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भूमिका ॥
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इसी सूत्र की व्याख्या में महाभाष्यकार पतञ्जलिमुनि उणादिपाठ | की व्यवस्था बांधते हैं कि (बाहुलकम् ) उणादि पाठ में थोड़े से धातुओं से प्रत्यय विधान किया है तो बहुल के होने से वे प्रत्यय अन्य धातु
ओं से भी होते हैं । इसी प्रकार प्रत्यय भी थोड़े से संकेतमात्र पढ़े हैं। सत्प्रयोगों में देख के इन से अन्य भी नवीन प्रत्ययों की कल्पना कर लेनी चाहिये । जैसे ( ऋफिडः ) इस शब्द में ऋ धातु से पिड प्रत्यय समझा जाता है । इसी प्रकार अन्यत्र भी जानना चाहिये । तथा जितने शब्द उणादिगण से सिद्ध होते हैं उन में जितने कार्य सूत्रों से प्राप्त हैं वे सब नहीं होते यह भी बहुल ग्रहण का ही प्रताप है । इस में यदि कोई ऐसा प्रश्न करे कि उणादिपाठ में जितने धातुओं से जितने प्रत्यय विधान किये और शब्दों की सिद्धि में जितने कार्य सूत्रों से हो सकते हैं उन से अधिक वा न्यून क्यों होते हैं ? तो इस का उत्तर यह है कि (नैगम०) वैदिक शब्द और लौकिक सञ्ज्ञा शब्द से सब अच्छे प्रकार सिद्ध नहीं हो सकते । इस जिये पूर्वोक्त तीन प्रकार के कार्य उणादिगण में बहुल वचन से होते हैं इस बहुल के होने से अनेक प्रकार के सहस्रों शब्द सिद्ध होते हैं ॥ १ ॥
संज्ञा शब्द वे ही कहाते हैं जो किसी निज वाच्य के साथ सम्बन्ध रक्खें फिर उन की सिद्धि करने से क्या प्रयोजन है क्योक्ति वे संज्ञाशब्द जिस निज अर्थ के बोधक हैं उस का बोध तो प्रकृति प्रत्ययार्थ सम्बन्ध के बिना भी कराते ही हैं वही पश्चात् होगा इस लिये (नाम च0) इस विषय में निरुक्तकारों और वैयाकरणों में शाकटायन ऋषि का ऐसा मत है कि सब संज्ञा ( रूढि ) शब्द प्रति प्रत्ययार्थ के सम्बन्ध से यौगिक तथा योगरूडता से अर्थों के बोधक होते हैं। इन से भिन्न अन्य ऋषियों के
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