्घश्च ॥ २५ ॥ शूरः । सीरः । चीरम् । ।
मीरः ॥ २५ ॥
वा विन्धेः ॥ २६ ॥ वीधम् ॥ २६ ॥ वृधिवपिभ्यां रन् || २७ वर्धम् । वप्रः ॥
२७ ॥
४५
( २३ ) जुधातोरकि प्रत्यय ईकारादेशः । जवति सूक्ष्मो भवतीति जीरः । अणुः खड्गो वणिद्रव्यं वा । महाभाष्यकार संम्मत्या, रकि ज्यः सम्प्रसारणम् । भा० १।१।४ । ज्यावया हा नावित्यस्य रकि प्रत्यये सम्प्रसारणम् | जिनात्यवस्थां जहातीति जीरः । तथा महाभाष्यकारसम्मत्या जीवधातोरदानुक् । जावति प्राणान् धारयतीति जीरदानुः । वैदिकं रूपमेतत् । अत्र च जीवधातोर्वलि वलेोपः । ऊठनिषेधश्च बाहुलकादेव । इत्यादि ॥
(२४) सुनोति सर्वात उत्पादयत्यैश्वर्य्यवान् वा भवतीति सुरः । देवसंज्ञो विद्वान् स्त्रियां सुरा मद्यं वा । सूयते वा सुवति प्राणिनः समयतीति सूरः । सूर्यो वा । दधाति सर्वान् पोषयति वा स धीरः पण्डितो वा । गृध्यत्यभिकाङ्क्षतोति गृधः । पचिविशेषो वा ॥
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(२५) शु इति सौत्रो धातुः । शवति गच्छतीति शूरः । विक्रमणशीलः पुरुषो वा । सिनोति बध्नातीति सीरः । हलं वा । चिनोतीति चीरम् । वल्कलं वा । मिनोति प्रक्षिपतीति मीरः । समुद्रो वा ॥
(२६) विशेषेयोन्धते प्रदीप्यते तद्बोधम् । स्वभावशुद्धः ॥ ( २० ) बर्द्धते तद्वर्धम् । चर्म वा । बपति बीजं छिनत्ति वा सवप्रः । पिता केदारः प्राकारो रोधो वा ॥
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उणाटिकोषः ।
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ऋज्जेन्द्रायवजविप्रकुबचुबक्षुरखुरभद्रोग्रभेरभेलशुक्रशुक्लगौरखनेरामालाः ॥ २८ ॥
समि कस उकन् ॥ २९ ॥ सङ्कसुकः ॥ २९ ॥
(२८ ) ऋजाये कोनविंशतिः शब्दा निपात्यन्ते । अर्जति गच्छति तिष्ठति वा स ऋजः । नायको वा । गुणाभावः । इन्दति परमैश्वर्यवान भवतीति इन्द्रः समर्थोऽन्तराऽऽत्मादित्यो योगा वा । अति गच्छतीति अग्रम् । प्रधानमुपरिभागो वा । वति प्राप्नोति प्राप्यते वा स वजः । होरक शस्त्रं वा । वपति धर्ममिति विप्रः । मेधावी वा । कुम्बत्याच्छादयतीति कुबम् । अरण्यं वा । चुम्बति यो येन वा तच्चुत्रम् । मुखं वा । अनोभयदितोऽपि नलोपः । यः क्षरति विलिखति येन वा छिनीति स क्षुरः । छेदनद्रव्यं कोकिलावं गोक्षरो लोमच्छेदकं नापितशस्त्रं वा । खरति छिनत्ति यो येन वा स खुरः शफं वा । अत्रोभयत्र रकि रेफलोपा गुणाऽभावश्च । भन्दते कल्याणं करोतीति भद्रम् कल्याणम् । नकारलोपः । उति समवैतोतिः उग्रः । महेश्वर उत्कट: क्षचं वा । विभेत्यस्मात्स भेरः । भेरी दुन्दुभिवी गौरादित्वान डोष । पक्षे भेरशब्दस्य लत्वम् । भेलो जलतरणद्रव्यं वृद्धकायः कातरी वा । शुच्यते पवित्रीभवतीति शुक्रम ब्रह्मानिराषाढः प्राणिवीज नेत्ररोगो वा । अस्यैव व्यवस्थितविभाषया पक्ष लत्वम् शुक्नः श्वेतं रजतं वा । गवतेऽव्यक्तं शब्दयतीति गौरः । श्वेतो रक्तवी वा । गौरी स्त्री । डीए । वनति सम्भजतीति वन विभागी। एति गच्छति यया सा इरा । उदकं मद्यं वा । इरावान समुद्रः ऐरावती नदी। इरया मद्येन मायतीति, इरम्मदः । माति मानहेतुर्भवतोति माला । पुष्पादिस्रक । माल क्षेत्रम् । मालो जनः । बाहुलकात-तितिक्षते येन तती. ब्रम् । तीक्ष्णं वा । जस्य बो दीर्घत्वं च धातोः ॥ (२६) सम्यक् कसति गच्छतोति सङ्कसुकः संशयमापन्नश्चञ्चलो दुर्जनो वा।
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पा० २ ॥
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पचिनशाणुकनकनुमौ च ॥ ३० ॥ पाकुकः । नंशुकः ॥ ३० ॥ भियः कुकन् ॥ ३१ ॥ भीरुकः ॥ ३१ ॥
कुन् शिल्पिसंज्ञयेोरपूर्वस्यापि ॥ ३२ ॥ रजकः । इक्षुकुट्टकः ।
४०
तक्षकः । ध्रुवकः । अभ्रकम् । चरकः । चषकः । भञ्जकः । शालभजिका । काष्ठपुत्रिका । पुष्पप्रचायिका । शुनकः । भषकः ॥ ३२ ॥
( ३० ) पचनशधातुभ्यां कन् प्रत्ययः पचधातोश्चस्य कः । नशधातोनुम च । पचतीति पाकुकः सूपकारो वा । नश्यतीति नंशुकः । वाचको वा (३१) यो विभेति यस्माद्वा स भीरुकः कातरो वा ॥
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(३२) शिल्पिनि संज्ञायां च गम्यमानायां सोपपदादनुपपदादा सामान्याद्धातोः क्कुन् भवति | रजतीति रजकः । वस्त्रशोधको वा । इक्षून कुट्टह्यतीति इक्षुकुट्टकः गौडिकस्येयं संज्ञा । तक्षति तनूकरोतीति तदको वर्धकः शिल्पी | धुत्रको गर्भमाचकेो जनः संज्ञा वा । अभ्रति गच्छति येन तदभ्रकमौषधं सजा था। चरतीति चरको वैद्यकशास्त्रं गन्ता वा । चर्षाति भक्षयत्यस्मिन्निति चषकं पानपाचं शालं वा भञ्जतीति भञ्जकः । मत्स्यभेदः प्राकारो वा । शालान् भजन्ति यस्यां सा शालभञ्जिका क्रीडा । काष्टं पुत्रयति यस्यां सा काष्ठपुचिका क्रीडा। पुष्पैः प्रचाय ते पूजयन्ति यस्यां सा पुष्पप्रचायिका क्रीडा वा । शुनति गच्छतीति शुनकः श्वा | भषति भ यतीति भषकः श्वा वा । आमलते समन्ताद्धारयतीत्यामलको वृक्षभेदः । गौरादित्वान् ङीष् । आमलकी । कलामंशं पाति रचतीति कलापकश्चन्द्रमा वा । मल्लते गन्धं धरतोति मल्लिका पुष्पजातिवी | कन्यते दीप्यते काम्यतेऽभीप्स्यते वा तत्कनकं सुवर्णं वा । कटत्यावृणोत्यङ्गगमिति कटकमाभूघणं वा । कड़ा इति प्रसिद्धं । शिखरं राजधानी नितम्बं वा । लटति बाल इव भवतीति लटको दुर्जनो वा । इत्यादिषु शिल्पिसंज्ञयाः कुन् बोध्यः ॥
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४८
उगादिकोषः ॥
रमेरश्च लो वा ॥ ३३ ॥ रमकः । लमकः ॥ ३३ ॥ जहाते च ॥ ३४ ॥ जहकः ॥ ३४ ॥ ध्मा धम च ॥ ३५॥ धमकः ॥ ३५॥ हनो बध च ।। ३६ ॥ बधकः ॥ ३६॥
बहुलमन्यत्रापि ॥३७॥ कुहकः। कृतकम् । भिदकः। छिदकम् । रुचकम् । लङ्गकः । उज्झकः ॥ ३७ ॥
कृषद्धिश्चोदीचाम् ॥ ३८॥ कार्षकः । कृषकः ॥ ३८॥ उदकश्च ॥ ३९ ॥ वृश्चिरुषोः किकन् ॥ ४० ॥ वृश्चिकः । कृषिकः ॥१०॥ (३३ ) रमतेऽसौ रमकः । रमणशीला वा । लमकोपि स एव । (३४ ) जहाति त्यजति हानि करोतोति जहकः त्यागी कालो वा॥
( ३५ ) धर्मात शब्दं करोतीति अग्निं वा संयुक्ति स धमकः कर्मकारोवा ॥
( ३६ ) हन्तोति बधको हिंसकः ॥
( ३० ) बहुलवचनादन्यचापि क्वन् । कोहयति विस्मयं कारयतीति कुहकः । दाम्भिको नीहारो वा । कन्तति छिनत्तीति कतकं मिथ्या वा। भिनत्ति येन स भिदकः खड्गी वा । छिनति येन सच्छिदकं वजो वा। रोचतेऽनेन तदचकं मातुलुङ्गकं वा । विजौरा नीब इति प्रसिद्धं वा । लङ्गति गच्छतोति लङ्गकः । प्रियो वा । उज्झत्युत्सृजतोति, उजझकः । योगी मेघो वा ॥
(३८) कृषतीति कार्षकः कृषको वा कृषीबलः ॥ ( ३६ ) उति नेदयतीत्युदकं जलं वा ॥
( ४० ) वृश्चत छिनतीति वृश्चिकः विषो जीवविशेषः शूककीटो वा। केंचुआ इति प्रसिद्धः । कृति येन स कृषकः फालो वा ॥
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पा० ३ ॥
४६
प्राङि पणिकषः ॥ ४१ ॥ प्रापणिका । प्राकषिकः ॥११॥ मुषेर्दीर्घश्च ॥ १२ ॥ मूषिकः ॥ ४२ ॥ स्यमेः सम्प्रसारणं च ॥ १३ ॥ सीमिकः ॥ १३ ॥ क्रिय इकन् ॥ ४४ ॥ क्रयिकः ॥ ४४ ॥
पाङि पणिपनिपतिखनिभ्यः ॥ ४५ ॥ आपणिकः । आपनिकः । आपतिकः । आखनिकः ॥ ४५ ॥
श्यास्त्याहविभ्य इनच् ॥ ४६॥ स्त्येनः । श्यनः। हरिणः। अविनः ॥ ४६॥
(४१) प्रकर्षेण समन्तात्पणायत्यसौ प्रापणिकः । पण्यविक्रयी वा। प्राकति हिनस्तीति प्राषिकः पारदारिको वा ॥
( ४२ ) मुष्णाति पदार्थानिति मूषिकः । आखुवी। स्त्रियां मूषिका । प्रजादित्वाट्टाप् ॥
( ४३ ) स्यमति शब्दयतीति सोमिकः । वृक्षभेदो वा ॥
( ४४ ) क्रोणाति द्रव्येण पदार्थान्तरं ददाति गृह्णाति वा स क्रयिकः क्रेता । विधिको विक्रेता ॥
(४५ ) समन्तात्पणार्यात व्यवहरति स आपणिकः । वैश्यो वा । आपणेन व्यवहरतीति तद्धिते ठकि सिद्ध नित्स्वरार्थं वचनम् । आपनायतीति, आपनिकः । म्लेच्छजातिवा । समन्तात् पततीत्यापतिकः । श्येनो वा। समन्तात् खनतीत्याखनिकः । मूषिको वराहो वा ॥
(४६ ) श्यार्यात गच्छतोति श्येनः । पक्षिभेदो वा । स्त्यायति शब्दयति संघातयतीति स स्त्येनः । चौरो वा। हरतीति हरिणः । मृगः । पाण्डुवों वा । स्त्रियां हरिणी सुन्दरी छन्दोभेदो हरितवी वा । अति रक्षणादिकं करोतीति, अविनः । अध्वर्युवा ॥
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उगादिकोषः ॥
वृजेः किञ्च ॥ ४७ ॥ वृजिनम् ॥ १७ ॥ अर्जेरज च ॥ १८॥ अजिनम् ॥१८॥ बहुलमन्यत्रापि ॥ १९॥ द्रुदक्षिभ्यामिनन् ॥५०॥ द्रविणम् । दक्षिणः। दक्षिणा ॥५०॥ अर्तेः किरिश्च ॥ ५१ ॥ इरिणम् ॥ ५१ ॥ वेपितुह्योईस्वश्च ॥ ५२ ॥ विपिनम् । तुाहनम् ॥ ५२ ।। ( ४७ ) इनच कित् । वृक्ते वर्जयतीति वृजिनः केशः पापं वक्रो वा ।।
(४८) अजति गच्छति क्षिपति वा । तत अजिनम् । चर्म वा । अजादेशो वीभावनिवृत्यर्थः ॥
(४६ ) कठति कृच्छेगा जीवतीति कठिनम् । कठोरं वा । कुण्डते दहतोति कुगिड़नः । ऋषिर्वा । यस्यापत्यं कौण्डिन्यः । बईते प्रधानो भवतोति बहिणः । मयूरो वा । फलति विशीणों भवतोति फलिनः । फलवान वृक्षो वा। नलति गन्धयुक्ती भवतीति नलिनम् । कमलं वा। मस्यति परिणमतीति मसिमम् । सुपिष्टं वा । मलते धरतीति मलिनः । मलयुक्तो वा । द्रति जिघांसतीति द्रुहिणः । ब्रह्मा वा । अन्धकारं दात्यवखण्डयतोति दिनम् । दिवसं वा । इनच: कित्वादाकारलेापः ॥
(५० ) द्रवति गच्छति यते प्राप्यते वा । तद् द्रव्यं सुवर्ण परा. क्रमो वा । दक्षते वर्धते शीघ्रकारी भवति वा । स दक्षिणः सरलो वामभागः परतन्त्रोऽनुवर्तनं च स्त्रियां दक्षिणादानं प्रतिष्ठा वा ॥
( ५१) ऋच्छन्ति गच्छन्ति यत्र यस्माद्वा जनास्तत, इरिणम् । शून्यमषरभूमिवा ॥
(५२ ) यत् वेपते कम्पते यत्र वा तद्विपिनम् । गहनं वा । तोहति गच्छति याचते वा ततुहिनम् । हिमं वा । गुणे कृते इस्वः ।
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पा० २॥
૨૧
तलिपुलिभ्यां च ॥ ५३ ।। तलिनम् । पुलिनम् ॥ ५३ ॥ गरत उच्च ॥ ५४ ॥ गुर्विणी ॥ ५४ ॥ रुहेश्च ॥ ५५ ॥ रोहिणः ॥ ५५॥ महेरिनण् च ॥ ५६ ॥ माहिनम् । महिनम् ॥ ५६ ॥ किब् वचिपच्छिश्रिखुद्रुघुज्वां दीर्घोऽसंप्रसारणं च ॥५७॥ वाक् । प्राट् । श्रीः । स्त्रः । द्रुः । कटप्रूः । जूः ॥ ५७ ॥
(५३) तालयति प्रतितिष्ठतीति तलिनम् । विरल पृथग्भूतं स्वल्पं स्वच्छं वा । पोलयति महान् भवतीति पुलिनम् । जलसामीप्यं वा ॥
( ५४ ) गर्वति प्राप्नोति गर्वति मुञ्चति वा सा गुर्विणी गर्भिणी वा ॥
(५५) रोहति वीजेन जायते स रोहिणः । चन्दनवृक्षो वा । जातिवाचकात स्त्रियां डोष रोहिणी गौर्वा । प्रज्ञादित्वादण रौहिणः ॥
(५६ ) महति माते पूज्यते वा तन्माहिनं महिनम् । राज्यं वा । चादिनजनुवर्तते ॥
(५०) वक्ति शब्दानुच्चारयति यया सा वाक् । पृच्छतोति प्राट् । शब्द पृच्छतीति शब्दप्राट् शिष्यो वा । शब्दप्राशौ । शब्दप्राशः । छोः शूडनुनासिके चेति छस्य शः । अति श्रीयते वा सा श्रीः । ईश्वररचना शोभा वा । या सवति यस्या वा सा सः यज्ञसाधनं वा । द्रूयते प्राप्यते दुःखमनया सा दः । हिरण्यं वा। कटेन कटिभागेन प्रवते गच्छतोति कटप्रः । कामुको जनः कीटो वा । जति शीघ्र गच्छतीति जः । शशोऽश्वो वृषभ आकाशं विद्या वा । बाहुलकात-प्रवर्षन्ति मेघा यस्यां सा प्रावृट् । ऋतुः । द्वारयति संवृणोति यया सा द्वाः द्वारौ । उदकेन श्वयति वर्धते तत् उदवित् तकं वा । ऋचन्ति स्तुवन्ति यया सा ऋक् ॥
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उणादिकोषः ॥
आप्नोतेईस्वश्च ॥ ५८ ॥ आपः ॥ ५८॥ परौ बजेः षश्च पदान्ते ॥ ५९ ॥ परिव्राट् ॥ ५९ ॥ हुवः श्लुवञ्च ॥ ६० ॥ जुहूः ॥ ६॥ सुवः कः ॥ ६१ ।। खुवः ।। ६१ ॥ चिक् च ॥ ६२ ॥ युक् ॥ ६२॥ तनोतेरनश्च वः ॥ ६३ ॥ त्वक् ॥ ६३ ॥ ग्लानुदिभ्यां डौ ॥६४॥ ग्लौः । नौः ॥ ६४॥ चिरव्ययम् ॥ ६५॥
(५८) आप्नुवन्ति शरीरमित्यापः । अस्य नित्यं बहुवचनत्वं स्त्रीत्वं च । अपः । अद्भिः । अद्भ्यः । इत्यादि ।
(५६) विप् । परितः सर्वतो वति स परिवाट । परिवाजी । परिवाजः । संन्यासी वा ॥
(६०) जुहोति ददायति वा यया सा जुहूः । सम्भेदो वा ॥
(११) सवति घृतमस्मात् स सुवः । यज्ञसाधनं वा। बहुलवचनातध्रुवति स्थिरं भवतीति ध्रुवम् । निश्चलं वा ॥
(६२) स धातोश्चिक प्रत्ययोऽपि भवति । घृतमस्याः सति सा सक । यज्ञीचितद्रव्यं वा ॥
(६३) तनोति विस्तृता भवतीति त्वक् । त्वचौ । त्वचः । शरीरावरणं चर्म वल्कलं वा ॥
(६४ ) ग्लायति हर्षक्षयं करोतीति ग्लौः । चन्द्रमा वा । नुदति प्रेरयतीति नौः । जलतरणसाधनं वा ॥
(६५) अवस्थ एजन्तप्रत्ययान्तश्च्च्यन्त एवाव्ययसंज्ञो भवति। एतेन नियमेनोणादीनां व्यत्यन्नपक्षे कृन्मेजन्त इत्यनेनाच्यन्तानामव्ययसज्ञा न भवति। अग्लौ ग्लौः संपयत इति ग्लौकरोति । ग्लो भवति ग्लो स्यात् । नौकरोति इत्यादि । ग्लौः। नौः। अत्र केवलानामव्ययसंज्ञाऽभावाद्विभक्तिलुङ्न भवति॥
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पा० ३॥
रातेः ॥ ६६ ॥ राः ॥ ६६ ॥ गमेझैः ॥ ६७ ॥ गौः॥ ६७ ॥ भ्रमेश्च डूः ।। ६८ ॥ भ्रूः । अग्रेगूः ॥ ६८॥ दमे सिः ॥ ६९ ॥ दोः॥ ६९ ॥ पणेरिज्यादेश्च वः ॥ ७० ॥ वणिक् ॥ ७० ॥ वशः कित् ॥ ७१ ॥ उशिक् ॥ ७१ ॥ भृन उच्च ॥ ७२ ॥ भुरिक् ॥ ७२ ॥
(६६) राति ददाति रायते दीयते वा साराः। रायो । रायः । धनं सुवर्णं वा । वि प्रत्यये रैकरोति । इत्यादि ॥
(६०) गति यो यत्र यया वा सा गौः। पशुरिन्द्रियं सुखं किरण वज चन्द्रमा भूमिवाणी जलं वा । गौरिवाऽयो गमनं प्राप्तिाऽस्येति गवयो गोसदृशो वनपशुविशेषः । स्त्री गवयो । गौरादित्वान् डोष । विप्रत्यये गोकरीतीत्यादि । द्योतन्ते लोका अस्यां वा यया द्योतते सा द्यौः । अन्तरिक्षं वा । द्यावी। द्यावः । इत्यादि ॥
(६८) चाद् गमधातोर्डः । भ्रमति चलतीति भ्रः । नेवयोपरि रेखा वा । अग्ने गच्छतीत्यग्रेगः । सेवको वा ॥
(६) दाम्यत्युपशाम्यति यो येन वा स दोः । दोषौ । दोषः । बाहुर्वा ॥
( 50 ) पणार्यात व्यवहरतीति वणिक । वणिजौ । वणिजः । वैश्यो वा। प्रज्ञादित्वात् स्वार्थऽण् वाणिजः ॥
(०१) वष्टि यं कामयते यत्काम्यते वा स शिक। उशिजौ । उशिनः । अमिघृतं वा ॥
(२) इजिः कित् । भरति सर्व धरतोति भुरिक । भूमिवा । भुरिजी। भरिजः ॥ .
