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सौवरः॥
सू०-स्तुयुद्रुवश्च छन्दसि ॥ ४ ॥ विवन्त स्तु आदि तीन धातुओं को अन्तोदात्तस्वर हो। जैसे । परिष्ट त् । संयुत् । परिद्रत् । यहां उपसर्गों को प्रतिभाव प्राप्त था।
स०-वर्तनिः स्तोत्रे॥५॥ जो स्तुतिप्रकरण में वर्तनि शब्द पढ़ा हो तो अन्तोदात्त स्वरहो जैसे। व निः । अन्यत्र अनि प्रत्यय आद्युदात्त होने से मध्योदात्त स्वर होगा । वत्त निः।
सू०-श्वभ्रे दरः ॥ ६ ॥ खभ्र अभिधेय हो तो दर शब्द अन्तोदात्त हो । जैसे। दरः । अन्यत्र आयुदात्त हो समझा जाता है जैसे । दरः ।।
सू०--साम्बतापौ भावगर्हायाम् ॥ भावगर्हा अर्थात् धात्वर्थ की निन्दा में साम्ब और तापशब्द अन्तोदात्त हो। जैसे । साम्बः । तापः । अन्यत्र । आद्युदात्त हो समझे जांव गे।
सू०-उत्तमशश्वत्तमौ सर्वत्र ॥ उत्तम और शश्वत्तम ये दोनों शब्द सामान्य अर्थों में अन्तोदात्त ही जैसे । उत्तमः । श एव तमः । तथा भक्षः । मन्थः । भोगः । देहः । इत्यादि॥३१॥
३२-अनुदात्तस्य च यत्रोदात्तलोपः॥०॥६।१।१६१॥ जिस अनुदात्त के परे उदात्त का लोप हो उस अनुदात्त को उदात्त हो। से। औप गव-ई। यहां ई अनुदात्त के परे अन्तोदात्त औपगव शब्द के अन्त्य वर्ण का लोप हो कर ईकार उदात्त हो जाता है। औप गवी। तथा । दाक्षायणी। माक्षा यणी । कुमारी।इत्यादि । अस्थन्, दधन शब्द दोनों अन्तोदात्त हैं तोया दि अजादि विभतियों में उपधा प्रकार का लोप हो कर । अस्था। दधा । अस्थ। दछ । इत्यादि । इसी प्रकार इस सूत्र का बहुत विषय है नहीं कहीं अनुदात्त के परे उदात्त का लोप हो वहां सर्वत्र इसी से उदात्त समझा नावे गा । यत्र ग्रहण इसलिये है कि । भार्गवः । भार्गवौ । भगवः । यहां न विभक्तिके आने से प्रथम हौ प्रत्यय का लुक होजाता है। उदात्तग्रहण इसलिये है कि जहां अनुदात्त के परे अनुदात्त हो का लोप हो वहां उदात्त न हो ॥ ३२ ॥
३३-धातोः ॥ ५० ॥ ६ । १ । १६२ ॥ * धातु को अन्तोदात्त स्वर हो । पर्चति । पठति । चि चौषति । तुष्टषति । अर्णोति । पा पच्यते' । जागत्ति' । गो पायति । इत्यादि इन में जितने अंश की धातु संज्ञा है उसी को अन्तोदात्त हुआ है । ३३॥
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