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॥ पारिभाषिकः ॥
८७ - व्यवस्थितविभाषयाऽपि कार्याणि क्रियन्ते ॥
व्यवस्थित विभाषा से भी कार्य किये जाते हैं । व्यवस्थित विभाषा उस को कहते हैं कि जिस कार्य का विकल्प किया हो वही कार्य किसी नियतार्थवाचक शिष्टप्रयुक्त शब्द में नित्य हो जाये और किसी में होही नहीं और जहां सब प्रयेागों में उस कार्य का होना न होना दोनों भेद रहें तो उस को अव्यवस्थित . विभाषा कहते हैं इस से कण्ठवाची गल शब्द में नित्य लत्व हो जाता है इस के उदाहरणों की कारिका महाभाष्य की यह है कि:
देवत्रातो गलो ग्राह इतियोगे च सद्दिधिः ।
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मिथस्ते न विभाष्यन्ते गवाक्षः संशितवतः ॥ १ ॥
(देवयास त्रातो देवत्रातः) यहाँ संज्ञावाचक त्रात शब्द में ( नुदविदोन्दत्रा० ) इस मूत्र से निष्ठा के सकार को नकार नित्य हो नहीं होता और क्रियावाचक में तो ( त्राणम्, वातम् ) दोने होते हैं । गल शब्द का लिख दिया । सामान्य यौगिकवाची (गरः, गलः) दोनों हो होते हैं (विभाषा ग्रहः) इस सूत्र में ग्रह धातु से ण प्रत्यय होकर ( ग्राह: ) प्रयोग बनता है से। यह जलजन्तु को संज्ञा है इस में नित्य ण हो जाता है । और जहां नक्षत्र आदि लोकवाची में ग्रह शब्द अच् प्रत्ययान्त होगा वहां ण नहीं होता तथा (इति) शब्द के योग में संकट, सत् शानच् ) प्रत्यय विकल्प से प्राप्त भी हैं जैसे ( हन्तीति पलायते, वर्षतीति धावति ) यह प्रथमासमानाधिकरण में व्यवस्थितविभाषा मान कर नित्य नहीं होते ( गवाक्षः) यह झरोखा की संज्ञा है यहां गो शब्द को अवङ् आदेश विकल्प से प्राप्त है सो नित्यही हो जाता है । और जहां गौ के अक्ष नेत्र का नाम होगा वहां (गवाक्षम्, गोअक्षम्' गोऽचम् ) ये तीन प्रयोग होजायेंगे और ( संशितव्रतः ) यहाँ (शाकोरन्यतरस्याम् ) इस सूत्र से तादि कित् के परे शो धातु का विकल्प से प्रांत कारादेश निव्य होता है इत्यादि अनेक प्रयोजन हैं ॥ ८७ ॥
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( श्राशंसायां भूतवच्च) इस सूत्र में प्रिय पदार्थ को इच्छा संबन्धो भविष्यत् काल में भूतवत् और वर्तमानवत् प्रत्यय कहे हैं अर्थात् भूतकालिक जिस अर्थ में प्रति से जो प्रत्यय कहा है वह प्रत्यय उसी अर्थ में उसी प्रकृति से होना चाहिये सेा सामान्यभूत में निष्ठा और लुङ् आदि होते हैं और अनद्यतनभूत में लङ् तथा परोक्षानद्यतनभूत में लिट् होता है इस में यह सन्देह है कि भूतवत् कहने से सामान्यभूतकालिक प्रत्ययों का अतिदेश होवे वा सामान्य विशेष दोनों का । इसलिये यह परिभाषा है ॥