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॥ पारिभाषिकः ॥
यस्य कार्यस्याङ्गमुपकारिनिमित्तमन्तः कार्यान्तरापेचया सन्निहितं वा न्यूनं वर्त्तते तदन्तरङ्गं कार्यम्, तथा बढपेक्षं बहिरङ्गमल्पापेक्षमन्तरङ्गम् ) वहिरङ्ग उस को कहते हैं कि प्रकृति, प्रत्यय, वर्ण और पद के समुदाय में जिस कार्य के उपकारी अवयव दूसरे कार्य की अपेक्षा से दूर वा अधिक हों । और अन्तरङ्ग वह कहाता है कि प्रकृति आदि निमित्तों के समुदाय में जिस कार्य के उपकारी अवयव दूसरे कार्य को अपेक्षा से समीप वा न्यून हो । तथा जो बहुत नि मित्त और व्याख्यान को अपेक्षा रकवे वह बहिरङ्ग तथा थोड़े निमित्त और व्याख्यान को अपेक्षा रकखे वह अन्तरङ्ग कहाता है । इसलिये प्रायः अन्तरङ्ग - कार्य प्रथम होता है और बहिरङ्ग असिद्ध हो जाता है । और कहीँ २ बहिररङ्ग प्रथम हो भी जावे तो अंतरङ्गकार्य की दृष्टि में असिद्ध अर्थात् नहीं हुआ सही रहता है । अब प्रकृत में (नार्कुट, नापत्य) यहां ककार पकार विसfate के निमित्त अंतरङ्ग और वृद्धि का निमित्त तद्धित बहिरङ्ग है सो प्रथम बहिरङ्ग कार्य वृद्धि हो भी जाती है । परन्तु अंतरङ्गकार्य विसर्जनीय करने में वृद्धि के सिद्ध होने से रेफ ही नहीं फिर विसर्जनीय किस को हो तथा ( वाह ऊठ् ) इस सूत्र में ( ऊठ् ) नहीं पढ़ते ते संप्रसारण की अनुवृति आकर ( प्रष्ठ वा XX अस् ) इस अवस्था में गिव प्रत्यय के परे वकार को ( उ ) संप्रसारण और पूर्वरूप हो कर । ( प्रष्ठ उह् वि अस् ) इस अवस्था में उकार का ओकार (गुण) और उस ओकार के साथ वृद्धि एकादेश होकर ( प्रष्ठोह :) आदि प्रयोग सिद्ध होही जाते फिर ऊठ् ग्रहण व्यर्थ हो कर यह ज्ञापक होता है कि ( प्रष्ठौ :) आदि में गुण करते समय संप्रसारण ( प्रसिद्ध ) होता है अर्थात् जादिप्रत्ययनिमित्त भसंज्ञा और भसंज्ञाके आश्रय संप्रसारण होता है इसप्रकार बहुत अपेक्षा वाला होने से संप्रसारण बहिरङ्ग और (वि) प्रत्यय को मान के गुण अंतरङ्ग है फिर अंतरङ्ग गुण करने में जब संप्रसारण असिद्ध हुआ तो गुण कौ प्राप्ति नहीं जब गुण नहीं हुआ तो वृद्धिहोकर ( प्रष्ठोह :) आदि प्रयोग भी नहीं बन सकते इसलिये ऊठ्ग्रहण करना चाहिये इसी ऊठ ग्रहण के ज्ञापक से यह परिभाषा निकली है तथा ( पचावेदम्, पचामेदम् ) यहां लोट् के उत्तम पुरुष के एकार को ऐकारादेश प्राप्त है सेा ऐत्व अंतरङ्ग की दृष्टि में ( श्राद्गुणः) मूत्र से हुआ गुण बहिरङ्ग होने से असिद्ध है इसलिये वहां एकारही नहीं तो ऐकार किसको हो । इत्यादि इस परिभाषा के असंख्य प्रयोजन हैं। लोक में भी अंतरंग कार्य करने में बहिरङ्ग असिही माना जाता है जैसे । मनुष्य प्रातःकाल उठकर ( पहिले निज शरीरसंबन्धी अंतरङ्गकार्यों को करता है पीछे मित्रों के और उस
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