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। पारिभाषिकः। ३१-ग्रहणवता प्रातिपदिकेन तदन्तविधिः प्रतिषिध्यते ॥ अ. ५।२।८७॥
प्रत्यय का ग्रहण करने वाले प्रातिपदिक से तदन्त विधि नहीं होता इसलिये (उत्तमनड़) और (परमगर्ग) आदि प्रातिपदिकों से (फक) और (यअ) आदि प्रत्यय नहीं होते और इस परिभाषा के निकलने का ज्ञापक ( पूर्वादिनिः, सपू. वोच्च ) ये दोनों सूत्र है क्योंकि जो पूर्व शब्द से विधान किया इनि प्रत्यय तदन्त से भी हो जाता तो द्वितीय सूत्र व्यर्थ हो नाता फिर व्यर्थ होकर यह ज्ञापक होता है कि यहां तदन्तविधि नहीं होता ॥ ३१ ॥
सूत्रान्त प्रातिपादिकों से (ठक) और दशान्त आदि प्रातिपदिकोंसे(ड) आदि प्रत्यय कहे हैं सो (३०) वीं परिभाषा से ( व्यपदेशिवगाव ) माम कर केवल सूत्र और दश आदि से ( ठक) तथा (ड) आदि प्रत्यय क्यों नहीं हो जाते इसलिये यह परिभाषा है।
३२-व्यपदेोशिवदभावोऽप्रातिपदिकेन ॥ ०१।१।७२॥
व्यपदेशियज्ञाव की प्रवत्ति प्रातिपदिकाधिकार को छोड़ के होती है । इसलिये केवल सूत्रादि शब्दोंसे ठक आदि प्रत्यय नहीं होते और इस परिभाषा का ज्ञापक भी ( पूर्वादिनिः,सपूर्वाञ्च ) ये दोनों सूत्र हैं क्योंकि जो यहाँ व्यपदेशिवशाव हो. तातो (पूर्वान्तादिनिः)ऐसा एक सूत्र कर देते तो सब काम सिद्ध हो जाता फिर पृथकर दो सूत्र करनेसे ज्ञात हुआ कि यहां व्यपदेशिवडाव नहीं होता ॥ ३२॥
अचि अनुधातु. ) यहां ( थियौ, भुवौ ) उदाहरणों में तो केवल (अच) के पर (इयडा, उवङ) होजाते हैं और ( श्रियः,भ्रवः ) यहाँ (श्यङ, उवाडा) न होने । चाहिये क्योंकि यहां केवल ( अच् ) परे नहीं है इसलिये यह परिभाषा है।
३३-यस्मिन् विधिस्तदादावलग्रहणे ॥१०१।१।७०॥ जिस प्रत्याहाररूप पर विशेषण के आश्रय से विधि हो वह जिस के आदि में हो उस के पर वह कार्य होना चाहिये इस से अजादि प्रत्यय के परे ( इयड उबङ) होते हैं तो (श्रियः, भ्रवः) यहां प्रजादि [जस्] में भी दोष नहीं आता। तथा अवश्यलाव्यम्, अवश्यपाव्यम् ] इत्यार में वान्तो यि प्रत्यये ] सूत्र से यकारादि प्रत्यय के परे वान्तादेश हो जाता है(इको झल) यहां भलादिसन लिया जाता है। इत्यादि इस परिभाषा के अनेक प्रयोजन ॥३३॥
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