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सौवरः ॥
पर पूर्व सुबन्तको पराङ्गवत् आद्युदात्त होके सबअक्षर अनुदात्त होनाते हैं । फिर'मे' उदात्त से परे 'धा' अनुदात्त को स्वरित होकर उस स्वरित को इस सूत्र से उदात्त हो के आदि में दो उदात्त और चार वर्ण अनुदात्त रहते हैं इसी प्रकार । वृष ण. ख स्य मे ने । गौरा व स्क न्दिन् । अहल्या ये जार । कौशिक ब्राह्मण गौ त म. ब्र वा ण। इन सब में दोर आदि में उदात्त और सब वर्ण अनुदात्त रहते हैं । खस और सुत्या शब्द अन्तोदात्त हैं । खस् उदात्त शब्दसे पर सु अनुदान को खरित होके उदात्त हो जाता है इस प्रकार तीनों उदात्त रहते हैं । श्वः सुत्याम् । आगच्छ मघवन् । यहांभी उदात्त आकार से परे गकार अनुदात्त को स्वरित होके उदात्त होजाता है । मघवन शब्दआमंत्रित के होने से सब अनुदात्त होजाता है। यहां जितने पड़ों का व्याख्यान किया है वे सब सुब्रह्मण्या ऋचा के हो हैं । अब आगे एक अपूर्व बात लिखते हैं कि जो इस सूत्र से भी सिद्ध नहीं है ॥ १४ ॥
१५-वा०-सुत्यापराणामन्तः ॥ सुत्या शब्द जिन से परे हो उन को अन्तोदात्त हो । व्यहे सुत्याम् । त्यह सुत्याम् । यहां उद्यह, वह शब्दों को अन्तोदात्त होके उससे परे 'सु' अनुदात्त को स्वरित और स्वरित को उदात्त होजाता है । १५ ॥
१६-वा०-प्रसावित्यन्तः॥ वाका में जो प्रथमान्त पद है वह अन्तोदात्त हो । गाग्र्यो य ज ते । गाय शब्दप्रथम आद्युदात्त प्राप्त है उस का बाधक यह अन्तोदात्त होके उस उदात्त से पर यकार को स्वरित और स्वरित को इस से उदात्त हो जाता है और (यजते) क्रिया में अन्त्य के दो वर्ण अनुदात्त होजाते हैं ॥ १६ ॥
१७-वा०-अमुष्येत्यन्तः ॥ अमुष्य यह षष्ठी के एक वचन का संकेत है। जो षष्ठ्येकवचनान्त पद है वह अन्तोदात्त हो जैसे । दाक्षः पिता य ज ते । यहां दाक्षी शब्दषष्ठी का एक वचनहै उस इज प्रत्ययान्त को आद्युदात्तस्वर प्राप्त है उसको अन्तोदात्त होजा. ता है और पिता शब्द च प्रत्ययान्त होने से अन्तोदात्त ही है। अन्तोदात्त दाक्षिशब्द से परे 'पि' अनुदात्त को खरित होके उदात्त और अन्तोदात्त पिट शब्द से परे अनुदात्त यकार को स्वरित होकर उदात्त होजाता है। इस प्रकार मध्य में चार उदात्त तथा आदि में एक अन्त में दो अनुदात्त रहते हैं। जैसे दा ः पिता य ज ते ॥ १७ ॥
१८-वा०-स्यान्तस्योपोत्तमं चान्त्यश्च ॥ जहां षष्ठी का एकवचन स्यान्त हो वहां उपोत्तम अर्थात् ढतीय वा चतुर्थवर्ण
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