Book Title: Suyagadanga Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: पावयण णिग्गंथ सच्च-5 जो उवाण अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ जोधपुर राणायरं वद जइ सयय श्री अ.भा.सुधा पयंतं संघ । सस्कृति रक्षाकस HA क संघ अ समजन संस्का शाखा कार्यालय सुधर्म जैन संस्कृति लाय सुधर्म जनेहरू गेट बाहर, ब्यावर (राजस्थान)संस्कृति रखाका भारतीय सुधर्म जैन। संस्कृति रक्षक संघ खिल भारतीय संघर्म जळ: (01462) 251216, 257699,250328 संस्कृति रक्षक संघ में अखिल भारतीय सधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिलभारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल संघ अनि अखिल भार क संघ अ OPINESCORRE ARCOANCY XXCOCKXXSKODXOXOXOXमखिल भारत कसंघ अनि yoo o o/GSTLIआखलभारत कसंघ अट जलस्तवकासचआखलनारलायसुधore अखिल भारत कसंघ अनि जनसंस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्मजनसंख्य अखिल भारत कसंघ सकळ जेन संस्कृति रक्षक संघ अभिभारतीय सुधर्म जैन संख अखिल भारत कसंघ जिन संस्कति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्मजन संस्कति अखिल भारत T4 अखिल भारत संघ अनि अखिल भारत TANI सुध अखिलभारत कसंघ अनि स सस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्मजन अखिल भारत कसंघ. अनि यसुसंस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जै अ खिल भार कसंच अनि तीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति अखिल भारत कसंघ अध यसघन जनसंस्कतिक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कतिखOXखिल भारत कसंघ अध TAWीय संघर्म जैन संस्कृ त भारतधर्म जैन सस्कृतिसमखिल भारत कसंघ अहि यीय सधर्म जैन संस्कार भारतधर्म जैन संस्कृति अखिल भारत Aयायधर्मजन संस्कृति भारतीय धर्म जैन संस्कृलिखाअखिल भारत अ यसुधर्म जैन संस्कृति रक्षक सघ अखिलभारतीयसुधर्म जैन संस्कृति अखिल भारत संघ अ यसुधर्मजन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जेलसंस्कृति अखिलभारत कसंघ अखिल भारत कसंघ अनि अखिल भारत क संघ अनि निरक्षक संघ अखिलभारतीय सुधर्मजनास अखिल भारत कसंघ र Connocop0000 0000 अखिल भारत कसंघ अनि अखिल भारत कसंघ अपि CoG COGNअखिल भारत कसंघ अखिल भारतीय सुधर्मजैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्मजैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारत कसंघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारत कसंघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षआवरण सौजन्य तीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारत कसंघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक यसुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारत कसंघ अखिल भारतीय रक्षक संघ अखिल भारत क संघ अखिल भारतीय । रक्षक संघ अखिल भारत क संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ ओखल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारत क संघ अधिवाभाटलतिय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक उंच अखिलभारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक सामाखिल भारत क संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारत (शुद्ध मूल पाठ, कठिन शब्दार्थ, भावार्थ एवं विवेचन सहित) ACar Code विद्या बाल मंडली सोसायटी, मेरठ सकस Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ साहित्य रत्न माला का ८९ वा रत्न - - - - - - - - सूयगडांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) (शुद्ध मूल पाठ, कठिन शब्दार्थ, भावार्थ एवं विवेचन सहित) नेमीचन्द बांठिया पारसमल चण्डालिया -प्रकाशकश्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, जोधपुर शाखा-नेहरू गेट बाहर, ब्यावर-३०५९०१ & (०१४६२) २५१२१६, २५७६६९ फेक्स नं. २५०३२८ For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामपामारहराtitildhulitishnilivnitiinternatility द्रव्य सहायक उदारमना श्रीमान् सेठ जशवंतलाल भाई शाह, मुम्बई प्राप्ति स्थान १. श्री अ. भा. सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, सिटी पुलिस, जोधपुर 0 2626145. २. शाखा-अ. भा. सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, नेहरू गेट बाहर, ब्यावर 2251216 ३. महाराष्ट्र शाखा-माणके कंपाउंड, दूसरी