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सौवरः ॥ ते, मे, प्रादेश हो और वे सब अनुदात्त हों जैसे। गुरुस्ते' पण्डितः । गुरुमें'पfण्डतः । देहि मे ददामि ते । इत्यादि । ७८ ॥
७९--वामौ द्वितीयायाः ॥ अ०॥८।१ । २३ ॥ पद से परे अपादादि में वर्तमान हितीयेकवचनान्त जो युष्मद् अस्मद् पद उन को त्वा,मा, आदेश हो और वे सब प्रायुदात्त हो । जैसे । कस्त्वा युन ति स वा युनक्ति । पुनन्तु मा । इत्यादि ॥ ७ ॥
८०-तिङतिङः ॥ १०॥ ८।१।२८ ॥ जो अपादादि में प्रतिङन्त पद से परे तिङन्त पद होतो वह सब अनुदात्त हो जावे जैसे । त्वं पंचसि । अहं पठामि । स गति । तौ गलतः । इत्यादि । यहां तिङ ग्रहण इसलिये है कि । शुक्ल वस्त्रम् । यहां नहीं होता। अतिङ्ग्रहण इसलिये है कि । पठति । पचंति । यहां न हो। ८०॥
८१-यावद्यथाभ्याम् ॥ अ०॥८।१ । ३६ ॥ जो यावत् और यथा से युक्त तिङन्त पद हो तो वह अनुदात्त न हो । या. वटु भुङ त । यथा भुक्त। याव दधीते । यथाऽधीते । दे व दत्तः पति यावत् । दे व दत्तः पचति यथा । इत्यादि । ८१ ॥
८२-यत्तान्नित्यम् ॥ प्र०॥८।१।६६ ॥ जो यत् शब्द के प्रयोग से युक्त तिङन्त पद होतो वह अनुदात्त न हो । जैसे यो मुखौ । यं भोजयति । ये न भुत । इत्यादि ॥ २ ॥
___८३-गतिर्गतौ ॥ अ०॥८।१।७० ॥ जो गति से परे पूर्व गति हो तो वह निवात हो जाती है जैसे । अभ्युचरति । स मदानयति। उ प सं व्यान यति । उ पसंहरति । अभ्यवहरति । इत्यादि । ८३॥ ८४-उदात्तस्वरितयोर्यणः स्वरितोनुदात्तस्य ।। म०॥ ८॥२॥४॥
जो उदात्त और स्वरित के स्थान में यण उस से परे अनुदात्त हो तो उस को स्वरित हो जावे जसे। सुप्वा । यहां सुपू शब्द अन्तोदात्त और विभक्ति अनुदात्त है उस को स्वरित हो जाता है। नीचे नो- यह वक्र चिन्ह होता है वह भी स्व. रित हो का चिन्ह है । इसी प्रकार । पृथिव्यसि । यहां पृथिवी शब्द अन्तोदात्त है । उस से परे प्रकार अनुदास को स्वरित हो जाता है । स्वरित यण -सवाल वि.
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