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उणादिकोषः ॥
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जसिसहोरुरिन् ॥ ७३ ॥ जसुरिः । सहुरिः ॥ ७३ ॥ सुयुरुवृत्रो युच् ।।७४॥ सवनः । यवनः।रवणः । वरणः॥७४॥ अशेरशच ॥ ७५॥ रशना ॥ ७५॥ उन्देनलोपश्च ॥ ७६ ॥ प्रोदनः ॥७६ ॥ गमेर्गश्च ॥ ७७ ॥ गगनम् ॥ ७७ ॥ बहुलमन्यत्रापि ॥ ७८ ॥
(७३ ) जस्यति मुञ्चति जासयति हिनस्ति वेति जसुरिः । वनं वा । सहते भारमिति सहुरिः । सूर्यो भूमिवा ॥
(०४ ) सवत्युत्पादयति सुनोति निस्सारयति रसान वा स सवनः । चन्द्रमा वा । यौति मिप्रयत्यमिश्रति वा स यवनः । मेच्छभेदो वा । रौति शब्दयतीतिरवणः । कोकिलः पक्षी वा । वृणोति स्वीकरोतीति वरणः । उदकं वृक्षभेदी वा ॥
(५) युच् धातोरशादेशश्च । प्रश्नुते व्यामोतीति रशना । स्त्रियः कटिभूषणं वा। दन्त्यसकारवास्तु रसनाशब्दो नन्दादित्वाल्ल्युप्रत्ययान्तः। रसयत्यास्वादति ययासा रसना जिहा। कलल्युटो बहुलमितिकरणे ल्युः॥
(०६) उनत्याो भवतीत्योदनः । भक्तं वा ॥ ( ७७ ) मस्य गः गच्छन्त्यस्मिन्निति गगनम् । आकाशं वा ॥
(c ) अन्यधातुभ्योपि बहुलं युच् प्रत्ययो भवति। द्योततेऽसौ द्योतनः प्रदीपो वा । स्यन्दते प्रस्रवति गच्छतोति स्यन्दनः।रथो वा । नयते प्राप्नोति रूपं येन तन्नयनम् । नेचं वा । चन्दत्याहादयतोति चन्दनम् । सुगन्धिर्वक्षो वा। रोचतेऽसौ रोचना । गोरोचनमौषधं वा । अस्यति प्रक्षिपतीति, असनः । पीतवर्णः शालवक्षो वा। राजानमततीति राजातनः । पुष्पं वा । शृणोत्यनया सा श्रवणा नक्षत्रं वा। एवमन्येऽपि यथाप्रयोगं युचप्रत्ययान्ताःशब्दाःसाध्याः॥
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पा०२॥
रुजेः क्युन् ॥ ७९ ॥ रजनम् ॥ ७९ ॥ भूसूधूभ्रस्जिभ्यश्छन्दसि ॥ ८० ॥ भुवनम् । सुवनम् । निधुवनम् । भृजनम् ॥ ८॥
कृपवृजिमन्दिनिधानः क्युः ।। ८१॥किरणः। पुरणः । वृजनम् । मन्दनम् । निधनम् ॥ ८१ ।। धृषधिषच सज्ञायाम् ॥ ८२ ॥ धिषणा ॥ ८२ ॥
(६) रजति वस्त्राण्यनेन तद्रजनम् । कुसुम्भं वा । स्त्रियां डोष । रजनो हरिद्रा । ल्युट प्रत्यये सति रज्जनमित्येव स्वरभेदश्च भवति । बाहुलकात-कल्पतेऽसौ कृपणः । लोभयुक्तो वा ॥
(८०) क्युन् । भवतोतिभुवनम् । लोको वा । बहुलवचनाद् भाषायामपि प्रयुज्यते । सूते सूयते वा स सुवनः। ईश्वरः मी वा । धनोति कम्पयतीति धुवनः । अग्नि । निधुवनम् । रतिक्रीडा वा । यद् यस्मिन् वा भृज्जति परिपक्वं भवतीति भृज्जनम् । अन्नमर्जनकपालं वा ॥
(८१) किरति विक्षिपत्यन्धकारमिति किरणः । पिपर्ति पालयति परयति वा स पुरणः । जलैः पूर्णौ भवतीति समुद्रो वा। वक्ते वर्जयतीति वजनम् । अन्तरिक्षं बलं वा । यो येन वा मन्दते स्तौति स्वपिति कामयते वा तन मदनम् । स्तोत्रं वा । नितरां दधाति यतन्निधनम् । मरणं वा । बाहुलकात-केवलादपि धनम् ॥
(२) धृष्णोति प्रागल्भ्यं ददाति स धिषण: गुरु: । धिषणा बुद्धिवा। अब सजाग्रहणेन ज्ञायते । उणादयः सामान्यायं यौगिका भवन्तीति । सज्ञायास्तस्मिन्नर्थे रूढत्वात् । यदि च प्रकृतिप्रत्ययविभागेन उमादिभ्यो यौगिकोऽर्थो न निस्सरेत तर्हि सर्व उणादिस्थाः शब्दाः सजावाचका एव स्युः । पुनः सजाग्रहणमनर्थकं स्यात् ॥
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ठणादिकोषः ॥
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हन्तेघुरच् ॥ ८३ ॥ घुरणः ॥ ८३॥ वर्तमाने पृषबृहन्महजगच्छत वच्च ॥ ८४ ॥ संश्चत्तृपदेहत् ॥ ८५॥
छन्दस्यसानच् शुजभ्याम् ॥ ८६ ॥ शवसानः । जरसानः ॥ ८६ ॥ (८३) इन्ति हनने न वा प्रादुर्भवति स घुरणः । शब्दो वा ॥
(८४ ) पृषदादयो वर्तमानार्थवाचका अतिप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । शतृवच्चैषां कार्य भवतीति । पति सिञ्चति हिनस्ति वा तत् पृषत् । मृगविशेषो विन्दवी । पृषती । पृन्ति स्त्रियां पृपती । बर्हति वर्धतेऽसौ बृहत् । महत्यर्थं चिलिङ्गः । स्त्रियां बृहती छन्दोभेदो वा । महति पूजयति पूज्यते वा तन्महत् । महान् । महतो भावो महिमा । स्त्रियां डीप । महती । नारदस्य सप्ततंत्री वीणा वा । गच्छतीति जगत् । धातोर्जगादेशः । संसारे नपुंसकं वायुवी जगत सि । जङ्गमवाचिनि चिलिङ्गः । स्त्रियां जगती छन्दोभेदो जनो वा ॥
(८५) एतेऽप्यतिप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । संश्चीयतेऽसौ संश्चत कुहको वा । प्रत्ययस्य सुट धातोरिकारलोपश्च । संश्चायते धमः । भशादित्वात् क्यङ् । तृप्नोति प्राणायतीति तृपत् । छत्रं वा । विशेषेण हन्तीति वेहत । विहन्ति गर्भमिति गीपघातिनो गौा । वेरुपसर्गस्यैकारादेशो धातोश्च टिलीपः । पूर्वसूत्रात् पृथक्करणं शतृवद्भावनिवत्यर्थम् । तेन वेहतौ । वेहतः । संश्चती । इत्यादि सिदुम् ॥
(८६) शन्ति गच्छस्मिन् स शवसानः । मागी वा । जाति वयसा होनो भवतीति जरसानः वृद्धो जनो वा । बाहुलकाद्-दृणाति तमोविदारयतीति दरसानः । प्रकाशो वा । तरयति येन स तरसानः । नौका वा । वणोतोति वरसानः । कृतदारो वा ॥
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पा० २॥
५०
ऋजिवधिमन्दिसहिभ्यः कित् ॥ ८७ ॥ ऋजसानः। वृधसानः । मन्दसानः । सहसानः ॥ ८७॥ अर्तेर्गुणः शुट च ॥ ८८ ॥ अर्शसानः ॥ ८८ ।। सम्यानच् स्तवः ।। ८९ ॥ संस्तवानः ॥ ८९ ॥ युधिबुधिशः किञ्च ॥९०॥युधानः। बुधानः। शानः॥९०॥ हुर्छः सनो लक् छलोपश्च ॥९१॥ जुहुराणः ॥९१॥ श्वितर्दश्च ॥ ९२ ॥ शिश्विदानः ॥ ९२ ॥ मुचियुधिभ्यां सन्वञ्च ।। ९३ ॥मुमुचानः । ययुधानः ॥९३॥
(८७ ) ऋञ्जत्योषध्यादिकं पाचयतीति ऋजसानः । मेघो वा । वर्धते सौ वृधसानः । पुरुषो वा । मन्दते स्तुत्यादिक करोतोति मन्दसानः जीवेऽग्निवी । सहतेऽसौ सहसानः । मयूरो यज्ञो वा ॥
(८८) य ऋच्छति प्राप्नोति सर्वान् स, अर्शसानः । अग्निवी । धातोर्गुणः प्रत्ययस्य शुडागमश्च ॥
(८६) सम्यक् स्तौतोति संस्तवानः । वाग्मी वा ॥
(E0) युध्यतेऽसौ युधानः । शत्रुवी । बुध्यते स बुधानः । आचार्यों वा । पश्यतीति दृशानः । लोकपालः सूर्या वा । बाहुलकात -कल्पते समयी भवतीति कृपाणः । खड्गो वा । पाषति स्थूलो भवतीति पाषायाः । णित्वादिः ॥
(६१) हुर्छति कुटिलो भवतोति जुहुराणः । चन्द्रमा वा ॥
( २ ) सनो लुक् तकारस्य दकारः । किदित्यनुवृत्तेर्गुणनिषेधः । श्वेततेऽसौ शिश्विदानः पापकर्मा वा ॥ (E३ ) मुञ्चत्यसौ मुमुचानो मोचकः । युध्यतेऽसौ युयुधानो योद्धा ॥
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५८
उगादिकोषः ॥
वृनतृचौ शंसिक्षदादिभ्यः सज्ञायां चानिटौ ॥ ९४ ॥ शंस्ता । शंस्तारौ । क्षत्ता । क्षत्तारौ ॥ ९४ ।। नप्तनेष्ट्रत्वष्ट्रहोतृपोतृभ्रातृजामातृमातृदुहित ।। ९५॥
सावसेक्रन् ॥ ९६ ॥ स्वसा ॥ ९६ ॥ (६४ ) शंस्यादिभ्यः क्षदादिभ्यश्च यथाक्रमं तृनतृचौ तौ चानिटौ । शंसति स्तौतीति शंस्ता स्तोता । अप्तनजिति सूत्रे नप्तप्रभृतेः पृथक पाठादौणा. दिकोस्तृनतचार्ग्रहणं न भवति । तेन शंस्तरौ । शंस्तरः इत्यादिषु दी| न भवति । शास्ति शिक्षते धर्मादिकमिति शास्ता । पण्डितो वा । प्रशास्ता राजा । प्रशास्तारौ । प्रशास्तारः । परिगणनादीर्घः । क्षद संवृताविति सौत्रो धातुः । क्षति संवणोतीति क्षता । सारथिद्वारपाला वैश्यायां शद्राज्जातो वा । पुनत्ति संपिष्टि येन स क्षोता मुसलो वा । उन्नति कार्यागीत्युन्नेता । ऋत्विग्वा । मन्यते जानात्यसौ मन्ता। विद्वान् । हन्तीति हन्ता चौरो वा । धाता । ईश्वरो वा । उपदेष्टा गुरुः । इत्यादि ॥
(५) नपत्रादयो दश तृनतजन्ता निपात्यन्ते । नपतीति नप्ता । पौत्रो दौहिची वा । नप्तुः पुत्रः प्रनप्ता स्यात् । नपत्री पौत्रो । नत्र: प्रकृतिभावः । नयतेः पुक । नयतीति नेष्टा । ऋत्विग्वा । त्विष्यतेऽसौ त्वष्टा । सूर्यो वा डकारस्याकारः । जुहोतीति होता यजमानो वा । व्यापकत्वेन सर्व पुनातीति पोता विष्णुरीश्वरः । भ्राता । सोदया वा । नकारलोपः । जायां कन्यां मातिमिनोति मिमीते मार्जर्यात वा स नामाता दहितः पतिः । मृजधातोः सति रेफजकारलोपः । मानर्यात सत्करोतीति माता । उत्पादिका वा । स्वमादित्वात् टानिषेधः । पाति रक्षतोति पिता। जनको था।दोन्धि कार्याणि प्रपूरयतीति दुहिता पुत्रो वा। दुहितुरपत्यं दौहित्रः ॥
(६६ ) सुष्टस्यतीति स्वसा भगिनी वा ॥
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पा० २॥
यतेवृद्धिश्च ॥ ९७ ॥ याता ॥ ९७॥ ननि च नन्देः ॥ ९८॥ ननन्दा । ननान्दा ॥९८॥ दिवे ।। ९९ ॥ देवा ।। ९९ ॥ नयतर्डिच्च ॥ १०० ॥ ना ॥ १०॥ सव्ये स्थश्छन्दसि ॥ १०१ ॥ सव्येष्ठा ॥ १०१ ॥
अर्तिमृधृधम्यम्यश्यवितृभ्योऽनिः ॥ १०२ ॥ अरणिः । सरणिः । धरणिः। धमनिः । अमनिः। अशनिः । अवनिः। तरणिः ॥ १०२॥ (89) यततेऽसौ याता । भ्रातृणां भायाः परस्परं यातारो भवन्ति ॥
(६८) न नन्दति तुष्यतीति ननान्दा । बाहुलकाद् वृद्धयभावेननन्दा । पत्युभगिनी वा ॥
(६६) दीति क्रीड़ादिकं करोतीति देवा । पत्युः कनीयान भ्राता वा ।।
( १०० ) ऋप्रत्ययस्य डित्वाटिलोपः । कार्याणि नयतीति ना । नरौ। नरः । बटुकेशा वधूवी ॥
(१०१ ) डित्वादाकारलोपः । सव्ये वामभागे तिष्ठतीति सव्येष्टा । साथिवा सप्तम्या अलुक् ॥
(१०२ ) ऋच्छति प्राप्नोति येन स, अणि: । अग्न्युत्पत्तये मथनी द्वे दारुणी वा । सन्ति गच्छन्त्यस्मिन् स सरणिः । मागा वा । ण्यन्तासधातारनिः सारणिः स्त्रियां सारणी । बाहुलकात-शृणाति हिनस्तीति शरणिः । धरति समिति धरणिः पृथिवी वा । धमिः सौत्रो धातुः । धमति प्रापर्यात रसादिमिति धनिः नाड़ी वा । अमतीत्यमनिः । गतिवा । येना
नाति योऽश्नुते व्याप्नोति वा स, अशनिः । वज वा । अति रक्षणादिकं करोतीत्यवनिः । भमिवा । तरति येन यया वा स सा वा तरणिः। सूर्यः कुमारी नौकौषधिभेदा वा । बाहुलकात-रजतीति रजनिः राचिर्वा । नलोपः । स्त्रियां रजनी द्राक्षा हरिद्रा वा ॥
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उगादिकोषः ॥
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आङि शुषे सनश्छन्दसि॥१०३॥ आशुशुक्षणिः॥१०॥ कृषेरादेश्व धः॥ १०४॥ धर्षणिः ॥ १०४॥
प्रदेर्मुट् च ॥ १०५॥ अद्मनिः ॥ १०५॥ वृतेश्च ॥ १०६ ॥ वर्तनिः ॥ १०६ ॥ क्षिपेः किच्च ॥ १०७॥ क्षिपणिः ॥ १०७॥ अर्चिशुचिहुमृपिछादिछर्दिभ्य इसिः ।। १०८॥ अर्चिः। शोचिः । हविः । सर्पिः । छदिः । छर्दिः ॥ १०८॥ बृहेर्नलोश्च ॥ १०९ ॥ बर्हिः ॥ १०९ ॥ द्युतेरिसिन्नादेश्च जः ॥ ११० ॥ ज्योतिः ॥ ११०॥
( १०३ ) सन्नन्तादाङपूर्वादनिः प्रत्ययः । समन्तात् शुष्यन्ति पदार्था येन स आशशक्षणिः । अग्निर्वा ॥
( १०४ ) कृषतीति धर्षीणः । पुंश्चली स्त्री वा । डोष धर्षणी ॥ ( १०५ ) अतीत्यमानः । अग्निवा ॥ ( १०६ ) वर्तते यस्मिन्निति वर्तनः । मार्ग एकपदी वा ।। ( १०७ ) क्षिपत्यनेन शचन स क्षिपणिः । आयुधं वा ॥
( १०८ ) अर्चति येन तदर्चिः । दीप्तिी । शोचति शोचयतीति शोचिः । प्रकाशो वा । हूयते यत्तविः । होमयोग्यं वस्तु वा । यतयेन वा सर्पति तत सर्पिः । घृतं वा । छादयति येन लदिः । छादनं तृणादिछादनसाधनं वा । इस्मनलनिति हस्वादेशः 1 छीत यतछर्दिः । वमनं व्याधिवौं । बाहुलकात-समन्तादवतीति, आविः । प्राकट्यम् । अव्ययशब्दोयम् ॥
१.०६ ) बृहति वर्द्धते तद् बर्हिः । दी वा ॥ ( ११० ) द्योतते प्रकाशते तज्ज्योतिः । अग्निः सूर्यादिकं वा । ज्योतिरधिकृत्य कृतो ग्रन्थो ज्योतिषम् । सज्ञापूर्वकविधेनित्यत्वाद व द्धिनिषेधः ॥
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पा० २ ॥
वसौ रुचेः सज्ञायाम् ॥ १११॥ वसुरोचिः ॥ १११॥ भुवः कित् ॥ ११२ ॥ भुविः ॥ ११२॥ सहो धश्च ॥ ११३ ॥ सधिः ॥ ११३॥ पिबतेस्थुक् ॥ ११४ ॥ पाथिः ॥ ११४ ॥ जनेरुसिः ॥ ११५॥ जनुः ॥ ११५॥ भनेर्धश्छन्दसि ॥ ११६ ॥ मधुः ॥ ११६ ॥
अर्तिपवपियजितनिधनितपिभ्यो नित् ॥ ११७ ॥ अरुः । परुः । वपुः । यजुः । तनुः । धनुः । तपुः ॥ ११७ ॥
एतेर्णिञ्च ॥ ११८॥ आयुः ॥ ११८॥
( १११ ) वसूनग्न्यादीन रोचतेऽसौ वसुरोचिः । यज्ञो वा । बाहुलकात्-केवलादपि रोचिः ज्वाला वा ॥
( ११२ ) इसिन कित । यो भवति यस्मिन् वा स भुविः समुद्रो वा॥ ( ११३ ) इसिन् । सहते भारमिति सधिः । अनड्वान् वा ॥ ( ११४ ) पिबति यो येन वा तत् पाथिः चक्षुः समुद्रो वा ॥
( ११५ ) जायते यतज्जनः । जनुषी । जननं वा । बाहुलकान्मनधातोरपि मन्यते जानातीति मनुः । मनुषो ॥
( १.१६ ) मन्यते बुध्यते यद्येन वा तत् मधु पवित्रद्रव्यं वा ॥
(११० ) ऋच्छति प्राप्नोतीत्यरुः । आदित्यो वणो वा । पिर्ति येन तत् परुः । ग्रन्थिी । वपति बीजादिकमस्मात्तद्पुः शरीरं वा । यति येन तद्यजुः । वेदविशेषो वा । तनोति कार्याण्यनेन तत्तनुः शरीरं वा । दिन्ति धनादिकं प्राप्नोति येन तदनुः वाणक्षेपणं वा । तपति दुःखयतीति तपुः सूर्योऽग्निः शत्रुवी ॥ |
(११८ ) ईयते प्राप्यते यतदायुः । जीवनं वा । जटापूर्वीज्जटायुः । पक्षिराजः ॥
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उणादिकोमः ॥
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चक्षेः शिञ्च ॥ ११९ ॥ चक्षुः ॥ ११९॥ मुहेः किञ्च ॥ १२० ॥ महः ॥ १२० ॥
गशवश्चतिभ्यः ष्वरच ॥ १२१ ॥ कर्वरः । गर्वरः । शर्वरी । वर्वरः । चत्वरम् ॥ १२१ ॥ नौ पः ॥ १२२ ॥ निषहरः ॥ १२२॥
इत्युगादिषु हितीयः पादः॥
(११६ ) चक्षते रूपमनुभवन्त्यनेन तच्चक्षुः । नेचं वा । चक्षुषा गृह्यत इति चाक्षुषं रूपम् ॥
(१२. ) मुह्यति भ्रान्तो भवतीति मुहुः । पौनः पुन्येऽऽत्ययं वा ॥
( १२१ ) किति विक्षिपतीति कर्वरः । व्याघ्रो दुष्टो वा कर्वरी राचियाघ्री दटा वा । गिरति निगरतीति गर्वरोऽहंकारः । अहङ्कारयोगाद् गर्वरो नायकः । शृणाति हिनस्ति प्रकामिति शर्वरी रात्रिवी । वृणातीति वर्वरः । प्राकृतजनो वा । चतते याचते स्वीक्रियते यत्तत चत्वरम् । अङ्गनं वा ॥
( १२२ ) निषीदति यो यत्र वा स निषद्वरः । पड़को निषट्टरी रात्रिर्वा ॥
इत्युणादिव्याख्यायां वैदिकलौकिककोषे द्वितीयः पादः ॥
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अथ तृतीयापादारम्भः ॥
-:*:छित्वरछत्वरधीवरपीवरमीवरचीवरतीवरनीवरगह्वरकदरसंयहराः ॥ १॥
इणसिजिदीकुष्यविभ्यो नक् ॥ २॥इनः।सिनः । जिनः। दीनः । उष्णः । ऊनः ॥ २॥
(१) छित्वरादय एकादश शब्दाः वरच प्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । छिनतीति छित्वरः धूर्तः । शचश्छेदनद्रव्यं वा । छदतेऽपवारयतीति छत्वरः । गृहं लताच्छादितं स्थानं वा । अत्रोभयत्र धातुदकारस्य तकारः। डुधा धारणे पा पाने, मा माने । एषामीत्वमन्त्यस्य । दधातोति धीवरः । नौवाहको वा । पिबति दुग्धा दिकमिति पोवरः स्यूलो वा । माति मीनाति हिनस्ति वा स मोवरः । हिंसको वा । चिनोति तणादिना चीयते वा स चीवरः । चीवरं वस्त्रं मुनिस्थानं वा । धातोदी चोदेशः । तीरयति कर्मसमाप्तिं करोतीति तीवरो जातिविशेषो वा । रेफलोपो गुणाभावश्च । नयतीति नीवरः । गुणनिषेधः । परिबाट वा। गाहते विलोडयतीति गबरम् । गहनं वा। हुस्वादेशः । कति वर्षत्यावृणोति वा तत् कटरम् । भोज्यं व्यञ्जनं वा । संयच्छतीति संयद्वरः । नृपो वा । मकारस्य दकारः । बाहुलकात-उपजुहोतीत्युपवरः । रथो वा । वरच प्रत्ययस्य पित्वात् स्त्रियां छित्वरी । इत्यादि सर्वत्र ङीष् ॥
(२) एतीति इनः । ईश्वरो राजा प्रभुः सूर्यो वा । इनेन स्वामिना सह वर्तत इति सेना । सिनोति बध्नातीति सिनः । काणो वा । जयतोति जिनः । अतिबद्धो जयशीलो नास्तिकभेदो वा । दीयते क्षीणो भवतीति दीनः । दुःखी वा । ओषति दहतीत्युष्णाम् । ईषत्तप्तं वा । वाच्यलिङ्गः । अति रक्षादिकं करोतीत्यूनः । असंपूर्ण वा ॥
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उणादिकोषः ॥
फेनमीनौ ॥ ३ ॥ कृषवणे ॥ ४ ॥ कृष्णः ॥ ४ ॥ वन्धेधिबुधी च ॥ ५॥ बधः । बुधः ॥ ५॥ धावस्यज्यतिभ्यो नः॥६॥धानाः । पर्णम् । वस्नः । वेनः। अत्नः ॥ ६॥ लक्षेरटमुट् च ॥ ७॥ लक्षणम् । लक्ष्मणम् ॥ ७॥ वनेरिचोपधायाः॥ ८ ॥ वेन्ना ॥ ८ ॥
(३) स्फायते वर्तुते स फेनः । हिण्डोरः । समुद्रफेन इतिप्रसिद्धः । जलविकारो वा । फेनायते नदी । मोनाति हिनस्तीति मीनः । राश्यन्तरो मत्स्यो वा ॥
(४) कृषतीति कृष्णो नीलवर्णी वा कृष्णा पिप्यली वा । बाहुलकात् जिघर्ति क्षरति चित्तं यया सा घणा दौर्मनस्यं वा ॥
(५) ब्रधनातोति ब्रधनः वुध्नातीति । बुधनः । ब्रधनो महान सूर्यो वा । बुधनी मेघो मूलमन्तरिक्ष वा ॥
(६) दधातीति धाना: अग्निपक्वा यवा वा । नित्यं स्त्रीलिङ्गो बहवचनञ्च । पिपर्ति पालयति पूरयति वा तत् पर्णम् । पचं वा । वसति येन स वस्नः । मूल्यं वेतनं वा । अति गच्छति प्राप्नोति वा स वेनः । कमनीयः प्रजापतिरीश्वरो वा । अति निरन्तरं गच्छतीति अनः । सूर्यो वा । बाहुलकात-शृणोतीति श्रोणः । पङ्गुवा ॥
( 0 ) लक्षयतीति लक्षणः । लक्षमणम् । चिह्न नाम था । रामभ्राता लक्षमणो वा । हंसस्त्री लक्षणा सारसी वा ॥
(८) वन्यते सम्भज्यते या सा वेन्ना । नदी वा ।
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पा०
॥
सियेष्टेयं च ॥ ९ ॥ स्योनः ॥ ९॥
कृवज़सिद्र पन्यनिस्वपिभ्यो नित् ॥१०॥कर्णः। धर्णः। जर्णः । सेना । द्रोणः । पन्नः । अन्नम् स्वप्नः ॥ १० ॥
धेट इच्च ॥ ११ ॥धेनः। धेना ॥ ११ ॥ तृषिशुषिरसिभ्यः कित् ॥१२॥ तृष्णाशुष्णः।रस्नम् ॥१२॥ सुनो दीर्घश्च ॥ १३ सूना ॥ १३ ॥ रमेस्त च ॥ १४ ॥ रत्नम् ॥ १४ ॥
(६) सीति तन्तून सन्तनातीति स्यूनः । आदित्यो वा । टिभागस्य यू इत्यादेशः । बाहुलकात-केवलोऽपि न प्रत्ययस्तेन ऊठादेशे कृते स्यानः सुखी स्योनं सुखमित्यपि सिद्धं भवति ।
(१०) नो नित् । किरति विक्षिपोति कर्णः। श्रोत्रं क्षत्रियविशेषा वा। वृणोति वियतेवा सवर्णः ब्राह्मणादिःशुलादिःस्तुतियशोरूपमक्षरंस्वीकारश्च। जोर्यतीति जर्णः । चन्द्रमा वृद्धो वा।सिनोति बधनाति शनिति सेना। इनेन सह वर्तत इति पूर्वमुक्तम् । द्रवति गच्छतीति द्रोणः। कृष्णकाको मानविशेषाऽर्जुनगुरुवाद्रोणी जलसेचनी वा । पनाति स्तोतीति पन्नः। सो वा। अनिति जीवयतीत्यन्नमोदनादिकं वा । यः स्वपिति यत् सुप्यते वा स स्वनः । निद्रा वा॥
(११) धन्ति पिबन्ति यस्मात्स धेनः समुद्रो धेना नदी वा । आतत्वनिवृत्यर्थ इकारादेशः ॥
(१२) तृष्यति काक्षति पिपासति वा यया सा तृष्णा । लिप्सा पिपासा वा । शुष्यति रसादिकमिति शुष्णः । सूर्योऽग्निर्वा । रसति शब्दयतीति रस्नम् । द्रव्यं वा ॥
( १३ ) यः सुनोति यत्र वेति सूना । जन्तुबधस्थानं वा ॥
( १४ ) ण्यन्ताद्रमेन प्रत्ययो मस्य तश्चादेशः। रमयति हर्षयतीति रत्नम् । जाती जाती यदुतकृष्टं तद्धि रत्नं प्रचक्षते । अश्वरत्नम् । गजरत्नम् । मणिरत्नम् । स्त्रीरत्नम् । इत्यादि ॥
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उणादिकोषः ॥
रास्नासानास्थूणावीणाः ॥ १५ ॥ गादाभ्यामिष्णुच् ॥ १६ ॥ गेष्णुः । देष्णुः ॥ १६॥ कृत्यशूभ्यां नः ॥ १७॥ कृत्स्नम् । अक्षणम् ॥ १७ ॥ तिजेर्दीर्घश्च ॥ १८॥ तीक्षणम् ॥ १८॥ शिलषेरचोपधायाः ॥ १९ ॥ इलक्षणम् ॥ १९ ॥
यजिमनिशुन्धिदसिजनिभ्यो युच् ॥ २०॥ यज्यः । मन्यः। शुन्ध्युः । दस्युः । जन्युः ॥ २० ॥
भुजिमृभ्यां युक्त्युकौ ॥ २१॥ भुज्युः । मृत्युः ॥ २१ ॥ ( १५ ) रसति शब्दयतीति रास्ना । गन्धद्रव्यं वा । सस्ति स्वपिति यया सा सास्ना । गवादीनां कण्ठाऽधोभागश्चर्म वा । तिष्ठति छादनादिकमनया सा स्थणा गृहस्तम्भो वा । आकारस्य ऊ आदेशः । वेति व्याप्नोति शब्दोऽस्याः सा वीणा वाद्यावशेषो वा । निपातनाणणत्वम् ॥
(१६ ) गायति शब्दं करोतीति गेष्णुः । गाथको वा । ददातीति देष्णुः । दानशीलो वा ॥
(१७ ) कृन्तति स्वल्पमिति कृत्स्नम्। संपूर्ण वा । अश्नुते व्याप्नोतीत्यच्याम् । अखण्डं वा ॥
( १८ ) तितिक्षते तत् तीक्षणम् । तीवम् । वालिङ्गोऽयं शब्दः । तीक्षणा बुद्धिः । तीक्षणः पुरुषः । तीक्षणं घृतम् ॥
(१६) कस्नः । श्लिष्यतीति श्लक्षणम् । सुकुमारं चिलिङ्गेषु वा ।
(२०) यजतीति यज्युः । अध्वयुा । मन्यतेऽसौ मन्यः । शोकः क्रोधो वा । शुन्धतीति शुन्ध्युः।अग्निवी । दस्यति नाशयति परषदार्थानिति दस्युः। तस्करो वा । जायते प्रादुर्भवतीति जन्युः । शरीरी वा । बाहुलकादनादेशाभावः।
( २५ ) यो भुक्ति यत्र वा सभुज्यः पात्रं वा। म्रियत इति मृत्युः । शरीरवियोगो वा स्त्रीलिङ्गः पुंल्लिंगश्च ॥
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पा० ३॥
सरतेरयुः ॥ २२ ॥ सरयुः ॥ २२ ॥ पानीविषिभ्यः पः ॥२३॥ पापम् । नीपः । वेष्पः॥ २३॥ च्युवः किञ्च ॥ २४ ॥ च्युपः ॥ २४ ॥ स्तुवो दीर्घश्च ॥ २५ ॥ स्तूपः ॥ २५॥ सुशृभ्यां निच ॥ २६ ॥ सूपः । शूर्पम् ॥ २६ ॥ कुयुभ्यां च ॥ २७ ॥ कूपः। यूपः ॥ २७ ॥ खष्पशिल्पशष्पवाष्परूपपर्पतल्पाः ॥ २८॥
( २२ ) यः सति यत्र जलानि वा सरन्ति स सरयुः । नदी वा । अयूप्रत्यय इति पाठान्तरम् । सरयूः ॥ - (२३) पान्ति रक्षन्त्यात्मानमस्मादिति पापमधी वा । तद्योगात्पापः पुरुषः । नयतीति नेपः । पुरोहितो वा । वेष्टि व्याप्नोति वेष्पः । पेयमुदकंवा ॥
( २४ ) च्यवते प्राप्नोति वदति वा येन स च्युपः । मुखं वा ॥ ( २५ ) स्तौतीति स्तूपः । भूमिसमुच्छायो यज्ञवेदिवी ॥
( २६ ) किद् दीर्घश्च । सुनोति सूयते पच्यते वा स सूपः पक्वं द्विदलान्नं वा । शृणाति हिनस्तोति पं मानभेदोऽनशोधक पाचं वा ॥
(२०) कित दीर्घश्च । कौति शब्दयतीति कूपः । यौति मि प्रयतीति यूपः । यज्ञशालास्तम्भो वा ॥
(२८) खष्पादयः पप्रत्ययान्ता निपाताः । खनतोति खष्पः । क्रोधो बलात्कारो वा । नकारस्य षत्वम् । यत् शीलात समादधाति तत शिल्पम् कौशलं वा । हस्वादेशः । शष्यते हन्यते तच्छष्पम् । बालतणं कान्तिक्षयो वा । षत्वम् । बाधते दुःखयोति बाष्पम् । नेत्रजलमष्मा वा । धकारस्य सत्वम् । रौति शब्दयतीति रूपम् । आकृतिः स्वभावः सौन्दर्य वा, दीर्घादेशः । पिपीति पर्पम् । गृहं बालतणं वा । तलति प्रतिष्ठां करोतीति तल्पम् । शय्या स्त्रियो वा । बालहुकात-चमति भक्षयतीति चम्पा । नगरी वा। पाति रक्षतीति पम्पा । नदी वा । हस्वत्वं मुडागमश्च ॥
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उणादिकोषः ॥
स्तनिहृषिपुषिगदिमदिभ्यो रित्नुच्॥२९॥ स्तनयित्नः। हर्षयित्नुः । पोषयित्नुः । गदयित्नुः । मदायित्नुः ॥ २९ ॥
कहनिभ्यां क्नुः ॥ ३० ॥ कृनुः । हत्नुः ॥ ३० ॥ गमे सन्वच्च ॥ ३१ ॥ जिगत्नुः ॥ ३१ ॥ दाभाभ्यां नुः ॥ ३२ ॥ दानुः । भानुः ॥ ३२ ॥ वचेर्गश्च ॥ ३३ ॥ वग्नुः ॥ ३३ ॥ धेट इच्च ॥ ३४ ॥ धेनुः ॥ ३४ ॥ सुवः कित् ॥ ३५ ॥ सूनुः ॥ ३५ ॥ जहातेऽन्त्यलोपश्च ॥ ३६ ॥ जह्नः ॥ ३६ ॥
( २६ ) स्तनयति शब्दयतीति स्तनयित्नः । मेघो विद्युद्वा । हर्षयतीति हर्षयित्नुः । हयिता । सुवर्णं वा । पोषयतीति पोयित्नुः । पोषयिता । गादयतीति गयितनुः । वावटूको वा। मादयतीति मदयितनुः मदिरा वा । अत्र सर्वत्र अयामन्तालवाय्येतनु० इति सूत्रेण णेरयादेशः ॥
(३०) करोतीति कृतनुः । शिल्पी वा । यो हन्ति येन वा स हतनुः । व्याधिः शास्त्रं वा ॥
(३१) गमयति शरीराणोति जिगतनुः प्राणी वा ।।
(३२) ददातीति दानुः । दानशीलो बुद्ध्यादिविचक्षणो वा । भाति दीप्यतेऽसौ भानुः सूर्यः प्रकाशः किरणो वा । स्वभान राहुः । चित्रभानुः सूर्यो ग्निर्वा । बृहद्भानुरग्निः॥ ..
(३३) वक्तीति वग्नुः । वाचालो वा ॥
(३४) धन्ति पिबन्ति यस्याः सा धेनुः । नवप्रसूता गौ: । कनि सति धेनुका हस्तिनी वा ॥
(३५) सूयत उत्पद्यतेऽसौ सूनुः । अनुजः पुत्रः सूर्यो वा ॥ (३६) जहाति दोषानिति जहनुः । कश्चिद्रार्षिा ॥
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पा० ३.
