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॥ पारिभाषिकः
इस सूत्र का यही प्रयोजन है कि ( त्वामिच्छति, त्वद्यति, मद्यति, तव पुत्रस्त्वत्पुत्रः, मत्पुत्रः स्वं नाथोस्य त्वन्नाथः, मन्नाथः) इत्यादि प्रयोगों में (युष्मद, अस्मद) शब्दों को (त्व,म) आदेश होनावे ( त्वं नाथोऽस्य) इस अवस्था में मध्यवर्त्तिनो विभक्ति का लुक् (त्व, म) आदेश होने के पहिले और पीछे भी प्राप्त होने से नित्य और ( त्वम) आदेश अन्तरङ्ग है नित्य से अंतरङ्गबलवान् होता है यह तो कह चुके हैं । सेा जो अन्तरङ्ग होने से (त्व, म ) आदेश पहिले हो जायें तो इस सूत्रका कुछ प्रयोजन न रहे क्योंकि वर्तमान विभक्ति के परे ( त्वमावेकवचने ) सूत्र से (त्व, म) होहो जावेंगे फिर व्यर्थ हो कर यह ज्ञापक हुआ कि अन्तरङ्ग विधियों का भी बहिरङ्ग लुक बाधक होता है फिर जब बहिरङ्ग लुक् पहिले हुआ तो सूत्र सार्थक रहा और इसी ज्ञापक से यह परिभाषा निकली ॥ ४६ ॥
( पूर्वेषुका मशम: ) यहां ( पूर्वेषुकामशमी ) शब्द से सहित ( अ ) प्रत्यय होता है ( पूर्व काम ममी X ) इस अवस्था में जो तद्धित प्रत्ययाश्रित बहिरङ्ग उत्तरपदवृद्धि से अन्तरङ्ग होने के कारण कार इकार का गुण एकारादेश पहिले हो जावे तो पूर्वोत्तरपद के पृथक २ न रहने और उभयाश्रय कार्य में अन्ताविज्ञान के निषेध होने से ( दिशोऽमद्राणाम् ० ) इस सूत्र से उभ यपद वृद्धि नहीं हो सकतो इत्यादि दोषों को निवृत्ति के लिये यह परिभाषा है 89-पूर्वोत्तरपदयोस्तावत्कार्यं भवति नैकादेशः ॥ श्र० १ | ४|२॥
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पूर्वी र पदनिमित्तकार्य से अन्तरङ्ग भी एकादेश पहिले नहीं होता किन्तु पूर्वोत्तरपदनिमित्त कार्य अन्तरङ्ग एकादेश से पहिले हो जाता है इस से ( पूर्वेषुकामशम: ) यहां अन्तरङ्ग मान कर प्रथम गुण एकादेश नहीं होता किन्तु पहिले उत्तरपद को वृद्धि होकर वृद्धि एकादेश हो जाता है । यह भी परि भाषा (४५) वीं परिभाषा को सहचारिणी है । इस का आापक यह है कि ( नेन्द्रस्य परस्य ) इस सूत्र में उत्तरपदवृद्धिका निषेध है कि उत्तरपद में इन्द्र शब्द को वृद्धि न हो जिस से ( सौमेन्द्र : ) प्रयोग सिद्ध होजावे । सेा जो साम के साथ इन्द्र का एकादेश अन्तरङ्ग होने से पहिले होजावे तो इन्द्र शब्द का बूकार तो एकादेश में गया अन्त्य का अच् तद्धित प्रत्यय के परे लोप में गया फिर जब उत्तरपद इन्द्र शब्द में कोई अच् हो नहीं तो वृद्धि का निषेध क्यों किया इस से व्यर्थ हो कर यह ज्ञापक हुआ कि अन्तरङ्ग भी एकादेश पूर्वोत्तरपद कार्य के पहिजे नहीं होता किन्तु अन्तरङ्गका बाधक उत्तरपदवृषि पहिले होतौ ६ इसलिये उत्तरपद में इन्द्र शब्द का वृद्धि का निषेत्र किया है ॥ ४७ ॥
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