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॥ पारिभाषिकः । | (अण् ) का अपवाद ( क ) प्रत्यय हो जाता है इस अपवाद के विषय में उत्सर्ग अण् भी होना चाहिये इसलिये ज्ञापकसिद्ध यह परिभाषा है ।
७-नानुबन्धकतमसारूप्यम् ॥ अ० ॥३।१ । १३९॥
जिन में अनुबन्धमात्र का भेद हो, वे भिवरूपवाले असरूप नहीं कहाते । (ददातिदधात्याविभाषा) इस सूत्र में विभाषा ग्रहण इसलिये है कि (श ) प्रत्यय के पक्ष में आकारान्त से विहित उत्सग रूप (ण) प्रत्यय भौ होजावे और (अणु, क) प्रत्यय के समान (ण, श, प्रत्यय भी अनुबन्ध से असरूप और अनुबन्ध रहित सरूप ही है फिर असरूप प्रत्ययों में ता ( वाऽसरूपोऽस्त्रियाम् ) इस परिभाषा सूत्र से उत्सर्गापवाद विकल्प होहो जाता फिर विभाषाग्रहण व्यर्थ होकर यह जनाता हे अनुबन्धमात्रभेद के होने से असारूप्य नहीं होता अधात् ( ण, श) प्रत्यय असरूप नहीं है कि जो (वाऽसरूप०) परिभाषा से विभाषा होजावे इस से विभाषा ग्रहण स्वार्थ में चरितार्थ और अन्यत्र फल यह है कि सौ से ( गोदः, कम्बलदः) यहां (क) अपवाद के विषय में (अण) उतसग भी नहीं होता।। ___ अब संज्ञा दो प्रकार को होती है एक तो नो वाच्यवाचक संकेत से किन्हीं विशेष प्रयोजनों के लिये किसी का कुछ नाम रख लेना उस को कृत्रिमसंज्ञा कहा ते हैं और जो प्रकृति प्रत्यय के योग से यौगिक अर्थ होता है उस को अकत्रिम संज्ञा कहते हैं । सो लौकिक व्यवहारी में तो यही रीति है कि जहां कृत्रिम और अकृत्रिम दोनों संज्ञाओं का सम्भव हो वहां कृत्रिम संज्ञा ली जावे अकत्रिम नहीं। यथा ( केनचिदुक्तं गोपालकमानयेति ) जैसे किसी ने कहा कि गोपालक को लेा एक तो यहां गोपालक किसी निज मनुष्य का नाम है । और दूसरा जो कोई गौत्रों का पालन करे उसको गोपाल कहते हैं तो यह अर्थ किसी निज के साथ नहीं है । फिर इस कृत्रिमसंज्ञा वाले निज गोपालक का हौ ग्रहण होता है ऐसे अब व्याकरण में जहाँ कृत्रिम अकृत्रिम दोनों संज्ञाओं का सम्भव है जैसे धातु, प्रातिपदिक, बहुव्रीहि, तत्पुरुष, वृद्धि, गुण, सवर्ण, सम्प्रसारण, नदी इत्यादि शब्दों में कृत्रिम संज्ञा का ग्रहण हो वा अलत्रिम का इसलिये यह परिभाषा है।
-कृत्रिमाकृत्रिमयोःकत्रिमे कार्यसम्प्रत्ययः॥०॥११॥२३॥
नहां कृत्रिम और प्रकृत्रिम दोनों संज्ञाओं में कार्य होना सम्भव हो वहां क. त्रिम संज्ञा में कार्य होना निश्चित रहे अतविममें नहीं इस से व्याकरणमें भी धात आदि कत्रिम संज्ञाओं से कार्य लेने चाहिये सुवर्ण आदि धातु संज्ञक से नहीं।
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