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८
|| पारिभाषिकः ॥
अब इस कृत्रिम परिभाषा के होने से दोष श्राते हैं कि जहां कृत्रिमसंज्ञा के लेने से कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होता जैसे ( कर्त्तरि कर्मव्यतिहारे ) इस सूत्र में जो कृत्रिम कर्मसंज्ञा का ग्रहण होवे तेा ( देवदत्तस्य धान्यं व्यर्तालुनन्ति ) यहां कर्त्ता को ईप्सिततम धान्य कर्म के होने से आत्मनेपद होना चाहिये वह यहां इष्ट नहीं है इसलिये यह परिभाषा है |
९ – उभयगतिरिह भवति ॥ अ० ॥। १ । १ । २३ ॥
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इस व्याकरण शास्त्र में दोनों प्रकार का बोध होता है अर्थात् कहीं कलिम और कहीं कृत्रिम का भी ग्रहण होता है जैसे (कर्मणि द्वितीया) यहाँ कत्रिम कर्मसंज्ञा और (कर्त्तरि कर्मव्यतिहारे) कृषीवला व्यतिलुनते। यहां अकृत्रिम क्रियारूप कर्म का गहण है इसलिये ( देवदत्तस्य धान्यं व्यतिलुनन्ति ) यहां अकृत्रिम कर्म के होने से (आत्मनेपद) नहीं होता तथा ( कर्तृकरण्यास्वतीया ) देवदत्तेन ग्रामो गम्यते, रथेन गच्छति । यहां कृत्रिम करणसंज्ञा और ( शब्दवेर कलहा. भ्रकण्वमेघेभ्यः करणे) शब्दं करोति शब्दायते । यहां अकृत्रिम करणसंज्ञा लौजाती है इत्यादि अनेक प्रयोजन हैं ॥ ८ ॥
( श्रव्यता, शयिता ) इत्यादि प्रयोगों में बुङ और शीङ धातु को गुणनिषेध होना चाहिये क्योंकि अनुबन्धों के एकान्तपक्ष में दोनों धातु ङित है और अनेकान्तपच में अनुबन्ध पृथक् भी हैं इस में गुणनिषेध कार्य और इगन्त कार्यो है ॥
१० - कार्यमनुभवन् हि कार्य निमित्तत्वेननाश्रीयते ॥
कार्य करते हुए कार्यो का निमित्तपन से आश्रय नहीं किया जाता है अर्थात् जिसके श्राश्रय से कार्य होता हो वही उसका निमित्त कार्यो नहीं होता है जैसे
निषेध का निमित्त ङित् इगन्त नहीं कि जो वह ङित् इगन्त गुणनिषेध का निमित्त गन्त कार्यों होता तो अवश्य गुण का निषेध हो जाता ( स्वरिडला च्कयितरि०) इस सूत्र में (शोङ) धातुको गुणपठनज्ञापक सेयह परिभाषा निकली है । तथा सन्नन्त यङन्त को कहा दिवऊणु धातु के नुभाग कोहोजाता है क्योंकिसन का निमित ऊणु धातु हे ( ऊनविषति' ऊर्णा नुविषति ) इत्यादि ॥ १० ॥ (प्रणिदापयति, प्रणिधापयति ) इत्यादिप्रयोगों में (दा, धा) रूप को कही हुई संज्ञा पुगन्त (दाप, धाप,) को न प्राप्त होने से संज्ञक धातुओं के परे (प्र) उपसर्गसे उत्तर नि के नकार कोणत्व नहोना चाहिये इसलिये यह परिभाषा की गई है |
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