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॥ पारिभाषिकः ।
(न्यविशत, व्य कोणीत ) यहां (नि, वि) उपसगों से परे ( विश) और (को) धातु से प्रामनेपद होता है सो विकरण आत्मनेपद और अट् आगम तीनों कार्य एक साथ प्राप्त है इन में से आत्मनेपद सब से पहिले होकर अब विकरण करने के पहिले और पीछे भी (अट) प्राप्त है इस से अनित्य हुआ और विकरण भी अट करने से पहिले तथा पोछे भी प्राप्त है तो विकरण भी नित्य हुए । नब दोनों नित्य हुए तो परत्वसे अट प्राप्त है । और अङग कार्य अटसे विकरणों का होना प्रथम इष्ट है क्योंकि विकरण के प्रानाने पर सब को ( अङ्ग ) संज्ञा हो और अङ्गसंज्ञा के पश्चात् अट होवे इसलिये यह परिभाषा है । ४२-शब्दान्तरस्य च प्रान्तुवन विधिरनित्यो भवति।।१० १॥३॥६॥
नो दो कार्य एकसाथ प्राप्त हो और वे दोनों नित्य ठहरते हो तो उन में एकविधि के होने से पहिले जिस शब्द को दूसरा विधि प्राप्त है और पहिले काय के होने पात वह विधि दूसरे शब्द को प्राप्त हो तो वह अनित्य होता है यहां ( अट ) आगम पहिले तो केवल (विश ) को प्राप्त है और विकरण किये पौछे विकरणसहित सब को अंगसंज्ञा होने से सब को प्राप्त है इसलिये अट अनित्य हुआ। फिर प्रथम विकरण हो कर पुनः प्रसंग मानने से ( अट ) हो जाता है । इत्यादि प्रयोजन है ॥ ४२ ॥
[नकुया भवः नाकुंटः, नपतेरपत्यं नापत्यः ] यहां जो (न) शब्दको एन्धि होती है उसी बधिरूप आकार का सहचारी रेफ रहता है उस रेफ की खर प्रत्याहार के परे [खरवसानयोर्विसर्जनीयः] इस सूत्र से विसर्जनीय होने चाहिये इसलिये यह परिभाषा है।
४३-प्रसिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्गे ॥ ० ८।३। १५॥ ४४-प्रसिद्ध बहिरङ्गलक्षण मन्तरङ्गलक्षणे॥ ०६।४।१३२॥
इन में से पहिसी परिभाषा बहुधा व्यवहारकालमें प्रवृत्त होती और दूसरी बहुधा व्याकरणादिशास्त्रों में लगती है। बहिरंग कार्य करने में अन्तरंग कार्य प्रसिद्ध हो जाता है । बहिर और अन्तर इन दोनों शब्दों के आगे जो अंग शब्द है वह उपकारकवाची और अंग शब्द के साथ दोनों शब्दों का बहुवीहि समास है [निमित्तसमुदायस्य मध्ये यस्य कार्यस्यांगमुपकारि निमित्तं बहिः कार्यान्तरा. पेक्षया दूरमधिकं वा वर्तते तबहिरङ्गं कार्यम्, एवं निमित्तसमुदायस्य मध्ये
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