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पारिभाषिकः ॥
(हि: पचन्तु ) शब्द के अनुकरण में भी अतिङ्से पर तिङ् पद मिघात होजाता है । ( अर्थवदधातुरप्रत्यय: ० ) इस सूत्र में धातु का पर्युदास प्रतिषेध मानें कि धातुसे अन्य धर्यवान् को प्रातिपदिकसंज्ञा हो इस से क्षि आदि धातुओं के अनुकरण को प्रकृतिवत् होने से स्वाश्रय कार्य मान कर प्रातिपदिकसंज्ञा होजातीहै फिर पंचमी विभक्ति के एकवचन में विधातु को (इयङ् ) आदेश नहीं प्राप्त है इसलिये धातु के अनुकरण को प्रकृतिवत् मान के ( इयङ्) आदेश भी होजाता है इस से (चियो दीर्घीत्, परौभुवोऽवज्ञाने, नेर्विशः) इत्यादि सब निर्देश ठोक बन जाते हैं ॥ २६ ॥
( भवतु, पचतु ) इत्यादि को पदसंज्ञा न होनी चाहिये क्योंकि तिङन्त की पदसंज्ञा कही है यहां तो तिप् के इकार को उकार हो जाने से तिङ् नहीं रहा इसलिये यह परिभाषा है ।
३७- एकदेशविकृतमनन्यवद्भवति ॥ अ० ४ । १ । ८३ ॥
जिस किसी का एक अवयव विपरीत हो जावे तो वह अन्य नहीं हो जाता किन्तु वही बना रहता है । इससे बूकार के स्थान में उकार हो जाने से भी पदसंज्ञा हो जाती है ( प्राग्दीव्यतोऽण् ) इस सूत्र से (दोव्यत् ) शब्दपर्यन्त ( अण् ) प्रत्यय का अधिकार करते हैं और दीव्यत्शब्द कहीं नहीं है किन्तु ( दोव्य सि) शब्द है इस का एकदेश इकार के जाने से ( दीव्यत्) रह जाता है इसी ज्ञापक से यह परिभाषा निकली है । लोक में भी किसी कुत्ते का कान वा पूंक काट लिया जावे तो उस को घोड़ा वा गधा नहीं कहते किन्तु कुत्ता हो कहते है इत्यादि अनेक प्रयोजन हैं ॥ ३७ ॥
( स्योन: ) यहां (सिवु ) धातु से उणादि ( न ) प्रत्यय के परे वकार को ( ऊठ् ) होकर वकार को स्थानिवत् मानने से धातु के बूकार को (लघूपधगुण) और उसी इकार का ( यणादेश ) दोनों प्राप्त हैं । इस में गुण पर और यणादेश ( अन्तरङ्ग ) है अब दोनों में से कौनसा कार्य होना चाहिये इसलिये यह परिभाषा है।
३८ - पूर्व पर नित्यान्तरङ्गाऽपवादानामुत्तरोत्तरं बलीयः ॥
पूर्व से पर, पर से नित्य, नित्यसे अन्तरङ्ग और अन्तरङ्ग से अपवाद ये सब पूर्व २ से उत्तर २ बलवान् होते हैं । यह परिभाषा महाभाष्य के अभिप्रायानुकूल है अर्थात् इसी प्रकार की कहीं नहीं लिखो । पूर्व से पर बलवान् होना यह विषय (विप्रतिषेव परं कार्यम् ) इसी सूत्र का है जैसे ( अत्रि ) इस शब्द से
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