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१०
॥ पारिभाषिकः
१३ - यत्रानेकविधमान्तर्य तत्र स्थानत एवान्तर्यं बलीयः ॥ अ०
१।१।५० ॥
जहाँ अनेक प्रकार का अर्थात् स्थानकत, अर्थकृत, गुणकृत और प्रमाणकत यह चार प्रकार का आन्तर्य प्राप्त हो वहां जो स्थान से आन्तर्य है वही बलवा होता है इस से प्रमाणक्कत आन्तर्य्यके हट जाने से स्थानकत आन्तर्य के आश्रय से एकार ओकार गुण होकर ( चेता, स्तोता ) प्रयोग बन जाते हैं स्थानकात आदिके . विशेष उदाहरण सन्धिविषय में लिख चुके हैं ॥ १३ ॥
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( संख्याया श्रतिदन्तया: कन् ) यहां ति और शत् जिस के अन्त में हो उस से कन् प्रत्यय का निषेध किया है । सो ( कतिभिः क्रीतम्, कतिकम् ) यहां भीत्यन्त से निषेध होना चाहिये और कन् प्रत्यय तो इष्ट हो है इसलिये यह परिभाषा है |
१४ - अर्थवद्ग्रहणे नानर्थकस्य ॥ श्र० ५ । १ । २२ ॥
अर्थवान् के ग्रहण होने में अनर्थक शब्दों का ग्रहण नहीं होता इससे अर्थवान् (ति) शब्द के ग्रहण में निरर्थक उतिप्रत्ययान्त के ति का ग्रहण नहीं होता इस से(कतिकम्)यहां कन् का निषेध नहीं हुआ । इसी प्रकार प्रशब्द से ऊढ़ के परे
कही है सो (X ऊढवान् = प्रोटवान् ) यहां जेढ़ शब्द निरर्थक है इसलिये afs नहीं होती इत्यादि अनेक प्रयोजन हैं ॥ ४ ॥
अव अर्थवदुग्रहणपरिभाषा के होने से भी ( श्रमहान् महान् संपत्री महद्भूतचन्द्रमाः ) इस प्रयोग में महत् शब्द का आकारादेश होना चाहिये और आत्वके होने से अनिष्टसिद्धि प्राप्त है इसलिये यह परिभाषा है ॥
१५ - गौमुख्ययोर्मुख्ये कार्य संप्रत्ययः ॥ अ० ६ । ३ । ४६ ॥
जो गुणों से प्राप्त होवे वह ( गौण और जो गुणी से प्राप्त होवे वह (मुख्य) कहाता है उस गौण से प्राप्त और मुख्य दोने। में एककाल में एककार्य प्राप्त होतो मुख्य में कार्य होवे और गौण में नहीं इससे (महदभूतश्चन्द्रमाः) यहां आकारादेश नहीं होता क्योंकि यहाँ महत् शब्द अभूततद्भाव अर्थ में मुख्य और चन्द्रमा के साथ समानाधिकरण में गौण विशेषण है इसी प्रकार ( अगोः, गौः संपद्यत, गोभवत् ) यहां प्रत्ययान्त गो शब्द निपातसंज्ञक है परन्तु मुख्य श्रोकारान्त निपात नहीं इसलिये (श्रत्) सूत्र से प्रगृह्यसंज्ञा नहीं होती इत्यादि अनेक प्रयोजन हैं ॥ १५ ॥
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