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भूमिका ॥ भीमादयोऽपादाने ॥ अ० ॥ ३।४ । ७४ ।।
भीमादि शब्दों में अपादानकारक में ही प्रत्यय होते हैं । भीमादि शब्द औणादिक हैं जैसे-भीमः । भीष्मः । भयानकः । वरुः । चरुः । भूमिः । रजः । संस्कारः । संक्रन्दनः । प्रतपनः । समुद्रः । मुचः । सक। खलतिः । इति भीमादि गणः ॥
ताभ्यामन्यत्रोणादयः ॥ अ० ॥ ३।४ । ७५॥
उन संप्रदान और अपादान दोनों कारकों से भिन्न अन्य कारकों में उणादि प्रत्यय होते हैं । व्युत्पन्न पक्ष में उणादि प्रत्ययान्त शब्दों के यौगिक होने से प्रत्ययों को कृतसंज्ञक मान के कर्ता में प्राप्त हैं इस लिये यह कारकनियम है । और भाव में भी उणादि प्रत्यय होते हैं। संप्रदान और अपादान को छोड़ के अन्य कारकों में तो उणादि प्रत्ययों का यथेष्ट विधान है परन्तु बहुलवचन से कहीं संप्रदान में भी कोई प्रत्यय कर दिये हों तो चिन्ता नहीं । इस उणादिगण की एक वृत्ति छपी भी है परन्तु वही पोपलीला आदि का जगड्वाल बहुत और प्रयोजन थोड़ा सिद्ध होता है । इस लिये यह कोष बनाना पड़ा। इस ग्रंथ में सूत्रों का पाठ तथा अर्थ बहुधा सुगम है इसी लिये प्रति सूत्र का अर्थ वृत्ति में नहीं किया और जहां कुछ कठिन जान पड़ा वहां खोल दिया है। अनुवृत्ति भी बहुधा जनादी है । इस का मूल ऊपर २ पथक् इस लिये छप वाण है कि अध्येता लोगों को पाठ करने और घोषण से कण्ठस्थ करने में सुगमता रहेगी। जो अंक मूत्र के अन्त में लिखा है वही नीचे वृत्ति के आदि में डाल दिया है। इस से बड़ी सगमता होगी। इस में विशेष करके लौकिक शब्द और सामान्य से वैदिक लौकिक दोनों ही सिद्ध किये हैं। निघण्टु में जितने वैदिक शब्द हैं उन में से बहुतों का निर्वचन वृत्ति में मिले गा । सो दोनों की
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