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पारिभाषिकः ॥ सो जब शब्द के स्वरूप का ग्रहण होता है तो उक्त शब्दों को सर्वनाम और अव्ययसंज्ञा कैसे होगी और संज्ञा के बिना सर्वनाम और अव्यय के कार्य भी नहीं हो सकते सलिये यह परिभाषा हे।
७८-तदेकदेशभृतस्तद्ग्रहणेन गृह्यते ॥ १।१। ७२ ॥
कसो के एकदेश में कोई अन्य आजावे तो वह उसी के ग्रहण से ग्रहण किया नाता है इस से यहां सर्व आदि शब्दों के मध्य में अकच प्रत्यय आगया वह उसौ के ग्रहण से ग्रहण किया गया तो सर्वनामसंज्ञा हो गई। इसी प्रकार (उच्चकः)
आदि में अव्ययसंज्ञा होना जागो । तथा ( अहंपटामकि ) यहां अतिङ् से परे तिङ्पद अनुदात्त भी हो जाता है । इत्यादि अनेक प्रयोजन हैं ॥ ७८ ॥
( गातिस्थाधुपा० ) इस सूत्र में गाति निर्देश से तो अदादि के इण् धातु का ग्रहण होना ठीक है । परन्तु पा धातु के ग्रहण में संदेह है कि अलुक विकरण भ्वादि और लुकविकरण अदादि इन दोनों में से किस का ग्रहण किया जावे सो जो अदादि के पा धातु का भी ग्रहण हो तो ( अपासोद्धनम् ) यहां भी सिच का लुक् हो जाना चाहिये इसलिये यह परिभाषा है।
७९-लुग्विकरणालुम्विकरणयोरलुग्विकरणस्यैव ग्रहणम् ॥
प्र. ७।२।११॥ लुग्विकरण और अलुग्विकरण के ग्रहण में अहां संदेह पड़े वहां अलुग्विकरण का हो ग्रहण होना चाहिये इस से उक्त (गातिस्था०) सूत्र में (पा पाने) अलुग्विकरण धातु का ग्रहण हो जाता है । और लुग्विकरण (पारक्षणे) का ग्रहण नहीं होता। इस का ज्ञापक यह है कि ( स्वरतिसूतिसूयति ) इस सूत्र में ( सूति, सूयति) दोनेके स्थान में सूङ पढते तो उन्हीं दोनों का ग्रहण हो जाता क्योंकि ये हो दोने सूङ हैं तीसरा नहीं परन्तु मूति लुग्विकरण अदादि और सूयति अलुग्विकरण दिवादि का है। इससे यहीाया कि सामान्य सूङ के पढ़ने से अलुगविकरण सूयति का ग्रहण होता और सूति का नहीं होता इसलिये पृथक् २ दोनों का निर्देश किया गया है इत्यादि इसके अनेक प्रयोजन हैं ॥ ७ ॥
(हेरचडि ) पूस सूत्र में अभ्यास से परे हि धातु के हकार को कुत्व कहा है परन्तु वह कुत्व चङ् में न हो सो चङ् णिजन्त से होता है उस च के परे हि की अङ्गसंज्ञा ही नहीं किन्तु णिच् के सहित और खिच के परे हि को अगसंज्ञा है और
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