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॥ पारिभाषिक: ।
अब इस पूर्व परिभाषाके होने में यह दोष है कि ( अलगुत्तरपदे ) इस सब सूत्र का अधिकार चलता है उस में अलुक अधिकार तो आनङ विधान से पूर्व २ हो रहता है फिर उत्तर पदाधिकार पाद पर्यन्त क्यों जावे इसलिये यह परिभाषा है।
१८-एकयोगनिर्दिष्टानामप्येकदेशानुवत्तिर्भवति ॥ अ० ४।१।२७॥
एक सूत्र में पृथक पठित पदी में से भी कही एकदेश को अनुप्ति होती है इस से उत्तरपदाधिकार कापादपर्यन्त जाना सिद्ध हो गया। तथा ( दामहाय. नान्ताच्च ) यहां पूर्वसूत्र से संख्या को अनुहत्ति आती है और अव्यय को नहीं और ( पक्षात्तिः) इस सूत्र में पूर्व सूत्र से मूल शब्द को अनुत्ति आ जाती है पाक को नहीं आती इत्यादि ॥ १८ ॥
(आणदित्सवर्णस्य चाप्रत्ययः ) यहां प्रत्ययग्रहण से सवर्ण का निषेध किया है इस का यही प्रयोजन है कि (सनाशंसभिक्ष उ:) दयादि में उ आदिप्रत्यय अपने सवर्णोदी आदि के ग्राहक न हो सो जब स्त्री प्रत्यय को छोड़ के अन्यदीर्घ प्रत्यय से किसी अर्थ को प्रतीति ही नहीं होती तो दीर्घप्रत्यय नहीं होसकता इसलिये प्रत्ययग्रहण के व्यर्थ होने से यह ज्ञापक होता है कि इस सूत्र में यौगिक प्रत्यय का निषेध है ( प्रतीयते विधीयते भाव्यतेऽनेनाऽसौ प्रत्ययः, न प्रत्ययोऽप्रत्ययः) इसी व्याख्यान से यह परिभाषा निकली है।
१९-भाव्यमानेन सवर्णानां ग्रहणन्न ॥अ० १।१ । ६९ ॥
जो विधान किया जाता है उस से सवर्णी का ग्रहण नहीं होता जैसे ( त्यदा. टोनामः) यहां अकार का विधान किया है उस से दोघं सवर्णों का ग्रहण नहीं होता और(ज्यादादीयसः)यहाँ ईयरुन् प्रत्यय के ईकार को आकारादेश न कहते किन्तु अकार कहते तो सवर्ण ग्रहण से दोघ हो ही जाता फिर निश्चित हुआ कि यहां भी पूर्ववत् भाव्यमान अकार सवर्णग्राही नहीं हो सकता इसलिये दीर्घ कहा इत्यादि
यटि भाव्यमान से सवर्णी का ग्रहण नहीं होता तो (दिव रत,ऋत उत्)वून सूत्रों में भाव्यमान उकार को तपर करना व्यर्थ है । क्योंकि तपर करने का यही प्रयोजन है कि कार तत्काल का ग्राहक हो अपने सवर्णी का ग्रहण न करे फिर (अणुदित्०) परिभाषा से सवर्णग्रहण तो प्राप्त ही नहीं उकार तपरक्या पढ़ा इस | लिये यह परिभाषा है।
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