8
स्थो णुः ॥ ३७॥ स्थाणुः ॥ ३७॥ अजिवृरीभ्यो निच्च ॥ ३८॥ वेणुः । वर्तुः । रेणुः ॥ ३८॥ विषेः किञ्च ॥ ३९ ॥ विष्णुः ॥ ३९ ॥
कदाधारार्चिकलिभ्यः कः॥४०॥ कर्कः । दाकः । धाकः । राका । अर्कः। कल्कः ॥४०॥
सृवृभूशुषिमुषिभ्यः कक्॥ ११ ॥ सृकः । वृकः । भूकम् । शुष्कः । मुष्कः ॥४१॥
(३०) तिष्ठतीति स्थाणुः शुष्कवृक्षो निश्चलो वा ॥
(३८) अजति गच्छति प्रक्षिपति वा स वेणुः । वंशी राजविशेपो वा । वियते सम्भजतीति वर्णः। गदो देशभेदो वा । रिणाति गच्छति हिनस्ति हन्यते वा स रेणुः । धूलिः । सुरेणुः सुवर्णरजः । त्रसरेणुः सुरेणुवा ॥
(३६) वेवेष्टि व्याप्नोति चराचरं जगदिति विष्णुर्जगदीश्वरः ।।
( ४० ) बहुलवचनान्न ककारस्येत्सना । करोतीति कर्कः । अग्निः शुक्लाश्वो दर्पणो घटो वा । ददातीति दाकः । यजमानो वा । दधातीति धाकः । आधारोऽनडान वा । राति ददातोति राका । पौर्णमासी नदीभेदो वा । अर्चयतीत्यर्कः । अर्कपर्ण स्फटिकं सूर्यो वा । कलते शब्दयतीति कल्कम्। दम्भः किल्विषं वा । बाहुलकात-रमतेऽसौ रज्जकः कृपणो मन्दो वा । कपिलकादित्वाल्लत्वे कृते । लङ्का दुष्टनगरी वृक्षशाखा पुंश्चलो वा ॥
(४१) सरतीति सूकः वाणो वजं वायुरुत्पलं वा । वृणोतीति वृकः काकः श्वापदो वा । वृक एव वार्कण्यः । भवतीति भूकम् । छिद्रं कालो वा । शुष्यतीति शुष्कः । नीरसो वा । मुष्यत आवियत इति मुष्कः अण्डकोषः सङ्घातो वा । मुष्कोऽस्यास्तीति मुष्करः । बाहुलकादति रक्षणहेतुर्भवतीत्योकः । राशिः स्थानं वा । मर्व्यते बध्यतेऽसौ मूकः । वचनवर्जितो वा । रेफवकारयोर्लोपः ॥
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90
उणादिकोषः ॥
शुकवल्कोलकाः ॥ ४२ ॥
इण्भीकापाशल्यतिमर्चिभ्यः कन् ॥४३॥ एकः । भेकः । काकः । पाकः । शलकम् । अत्कः । मर्कः ॥ ४३॥
नौ हः ॥ ४४ ॥ निहाका ॥ ४४ ॥ नौ सदेर्डिच्च ॥ १५॥ निष्कः ॥ ४५ ॥ स्यमेरीट् च ॥ ४६ ॥ स्यमीका । स्यमिकः ॥ ४६ ॥ अजियधनीभ्यो दीर्घश्च ॥ ४७॥ वीकः । यूका । धकः। नीकः ४७॥
(४२) शुकादयः कप्रत्ययान्ता निपाताः । शोभतेऽसौ शकः पक्षिजातिया॑सपुत्रो वा । बलते संवृणोति येन तत् बल्कलं वा । ओपति दहतोति) उल्का । विद्युदग्नेर्वाला वा । षकारस्य लत्वम् ॥
(४३) एति प्राप्नोतीत्येकः । मुख्योऽन्यः केवलो वा । यो बिभेति यस्माद्वा स भेकः । मण्डको मेघो वा । कार्यात शब्दयतोति काकः । वायसा वा । पिबत्यसाविति पाकः शिशुव॑हो वा । शल्यति गच्छति शल्यते वा तत शल्कम वल्कलं वा । अति निरन्तरं गच्छतोत्यत्कः । पथिकः शरीरावयवो वा । मर्च इति सोचो धातुः मर्चति चेष्टतेऽसौ मर्कः । शरीरवाया। बाहुलकात-श्यतीति शाकम् । स्यतीति साकं वा ॥ - (४४) नितरां जहाति त्यजतीति निहाका । गोधिका वा ।। (४५) निषोदतीति निष्कः । परिमाणभेदो वा ।।
(४६ ) स्यमति शब्दयतीति स्यमीकः । वल्मीको वृक्षभेदो वा । चकारादिडागमे स्यमिकः ॥
( ४० ) अजति गच्छतीति वीकः । वायुः पक्षी वा। योतीति यूका। शिरः केशजन्तुर्वा । धूनोति कम्पयतीति धूकः । वायुा । नयतीति नीकः । वृक्षविशेषो वा ।
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पा० ३॥
हियो रश्च लो वा ॥ १८॥ हीका । हलीका ॥ १८॥
शकेरुनोन्तोन्युनयः । १९॥शकुनः । शकुन्तः। शकुन्तिः। शकुनिः ॥ १९॥
भुवो झिच् ॥ ५० ॥ भवन्तिः॥ ५० ॥ कन्युच् क्षिपेश्च ॥ ५१॥ क्षिपण्यः । भुवन्युः ॥ ५१ ॥ अनुङ् नदेश्च ॥ ५२ ॥ नदनुः । क्षिपणुः ॥ ५२ ॥
कृवृदारिभ्य उनन् ॥ ५३॥ करुणा । वरुणः । दारुगम् ॥ ५३॥
(४८) जिहेति लज्जां करोतीति छोका होका लज्जा वा ॥
( ४६ ) उन, उन्त, उन्ति, उनि, इत्येते प्रत्यया भवन्ति । शक्नोतोति शकुनः । शकुन्तः । शकुन्तिः । शकुनिः । पक्षिनामानि वा ॥
( ५० ) भवन्ति पदार्था यस्मिन् स भवन्तिः । वर्तमानकालो वा। कामयतेऽसौ कुन्तिः । स्त्रियां कुन्ती । धातोः कुरादेशः प्रत्ययादिलोपश्च । अवतीति, अवन्तिः । राजा वा । वदतीति वदन्तिः । कोलाहलो वा । किंवदन्ती जनश्रुतिः । कुन्त्यादयो बाहुलकादेव भवन्ति ॥
( ५१.) चाद् भुवः । क्षिति प्रेरयतीति क्षिपण्युः । वसन्त ऋतुर्वा । भवतीति भुवन्युः । स्वामी सूर्यो वा ॥
(५२) चात क्षिपः । नदत्यव्यक्तं शब्दं करोतीति नदनुः मेघो वा । क्षिप्यतीति क्षिपणुः वायुर्वा ॥
( ५३ ) किरति विक्षिपति दुर्गुणमिति करुणः। वृक्षभेदो वा । करुणा कृपा वा । करुणा शीलमस्येति कारुणिकः । वृणोति वियते वाऽसौ वरुणः । उत्तमं जलं वृक्षभेदो वा । दारयति यत् येन वा तदारुणं भीषणं वा ॥
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०२
उणादिकोषः ॥
त्रो रश्च लो वा ॥ ५४ ॥ तरुणः । तलुनः ॥ ५४ ॥ क्षुधिपिशिमिथिभ्यः कित् ॥ ५५ ॥ क्षुधुनः । पिशुनः । मिथुनम् ॥ ५५ ॥
फलेर्गुक् च ॥ ५६ ॥ फल्गुनः ॥ ५६ ॥ अशेर्लशश्च ॥ ५७ ॥ लशुनम् ॥ ५७ ॥ अर्जेलुिक् च ॥ ५८ ॥ अर्जुनः ॥ ५८ ॥ तृणाख्यायां चित् ॥ ५९ ॥ अर्जुनम् ॥ ५९ ॥ अर्त्तेश्व ॥ ६० ॥ अरुणः ॥ ६० ॥ अजियमिशीङ्भ्यश्च ॥ ६१ ॥ वयुनम् । यमुना । शयुनः ॥ ६१ ॥
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( ५४ ) उनन् । तरतीति तरुणः । तलुनः । युवा वृक्षभेदो वा । स्त्रियां गौरादित्वान् ङीष् तरुणी तलुनी वा युवती ॥
( ५५ ) चुर्ध्यात भोक्तुमिच्छतोति क्षुधुनः । म्लेच्छजातिर्वा । पिशत्यवयवं करोतीति पिशुनः खलः सूचको वा । मेथति जानाति ज्ञायते हिनस्ति वा तमिथुनम् । द्वयोः संयोगो राशिर्वा ॥
(५६) फलति निष्पत्रो भवतोति फल्गुनः शुक्लो वा ॥
( ५० उनन् । अश्यते भुज्यते यत्तल्लशुनम् । औषधरूपः कन्दो वा ॥ ( ५८ ) उनन् अर्जयतीत्यर्जुनः । शुक्लो मयूरो वृक्षभेदो वा । अर्जुनी । सौरभेयी ॥
(५६) अर्जयति यत्तदर्जुनं तृणम् । चित्करणमन्तोदात्तार्थम् ॥ (६०) ऋच्छति प्राप्नोतीत्यरुणः सूर्यः कुष्ठं रक्तं वा ॥ (६१) वीयते गम्यतेऽचेति वयुनम् । मन्दिरं वा । यच्छतीति यमुना । नदीभेो वा । तेऽसौ शयनः । अजगरो वा ॥
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पा० ३॥
वृतवदिवचिवसिहनिकमिकषिभ्यः सः ॥६२॥ वर्षम् । तर्षः। वत्सः । वक्षः । वत्सम् । हंसः । कंसः । कक्षम् ॥६२॥ प्लुषेरचोपधायाः ।। ६३ ॥ प्लक्षः ॥ ६३ ॥ मनेर्दीर्घश्च ॥ ६४ ॥ मांसम् ॥ ६४ ॥ अशेर्देवने ॥ ६५ ॥ अक्षः ॥६५॥
स्नुवश्चिकत्यषिभ्यः कित्॥६६॥ स्नुषा । वृक्षः।कत्सम् । ऋक्षम् ॥ ६६ ॥ (६२) वृणोति स्वीकरोतीति वर्षम् । संवत्सरोवृष्टिरायावती मेघो वा। स्त्रियां बहुवचनान्तो वर्षाःप्रावृषि ऋतौ।तरति येन यत्र वा स तर्षः ।समुद्रो वा। वदतोति वत्सः। बालो वा वयस्मिन्निति वक्षः। वक्षःस्थलं वा। वसयस्मिन्निति वत्सम्। निवासस्थानंवा। हन्तीति हंसा निीभः सूर्यः पक्षिभेदो श्वभेदः शरीरस्थो वायुवी । कामयते परपदार्थानिति कंसः । तैजसद्रव्यं पात्रतस्करो वा । कतिहिनस्तीति कक्षमा तणं लतावनसमीपं बाहुमलं वा। बाहुलकात-राजते दोप्यते सा राक्षा लाक्षा । कपिलकादित्वाल्लत्वम् । यौतीति योषा स्त्री वा॥
(६३ ) प्लोषति दहतीति प्लक्षः । पिप्पलं पर्कटी वा । पारि इति प्रसिद्धा । द्वीपभेदो गृहस्य द्वारपाव वा ॥
(६४ ) मन्यते ज्ञायतेऽनेन तन्मांसम् । शरीरोपचयो वा ॥
(६५) अश्नुते व्याप्नोतीत्यक्षः । अक्षाणीन्द्रियाणि तुषं चक्र शकटं व्यवहारो वा ॥
(६६ ) स्नौति प्रस्रवतीति स्नुषा । यवीयसो भ्रातुर्भायाँ वा।वृश्च्यते छिद्यतेऽसौ वृक्षः। वृक्षवरण इत्यस्मादपीगुपधात् के प्रत्यये वृक्ष इतिसिध्यति। अर्थभेदायात्र वृश्चिग्रहणं तेन छेद्यत्वात कार्य जगदपि वृक्ष उच्यते । कुन्तति छिनतीति कृत्समुदकम् । ऋषति गच्छतीति ऋक्षम् । नक्षत्रसामान्यं वा । बाहुलकात-समन्तान्मपति हिनस्तीत्यामिक्षा। क्षीरविकारो वा। लिभ्यतेऽल्पाभवतीति लिक्षा । शिरः केशजन्तुर्वा । रोहति वीजाज्जायतेसा रक्षः । वृक्षजातिः प्रीतिहीनो वा ॥
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उणादिकोषः ॥
ऋषेोतो ॥ ६७ ॥ ऋक्षः ॥ ६७॥ उन्दिगुधिकुषिभ्यश्च ॥६८॥ उत्सा । गुत्सः।कुक्षः॥६८॥ गृधिपण्योर्दकौ च ॥ ६९ ॥ गृत्सः ॥ पक्षः ॥ ६९ ॥ अशेः सरन् ॥ ७० ॥ अक्षरम् ॥ ७० ॥ वसेश्च ॥ ७१ ॥ वत्सरः ॥ ७१ ॥ संपूर्वाचित् ॥ ७२ ॥ संवत्सरः ॥ ७२॥ कृधमदिभ्यः कित्॥७३॥ कसरः। धूसरः। मत्सरः॥७३॥ पतेरश्च लः ॥ ७१ ॥ पत्सलः ॥ ७४ ॥
( ६७ ) ऋषति गच्छतोति ऋक्षः । मृगजातिभेदो भल्ल कः । पूर्वसूचेग मिढे जातिनियमाद्यौगिके ऋषधातोः पः प्रत्ययो वा ॥
(६) उनत्ति निद्यतीत्युत्सः। जलस्रवणास्थानमृषिर्वा । गुध्नाति रोषं करोतोति गुत्सः । हारभेदः पुष्पगुम्फो वा । कुष्णाति निष्कर्षतीति कुक्षः । जठरस्थानं वा ॥
(६६ ) चित् गृध्यति अभिकाजतीति गत्सः । कामो वा । गकारस्य भष्भावनिवृत्यर्थो दकारादेशः । पणार्यात स्तौति ध्यवहरति वा येन यत्र वा स पक्षः । मासाः पार्श्वभागः साविरोधः सम हो बल मित्रसहायो वा ॥
( 50 ) अश्नुते व्याप्नोतोत्यक्षरम् । ब्रह्म वर्णो मोक्ष उदकं वा । ( १ ) वसनत्यस्मिन्निति बत्सरः । वर्षा वा ॥ ( ७२ ) चित्वादन्तोदात्तस्वरः । सम्यग्वसन्त्यत्र स संवत्सरः ॥
( ७३ ) यः करोति क्रियते वा स कृसरः । तिलौदनं मिश्रं वा । धूनातोति धूसरः । ईषत्याण्डुरो वा । मादयतोति मत्सरः । असह्यपरसंपतिर्जनः कृपगाः ऋडो वा । मत्सरा मक्षिका वा ॥
(०४ ) पतन्ति गच्छन्ति यत्र स पत्सलः । पन्था वा ॥
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पा० ३ ॥
तन्यृषिभ्यां क्रन् ॥ ७५ ॥ तसरः । ऋक्षरः ॥ ७५ ॥ पीयुकणिभ्यां कालन् ह्रस्वं सम्प्रसारणञ्च ॥ ७६ ॥ पियालः । कुष्णालः ॥ ७६ ॥
कटिकुषिभ्यां काकुः ॥ ७७ ॥ कठाकुः । कुषाकुः ॥ ७७ ॥ सर्तेर्दुक् च ॥ ७८ ॥ सृदाकुः ॥ ७८ ॥ वृतेर्वृद्धिश्व ॥ ७९ ॥ वार्त्तीकुः । वार्त्तकम् ॥ ७९ ॥ पदेर्नित्संप्रसारणमलोपश्च ॥ ८० ॥ पृदाकुः ॥ ८० ॥ सृयुवचिभ्योऽन्युजागूजक्नुचः ॥ ८१ ॥ सरण्युः । यवागूः । वचक्नुः ॥ ८१ ॥
आनकः शीद्भियः ॥ ८२ ॥ शयानकः । भयानकः ॥ ८२ ॥
०५
(२५) तनोतीति तसरः । सूत्रवेष्टना वा । ऋषति प्राप्नोति वा स ऋक्षरः । ऋत्विग्वा ॥
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(०६) पीयुः सौबा धातुः पोर्याति तर्पयतीति पियालः । वृक्षभेदो वा । चिरोंजी इति प्रसिद्धा । कर्णाति शब्दं करोतीति कुपालः । देशभेदो वा । बाहुलकात् - भजतीति भगालम् । नरमस्तकं था । कुत्वं च ॥ (०२) कठतोति कठाकुः पक्षी वा । कुषति निष्कर्ष कुषाकुः । अग्निः सूर्यो वा ॥ (८) सरतीति सदाकुः । श्रायुर्वा । सरन्त्यापोऽस्यामिति सदाकुर्नदी || (०) वर्ततेऽसौ वार्ताः । हिंगुली । वृन्ताक इति प्रसिद्धम् । बाहुलकादुकारस्य अ, ई भवतः । वार्ताकम् । वार्ताकी वा ॥
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1
( ८० ) पर्दते कुत्सितं शब्दं करोतीति प्रदाकुः । व्याघ्रः सर्पो या ॥ (८१) सरतीति सरयः । मेघो वायुर्थी । यौति मिश्रयतीति यवागूः । दुग्धे पक्कयवचू वा । वक्तीति वचक्नुः वाचालः प्राज्ञो वा ॥ (८२) शेतेऽसौ शयानकः । अजगरो वा । बिभेत्यस्मादिति भयानको भयप्रदः ॥
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उणादिकोषः ॥
आएको लधूशिघिधाभ्यः ॥ ८३ ॥ लवाणकः।धवाएकः । शिवाणकः । धाएकः ॥ ८३॥
उलमुकदर्विहोमिनः ॥ ८४ ॥ हियः कुक् रश्च लो वा ॥८५॥ हीकुः । हलीकुः ॥ ८५॥
हसिमृग्रिण्वामिदमिलूपधुर्विभ्यस्तन्॥८६॥हस्तः।मतः। गर्तः। एतः। वातः । अन्तः । दन्तः। लोतः।पोतः।धूर्तः॥८६॥
(८३ ) लुनाति येन तल्लवाणकम् । दात्रं वा । धनोतीति धवाणकः। वायुवी । शिति समन्ताजिघ्रतीति शिवाणकः । श्लेष्मा वा । बाहुलकात-ककारलोपे शियाणम् । काचपात्र लोहनासिकयोर्मलं वा । दधाति धीयते वा स धाणकः । व्यवहारयोग्यद्रव्यभागी वा ॥
(८४) ओषति दहतोत्युल्मुकम् । ज्वलदङ्गारो वा ।मुकप्रत्ययो धातोः पकारस्य लत्वम् । दृग्णाति विदारयति येन स दर्विः । परिवेषणपात्रं वा । विन् प्रत्ययः। जुहोतीति होमी । यजमानो वा । अत्र मिनप्रत्ययः ॥
(८५) जिहति लज्जां करोतीति होकुर्लज्जावान् । हीकुः । जतुत्रपुणी लाक्षादिवी ॥
६) हसतीति हस्तः । नक्षत्रं करो वा। हस्तोऽस्यास्तीति हस्ती। नियते सौ मतः । मनुष्यो वा । मर्त एव मर्त्यः स्वार्थ यत् । गिरति निगलति स गतः । अवटः पतनस्थानं वा । एति प्राप्नोति यं स एतः । विचित्रवी वा । स्त्रियां, एनी एता । वातीति घातः । वायु-धिवी । अमति गच्छतीति, अन्तः । नाशः समीपं तत्त्वस्वरूपं मनोहरं वा । दाम्यत्युपशाम्यति यो येन वा स दन्तः । दशनो वा । शोभना दन्ता यस्याः सा सुदती युवतिः । दन्तावलो दन्तुरो वा हस्ती । लुनातीति लातः । अश्रुश्चिन्हं वा । पुनातोति पोतः । बाला वहिलो वा । पूर्वतीति धर्तः । शठी लवणं धत्तरं वा । बाहुलकात-तासति शब्दयतीति तस्तम् । पापं जटा वा । तस्तं करोति तस्तयति । छयति छि नतीति छातः । दुर्बला वा । अभितो म्लायतीति, अभिम्लातः । हर्षक्षीणो वा ॥
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पा० ३॥
नयाप इट् च ॥ ८७ ॥ नापितः ॥ ८७॥ तनिमृङ्भ्यां किञ्च ॥ ८८ ॥ ततम् । मृतम् ॥ ८८ ॥ अञ्चिघृसिभ्यः क्तः॥८९॥अक्तम् । घृतम् । सितम् ॥८९॥ दुतनिभ्यां दीर्घश्च ॥ ९० ॥ दूतः तातः ॥ ९० ॥ जेर्मूट चोदात्तः ॥ ९१ जीमूतः ॥ ९१ ॥ लोष्टपलितौ ॥ ९२॥
( ८७ ) नाप्नोति सत्कर्माणोति नापितः । केशच्छेदको वा ॥
(८८) तनोतीति ततम् । वीणादिकं वाद्यं वा । म्रियते येन तन्मतम् । याचितं भक्ष्यं वा ॥
(८६ ) यदनक्ति प्रकटीकरोति तदक्तम् । व्याघ्रः परिमितं वा । जिर्ति सञ्चलति दीप्यते वा तत, घृतम् । उदकं सर्पिः प्रदीप्तं वा । सिनोति बधनातीति सितम् । शुक्लं वा । बहुलवचनात-हूर्च्छति कुटिलं भवतीति मुहूर्तम् । घटिकाद्वयकालो वा । धातोर्मुडागमा राल्लाप इति छलोपः । ऋच्छत्यात्मानं प्राप्नोतीति ऋतम् । यथार्थं वा । वसति यति वस्तम् । स्थानं वा ॥
(६०) दवति गच्छति दुनोत्युपतपति वा स दूतः । बहुकार्यसाधको राजभृत्यो वा । स्त्रियां दूती । तनोति कार्याणीति तातः । पिता वा । बाहुलकात-स्यति कर्मसमाप्तिं करोतीति सीता क्षेत्र हलेन कृता रेखा स्त्रीविशेषो वा ॥
(१) धातोदीर्घः प्रत्ययस्य मडुदात्तत्वं च । यो जयति येन वा । स जीमूतः । मेघः पर्वतो वा ॥
(२) लोष्टते सङ्घातो भवतीति लोष्टम् । मृत्यिण्डो वा । पल्यते प्राप्यते तत् पलितम्. । वृद्धावस्थया केशादीनां शुक्लत्वं वा ॥
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उणादिकोषः ॥
दृश्याभ्यामितन् ॥ ९३ ॥ हरितः । श्येतः ॥ ९३ ॥ रुहेरश्च लो वा ॥ ९४ ॥ रोहितः । लोहितम् ॥ ९४ ॥ पिशेः किञ्च ॥ ९५ ॥ पिशितम् ॥ ९५॥
श्रुदक्षिस्पृहिगृहिभ्य आय्यः ॥ ९६ ॥ श्रयाय्यः। दक्षाय्यः । स्पृहयाय्यः । गृहयाय्यः॥ ९६ ॥
दधातईि त्वमित्वं षुक् च ॥ ९७ ॥ दधिषाय्यः ॥ ९७॥ वृत्र एण्यः ॥ ९८ ॥ वरेण्यः ।। ९८ ॥ स्तुवः केय्यश्छन्दसि ॥ ९९ ॥ स्तुवेय्यम् ॥ ९९ ॥ राजेरन्यः ॥ १०० ॥ राजन्यः ॥ १००॥
(६३ ) हरतीति हरितः । वर्ण भेदो वा । श्यायति गच्छतोति श्येतः । श्यामवी वा । स्त्रियां हरिणी । हरिता । श्येनी श्येता ॥
(६४ ) रोहति प्रादुर्भवतीति रोहितः । मृगमत्स्ययोर्भेदो रोहितं धिरं वा । लोहितोऽङ्गारको रुधिरम् रक्तवर्णी वा ॥
(६५) पिश्यते ऽवयवरूपं क्रियते तत् पिशितं मांसं वा ।। ( ६६ ) श्रावयतीति अवाय्यः । दानपशुवी । दक्षयति वर्द्धतेऽसौ दक्षाय्यः। गृधो वा। स्पयतोति स्पयाय्यः । अभीपसुनक्षत्रं वा । गर्हयति पदार्थान गृणातीति गृहयाय्यः गृहस्वामी वा । आय्यप्रत्यये गोरयादेश: ॥
(६७) दधिस्यति समापयतोति दधिषाय्यो घृतम् । निपातनात षत्वम् ॥ (१८) वियते स्वीक्रियतेऽसौ वरेण्यः । श्रेष्ठो वा ।।
(EE ) स्तूयतेऽसौ स्तुवेय्यः पुरन्दरो वा । कमेया इति पाठान्तरं तदा स्तुषेय्यः ॥
( १०० ) राजते दीप्यतेऽसौ राजन्यः । अग्मिी । क्षत्रिय जाती तु राज्ञोऽपत्यं राजन्यः । तत्रान्त्यस्वरितः ॥
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पा० ३ ॥
98
शरम्योश्च ॥ १०१ ॥ शरण्यम्। रमण्यम् ॥ १०१ ॥ अर्तेर्निच्च ॥ १०२ ॥ अरण्यम् ॥ १०२ ॥ पर्जन्यः ॥ १०३॥ वदेरायः ॥ १०४ ॥ वदान्यः ॥ १० ॥
अमिनक्षियजिबधिपतिभ्योऽत्रन् ॥१०५॥ अमत्रम् । नक्षत्रम् । यजत्रम् । बधत्रम् । पतत्रम् ॥ १०५॥
गडेरादेश्च कः ॥ १०६ ॥ गडत्रम् । कलत्रम् ॥ १०६ ॥ वृनश्चित् ।। १०७ ।। वरत्रा ॥ १०७ ॥
( १०१. ) शणाति हिनस्तीति शरण्यम् । अज्ञानं वा । रमतेस्मिंस्तद्रमण्यम् । गृहं वा ॥
( १०२ ) ऋच्छन्ति गृहाद् गच्छन्ति यत्र तदरण्यम् । वनं वा । महदरण्यमरण्यानी ॥
(१.०३) पति सिञ्चतीति पर्जन्यः । मेघः समर्थो वा । निपातनातपकारस्य जकारः ॥
( १०४ ) उद्यते वदतोति वा स वदान्यः । वाग्मी त्यागी वा ॥
(१६५) अमति प्राप्नोति यत्र तत् अमचम् पाचं वा । नक्षति गच्छतोति नक्षत्रम् । तारका वा । इज्यते यति वा तद् यजत्रम् । अग्निहोत्र होता वा । बीति हनः स्थाने बधादेशो निपात्यते । हन्ति येन तद् बधतम् । आयुधं वा । पतति गच्छति येन तत्पतत्रम् वाहनं लोमानि वा ॥
(१०६ ) गडति सिञ्चतीति गडचम् । बाहुलकाडस्य लः । कलचम् । कटिभागो भार्या वा ॥
( १०० ) वृणोत्युदकादिकं यया या वा सा वरचा चर्मरज्जुर्वा ॥
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८०
उगादिकोषः ॥
सुविदेः कन् ॥ १०८ ॥ सुविदत्रम् ॥ १०८ ॥
कृतेर्नुम् च ॥ १०९ ॥ कृन्तन्त्रम् ॥ १०९ ॥
भृमृदृशियजिपर्विपच्यमितमिनमिहयिभ्योऽतच् ॥ ११०॥ भरतः । मरतः । दर्शतः । यजतः । पर्वतः। पचतः । श्रमतः । तमतः । नमतः । हर्य्यतः ॥ ११० ॥
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पृषिर जिभ्यां कित् ॥ १११ ॥ पृषतः । रजतम् ॥ १११ ॥ खलतिः ।। ११२ ॥
( १०८ ) सुष्ठु विद्यते तत् सुविदत्रम् कुटुम्बं वा ॥
(१०६ ) कृन्तति विनति येन तत्कृन्तत्रम् । लाङ्गलं वा ॥
( ११० ) भरति पुष्णातीति भरतः । राजभेदी नटो रामानुजा वा । म्रियतेऽसौ मरतः मृत्युर्वा । पश्यन्ति येन स दर्शतः । चन्द्रः सूर्ये वा । यजतीति यजतः । ऋत्विग्वा । पर्वत पूर्णेौभवतीति पर्वतः । पर्वविद्यतेऽमिति मत्वर्थी यस्तकारप्रत्ययो वा । गिरिर्वा । पचति येन स पचतः । अग्निवी | अमति गच्छतीति मतः । रेणुवी । ताम्यति काङ्क्षतीति ततः । तृष्णापरो वा । नमतोति नमतः नम्रो वा । हर्यति गच्छतीति हर्यतः । अश्वो वा । बाहुलकात् - मलते स्वरूपं धरतीति मालती । उपधादीर्घेी गौरादित्वान् ङीष् ॥
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( १११ ) पर्षति सिञ्चतीति पृषतः । विन्दुर्मृगो वा । रजति प्रियं भवतीति रजतम् । रूप्यं शुकं वा ॥
(११२) स्खलति सञ्चन्नतीति खलतिः । निष्केशशिराः पुरुषो वा । धातोः सलोपः प्रत्ययान्तस्येत्वं निपातः ॥
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पा० ३॥
शीशपिरुगमिवञ्चिजीविप्राणिभ्योऽथः ॥११३॥शयथः। शपथः । रवथः । गमथः । वञ्चथः । जीवथः। प्राथः । दरथः शमथः । दमथः ।। ११३ ॥ भृनश्चित् ।। ११४ ॥ भरथः ॥ ११४ ॥ रुविदिभ्यां ङित् ॥ ११५॥ रुवथः । विदथः॥ ११५ ॥ उपसर्गे वसेः ॥ ११६ ॥ आवसथः । संवसथः ॥११६॥
अत्यविचमितमिनमिरभिल भिनभितपिपतिपनिपणिमहिभ्योऽसच् ॥ ११७॥ अतसः। अवसः। चमसः। तमसः ।
