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॥ पारिभाषिकः ॥
८८-सामान्यातिदेशे विशेषानतिदेशः ॥
जहां सामान्य और विशेष दोनेका अतिदेश प्राप्तहो वहां विशेषका अतिदेश नहीं होता । इस से सामान्यभूत के अतिदेश में विशेषभूत में विहित लङ् लिट का अतिदेश नहीं होता इत्यादि । ८८ ॥
( सनाशंसभिक्ष उ: ) इस सूत्र में सन् धातु वा सन् प्रत्यय का ग्रहण होना चाहिये इस सन्देह को निवृत्ति के लिये यह परिभाषा है।
८९-प्रत्ययाप्रत्यययोः प्रत्ययस्यैव ग्रहणम् ॥१०६।४।१।।
जहां प्रत्यय और अप्रत्यय दोनों का एकस्वरूप होने से ग्रहण हो सकता हो । वहां प्रत्यय हो का ग्रहण हो अप्रयत्य का नहीं। इसलिये सन् धातु का ग्रहण | नहीं होता किन्तु सन् प्रत्ययान्त से उ प्रत्यय होता है तथा(चिचौषति,तुष्टषति) यहां सन् के परे अजन्त को दीर्घ होता है सो (दधि सनाति, मधु सनाति) यहाँ सन् धातु के परे दीर्घ नहीं होवे । इत्यादि अनेक प्रयोजन है।८en
(विपराभ्यां जः) इस सूत्र में वि परा पूर्वक जि धातु से प्रात्मनेपद कहा है सो (परा जयति सेना) यहां सेना शब्द के विशेषण परा शब्द से परे भी आत्मने पद होना चाहिये इस संदेह की निवृत्ति के लिये यह परिभाषा है। ९०-सहचरितासहचरितयोः सहचरितस्यैव ग्रहणम् ॥
सहचारी और असहचारी दोनों का जहां ग्रहण होसकताहो वहाँ सहचारी काही ग्रहण हो । और असहचारी का नहीं (विजयते,पराजयते) यहां आत्मनेपद होगया और (बहुविजयति वनम्, पराजयति सेना) यहां न हुआ। क्योंकि जहां वि, परा, केवल उपसर्ग हैं वहां हो। यहां बहुवि वन का और परा, सेना का विशेषण अर्थात् दोनों अनुपसर्ग हैं वहां आमनेपद नहीं होता । वन और सेना के विशेषण में वि और परा शब्द उपसर्ग के सहचारी नहीं है इस कारण वहां आत्मनेपद नहीं हुआ तथा ( पंचम्यपाङपरिभिः) यहां कर्मप्रवचनीय अष आङ और परि के योग में पंचमी विभक्ति होती है सो धर्जनाथ अप शब्द के साहचर्य से (हक्षं परि विद्योतते विद्युत् ) यहाँ लक्षण अर्थ में पंचमौ विभक्ति नहीं होती। दूत्यादि अनेक प्रयोजन हैं ॥२०॥
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