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॥ भूमिका॥
संज्ञापरिभाषाविधिनिषेधनियमातिदेशाधिकाराख्यानिसप्सविधानि सूत्राणि भवन्ति । सम्यग् जानीयुर्यया सा संज्ञा; यथा (वृद्धिरादेच ) इत्यादि । परितः सर्वतो भाष्यन्ते नियमा याभिस्ताःपारिभाषाः; यथा (इको गुणवृद्धी) इत्यादि । यो विधीयते स विधिविधानं वा; यथा (सिचि वृद्धिः परस्मैपदेषु) इत्यादि। निषिध्यन्ते निवार्यन्ते कार्याणि यैस्ते निषेधाः; यथा (न धातलोप आर्द्धधातु के)इत्यादि । नियम्यन्ते निश्चीयन्ते प्रयोगा यैस्ते नियमाः; यथा (अनुदात्तङित आत्मनेपदम्) इत्यादि । अतिदिश्यन्ते तुल्यतया विधीयन्ते कार्याणि यैस्तेऽतिदेशाः; यथा ( आद्यन्तवदेकस्मिन्) इत्यादि । अधिक्रियन्ते पदार्था यैस्तेऽधिकाराः; यथा ( कारके ) इत्यादि । एषां सप्तविधानां सूत्राणां मध्याद्यतोऽयं परिभाषाणां व्याख्यानो ग्रन्थोऽस्ति तस्मात्पारिभाषिको वेदितव्यः ॥
सूत्र सात प्रकार के होते हैं ( संज्ञा, परिभाषा, विधि, निषेध, अतिदेश, | अधिकार ) अच्छे प्रकार जिस से जानें वह संज्ञा कहाती है जैसे ( वृद्धिरादैच ) इत्यादि । निन से सब प्रकार नियमों को स्थिरता की जाय वे परिभाषा सूत्र कहाते हैं जैसे ( दूको गुणवृद्धी ) इत्यादि। जो विधान किया जाय बा जो विधान है वह विधि कहाता है जैसे (सिचि वृद्धिः परम्मैपदेषु ) इत्यादि । निषेध उस को कहते हैं कि जिस से कार्यों का निवारण किया जाय जैसे (न धातुलोप आईधातुके ) इत्यादि । नियम उनको कहते हैं कि जिन से प्रयोगों का निश्चय किया जाय जैसे ( अनुदात्तङित श्रात्मनेपदम् ) इत्यादि । जिस से किसी की तुल्यता लेकर कार्य कहें वह अतिदेश कहाता है जैसे ( आद्यन्तवदेकसिन ) वृत्यादि । और जिन से पदार्थों को विशेष अनुवृत्ति हो उन को अधिकार कहते हैं जैसे ( कारके ) इत्यादि । दून सात प्रकार के सूत्रों में से जिसलिये यह परिभाषाओं का व्याख्यानरूप ग्रन्थ है इसलिये इस का नाम पारिभाषिक रक्खा है
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