( ११३ ) शेतेऽसौ शयथः । अजगरो वा । शप्यत आक्रुश्यत इति शेपथः । निश्चयकरणं वा ।रौतीति रवथः कोकिलो वा । गच्छतीति गमथः पथिको वा । वञ्चति प्रलम्भयतीति वञ्चथो धूर्तः । अस्य स्थाने वन्दीति पाठान्तरे वन्दथः स्तोता स्तुत्यो वा। जीवतीति जीवथ प्रायुष्मान् । प्राणितीति प्राणथः । बलवान् वा । बाहुलकात-दृणातीति दरथः । दिक्षु प्रसरण गर्ती वा । शाम्यतीति शमथः । शान्तिः । दाम्यतीति दमथः । दमो वा ॥
( ११४ ) बिभती ति भरथः । लोकपालो राजा वा ।। ( १.१५ ) रौतीति रवथः । श्वा वा । वेत्तीति विदथः । योगो वा ॥
( ११६ ) समन्ताद्वसति यत्र स पावसथः । गृहं वा । सम्यग्वन्ति यत्र स संवसथः । ग्रामो वा ॥
( ११० ) अति निरन्तरं गच्छतीत्यतसः । वायुा । स्त्रियामतसी। अवति रक्षादिकं करोतीत्यवसः । राजा वा । चमति भक्षयति येन स चमसः । गौरादित्वाच्चमसी । ताम्यति काङ्क्षीति तमसः । ध्वान्तं वा ।
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८२
उणादिकोषः ॥
नमसः । रभसः । लभसः । नभसः । तपसः । पतसः ।
पनसः । पयसः । महसम् ॥ ११७ ॥
वेञस्तुट् च ॥ ११८ ॥ वेतसः ॥ ११८ ॥
वहियुभ्यां पित् ॥ ११९ ॥ वाहसः । यावसः ॥११९ ॥ वयश्च ॥ १२० ॥ वायसः ॥ १२० ॥ दिवः कित् ॥ १२१ ॥ दिवसम् ॥ १२१ ॥ कृशालिक लिगर्दिभ्योऽअच् ॥ १२२ ॥ करभः । शरभः । शलभः । गर्दभः ॥ १२२ ॥
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नमतीति नमसः । अनुकूलं वा । रभतेऽसौ रभसः । वेगेो हर्षो वा । लभतेsaौ लभसः । अश्वबन्धनं वा । नमते हिनस्तीति नभसः । आकाशं वा । तपति तापहेतुर्भवतीति तपसः । चन्द्रमा वा । पततीति पतसः । पक्षी वा । पनायति स्तोतीति पनसः । कण्टकिफलं वा । महतीति महसम् । ज्ञानं वा । बाहुलकात् - अम्यते प्राप्यते तत्तामरसम् । कमलं वा । प्रत्ययस्य णित्वाद् वृद्धिधीतश्च तुट् । स्यति कर्म समापयतीति साध्वसम् । पश्चाद् ज्ञानंषा । धातोर्धुक् । कङ्कते श्रं चत्यं भक्तीति कीकसम् । अस्थि वा । धातोः कीकादेश: । तरतीति तरसम् । मांसं वा ॥
1
( ११८ ) वयति तन्तून् संतनोतीति वेतसः । वृक्षभेदो वा ॥
( ११६ ) वहतीति वाहसः | अजगरो वा । यौति मिश्रयत्यमिश्र - यति वास यावसः । तृणसन्तति ॥
( १२० ) वयते गच्छतीति वायसः काको वा ॥
(१२१) दीव्यति प्रकाशते सूर्यो यत्र तद्दिवसमा दिवसो वा अद्धीदिपाठाद् द्विलिङ्गः॥ ( १२२ ) किरति विचिपतीति करभः । हस्तस्य बहिर्भागो वाला वा । शृणातीति शरभः । अरण्यानां मध्ये हिंसक विशेषपशुजातिः । शलते 'गच्छतीति शलभः । पतङ्गो वा । कलते संख्यां करोति स कलभः । करि'शावको वा । गर्दर्याति शब्दं करोतीति गर्दभः । खरो वा ॥
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पा० ३॥
ऋषिवृषिभ्यां कित् ॥ १२३ ॥ ऋषभः । वृषभः ॥ १२३ ॥ रुपेनिल्लुप च ॥ १२४ ॥ लुषभः ॥ १२४ ॥ रासिबल्लिम्यां च ॥ १२५ ॥ रातभः । बल्लभः ॥ १२५॥ जविशिभ्यां झच ।। १२६ ॥ जरन्तः । वेशन्तः ॥ १२६ ॥
रुहिनन्दिजीविप्राणिभ्यः पिदाशिषि ॥ १२७ ॥ रोहन्तः । नन्दन्तः । जीवन्तः । प्रान्तः । रोहन्ती ॥ १२७॥
तृभूवहिवसिभासिसाधिगडिमण्डिजिनन्दिभ्यश्च ॥१२८॥ तरन्तः।भवन्तः । वहन्तः । वसन्तः। भासन्तः । साधन्तः।
( १२३ ) ऋषति गच्छतीति ऋषभः । वर्षोति वृषभः । श्रेष्ठपर्यायो वलीवर्दी वा ॥
(१२४ ) रोषति हिनस्तोति लषभः । मत्तहस्ती वा ॥
( १२५ ) रासति शब्दयतीति रासभः । खरो वा । बल्लते संवृणोतोति बल्लभः प्रियो वा ॥
(१२६) प्रत्ययादिझकारस्य झोऽन्त इत्यन्तादेशः । जीति स जरन्तः । महिषो वा । विशति प्रवेशं करोतीति वेशन्तः अल्पजलाशयो वा । बाहुलकात-अर्हति पूज्यो भवतीति, अर्हन्तः ॥
( १२० ) रोहतोति रोहन्तः । वृक्षभेदो वा । नन्दति समृद्धियुक्तो भवतीति नन्दन्तः । पुत्रो वा । यो जीवति स जीवन्तः । औषधं वा । प्राणिति श्वासप्रश्वासान प्रवर्तयति स प्राणन्तः । वायुर्वा । षित्वात स्त्रियां डोष । प्राणन्ती । रोहन्ती । नन्दन्ती । जीवन्ती ॥
(१२८) झच । यस्तरति येन यत्र वा स तरन्तः समुद्रस्तरन्तो नौका वा। यो भवतीति यत्र वा स भवन्तः । कालो वा । वहति कार्याणि प्रापयतीति वहन्तः वायुवी। यो वसति यत्र वा स वसन्तः ऋतुभेदो वा। भासयते दोप्यतेऽसौ भासन्तः । सूर्यो वा । साधनोति कार्याणीति साधन्तः । भिक्षको वा ।
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८४
उमादिकोषः ॥
गण्डयन्तः । मण्डयन्तः । जयन्तः। नन्दयन्तः ॥ १२८ ॥
हन्तेर्मुद हि च ॥ १२९ ।। हेमन्तः ॥ १२९ ।। भन्देलोपश्च ॥ १३० ॥ भदन्तः । १३० ॥ ऋच्छेररः ॥ १३१ ॥ ऋच्छरः । १३१ ॥
अर्तिकमिभ्रमिचमिदेविवासिभ्यश्चित् ॥ १३२ ॥ अररः। कमरः । भ्रमरः । चमरः । देवरः । वासरः । १३२॥ गण्डति सेचयतीति गण्डयन्तः । मेघो वा। मण्डति शोभितं करोतीति मण्डयन्तः । भूषणं वा । जयतोति जयन्तो जयशीलः । स्त्रियां जयन्ती पुष्पभेदो वा । विजयन्तः कश्चिद्राजविशेषस्तस्य प्रासादो वैजयन्तः । वैजयन्ती पताका । नन्दन्ति येन स नन्दन्तः । आनन्द करो वा । अतः पूर्वसूत्रेऽपि नन्दिः पठितः । अच पुनर्ग्रहणमनाशिष्यपि यथा स्यात् ॥
( १२६ ) यो हन्ति शीतेन स हेमन्तः । ऋतुभेदो वा ॥
( १३० ) भन्दते कल्याणं करोतीति भदन्तः प्रजितो वा ॥ (१३१) ऋच्छति गच्छति स ऋच्छरः । ऋच्छरा वेश्या वा । बाहुलकातवदतीति वदरम्। वाः फलं वा। कन्दति वैकल्यं करोतीति कदरः श्वेतखदिरो वा। कपिलकादित्वाल्लत्वे गौरादित्वान डोष कदली। कदरी । वदरी। मन्दरकन्दरशीकरकोटरशवरसमरबर्बरबर्करकपरपिजराम्बराडम्बरजर्जरककरनखरतामरप्रभृतोऽपि-प्ररप्रत्ययान्ता बहुलवचनादेव साधनोयाः ॥
(१३२ ) ऋच्छति गच्छति यतः स अररः । कपाटो वा । कामयतेऽसौ कमरः । कामुको वा । भ्राम्यतीति भ्रमरः षट्पदः । कामुको वा । चमति भक्षयतीति चमरः । मृगभेदो वा । गौरादित्वात स्त्रियां डीए । चमरी सुरा गौः । चम- अयं चामरो बालसमूहः । दोव्यात क्रीडादिकं करोतोति देवरः । विधवाया द्वितीयः पतिः पत्युः कनिष्ठभ्राता । वासयतोति वासरः मङ्गलादिवारो वा ॥
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पा०३
कुवः क्ररन् ॥ १३३ ॥ कुररः । १३३ ।।
अङ्गिमदिमन्दिभ्य आरन् ॥ १३४ ॥ अङ्गारः । मदारः । मन्दारः ॥ १३४॥
गडेः कड च ॥ १३५ ॥ कडारः । १३५॥ शृङ्गारभृङ्गारौ ॥ १३६ ॥ कोजमजिभ्यां चित्॥१३७॥कजारः ।मार्जारः। १३७॥ कमेः किदुचोपधायाः ॥ १३८ ॥ कुमारः ॥ १३८ ।
( १३३ ) कौति शब्दयतोति कुररः । पक्षिभेदो वा ।
(१३४ ) अङ्गति गच्छति स अङ्गारः। निर्धूमोऽग्निभूमिविकारो वा । माद्यति मतो भवतीति मदारः । वराहो वा । मन्दते स्तोतीति मन्दारः। निम्बतरुरर्कवृक्षो वा । बाहुलकान्मन्दधातोरारुप्रत्ययोऽपि भवति । मन्दतेऽसौ मन्दारुः । निम्बार्को वा ॥
( १३५ ) गडति सिञ्चतीति कडारः । पीतवर्णों वा ।।
( १३६ ) शृणाति हिनस्तोति शृङ्गारः । हस्तिशोभा नाट्यरसो दम्पत्योरन्योऽन्यं सम्भोगस्पृहा वा । अव धातार्नुम् हुस्वादेशश्च । बिभर्ति पुष्यतीति भृङ्गारः । सुवर्णपात्रविशेषो वा । स्त्रियां भृङ्गारो कोटजातिभेदो वा । झीगर इति प्रसिद्धः ॥
(१३७ ) कति रौतीति कजारः । मयूरो व्यञ्जनं वा । मार्टि शुन्धतीति मार्जारः । विडालो वा । स्त्रियां मार्जारी ।।
(१३८ ) चिदनुवर्तते । कामते भोगानिति कुमारः । शिशुर्युवराजो वा । कुमारक्रीडायामित्यस्मादपि पचाद्यचि कृते कुमारशब्दा व्यत्पद्यते तदपायान्तरमर्थभेदश्च ॥
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उणादिकोषः ॥
तुषारादयश्च ॥ १३९ ॥ तुषारः । कासारः । सहारः । १३९ ।। दीङो नुट् च ॥ १४० ॥ दीनारः ॥ १४० ॥ सरपः षुक् च ॥ १४१ ॥ सर्षपः ॥ १४१ ॥ उषिकुटिदलिक चिखजिभ्यः कपन् ॥ १४२ ॥ उपपः । कुटपः ।
दलपः । कचपम् । खजपम् ॥ १४२ ॥
करोः
1: सम्प्रसारणञ्च ॥ १४३ ॥ कुणपम् ॥ १४३ ॥ कपश्चाक्रवर्मणस्य ॥ १४४ ॥ विटपविष्टपविशिपोलपाः ॥ १४५ ॥
( १३६) यस्तुष्यति येन वा तत्त्वारम् । हिमं वा । कासते शब्दयति निन्दति वा स कासारः । सरसी वा । सहतीति सहारः । आम्रभेदो वा । तर्कयति भाषासौ तकारः । स्त्रियां गौरादित्वात् तर्कारी । जयन्ती विशेषता वा ॥ (१४०) दीयते चयति येन वा स दीनारः । सुवर्णाभरणं वा ॥ ( १४१ ) सरति गच्छति स सर्पपः । कटुस्नेहवान् वा ॥
(१४२) ओषति दहति स उषपः । अग्निः सूर्यो वा । कुटतीति कुटपः । मानभाण्डं वा । दालयति विदारयतीति दलपः । प्रहारो वा । कचते बधनातीति कचपम् । शाकपाचं वा। खजति मथ्नाति मय्यत इति खजपम् । घृतं वा ॥
( १४३ ) ति शब्दं करोतीति कुणपः । शव मृद्भेदो वा ॥ ( १४४ ) चाक्रवर्मणस्य मते कपे सति प्रत्ययस्यादिरुदात्तः । अन्यमते सङ्घातस्यायुदात्तत्वम् ॥
( १४५ ) कपप्रत्ययान्ता निपाताः वेटति शब्दयति वायुनेति विटपः । शाखाविस्तारो वा । विशन्ति यचेति विष्टपम् | भुवनं वा । त्रिविष्टपः । सुखविशेषभोगो वा । धातोर्वकारस्य पत्वम् । प्रत्ययस्य तुट् च । विविटप इति वा । विशन्ति यचेति विशिपम् । मन्दिरं वा । प्रत्ययादेरित्वम् । बलते संवृणोतीत्युलपम् । कोमलतृणं वा । धात्वादेः सम्प्रसारणम् ॥
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पा० ३ ॥
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८०
वृतिकन् ॥ १४६ ॥ वर्त्तिका ॥ १४६ ॥ कृतिभिदिलतिभ्यः कित् ॥ १४७ ॥ कृत्तिका । भित्तिका । लत्तिका ॥ १४७ ॥
इष्यशिभ्यां तकन् ॥ १४८ ॥ इष्टका | अष्टका ॥ १४८ ॥ इस्तशन्तसुनौ ॥ १४९ ॥ एताः । एतशाः ॥ १४९॥ विपतिभ्यां तनन् ॥ १५० ॥ वेतनम् । पत्तनम् ॥ १५० ॥ हृदलिभ्यां भः ॥ १५१ ॥ दर्भः । दल्भः ॥ १५१ ॥
(१४६ ) वर्तवर्तिका पक्षिभेदो वा । यस्तु वृतु धातोर्खुल्प्रत्यये वर्तका शब्दस्तत्र वातिकेनेत्यनिषेधाद्वर्त्तका इत्येव । तत्रोणादीनामव्युत्पन्नत्वाद्वर्तका व्युत्पन्न इति भेदः ॥
( १४० ) कृन्तीति कृत्तिका । नचचं वा । भिनतीति भित्तिका भित्तिवी | लततीति लत्तिका गोधा वा ॥
( १४८ ) इष्यतेःसाविष्टका । अश्नुते सा अष्टका । वैदिककर्मविशेषो वा । बाहुलकात् - मस्यति परिणमतीति मस्तकम् । शिरो वा । दधातीति धातकम् । स्त्रियां धातकी पुष्पभेदः ॥
( १४६ ) ति प्राप्नोतीति एतशः । एतशाः । एतशौ । अश्वो ब्राह्मणों वा । एकोऽदन्तोऽपरः सान्तः ॥
( १५० ) वेत्ति प्राप्नोति खादति वा तदेतनम् । भृतिवी | वेतनेन जीवति वैतनिकः कर्मकरः । पतति गच्छतीति पत्तनम् । नगरं वा ॥
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( १५१ ) दृणाति विदारयतीति दर्भः । कुशो वा । दलते विशीर्णे भवतीति दलभः । ऋषिश्चक्रं वा ॥
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उगादिकोषः ॥
अतिगृभ्यां भनन् ॥ १५२ ॥ अभः । गर्भः ॥ १५२ ॥ इणः कित् ॥ १५३ ॥ इमाः ॥ १५३ ॥ असिसजिभ्यां क्थिन् ॥ १५४॥ अस्थि ।सथि ॥ १५४ ॥
लुषिकुषिशुषिभ्यः क्सिः ॥ १५५ ॥ प्लक्षिः । कुक्षिः । शुक्षिः ॥ १५५ ॥ अशेर्नित् ॥ १५६ ॥ अक्षिः ॥ १५६ ॥ इषेः क्सुः ॥ १५७ ॥ इक्षुः ॥ १५७ ॥
अवितस्तृतनत्रिभ्य ईः ॥ १५८ ॥ अदीः । तरीः । स्तरीः। तन्त्रीः ॥ १५८॥
( १५२ ) इति गच्छतोत्यभः । शिशुर्वा । अल्पोऽ ऽभकः । गिरति गुणात्युपदिशतीति गर्भः । जठरं तबस्यो वा । गर्भादप्राणिनीति तारका. दित्वादितच । गर्भिताः शालयः । प्राणिनि तु गर्भिणी ॥
( १५३ ) एतोति इमः । हस्ती वा !"
( १५४ ) अति प्रक्षिपति येन तत् अस्थि । कीकसं शरीरान्तरवयवो वा । सजतीति सथि । ऊरुदेशो वा ॥
( १५५ ) प्लोति दहतीति प्लुक्षिः । अग्निवी । कुष्णाति निष्कषतोति कुक्षिः । जठरं गभीशयो वा । शोषयतीति शुक्षिः । वायुवी । अतान्तर्गतो णिच् तस्य च पर्णशुडत णिलुक् ॥
( १५६ ) अश्नुते व्याप्नोति विषयान् येन तदक्ष । नेचं या ॥ ( १५० ) इप्यते स इक्षुः । मधु तृणं वा ॥
( १५८ ) अवतीति अवीः । रजस्वला स्त्री वा । तरति यया मा तरीः । नौका वस्त्रादिरक्षकं भाण्डं वा । स्तृणोत्याच्छादयतोति स्तरी: । धूमो वा। तन्त्रात कुटुवं धरतोति तन्त्रीः । वीणा वा । णिलोपः ॥
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पा० ३.
यापोः किद् हे च ॥ १५९ ॥ ययीः। पपीः ।। १५९ ॥ लक्षेर्मुट च ॥ १६० ॥ लक्ष्मीः ॥ १६ ॥
इत्युणादिषु तृतीयः पादः ॥
( १५६ ) याति प्रापयति स ययीः । अश्वो वा । पिबति पाति रक्षतीति वा स पपीः । सूर्यश्चन्द्रो वा ।।
( १६० ) लक्षयति पश्यत्यङ्कयति वा सा लक्ष्मीः । विभूतिवी । लक्षमीरस्यास्तीति लक्ष्मणः । लक्षम्या अच्चेति पामादिपाठान्मत्वर्थी यो नः ॥
इत्युणादिव्याख्यायां वैदिकलौकिककोषे तृतीयः पादः ॥
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उगादिकोषः ।
HED
वातप्रमीः ॥ १॥
ऋतन्यजिवन्यज्यर्पिमद्यत्यङ्गियुकशिभ्यः कनिच्यतुजलिजिष्णुजिष्ठजिसनस्यनिथिन्नुल्पसासानुकः ॥ २ ॥ रनिः। तन्यतुः । अञ्जलिः। वनिष्णुः । अञ्जिष्ठः । अर्पिसः। मत्स्यः। अतिथिः । अङ्गुलिः । कवसः । यवासः । कृशानुः ॥ २ ॥
(१) वात इव प्रमिणोति प्रक्षिपतीति वातप्रमीः । अतिशीघ्रगामी हरिणविशेषो वा । पुंल्लिङ्ग एवायं शब्द :। वातप्रमीन मृगान् । ङौ तु वातप्रमी । अमि वातप्रमीम् । बाहुलकात-उश्यते काम्यतेऽसौ उशी वाञ्छा तत्कुशला नरा अस्मिन सन्तीति उशीनरो देशः । अत्र बहुलवचनादेव सम्प्रसारणम् ॥
(२) एभ्यो द्वादशधातुभ्यः कनिजादयो द्वादश प्रयत्या यथासंख्यं भवन्ति । ऋच्छति गच्छतोति रनिः । बटुमुष्टिहस्तो वा । प्रसृताङ्गुलिररनिः। तनु-यतुच् । तनोति विस्तृणोतीति तन्यतः। वायूरात्रिवी । अजूअलिच । अनक्ति व्यक्तं करोतीति, अञ्जलिः । संयुती करौ वा । वनइष्णु च । वनोति याचतेऽसौ निष्णुः । अपानवायुर्वा । अजू-इष्टच । अनक्ति प्रकटयति पदार्थानिति, अज्जिष्ठः । सूर्यो वा । अर्पि-इसन । अर्पयतीति, अर्पिसः । अग्रमांसं वा । माद्यति हृष्यतीति मत्स्यः । मीनो वा । अत-इथिन् । अति निरन्तरं गच्छति भ्रमतीत्यतिथिः । अकस्मादागतः सज्जनो वा। न विद्यतेनियता तिथिरस्थति व्यत्यत्यनन्तरम् । स्त्रियां कदिकाराक्लिन इति डीप । अतिथी स्त्री। अगि-उलि । अड गति चेष्टतेऽनेन सोङगुनिः । करशाखा वा । कु-अस । कौति वा कवत इति कवसः । कण्टकजातिर्वा । अच इति पाठान्तरम् । तदा कवत इति कवचम् । यौति । मिश्यतीति यवासः । कण्डकवृक्षभेदो वा । कृषति तनूकरोतीति कृशानुः । अमिनर्वा ॥
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30
- पा० ४॥
श्रः करन् ॥ ३॥ शर्करा ॥ ३॥ पुषः कित् ॥ ४ ॥ पुष्करम् ॥ ४ ॥ कलश्च ॥ ५॥ पुष्कलम् ॥५॥ गमेरिनिः ॥ ६ ॥ गमी ॥ ६ ॥ प्राङि णित् ॥ ७ ॥ आगामी ॥ ७॥ भुवश्च ॥ ८॥ भावी ॥ ८॥ प्रे स्थः ॥ ९ ॥ प्रस्थायी ॥ ९ परमे कित् ॥ १०॥ परमेष्ठी ॥ १०॥ मन्थः ॥ ११ ॥ मन्थाः । मन्थानौ ॥ ११ ॥ ( ३ ) शृणातीति शर्करा । खण्डविकारो मृविकारो वा ॥ ( ४ ) पुष्णातीति पुष्करम् । अन्तरिक्ष कमलमुदकं वा ।। ( ५ ) पुष धातोः कलनपि । पुष्यतीति पुष्कलम् पूर्ण वा ॥
(६) गमिष्यतीति गमी पथिको वा । भविष्यति गम्यादय इति कालनियमः ॥
( 0 ) णित्वाद् वृद्धिः आगमिष्यतीत्यागामी ॥ (८) इनिः णित् । भविष्यतीति भावी !
(E) इनिः णित् । णित्वायुक् । प्रस्थातुमिच्छतोति प्रस्थायी गन्तुमनाः ॥
( 20 ) परमे उत्तमे व्यवहारे तिठतीति परमेष्ठी। सर्वेषां पितामह ईश्वरो वा । सप्तम्या अलुक पत्वं च ॥
( 22 ) इनिः किल कितत्वान्नलोपः । मन्थति बिलाडयतीति मन्थाः । मथिन शब्दस्य सर्वनामस्थान आत्वम् । मन्थानौ । मन्थानः । दध्यादिमन्थनदण्डो वजो वायुवी ॥
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६२
उणादिकोषः ॥
पतः स्थ च ॥ १२॥ पन्थाः ॥ १२॥ खजेराकः ॥ १३ ॥ खजाकः ॥ १३ ॥ वलाकादयश्च ॥ १४॥ वलाका शलाका। पताका ॥१४॥ पिनाकादयश्च ॥ १५॥ पिनाकः । तडाकः ॥ १५॥
(१२) पतन्ति गच्छन्ति यत्र स पन्या मार्गः । पन्थानौ । पूर्वव. दात्वम् । पथै गतावित्यस्माद्धातोः पचाद्यचि कृते पथः । पथौ । पथाः । इत्यदन्तोऽपि दृश्यते ॥
(१३ ) खजति मथनातीति खजाकः पक्षिः । खजाका दर्विवा । बहुलवचनात्मन्यन्ते स्तूयन्ते तानि मन्दाकानि स्रोतांसि वा । तान्यस्याः सन्तीति मन्दाकिनी । नदोभेदः ।
( १४ ) वलते संवृणोत्यसौ वलाका । वकपंक्तिः कामिनी वलाको वकपक्षी वा । मन्यते जानाति सा मनाका । हस्तिनी वा । पुनातीति पवाका । यां शलन्ति गच्छन्तोति शलाका । अज्जनयष्टिका वा । पटति गच्छतीति पटाकः । पक्षी वा । पत्यते ज्ञायतेऽसौ पताका ध्वजा वा ॥
(१५) पाति रक्षति पिनाकः । त्रिशूलं धातुवा । ताडयत्या. हन्तीति तडाका प्रभा वा । बहुलवचनात्-आगप्रत्यये सति तड़ागः । इत्यपि सिद्धं भवति । भन्दतेऽसौ भदाकः । कल्याणम् । श्याति प्राप्नोतीति श्यामाकः ब्रोड्भेिदो वा । समा इति प्रसिद्धः । मुगागमो निपातनम् । न भाति प्रकाशत इति नभाकम् । मेघयुतमाकाशं वा । यं पिनष्टि सम्यकचर्णयति स पिण्याकः । तिलकल्को वा । धातोः षकारस्य धत्वं युगागमश्च । वर्तते येन स वार्ताको वार्ताको वा । वनभण्टा इति प्रसिद्धा। धातादिः । गुवति पुरीषमुत्सृजतोति गुवाकः । पूगीफलं वा । कुटादि. त्वाद् गुणाभावः ॥
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पा० ४ ॥
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६३
कषिदूषिभ्यामीकन् ॥ १६ ॥ कषीका | दूषीका ॥ १६ ॥ निषिभ्यां किञ्च ॥ १७ ॥ अनीकम् । हृषीकम् ॥ १७ ॥ चङ्कराः कङ्का च ॥ १८ ॥ कङ्क्षीका ॥ १८ ॥ शृपृवृजां हे रुक् चाभ्यासस्य ॥ १९ ॥ शर्शकः ॥ पर्परीकः । वर्वरीकः ॥ १९ ॥
फर्फरीकादयश्च ॥ २० ॥ फर्फरीकम् | दर्दरीकम् । तिन्तिडीकः । चञ्चरीकः । मर्मरीकः । कर्करीकम् । पुण्डरीकः ॥ २० ॥
(१६) कर्षाति हिनस्तीति कषीका । पक्षिजातिवी । दूषयतीति दूषका नेत्रमलं वा ॥
( १२ ) अनिति जीवयतीत्यनीकम् । विरुद्धं सैन्यं वा । हृष्यति तुष्टो भवतोति येन तत् हृषीकम् । ज्ञानेन्द्रियं वा ॥
(१८) यङ्लुगन्तात्कणधातोरीकन कंकणादेशश्च । पुनः पुनः कर्णाति शब्दयतीति कङ्कणीका । वाद्यसाधनविशेषो वा । घरियार इति प्रसिद्धः । किङ्किणीका क्षुद्रघण्टिका | बहुलवचनात् सिद्धम् ॥
(१६) शृणाति हिनस्तीति शर्थरीको हिंसकः । पिपर्ति पालयतीति पर्परीकः सूय्य वा । वृणोति स्वीकरोतीति वर्वरीकः । कुटिलकेशो जनो वा ॥
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( २० ) स्फुरति चेतनो भवतीति फर्फरीकम् | पत्त्रादिसहितः शाखाग्रन्थिवी । ईकन्प्रत्यये धातोः फफ़रादेशः । दृणातीति दर्दरीकम् 1 वादिचं वा । करोति कार्य्याणि येन तत् कर्करीकम् । शरीरं वा । कर्करोका गलन्तिका । कलशी इति प्रसिद्धा । अत्रोभयत्र धातोर्द्वित्वमभ्यासस्य रुक् च । तिम्यत्याट्री करोतीति तिन्तिडीकः । वृक्षजातिर्वा | मकारस्य डकारोऽभ्यासस्य नुट् च । चरति गच्छति भक्षयति वा स चञ्चरीकः । भ्रमरो वा । अभ्यासस्य नुम् । म्रियतेऽसौ मर्मरीकः । हीनजनो वा । पुति शुभकर्माचरतीति पुण्डरीकम् । श्वेताम्भोजं सितपचं भेषजं व्याघ्रोऽमि ॥
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६४
उणादिकोषः ॥
ईषेः किद् ध्रस्वश्च ॥ २१ ॥ इषीका । २१ ॥ ऋजेश्च ॥ २२ ॥ ऋजीकः । २२॥ सर्तेर्नुम् च ॥ २३ ॥ मृणीका । २३ ॥ मृडः कीकच् कङ्कणौ ॥ २४ ॥ मृडीकः । मृडकपः ॥२४॥ अलीकादयश्च ॥२५॥ अलीकम् ।व्यलीकम्।वलीकम्॥२५॥ कृतभ्यामीषन् ॥ २६ ॥ करीषः । तरीषः॥ २६ ॥ ( २१.) कित्वात् गुणाभावः । ईषते गच्छ तीति इषोका । मुजादिशलाका वा !!
