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भूमिका ॥
मतानुसार सब संज्ञा शब्द रूढ अर्थात् अत्युत्पन्न होते हैं । अब जहां शब्दों में प्रकृतिप्रत्यय कुछ भी नहीं जान पड़ता वहां ( प्रत्ययत: ० ) यदि प्रत्यय जान पड़े तो धातु की कल्पना और धातु जान पड़े तो नवीन प्रत्यय की कल्पना कर लेनी चाहिये । इस प्रकार उन शब्दों का अर्थज्ञान कर लेना चाहिये ॥ २ ॥ संज्ञा शब्दों में धातुओं का रूप पूर्व भाग में और शब्द के पर भाग में धातु से परे प्रत्यय की कल्पना करनी चाहिये । और जिस शब्द में जिस अनुबन्धका कार्य्य दीख पड़े वैसे ही सानुबन्धक धातु वा प्रत्ययों की ऊहा करनी चाहिये । अर्थात् आत्मनेपद दीख पड़े तो अनुदातेत् वा ङित् धातु जानना और जो आयुदात्त स्वर हो तो जित वा नित् प्रत्यय की कल्पना करनी चाहिये । यह कल्पना सर्वत्र नहीं करनी किन्तु वैदिक वा लौकिक सत्प्रयुक्त शब्दों के अर्थ जानने के लिये शब्दों के पूर्व भाग में धात्वर्थ की और पर भाग में प्रत्ययार्थ की कल्पना करनी चाहिये । यह सब सम्बन्ध ऋषि लोगों ने इस लिये बांधा है कि अथाह शब्दों के सागर की थाह व्याकरण से भी नहीं मिल सकती । जो कहें कि ऐसा व्याकरण क्यों नहीं बनाया कि जिस से शब्दसागर के पार पहुंच जाते तो यह समझना चाहिये कि कितने ही पोथा बनाते और जन्मजन्मान्तरों भर पढ़ते तो भी पार होना दुर्लभ ही था इस लिये यह पूर्वोक्त व्याकरण से सब प्रबन्ध जताया है || ३ || उणादिगण में कारक व्यवस्था का यह नियम है कि
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दागोनौ संप्रदाने ॥ अ० || ३ | ४ | ७३ ॥
यह सूत्र सामान्य कृदन्त का नियामक है कि दाश और गोधन शब्द औणादिक हो वा अष्टाध्यायी से सिद्ध हों परन्तु प्रत्यय संप्रदान कारक में ही हों । इस नियम से ये दो ही शब्द संप्रदान में होते हैं अन्य नहीं ॥