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॥ पारिभाषिकः। (तिष्यपुनर्वस्वोनक्षत्रन्ह बहुवचनस्य हिवचनं नित्यम् )इस सूत्र में बहुवचनग्रहण न करते तो भी प्रयोजन सिद्ध हो जाता। क्योंकि एक (तिष्य ) और दो (पुनर्वस) इन तीन के होने से बहुवचन तो प्राप्त हो था फिर द्विवचन के कहने से उसी बहुवचन को प्राप्ति में द्विवचन हो जाता इस प्रकार बहुवचनग्रहण व्यर्थ हो कर ज्ञापक है कि (तिष्य,पुनर्वसु ) में कहीं एकवचन भी होता है वहां एकवचन को द्विवचन न हो इसलिये यह परिभाषा है।
३४-सा इन्हो विभाषैकवद्धवति ॥ अ० १।२।६३॥
दो वा अधिक किन्हीं शब्दों का इन्हसमास हो वह सब विकल्प करके एकवः | चन होता है। इस से तिष्य पुनर्वसु के एकवचनपक्ष में द्विवचन हो इसलिये बहुवचनस्थानी का ग्रहण है । तथा इसी परिभाषा से (घट पटम्, घटपटी, ईपलोमकूलम्, मायोत्तरपदव्यमुपदम् ) इत्यादि में भी एकवचन सिद्ध हो जाता है । समाहार इन्ध सर्वत्र एक ही वचन होता है । और यह परिभाषा इतरेतर. इन्हसमास मेंलगतौहै इसीसे इसके उदाहरण भोसब इतरेतरहन्द के दियेहैं॥३४॥
(व्यत्ययोबहुलम्) पूस से स्य आदि विकरणों का व्यत्यय होना सूत्रार्थ है तथा (षष्ठीयुताएछन्दसि वा) इस सूत्र से भी षष्ठीयुक्ता पति शब्द को घिसंज्ञा का वेद में विकल्प है इन दोनों में भाष्यकारने विभाग करके यह परिभाषा सिद्ध को है। ३५-वाच्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति ॥ १।४।९॥
वेद में सब कार्य विकल्प करके होते हैं जैसे (दक्षिणायाम) इस सप्तम्यन्त की प्राप्ति में (दक्षिणायाः ) ऐसा प्रयोग होता है। इत्यादि अनेकप्रयोजन हैं ॥३५॥
किसी विद्यार्थी ने अग्नी ) ऐसा द्विवचनान्त शब्द उच्चारण कियाजो उसका कोई अनुकरण करे कि ( अग्नी त्याह) तो यहां अनुकरण में साक्षात हिवचन के न होने से जो प्रग्यसंज्ञा न होवेतो इकार के साथ संधि होना चाहिये इसलिये यह परिभाषा है ।
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३६-प्रतिवदनुकरणं भवति ॥ ० ८।२।१६ ॥
नो अनुकरण किया जाता है वह प्रकृति के तुल्य होता है इस से ( अग्नी) दिवचनप्रकति के तुल्य अनुकरणको मानके प्रय घसंज्ञा होनेसे संधि नहीं होती। और एकवचन बहुवचन में तो संधि होता है(कुमायं तृतक वृत्याह)यहां (ऋतक) शब्द के अनुकरण (लतक) के परे भी यणादेश होता है (हिः पचन्वित्याह) यहां
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