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॥ पारिभाषिकः ॥
फिर ( विप्रतिषेधे परं कार्यम्) इस सूत्र से पर विप्रतिषेध मान के प्रथम (ति) आदेश हो गया । फिर उस को स्थानिवत् मान के (त्रय) आदेश भी होना चा हिये तो लोकवत् अनिष्टप्रसङ्ग आजावे इसलिये यह परिभाषा है #
४० - सद्गतौ विप्रतिषेधे यद् बाधितं तद् बाधितमेव ॥ अ० १ । ४ । २॥
एककाल में जब दो कार्यों को प्राप्ति होती है तब विप्रतिषेध में पर का कार्य होकर फिर दूसरे पूर्व सूत्र का कार्य प्रवृत्त नहीं हो सकता क्योंकि जो बाधक हुआ से हुआ इस से फिर स्थानिवत् मान के (लय) आदेश नहीं होता इस कारण[तिसृणाम् ] इत्यादि प्रयोग शुद्ध ठौक बन जाते हैं । और जो दूसरा काव्य भी पश्चात् प्राप्त हो और प्रथम हुआ काव्यं कुछ न बिगड़े तो [२८] वौं परिभाषा के अनुकूल वह भी कार्य हो जावे गा ॥ ४० ॥
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अब यह विचार भी कर्त्तव्य है कि धातुओं से परे जो लकारों के स्थान में तिप आदि परस्मैपद और आत्मनेपद प्रत्यय होते हैं वे पहिले हों किंवा विकरण हों आत्मनेपदादि के करने से प्रथम और पीछे भी विकरणों की प्राि इस से वे नित्य हैं | और आत्मनेपद परस्मैपद विधायक प्रकरण से पर भी विक रण ही है और विकरण किये पोछे आत्मनेपद नियम को प्राप्ति नहीं क्योंकि (अनुदात्तति० ) यह पञ्चमीनिर्दिष्ट कार्य व्यवधानरहित उत्तर को होना चाहिये विकरणों के व्यवधान से फिर आत्मनेपद नहीं पाता और जो आमनेपद नियम को अवकाश माने से भी नहीं क्योंकि अदादि और जुहोत्यादिगण में जहां विकरण विद्यमान नहीं रहते वहां और (लिङ्, लिट् ) लकारों में (आत्मनेपद, परस्मैपद ) को अवकाश हो है फिर ( एधते, स्पडते ) आदि में आत्मनेपद नहीं हो सकता इसलिये यह परिभाषा है ।
४१ - विकरणेभ्यो नियमो बलीयान् ॥ अ० १ । ४ । १२ ॥
विकरण विधि से आत्मनेपद परस्मै पद नियमविधान बलवान् है क्योंकि जो आत्मनेपद आदि के होने से पहिले विकरण ही होते होतो (आत्मनेपदेष्वन्यतरस्याम्, पुषादिद्युताद्य्ऌदितः परस्मैपदेषु ) इन विकरण विधायक सूत्रों में ग्राममपद के आश्रय से विकरणविधान क्यों किया इससे यह ज्ञापक है कि विकरणविधि से पहिले ही आत्मनेपद परस्मैपद नियम कार्य होते हैं । इस से ( एधते, स्पर्धेते) आदि में आमनेपद सिद्ध हो गया इत्यादि प्रयोजन इस के हैं ॥ ४१ ॥
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