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भूमिका।
इस पुस्तक का नाम गणपाठ इस लिये है कि एकत्र मिला के बहुत २ शब्दों का समुदाय पठित है। यह पुस्तक पाणिनि मुनि जी का बनाया है इस के कार्यकर अष्टाध्यायी के सूत्र हैं यद्यपि काशिकादि पुस्तकों में तत्तत् सूत्र पर गणपाठ भी छप गया है तथापि बीच २ सूत्रों के दूर २ होने से गण भी दूर २हैं इस से कण्ठस्थ करना विचारना वा अनुवृत्तिकरना कठिन होता था इस लिये उस २ गणकार्य सूत्र को सार्थक लिख कर एक दो उदाहरण देके जहां २ एक ऐसा (:-) चिन्ह बना के लिखा है वहां २ से गण पाठ का आरम्भ समझना चाहिये और जिस २ शब्द की विशेष व्याख्या अपेक्षित थी उस २ पर एक आदि अङ्क लिख और रेखा देकर नीचे विवरण ( जिस को नोट कहते हैं ) लिखा है । उस को भी यथायोग्य समझ लेना चाहिये इन के अर्थ अष्टाध्यायी निरुक्त निघण्टु और उणादिकोष तथा प्रकृति प्रत्ययादि की उहा से समझ लेना योग्य है । यद्यपि भ्वादि और उणादि भी एक २ सूत्र पर गण हैं तो भी उन के बड़े और विलक्षण ( १ ) होने से पृथक् श्रीपाणिनि मुनि जी ने लिखे हैं और सूत्र के समान वार्तिक गण हैं उन को भी वात्तिक के आगे लिख दिया है जो साधारणता से व्याकरण के बोध युक्त हैं वे भी इन का रूप और अर्थ पढ़ पढ़ा सकते हैं ।
अलमतिविस्तरेण विपश्चिद्वशिरोमणिपु ॥
स्थान महाराणानी का उदयपुर । मिति माघ शुक्ला १० सं० १९३९ ।
दयानन्द सरस्वती
(१) भ्वादि धातु अनुबन्ध सहित और उणादि में प्रकृतिप्रत्ययसाधुत्व पूर्वक / लेख है और सर्वादि में सिद्ध. शब्दों का पाठ अनुक्रम से है इसी लिये उन दोनों गणों । से यह और इस से वे पृथक् २ रक्खे हैं ।
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