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॥ पारिभाषिकः ।
९८-प्रतिषेधाश्च बलीयांसो भवन्ति ॥१०१।१।६३॥
पर, नित्य और अन्तरङ्ग से भी प्रतिषेध बलवान होते हैं इस से अन्तरङ्ग भी विकल्प को बाध के नित्य प्राप्त बूट का निषेध होजाता है इत्यादि प्रयोजन हैं । ८ ॥ __ (अइउण) आदि प्रत्याहार सूत्रों में जो (ए क्)आदि अनुबन्ध पढ़े हैं उनका अच के ग्रहण से ग्रहण किया जावे तो (दधि णकारीयति, जरीकरोति ) इत्यादि में णकार ककार के परे कार ईकार को यणादेश होना चाहिये इसलिये यह परिभाषा है। ९९-सर्वविधिभ्यो लोपविधिबलीयान् ॥
सब विधियों से लोपविधि बलवान होती है । इस से ण क ) श्रादि अनुबन्धी का प्रत्यहार को प्रवृत्ति से पहिले हो लोपहोजाता है फिर अचमें णकार ककार के म रहने से (दधि णकारीयति, ऊरीकरोति ) आदि में यणादेश नहीं होता। इत्यादि । और लोक में भी यही रोति है कि किसी का मृत्यु भानावे तो सब कामों का बाधक होनाता है । अर्थात् अदर्शन अग्रहण होता है ॥ ॥
( अर्थं प्रत्याययति स प्रत्य यः) जो अर्थ का निश्चय करावे वह प्रत्यय कहाता है इस अर्थ के न होने से केवल स्वार्थ में विहितों की प्रत्ययसंज्ञा नहीं होवे इस. लिये यह परिभाषा है । १००-अनिर्दिष्टार्थाश्च प्रत्ययाः स्वार्थे भवन्ति ॥ ३२॥४॥
जिन प्रत्ययों की उत्पत्ति में कोई विशेष अर्थ नियत न किया हो वे स्वार्थ में हो अर्थात् प्रवत्यर्थ के सहायक और बोधक रहैं । इसी से वे प्रत्यय कहावें जैसे (गुपतिजकिदभ्यः सन्, यावादिभ्यः कन्) इत्यादि प्रत्यय स्वार्थ में होते हैं(जुगमते, यावकः )इत्यादि ॥ १० ॥
(सुपिस्थः )इस सूत्र से कर्नामें प्रत्यय होते हैं इसलिये (आखनामुत्थानमा. खत्थः) इत्यादि प्रयोगों में भाव में क प्रत्यय नहीं हो सकता इसलिये यह परिभाषा है ॥ १०१-योगविभागादिष्टसिद्धिः ।।
नहीं इष्ट कार्य की सिद्धि न हो वहां योगविभाग करना चाहिये। और योग. विभाग कर के चूष्ट कार्य साधलेना अनिष्ट नहीं होने देना (सुपि) इतना पृथक सूत्र किया तो यह अर्थ हुआ कि सुबन्तउपपद होतो आकारान्त धातुसे कप्रत्यय हो स से ( कच्छेन पिबति कच्छपः, कटाहपः, हाभ्यां पिबति दिपः) इत्यादि प्रयोग सिद्ध हुये पौछ (स्थः)इतना पृथक किया तो यह अर्थ हुआ कि स्था धातु से सुबन्त उपपद होतो क प्रत्यय हो यहां योगविभाग करके कर्ता से हटाया तो स्वार्थ भाव में आखत्थ आदि प्रयोग सिद्ध होगये।इसीप्रकार सर्वत्र नानो॥१०१०
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