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सौवरः ॥
३९ - वा० - नद्यजाद्युदात्तत्वे बृहन्महतोरुपसंख्यानम् ॥
जो बृहत् और महत् शब्द से परे नदी और अजादि श्रसर्वनामस्थान विभक्ति है वह उदास हो जैसे । बृहती । महतो । हता । हते । म हता । महते | इत्यादि पृषत् | आदि शब्दों को शट प्रत्ययान्त के सब काय होते हैं । फिर इस वार्त्तिक के कहने का प्रयोजन यह है कि पृषत् आदि सब शब्दों से परे नदी और अजादि विभक्ति उदात्त न हो किन्तु बृहत् और महत् से ही हो ॥ ३८ ॥ ४० - उदात्तयणो हल्पूर्वीत् ॥ अ० ।। ६ । १ । १७४ ॥ हत् वर्ण जिसके पूर्व हो ऐसा जो उदात्त के स्थान में ' यण् उस से परे जो नदीं संज्ञक प्रत्यय और अजादि असर्वनामस्थान विभक्ति सो उदान्त हो जैसे नदो - कर्त्री । हर्बो । कर्त्री । लवित्रौ । सवित्री । इत्यादि । यहां सर्वत्र टच् अन्तोदान्त के स्थान में या हुआ है । अनादि असर्वनामस्थान विभक्ति । कर्त्रा । क । त्रीः । लवित्रा । लवित्रे । लषत्रोः । इत्यादि । यहाँ उदा"तग्रहण इसलिये है कि । कर्त्री । हर्बो' । कर्त्री । हर्त्री । यहां तृनन्त शब्दों के आयु दात न होने से अनुदात्त के स्थान में य हुआ है । यहां हल् पूर्वग्रहण इसलिये है कि । ब॒ह॒ तित॒वा' । ब॒ह॒ तित॒वे' । यहां उदात्त के स्थान में बहुतितउ शब्द के उकार को यस् तो हुआ है परन्तु वह उदात्त केवल अच् था | फिर विभक्ति: को उदात्त का निषेध होके श्रष्टमिक सूत्र से स्वरित होता है ॥ ४ ॥
४१ - नकारग्रहणं च कर्त्तव्यम् ॥
जो नकारान्त से परे नदी संज्ञक प्रत्यय हो वह उदात्त हो । वाक् पत्नी । चित्ती । यहां उदात्त के स्थान में यण नहीं है ॥ ४१ ॥
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४२- ह्रस्वनुभ्यां मतुप् ॥ अ० ।। ६ । १ । १ ७६ ॥ .
जो स्वान्त अन्तोदात्त प्रातिपदिक और नुट् का आगम इन से परे जो मतुप् प्रत्यय होता वह उदात्त हो । पित् प्रत्यय के अनुदांत होने का यह अपवाद है । ख । अग्निमान् । वा यमान् । भानुमान् । कर्टमान् । इत्यादि । नुट् । । शीतः । मुन्वतौ ॥ ४२ ॥
४३ - वा० - मतुबुदात्तत्वे रे ग्रहणम् ॥
रे शब्द से परे जो मतुप् होतो वह भी उदात्त हो । श्रदे॒वाने 'तु नो विशः । यहां रेवान् शब्द में ह्रस्व के नहीं होने से नहीं प्राप्तथा ॥ ४३ ॥ ४४ - वा० - त्रिप्रतिषेधश्व ॥
त्रि शब्द से परे मतुप् उदान्त नहो । त्रिर्वतौः । यहां उदान्त महुआ ॥ ४४ ॥
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