( २२ ) कित् । अर्जति गच्छतोति ऋजीकः । उपहतो वा । कित्वाद् गुनिषेधः ॥
( २३ ) सरति प्राप्नोतीति सृणीका । लाला वा । ष्ठीवनभेदः । लार इति प्रसिद्धम् ॥
(२४) मृडति सुखयोति डोकः । सुखदाता ।मृडङ्कणः । बालो वा। बहुलवचनात् । कायति शब्दयतीति कङ्कणः । करभूषणं वा ॥
(२५) कोकन् प्रत्ययान्ता अमी निपात्यन्ते । अलति वारयतीत्यलोकम् । मिथ्या वा। विपूर्वाद् व्यलोकप्रियं खेदो वा । वलते संवृणोत्यनेन तत् वलोकम् । गृहच्छादनसामग्री वा । अन्येपि, वलते संवतो भवतीति वल्मीकम् । छिद्रमृषिभेदो वा। तस्यापत्यं वाल्मीकिः। मुडागमः। वहतोति वाहीकः । गौरश्खो वा । धातोर्वद्धिः । सुष्ठु प्रेतीति सुप्रतीकः अग्निर्वा । धातोस्तुट च ॥
( २६ ) कीर्यते विक्षिप्यते स करीषः । शुष्कगोमयं वा । तरतियेन स तरीषः । नौका वा ॥
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पा० ४ ॥
शृभ्यां किच्च ॥ २७ ॥ शिरीषः । पुरीषम् ॥ २७ ॥ अर्जेज च ॥ २८ ॥ ऋजीषम् ॥ २८ ॥
अम्बरीषः ॥ २९ ॥
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वशेः किञ्च ॥ ३१ ॥ उशीरम् ॥ ३१ ॥ कशेर्मुट् च ॥ ३२ ॥ कश्मीरः ॥ ३२ ॥
कृश पृकटिपटिशौटिभ्य ईरन् ॥ ३० ॥ करीरः । शरीरम् परीरम् | कटीरः | पटीरः । शौटीरः ॥ ३० ॥
६५
(२०) शृणाति हिनस्तीति शिरीषः । वृक्षभेदो वा । पिपर्ति तत् पुरीषम् । शकद्वा ॥
( २८ अर्जति सञ्चितो भवति यस्मात्तत्, ऋजीषम् । पिष्टपचनं वा । तवा इति प्रसिद्धम् ॥
( २ ) अम्बते शब्दयतीति, अम्बरीषः । आकाशः स्वेदनी वा । भाड़ इति प्रसिद्धम् ॥
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( ३० ) किरतीति करीरः । वृक्षभेदो वंशाङ्कुरो वा । शीर्य्यते हिंस्यत इति शरीरम् । प्राणिकायो वा । पूर्यतेऽनेनेति परीरम् | फलं वा । कट्यत यस कटीरः । कुटी जघनदेशो वा । पटति गच्छतीति पटीरः । कन्दुकः कामश्चन्दनवृक्षो वा । शौटति गर्व करोतीति शौटीरः । त्यागी वीरो वा । ब्राह्मणादित्वात् ष्यञ् शौटीर्य्यम् । वैराग्यम् । बहुलवचनात्। हिण्डत इतस्ततो गच्छतीति हिण्डोरः । समुद्रफेनो दाडिमो वा । किमीरतूणीर जम्बीर कुम्भीर कुटीरादयोsपोरन प्रत्ययान्ता बाहुलकादेव बोद्धव्याः || ( ३१ ) उश्यते काम्यते तदुशीरम् वीरणमूलं वा । खस २ इति प्रसिद्धम् ॥ (३२) ईरनित्येव । कष्टे गच्छंति शास्ति वाऽसौ कश्मीरः । देशभेदों वा ॥
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१६
उगादिकोषः ॥
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कृत्र उच्च ॥ ३३॥ कुरीरम् ॥ ३३ ॥ घसः किच ॥ ३४ ॥ क्षीरम् ॥ ३४ ॥ गभीरगम्भीरौ ॥ ३५ ॥ विषाविहा ॥ ३६ ॥ पच एलिमच् ॥ ३७॥ पचेलिमः ॥ ३७॥
शीङो धुक्लकवलवालनः ॥ ३८ ॥ शीधु । शीलम् । शैवलः । शेवालम् । शेपालः ॥ ३८॥
मृकणिभ्यामूकोकणौ ॥ ३९ ॥ मरूकः । काणूकः ॥३९॥
(३३ ) क्रियते तत् कुरीरम् । मैथुनं वा । कपिलकादित्वाल्लत्वे कुलीरः। जलजन्तुभेदो वा ॥
(३४ ) अद्यते भक्ष्यते यत्तत् क्षीरं दुग्धं वा ॥
(३५ ) गमधातोर्मकारस्य भकार एकस्मिन पक्षे नुमागमश्च । गम्यते प्राप्यते ज्ञायते वा स गभीरः शान्तो महाशयो वा। विशेष्यालगावेतौ शब्दौ ॥
(३६) विशेषेण स्थति कर्मान्तं करोतीति विषा । बुद्धिी । विशेषण जहाति त्यजति दुःखमिति विहा। सुखलोको वा । स्वभावाइनयोरव्ययत्वम् ॥
(३७) पचति पदार्थानिति पचेलिमः । अग्निः सूर्यो वा। यस्तु पचधातोः सामान्यवार्तिकेन कृत्यार्थ केलिमज् विधीयते स भावे कर्मणि कर्मकर्तरि वेतिभेदः ॥
(३८) शेते येन तत् शधुि । मद्यं वा । शीलं स्वभावः । शैवलम् । शेवालम् । बाहुलकात्-प्रत्ययवकारस्य पकारः । शेपालम् । जलनील्या नामान्येतानि । उदके लतारूपमुत्पन्नं सेवार इति प्रसिद्धम् ॥
(३६) म्रियते असौ मरूकः । मृगो वा । कति शब्दयतीति काणूकः काको वा ॥
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उणादिकोषः ॥
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वलेरूकः ॥ ४० ॥ वलकः ॥ ४०॥
उलूकादयश्च ॥ ११ ॥ उलूकः । वावदूकः । भल्लूकः । शम्बूकः ॥११॥
शलिमण्डिभ्यामूकम् ॥४२॥ शालूकम् । मण्डुकः ॥१२॥ नियो मिः ॥ ४३ । नेमिः ॥४३॥ अर्जेरुच ॥१४॥ ऊमिः ॥४४॥ भुवः कित् ॥ ४५ ॥ भूमिः ॥ १५ ॥ प्रश्नोतेरशच् ॥ ४६ ॥ रश्मिः ।। ४६ ॥ (४० ) वलते संवृशोतीप्ति क्लकः । पक्षी कमलमूलं वा ॥
(४१) ऊक प्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । वलतेऽसावुलकः । पक्षिभेदो वा । धातोः सम्प्रसारणम् । भृशं वक्तीति वावदूको वक्ता । यहलुगन्तादूकः । जलशुक्तिवाँ । धातोर्बुक् । बाहुलकादकप्रत्यये शम्बुक इत्यपि सिद्धम् । भल्लते परितोभाषतेऽसौ भल्लकः । ऋक्षो वा । बाहुलकाद् इस्वे भल्लक इत्यपि । तथा भलतेऽसौ भालकः स एव । महतीति मधूकः । वृक्षभेदो वा । तथा । एलकजम्बूकबन्धकवास्तूकादयोऽप्यचैव द्रष्टव्याः ॥
(४२) शल्यते प्राप्यते यत्तत, शालकम् । मूलद्रव्यं वा । मण्डति शोभते ऽसौ मण्डूकः । भेको जलजन्तुर्वा ॥ ___(४३) नयतीति नेमिः । चक्रावयवी वा । बाहुलकात-याति कायर्याणि प्रापयतीति यामिः । प्रादेर्जत्वं नामिः । स्वसा कुलस्त्री वा।
(४४) ऋच्छति गच्छतीत्यूमिः । जलतरङ्गो वा।
( ४५ ) भवन्ति पदार्था प्रस्यामिति भूमिः । उत्पत्तिस्थानम् । अल्पा भूमिभूमिका । कृदिकारादिति डोष भूमी ॥
(४६) अश्नुते व्यामोतीति रश्मिः । किरणो रज्जुर्वा ।
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पा० ४ ॥
दल्मिः ॥१७॥ वीज्याज्वरिभ्यो निः ॥४८॥वेणिः।ज्यानिः । जूर्णिः ॥१८॥ सृवृषिभ्यां कित् ॥ १९ ॥ सृणिः । वृष्णिः ॥ १९ ॥ भङ्ग लोपश्च ॥ ५० ॥ अग्निः ॥ ५० ॥ वहिनिश्रुयुद्रग्लाहात्वरिभ्यो नित् ॥५१॥ वहिः । श्रेणिः। श्रोणिः॥ योनिः।द्रोणिः । ग्लानिः। हानिः। तर्णि ॥५१॥
(४७) दलतियेन विदणातीति दलिमः । सूर्यकिरण उत्तमायुधं वा॥
(४८) वीयते क्षिप्यते स वेणिः । केशविन्यासो वा । निपातनाएणत्यम् । जिनाति क्योहीनो भवतीति ज्यानिः । क्षतिर्वा । ज्वरति रोगी भवतीति जूर्णिः । स्त्रीरोगो वा। बाहुलकात-क्षौति शब्दयतीति चोणिः । डीष क्षोणी । मिर्वा । क्रोणातीति क्रोणिः । क्रेणी ॥
(४६ ) सरति गच्छतीति सृणिः । अनुशं वा। वर्षतीति वृष्णिः । क्षत्रियो वैश्यो वा।
(५०) अङ्गति गच्छति प्राप्नोति जानाति वा सोऽमिः । बहिः । प्रसिद्धो वा ॥
(५५) वहतीति वहिः । अग्निर्वा । अति सेवतेऽसौ श्रेणिः । परिवी । निपूर्वान्निश्रेणी । अधिरोहणी वा । शृणोतीति श्रोणिः । कटिप्रदेशो वा । यौति संयोजयति पृथक् करोति वा स योनिः । कारणमुपस्थेन्द्रियं वा । द्रवन्ति गच्छन्ति यत्र स द्रोणिः । सेचनी देशविशेषो वा । ग्लायति यस्मिन् स ग्लानिः । दौर्बल्यं दौमनस्यं वा । हीयते जहाति वा स हानिः । अपचयो वा । प्रहाणिः । परिहाणिः । कृत्यच इति णत्वम् । त्वरति सम्यग्भ्रमतोति तर्णिः । मनो वा । बहुलवचनात-शेतेऽसौ शिनिः । क्षत्रियो वा। धातोई स्वत्वं च । वायतीति म्लानिः । आनन्दयो वा ॥
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ठणादिकोषः । घृणिपृश्निपाणिचूर्णिभूर्णयः ॥ ५२ ॥ वृदृभ्यां विन् ॥ ५३॥वर्विः । दर्विः ॥ ५३ ।।
शस्त जागृभ्यःकिन् ॥५४॥ जीविः । शीविस्तीविः । जागृविः ॥५४॥ दिवो हे दीर्घश्चाभ्यासस्य ॥ ५५॥ दीदिविः ॥ ५५॥ कविघष्विछविस्थविकिकीदिवि ॥ ५६ ॥ (५२) जिर्ति क्षति दीप्यते वा स घृणिः । किरणो वा । स्पृशति संयुक्तो भवतीति पृश्निः । अल्पशरीरो वा । धातोः सलोपः पति सिञ्चतीति पार्णिः । पादतलं वा । धातोद्धिः । चरति गच्छति भक्षयति चर्णर्यात प्रेरयतीति वा चर्णिः । विवरणं वा । बिभर्ति धरति सर्वमिति भूर्णिः । पृथिवी वा । बाहुलकात्-घुरति शब्दयतीति पूर्णिः ॥
(५३ ) वणोतीति वर्विः । भक्षको वा । दृणाति यया सा दर्विः। सुपचालनपाचं वा । डोष । दी।
(५४ ) जीर्यतीति जीविः । पशुर्वा । शृयातीति शीविः । स्तृणोत्याच्छादयतीति स्तोर्विः । अध्वर्यु । जागती ति नाविः नृपतिवी ॥
(५५) दीव्यतीति दीदिविः । सुखमन्नं वा । कन् प्रत्ययस्य बाहुलकादेवत्सप्रज्ञालोपो न भवतः ॥
(५६) करोति येन स कविः । तन्तुवायद्रव्यं वा । घर्षति सिञ्चतीति घृष्विः । वराहो वा । छ्यति सूक्ष्मं करोतीति छविः । दीपतिर्वा । धातोई स्वत्वं च । तिष्ठतोति स्थविः । तन्तुवायो वा । अत्रापि हस्वः । किकिना शब्देन दीव्यतीति किकिदीविः। चाषो वा । नीलकण्ठ इति प्रसिद्धता किकदिवः । किकिदिविः । किकिदीवः । किकिदिवः । किकीदीविः । इति पंचभेदा बहुलवचनादेव मन्तव्याः ॥
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.१००
पा० ४.
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पाते. तिः ॥ ५७ ॥ पतिः। ५७ ।। शकेर्ऋतिन् ॥ ५८ ॥ शकृत् ॥ ५८॥ अमेरतिः ॥ ५९ ॥ अमतिः ॥ ५९ ॥ वहिवस्यतिभ्यश्चित्॥६०॥ वहतिः।वसतिः। प्ररतिः॥६०॥ अञ्चेः को वा ।। ६१॥ अङ्कतिः । अञ्चतिः ॥ ६१॥ हन्तेरंह च ॥ ६२ ॥ अंहतिः ॥ ६॥ रमेनित् ॥ ६३॥ रमतिः॥६३॥ (५०) पाति रक्षतीति पतिः । स्वामी वा।
( ५८ ) शक्नोतीति शकृत् । बाहुलकात-यजतोति यकृत् । कालखण्डं बा । धातोर्जकारस्य ककारः ॥
) ५६ ) अमति गच्छतीति, श्रमतिः कालो वा । बाहुलकात-बतमाचरतीति वतिः । विस्तरो वतती लता वा । मालयति गन्धं धारयतोति मालती मालतिः । सुमना वा । चमेली इति प्रसिद्धा । स्थापयति धर्ममिति स्थपतिः । वाग्मी यज्ञकती वा । मयन्तस्य स्थाधातोः पुकि संति इस्वत्वम् ।
(६०) वहति प्रापयति पदार्थान प्राप्नोति वैति वहतिः । पवनो घा । वसन्ति यति वसतिर्वसती वा गृहं रात्विा । ऋच्छति गच्छत्तीति, अरतिः क्रोधी था । बाहुलकात्-अलति भूषर्यात समर्था वा भवति । सा अलतिः । गीतमात्रिका वा ॥
(६१) अञ्चति गच्छति पूजयति वा सा अकतिः । प्रतिः ।। वायुवी ॥
( ६२ ) अतिः । हन्त्यनेनेति। अंहतिः । दानं वा ॥ (६३) रमन्तेऽस्मिन् स रमतिः कालः कामो वा ॥ ..
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उणादिकोषः ॥
१०१
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सूङः क्रिः ॥ ६४ ॥ सूरिः॥६॥
पदिशदिभूशुभिभ्यः किन् ॥ ६५॥ अद्रिः । शद्रिः । भूरिः । शुभिः ॥६५॥
वक़्यादयश्च ॥६६॥ वक्रिः । वप्रिः। अंहिः । तन्द्रिः। भेरिः ॥६६॥
राशदिभ्यां त्रिप् ॥ ६७ ॥ रात्रिः । शत्रिः॥६७ ॥ प्रदेस्त्रिनिश्च ॥ ६८ ॥ भत्री । अत्रिः ॥ ६८॥ पतेरत्रिन् ।। ६९ ॥ पतत्रिः ॥ ६९॥
(६४ ) सूते प्राणिनः प्रसवति समर्थयतीति, मूरिः । पण्डितो वा । | स्त्रियां सूरी ॥
(६५) योऽति, अदन्ति यति वा स, अद्रिः । पर्वतो मेघो वृक्षः सूर्यो वा । शीयते शातयतीति शद्रिः । शर्करा वा । भवतीति भरि बहु सुवर्ण वा । भूरि प्रयोजनमस्य स भौरिकः । कनकाध्यचो वा । शोभते सो शुभिः । चतुर्वेदविद् ब्रह्मा वा ॥
(६६) वङ्कतेऽसौ वङ्किः । वाद्यभेदो गृहदारु वा । वन्ति यस्मिन् स वनिः क्षेत्रवा। सम्प्रसारणाभावः। बाहुलकात-यति भाषतेऽसाहिः। पादो वा । तन्दिः सौत्रो धातुः । सन्दति क्लिश्नातीति तन्द्रिः माही वा । स्त्रियां तन्द्री । बिभेति येन स भेरिः । वाद्यविशेषो वा । भेरी वा॥
(६०) राति सुखं ददातीति रात्रिः । प्रसिद्धा वा । शीयते छिनतीति शनिः हस्ती वा ॥
(६८) चात् त्रिप। आत्त भक्षयतीति अत्री। अत्रिणौ । पापं वा। अधिः । मुनिभेदो वा । तस्यापत्यमाचेयः ॥
(६६) पततीति पतत्रिः । पक्षी वा । पतत्रयः । पक्षवाचकात्यतच शब्दान्मत्वर्थ इनिः । पतत्री । परिणी ॥
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पा०४॥
मृकणिभ्यामीचिः ॥ ७० ॥ मरीचिः। कपीचिः ॥ ७॥ श्वयतेश्चित् ।। ७१ ॥ श्वयीचिः ॥७१ ॥ वेञो डिच्च ॥ ७२ ॥ वीचिः ॥ ७२ ॥ ऋहनिभ्यामूषन् ॥ ७३ ॥ अरूषः । हेनूषः ।। ७३ ॥ पुरः कुषन् ॥ ७४ । पुरुषः । पूरुषः ॥ ७४ ॥ पुनहिकलिभ्य उषच् ॥७५॥परुषः।नहुषः। कलुषम् ॥७५॥ पीयेरूषन् ॥ ७६ ॥ पीयूषम् । पेयूषः ॥ ७६ ॥ मस्जेर्नुम् च ॥ ७७ ॥ मञ्जूषा ॥ ७७
( ७० ) म्रियतेऽसौ मरीचिः । दीपतिर्महर्षिा । कति शब्दयतीति कोचिः । पत्रादियुक्ता शाखा शबदो वा ॥ .
(०१ ) श्वयति गच्छति वर्धते वा स श्वयोचिः । व्याधिर्वा ॥ ( २ ) वति तन्तून सन्तनातीति वोचिः। डिवाटिलोपः । तरङ्गोवा।।
(७३ ) ऋच्छति गच्छतोति,अरूषः । सूर्योवा।हन्तीति हनूषो दस्युः। . ( ४ ) पुरत्यग्नं गच्छतीति पुरुषः पुमान् । अन्येषामपि दृश्यत इति दोघे पुरुषो वा ॥
(०५ ) पिपीति परुषम् । निष्टुरं वचो वा । नाति बध्नातोति नहुषः । राजर्षि: सर्पविशेषो वा । कलते शब्दयतोति कलुषम् । पापम् ॥
(०६ ) पीयति पीयते वा तत पीयूषम् । पेयूषः । नतनं पयोऽमृतं वा । सप्तरात्रप्रसूतायाः क्षीरम् । बहुलवचनात-अङ्कवते लक्ष यतीति अङ्कषः । नकुलो वा ॥ . | (00) धातोर्नुम् । स चाचीऽन्त्यात्परः । जश्त्वश्चुत्वे । मज्जति शुद्धो भवतीति मञ्जूषा । काष्ठमयं द्रव्यं वा ॥
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उणादिकेोषः ॥
गण्डेश्च ॥ ७८ ॥ गण्डूषः । गण्डूषा ॥ ७८ ॥
अररुः ॥ ७९ ॥ श्रररुः ॥ ७९ ॥
१०३
कुटः किश्च ॥ ८० ॥ कुटरुः ॥ ८०
शकादिभ्योऽन् ॥ ८१ ॥ शकटः । कङ्कटः । देवटः ।
करटः ॥ ८१ ॥
(०८) गण्डति वदनावयवं दिशतीति गण्डूषः । जलादिना पूर्ण मुखम् । कुल्ला इति प्रसिद्धम् ॥
(०६ ) ऋच्छति प्राप्नोति येन तत् । अररुः । आयुधं वा ॥
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(८०) कुटतीति कुटरुः । वस्त्रगृहं वा ॥
(८१) शक्नोतीति शकटः । शकटं यानविशेष ऋषिर्वी । यस्यापत्यं शाकटायनः । वृणोतीति वरटः । कीटभेदो वरटा हंसयोषिदा । कङ्कते गच्छतीति कङ्कटः । कवची वा । सरति प्रसरतीति सरटः । कृकलासो या । गिरगट इति प्रसिद्धः । देवते व्यवहरतोति देवटः । शिल्पी वा । कम्पते येन स कपटः । माया वा । धातोर्नलोपः । कर्कमर्ककपीः सौत्रा धातवः । कर्कतीति कर्कटः । जलजन्तुभेदो वा । मर्कतीति मर्कटः । वानरो वा । स्त्रियां गौरादित्वान् ङीष् । मर्कटी । कर्पतीति कर्पटः । छिन्नं पुराणं वस्त्रं वा । पर्पति गच्छतीति पर्पटः । ऊपरभूमिर्वा । कखति हसतीति कक्वटम् । कठिनं वा । कुगागमः । चपति सान्त्वयतीति येन स चपेटः । चर्पटो वा । प्रसृताङ्गलिर्हस्तो वा । एकत्र प्रत्ययादेरेत्वमपरच रेफागमश्च । मयते प्राप्नाति यं स मयटः । प्रासादो वा । किरति विक्षिपतीति करटः । काको वा । एवमन्येऽपिशब्दा अटन प्रत्ययान्ता यथाप्रयोगं साध्याः ॥
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पा० ४ ॥
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क्कदिकडिकटिभ्योऽम्बच् ॥ ८२ ॥ करम्बम् । कदम्बः ।
कडम्बः । कटम्बः ॥ ८२
कदेर्णित् पक्षिणि ॥ ८३ ॥ कादम्बः ॥ ८३ ॥ कलिकर्योरमः ॥ ८४ ॥ कलमः । कर्दमः ॥ ८४ ॥ कुणिपुल्योः किन्दच् ॥ ८५ ॥ कुपिन्दः । पुलिन्दः ॥ ८५ ॥ कुपेव वश्च ॥ ८६ ॥ कुविन्दः । कुपिन्दः ॥ ८६ ॥ नौ पथिन् ॥ ८७ ॥ निषङ्गथिः ॥ ८७ ॥ उद्यतैश्चित् ॥ ८८ ॥ उदरथिः । ८८ ॥ सच्चि ॥ ८९ ॥ सारथिः ॥ ८९ ॥
( ८२ ) करोतीति करम्बम् । व्यामिश्रम् । कदतीति कदम्बः । वृक्षभेदो वा । कडत्यावृणोतीति कडम्बः । अग्रभागो वा । कटतीति कटम्बो वादिनं वा ॥
( ८३ ) कर्दात विकलो भवतीति कादम्बः पक्षिभेदो वावक प्रसिद्धः ॥ (८४) कलते संङ्ख्यातीति कलमः । शालिभेदो वा । कर्दति कुत्सितं शब्दयतीति कर्दमः पापं वा ॥
(८५) कुण्यते शब्दद्यतेऽसौ कुणिन्दः । शब्दो वा । पोलति महान् भवतीति पुलिन्दः । शवरश्चाण्डालभेदो वा । बाहुलकात् - अलति भूषय तोति' अलिन्दः । गृहैकदेशो वा । प्रज्ञादित्वादणि आलिन्द इत्यपि सिद्धम् ॥ ( ८६ ) कुप्यति क्रुद्धो भवति स कुविन्दः । कुविन्दः तन्तुवायो वा ॥ (८०) नितरां सजति स करोतीति निषङ्गथिः । लिङ्गको वा । घित्वात् कुत्वम् ॥
(८८) उदृच्छन्त्यूर्ध्वं गच्छन्त्यापोऽस्मिन् स उदरथिः । समुद्रो वा ॥ ( ८ ) सारयतीति नियमेन प्यालयतीति सारथिः । नियन्ता वा ।
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पा०४॥
१०५
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खर्जिपिजादिभ्य उरोलचौ ॥ ९० ॥ खर्जूरः । कर्पूरः। धुस्तूरः । वल्लूरम् । पिङ्ग्लम् । लाङ्गुलम् ॥ ९ ॥ कुवश्चट दीर्घश्च ॥ ९१॥ कुची ॥ ९१ ॥ समीणः ॥ ९२ ॥ समीचः । समीची ॥ ९२ ॥
सिवेष्टेरू च ॥९३ ॥ सूचः । सूची ॥ ९३ ॥ अत्र ोर्लोपी णित्वाद् वद्धिः
(E0) खयादिभ्य ऊरः । खर्जति मार्जयतीति खजूरः । वृक्षभेदो रजतं वा । स्त्रियां गौरादित्वान् ङीष् । खर्जरी । कल्पते समर्थो भवतीति कर्पूरः । सुगन्धिद्रव्यं वा । बाहुलकादत्र लत्वाभावः । धुनोति कम्पयतीति धुस्तरः । कनकाव्यः । धतूरा इति प्रसिद्धः । वल्लते संवृणोतीति वल्लरम् । शुक्रमांसं वा । शालयति गमयनीति शानरः । मण्डूको वा । मल्लते धरतीति मल्लरः । कस्ते गच्छति प्राप्नोति शास्ति वा स कस्तरः । स्त्रियां कस्तरी प्रसिदा । सुगन्धिभेदः । पिआदिभ्य उलः । पिङ्क्त वर्णयतीति पिजलम् । कुशवर्तिी । कञ्चते दीप्यतेऽसौ कञ्चलः। स्त्रीगात्राभरणं वा। लङ्गति गच्छतीति लागूलम् । पुच्छं वा । धातोद्धिः । ताति काङक्षति यतताम्बलमिति । प्रसिद्धम् धातोर्वक् । धातोर्दु दीर्घत्वं च । शृणाप्ति हिनस्तीति शार्दूलः । ध्याघो वा । धातोर्दुक वृद्धिश्च । दुनोत्युपतापय. तीति दुकूलम् । स्त्रिया अधोवस्त्रम्। धातोः कुक । कुस्यति श्लिष्यतीति कुसूलः । धान्यपात्रं वा।
(E) कौति शब्दयतीति कूचः । स्तनं हस्ती वा । स्त्रियां कूची चित्रलेखनी ॥
(१२) सम्योति गच्छतीति समोचः । समुद्रो वा । समोची हरिणी ॥
(६३ ) इवभागस्य टेरू आदेशः । सोयति येन स सूचः । दीङ्करी वा । सूचीति प्रसिद्धा
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१०६
उणादिकोषः ॥ शमेर्वन् ॥ ९४ ॥ शंवः ॥ ९४ ॥ उल्वादयश्च ॥ ९५ ॥ उल्वम् । विल्वम् ॥ ९५॥ स्थः स्तोऽम्बजवको ॥ ९६ ॥ स्तम्बः । स्तवकः ॥ ९६ ॥ शाशपिभ्यां ददनौ ॥ ९७ ॥ शादः । शब्दः ॥ ९७ ॥ अब्दादयश्च ॥ ९८॥ अब्दः । कुन्दः ॥ ९८॥
(६४ ) शाम्यतीति शंवः । मुसलस्य लोहमुखं वा । शामी इति । प्रसिद्धा ॥ ____(६५) वन प्रत्ययान्ता निपाताः । उच्यति समवैतीति उल्वः । गर्भो वा । चकारस्य लत्वं गुणाभावश्च । शोचतीति शुल्वम् । तानं वा । पूर्वक सर्वम् । नयति प्रापयतीति शुभगुणानिति निंवः । वृक्षभेदो वा । वीयते काम्यते तत् विवम् । मण्डलमोषधिविशेषो वा । अत्रोभयत्र नी वी धातोर्नमागमो हुस्वत्वं च । स्त्रियां गौरादित्वात्। विंवी । विवफलमिवोष्ठौ यस्याः सा विवोष्ठी कन्या । दधाति धान्यहेतुर्भवतीति धन्वम् । धनुवा । तद्योगादुन्वी जनः । जति भक्षयतीति जवः । पको वा ॥
(६६) अम्बच अवक इत्येतौ प्रत्ययौ । तिष्ठतोति स्तम्बः । शाखाशून्यो बोह्यादेर्गच्छो वा । स्तवकः । पुष्पगुच्छो वा ॥
(६७ ) श्यति सूक्ष्मं करोतीति शादः । कर्दमो बालतृणं वा । शप्यत पाहयतेऽनेन स शब्दो नादः । पस्य बः ॥
(८) ददन प्रत्ययान्ता निपाताः । अवति रक्षणादिकं करोतीति अब्दः। संवत्सरोऽवसरो मेघो वा । कौति शब्ट यतोति कुन्दः । पुष्पजातिर्वा । धातोर्नुम् । वृणोतीति वृन्दं सम हो वा ! नुम् गुणाभावश्च । कति दीप्यतेऽसौ कन्दः । सस्य मूलं सूकरो वा। तुदति व्यथतोति तुन्दः स्थूलमुदरं वा । तुन्दी स्थूलोदरी । धातोर्नुम् ॥
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पा० ४ ॥
वलिमलितनिभ्यः कयन् ॥ ९९ ॥ वलयम् । मलयः । तनयम् ॥ ९९ ॥ वृहोः पुग्दुकौ च ॥ १०० ॥ वृषयः । हृदयम् ॥ १०० ।। मीपीभ्यां रुः ॥ १०१ मेरुः । पेरुः ॥ १०१॥ जत्वाद यश्च ॥१०२।। जत्रु। जत्रुगी। अश्रु। अश्रुणी॥१०२॥ रुशातिभ्यां क्रुन् ॥ १०३ ॥ रुरुः । शत्रुः ॥ १०३ ॥
(EE ) वलते संवृणोतीति वलयः । करभूषणं वा । मलते धरतोति मलयः । पर्वतो वा । तनोति सुखमिति तनयः । पुत्रो वा । बाहुलकात्आमयति पाडयतीति आमयः । रोगो वा ।
(१०० ) वृणोतोति वषयः । आश्रयो वा । षुक् । हरति विषयानिति हृदयम् । मनो वा । दक् ॥
( १०१. } मिनोति प्रक्षिपतीति मेरुः । सुमेरुः । पर्वतो वा । पीयते पिबतोति वा । पेरुः । आदित्यो वा। बाहुलकात-पिबतीति पारुः । स एव ॥
(१०२ ) जायते तत् जत्रु । स्कन्धसन्धिी । नस्य तः । जचुणी । जणि । शेतेऽसौ शिनः । शोभाजनम्तरः । सहिजना इति प्रसिद्धः । शाकं वा । मनुष्यविशेपो वा । तत्र शियोरपत्यं शैनवः । विशेषेण तनातीति वितदुः । नदी वा । नकारस्य दः । कवतेऽसौ कद्रुः । वर्णभेदी वा । वस्य दः । अस्यति प्रक्षिपति जलमिति अनुः । बहुलवचनात्-शकारभेदे । अश्रुः । नेत्रजलं वा ॥
(१०३ ) रौति शब्दं करोतोति रुमः। मगभेदो वा ।।शीयते शातयतीप्ति शत्रुः । प्रज्ञादित्वादण । शात्रवः । वैरी ॥
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१००
उणादिकोषः ॥ जनिदाच्युसृवृमदिषमिनमिभृभ्य इत्वन्त्वन्त्ननिन्शस्यढडटोटचः ॥ १०४ ॥ जनित्वः । दात्वः । व्योत्नः। सृणिः । वशः । मत्स्यः । षण्ढः । नटः। भरटः ॥ १०४ ॥
अन्येऽपि दृश्यन्ते ॥ १०५॥ पेत्वम् ॥ १०५॥
कुसेसम्भोमेदेताः ॥ १०६ ॥ कुसुम्भम् । कुसुमम् । कुसीदम् । कुसितः ॥ १०६ ॥
सानसिवर्णसिपर्णसितण्डुलाङ्कुशवषालेल्वलपलवलधिष्ण्यशल्याः ॥ १०७॥
( १.०४ ) जायते जनर्यात वा स जनित्वः । मातापितरौ वा । यो ददाति यत्र वा स दात्वः । यज्ञकर्म वा । च्यवते गच्छतीति च्यात्नम् । बलं वा । सरतोति सणिः । चन्द्रोऽङ्कुशो वा । वृणोतीति वृशः । ओषभित्री । माद्यतीति मत्स्यः । मीनो वा । स्त्रियां मत्सी । मत्स्या । समतीति षमढः । अकृतदारो वा । नमतोति नटः । बंशावरोहीति प्रसिद्धः । डिवाटिलीपः । विभौति भरटः । कुलालो वा ॥
(१०५ ) इत्वनादय इति शेषः । पोयते यत् पेल्वम् । अमृतं वा। कच्यते बध्यते सौ कच्छः । शाकमूलं वा । सरतीति सरटः । वायुर्वा । ध्यायते तद् ध्यात्वम् । चिन्ता वा । जुहोतीति होत्नः । यजमानो वा । लयतेऽसौ लूनिः । ब्रोहिर्वा । इत्यादि ॥
(१०६ ) कुस्थति श्लिष्यतीति कुसुम्भम् । महारजनं वा। कुसुमम् । पुष्प वा । कुसीदम् । वृद्धिजीविका वा। कुसितः। देशो वा ॥