मंजिल आंबेडकर पुतले के बाजू में, मनमाड़ ४. श्री जशवन्तभाई शाह एदुन बिल्डिंग पहली धोबी तलावलेन पो० बॉ० नं० 2217, बम्बई-2 ५. श्रीमान् हस्तीमल जी किशनलालजी जैन प्रीतम हाऊ० कॉ० सोसा० ब्लॉक नं० १० । स्टेट बैंक के सामने, मालेगांव (नासिक) 252097 | ६. श्री एच. आर. डोशी जी-३६ बस्ती नारनौल अजमेरी गेट, दिल्ली-६ 2 23233521 ।। ७. श्री अशोकजी एस. छाजेड़, १२१ महावीर क्लॉथ मार्केट, अहमदाबाद 2 5461234 ८. श्री सुधर्म सेवा समिति भगवान् महावीर मार्ग, बुलडाणा | 1. श्री श्रुतज्ञान स्वाध्याय समिति सांगानेरी गेट, भीलवाड़ा 3236108 | १०. श्री सुधर्म जैन आराधना भवन २४ ग्रीन पार्क कॉलोनी साउथ तुकोगंज, इन्दौर ११. श्री विद्या प्रकाशन मन्दिर, ट्रांसपोर्ट नगर, मेरठ (उ. प्र.) ।। १२. श्री अमरचन्दजी छाजेड़, १०३ वाल टेक्स रोड़, चैन्नई 825357775 १३. श्री संतोषकुमार बोथरावर्द्धमानस्वर्णअलंकार ३६४, शांपिग सेन्टर, कोटा2-2360950 मूल्य : ३५-०० तृतीय आवृत्ति वीर संवत् २५३३ १००० विक्रम संवत् २०६४ अप्रेल २००७ मुद्रक - स्वास्तिक प्रिन्टर्स प्रेम भवन हाथी भाटा, अजमेर , 2423295 ThiraminetitiirthIDIOHittiritte TwicinitHimalitilithiliunitHARMA - For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना किसी भी समाज की संस्कृति, आचार-विचार, धर्म आराधना के विधि विधान आदि का दिग्दर्शन उसके साहित्य से होता है यानी साहित्य ऐसा मूलभूत आधार है जिस पर समाज और संस्कृति का भव्य प्रसाद टिका हुआ है। साहित्य में प्रत्येक धर्म के प्रर्वतक के उपदेशों का संकलन होता है। वे उपदेश वेद, त्रिपिटक, बाइबल, कुरान आदि के रूप में जाने जाते हैं। जैन साहित्य में जिन्हें आगम कहा जाता है और जिसके उपदेष्टा तीर्थंकर प्रभु हैं। वे अपनी कठिन साधनाआराधना के बल पर घाती कर्मों को क्षय कर केवल ज्ञान, केवल दर्शन की ज्योति को प्रकट करते हैं। तत्पश्चात् वे उपदेश फरमाते हैं। चूंकि तीर्थंकर प्रभु पूर्णता प्राप्त होने पर ही उपदेश फरमाते हैं, अतएव उनके वचन सम्पूर्ण दोषों से रहित ही नहीं, प्रत्युत परस्पर विरोधी भी नहीं होते। जबकि अन्य दर्शनों के उपदेष्टा छद्मस्थ होने से उनकी अनेक बातें परस्पर विरोधी भी होती है। साथ ही जिस सूक्ष्मता से तत्त्वों के भेद-प्रभेद का निरूपण जैन आगम साहित्य में मिलता है ऐसा अन्य किसी दर्शन में मिल ही नहीं सकता। मिल भी कैसे सकता क्योंकि अन्य दर्शनों के प्रवर्तकों का ज्ञान सीमित होता है। जबकि जैन दर्शन के उपदेष्टा सर्वज्ञ सर्वदर्शी वीतराग प्रभु का ज्ञान असीम अनन्त होता है। वे मात्र वर्तमान काल की अवस्था को ही नहीं प्रत्युत भूत और भविष्य तीनों काल की समस्त अवस्था को प्रत्यक्ष जानते और देखते हैं। साथ ही जैनागम में मात्र मानव जीवन से सम्बन्धित विभिन्न बिन्दुओं पर ही प्रकाश नहीं डाला गया है प्रत्युत शेष तीन गतियों, तिर्यग्लोक, नरकलोक, देवलोक आदि समस्त गतियों का भी सूक्ष्मता से निरूपण किया गया है। इतना ही नहीं इन गतियों में परिभ्रमण के कारण एवं प्रत्येक गति में पाये जाने वाले ज्ञान, अज्ञान, योग, उपयोग, लेश्या, दृष्टि, संयम, असंयम आदि की सूक्ष्म व्याख्या भी इसमें मिलती है। इसके अलावा सर्वज्ञ वीतराग प्रभु ने जिस उत्तम साधना के बल पर अपनी आत्मा पर लगे अनादि काल के कर्मों को क्षय कर पंचम मोक्ष गति प्राप्त की। उसी साधना का अनुसरण कर कोई भी जीव वैसी ही सिद्ध अवस्था को प्राप्त कर सकता है। तीर्थंकर प्रभु अर्थ रूप में वाणी की वागरणा करते हैं जिन्हें बीज बुद्धि के धनी गणधर प्रभु सूत्र रूप में गूंथन करते हैं। साहित्य में वर्णन मिलता है कि तप, नियम और ज्ञान रूप वृक्ष पर आरूढ़ अनन्त ज्ञान सम्पन्न केवलज्ञानी भगवन् भव्यजनों को उद्बोधन देने हेतु ज्ञान पुष्पों की वृष्टि करते हैं, उसे गणभर बुद्धि रूपी पट में ग्रहण कर उसका प्रवचन के निमित्त गुन्थन करते For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14] है। गणधरों में विशिष्ट प्रतिभा होती है। उनकी बुद्धि अत्यन्त तीक्ष्ण होती है। अतएव तीर्थंकर प्रभु की वाणी रूप पुष्प वृष्टि को पूर्ण रूप से ग्रहण कर रंग बिरंगी पुष्प माला की तरह प्रवचन को सूत्र माला में ग्रंथित करते हैं। गणधर भगवन् द्वारा व्यवस्थित किया गया सूत्र रूप ज्ञान सरलता पूर्वक ग्रहण किया जा सकता है। समवायांग सूत्र में जहाँ प्रभु के भाषा अतिशय का वर्णन है, वहाँ बतलाया गया है कि तीर्थंकर प्रभु अर्धमागधी भाषा में धर्म का उपदेश फरमाते हैं। किन्तु उनके भाषा अतिशय के कारण उपस्थित सभी जीवों को अपनी-अपनी भाषा में परिणत उन्हें सुनाई देती है। यानी आर्य अनार्य पुरुष ही नहीं प्रत्युत द्विपद चतुष्पद, मृग पशु-पक्षी आदि सभी जीव भी उस कल्याणकारी भाषा को अपने क्षयोपशम के अनुसार ग्रहण करते हैं और अनेक जीव बोध को प्राप्त करते हैं। __ वर्तमान में हमारे स्थानकवासी समाज में बत्तीस आगम मान्य हैं। उनका समय-समय पर विभिन्न वर्गीकरण किया गया है। सर्वप्रथम उन्हें अंग प्रविष्ट और अंगबाह्य के रूप में प्रतिष्टि किया गया। अंग प्रविष्ट श्रुत में उन आगम साहित्य को लिया गया है जिनका गून्थन स्वयं गणधरों द्वारा हुआ है। यानी गणधरों द्वारा जिज्ञासा प्रस्तुत करने पर तीर्थंकर प्रभु द्वारा समाधान फरमाया गया हो। अंग बाह्यश्रुत वह है जो स्थविर कृत अथवा गणधरों के द्वारा जिज्ञासा प्रस्तुत किये बिना ही तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित हो। समवायांग और अनुयोग सूत्र में आगम साहित्य का केवल द्वादशांगी के रूप में निरूपण हुआ है। तीसरा वर्गीकरण विषय के हिसाब से चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग, गणितानुयोग और धर्मकथानुयोग के रूप में हुआ है। इसके पश्चात्वर्ती साहित्य में जो सबसे अर्वाचीन है, उसमें ग्यारह अंग, बारह उपांग, चार मूल, चार छेद सूत्र और बत्तीसवां आवश्यक सूत्र के रूप में वर्तमान बत्तीस आगमों का विभाजन किया गया है। ____ अंग सूत्रों के क्रम में सर्व प्रथम आचारांग सूत्र है। जिसमें अपने नाम के अनुरूप श्रमण जीवन आचार पालन की प्रधानता का निरूपण किया है। इसी क्रम में दूसरा स्थान प्रस्तुत सूत्रकृतांग सूत्र का है। इसमें आचार के साथ विचार (दर्शन) की मुख्यता है। जैन दर्शन में आचार और विचार के सुन्दर समन्वय से | साधक साधना मार्ग में आगे बढ़ता है। इस सूत्र (आगम) के कुल सोलह अध्ययन हैं। उनका संक्षिप्त परिचय यहाँ दिया जा रहा है। विस्तृत जानकारी के लिए पाठक बन्धुओं को सम्पूर्ण सूत्र का पारायण करना चाहिए। - प्रथम अध्ययन 'समय' - इस अध्ययन के चार उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में मनुष्य को बोध प्राप्त करने की प्रेरणा देने के पश्चात् बन्धन के स्वरूप को जानकर उन्हें तोड़ने के उपायों का बहुत ही सुन्दर निरूपण किया गया। द्वितीय उद्देशक में अन्य विभिन्न प्रचलितमतों For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . [5] का प्रतिपादन किया है, तीसरे उद्देशक में आधाकर्मी आहार के सेवन से होने वाले दोष बतलाये गये हैं। चौथे उद्देशक में परवादियों की असंयमी गृहस्थों के साथ आचार सदृशता बतलाई गई. है। अन्त में अविरति रूप कर्मबन्ध से बचने के लिए अहिंसा, कषाय विजय आदि स्वसिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है! द्वितीय अध्ययन 'बैतालीय' - इस अध्ययन में कर्म अथवा कर्मों के बीज रूप राग, द्वेष, मोह आदि को विदार (विदारण-विनाश करना) का उपदेश दिया गया है। इसके प्रथम उद्देशक में बोध को प्राप्त करने को कहा गया है। दूसरे उद्देशक में आसक्ति के त्याग का उपदेश और तीसरे उद्देशक में अज्ञान जनित कर्मों के क्षय का उपाय बतलाया गया है। तीसरा अध्ययन 'उपसर्ग परिज्ञा' - मोक्ष मार्ग की साधना करने वाले साधक को साधना के दौरान अनेक अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्ग आते हैं। कच्चे साधक इन उपसर्गो से विचलित होकर संयम मार्ग से विचलित हो जाते हैं। पर जो पक्के साधक होते हैं वे उपसर्ग आने पर संयम में दृढ़ से दृढ़तर और दृढ़तम बन कर आगे बढ़ते जाते हैं और अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं। चौथा अध्ययन 'स्त्री परिज्ञा' - स्त्री संसर्ग, आसक्ति, मोह आदि से साधक की साधना चोपट हो जाती है। अतएव साधक को इस ओर सतत् सावधानी रखनी चाहिए। तनिक भी असावधानी उसके श्रमणत्व का विनाश करने वाली हो सकती है। पंचम अध्ययन 'नरक विभक्ति' - कर्म सिद्धान्त के अनुसार जो जीव हिंसा असत्य, चोरी, व्यभिचार, महाआरम्भ, परिग्रह के कार्य, पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा, मांसाहार आदि का सेवन करता है, वह अपने पापाचरण के फल को भोगने के लिए नरक गति में जन्म लेते हैं। वह नरक का क्षेत्र कैसा है? वहाँ जीव की किस-किस प्रकार की वंदना