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सौवरः ॥
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एकश्रुति स्वर विकल्प करके होता है । एकश्रुतिपक्ष में उदात्तादि का भिन्न ३. उच्चारण नहीं होता । सो ये दो पच तीन वेदों में घटते हैं । सामवेद में तीनों स्वर भिन्न २ उच्चारण किये जाते हैं क्योंकि ( ११ ) सूत्र से सामवेद में एकश्रुति होने का निषेध कर चुके हैं ॥ १३ ॥
१४ - न सुब्रह्मण्यायां स्वरितस्य तुदात्तः ॥ अ० ॥ १ । २ । ३७ ॥
जो सुब्रह्मण्या ऋचा में यज्ञकर्म में पूर्वसूत्र से एकश्रुतिस्वर प्राप्त है सो न हो किन्तु जो उस में स्वरित वर्ण हों उन के स्थान में उदात्त होजावे । सुब्रह्मण्या एक ऋचा का नाम है । उस का व्याख्यान शतपथ ब्राह्मण में तृतीय काण्ड aate प्रपाठक के प्रथम ब्राह्मण में सत्रहवीं कण्डिका से लेके बीसवीं कण्डिका पय्यंन्त किया है । उस ऋचा में जितने शब्द हैं उन सब में खर का विशेष नियम समझना चाहिये ॥
भा०- सुब्रह्मण्यायामोकार उदात्तो भवति ॥
सुब्रह्मन् शब्द से स्वाध्वर्थ में यत् प्रत्यय होके स्वरितान्त होता है । उसका टापु और आकार के साथ एकादेश होके खरित हो उस खरित को इस सूत्र से उदात्त आदेश हो जाता है और तीन वर्ण अनुदान्त रहते हैं | सुब्रह्मण्यम् ॥
भा० - आकार आख्याते परादिश्व वाक्यादौ च द्वे द्वे ॥
जहां आख्यातक्रिया परे हो वहां उस से पूर्व का आकार और उस क्रिया का आदि वर्ण उदास होता है जैसे । इन्द्र आग छ । हरि व आग के | यहां ऐसा समझो कि ( इन्द्र ) और ( हरिवः ) शब्द आमंत्रित होने से आद्युदात्त हैं उन के दूसरे वर्ण अनुदान्त हैं उन को उदात्त से परे स्वरित हो जाता है । उस स्वरित को इस सूत्र से उदात्त करते हैं । इस प्रकार इन्द्र शब्द सब उदात्त और हरिव शब्द में भी जो दो उदात्त और वकार अनुदात है उस को पूर्व उदात्त के अमि मानने से स्वरित नहीं होता । आगच्छ । में आकार तो प्रथम हो उदात्त है उस से परे दोनों अक्षर अनुदात्त है । आकार उदात्त से परे गकार अनुदात्त को स्वरित होके इस सूत्र से खरित को उदान्त होजाता है । इस प्रकार | इन्द्र आग इस वाक्य में एक छकार अनुदात्त और चार वर्ण उदान्त रहते हैं तथा । हरिव आग कुछ इस वाक्य में वकार इकार दो वर्ष अनुदान्त और चारवर्ष उदात्त रहते हैं | सुब्रह्मण्यो ३ मिन्द्र बाग एक हरि व आगच्छ मेधा तिथे र्मेष वृषणगौरा व कन्दिन ल्याये जा र । कौशिक ब्राह्मण गौतमब्रुवा ग श्वः सुत्यामागच्छ म व वन ॥ १ ॥ मेधातिथे में ष। यहां आमंत्रित मेष शब्द के
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