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पारिभाषिकः ।
कहते तो अनुनासिकान्त अकारोपध धातुओं के अभ्यास को दीर्घ का बाधक ( नुक ) आगम हो कर अजन्त के न रहने से दोव की प्राप्ति हो नहीं थी तो (यंबम्यते, रंरम्यते ) आदि प्रयोग सिद्ध हो हो जाते फिर अकित् ग्रहण व्यर्थ हो कर इस वक्ष्यमाण परिभाषा के निकलने में ज्ञापक है । ५७-अभ्यासविकारेष्वपवादा उत्पन्न बाधन्ते ॥१०७/४८३॥ ___ अभ्यास के आदेशविधानप्रकरण में अपवाद उत्सगों के बाधक नहीं होते तो जब दोघरूप उत्सर्ग का बाधक नुक, न रहा तो (यंयम्यते) आदि में दीर्घ को प्राप्ति हुई इसलिये अकित् ग्रहण सार्थक हुआ यह तो स्वार्थ में चरितार्थ और अन्यत्र फल यह है कि (डोढौकाते,तोत्रौक्यते) इत्यादि प्रयोग में उत्सगरूप हखका बाधक दीर्घ नहीं होता और जो इत्व का अपवाद होने से औकार को श्रीकार ही दौर्ष कर लेवें तो फिर हव होकर गुण न होवे तो ( डोढौक्यते ) आदि प्रयोग भी सिद्ध न हों इत्यादि इस परिभाषा के अनेक प्रयोजन हैं ॥ ५७॥
तकोलादि अर्थों में ( टन् प्रत्यय बुल का अपवाद है और ( गवुल ) तथा (न असरूप प्रत्यय भी हैं सो धावधिकार में असरूप प्रत्य य उ सर्ग का बाधक विकल्प करके होता है पक्ष में उत्सर्ग भी होजाता है अब ( निन्दहिं सक्लिश० ) इस सूत्र में (वुञ्) प्रत्यय का (टन) अपवाद क्यों पढ़ा क्योंकि टन के द्वितीय पक्ष में गवुल होकर (निन्दकः, हिंसकः) आदि प्रयोग बन ही जाते कि जो वुञ) प्रत्यय के होने से बनते हैं और (निन्दकः) आदि में (गत्रुल, वुञ ) का स्वर भी एक ही होता है एक (असूयक) शब्द के स्वर में तो (एवुल, वुञ) के होने से भेद पड़ेगा । ण्वुल का स्वर [ असूयकः ] वुञ का [ असू' यकः ] और [ निन्द'कः
आदि में आद्यदात्त हो रहेगा । फिर निन्द आदि धातुओं से वुविधान व्यर्थ हुआ इसलिये यह ज्ञापकसिद्ध परिभाषा है।
५८-ताच्छीलिकेषु सर्व एव तृजादयोवाऽसरूपेण न भवन्ति। अ० ३।२। १४६ ॥ वृचआदि अपवादों के साथ असरूप उत्सर्ग रूप प्रत्यय तकोलाधिकार विहित अपवादों के पक्ष में नहीं होते । इस से तकोलाधिकार वहित टन के पक्ष में जब एवुल नहीं होसकता तो निन्द आदि धातुओं से विधान सार्थक होगया और [ असूयकः ] में स्वर भेद होने के लिये [ वुत्र ] कहना आवश्यकही है। यादि .नेक प्रयोजन हैं । ५८ ॥
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