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सौवरः ॥
३४-चितः ॥ १० ॥६।१ । १६३॥ चित् अर्थात् चकार इत् हो के लोप जिस में हो उस समुदाय को अन्तोदात्त स्वर हो । प्रत्यय के पायदात्त स्वर का अपवाद यह सूत्र है । घुरच-भङ्गरः। भा सुरः । मे दुरः । कौण्डिन्य को कुण्डिनच् आदेश । क गिडनाः । अकचस वकः । उञ्चकः । नौ चकः । बहुच-बहु कतम् । बहु भुक्तम् । बहु पटु । इत्यादि ॥ ३४ ॥
३५-तद्वितस्य च ॥०॥६।१ । १६४ ॥ नो तद्धित संज्ञक चित प्रत्यय है वह अन्तोदात्त हो । जैसे । फज । को ना. यनः । भौजायनः । इत्यादि । पूर्व सूत्र में चित् के कहने से यहां भौ अन्तोदात होजाता फिर इस सूत्र का पृथक आरम्भ इसलिये किया है कि जहां दो अ नुबन्धों से दो स्वर प्राप्तही वहां भी चित् का स्वर अन्तोदात्त हो हो । जैसे फज प्रत्ययान्तों को हुआ ॥ ३५ ॥
३६-कितः ॥ १० ॥ ६ । १ । १६५॥ जो तहित संज्ञक कित् प्रत्यय है वह अन्तोदात्त हो जैसे ।फक-नाडा यनः। चारा यणः । दाक्षायणः । ठक -रे व तिकः । आ क्षिकः । को हा लकः । पारिधिकः ॥ ३६॥
३७--सावेकाचस्ततीयादिविभक्तिः॥०॥६।१।१६८॥
नो सु अर्थात् सप्तमी के बहुवचन में एकाच शब्द हो उस से परे नो टतो. यादि विभक्ति सो अन्तादात्त हो जैसे । वाचा । वाग्भ्याम् । वागभिः, वाचे, वाचः, त्वचे, त्वचः ।इत्यादि ।सु ग्रहण इसलिये है कि, राजा । राज। यहां नहो । एकाच ग्रहण इसलिये है कि । किरिणा । गिरिगा। यहां विभक्ति उदात्त न हो। हतीयादिग्रहण इसलिये है कि । वाचौ' । वाचः । यहां न हो। विभक्तिग्रहण इसलिये है कि । वाकतरा । यहाँ न हो । सप्तमी का बहुवचन सुसलिये लिया है कि । त्वया । यहां भौ विभक्ति उदात्त नहो । २७ ।
३८-शतुरनुमोनद्यजादी ॥ १०॥६। १ । १७३ ॥ नुमहित जी शटप्रत्ययान्त प्रातिपदिक उस से परे जो नदीसंज्ञक प्रत्यय और अनादि असर्वनामस्थान विभक्ति वह उदात्त हो । नदोसनक डोप । तु दतो। नु दती । लु नतो' इत्यादि अनादि असर्वनामस्थान विभते । ल नते। ल नतः । लु नतोः । लु नति । अनुम्ग्रहण इसलिये है कि । तुदन्तो'। नुदन्ती' इत्यादि में नदो उदासन हो । नद्यनादि ग्रहण इसलिये है कि तुदद् भ्याम् । तदभिः । यहां विभशि उदात्त नहो ॥ ३८ ॥
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