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। पारिभाषिकः । अर्थवान के ग्रहण में अनर्थक का ग्रहण नहीं होता यह कह चुके हैं सो ( राज्ञा) राजन शब्द में कनिन् प्रत्यय का अन् अथवान् है इसलिये अन्नन्त के अकार का लोपहोना ठीक है और ( साना ) यहां सामन् शब्द में मनिन् प्रत्यय का मन् अर्थवान् और अन् अनर्थक है इस समाधान के लिये यह परिभाषा है ।
१६-अनिनस्मन्ग्रहणान्यर्थवता चानर्थकेन च तदन्तविधि प्रयोजयन्ति ॥ ०१ । १।७२ ॥ ___ अन्,इन् ,अस्, मन ये जिन सूत्रामें ग्रहण हैं वहाँ अर्थवान् और अनर्थक दोनों से तदन्तविधि होता है । अन् में तो अर्थवान और अनर्थक दोनों के उदाहरण दे दिये । इन्दण्डौ) यहां इनि प्रत्यय के अर्थवान् वन्त को दीर्घ और वाग्मी) यहां अर्थवान् ( असन् ) प्रत्यय के अस् को दीर्घ और ( पीतवाः ) यहां पीत पूर्वक ( वस ) धातु से किप हुआ है सो वस में अनर्थक अस को दीर्घ होता है। मन् (सुष्टुशर्म यस्याः सा सुशम्मी) यहां ता अर्थवान् मन्वन्त से ङोप का निषेध है और( सप्रथिमा) यहां मनिच प्रत्यय का मन अयवान और मन भाग निरर्थक को भी डीप का निषेध होता ही है ॥ १६ ॥ ___ और भागे एक परिभाषा लिखेंगे कि समीपस्थ का विधान वा निषेध होताहै इस में यह दोष आता है कि जैसे (लिङ सिचावात्मनेपदेषु) इस सूत्र को अनुवृत्ति । उच्च ) इस में आती है । सो जो समीपस्थ के विधि निषेध का नियम है तो
आत्मनेपद को अनुवृत्ति पानी चाहिये क्योंकि आमनेपद को अपेक्षा में (लिङ, मिच दर हैं और (लिङ, सिच) को अनुवृत्ति के विना कार्यसिद्धि नहीं हो सकती इसलिये यह वक्ष्यमाण परिभाषा है। १७-एकयोगनिर्दिष्टानां सह वा प्रवृत्तिः सह वा निवृत्तिः ।।
नोक सत्र में निर्देश किये पद हैं उन को अन्य सूत्रों में एकसाथ प्रवृत्ति और एकसाथ नित्ति हो जाती है इस से ( उपच )सूत्र में लिङ सिच को भी अनुत्ति आ जाती है। इसी प्रकार अन्यत्र बहुत स्थलों के सूत्र वालिकों में यह रोति दीख पड़ती है कि जेसे कहीं दो पदों की अनुवृत्ति आती है उन में से जब एक को छोड़ना होता है तब द्वितीय पद को फिर के पढ़ते हैं तो यही प्रयोजन है कि उन दोनों पदों को अनुवत्ति एक साथ ही चलती है उस में से एक को छोड़ के दूसरे पद को अनुवृत्ति नहीं जा सकतौ ॥ १७॥ . .
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