________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
॥ पारिभाषिक: । ५३-अनन्तरस्य विधिर्वा प्रतिषेधो वा ॥१०१ । १।४३॥
जिस में कुछ अन्तर न हो अर्थात् जो अत्यन्त समीप हो उस का विधि वा निषेध होता है दूरस्थ का नहीं। इससे सुट करके जो सर्वनामस्थानमंनाको प्राप्ति है उसो का निषेध करता है (शि) को सर्वनामस्थानसंज्ञा का निषेध नहीं इस से कु गड़ा ने आदि प्रयोग बन जाते हैं । और ( नेटि ) सूत्र में इडादि सिच के परे वृद्धि का निषेध होता है सोजोदूरस्थ वृद्धि का भी होतो अमाऊत, अलावीत, अपात्रौत् इत्यादि में भी हड का निषेध होना चाहिये इस परिभाषा से समीपस्थ हलन्तलक्षण वदि का निषेध हो जाता है सामान्य करके नहीं इत्यादि प्रयो. जन हैं। ५३ ॥
( ददति, दधति ) इत्यादि प्रयोगों में जो प्रत्ययादिझकार को अन्तरङ्ग होने से अन्तादेश प्रथम हो जाये तो अभ्यम्त संज्ञों से विहित प्रत्ययादि भकार को अत् आदेग व्यर्थ और अनिष्ट प्रयोग सिद्ध होने लगे इसलिये ये परिभाषा हैं ।
५४-नचापवादविषये उत्सोऽभिनिविशते ॥ ५५-पूर्व ह्यपवादा अभिनिविशन्ते पश्चादुत्साः ॥ ५६-प्रकल्प्य चापवादविषयमुत्सर्गः प्रवर्त्तते॥१०६७।५॥
ये तीनों परिभाषा उत्सर्गापवाद की व्यवस्था के लिये हैं अपवादविषय में उत्सर्ग को प्रहत्ति नहीं होती। प्रथम अपवादों को और पश्चात् शेषविषय में उत्सों को प्रहत्ति होती है । अपवाद के विषय को छोड़ के अपने विषय में उत्सर्ग प्रवृत्त होते हैं । इस से यह आया कि अभ्यस्त संज्ञक से प्राप्त जो प्रत्ययादि झकार को अत्, आदेश उस अपवाद के विषय में उत्सर्ग को प्रकृत्ति न होने से प्रघम अपवाद प्रवृत्त हुआ तो प्रत्ययादि झकार को अत् आदेश हो कर [ ददति, दधति] आदि प्रयोग सिद्ध हो गए । और जैसे अन्त आदेश का बाधक पचेयुः,अजागरुः] आदि प्रयोगों में झि को जुस होता है वैसे ऐप्सन् ] आदि प्रयोगों में उत्सर्ग का विषय है उस में झिको जुस नहीं होता । अर्थात् अपवाद के विषय में उत्सर्गको प्रहत्ति नहीं होती और उत्सग के विषय में अपवाद को प्रवृत्ति होहो जातीहै।५६॥
अब पूर्व परिभाषाओं से यह आया कि अपवाद विषय में उत्सगों कोप्रवृत्ति नहीं होती किन्तु स्वविषय में अपवाद उत्सर्ग का बाधक होताहै तो दोऽकितः दूस सुत्र में अकित् ग्रहण व्यर्थ होता है क्योंकि जो सामान्य से अभ्यास कोदोघ
For Private And Personal Use Only