भुगतनी पड़ती है। इसका सविस्तार इस अध्ययन में निरूपण किया गया है। छटा अध्ययन 'वीरस्तुति' - इस अध्ययन में प्रभु महावीर के ज्ञानादि गुणों के बारे में जम्बूस्वामी द्वारा पूछने पर गणधर प्रभु सुधर्मा स्वामी द्वारा स्तुति के रूप भगवन् के गुणों का सांगोपांग रूप से प्रस्तुत किया है। जम्बूस्वामी ने भगवान् महावीर स्वामी को प्रत्यक्ष नहीं देखा था। अतएव उनके प्रत्यक्ष दृष्टा गणधर सुधर्मा स्वामी से अनेक उत्कृष्ट आदर्श जीवन के बारे में जिज्ञासा करने पर उनका सुधर्मा स्वामी ने समाधान किया। सातवाँ अध्ययन 'कुशील परिभाषा' - वैसे तो संसार में अनेक जीव कुशील है, उनकी विवक्षा यहाँ नहीं की गई है। मुख्यता साधुओं की सुशीलता और कुशीलता का इस For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [6] अध्ययन में निरूपण किया गया है। जो साधु साधना जीवन अंगीकार करके दोष युक्त आहार पानी से, संयम विपरीत प्रवृत्तियों का अनुगमन करते हैं, वे कुशील हैं। जो अपने ग्रहण किये हुए महाव्रतों का यथावत पालन करते हैं, वे सुशील हैं। आठवां अध्ययन 'वीर्य' प्रस्तुत अध्ययन में भाव वीर्य (शक्ति) का निरूपण किया गया है। भाव वीर्य के अन्तर्गत पण्डित वीर्य, बाल पंडित वीर्य और बाल वीर्य । पण्डित वीर्य संयम में पराक्रमी साधनामय जीवन होता है। बाल पण्डित वीर्य व्रतधारी संयमासंयमी देशविरति श्रावक होता है । बालवीर्य असंयमी, अविरति, हिंसा आदि में प्रवृत्त या व्रत भंग करने वाला होता है। साधक को 'सकर्म वीर्य' से हटकर 'अकर्म वीर्य' की ओर मुड़ने का पुरुषार्थ करने की प्रेरणा दी गई है। नववा अध्ययन 'धर्म' इस अध्ययन में सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चारित्र सम्पन्न साधु . के लिए वीतराग प्ररूपित लोकोत्तर धर्म ( आचार-विचार का निरूपण किया गया है। छह काय जीवों के आरम्भ परिग्रह में फंसा हुआ व्यक्ति इस भव और परभव में दुःखी होता है। अतएव मोक्ष मार्ग के साधक को इनसे निवृत होना चाहिए । दसवाँ अध्ययन 'समाधि' - इस अध्ययन में भाव समाधि का स्वरूप समझाया गया है । जीव को ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की विशुद्ध आराधना से भाव समाधि प्राप्त होती है। साधक अपनी आत्म समाधि के लिए समस्त प्रकार से आरम्भ परिग्रह से निवृत्त, इन्द्रियों - मन को वश में करना, क्रोधादि कषाय आदि पर विजय प्राप्त करने से ही भाव समाधि प्राप्त हो सकती है। साधक को सभी प्रकार के असमाधि उत्पन्न करने वाले स्थानों से का भी इस अध्ययन में निर्देशन किया गया 1 दूर रहने ग्यारहवाँ अध्ययन 'मोक्षमार्ग' इस अध्ययन में दो प्रकार के भाव मार्ग बतलाए गए हैं। एक प्रशस्त, दूसरा अप्रशस्त । सम्यग्दर्शन ज्ञान, चारित्र, रूप मोक्ष मार्ग प्रशस्त भाव मार्ग है। इसके विपरीत मिथ्यात्व, अविरति, अज्ञान के द्वारा की गई प्रवृत्ति अप्रशस्त भाव मार्ग है। तीर्थंकर, गणधरादि द्वारा प्रतिपादित ही सम्यग् मार्ग अथवा सत्य मार्ग कहा गया है। यही मार्ग जीव के लिए हितकर और सुगति फलदायक है। बारहवाँ अध्ययन 'समवसरण' - सामान्य रूप से समोसरण का अर्थ तीर्थंकर देव की परिषद् से लिया जाता है। किन्तु यहाँ समोसरण से आशय विविध प्रकार के मतोंमतप्रर्वतकों के सम्मेलन से है । भगवान् के समय कुल ३६३ मत प्रचलित थे । क्रियावादी के १८० अक्रियावादी के ८४, अज्ञानवादी के ६७ और विनयवादी के ३२, यों कुल ३६३ भेद - For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बतलाए हैं। इन चारों का स्वरूप बताकर इन्हें एकान्त दृष्टि वाले बताकर इनका खण्डन कर, जिनमार्ग के सुमार्ग का प्रतिपादन किया गया है। तेरहवां अध्ययन 'यथातथ्य' इस अध्ययन में नाम से ही यह स्व मेव सिद्ध है कि यह अध्ययन यथार्थ तत्त्वों को प्रतिपादित करने वाला अध्ययन है । इस अध्ययन में सम्यग् ज्ञान, दर्शन, चारित्र का रहस्य सुसाधुओं के शील, सदाचार, सदनुष्ठान और उनके समस्त कार्य मोक्ष प्राप्ति में सहायक और कुसाधुओं के समस्त संसार परिभ्रमण के कारण बतलाए हैं। चौदहवाँ अध्ययन 'ग्रन्थ ' ग्रन्थ का शब्दिक अर्थ गांठ होता है। बाह्य वस्तुओं पर आसक्ति बाह्य ग्रन्थि कहलाती और क्रोध, मान, माया, लोभ आदि चौदह प्रकार का आभ्यन्तर परिग्रह आभ्यन्तर ग्रन्थि कहलाती है। जैन मुनि दोनों प्रकार की ग्रन्थियों से मुक्त होता है । इस अध्ययन में इसकी विस्तृत व्याख्या की गई है। : पन्द्रहवाँ अध्ययन 'आदानीय ' करना