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॥ पारिभाषिकः । को उदात्त हो जाता है । इस का ज्ञापक ( यतोऽनावः ) इस सूत्र में यत् प्रत्ययान्त उद्यच् प्रातिपदिक को आद्युदात्त कहा है । और (नौ) शब्द का निषेध इसीलिये है कि (नाव्यम्) यहां आद्यदात्त न हो सो जब आदि में नकारहै तब स्वर के होने से आद्यदात्त प्राप्त ही नहीं फिर निषेध करने से यही प्रयोजन है कि उस नकार का भी स्वर प्राप्त होता है सो अविद्यमामवत मान के आकार को होजाता इसलिये निषेध किया। तथा अनुदात्तादि वा अन्तोदात्त से परे जो कार्य कहे हैं उन में जहां आदि और अन्त में व्यञ्जन हैं वहां उन कार्याको प्राप्ति नहीं होगी वहां भी अविद्यमानवत् मान कर काम चल जाता है । और जो कदाचित् ऐसा मान लिया जावे कि उदात्तादि गुण व्यंजनों के ही हैं उन के संयोग से अचोंके भी धर्म समझ जाते हैं सो नहीं बन सकता क्योंकि व्यंजन के विना भी केवल अचों में उदात्तादि धर्म प्रसिद्ध है और घच के विना व्यंजन का उच्चारण होना भी कठिन है इसलिये उदातादि गुण स्वतंत्र व्यंजनों के नहीं होसकते । परन्तु यह बात तो माननी चाहिये कि अच् के संयोग से व्यंजन को भी उदात्तादि गुण प्रामहो जाते हैं । जैसे दो रङ्गवस्त्रों के बीच एक खत वस्त्र हो तो वह भी कुछ रङ्गित प्रतीत होता है ॥ ६ ॥
(वामदेवाड घडड्यौ) इस सूत्र में यत् श्री ह्य प्रत्यय हित इसीलिये पढे हैं कि डित के परे वामदेव शब्द के टि भाग का लोप होजावे सो ( यस्येति च ) सूत्र से तड़ित के पर भसंज्ञक अवर्ण का लोप हो ही जाता फिर डितकरण व्यर्थ हो कर इन परिभाषाओं के निकलने में ज्ञापक है।
७०-अननुबन्धकग्रहणे न सानुबन्धकस्य ग्रहणम् ॥ ७१-तदनुबन्धकग्रहणे नातदनुबन्धकस्य ग्रहणम्॥१०४।२।९।। ___ अनुबन्धरहित प्रयोगों के ग्रहण में अनुबन्धसहितका ग्रहण नहीं होसकता अर्थात् जहां यत प्रत्यय डकार अनुबन्ध से रहित पढ़ा है और ड्यत् में डकारको इत्संज्ञा होकर यही रह जाता है जहां यत् और य प्रत्यय का ग्रहण किया है वहां ( ड्यत, ड्य ) प्रत्यय का ग्रहण न हो। और जिस अनुबन्धसे जो प्रत्ययपढ़ा है उस में द्वितीय अनुबन्ध के सहित प्रत्यय का ग्रहण न हो अर्थात् यत् कहनेसे ण्यत् अङ् कहने से च और अच् कहने से णच् का ग्रहण न हो इस से यह
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