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पारिभाषिकः ।
५-नानुबन्धकतमनेकालत्वम् ॥०॥ १।१ । ५५ ॥ अनुबन्ध के सहित जो अनेकाल हो उसको अनेकाल नहीं मानना किन्तु जो अनुबन्धरहित अनेकाल हो वही अनेकाल कहाता है इस से यह पाया कि (श) आदि आदेश शित होने से अनेकाल नहीं होते तो (शिव) आदेश सार्थक होकर स्वार्थ में इस परिभाषा का चरितार्थ होगया और अन्यत्र कल यहहै कि जो अवन शब्द का अर्वण स्त्रसावनञः)इस सूत्रसे (ट)आदेश कहाहै उस केाकारअनुबन्ध. के सहित अनेकाल मान लेतो सर्वादेश अनिष्ट प्राप्त हो अन्त्य को इष्ट है अनुबन्ध कत अनेकाल न होने से सर्वादेश नहीं होता इत्यादि अनेकप्रयोजन हैं।
अब इस पांचवीं परिभाषा के एकान्तपक्ष में होने से दप धातु के पकार का लोप प्रथम होगया क्योंकि लोपविधि सब से बलवान है। लोप किये पीछे आकारादेश करने से ( अदाप) इस से घुसंज्ञा का निषेध नहीं हो सकता। और किसी प्रकार पकार का लोप प्रथम न करें तो अनुबन्धों के एकान्तपक्ष में देप धातु एजन्त नहीं पुनः आकारादेश नहीं प्राप्त है तो (अवदातं मुखम् ) यहां घुसंज्ञा होनी चाहिये इसलिये ज्ञापकसिच यह परिभाषा है ।
६-नानुबन्धकतमनेजन्तत्वम् ॥५०॥ ३ । ४ । १९ ॥
___अनुबंध के होने से एजन्तपन को हानि नहीं होतो (उदीचा माङो०) इस सूत्र में ( मेङ) धातु का मानिर्देश नहीं करते तो व्यतिहारग्रहण भी नहीं करने पड़ता क्योंकि मेधातु का व्यतिहार अर्थ ही है फिर उदीचां मेड: इतने छोटे मूत्र से सब काम निकल नाता तो बड़ा सूत्र करने से यह आया कि अनुबन्ध के बने रहते हो आकारादेश हो जाता है कि जैसे मेङका माङ बम गया अर्थात् अनुबन्ध के होने से भी एमन्तत्व की हानि नहीं होती। जैसे कि मेड में (ङ) अनुबन्ध के बने रहतेही एच निमित्त आकारादेश होगया इससेयह परिभाषा स्वार्थमें चरितार्थ हुई और अन्यत्र फल यह है कि दैपधातु कोभीअनुबन्ध के वर्तमान समय ही में एजन्त मान कर आकारादेश होजाताहै फिर अदात निषेध के प्रवृत्त होने से घुसंज्ञा का प्रतिषध होकर अवदातं मुखम् प्रयोगसिद्ध होताहै ॥६॥
अब अनुबन्धों के एकान्तपक्ष में यह भी दोष आता है कि (अण ) और (क ) प्रत्यय में ( ण,क् ) अनुबन्धों के लगे होने से भिन्नरूप वाले समझे नावें फिर सरूप प्रत्यय नित्य बाधक होते हैं अर्थात् अपवाद विषय में उत्सर्ग | को प्रवृत्ति नहीं होती यह बात नहीं बनेगी इस से ( गोदः, कम्बलदः ) यहां
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