द्रव्य आदान है। भाव आदान दो प्रकार उदय, मिथ्यात्व अविरति आदि कर्म बन्ध के मोक्षार्थी द्वारा किये गये समस्त सम्यक् पुरुषार्थ कर्म क्षय का हेतु होने । इस अध्ययन में दोनों भाव आदानों का सुन्दरं स्वरूप बतलाया गया है ! आदान यानी ग्रहण करना, धन आदि का ग्रहण का है। प्रशस्त और अप्रशस्त । क्रोध आदि का आदान रूप होने से अप्रशस्त भावादान है तथा प्रशस्त भांव-आदान सोलहवाँ अध्ययन 'गाथा' इस अध्ययन में श्रमण, माहन, भिक्षु और निर्ग्रन्थ का पथक-पथक स्वरूप बता कर उनके गुणों का प्रतिपादन किया गया है। पूर्वोक्त पन्द्रह अध्ययनों में साधुओं के जो क्षमादि गुण बतलाए गये हैं, उन सब को एकत्र करके प्रशंसात्मक रूप इस अध्ययन में कहे गये हैं। - - [7] - - आदरणीय डोशी सा. समय संघ द्वारा इस आगम का प्रकाशन हुआ था। जिसके अनुवादक पूज्य श्री उमेशमुनिजी म. सा. 'अणु' थे। जिसमें मूल पाठ के साथ संक्षिप्त हिन्दी अनुवाद था। तत्पश्चात् संघ की 'आगम बत्तीसी' प्रकाशन योजना के अन्तंगत इसका प्रकाशन संघ द्वारा प्रकाशित भगवती सूत्र की शैली का अनुसरण कर किया गया. जिसके अन्तर्गत मूल पाठ, कठिन शब्दार्थ, भावार्थ तथा आवश्यकतानुसार विवेचन किया गया। इसका मुख्य आधार जैनाचार्य पूज्य जवाहरलालजी म. सा. के निर्देशन में अनुवादित सूत्रकृतांग सूत्र के चार भाग हैं, जो पण्डित अम्बिका दत्त जी ओझा व्याकरणाचार्य द्वारा सम्पादित किये गये हैं । इस सूत्र की प्रेस कापी तैयार कर सर्वप्रथम इसे पूज्य घेवरचन्दजी 'वीरपुत्र' म. सा. को तत्त्वज्ञ सुश्रावक मुमुक्षु श्री धनराजजी बड़ेरा (वर्तमान श्री धर्मेशमुनिजी म. सा.) तथा सेवाभावी For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुश्रावक श्री हीराचन्दजी सा. पीचा ने सुनाया। पूज्य म. सा. ने जहाँ उचित समझा वहाँ संशोधन बताया, तदनुसार उसमें संशोधन किया गया। इसके पश्चात् श्रीमान् पारसमलजी सा. चण्डालिया, आदरणीय तत्त्वज्ञ सुश्रावक श्री जशवंतलालजी शाह बम्बई तथा मेरे द्वारा अवलोकन किया गया। इस प्रकार प्रस्तुत आगम के प्रकाशन में पूर्ण सतर्कता एवं सावधानी बरती गई है। बावजूद सुज्ञ वर्ग से विनती है कि इसका अध्ययन करते हुए कोई त्रुटि ध्यान में आवे तो हमें सूचित करने की कृपा करावें। ताकि अगली आवृत्ति में यथायोग्य संशोधन किया जा सके। ___ संघ का आगम प्रकाशन का कार्य पूर्ण हो चुका है। इस आगम प्रकाशन के कार्य में धर्म प्राण समाज रत्न तत्त्वज्ञ सुश्रावक श्री जशवंतलाल भाई शाह एवं श्राविका रत्न श्रीमती मंगला बहन शाह, बम्बई की गहन रुचि है। आपकी भावना है कि संघ द्वारा जितने भी आगम प्रकाशित हुए हैं वे अर्द्ध मूल्य में ही बिक्री के लिए पाठकों को उपलब्ध हों। इसके लिए उन्होंने सम्पूर्ण आर्थिक सहयोग प्रदान करने की आज्ञा प्रदान की है। तदनुसार प्रस्तुत आगम पाठकों को उपलब्ध कराया जा रहा है, संघ एवं पाठक वर्ग आपके इस सहयोग के लिए आभारी हैं। ____ आदरणीय शाह साहब तत्त्वज्ञ एवं आगमों के अच्छे ज्ञाता हैं। आप का अधिकांश समय धर्म साधना आराधना में बीतता है। प्रसन्नता एवं गर्व तो इस बात का है कि आप स्वयं तो आगमों का पठन-पाठन करते ही हैं, पर आपके सम्पर्क में आने वाले चतुर्विध संघ के सदस्यों को भी आगम की वाचनादि देकर जिनशासन की खूब प्रभावना करते हैं। आज के इस हीयमान युग में आप जैसे तत्त्वज्ञ श्रावक रत्न का मिलना जिनशासन के लिए गौरव की बात है। आपकी धर्म सहायिका श्रीमती मंगलाबहन शाह एवं पुत्र रत्न मयंकभाई शाह एवं श्रेयांसभाई शाह भी आपके पद चिह्नों पर चलने वाले हैं। आप सभी को आगमों एवं थोकड़ों का गहन अभ्यास है। आपके धार्मिक जीवन को देख कर प्रमोद होता है। आप चिरायु हों एवं शासन की प्रभावना करते रहें। श्री सूयगडांग सूत्र की प्रथम व द्वितीय आवृत्ति का डागा परिवार, जोधपुर के आर्थिक सहयोग से प्रकाशन किया गया। जो अल्प समय में ही अप्राप्य हो गई। अब इसकी तृतीय आवृत्ति का प्रकाशन किया जा रहा है। जैसा कि पाठक बन्धुओं. को मालूम ही है कि वर्तमान में कागज एवं मुद्रण सामग्री के मूल्य में काफी वृद्धि हो चुकी है। फिर भी श्रीमान् सेठ जशवंतलाल भाई शाह, मुम्बई के आर्थिक सहयोग से इसका मूल्य मात्र रु. ३५). पैंतीस रुपया ही रखा गया है जो कि वर्तमान परिपेक्ष्य में ज्यादा नहीं है। पाठक बन्धु इंस तृतीय आवृत्ति का अधिक से अधिक लाभ उठाएंगे। इसी शुभ भावना के साथ! ब्यावर (राज.) . संघ सेवक दिनांकः ८-४-२००७ नेमीचन्द बांठिया अ. भा. सु. जैन सं. रक्षक संघ, जोधपुर For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्वाध्याय निम्नलिखित बत्तीस कारण टालकर स्वाध्याय करना चाहिये। आकाश सम्बन्धी १० अस्वाध्याय काल मर्यादा १. बड़ा तारा टूटे तो एक प्रहर २. दिशा-दाह * जब तक रहे ३. अकाल में मेघ गर्जना हो तो दो प्रहर ४. अकाल में बिजली चमके तो एक प्रहर ५. बिजली कड़के तो आठ प्रहर ६. शुक्ल पक्ष की १, २, ३ की रात प्रहर रात्रि तक ७. आकाश में यक्ष का चिह्न हो जब तक दिखाई दे ८-६. काली और सफेद धूअर जब तक रहे १०. आकाश मंडल धूलि से आच्छादित हो जब तक रहे औदारिक सम्बन्धी १० अस्वाध्याय ११-१३. हड्डी, रक्त और मांस, ये तिर्यंच के ६० हाथ के भीतर हो। मनुष्य के हो, तो १०० हाथ के भीतर हो। मनुष्य की हड्डी यदि जली या धुली न हो, तो १२ वर्ष तक। १४. अशुचि की दुर्गंध आवे या दिखाई दे तब तक १५. श्मशान भूमि- . सौ हाथ से कम दूर हो, तो। * आकाश में किसी दिशा में नगर जलने या अग्नि की लपटें उठने जैसा दिखाई दे और प्रकाश हो तथा नीचे अंधकार हो, वह दिशा-दाह है। For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [10] १६. चन्द्र ग्रहण खंड ग्रहण में ८ प्रहर, पूर्ण हो तो १२ प्रहर: (चन्द्र ग्रहण जिस रात्रि में लगा हो उस रात्रि के प्रारम्भ से ही अस्वाध्याय गिनना चाहिये।). १७. सूर्य ग्रहण खंड ग्रहण में १२ प्रहर, पूर्ण हो तो १६ प्रहर (सूर्य ग्रहण जिस दिन में कभी भी लगे उस दिन के प्रारंभ से ही उसका अस्वाध्याय गिनना चाहिये।) १८. राजा का अवसान होने पर, जब तक नया राजा घोषित न १६. युद्ध स्थान के निकट जब तक युद्ध चले २०. उपाश्रय में पंचेन्द्रिय का शव पड़ा हो, जब तक पड़ा रहे (सीमा तिर्यंच पंचेन्द्रिय के लिए ६० हाथ, मनुष्य के लिए १०० हाथ। उपाश्रय बड़ा होने पर इतनी सीमा के बाद उपाश्रय में भी अस्वाध्याय नहीं होता। उपाश्रय की सीमा के बाहर हो तो यदि दुर्गन्ध न आवे या दिखाई न देवे तो अस्वाध्याय नहीं होता।) २१-२४. आषाढ़, आश्विन, कार्तिक और चैत्र की पूर्णिमा दिन रात २५-२८. इन पूर्णिमाओं के बाद की प्रतिपदा- दिन रात २६-३२. प्रातः, मध्याह्न, संध्या और अर्द्ध रात्रिइन चार सन्धिकालों में १-१ मुहूर्त उपरोक्त अस्वाध्याय को टालकर स्वाध्याय करना चाहिए। खुले मुंह नहीं बोलना तथा सामायिक, पौषध में दीपक के उजाले में नहीं वांचना चाहिए। नोट - नक्षत्र २८ होते हैं उनमें से आर्द्रा नक्षत्र से स्वाति नक्षत्र तक नौ नक्षत्र वर्षा के गिने गये हैं। इनमें होने वाली मेघ की गर्जना और बिजली का चमकना स्वाभाविक है। अतः इसका अस्वाध्याय नहीं गिना गया है। For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अ० भा० सुधर्म जैन सं० रक्षक संघ, जोधपुर आगम बत्तीसी प्रकाशन योजना के अन्तर्गत प्रकाशित आगम अंग सूत्र क्रं. नाम आगम मूल्य १. आचारांग सूत्र भाग-१-२ ५५-०० २. सूयगडांग सूत्र भाग-१,२ ६०-०० ३. स्थानांग सूत्र भाग-१, २ ६०-००४ ४. समवायांग सूत्र २५-०० ५. भगवती सूत्र भाग १-७ ३००-०० ६. ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र भाग-१, २ ८०.०० ७. उपासकदशांग सूत्र -:२०-०० ८. अन्तकृतदशा सूत्र २५-०० ६. अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र १५-०० १०. प्रश्नव्याकरण सूत्र ३५-०० ११. विपाक सूत्र ३०-०० ०० ० ० ० ० २५-०० २५-०० ८०-०० १६०-०० ५०-०० २०-०० २०-०० उपांग सूत्र १. उववाइय सुत्त २. राजप्रश्नीय सूत्र जीवाजीवाभिगम सूत्र भाग-१,२ प्रज्ञापना सूत्र भाग-१,२,३,४ ५. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति ६-७. चन्द्रप्रज्ञप्ति-सूर्यप्रज्ञप्ति ८-१२. निरयावलिका (कल्पिका. कल्पवतंसिका. .. पुष्पिका, पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा) मूल सूत्र १. दशवकालिक सूत्र २. . उत्तराध्ययन सूत्र भाग-१, २ ३. . नंदी सूत्र ४. अनुयोगद्वार सूत्र छेद सूत्र १-३. त्रीणिछेदसुत्ताणि सूत्र (दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहार) ४. निशीथ सूत्र १. आवश्यक सूत्र ३०-०० ८०-०० २५-०० ५०-०० ५०-०० ५०-०० ३०-०० For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल्य १०-०० १५-०० १५-०० ५.