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.॥ पारिभाषिकः ।
५१-पुरस्तादपवादा अनन्तरान् विधीन् बाधन्ते न परान्॥
प्र० ।।४।१ । ५५ ॥
जो पहिले अपवाद और पीछे उत्सर्ग पढ़ा हो तो वह अपने समीपस्थ कार्य का बाधक हो और परविधि अर्थात् जिस के साथ व्यवधानहै उस का बाधक नहीं होवे । इस से बच लक्ष ए से प्राप्त [डी] के निषेध का बाधक हुआ और सह, नज, विद्यमान पूर्वक नासिका से प्राप्त ङोष के निषेध का बाधक नहीं हुआ। स प्रकार सनासिका, अनासिका) आदि प्रयोग सिद्ध हो गये। इसी प्रकार अन्यत्र भी इसका विषय जानना । ५१ ॥
अब ( नासिकोदरौष्ठ ० ) इस सूत्र में जो भोष्ठ आदि पांच संयोगोपध शब्द हैं उन से निषेध भी प्राप्त है उस का बाधक पूर्व परिभाषा नहीं हो सकती क्योंकि ( नासिकोदर०) सूत्र से भी संयोगोपध का निषेध पूर्व है (नासिकादर ) सूत्र में नासिका और उदर शब्द तो सह आदि पूर्व होने से पर दोनों सूत्रों के अप. वाद हैं और प्रोष्ठ आदि शब्द सह आदि पूर्व हो तो ( सहनञ् ) इस पर सूत्र के और सामान्य उपपद में (स्वाङ्गाचोप०) इस पूर्व सूत्र के भी अपवाद हो। सो दोनों के अपवाद होने चाहिये या किसी एक के । इस सन्देह को निवृत्तिके लिये यह परिभाषा है।
५२-मध्येऽपवादाः पूर्वान् विधीन् बाध्यन्ते नोत्तरान् ॥ ०
४।१।५५॥ ___ जो पूर्व पर दोनों ओर उत्सर्ग और मध्य में अपवाद पढ़ा होतो वह अपने से पूर्व विधि का बाधक होता है उत्तर का नहीं इस से ( विम्बोठों, विम्बोष्ठा, दीर्घजडी, दोघंजवा) इत्यादि उदाहरणों में संयोगोपधलक्षण निषेध का बाधक होगया और (सदन्ता,अदन्ता, विद्यमानदन्ता) इत्यादि में परसूत्र से प्राप्त निषेध को बाधा नहीं हुई । इसी प्रकार सर्वत्र योजना करलेनी चाहिये । ५२ ॥
(सुडनपुंकस्य) इस सूत्र में सुट् को सर्वनामसंज्ञा का निषेध है सो कुण्डानि तिष्ठन्ति, वनानि तिष्ठन्ति) यहां भी जो नपुंसक के सुट को सर्वनामस्थानसंज्ञा का निषेध होजावे तो ( नुम् ) आदि होकर ( कुण्डानि ) आदि प्रयोग सिद्ध होते हैं सो न होसके इसलिये यह परिभाषा है।
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