________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
४४
पारिभाषिक: ॥
अंगाधिकार में अङ्ग को कार्य का विधान वा निषेध होता है इस घङ के परे कुत्व प्राप्त हो नहीं फिर निषेध क्यों किया इसलिये यह परिभाषा है । .८०-प्रतिग्रहणे ण्यधिकस्यापि कुत्वंभवति ॥ ५० ७॥५६॥
कृत्वप्रकरण में जहां मूलप्रकृति का ग्रहण है वहां णिच सहित प्रकृति का भी ग्रहण हो जावे । एप्त से चङ् के परे निषेध सार्थक होगया और अन्यत्र फल यह है कि ( प्रजिवाययिषति ) यहाँ णिजन्त हि धातु को सन् प्रत्यय के परे कुत्व हो जाता है इत्यादि प्रयोजन हैं। ८० ।
(ज्यादादीयसः) इस सूत्र में जो ज्य से परे ईयसन् प्रत्यय को आकारादेश न कहते तो भी लोप को अनुकृत्ति आकर पर के आदि ईकार का लोप होकर अक्कत् यकारादि प्रत्यय के परे ज्य को दोष हो के (ज्यायान) प्रयोग सिद्ध होही जावेगा फिर प्राकारादेश विधान व्यर्थ होने से यह परिभाषा है।
८१-अङ्ग वृत्ते पुनवृत्तावविधिः ॥ ०६।४ । १६० ॥
अंगाधिकार में कोई कार्य निष्पन्न हो गया होतो फिर दूसरे कार्य में प्रवृत्ति न होवे । इस से यह पाया कि अंगाधिकार के एक ईयसन्लोप कार्य होने में फिर द्वितीय कार्य दीर्घ नहीं हो सकता इसलिये पूर्वोक्त (ज्यादादीयसः) सूत्र में आकारादेश सार्थक हो गया तथा (रोड ऋतः ) यहाँ जो दीर्घ रोङ्न कहते तो भी (मात्रौयति) आदि में अक्कत् यकारादि प्रत्यय के परे दीर्घ हो जाता फिर दोघं रोङ् ग्रहण का यही प्रयोजन है कि रिङ् किये पोछे दीर्घ नहीं हो सका इसलिये दीर्घ रोङ पढ़ना चाहिये । इत्यादि अनेक प्रयोजन है ॥ ८१ ॥
(परमात्मामं नमस्करोति नमस्यति वा ) इत्यादि प्रयोगों में नमः शब्द के योग में चतुर्थी विभक्ति ( नमःस्वस्तिस्वाहास्वधाऽलंवषट्योगाच) इस सूच से होनी चाहिये सो इस समाधान के लिये यह परिभाषा है। ८२-उपपदविभक्तेः कारकविभक्तिर्बलीयसी ॥१०२३।१९॥
उपपदविभक्ति से कारकविभक्ति बलवान होतोहे। उपपदविभक्ति यह कहाती | है कि नहीं कर्मादि कारक व्यवस्था से किसी निज विभक्ति का नियम न किया | हो और जहां कर्मादि कारक व्यवस्था से नियत विभति होती है उस को कारक विभक्ति कहते हैं सो (परमात्मने नमः, गुरवे नमः) इत्यादि में तो उपपदविभक्ति चतुर्थी हो जाती और ( परमात्मानं नमस्करोति ) इत्यादि में उपपदविभक्ति
For Private And Personal Use Only