०० ७-०० १-०० F -१०-०० आगम बत्तीसी के अलावा संघ के प्रकाशन क्रं. नाम मूल्य | क्रं. नाम १. अंगपविद्वसुत्ताणि भाग १ १४-०० ५१. लोकाशाह मत समर्थन . २. अंगपविट्ठसुत्ताणि भाग २ ४०-०० | ५२. जिनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा ३. अंगपविट्ठसुत्ताणि भाग ३ ३०-०० | ५३. बड़ी साधु वंदना ४. अंगपविट्ठसुत्ताणि संयुक्त ८०-०० | ५४. तीर्थंकर पद प्राप्ति के उपाय ५. अनंगपविट्ठसुत्ताणि भाग १ ३५-०० ५५. स्वाध्याय सुधा ६. अनंगपविट्ठसुत्ताणि भाग २ ४०-०० ५६. आनुपूर्वी ७. अनंगपविट्ठसुत्ताणि संयुक्त ८०-०० ५७. सुखविपाक सूत्र ८. अनुत्तरोववाइय सूत्र ३-५० ५८. भक्तामर स्तोत्र ६. आयारो ८-०० ५६. जैन स्तुति १०. सूर्यगडो ६-०० ६०. सिद्ध स्तुति ११. उत्तरज्झयणाणि (गुटका) ६१. संसार तरणिका १२. दसवेयालिय सुत्तं (गुटका) . ५-०० ६२. आलोचना पंचक १३. णंदी सुत्तं (गुटका) अप्राप्य ६३. विनयचन्द चौबीसी १४. चउछेयसुत्ताई १५-०० ६४. भवनाशिनी भावना १५. आचारांग सूत्र भाग १ , २५-०० | ६५. स्तवन तरंगिणी १६. अंतगडदसा सूत्र १०-०० ६६. सामायिक सूत्र - १७-१८. उत्तराध्ययनसूत्र भाग १,२,३ '४५-०० ६७. सार्थ सामायिक सूत्र २०. आवश्यक सूत्र (सार्थ) .१०-०० ६८. प्रतिक्रमण सूत्र २१. दशवकालिक सूत्र १०-०० ६६. जैन सिद्धांत परिचय २२. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग १ १०-०० ७०. जैन सिद्धांत प्रवेशिका २३. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग २ १०-०० ७१. जैन सिद्धांत प्रथमा २४.जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग ३ १०-०० ७२. जैन सिद्धांत कोविद २५. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग ४ १०-०० ७३. जैन सिद्धांत प्रवीण २६. जैन सिद्धांत थोक संग्रह संयुक्त १५-०० ७४. तीर्थंकरों का लेखा २७. पन्नवणा सूत्र के थोकड़े भाग १ ७५. जीव-धड़ा २८. पन्नवणा सूत्र के थोकड़े भाग २ ७६. १०२ बोल का बासठिया २६. पन्नवणा सूत्र के थोकड़े भाग ३ १०-०० ७७. लघुदण्डक ३०-३२. तीर्थंकर चरित्र भाग १,२,३ १४०-०० ७८. महादण्डक ३३. मोक्ष मार्ग ग्रन्थ भाग १ ३५-०० ७६. तेतीस बोल ३४. मोक्ष मार्ग ग्रन्थ भाग २ ३०-०० ८०. गुणस्थान स्वरूप ३५-३७. समर्थ समाधान भाग १,२,३ ५७-०० ८१. गति-आगति । ३८. सम्यक्त्व विमर्श १५-०० ८२. कर्म-प्रकृति .. ३६. आत्म साधना संग्रह २०-०० ८३. समिति-गुप्ति ४०. आत्म शुद्धि का मूल तत्वत्रयी २०-०० ८४. समकित के ६७ बोल .. ४१. नवतत्वों का स्वरूप १३-०० ८५. पच्चीस बोल ४२. अगार-धर्म १०-०० ८६. नव-तत्त्व 83. Saarth Saamaayik Sootra अप्राप्य ८७. सामायिक संस्कार बोध ४४. तत्त्व-पृच्छा १०-०० ८८. मुखवस्त्रिका सिद्धि ४५. तेतली-पुत्र ४५-०० ४६. शिविर व्याख्यान १२-०० ८९.विद्युत् सचित्त तेऊकाय है १०. धर्म का प्राण यतना ४७. जैन स्वाध्याय माला १८-०० ४८. सुधर्म स्तवन संग्रह भाग १ २२-०० ११. सामग्ण सहिधम्मो ४६. सुधर्म स्तवन संग्रह भाग २ १५-०० ६२.मंगल प्रभातिका १०. सुधर्म चरित्र संग्रह . १०.०० ३. कुगुरु गुर्वाभास स्वरूप २-०० २-०० ७-०० ३-०० अप्राप्य २-००. १-०० अप्राप्य ५-०० १-००. ३-०० ३-०० अप्राप्य ४-०० ४-०० ३-०० ४-०० १-०० २-०० ०-५० ३-०० १-०० २-०० ३-०० १-०० १-०० २-०० २-०० १०-०० ३-०० ६-०० ४-०० ३-०० ३-०० २-०० अप्राप्य १.२५ For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥णमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स ।। सिरी सूयगडांग सुत्तं प्रथम श्रुतस्कन्ध समय नामक प्रथम अध्ययन प्रथम उद्देशक - उत्थानिका - भूतकाल में अनन्त तीर्थङ्कर हो चुके हैं । भविष्य में फिर अनन्त तीर्थङ्कर होवेंगे और वर्तमान में संख्याता तीर्थङ्कर विद्यमान हैं । अतएव जैन धर्म अनादि काल से है, इसीलिए इसे सनातन (सदातन- अनादि कालीन) धर्म कहते हैं । जैसे कि कहा है - आगे चौबीसी अनन्त हुई, होसी और अनन्त । नवकार तणी आदि, कोई न भाखे भगवन्त ॥ केवलज्ञान हो जाने के बाद सभी तीर्थङ्कर भगवन्त अर्थ रूप से प्रवचन फरमाते हैं, वह प्रवचन द्वादशांग रूप वाणी होता है । तीर्थङ्कर भगवन्तों के गणधर उस वाणी को सूत्र रूप से गूंथन करते हैं । द्वादशाङ्ग (बारह अङ्गों) के नाम इस प्रकार हैं - १. आचारांग २. सूत्रकृतांग ३. स्थानाङ्ग ४. समवायांग ५. भगवती (व्याख्याप्रज्ञप्ति) ६. ज्ञाताधर्मकथा ७. उपासकदशा ८. अन्तकृतदशा ९. अनुत्तरौपपातिकदशा १०. प्रश्नव्याकरण ११. विपाक १२. दृष्टिवाद।। - वर्तमान में जैन धर्म. में दो परम्पराएँ प्रचलित हैं । दिगम्बर परम्परा और श्वेताम्बर परम्परा (श्वेताम्बर स्थानकवासी, श्वेताम्बर मूर्तिपूजक, श्वेताम्बर