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॥ पारिभाषिकः ॥
कि ( यतो वातदर्थे ) इस स्वर विधायक सूत्र में नत्र से परे ( य, यत् ) प्रत्ययान्त को अन्तोदात्त खर होता है सो जो ( यत्, व्य) का भी ग्रहण होवे ता ( वामदेव्यम् ) यहां भी अन्तोदात्त स्वर होजावे और पूर्वपदप्रकृतिस्वर इष्ट है इसलिये डित्ग्रहण का सार्थक होना स्वार्थ में चरितार्थ और अड़ के परजो गुणश्रादि कार्य कहा है सो चङ् के परे नहीं होता और चङ् के परे जोद्दित्वादि कार्य कहा है सो अङ् के पर नहीं होता इत्यादि अनेक प्रयोजन हैं ॥ ७० ॥०१॥
( एचः स्त्रियामञ् ) यहां णच् प्रत्ययान्त से स्वार्थ में अन् प्रत्ययकहा है सेा (कर्मव्यतिहारेणस्त्रियाम्) इस सूत्र से णच प्रत्यय का तो स्त्रीलिंगमें हो विधान है फिर स्वार्थ में णच् प्रत्ययान्त से अञ् कहने से स्त्रीलिंग हो हो जाता क्योंकि स्वार्थिक प्रत्ययों के होने में प्रकृति के लिङ्ग और वचन को अनुवृत्ति होती है फिर स्वीग्रहण व्यर्थ हुआ इसलिये यह परिभाषा है ।
७२ - कचित्स्वार्थिका अपि प्रकृतितो लिङ्गवचनान्यतिवर्त्तन्ते ॥
अ० ५ । ३ । ६८ ॥
कहीँ २ स्वार्थिक प्रत्यब भी प्रकृति के लिङ्ग वचनों को छोड़ देते हैं" जब प्रकृति के लिङ्ग वचन स्वार्थप्रत्ययोत्पत्ति में सर्वत्र नहीं बने रहते तो (चःस्त्रियामञ् ) सूत्र में स्त्रीग्रहण सार्थक हो गया । तथा ( अप्कल्पम् ) यहां नियत स्त्रीलिङ्ग बहुवचनान्त अप शब्द से कल्पप्प्रत्यय स्वार्थ में हुआ है सो अपने लिङ्ग वचन छोड़ के नपुंसकलिङ्ग एकवचन रह जाता है तथा (गुड़कल्पा द्राक्षा, पयस्कल्पा यवागूः) यहां गुड़पुलिङ्ग और पयः नपुंसकलिङ्ग से कल्पप् प्रत्यय होकर स्त्रीलिङ्ग हो जाता है । और कचित् कहने से यह प्रयोजन है कि (बहुगु• डो द्राक्षा, बहुपयो यवागूः ) इत्यादि में प्रकृति के अनुकूल हो लिङ्ग वचन रहते इत्यादि अनेक प्रयोजन हैं ॥ ७२ ॥
( प्रतेरंश्वादयस्तत्पुरुषे ) इस सूत्र के अंश्वादिगण में राजन् शब्द पढ़ा है तो उस का यही प्रयोजन है कि प्रति से परे तत्पुरुष समासमें राजन् शब्द अन्तोदात होजावे सो जब प्रतिपूर्वक राजन् शब्द से तत्पुरुष समास में समासान्तरच प्रत्यय प्राप्त है तब तो चित् होने से अन्तोदात्त हो ही जाता फिर राजन् शब्द का पाठ व्यर्थ हुआ इसलिये यह परिभाषा है ।
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