(१०७ ) सनोति ददाति सन्यते वा स सानसिः । हिरण्यं वा । । असिप्रत्यय उपधाद्धिश्च । वृणोतीति वर्णसिः । जलं वा । धातोर्नुस् । पिपर्ती ति पर्णसिः। जलगृह वा । पूर्ववत्सर्वम् । तण्डति ताडयति ताह्यते वा । स तयडुलः । उलच । तुपरहितो वीहिर्वा । अङ्कते लक्षात येन
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पा० ४ ॥
१०६
मशक्यबिभ्यः क्तः ॥१०८॥मूलम् । शक्लः। अम्ब्लः अम्लः ॥ १०८॥
माछाशसिभ्यो वः॥१.९॥माया।छाया। सस्यम् ॥१०९॥ सनोतेः ॥ ११० ॥ सव्यम् ॥ ११०॥
जनेर्यक् ॥ १११ ॥ जन्यम् । जाया ॥ १११॥ अघ्न्यादयश्च ॥११२॥ अवन्या । कन्या । बन्ध्या ॥११२॥ स, अङ्कुशः । शस्त्रभेदो वा। उशच । चर्षात भक्षयतोति चषालः । यूपक ङ्कणं वा । इलति स्वपितीति,इल्वलः। नदानविशेषो वा । पति धृष्णोति गच्छतोतिपल्वलम् । अल्पसरो वा । अत्रोभयत्र वलच गुणाभावश्च। प्रगल्भो भवतीति धिष्ययः । स्थानमक्षोऽग्निरालयो वा । ऋकारस्येकारी वा ॥ सयप्रत्ययश्च । शलति गच्छ तीति शल्यम्। शस्त्रविशेषो वाणानभागो वा ॥
(१०८ ! मनते बध्नातीति मूलमिति प्रसिद्धम् । शक्रोतोति शक्तः । प्रियंवदो वा अम्बते शब्दं करोतीत्यम्बलः । बाहुलकात-अमति गच्छतीति, अन्नः । रसविशेषो वा ॥
(२०६ ) मात्यन्तर्भवतीति माया। छल मिथ्याजालो वा । ट्यति प्रकाशमिति छाया। प्रकाशावरणमुत्कोचक प्रतिविम्बी वा शिस्यते यत्तत् सम्यम। क्षेत्रपक्वमन्नं गुणो वा । बाहुलकात्-अनिति जीवयतीत्यन्यः । इतरो वा ॥
(११० ) सनात्यभिषवतीति सव्यम् । वामभागो वा ॥
( ११) या जायले यस्या वा सा जाया पत्नी । ये विभातिव्यव स्थितविभाषया पत्न्यां जाया नितयमात्वमन्यत्र जन्यम्। निर्वादो युद्धं वा॥
(११२ ) यगन्ता निपाताः । यो न हन्यते न हन्तीति वा स, अघ्न्यः । प्रजापालको वा । धातोरुपधालोपो हस्य घत्वं च । अधन्या गोवा। सन्दधाति यस्यां वेलायां सा सन्ध्या । आतो लोपः । सायडालः प्रतिज्ञा वा । सम्यग् ध्यायन्ति परं ब्रह्म यस्यां सा सन्ध्या। इति तु स्त्रियां
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१२०
उणादिकोषः
स्नाम दिपद्यर्त्ति पूरा किभ्यो वनिप् ॥ ११३ ॥ स्त्रावा | महा । पहा । अव | पर्व | शका | शकरी ॥ ११३॥
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शीकुशिरुहिजिक्षिसृधृभ्यः क्वनिप् ॥ ११४ ॥ शीवा । कुश्वा । रुह्वा । जित्वा । क्षित्वा । सृत्वा । धृत्वा ॥ ११४ ॥ घ्याप्योः सम्प्रसारणं च ॥ ११५ ॥ धीवा । पीवा ॥ ११५ ॥ अर्ध च ॥ ११६ ॥ अध्वा ॥ ११६ ॥
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क्तित्रियधिकारे आतश्चोपसर्ग इत्यङ् । कन्यते दीप्यते काम्यते गच्छति वा सा कन्या । कुमारी वा । बध्यतेः सौबन्ध्या असूता वा । कौति शब्दयतीति कुडा । भिति । धातोडुक् । मन्यते येन तन्मध्यम् । द्वयोरन्तरालं वा । नस्य धः । उद्यते यतद् वह्मम् । मनुष्यविशेषो वा । अहति व्याप्नोतीत्यहल्या | रात्रिवी । अहलीयतेऽस्यानिति व्युत्पत्यनन्तरम् । पूर्वत्र धातोर लुगागमः । ऋषति गच्छतीति ऋष्यः मृगभेदो वा । कष्टे गच्छति शास्ति वा स कश्यः । मद्यं वा । इत्यादि ॥
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( ११३ ) स्नाति शुच्यतीति स्नावा | रसिको वा । स्त्रावानी । स्नावानः । माद्यति मद्दा | कल्याणदातेश्वरो वा । पद्यन्ते यत्र सपदा | पन्था वा । ऋच्छतीत्यर्वा । अश्वो निन्यो वा । निपतति पर्व | ग्रन्थिवी । शक्लोतीति का | वा । स्त्रियां ङीफौ । शक्करी । नदी । छन्दोभेदो वा ॥
( ११४ ) शेतेःसौ शीवा । अजगरों वा । क्रोशतोति क्रुश्खा | शृगालो या | रोहति वीनादुत्पद्यत इति रुता वृक्षो वा । जयतीति जित्वा । जयशीलः । चयति नाशयति छिपति निवसति गच्छति वा स चित्वा । वायुवी | सरतीति सृत्वा । प्रजापतिवी | धारयतीति धृत्वा । व्यापको जगदीश्वरो वा । स्त्रियां जित्वरीत्यादि बोध्यम् ॥
( ११५ ) ध्यायतीति धीवा । कर्मकारो वा । स्त्रियां धीवरी । मत्स्याधानं पात्रम् । प्यायते बर्द्धतेऽसौ पोवा | स्थूलो वा । पीवरी तरुणी ॥ ( ११६ ) अति भक्षयतीति" अध्वा । मार्गे वा ॥
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पा० ४॥
૧૧૧ प्रईरशदोस्तुट्च।।११७॥प्रेवीप्रशत्त्वा।प्रेर्वप्रशत्त्वरी॥११७॥
सर्वधातुभ्य इन् ।।११८॥पचिः। तुण्डिः । वलिः । वटिः। मणिः । वल्हिः यजिः । गण्डिः । तडिः। धाडिः । काशिः । वाशिः । घटिः । घटी। यतिः । केलिः । मसिः । कोटिः । जटिः । कटिः । हलिः । हेलिः। पणिः कलिः ॥ ११८ ॥
(११० ) प्रेत सौ प्रेा । सागरी वा । प्रेवरी । प्रशोयतेऽसौ प्रशत्वा समुद्रो वा । प्रशत्वरी नदी ॥
(११८) पति येन स पचिः । अग्निर्वा । तुण्डति छिनतीति तुण्डिः । वलते संवृणोतीति वलिः । महाराज वा । वाटयति ग्रथनाति स वटिः । विभाजको वा । मति शब्दयतीति मणिः । बहुमूल्यः पाषाणी वा । प्रशंसिता मणिमणिकः । तदेव माणिस्यम् । वल्हते प्रधानो भवतीति वल्हिः । वल्हि का नाम क्षत्रिया जनपदो वा । यजतोति जिः । सङ्गान्ता होता वा । गण्डति स गण्डिः । वदनैकदेशो वा । ताडयतोति तडिः । पोडकः । धाडते विशेषेण हिनस्तोति धाडिः । पुष्पचयो वा । काश्यते दीप्यतेऽमी काशिः । देशभेदो वा । तद्देशान्तर्गत्वाद्वाराणसी नगरी काशिः। काशी । तस्य देशस्य राजा काश्यः । वाश्यने शब्दयतांति वाशिः काष्ठभेदिनी वा । घटते सौ घटिः । घटी। यततेऽसौ यतिः । नियमधारी सन्न्यासी वा । केति चलति यस्यां सा केलि: । क्रीडा वा । मस्यति परिणामते
स मसिः । मसी । पात्राजनं वा । कुटतीति कोटिः । सङ्ख्यावरणमग्रभागो वा । बाहुनकाद् गुणः । जति सड्ढातं करोतीति जटिः जटाधारी
वा । कटतीति कटिः । कटो । शरीरमध्यं वा । हलति येन विलिखतीति हलिः । कृषीवलः । कृषिसाधनं वा । हेलात विरुद्ध बहुभाषत इति हेलिः । प्रहेलिः । यः गायति व्यवहरति स पणि: विणणः । वणिजां वीथी वा । कलन्ते स्पर्द्धमाना भाषन्ते यत्र स कलिः । कलहो विग्रहो वा । नन्दति यति नन्दिः । वद्धिर्वा । इत्यादीन्यनेकान्यदाहरणानि सन्ति ॥
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उपादिकेोषः ॥
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हृपिषिरुहिवृत्तिविदिछि दिकीर्त्तिभ्यश्च ॥ ११९ ॥ हरिः । पेशिः । रोहिः । वर्त्तिः । वेदिः । छेदिः । कीर्त्तिः ॥ ११९ ॥ इगुपधात् कित् ॥ १२० ॥ ऋषिः । ऋषिः । रुचिः । । शुचिः । लिपिः ॥ १२० ॥
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भ्रमः सम्प्रसारणञ्च ॥ १२१ ॥ भूमिः । भ्रमिः ॥ १२१ ॥ क्रमितिमिशतिस्तम्भामत इच्च ॥ १२२ ॥ क्रिमिः । कृमिः । तिमिः । शतिः । स्तिभिः ॥ १२२ ॥
( ११६ ) हरतोति हरिः । सर्पो मण्डूकोऽश्वः सिंहः सूर्ये वा । इगुपधात् किदिति षच्यते यद्बाधनार्थं पिष्यादीनां ग्रहणम् । तत्र हि कित्वाद् गुणनिषेधः प्राप्तः स न स्यात् । पिनष्टि येन स पेषिः । बज्रो बा | रोहतीति रोहिः । व्रतां वा । वर्त्तते सा वर्तिः । दीपोपकरणं वा । विद्यते या सा वेदिः । यज्ञभूमिवी । छिनतीति छेदिः । वर्धकिश्ता वा । कीर्त्यते संशब्द्यते सा कीर्तिः । पुण्यं यशो वा ॥
( १२० ) कृष्यते विलेख्यते या सा कृषिः । खेतीति प्रसिद्धा । ऋषति गच्छति प्राप्नोति जानाति वा स ऋषिः । मन्त्रार्थद्रष्टा वा । सच्यते सा रुचि : दीप्ति । शुच्यतीति शुचिः । शुद्धिर्घा लिम्पतीति लिपि: । लेखो वा । बाहुलकात् - वत्वे लिविः । इत्यपि । लिविं करोतीति लिविकरः । लिप्यर्थ एव । तूलते निष्कर्षतीति तलिः । तूली | कूर्चिका । दध्यादिना सह पक्कः चीरविकारो वा ।
( १२१) भ्राम्यतीति भूमिः । वायुवी | बाहुलकात् - भ्रमिरित्यपि सिद्धम् ॥ ( १२२ ) क्राम्यति पादान् विचिपतीति क्रिमिः । क्षुद्रजन्तुवी | सम्प्रसारणानुवृत्तेः कृमिरित्यपि । ताम्यत्याकाङ्क्षतीति तिमिः । मत्स्यभेदो वा । शतिस्तम्भी सौत्रो धातु । शितिः कृष्णः । लुक्लो वा । स्तनातीति स्तिभिः । समुद्रो वा ॥
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पा० ४ ॥
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मनेरुश्च ॥ १२३ ॥ मुनिः । १२३ ॥ वर्णेबलिश्चा हिरण्ये ॥ १२४ ॥ बलिः ॥ १२४ ॥ वसिवपियजिरा जिव जिसदिह निवा शिवा दिवा रिभ्य इञ् १२५ ॥ वासिः । वापिः । याजिः । राजिः । व्राजिः । सादिः । निघातिः । बाशिः । वादिः । वारिः ॥ १२५ ॥
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नहो भश्च ॥ १२६ ॥ नाभिः ॥ १२६ ॥ कृषेर्वृद्धिश्छन्दसि ॥ १२७ ॥ कार्षिः ॥ १२७ ॥
११३
( १२३) फिदित्येव । मन्यते जानातीति मुनिः । मननशीलः । मुनिरियं ब्राह्मणी । बादित्वान् मुनी । मुनेर्भावः कर्म वा मौनम् ॥
( १२४ ) वर्णिः सौत्रो धातुः वर्णयति स बलिः । राजकर: सत्कारसामग्री शरीराङ्गं वा । हिरण्ये तु वर्णिः सुवर्णम् ॥
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( १२५ ) वस्त आच्छादयति वसति वा स वासिः । छेद नबस्तु वा । वपन्ति यथेति वापिर्वापी वा । जलाशयभेदो वा । यजतीति यानिः । यष्टा वा । राजते दीप्यतेऽसौ राजिः । राजी । पंक्तिर्षा । राजीवं पद्मम् । व्रजतीति वाजि: । वायुसमूहो वा । सीदतीति सादिः । सारथिर्वा । हन्ति यया सा घातिः । निघातिलौघाता धारा । वाभ्यते शब्दयतीति वाशिः । अग्नि । वादयति व्यक्तमुच्चारयति स वादिः । विद्वान् बा । वारयति निवारयतीति वारिः । गजबन्धनी शृङ्खला वा । जले नपुंसकम् । वारि । बाहुलकात् - हरतीति हरिः । पथिकसंति । संप्रहारिः | योद्धा | खटति काङ्क्षतीति खाटिः । शुष्कवृणस्थानं वा ॥
(१२६ ) नाति दुष्टं नाडीर्वा, बध्नातीति नाभिः । क्षचियः प्राय्य बा । नाभी ङीष् ॥
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( १२० ) कर्षत्याकर्षतीति कार्षिः । अग्निव । लोके तु कृषिः ॥
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यादिकोषः ॥
श्रः शकुनौ ॥ १२८ ॥ शारिः । शारिका ॥ १२८ ॥
ञ उदीचां कारुषु ॥ १२९ ॥ कारिः ॥ १२९ ॥ जनिघसिभ्यामि ॥ १३० ॥ जनिः । घासिः ॥ १३० ॥
I
अज्यतिभ्यां च ॥ १३१ ॥ आजि: । श्रातिः ॥ १३१ ॥ पादे च ॥ १३२ ॥ पदाजिः । पदातिः ॥ १३२ ॥ अशिपणाय्योरुडा यलुकौ च ॥ १३३॥ राशिः पाणिः ॥१३३॥
(१२८ ) शृणाति हिनस्तीति शारिः पक्षी । स्त्री शारिका । शुक्रशारिकमिति पक्ष एकवद्भावः । शारीन् हन्तीति शारिका वा । शकुनेरन्यत्र शरिर्हिः । कपिलकादित्वाल्लत्वम् । शनिः अपिलिर्मुनिविशेषस्त स्यापत्यमा पिलि: । बाह्वादित्यादिञ् ॥
( १२६ ) करोतीति कारिः । शिल्पी । शिल्पिनोऽन्यत्र करिः ॥
( १३० ) जायतेःसी जानिः । जननं वा । घसति भक्षयतीति घासिः । अमिव । बाहुलकात् - शल्य प्राप्यतेऽसौ शालिः । ब्रोहयो वा । पलति गच्छतीति पालिः । खड्गादेरग्रभागो वा । प्रत्ययान्तरकरणं स्वरार्थम् ॥
( १३१) अजन्ति चिपन्ति शस्त्रादिकं यच स आनिः । संग्रामो वा । अति निरन्तरं गच्छतीति, प्रतिः । तितरिभेदो वा । शोभनः - श्रतो स्वाती नक्षत्रम् ॥
( १३२ ) पद्भ्यामजत्यतति वा स पदाजिः । पदातिः । पदगः । पादस्यपदाज्जाति० सूत्रेण पदादेश: ॥
( १३३ ) अशेरुट् पणायते रायलुक् । अश्नुते व्याप्नोतीति राशिः । स वा । पणायति व्यवहरति येन स पाणिः । हस्तो वा ॥
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पा० ४ ॥
११५
वातेर्डिच्च ॥ १३४ ॥ विः ॥ १३४ ॥ प्रे हरतेः कूपे ॥ १३५॥ प्रहिः ॥ १३५॥ नौ व्यो यलोपः पूर्वस्य च दीर्घः ॥१३६॥नीविः ॥१३६॥ समाने ख्यः स चोदात्तः ॥ १३७ ॥ सखा ॥ १३७ ॥ आडि टिहनिभ्यां इस्वश्च ॥१३८॥अश्रिः। अहिः ॥१३८॥ अच इः ॥१३९॥रविः। कविः। पविः। अरिः।अलिः॥१३९॥
( १३४ ) वाति वायुवद्गच्छंतीति विः । पक्षी वा । हित्वादाकारलोपः । अटन्ति वयोऽस्यामित्यटविनगरी । पदस्य विः पदवी ॥ .
(१३५) इण-डित् । प्रहरति जलमस्मात स पहिः कूपी वा। कूपादन्यत्र हरिः ॥
(१३६ ) पूर्वस्योपसर्गस्य दीर्घः । निवीयते संत्रियते सा नीविः । नीवो । मूलधनं दकूलबन्धनं वा ॥
(१३० ) समानं ख्यातीति सखा । सखायौ । सखायः । मित्रं सहायो वा ॥
(१३८ ) पात्रात तति, अत्रिः । कोणोधा । आहन्तीति, अहिः । मेघः सो वा । अनाङपसर्गस्यैव हस्वत्वम् ॥
(१३६ ) अजन्ताहातोरिः प्रत्ययः । लुनाति छिनतोति लविः । छेदको लाहो वा । पुनातीति पविः । वज्र होरकं वा । तति येन स तरिः । वस्त्रादिस्थापनभाण्डं वा । स्त्रियां तरी । रौतोति रविः । सूर्यो वा । कौति शब्दयत्युपदिशति स कविः । मेधावी विद्वान । क्रान्तदर्शनो वा । स्त्रियां कवी । ऋच्छति प्राप्नोति परपदार्थानियरिः । शत्रुर्वा । कपिलकादित्यालत्वे । अलिः । भ्रमरो वा । नखेनातिकामतोति नखयति तस्मात् । नखिः । सूचयतोति सूचिः ॥ इत्यादि ।
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उणादिकोषः ॥ खनिकष्यज्यसिवसिवनिसनिध्वनिग्रन्थिचरिभ्यश्च ॥ १४०॥ खनिः । कषिः । अजिः । असिः । वसिः । वनिः । सनिः । ध्वनिः । ग्रन्थिः । चरिः ॥ १४०॥
वृतेश्छन्दसि ॥ १४१ ॥ वर्तिः ॥ १४१ ॥ भुजेः किञ्च ॥ १४२ ॥ भुजिः ॥ १४२ ॥
कृगशपकटिभिदिछिदिभ्यश्च ॥ १४३॥ किरिः । गिरिः । शिरिः । पुरिः । कुटिः । भिदिः । छिदिः ॥ १४३॥
(१४० ) खनति येन खन्यते यत्रेति वा स खनिः।धनस्थानं वा। बाहुलकाद्दीर्घत्वे खानिरित्यपि । कषति हिनस्तीति कषिः । हिंसको था। अनक्ति व्यक्ति कामियभिः । प्रेषणकर्ता । ङीष् । अजी मङ्गलार्थः । अस्यति क्षिपत्यनेनेत्यासः खड्गी वा। वस्त आच्छादयत्यनेनेति वसिः । वस्त्रं वा । वनति संभजतीति वनिः । अमिवा । धान्यनिर्धान्यराशिः। वन्यते याच्यत इति वनिः । तं वनिं याचनमिच्छतीति वनोयति तदन्तामणपुल । धनीयकः । प्रार्थकः । सनोति ददातीति सनिः। अध्येषणं बा । ध्वन्यत उच्चार्यते स ध्वनिः । शब्दो वा । यं ग्रन्थाति समुदेति स सन्धिः पर्व । चरतोति चरिः पशुर्वा ॥
( १४१.) वर्तते तत्र येन वा स वर्तिः। योगक्रिया साधनद्रव्यं मार्गोवा ॥ ( १४२ ) भुक्ति पालयति भक्षयति वा स भुजिः । अग्निर्वा ॥
( १४३ ) किदिति वर्तते । किरतीति किरिः । वराहो वा । गिरति गणाति वा स गिरिः । गोत्रमाक्षरोगः पर्वतो मेघो वा । शृणातीति शिरिहन्ता । पिपर्तीति पुरिः नगरं नदी वा । कुटतोति कुटि: कुटी । शाला बा । भिनति येन स भिदिः । वज्रं बा । छिनतत्यनेन स छिदिः । परपूर्वा। बहुलवचनात्-तरति पुवतेऽसौ तित्तिरिः । पक्षिभेदो वा । तृधातारिः प्रत्ययः स च कित सन्धत्कार्यमभ्यासस्य तुगागमश्च ॥
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पा० ४॥
कुण्ठिकम्प्योर्नलोपश्च ॥ १४४ ॥ कुठिः । कपिः ॥१४॥
सर्वधातुभ्यो मनिन् ॥१४५॥ कर्म।चर्म । भस्म । जन्म । शर्म । हेम।श्लेष्मा।तर्म।स्थाम । दामोछ ।सुत्रामा॥१४५॥
हेर्नोऽच ॥ १४६ ॥ ब्रह्म ॥ १४६ ॥ अशिशकिभ्यां छन्दसि ॥१४७॥ अश्मा । शक्मा ॥१७॥
( १४४ ) कुण्ठति गति प्रतिहन्तीति कुठिः । पर्वतो वृक्षो वा । कम्पतेऽसौ कपिः वानरो वर्षभेदो वा । कपिवर्णमस्यास्तीति कपिशः । कपिलवर्णः । लोमादिपाठादत्र मत्वर्थीयः शप्रत्ययः ॥
( १४५ ) क्रियते तत कर्म किया था। अर्द्धर्चादित्वादुभलिङ्गः कर्मशब्दः । कमाणं कुरुते शुभम् । चरति गच्छति येन तच्चर्म । प्रसिद्धम् । भसितं दीपितमिति यतद्भस्म । जायते यच तज्जन्म । उत्पत्तिः। शृणातीति शर्म । सुखं गृहं वा। हिनोति वर्धते येन तत् हेम। सुवर्ण वा । श्लिष्यतीति प्रलेष्मा। कफोदावो वा । श्लेष्माऽस्यास्तीति पामादित्वान्मत्वर्थे मः प्रत्ययः । श्लेष्मणः । सिध्मादित्वात् । श्लेष्मलः । तरतीति तम यूपाग्रं वा। तमणी । ताणि । तिष्ठति येन तत् स्थाम। बलं वा । स्थामनी। ददातीति दाम । सम्वा । छादयतीति छद्म । माया वा । इस्मन्निति हस्वत्वम् । सुष्ट नायत इति सुत्रामा । औषति दहतीति, ऊष्म । अन्येषामपीतिदीधैं । ऊष्मा । ग्रीष्मर्तु वाष्पो वा ॥
( १४६ ) बृंहति वर्धते तद् ब्रह्म । ईश्वरो वेदस्तत्वं तपो वा ॥
(१४० ) प्रश्नात्यश्नुते व्याप्नोति वा स, अश्मा । मेघः पाषाणी वा। भाषायामपि दृश्यते । अश्मानं दृषदं मन्ये । शन्नोतीति शक्मा सूर्यो वा ।
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उणादिकेोषः ॥
भवसृस्तुभ्य इमनिच् ॥ १४८ ॥ हरिमा | भरिमा ।
धरिमा । सरिमा । स्तरिमा । शरिमा ॥ १४८ ॥
1
जनिमृङ्भ्या मिमनिन् ॥ १४९ ॥ जनिमा | मरिमा ॥ १४९ ॥ वेत्रः सर्वत्र ॥ १५० ॥ वेमा ॥ १५० ॥ नामन्सीमन् व्योमनोमन्लोमन् पाप्मन्ध्यामन् ॥ १५१ ॥
( १४८ ) छन्दसीति वर्तते । हरति स हरिमा । कालो वा । भर्तु योग्यो भरिमा | कुटुम्बं वा । धियत इति धरिमा । रूपं वा । सरतीति सरिमा । वायुर्वा । स्तीर्यत आच्छाद्यत इति स्तरिमा । तल्पं वा । शृणातीति शरिमा । प्रसवो वा ॥
( १४६ ) छन्दसीत्यनुवर्तते । जायत इति जनिमा | जन्म । म्रियत इति मरिमा मृत्युः ॥
- ( १५० ) वयति वस्त्राणि येन स वेमा । तन्तुवायदण्डः । वस्त्रनिर्माणसामग्री वा । सर्वत्र वचनाच्छन्दसीति निवृत्तम् ||
( १५१ ) सप्तामी मनिनन्ता निपात्यन्ते । म्नायतेऽभ्यस्यते येन तत् नाम संज्ञा । स्वार्थे वार्तिकेन घेयट् । नामैव नामधेयम् । सिनोति बध्नासीति सोमा । अवधिर्वा । व्ययति संवृणोतीति व्योम | अन्तरिक्षं वा । रोति शब्दयतीति रोम । लूयते द्विद्यते तल्लोम । गाचक्रेशा वा पिवतीति पाप्मा । किल्बिषं वा । धातोः पुक् । ध्यायते स ध्यामा परिमाणं । तेजो वा । बाहुलकात् - यक्षयति पूजयतीति यक्षमा । राजरोगो वा । सुबति प्रेरयसोति सोमा । चन्द्रो वा । हूयतेऽसौ होमा । आहुतिर्वा । दधाति यद्यत्र चेति धाम स्वानं तेजो वा ॥
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पा० ४॥
१५६
मिथुने मनिः ॥१५२॥ सुशर्मा । सुधी ॥१५२॥ सातिभ्यां मनिन्मनिणौ १५३॥ साम । प्रात्मा ॥१५॥ हनिमशिभ्यां सिकन् ॥१५॥ हंसिका । मक्षिका ॥१५॥ कोररन् ॥ १५५ ॥ कवरः ॥ १५५॥ गिर उडच ॥ १५६ ॥ गरुडः ॥ १५६ ॥ इन्द: कमिन्नलोपश्च ।। १५७ ॥ इदम् ॥ १५७॥ कायतेर्डि मिः ॥ १५८ ॥ किम् ॥ १५८ ॥
-
( १५२) यत्रोपसर्गों धातुक्रियया सम्बदुस्तन् मिथुनम् । तस्मिन् सत्युक्तेभ्यो वक्ष्यमाणेभ्यश्च धातुभ्यो मनिः प्रत्ययः स्यान्नतु मनिन् । स्वरभेदार्थो नियमः । सुष्टु शृणातीति सुशमी । राजविशेषो वा । सुधरतीति सुधी । इत्यादि ॥
(१५३ ) स्यति कर्माणि समापयतीति सामवेदभेदी वा । अतति निरन्तरं कर्मफलानि प्राप्नोति व्याप्नोति वा स आत्मा । आत्मने हितमात्मनोनम् ॥
( १५४ ) हन्तीति हंसिका । हंसस्त्री वा। मशति शब्दयतीति रोषं करोति धा सा मक्षिका । प्रसिद्धा । आतिर्वा ।
(१५५ ) कौत्युपदिशतीति कबरः । पाटको का। केशविन्यासः कबरो । अन्यत्र कबरा कन्या पाठिकेत्यर्थः ॥
(१५६ ) गिरति निगलतीति गरुडः । पक्षिभेदो वा ॥
( १५० ) इन्दति परमेश्वर्य हेतुर्भवतीति, इदम् । प्रत्यविषयबोधकः सर्वनामसंज्ञको वा॥
(१५८ ) कार्यात शब्दयतीति किम् । प्रश्नाव्यर्थे वा ॥
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१६०
उपादिक्रेोषः ॥
सर्वधातुभ्यः ष्टृन् ॥ १५९ ॥ वस्त्रम् | अस्त्रम् | छत्रम् ॥ १५९ ॥
। ॥
भ्रजिगमिनमिह निविश्यशां वृद्धिश्च ॥ १६० ॥ भ्राष्टुः । गान्त्रम् । नान्यम् । हान्त्रम् । येष्टुम् | आष्टुम् ॥ दिवेर्युच्च ॥ १६१ ॥ द्यौत्रम् ॥ १६१ ॥
१६० ॥
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उषिखनिभ्यां कित् ॥ १६२ || उष्टः । खात्रम् ॥ सिविमुच्योष्टेरू च ॥ १६३ ॥ सूत्रम् | मूत्रम् ॥
१६२ ॥
१६३ ॥
( १५६ ) वस्त प्राच्छाद्यत इति वस्चम् । अस्यति क्षिपतीति, अस्थम् । छादयति धर्मादिकमपवारयतीति छचमिति प्रसिद्धम् । इस्मन्त्रनितिसूत्रेण स्वादेशः । पतति यो गच्छति येन वा तत्पत्त्रम् । वाहनं वा । राजतेऽसौ राष्ट्रः राष्ट्र राज्यं देशो बा । जातिविशेषो वा । अभ्येपि । गच्छत्यनया सा गन्त्री । महच्छकटं वा । पिबत्यनेन तत् पात्रम् । पाति रक्षतीति पाच: सज्जनो वा । दशति यया सा दंष्ट्रा दन्तो वा । इत्यादि ॥
( १६० ) भृञ्जति यचेति भ्राष्ट्रः । अम्बरीषो वा । गच्छति येन सद्गान्त्रम् । शकटं वा । नमति येन तन्नान्त्रम् । स्तोत्रं वा । हन्यते तत् हान्त्रम् । मश्णं वा । विशन्ति यचेति बेष्ट्रम् । लोको वा । अश्नुते व्याप्नोतीति आष्टम् । आकाशो या ॥
I
( १६१ ) बृद्धिरित्यनुवर्तते । दीव्यति द्योतते प्रकाशते तद् यौत्रम् ॥
( १६२ ) ओषति दहत्युष्ट्र: । पशुजातिभेदो वा । खन्यते तत् खाचम् । खनित्रम् | जलाधारविशेषो वा । जनसनखनामित्यात्वम् ॥
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( १६३ ) सीयति येन यदर्थं बध्नाति तत् सूत्रम् । तन्तुः । शास्त्रैकदेशो वा । मुध्यते यत्तत् मुत्रम प्रस्रावो वा ॥
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पा० ४॥
१९१
अमिचिमिशसिभ्यः कः ॥ १६४ ॥ अन्त्रम् । चित्रम् । मित्रम् । शस्त्रम् ॥ १६४ ॥
पुवो ह्रस्वश्च ॥ १६५॥ पुत्रः ॥ १६५ ॥ स्त्यायतेईट् ॥ १६६ ॥ स्त्री ॥ १६६ ॥
गुधवीपचिवचियमिसदिक्षदिभ्यः स्त्रः ॥ १६७॥ गोत्रम् । गोत्रा। धर्तीम् । वेत्रम् । पक्तम् । वक्तम् । यन्त्रम् । सत्रम् । क्षत्रम् ॥ १६७॥
S
( १.६४ ) अमति जानाति प्राप्नोति येन तत् अन्त्रम् । उदरनाड़ी वा। चीयते तत चित्रम् । चित्रा । नक्षत्रं वा । चैत्रो मासः । मिनोति मान्य करोतीति मित्रम् । सुहद्वा । नित्यन्नपंसकम् । क्वचित पंल्लिङ्गो वा। शन्नो मित्र इत्यादिषु । अम्मित्रम् । इयम्मित्रम् । शाभनानि मित्राण्यस्याः सन्तीति सुमित्रा तस्या अपत्यं सौमित्रिः। बाहादित्वादि । शंसति हिनस्तोति येन तत् शस्त्रम् । आयुधं वा ॥
( १६५ ) पुनाति पवित्रं करोतीति पुत्रः । आत्मजा वा ॥
( १६६ ) स्त्यायति शब्दयति गुणान् गहाति वा सा स्त्री । प्रसिद्धा भाऱ्या वा।
