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॥ पारिभाषिकः । को बाध के कारकविभति हो जाती है । तथा (गाः स्वामी व्रजति) यहां स्वामी शब्द के योग में उपपद विभक्ति षष्ठी सप्तमौ (स्वामौखराधिपति. ) इस सूत्र से प्राप्त है परन्तु व्रजति क्रिया में गोत्रों को कर्मत्य होने से हितोयाविभक्ति हो जाती है । इत्यादि । ८२ ।। (मिमार्जिषति) यहां (मृज् सन् तिप्-) इस अवस्था में बरपेक्ष वृद्धि की अपेक्षा में अल्पापेक्ष अन्तरङ्ग होने से हित्व हो कर परत्व से अभ्यास कार्य होके (मिम. जसन् तिप्-८) यस अवस्था में कार ऋकार दोने को वृद्धि प्राप्त है सो जो अभ्यास कोभी वृद्धि होजाये तो इस्त्र का अपवाद होनेसे फिर इस्व नहीं होसकता तो (मिमाजिषति ) आदि प्रयोग भी सिद्ध नहीं हो सकते इसलिये यह परि०॥ ८३-अनन्त्यविकारेऽन्त्यसदेशस्य कार्यं भवति ॥०६।१।१३॥
नहां अनन्त्य और अन्त्य वर्ण के समीपस्थ दोनों वर्ण को जो कार्य प्राप्त हो वहां अन्त्य के समीपस्थ वर्ण का कार्य होना चाहिये और दूरस्थ व्यवहित पूर्ववर्ण को नहीं होवे एस से (मिमार्जिषति में अभ्यास का वृद्धि नहीं होती तथा (अहोऽ. वति, प्रदमुयङ्) यहां क्विप् प्रत्ययान्त अञ्जु धातु के परे अदम शब्द के टि भाग को अद्रि आदेश हो कर ( अदद्यङ्) इस अवस्था में ( अदसोऽसे दो मः) इस सत्र से दोनों दकाग से परे उ और दकारी को मकार प्राप्त है से इस परिभाषा से अन्त्य को होता है अनन्त्य पूर्व को नहीं इत्यादि अनेक प्रयोजन हैं।८३ ॥
देहि, धेहि ) इत्यादि प्रयोगों में जो अभ्यास कालोप होता है सो अलोन्त्यविधि मान के अन्त्य अल् का लोप होवे तो (देहि,धेहि) आदि प्रयोग सिध नहीं हो सके इसलिये यह परिभाषा है । ८४-नानर्थक लोन्त्यविधिरनभ्यासविकारे॥१०१।११६५॥
अनर्थक शब्द को कहा कार्य अन्त्य अल् को न हो परन्तु अभ्यास विकार को छोड़ के धातु को नो हित्व किया जाता है उस में एक भाग अनर्थक और दोनों भाग सार्थक होते हैं क्योंकि वहाँ शब्दाधिक्य होने से अर्थाधिक्य नहीं हो जाता इस से अनर्थक अभ्यास का लोप अन्त्य अल् को न हुआ तो ( देहि,धेहि ) आदि प्रयोग सिद्ध हो गये । तथा (अव्यक्तानुकरणस्यात इतौ) इस से अत् भाग को कहा पररूप इस परिभाषा के पाश्रय से अन्त्य पल को नहीं होता (घटत अतिघटिति, पटिति ) इत्यादि अनेक प्रयोजन है । ८४ ॥
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