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सौवरः ॥
२९ - नित्यादिर्नित्यम् ॥ अ० ।। ६ । १ । १९७॥
चित् नित् प्रत्ययों के परे पूर्व प्रकृति को श्रद्युदान्तस्वर हो । यह सूत्र (२४) सूत्र का अपवाद है । और इस के अपवाद आगे कुछ लिखेंगे। उदाहरण । जित्घ्यञ्- ब्राह्मण्यम् । चातु' वण्यम् । त्रैलोक्यम् । यत्र - गार्ग्य: । शार्कल्यः । माध॑व्यः । बाभ्रव्यः । इत्यादि । ब्रञ् - दातिः । सौधातकिः । वैयासकिः । फिञ् - तैकायनिः 1 कैर्तवायनिः । इत्यादि । नित् । वुन् वासुदेवकः । अर्जुनकः । ठन् - वकिः । कन्-द्रव्यकः । इत्यादि शब्द आद्युदास हो जाते हैं ॥ २८ ॥
१३
३० - कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः ॥ अ० ।। ६ । १
। १५९ ॥
घञन्त कर्ष धातु और आकारवान् घञन्त शब्दों के अन्त में उदात्तवर हो । कर्षधातु के कहने से भ्वादिगण वाले का ग्रहण होता है । गुणनिषेध वाले तुदादि का ग्रहण नहीं होता। जैसे । कर्षः । त्यागः । रागः । दायः । धायः । पाकः । पाठः । इत्यादि । आकारवान् कहने से कर्ष को नहीं प्राप्त था इसलिये पृथक्ग्रहण किया है । आकारवान् ग्रहण इसलिये है कि । मन्थः । योगेः । यहां न हो ॥ ३० ॥
३१ - उञ्छादीनां च ॥ अ० ।। ६ । १ । १६० ॥
उच्छ आदि गणपठित शब्दों को अन्तोदात्त स्वर हो । जैसे । उञ्छः । म्लेच्छः । नञ्जः । जल्पः । इन चार घञन्त शब्दों में आयुदात्त प्राप्त था सो न हुआ। जपः । व्यधः । ये दो शब्द अप् प्रत्ययान्त हैं इन को भी आद्युदात्त स्वर प्रास था ॥
गणसूत्र - युगः कालविशेषे रथाद्युपकरणे च ॥ १ ॥
युग शब्द कालविशेष अर्थात् कलियुग द्वापरयुग इत्यादि वा पोढ़ौ तथा रथ आदि के उपकरण अर्थात् अवयव जुना आदि अर्थ में अन्तोदान्त होता है अन्यत्र नहीं व्हता । युगः । घञन्त होने से आद्युदात्त प्राप्त था
सू० - गरो दृष्ये ॥ २ ॥
दूध्य अर्थात् विष अर्थ में गर शब्द अन्तोदान्त हो । जैसे | गुरः । अन्यत्र आद्युदान्त रहेगा ।
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सू० - वेगवेदवेष्टबन्धाः करणे ॥ ३ ॥
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करणकारक में प्रत्यय किया हो तो घञन्त वेग आदि चार शब्द अन्तोदात हौं । वियजते येन स, वेगः । वेत्ति येन स वेदः । वेष्टते येन स वेष्टः । बन्धाति येन स बन्धः । और भाव वा अधिकरण में प्रत्यय होगा तो आयुदात्त हो समर्भ नावेंगे ॥