(१६० ) गवते शब्द्यत इति गोत्रम्। नाम। वंशो वा। गोत्रा पृथिवी। धरतीति धम् । गृहं वा । वेति गच्छतोति वेत्रम्। लताविशेषो वा । पचति येन यत्र वा तत् पक्तम् । गार्हपत्यं वा । वक्ति येन तद् वक्तम् । मुखं वा। यच्छति उपरमति येन तद्यन्त्रम् । कलाविशेषो वा । सीदन्ति यति सत्रम् । यज्ञो वा । सतः सत्पुरुषान त्रायते तत् समिति व्युत्पत्यन्तरम् । क्षद सौत्रो धातुः । क्षदति रक्षतीति क्षत्रम् । वर्णभेदो वा ।क्षतात्तायत इत्यपि ॥
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१२२
उणादिकोषः ॥
हयामाश्रुभसिभ्यस्त्रन् ॥३६८॥ होत्रम् । यात्रा । मात्रा। श्रोत्रम् । भस्त्रा ॥ १६८॥ गमेरा च ॥ १६९ ॥ गात्रम् ॥ १६९ ॥ दादिभ्यश्छन्दसि ॥ १७० ॥ दानम् । पात्रम् ॥ १७०॥
भूवादिगृभ्यो णित्रन् ॥ १७१ ॥ भावित्रम् । वादित्रम् । गारित्रम् ॥ १७१ ॥
चरेवृत्ते ॥ १७२ ॥ चारित्रम् ॥ १७२ ॥
अशित्रादिभ्य इत्रोत्रौ ॥ १७३ ॥ अशित्रम् । वहित्रम् धरित्री । त्रोत्रम् । वरुत्रम् ॥ १७३ ॥ - ( १६८ ) हूयत इति होनं होमः । यायत इति यात्रा गमनं वा। मातोति मात्रा । मानं भूषणं वा । श्रूयतेऽनेन तत श्रोत्रम् । करणं वा । बिस्ति दीप्यते यया सा भस्वा । अग्निज्वलनी वा ॥
( १६६ ) गच्छति चेष्टतेऽनेनेति गात्रम् । अवयवः । शरीरं वा ॥
( १०० ) दाति लुनाति तत् दानम् । धान्यादिछेदनसाधनं वा । पिबत्यनेनेति पात्रम् । योग्यो भाजनं वा । पूर्वचापि पानमिति साधितम् । तत्र प्रत्ययस्य पित्वात्यात्री । ब्राह्मणीत्याप साधितम् । क्षति नश्यति निवासहेतुर्भवतीति क्षेत्रम् । केदारः । कलचं वा । एवमन्येपि शब्दा द्रष्टव्याः ।
( १७१ ) भवतीति भाविनम् । लोकत्रयो वा। वाद्यते तद्वादित्रम् । तर्यादिौं । गीर्यते भक्ष्यते तद् गारित्रम् । ओदनो वा ॥
(१२) चरतोति चारित्रम्। वृत्तान्तम् । समाचारो वा । इनच्प्रत्यये चरित्रं सुशीलम् ॥ ... ( १०३ ) अश्यादिभ्य इत्नः । अश्नुते व्याप्नोतीति अशिनम्। चरवी । कटतीति कटित्रम् । कवचभेदी वा। वहति येन तहित्रम् । वाहनं वा । बध्नातोति बधिनम् । कामो वा। धरतीति धरित्री। पृथिवी वा । वादिभ्य उत्रः । नायते येन तत्त्रोत्रम्। प्रहारी वा । लुनाति छिनति येन तल्लोत्रम् । चोचिन्हं वा । वृणोतीति वस्त्रम् । प्रावरणं वा ॥
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पा०४ ॥
१२३
अमेईिषति चित् ।। १७४ ॥ अमित्रः ॥ १७४ ॥
आः समिनिकषिभ्याम्॥१७५॥समया। निकषा॥१७५॥ चितेः कणः कश्च ॥ १७६ ॥ चिक्कणम् ॥ १७६ ॥ सूचेः स्मन् ॥ १७७ ॥ सूक्ष्मम् ॥ १७७॥ पातेडेमसुन् ॥ १७८ ॥ पुमान् ॥ १७८ ॥ रुचिभुजिभ्यां किष्यन् ॥१७९॥ रुचिष्यमाभुजिष्यः॥१७९॥ वसस्तिः ॥ १८० ॥ वस्तिः ॥ १८० ॥ ( १०४ ) शत्रौ वाच्येऽमेरित्रः । अमति गच्छतीति अमित्रः । शत्रुः ॥
(१०५) समेतीति समया । निकपति हिनस्तीति निकषा । समीपवाचकौ वा । स्वरादिपाठादनयोरव्ययत्वम् । बाहुलकाद्-दीव्यतीति दिवा। दिनं वा । दुष्यतीति दोषा । रात्रिी । अनयोरपि तबव पाठादध्ययत्वम् । स्वदते स्वादु क्रियते या सा स्वधा। न्यायेनैश्वर्यक्रिया।तृप्तिधातोर्दस्यः॥
( १९६ ) चेतति जानाति येन तत् चिकणम् । स्निग्धं वा ॥ (१७७ ) सूचयति पैशुन्यं करोतीति सूक्ष्मम् । अत्यल्प वा ।
( १७८ ) पाति रक्षति पुमान् । पुमांसौ । पुमांसः । असडादिकार्य्यम् । शोभनः पुमान यस्याः सा सुपुंसी। असुङ् । उगितत्वान डोप ॥
(१०६) रोचते तत, सचिष्यम् । इष्टं वा । भुनक्तीति भुजिष्यः । दासो वा ॥
(१८० ) वस्त पाच्छादयति सा वस्तिः । वसनस्य दशाः कोणी नाभेरधोभागो वा । बाहुलकात-शास्ति शिक्षत इति शास्तिः । राजदण्डो वा। यजोति यष्टिः । यष्टी वा । काष्ठदण्डो वा । अस्यते क्षिप्यते या सा, अस्तिः । अगं वृक्षमस्यत्यत्याटर्यात सा अगस्तिः । मुनिवी । तस्यापत्यमागस्त्यः । शकन्ध्वादित्वादत्र पररूपम् । पुलं महत्वमसते गच्छति प्राप्नोतीति पुनस्तिः । ऋषिर्वा। तस्यापत्यं पौलस्त्यः । गभमन्धकारमस्यतीति गभस्तिः किरणो वा। दूयते परितापयतीति दूतिः । दूती वा । इतस्तत: समाचार ज्ञापिका स्त्री वा ॥
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१२४
उणादिकोषः ॥
सावसेः || १८१ ॥ स्वस्ति ॥ १८१ ॥
वौ तसेः ॥ १८२ ॥ वितस्तिः ॥ १८२ ॥ पदिप्रथिभ्यां नित् ॥ १८३ ॥ पत्तिः । प्रथितिः ॥ १८३ ॥ दृणातेर्द्रस्वः ॥ १८४ ॥ दृतिः ॥ १८४ ॥
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कृतकपिभ्यः कीटन् ॥१८५॥ किरीटम्। तिरीटम् | कृपीटम् ॥ १८५ ॥ रुचिवचिकु चिकुटिभ्यः कितच् ॥ १८६ ॥ रुचितम् । उचि। तम् । कुचितम् । कुटितम् ॥ १८६ ॥
कुटिकुषिभ्यां क्मलन् ॥ १८७॥ कुट्मलम् । कुष्मलम् ॥ १८७॥
( १८१ ) सुष्ठु अस्ति वर्त्तत इति स्वाती । कल्याणं वा । बहुलवचनाद - भूमावनिषेधः । स्वरादित्वादव्ययत्वं च ॥
( १८२ ) विशेषेण तस्यत्युपक्षिपति वा सा वितस्तिः । द्वादशाङ्गुलं परिमाण वा ॥
( १८३ ) पद्यते गच्छत्यसौ पत्तिः । पदातिः । पुरुषो वा । प्रथ्यते या सा प्रथितिः । प्रख्याति । तितुत्रेति सूत्रेऽग्रहादीनामिति वार्तिकेनेट् ॥ ( १८४ ) दीर्यतेऽसौ दृतिः । चर्ममयं पाचं वा ॥
( १८५ ) किरति विक्षिपतीति किरीटम् । मुकुटं । शिरोवेष्टनं वा । तरतीति तिरीटम् । शिरोवेष्टनम् । लोध्रो वा । कल्पतेऽसौ कृपोटम् । कुनिरुदकं वा | बाहुलकादच लत्वाभावः ॥
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( १८६ ) रोचते तत् रुचिरम् । मिष्टं वा । वक्तुं योग्यमुचितम् | योग्यं वा । कोचति शब्दतारं करोतीति कुचितम् । परिमितं वा । कुटतीति कुटितम् | कुटिलं वा ॥
(१८० ) कुटतीति कुड्मलम् । मुकुलम् ( फूलती हुई कली ) इतिप्रसिम् । कुष्णाति निष्कर्षतीति कुष्मलम् । पर्णं वा ॥
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पा० ४ ॥
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१२५
कुबेर्लश्च ॥ १८८ ॥ कुल्मलम् ॥ १८८ ॥ सर्वधातुभ्योऽसुन् ॥ १८९ ॥ चेतः । सरः । सदः ॥ १८९॥ रपेरत एच्च ॥ १९० ॥ रेपः ॥ १९० ॥
(१८८ ) कुनातीति कुलमलम् ! पापं वा ॥
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(१८) वर्चते दीप्यतेऽसौ वर्चः । तेजः । पुरीषं वा । रक्षतीति रक्षः । पालको दुष्टो वा । प्रज्ञादित्वादणि स एव राक्षसः । रुर्णा येन स रोधः । तटो वा । चेतति जानाति येन तत्, चेतः । चित्तं वा । सरन्ति गच्छन्त्यापो यत्र तत् सरः । तडागो वा । स्त्रीत्वविवचायां गौरादित्वात्सरसी । महासरो वा । सरस्वान् समुद्रः । सरो विज्ञानमुदकं वा विद्यतेऽस्यां सा सरस्वती । वाक् । नदी वा । रोतीति रोदः । गौरादित्वाद्रोदसी । द्यावापृथिव्यो वा । वेति गच्छतीति वयः । कालकृताऽवस्था वा । अथवा वेति खादतीति वयः । वय एव बायसः काकः । प्रज्ञादित्वादण् । सीदन्त्यचेति सदः । सभा वा । एति प्राप्नोतीति, अयः । लोहं वा । अयः कामयतेऽसावयस्कान्तश्चुम्बकमणिः । अनिति जीवति येनेति नः । श्रोदनं पक्वान्नं वा । अनी महत्सम्पद्यते यत्र तन्महानसम् । पाकस्थानम् । समासान्तष्टच् । ताम्यति काङ्चति येन तत् तमः । गुणः क्रेशो रात्रिरन्धकारो वा । तमशब्दोऽच्प्रत्ययातदन्तोऽपि दृश्यते । महति पूजयति पूज्यो भवति वेति महः । महद्वा । महसी | महांसि । अचप्रत्ययेऽकारान्तोऽपि । सहते यचेति सहः । बलं । मार्गशीषा वा । सहसा बलेन सह प्रवर्तते स साहसिको दस्युर्दुष्टकर्मी वा । सहो बलं विद्यते यचेति सहस्यः । पौषो मासः । तपति दुःखीभवति तप्यते समर्थो वा भवति येन तत् तपः । धर्मसेवनम् । माघमासो वा । तपसि साधुस्तस्यः । फाल्गुनो मासः । ग्रीष्मेऽकारान्तस्तपशब्दः । मिमीते येन समाः । मासो वा । इत्यादि ॥
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(१६०) रप्यत उच्यत इति रेपः । अवद्यम् । वचो वा । बहुलवचनादन्यत्रापि । पीयते तत् पयः । उदकम् । दुग्धं वा । पयोऽस्यास्तीति पयस्विनी गौः । पयस्वी तड़ागः । विनिः । धातोरीत्वम् । पुनर्गुणे सत्ययादेशः ॥
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उणादिकोषः ॥
शेर्देवने युट् च ॥ १९१ ॥ यशः ॥ १९१ ॥ उब्जेर्बले बलोपश्च ॥ १९२ ॥ ओजः || १९२ ॥ श्वेः सम्प्रसारणं च १९३ ॥ शवः ॥ १९३॥ श्रयतेः स्वाङ्गे शिरः किच्च ॥ १९४ ॥ शिरः ॥ १९४॥
अरुश्च ॥ १९५ ॥ उरः ॥ १९५ ॥
व्याधौ शुट् च ॥ १९६ ॥ अर्शः ॥ १९६ ॥ उदके नुट् च ॥ १९७ ॥ अर्णः ॥ १९७ ॥ इ आगसि ॥ १९८ ॥ एनः ॥ १९८ ॥
( १६१ ) अश्यते दीष्यते क्रीडादि क्रियते येन तत्, यशः । कीर्त्तिवी ॥ ( १६२ ) उञ्जति कोमलो भवतीति आजः । पराक्रमा वा । ओजसा वर्तते औजसिकः । ठक्
॥
( १६३ ) श्वर्यात गच्छतीति शवः । मृतकशरीरं वा । बाहुलकात्वहति यत् इति ऊधः । गवादेर्दुग्धस्थानं वा । धातोः सम्प्रसारणे कृते दीर्घत्वं धकारश्चान्तादेशः । घट इवोधो यस्याः सा घटोध्नी । कुण्डोधनी । गौर्महिषी वा ॥
( १६४ ) श्रीयत आश्रयते तत् शिरः । मस्तकम् । शिरसी । शिरांसि || ( १६५ ) स्वाङ्ग इत्यनुवर्तते । ऋच्छति प्राप्नोति येन तत्, उरः । हृदयस्थानं वा । पिच्छादित्वादिलच् । बहूरोऽस्यास्तीत्युरसिल: ॥
( १६६ ) ऋच्छति प्राप्नोति दुखं येन तत्, अर्श: । गुदरोगो वा । अस्यास्तीत्यर्शसः पुमान् । अर्श आदित्वादच् ॥
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( १६० ) अतरित्येव । ऋच्छति गच्छतीत्य जलम् । अर्णोऽस्मिन्त्रस्तोत्यवः समुद्रः । वप्रत्यये सलोपः ॥
( १६८ ) ईयते प्राप्यते दुःखमनेन तदेनः । पापं वा ॥
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पा० ४ ॥
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रिचेर्धने घिच ॥ १९९ ॥ रेक्णः ॥ १९९ ॥
चायतेरने ह्रस्वश्च ॥ २०० ॥ चनः ॥ २०० ॥ वृङ्गीभ्यां रूपस्वाङ्गयोः पुट् च ॥ २०१ ॥ वर्पः । शेषः ॥ २०१ ॥ स्स्रुरिभ्यां तुट् च ॥ २०२ ॥ स्त्रोतः । रेतः ॥ २०२ ॥ पातेर्बले जुट् च ॥ २०३ ॥ पाजः ॥ २०३ ॥
उदके थुट् च ॥ २०४ ॥ पाथः ॥ २०४ ॥ अन्न च ॥ २०५ ॥ पाथः ॥ २०५ ॥ अदेर्नुम् धौ च ॥ २०६ ॥ अन्धः ॥ २०६ ॥
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( १६६ ) रिक्ति व्ययं करोति यत् तत् रेकूणः । सुवर्णं वा । घित्वात्कुत्वम् ॥
( २०० ) चायते पूज्यतेऽनेन तत् चनो भक्तम् । प्रत्ययस्य नुडागमे सति यलोपो ह्रस्वश्च ॥
( २०१ ) वियते स्वीक्रियते तत् वरूपम् । शेते येन तत् शेषः । लिङ्गेन्द्रियं वा । अकारान्तोऽपि मेद्रवाची शेपशब्दो दृश्यते । शुन इव शेपोऽस्य स शुनःशेपो मुनिः । षष्ठया अलुक् । बाहुलकात - वर्णव्यत्यये वर्फः । शेफ इत्यपि सिद्धम् ॥
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( २०२ ) सर्वात चलतीति स्रोतः । स्वतो जलतरणं वा । रयते स्रवतीति रेतः । वीर्यं वा ॥
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( २०३ ) पाति रचतीति पाजः । बलं वा ॥
( २०४ ) पातेरेव । पातीति पाथा जलम् ॥
( २०५ ) युट् । पाति रचतीति पाथ भक्तम् ॥
( २०६ ) अन्न इत्यनुवर्तते । अद्यते भक्ष्यते तदन्धोत्रमोदनो वा ॥
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उणादिकोषः ॥
स्कन्देश्च स्वाङ्गे ॥ २०७॥ स्कन्धः ॥ २०७॥
आपः कारख्यायां इस्वो नुट च वा ॥ २०८॥ अप्नः । अपः । आपः ॥ २०८॥
रूपे जुट् च ॥ २०९ ॥ अब्जः ॥ २०९॥ उदके नुम्भौ च ॥ २१० ॥ अम्भः ॥ २१० ॥ नहेर्दिवि भश्च ॥ २११ ॥ नमः ॥ २११ ॥ इण आगोऽपराधे च ॥ २१२ ॥ आगः ॥२१२ ।। अमेढक च ॥ २१३ ॥ अंहः ॥ २१३ ॥ रमेश्च ॥ २१४ ॥ रहः ॥ २१४ ॥
( २०० ) स्कन्दते गच्छति चेष्टते शुष्यति वा येन तत् स्कन्धो बाहुमलं वृक्षावयवो वा । अकाराऽन्तोप्ययम् ॥
( २०८ ) आप्यते सुखं येन तत् अग्नः । अपः । अपत्यं सुकर्म वा। हस्वस्यापि विकल्पे। आप इत्यपि भवति। आपोभिमार्जनमित्यादि सत्प्रयोगदर्शनात ॥
( २०६ ) आप इत्येव । आप्यते यत् तदबजो रूपम्। अदुम्यो जात इति निर्बचने अबजः । कमलं वा ॥ ... ( २१० ) आप इत्येव । आप्यते तत् अम्भः । उदकम् । अम्भसा वर्तत इत्याम्भसिको मत्स्यः ॥
( २११ ) नाति धर्म बध्नातीति नभो मेघधल्यादियुक्त आकाशः। श्रावणमासी वा । नभोऽस्मिन शुद्धमस्तीति नभस्यो भाद्रो मासः ॥
( २१२ ) ईयते प्राप्यते ज्ञायते वा तत्, आगोऽपराधो दण्डो वा ॥ ( २१३ ) अमन्ति प्राप्नुवन्ति दुःखं येन तत, अंहः । पापं वा ॥ ( २१४ ) चात्-हुक् । रमते येन तत् रंहः । वेगो वा ॥
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पा०४॥
१२६
देशेऽह च ॥ २१५ ॥ रहः ॥ २१५ ॥
अञ्च्यजियुजिभृजिभ्यः कुश्च ॥२१६॥ अङ्कः। अङ्गः । योगः । भर्गः ॥ २१६ ॥
भरञ्जिभ्यां कित् ॥२१७॥ भुवः। रजः ॥ २१७॥ वर्णित् ॥ २१८॥ वासः॥ २१८ ॥ चन्देरादेश्च छः ॥ २१९॥ छन्दः ॥ ॥ २१९ ॥ पचिवचिभ्यां सुट् च ॥ २२० ॥ पक्षः। वक्षः ॥ २२० ॥
( २१५) चाद्रमेरसन । रमन्तेस्मिन्निति रहः । एकान्तो विश्वासदेशो वा। रह एकान्ते भवं रहस्यम् । वेदान्तं वा । देशादन्यत्र रहोऽव्ययं शब्दान्तरं वास्ति । रहो मैथुनसमयस्तत्र भवं रहस्यं मैथुनम् । दिगादित्वायत् ॥
( २१६ ) अऽचति गच्छति येन तत् अङ्कः । सङ्ख्याद्योतकं चिन्हं वा। अनक्ति व्यक्तीकरोतीति अङ्गः । पक्षी वा । अवयवेऽङ्गशब्दोऽदन्तः । युज्यते स योगः । समाधिः । कालो वा । भर्जीत पक्कं भवतीति भर्गः । प्रजापतिः । तेजो वा। बाहुलकात-उच्यते यत्र तत् ओकः । स्थानं वा । न्यवादित्वात् कुत्वम् ॥
(२१० ) भवन्ति यस्मिन्निति भुवः । अन्तरिक्षं वा । रजति तत् रजः । लोकः । सूक्षमलिः । स्त्रीपुष्पम् । गुणों वा । आकारान्तश्च ॥
(२१८ ) वस्त आच्छादयति शरीरादिकमनेन तत वासो वस्त्रं वा। असुनो णिवावादृद्धिः ॥
( २१६ ) चन्दति हृष्यति येन दीप्यते वा तत् छन्दः । गायच्यादि । कपटमिच्छाऽभिप्रायो वशो वा । छन्दानुवृत्तिः । इत्यादि प्रयोगदर्शनादकारान्तोऽप्ययं शब्द इति मन्तव्यम् ॥
( २२० ) पचतीति पक्षः । पूर्वोत्तरपक्षौ वा । वक्ति येन तद्वतः। हृदयं वा॥
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१७
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१३०
उगादिकोषः ॥
वहिहाधाञ्भ्यश्छन्दसि ॥ २२१ ॥ वक्षाः । हासाः। धासाः । २२१ ॥ इणश्चासिः ॥ २२२ ॥ प्रयाः ॥ २२२ ॥ मिथुनेऽसिः ॥ २२३ ॥ सुपयाः । सुयशाः ॥ २२३॥ नञि हन एह च ॥ २२४ ॥ अनेहाः ॥ २२४ ॥ विधानो वेध च ॥ २२५ ॥ वेधाः ।। २२५ ॥ नुवो घुट् च ॥ २२६ ॥ नोधाः ॥ २२६ ॥ गतिकारकोपपदयोः पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वञ्च ॥ २२७ ॥ सुतपाः । जातवेदाः ॥ २२७ ॥
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( २२१ ) सुट् । वहति भारमिति वक्षाः । अनड्वान वा । ह नो भवतीति हासाः । चन्द्रमा वा । दधातीति धासाः । पर्वतो वा ॥ ( २२२) एति प्राप्नोति श्रयाः । अग्निर्वा । स्वरादिपाठादव्ययम् । अत एव दीर्घादिरासिः प्रत्ययः ॥
( २२३ ) यत्रोपसी धातुक्रियया संयुक्तस्तन्मिथुनम् । तत्र सति येभ्यो `धातुभ्योऽसुन् विधीयते तेभ्यः सर्वेभ्योऽसिरेव स्यात् । स्वरभेदार्थं सूत्रमिदम् । सुपथाः । सुतपाः । सुपेशाः । न्योजाः । सुजवाः । सुस्रोताः । इत्यादयो द्रष्टव्याः ॥ ( २२४ ) न हन्यते विच्छिन्नो न भवतोत्यनेहाः । कालो वा । अनेहौ । अनेहसः ॥
( २२५ ) विशेषेण दधातीति वेधाः | वेधसौ | वेधसः | वेधसम् । विद्वान् । विधाता | जगदीश्वरो वा ॥
( २२६ ) नौति स्तौति नूयते स्तूयते वा स नोधाः । ऋषिवा ॥
( २२० ) गतिकारकोपपदाद्वातोरसिः प्रत्ययो भवति तस्मिन् सति गतिकारकोपपदयोः पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वम् । उत्तरपदप्रकृतिस्वरस्यापवादः । सुतपाः ! सुतेजाः । सुवक्षाः । कारके । उग्रतेजाः । हिरण्यरेताः । जातवेदा: । सर्ववेदाः । विश्ववेदाः । वृद्धेभ्यः शृणोतीति वृद्धश्रवाः । विष्टर आसने शृणोतीति विष्टरश्रवाः । इत्यादि ॥
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पा०४॥
489
चन्द्रे मो डित् ॥ २२८ ॥ चन्द्रमाः ॥ २२८॥ वयसि धात्रः ॥ २२९ ॥ वयोधाः ॥ २२९ ॥ पयसि च ॥ २३० ॥ पयोधाः ॥ २३० ॥ पुरसि च ॥ २३१ ॥ पुरोधाः २३१ ॥ पुरूरवाः ॥ २३२॥ चक्षेर्बहुलं शिश्च ॥ २३३ ॥ नृचक्षाः । २३३ ॥ उषः किञ्च ॥ २३४ ॥ उषः । २३४ ॥ दमेरुनसिः ॥ २३५ ॥ दमुनाः । २३५॥
( २२८ ) चन्द्रमानन्दं मिमोते सौ चन्द्रमाः । सोमो वा । चन्द्रमसौ। चन्द्रमसः ॥
( २२६ ) वयो दधातीति बयोधाः । तरुणी वा ॥
( २३० ) धात्र इत्येव । पयो दधातीति पयोधाः। समुद्री वा । मेघविशेषः । स्तनो वा ॥
(२३१) धात्र इत्येवा पुरोऽग्रे यजमानं दधातीति पुरोधाः । पुरोहितो वा॥ ( २३२ ) पुरु बहुरौत्युपदिशति ब्रवीति वा स पुरूरवाः । राजर्षिर्वा ॥
( २३३ ) विशेषेण चष्टेऽसौ विचक्षाः । उपाध्यायो वा । नून चष्टे पश्यति ख्याति वा स नृचक्षाः । ईश्वरो दुष्टी वा । शित्वाभावपक्षे । आचष्टेऽसौ । आख्याः । प्रख्याः । प्रजापतिर्वा ॥
( २३४ ) असिः । ओपति दहतीतिउषः । कर्णछिद्रं । पर्वतभेदः । स्त्रियां सूर्योदयात्प्राक् प्रभातप्रकाशः। उषा वा । उषःकाले बुध्यत इत्युषर्बुधः । अमिबीलः । संयमी वा। कप्रत्ययान्ताटापि कृते । उषा रात्रिरित्याप भवति ॥ ( २३५ ) दाम्यत्युपशमयतीति दमुनाः । अग्निर्वा ॥
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१३२
उणादिकोषः ।
अङ्गरसिः॥ २३६ ॥ अङ्गिराः । २३६ ॥ सरप्पूर्वादसिः ॥ २३७ ॥ अप्सराः ॥ २३७॥ विदिभुजिभ्यां विश्वेऽसिः ॥ २३८ ॥ विश्ववेदाः । विश्वभोजाः ॥ २३८ ॥ वशेः कनसिः ॥ २३९ ॥ उशनाः । २३९ ॥
इत्युणादिषु चतुर्थः पादः ॥
( २३६ ) अङ्गति प्राप्नोति जानाति वा स, अङ्गिराः । ईश्वरोऽमिषिभेदो वा । तस्यापत्यमाङ्गिरसः । असिप्रत्ययस्य रुडागमः ॥
( २३० ) अपसरति विरुद्धं गच्छतीत्यसराः । उपसर्गानत्यलोपः । अथवाऽप्सु जलेषु प्राणेषु वा सरन्तीत्यपसरसः । किरणा वा । अथवा न प्सान्ति भक्षयन्ति रक्षां कुर्वन्तोत्यपसरसः । प्रत्ययस्य रुट । नित्यबहुवचनान्तः स्त्रीलिङ्गश्च ॥
- ( २३८ ) विश्वं सर्व वेत्ति जानातीति विश्ववेदाः । अगदीश्वरो वा। विश्वे विद्यते विश्वं वा विन्दति स विश्ववेदाः। अमि। विश्वं भुनक्ति। प्रलयसमये कारणरूपेण स्वात्मनि स्थापयति वा विश्वं पालयतीति विश्वभोजाः । ईश्वरो राजा वा ॥
(२३६ ) वष्टि कामयते स उशनाः । शुक्रवारी वा । सम्प्रसारणादिकार्यम् ॥
इत्युणादिव्याख्यायां वैदिकलौकिककोषे चतुर्थः पादः ॥
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पा० ५॥
१३३
अदिभुवो डुतच ॥ १ ॥ अद्भुतम् । १ ॥ गुधेरूमः ॥ २॥ गोधूमः । २॥ मसेरूरन् ॥ ३॥ मसूरः । ३॥ स्थः किञ्च ॥ १ ॥ स्थूरः । ४ ॥ पातेरतिः ॥ ५ पातिः । ५॥ वातेनित ॥६॥वातिः । ६॥ अर्नेश्च ॥ ७॥ अरतिः ॥७॥ तृहेको हलोपश्च ॥ ८॥ तृणम् ॥ ८॥ वृजलुटितनिताडिभ्य उलच् तण्डश्च ॥९॥ तण्डुलाः ॥९॥
(१) अदित्यव्ययं कदाचिदर्थे । अद् भवतीत्यद्भुतम् । आश्चर्यम् । अद्भुतमधीते । अद्भुताध्यापकः ॥
(२) गुति वेष्टयतीति गोधूमः । अन्नविशेषो वा । गोधूमस्य विकारो गोधममयः ॥
(३) मस्यति परिणमतेऽसौ मसूरः । वीहिभेदो वेश्या वा ॥ ( ४ ) तिष्ठतीति स्थरः । मनुष्यो वा । तस्यापत्यं स्थौर्यः ॥ (५) पाति रक्षतोति पातिः । स्वामी । सम्पातिः । पक्षिराजो वा ॥ (६) वाति गच्छतीति वातिः । सूर्यश्चन्द्रो वा ॥ (0) अर्यते गम्यते सा अतिः। उद्वेगो वा ॥ (८) तृह्यते हन्यते तत्, तमाम् । प्रसिद्धमेव ॥
(E) वियन्ते लुव्यन्ते तन्यन्ते ताडयन्ते वा ते तण्डुलाः। प्रसिद्धा वा। वृञादीनां स्थाने तण्डादेशः ॥
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१३४
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दंसेष्टटनौ न दंशेश्च ॥
११ ॥ दाशः ॥ ११ ॥
उदि चेर्डे सिः ॥ १२ ॥ उच्चैः ॥ १२ ॥
पुत्रो य स्रंसेः शिः
अर्त्तेः
उणादिकेोषः ॥
च ॥ १० ॥ दासः ॥ १० ॥
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नौ दीर्घश्च ॥ १३ ॥ नीचैः ॥ १३ ॥
सौ रमेः क्तो दमे पूर्वपदस्य च दीर्घः ॥ १8 || सूरतः ॥१४ ॥ ग्घ्रस्वश्च ॥ १५ ॥ पुण्यम् ॥ १५ ॥ कुट् किच्च ॥ १६ ॥ शिक्यम् ॥ १६ ॥
क्युरुच्च ॥ १७ ॥ उरणः ॥ १७ ॥
(१०) दंसयति दर्शति पश्यति वा स दासः । सेवकः शूद्रो वा । टित्वान् ङीप् + दासी । नकारस्याकारः । नित्करणं पक्ष आयुदातार्थम् ॥ ( ११ ) टटनौ नकारस्य चात्वम् । दशति मत्स्यादिकमिति दाशो धीरः । स्त्रियां दाशी । धोवरी ॥
(१२) उच्चीयते वर्ध्यतेऽसावुच्चैः । महान् वा । स्वरादित्वादव्ययम् ॥ (१३) चेरित्येव । निचीयत इति नीचैः । अधोऽधमो वा । अस्यापि स्वरादित्वा देवाव्ययत्वम् ॥
(१४) सुष्ठु रमत इति सूरतः । उपशान्तः । कृपालुषी । दमाथी - दन्यत्र सुरतः । क्रीडायुक्तः ॥
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( १५ ) पवते पवित्रो भवति येन तत् पुण्यम् । सुकृतो धर्मों वा ॥ (१६) स्रंसते गच्छतीति शिक्यम् । काचः । छोका इति प्रसिद्धः । तत्र धृतं वस्तु शैक्यम् ॥
(१०) ऋच्छति गच्छतीति उरणः । मेषो वा ॥
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पा० ५॥
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हिंसेरीरन्नीरचौ ॥ १८॥ हिंसीरः ॥ १८॥ उदि दृणातेरलचौ पूर्वपदान्त्यलोपश्च ॥१९॥ उदरम् ॥१९॥ डित्खनेर्मुट चोदात्तः ॥ २० ॥ मुखम् ॥ २० ॥ अमेः सन् ॥ २१ ॥ अंसः ॥ २१ मुहेः खो मूर्च ॥ २२ ॥ मूर्खः ॥ २२ ॥ नहेर्हलोपश्च ॥ २३ ॥ नखः ॥ २३ ॥ शीडो हुस्वश्च ॥ २४ ॥ शिरवा ॥ २४ ॥ माङ ऊखो मय च ॥ २५॥ मयूरवः ॥ २५॥ ( १८) हिनस्तीति हिंसीरः।व्याघ्रो दुष्टो वा । प्रत्ययद्वयं स्वरभेदार्थम् ॥
( १६ ) उद् दृणाति येनानमिति उदरम् । कुक्षिस्थानम् । प्रत्ययभेदोऽत्रापि स्वरभेदार्थः ॥
(२०) खनेरलचौ । तयोर्डित्त्वं धातोर्मुडागमश्च । तस्योदात्तत्वम् । खनत्यनादिकमनेनेति मुखमास्यम् । मुखे भवो मुख्यो रोगः । शरीरावयवाद्यत् । मुखमिवोत्तमं मुख्यम् । शाखादित्वादिवाथै यः ॥
(२१. ) अमति गच्छति प्राप्नोति येन स, अंसः । स्कन्धो विभागो वा । अंसोऽस्यास्तोत्यंसलः ॥ .
