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सौवरः ॥
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६८--थाथवक्ताजबित्रकाणाम् ॥ १० ॥ ६ । २ । १४४ ।।
गति, कारक और उपपद से परे जो थ, अथ, घ, ता, अच,अप, इन और करतने प्रत्ययान्त शब्द उत्तरपद उन को अन्तोदात्तस्वरहा। जैसे । थ-मु. नोथः । अव भृथः । अथ- आ व सधः । उ प व सथः । धन । प्र मेदः । काठ. भेदः । र ज्य छदः । ता-दुरा दा गतः । वि शुष्कः । प्रा त प शुष्कः । अच्. प्र पयः । विनयः । विजयः । आश्रयः । व्य त्ययः । अन्वयः । इत्यादि । अप-प्र लवः । प्रसवः। इत्र-प्रसवित्रम् । प्रसवित्रम् ।क- गोदः । कम्बलदः ।
शंस्थः। ए हस्थः । वनस्थः । इत्यादि । अब इस के पागे अनुदात्त का प्रकरण संप से लिखते हैं। ६८ ।
६९--पदात् ॥ ३०॥८।१ । १७॥ यह अधिकार सूत्र है यहां से आगे पद से परे कार्य होगा ॥ ६ ॥
७०-पदस्य ॥ १०॥८।१।१६ ॥ यह भी अधिकार सूत्र है । यहां से आगे जो कार्य कहेंगे वह पदके स्थानमें समझा जावेगा ।। ७०॥
७१-अनुदात्तं सर्वमपादादौ ॥ १०॥ ८।१।१८॥
यह भी अधिकार सूत्र है । अपादादि अर्थात् जो पाद को आदि में न हो किन्तु मध्य वा अन्त में हो तो पद से परे सब पद अनुदात्त हो । यह अधिकार चोगा। ७१ ।।
७२- आमंत्रितस्य च ॥ १०॥८।। १९॥ नो पद से परे अपादादि में वर्तमान आमंत्रित पद हो तो वह सब अनु. दात्त हावे । जैसे-पठसि देवदत्त । होसि देवदत्त । आमंत्रित पद को पो. ता ( ५० ) सूत्र से प्रायुदात्त प्राप्त था इसलिये यह विधान है ॥ ७२ ॥ ७३-परिभाषा-मामंत्रितं पूर्वमविद्यमानवत्॥०॥८।१७२॥
पद से परे जिस पद को अनुदात्त आदि विधान करते हैं उस से पर्व जो आमंत्रित हो तो उस को अविद्यमानवत् समझना चाहिये । अर्थात् पर्व कुछ नहीं है ऐसा माना जावे जसे। देवदत्त यद त । यहां यजदत्त शब्द को पद से परे निघात नहीं हुआ । तथा । देवदत्त पचसि । यहाँ अविद्यमानवत् होने से क्रिया को निधात नहीं होता । तथा । देवदत्ततव या मरवम् । देव'दर मम ग्रामस्वम् । यहां पद से परे ते, मे, आदेश नहीं होते । इत्यादि ॥७३॥
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