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-१८
सौवरः ॥ दात्तस्वर हो जाता है जैसे । अग्ने । वायो । इन्द्र' । देवदत्त । देवदत्ती । देवदत्ताः। धनञ्जय । इत्यादि ॥ ५० ॥
__५१--यतोऽनावः ॥ अ० ॥६।१ । २१३ ॥
दो स्वर पाले यत् प्रत्ययान्त शब्दों को श्राद्युदात्तखर हो परन्तु नौ शब्द को छोड़ के । जैसे । देयम् । धेयम् । चेयम् । जेयम् । शरीरावयवाद्यत् । कण्ठयम्। ओष्ठ्यम् । अयम् । जिहव्यम् । इत्यादि (तित्वरितम्) इस पूर्व लिखितसूत्र से दव्यच् प्रातिपदिकों को भी स्वरित पाता से उस का अपवाद यह सूत्र है । व्यच ग्रहण इसलिये है कि । उ रस्यम् । ल लाव्यम् । ना सिक्यम् । यहाँ प्राद्युदात्त न हो।नो शब्द का निषेध इसलिये है कि। नाव्यम् । यहां भी पायुदात्त महो ॥५१॥
५२-समासस्य ॥ १०॥ ६ । १ । २२३ ॥ समास किये शब्दमात्र को अन्तोदात्तस्वर हो । अब समास के स्वर का थोड़ासा विषय लिखा जाता है। समास के स्वर का सामान्य मूत्र यह है। और यह सब समास के स्वर का उत्सर्ग सूत्र है आगे सब प्रकरण इसका अपवाद है । राज पुरुषः । ब्रा र ण क म्बलः । न दो घोषः । प ट ह शब्दः । वीर पुरुषः । प र मेश्वरः । इत्यादि ॥ ५२॥
५३-परिभा०-स्वरविधौ व्यंजनमविद्यमानवत् ।। उदात्तादि वर्ग के विधान में व्यंजनवणों को अविद्यमानवत् समझना चाहिये। जैसे । रा ज दृषत् । ब्राह्मण ममित् । यहां समासान्त हल वर्ण के होने से उस हल को उदात्त प्राप्त है उस का अविद्यमानवत् मान के उस से पूर्ववर्ण को उदात्त होजाता है। इसी प्रकार और भी बहुत से प्रयोजन हैं । अब समासस्वर का विशेष नियम कुछ लिखते हैं । ५३ ॥ ५४--बहुव्रीहौ प्रकृत्या पूर्वपदम् ॥ अ०॥ ६ । २।१॥
जो बहुव्रीहि समास में पूर्व पद का स्वर हो वह प्रकृति करके अर्थात् अन्तोदात्त नहो ज्यों का त्यों बना रहे । जेसे । स्थल'षती । हिरण्य बाहुः । ब्रह्मपारिप रिस्कन्दः । स्नातकपुत्रः । पण्डितपुत्रः । अध्यापकपुत्रः । इत्यादि ॥५४॥
५५--तत्पुरुषे तुल्यार्थतृतीयासप्तम्युपमानाव्यय-.
हितीयाकृत्याः ॥ अ०॥ ६ । २।२॥ तस्परुष समास में जो तुल्यार्थ, टतोयान्स, सप्तम्यन्त, उपमानवाचौ, अव्यय, हितीयान्त और अत्यप्रत्ययान्त पूर्वपद हो तो उस में प्रतिवर हो। जैसे।
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