( २२ ) मुह्यति विक्षिप्त इव भवतीति मूर्खः । मूर्खस्य भावो मौख्यं । मूर्खिमा वा । बहुलकात-स्वस्येनादेशाभावः ।।
( २३ ) नयति बध्नाति रुधिरादिकमिति नखः । प्राण्यङ्गं वा ॥
( २४ ). खः । शतेऽसौ शिखा। चड़ाकेशभेदो ज्वाला वा । हस्वविधानसामर्थ्याद् गुणाऽभावः ॥
( २५ ) मिमीते मान्यहेतुर्भवतीति मयूखः । किरणः । कान्तिः। करो ज्वाला वा ॥
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१३६
उणादिकोषः ॥
कलिगलिभ्यां फगस्योच्च ॥ २६ ॥ कुल्फः । गुल्फः ॥२६॥ स्पृशः श्वएशनौ पृ च ॥ २७ ॥ पार्श्वः । पशुः ॥ २७॥ श्मनि श्रयतेईन् ॥ २८ ॥ श्मश्रु ॥ २८ ॥ अश्वादयश्च ॥ २९॥ अश्रु ॥ २९ ॥ जनेष्टन नलोपश्च ॥ ३० ॥ जटा ॥ ३० ॥ अच तस्य जय च ॥ ३१ ॥ जङ्घा ॥ ३१॥ हन्तः शरीरावयवे हे च ॥ ३२ ॥ जघनम् ॥ ३२ ॥ क्लिशेरन् लो लोपश्च ॥ ३३ ॥ केशः ॥ ३३॥
( २६ ) कलति संख्यातोति कुल्फः । शरीरावयवो रोगो वा । गलति भक्षयतीति गुल्फः । पादग्रन्थिा ।
(२०) स्पृशति येन स पार्श्वः । कक्षयोरधोभागोवा । पशुः। आयुधं वा।
(२८) श्मनि मुखे यतीति, श्मश्रु । श्मश्रुणी । श्मणि । पुरुषमुखरोमाणि वा ॥
( २६ ) अश्नुते व्याप्नोतीति, अश्र । नेत्रजलं वा । डुन प्रत्ययो रंडागमश्च । एवमन्येऽपि यथायोग्यं द्रष्टव्याः ॥
(३० ) जायतेऽसौ जटा । दीर्घाः केशा वा । जटा अस्य सन्तीति नटालः । सिध्मादित्वाल्लच् । जटिलः । पिच्छादित्वादिलच् ॥
( ३१ ) तस्य जनः । जायतेऽसौ जङ्घा । जानारधोभागो वा ।।
( ३२ ) हन्ति येन यद् वा हन्यते तज्जघनम् । जानोपरिभागो वा । इवार्थे शाखादित्वाद्यः । जघनमिव जघन्यं नीचम् ॥
(३३ ) क्लियति येन स केशः । शिरलोमानि वा । केशा प्रस्य सन्तोति केशवः । केशिकः । केशी ॥
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पा० ५॥
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फलेरितजादेश्च पः ॥ ३४ ॥ पलितम् ॥ ३४ ॥
कुत्रादिभ्यः संज्ञायां वुन् ॥३५॥ करकः । कटकः। नरकम् । कोरकः ॥ ३५॥
चीकयतेराद्यन्तविपर्ययश्च ॥ ३६ ॥ कीचकः । ३६ ॥ पचिमच्योरिचोपधायाः ।। ३७ ॥ पेचकः । मेचकः।३७॥ जनेररष्ठ च ।। ३८ ॥ जठरम् । ३८ ।। वचिमनिभ्यां चिच्च ॥ ३९ ॥ वठरः । मठरः । ३९ ॥ ऊर्जिट्टणातेरलचौ ॥४०॥ ऊर्दरः। ४० ॥
( ३४ ) फलति निष्पन्न पक्वमिव भवतीति पलितम् । केशश्चैत्यं वा। फस्य पः ॥
( ३५ ) करोतीति करकः । करका । वृष्टिपाषाणो वा । करको दाडिमः । कमण्डलुर्वा । कटति वर्षत्यावृणोति वा स कटकः । बाहुभूषमाम् । शिखरो वा । नमाति नयतीति नरकम् । पापभागो वा। सरति गच्छतीति सरकम् । गमनं वा । अति भूषिता भवतीत्यलकम् । शीतादिकं वा। अलति वारयति येभ्यस्तेऽलकाः । कुटिलाः केशा वा । कुरति शब्दयतीति कोरकः । कलिका ( कली ) इति प्रसिद्धा ॥
(३६) चीकयते सहतेऽसौ कीचकः । वंशभेदो वा ।।
( ३० ) पचतीति पेचकः । उलकपक्षी वा । मचते शब्दयतीति मेंचकः । कृष्णवर्णो मयूरपक्षचिन्हं वा ॥
(३८) जायतेऽस्मादिति जठरम् । उदरम् । कठिनं वा ॥.
( ३६ ) अन्त्यस्य ठः । वतीति वठरः । मूर्ख वा । मन्यतेऽसौ मटरः। मुनिभेदो मतो वा । तस्यापत्यं माठरः । माठयः ॥
(४० ) ऊर्क पराक्रमं रसं वा दृमातीति, उर्दरः । शूरो दुष्टो वा। स्वरभेदार्थ प्रत्ययद्वयम् ॥
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उणादिकोषः ॥
कदरादयश्च ॥ ४१ ॥ कदरः । मृदरः । सृदरः । ११ ॥ हन्तेर्युन्नाद्यन्तयोर्घत्वतत्वे ॥ ४२ ॥ घातनः । ४२॥
कमिगमिक्षमिभ्यस्तुन् वृद्धिश्च ॥४३॥ क्रान्तुः । गान्तुः । क्षान्तुः ॥ ४३॥
हर्यतेः कन्यन् हिरच् ॥ ४४ ॥ हिरण्यम् ॥ १४ ॥ - कञः पासः ॥ १५॥ कपासः ॥ १५॥ जनेस्तुरश्च ॥ ४६ ॥ जर्तुः ॥ १६ ॥ ऊोतेडः ॥ ४७॥ ऊगों ॥४७॥
( ४१ ) कृत्स्नं दृणातीति कृदरः । कुशलो वा । मृदं तृणातीति मृदरः । व्याधिर्विलं वा । सृष्टिं दृणाप्तीति सुदरः सर्पः ॥
(४२ ) हन्तीति घातनः । मारको वा ।।
( ४३ ) कामति पादान विक्षिपतीति क्रान्तुः । पक्षी वा । गच्छतोति गान्तः । पथिको वा । आगान्तुरभ्यागतः । क्षमतेऽसौ क्षान्तुः । सहनशीलो वा ॥
(४४ ) हर्यते काम्यते तत, हिरण्यम् । सुवर्णं वा ॥
( ४५ ) क्रियत उत्पाद्यतेऽसौ कांसः । सस्य भेदो था । कर्पासस्यविकारः कार्पासं वस्त्रम् । विल्वादित्वादण ।
(४६ ) जायते यत इति जतुः । उपस्थेन्द्रियम् । हस्ती वा ॥ ।
(४० ) ऊोत्याच्छादयति यया सा, ऊपी । अविमेषयो रोमाणि वा । उखां याति प्राप्नोतीत्यणायुः । मेषो मेषोणी कम्बलो वा । ऊणी इव नाभिरस्य स ऊर्णनाभः। समासान्तोऽच ऊर्णनाभिरिति वा। समासान्तस्य विधेरनित्यत्वात् । लताहिर्वा ॥
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पा० ५ ॥
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१३६
दधाते र्यट् च ॥ १८ ॥ धान्यम् ॥ ४८ ॥
जीर्यतेः किन् रश्च वः ॥ ४९ ॥ जित्रिः ॥ ४९ ॥ मव्यतेर्यलोपो मवापतुट्चालः ॥५०॥ ममापतालः ॥५०॥ ऋजेः कीकच् ॥ ५१ ॥ ऋजीकः ॥ ५१ ॥ तनोतेर्डङः सन्वञ्च ॥ ५२ ॥ तितः ॥ ५२ ॥
अर्भकपृथुकपाका वयसि ॥ ५३ ॥
अवद्यावमाधमार्वरेफाः कुत्सिते ॥ ५४ ॥ अवद्यम् ॥ ५४ ॥
( ४८ ) दधाति पुष्णाति लोकानिति धान्यम् । व्रीहिर्वा । धाने पोषणे साधु धान्यमित्यपि ॥
( ४६ ) यो जीर्यति येन वा स जित्रिः । काल: पक्षी वा । हलिचेति बाहुलकाद्दीर्घाभावः ॥
(५०) मव्यति बध्नातीति ममापतालः । बन्धनहेतुर्विषयो वा ॥ (५१) अर्जति गच्छतीति, ऋजीकः । सूर्यो धूमो वा !
(५२) तनोति विस्तृणोति येन तत् तितङः । चालनी पेषणशोधकपात्रम् ॥ ( ३३ ) ऋध्यति वर्धतेऽसावर्भकः । ऋधुधातोर्बुन धस्य भः । प्रथते बर्धते स पृथुकः । कुकन् प्रत्ययः सम्प्रसारणं च । पित्रतीति पाकः । कन् प्रत्ययः । अर्भकपृथुकपाका बालकपर्यायाः ॥
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( ५४ ) वदितुमयोग्यमवद्यम् । नञपूर्वाद्वदधातोर्यत् । श्रवतीत्यवमम् । अमः प्रत्ययः । तचैव वस्य धः । अधमम् । ऋच्छति गच्छतीत्यर्वा । वन् । अश्वो वा । रिफति निन्दतीति रेफः । कुत्सितपर्याया इमे ॥
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१४०
उणादिकोषः ॥
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लीरीडोईवः पुट् च तरौ श्लेषणकुत्सनयोः ॥ ५५ ॥ लिप्तम् । रिप्रम् ॥ ५५॥
क्लिशेरीचोपधायाः कन् लोपश्चलो नाम् च ॥ ५६ ॥ कीनाशः ॥ ५६ ॥
प्रश्नोतराशुकर्मणि वरट् च ॥ ५७ ॥ ईश्वरः ॥ ५७ ॥ चतेरुरन् ॥ ५८ ॥ चत्वारः ॥ ५८॥ प्रात्ततेररन् ॥ ५९ ॥ प्रातः ॥ ५९ ॥ अमेस्तुट् च ॥६०॥ अन्तः ॥ ६०॥ दहे!हलोपो दश्च नः ॥६१ ॥ नगः ॥६१॥
( ५५ ) लीयते श्लिष्यत इति लिप्तम् । लिष्टम् । रीयते तत, रिप्रम् । कुत्सितम् । तरौ प्रत्ययौ पुडागमः ॥
(५६) निश्नातोति कीनाशः । कृषीवला न्यायाधीशी वा। धातारुपधाया ईत्वं लकारलेापः कन् प्रत्ययो नामागमश्चान्त्यादचः परः ॥
(५०) अश्नुते, आशु शीघ्र करोति जगद्रचयति स, ईश्वरः । स्वामी वा । टित्वादोश्वरी । वरच् प्रत्यये ईश्वरा ॥
( ५८ ) चतते याचतेऽसौ चतुः। संख्यावाची वा । चत्वारः । चतनः ।
( ५६ ) प्रकृष्टमति गच्छतीति प्रातः । प्रभातकालो वा । स्वरादित्वादव्ययम् ॥
(६० ) अमति गच्छतोति यति, अन्तः । मध्यं वा । पूर्ववदव्ययम् ॥
(६१ ) दहति दह्यते वा स नगः। पर्वतो वृक्षो वा । बाहुलकानकारस्य नाकारो नागः । सर्पभेदो वा ॥
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पा०५॥
१४१
सिचेः संज्ञायां हनुमौ कश्च ॥ ६२ ॥ सिंहः ॥ १२ ॥ व्याङि घ्रातेश्च जातौ ॥६३ ॥ व्याघ्रः ॥ ६३ ॥ हन्तेरच घुर च ॥६४ ॥ घोरम् ॥ ६४ ॥ क्षमेरुपधालोपश्च ।। ६५॥ क्षमा ॥६५॥ तरतेड्रिः ॥६६॥ त्रयः ॥६६॥ ग्रहरनिः ॥६७॥ यहणिः ॥१७॥ प्रथेरमच् ॥ ६८॥ प्रथमः ॥६८॥ चरेश्च ॥ १९॥ चरमः ॥ ६९॥
(६२) सिञ्चतीति सिंहः । प्रसिद्धो वा । हकारप्रत्ययो नुमागमः । चस्य कः । ककारस्य च लोपः। हिनस्तोति सिंहः । इति पृषोदरादित्वादप्यादयन्तविपर्ययः ॥
(६३) विशेषेण समन्तान जिप्रति व्याघ्रः । हस्ती वा ॥ (६४ ) हन्तोति घोरम् । भयानकं वा ॥ (६५) क्षमते सहते सर्वमिति क्षमा । पृथिवी वा ॥ (६६) तरतीति चिः । संख्यावाची वा । त्रयः । त्रीन् । त्रिभ्यः ॥
(६० ) गृहणातोति ग्रहणिः । कृदिकारादिति ङीष् । ग्रहणी । संग्रहणी । घ्याधिभेदी वा ॥
(६८) प्रयते प्रख्याती भवतीति प्रथमः । आद्य उत्तमी नतनो वा॥
(९) चरति गच्छतोति भक्षति वा स चरमः । अन्त्यः पश्चिमी बाR
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उणादिकोषः।
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इत्युणादिषु पञ्चमः पादः समाप्तः॥ मन्थानविशदंविधायबहुलंव्युत्पन्नपक्षेन वा ऽव्युत्पन्नेनदलेनयेन विधिवदाग्वारिधिर्मन्धितः । व्यक्ताव्यक्ततराणियत्रवचसा रत्नान्यदीप्यन्त वै भूयात्सोयमुणादिरुत्तमगणोध्येतुर्यशोवृद्धये ॥ १ ॥
( 0 ) मङ्गति प्राप्नोति सुखं येन तन्मङ्गलम् । प्रशस्तम् । मङ्गलो वारभेदो वा । मङ्गलस्य भावो माङ्गल्यम् ॥ इतिश्रीमत्स्वामिदयानन्दसरस्वतीकतोणादिव्याख्यायां वैदिकलौकिककोषे पञ्चमः पादः समाप्तः ॥
समाप्तश्चायं ग्रन्थः
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श्मश्रुः वृत्रः २ १३ शकुन्तः
शयगड: वृद्धश्रवाः ४२२७ शकुन्तिः
शयथः धसानः २ ८७ शक्मा
शयानकः
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शत्रिः शतः
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विष्णुः
शद्रिः
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विष्यः
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वोचिः
वैजयन्तः
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४८ ४८
१.१२९
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उणादिशब्दसूचीपत्रम् ॥
शब्दाः
शब्दाः
पादे
___ शब्दाः
पाते
~
शयुः शयुनः शरिः
शप: शस्त्रम्
शंस्ता
०
शरुः
०
शाकम् शादः श्यामः श्यामाकः शारिका शारिः
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| शिरीषः निकु:. शिल्पम् खितम् शिवः शिखिदानः शिविरम्
शिशिरः ४ १२८ शिशुः
पोकरः
शोधुः २ ३२ श्रीः
०
०
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शाः
०
शकरा शरण्यम् সবি: शरत् धरम शम शरिमा शरीरम् शः श्रवणा श्रवाय्यः शर्वरी शरीकः शाल्कम् शल्कः लक्षणम् शलाका
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शौरः
घोविः
शोलम्
॥
०
०
शार्दूलः पालभञ्जिका मालिः
भालुः १५ सालकम्
शालूरः | १८ खा
মান্না शास्तिः शिक्यम् মিত্তা शिग्रुः शिवाणकः शिवायम् शितिः शिथिलः शिनिः
शिरः | १ ४४ शिरिः
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०
यौवा शक शक्षिः शकाः शलम शुचिः शनक शन्ध्यः शुभ्रम् शुभिः शुरुवम् शुष्कः शुष्ण:
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शलभः
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शल्यम् शलिः
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शवः श्वयोचिः शवरः शवसानः
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वसरः
शुभम
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१६६
[पस
उणादिशब्दसूचीपत्रम् ॥ | शब्दशः
शब्दाः
पादे
शब्दाः
মুমিন
७८
মুমি
४६
~0 0 0 0
१८८
शरः शूषम्
शूलधरः
स्यन्दनः स्यमिकः स्यमीकः सरः सरकम् सजू : सरट सरटः सरटः सरण्डः सरणिः सरणयुः
१३४
e
१०५
१२८
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सरित्
शृङ्गः शजगारः शधः शेपः शेपालः शेफः प्रयेतः प्रयेनः श्रेणिः श्लेष्मा शेवः शेवा शेवालः शेवलः शोचिः
सर्पिः
| सकाधि स्कम्मः संकरकाः सखा संग्रहणी समयित्नः स्तवकः स्तम्बः सत्रम् स्तरिमा स्तरीः स्वपतिः स्वधिः स्थविरः सदः सधिः सन्ध्या सनिः सप्त संपातिः समोचः समोची समिथः सम्प्रहाणिः
समया |१| ११४ समरः १ १२४ । संयहरः
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Mocm Mem - Ae we ccc www cm - पाद
समः सरिमा
१४८
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सरयुः सरयू: सरलः
सर्वः
१५३
२३७
शोथः
श्रोणः
श्रोणिः
श्रोत्रम्
सबवदाः ५ सर्षपः ८२ सलिलम् | संवत्सरः
खधा | ४ | १२५ सवनः | ४१७५ / स्वप्रः
१३१ । सव्यम् ३१ सव्यष्ठा
शौटोरः
षिडगः
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शब्द
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खरुः स्वर्भानुः खसा स्वस्ति संवसथः संवत् संस्तवानः सस्यम् सहः
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खुप
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____mr 10 mrM०० ॥ mr Norm 0 ~ 30
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सहसान:
| सिध्रः
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उणादिशब्दसूचीपत्रम् ॥
___ शब्दाः ११. सार्थः
सुधर्मा ३२ सारथिः
खुषा ८६) स्वाती
सुपयाः |४|१८१ स्वादुः
सुप्रतीकः साना
सुधाः २८५ सिक्थम् २ ७ सुमेशः ।
सितम् | ३ ८e सुरः ४१. स्तिभिः स्थिरः
सुरेणुः सिन्दूरम्
सुरतः |१३८ सिन्धुः
खुधः
सुवधाः | ६५ सिनः
सुविदत्रम् स्फिरः सिमः
मुशर्मा सिरा
सुष्टु सिंहः
सुस्रोतः सौता
सूक्ष्मम् ३१२८ स्त्री
सूचः स्तीविः
सूचिः १ सोमा ३ सीमिकः
सूत्रम् सुजवाः
स्थमा सुतपाः सुतेनाः
सूनुः सुत्रामा
सूना स्तुवेप्यम्
सूप: स्तुषेप्यम्
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सुवनम
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सहारः सहुरिः सहोरः साकम् स्थाणुः स्थाम स्थालम् सादिः साधन्तः साध्वसम् साधुः सानु । मायुः सावा सानसिः स्फारम साम सारङ्गः सारणिः
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सीरः
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स्थर
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चमः
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१६८
उणादिशब्दसूचीपत्रम् ॥ शब्दाः
शब्दाः .
शब्दाः
सूत्रे
स्यन:
स्यमः
०
हथ:
हालुः हासाः हिगुः हिण्डोरः
सूरः
०
हिमम्
१४७
०
सूरतः सूरिः सकः सृणिः सृणिः मृणीका
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हनूषः हरिः हरिणः
wwwFwccceme Mure पाद
हिरण्यम् हिरण्यरेताः हिंसौरः होका होकुः
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हरणः
४८
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हरित
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मृत्वा
हरितः
बोका
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हरिद्रुः
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बीकुः
हृदयम्
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सदाकुः सदरः समः स्प हयाय्यः
हरिमा हर्यतः हर्षयः
हषौकम् दृषुः हेतुः
सेतुः
हर्ष लः
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हेम
०
स्त्येनः सेना
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१२८
नेहा
हेमन्तः हेलिः होता
०
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८५
०
नेः सोमः स्तोमः
होत्रम्
०
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होमः २ १३ होमा
१४.
सामः
०
०
स्योना स्रोतः
हान्त्रम् हानिः हारिः
होमो | ४ | १२५ / होनः
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५
२०२
१०५
०
इति
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शुद्धिपत्रम् ॥
शुद्धि
.
१०८
पृ. ६० अशुद्धि शचि | पृ० पं० अशुधि ७ ७ श्रूयते शृणाति १४४ २३ ४७ ३३ २३ भैषनमेव भेषमेव
१४६ ५० . ४० ३ हाथः हथः
१४६८० १०१ १४ ८ तदनम् तदानम्
११८ ३२ ४ ४५ . संम्मत्या सम्मत्या
१५०८ ६० ४८ ७ सत्येनारयेनः । श्येनास्त्येनः। ५२ २३ व्युत्यन्त्रपक्षे व्युत्पन्नपचे
| १५० २१ २६ ६४ २१ लक्षणा सक्ष्मणा
| १५५ ८२ ६४ ६५ १७ रखका
१५८ ६९ मरिचिः
१६१ १५ युवाः ७२ ११ युवती १०९ १२ ममते मवते
१६१ ५८ २५
मरीचिः युवा १२५
युवतिः
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