तेरहपन्थ) । दिगम्बर परम्परा की मान्यता है कि भगवान् महावीर स्वामी की वाणी सर्वथा विच्छिन्न हो गई है । यह परम्परा आचार्यों के द्वारा रचित For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 षट्खण्डागम आदि ग्रन्थों को ही मान्य करती है । श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार भगवान् महावीर स्वामी की वाणी का सद्भाव आज भी है । सिर्फ बारहवाँ अंग दृष्टिवाद विच्छिन्न हो गया है । यह तो सब तीर्थङ्करों के समय दो पाट तक ही रहता है फिर विच्छिन्न हो जाता है, सिर्फ पूर्वो का ज्ञान शेष रहता है। बारह अङ्ग सूत्रों में आचारांग का सर्वप्रथम नम्बर है । इसमें चारित्राचार का विशेष रूप से वर्णन किया है । सम्यग्ज्ञान के सद्भाव में ही चारित्राचार का महत्त्व है । जैसे कि कहा गया है - पढमं णाणं तओ दया एवं चिट्ठइ सव्वसंजए । अण्णाणी किं काही, किं वा णाही सेयपावगं ॥ - (दशवैकालिक सूत्र अ. ४ गाथा .१०) प्रथम ज्ञान पीछे दया, यह जिनमत का सार । ज्ञान सहित क्रिया करे, उतरे भवजल पार ॥ अतएव सूत्रकृतांग सूत्र में मुख्य रूप से ज्ञानाचार का वर्णन किया गया है । इसमें स्वसमय (स्व सिद्धान्त-जैन सिद्धान्त) पर समय (पर सिद्धान्त अर्थात् ३६३ पाखण्ड मत) की विचारधारा का वर्णनं किया गया है । मिथ्यात्व का खण्डन कर स्वसिद्धान्त-सच्ची मान्यता की स्थापना की गई है तथा जीव अजीव पुण्य पाप लोक अलोक आदि का भी वर्णन किया गया है - इसलिये सूत्रकृताङ्ग सूत्र का बहुत महत्त्व है । इसलिये पूर्वाचार्यों का कथन है कि - मोक्षार्थी आत्माओं को सर्वप्रथम स्व सिद्धान्त का ज्ञान करना आवश्यक है । इस सूत्र पर आगममनिषी गूढ तत्त्ववेता श्री शीलांकाचार्य की संस्कृत की टीका है । उसमें उन गूढ अर्थों का स्पष्टीकरण किया है । वह संस्कृत टीका मूल रूप से आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई है । उस संस्कृत टीका का भाषानुक्सद युगद्रष्टा महान् ज्योतिर्धर पूज्यश्री श्रीमज्जैनाचार्य श्री जवाहराचार्य के तत्त्वावधान में हुआ है। यहां सिर्फ भावानुवाद दिया जा रहा है। बुझिज ति तिउट्टिग्जा, बंधणं परिजाणिया । किमाह बंधणं वीरो, किं वा जाणं तिउट्टइ ? ॥१॥ · कठिन शब्दाथै - बुझिजत्ति - बोध प्राप्त करना चाहिये, तिउट्टिजा - तोड़ना चाहिये, बंधणंबंधन को, परिजाणिया - जान कर, किं - क्या, आह - बताया है, वीरो - वीर प्रभु ने, तिउट्टइ - तोड़ता है । भावार्थ - श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बू स्वामी से फरमाते हैं कि - "हे आयुष्मन् जम्बू ! समझो और बन्धन के स्वरूप को जान कर उसे तोड़ दो । जम्बू स्वामी ने जिज्ञासा प्रकट की कि - 'हे भगवन् ! प्रभु वीर ने बन्धन क्या बताया है ? और क्या उसे जान कर तोड़ा जा सकता है ?' For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ उद्देशक १ विवेचन - इस प्रथम अध्ययन का नाम 'समय' है। शब्द कोश में समय शब्द के अनेक अर्थ मिलते हैं यथा-काल (सर्व सूक्ष्म काल), सिद्धान्त, संकेत, आगम, नियम, मत, शास्त्र, शपथ (सौगंध), आचार, आत्मा, स्वीकार (अंगीकार) आज्ञा (निर्देश), शर्त, अवसर, प्रस्ताव, रिवाज, सामायिक, संयम विशेष, सुन्दर परिणाम, पदार्थ, दर्शन। यहां पर 'समय' शब्द का अर्थ सिद्धान्त, आगम, शास्त्र, मत, दर्शन, आचार और नियम आदि लिया गया है। नियुक्तिकार श्री भद्रबाहुस्वामी ने 'समय' शब्द का 'नाम समय', 'स्थापना समय' यावत् 'भाव समय' आदि बारह प्रकार का निक्षेप किया है। उसमें से यहाँ पर सिर्फ 'भाव समय' का ग्रहण किया गया है। इस अध्ययन में स्वसिद्धान्त और पर सिद्धान्त इन दोनों का कथन किया गया है अर्थात् पर सिद्धान्त का खण्डन कर के स्व सिद्धान्त (सम्यक् सिद्धान्त) की प्ररूपणा की गई है। इसलिये इस अध्ययन को 'स्व-पर समय वक्तव्यता' भी कहते हैं। जैन सिद्धान्त में ज्ञान और क्रिया दोनों की सम्मिलित प्रवृत्ति से मोक्ष की प्राप्ती बताई गई है। यथा"ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः" (प्रमाण मीमांसा) .. अर्थात् ज्ञान और क्रिया दोनों के सम्मिलित रूप से मोक्ष की प्राप्ति होती है। जैसा कि ठाणाङ्ग (स्थानाङ्ग) सूत्र के दूसरे ठाणे के प्रथम उद्देशक में कहा है - दोहिं. ठाणेहिं संपण्णे अणगारे अणाइयं अणवयग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारं वीइवएजा, तं जहा - विज्जाए चेव, चरणेण चेव । ___अर्थात् दो बातों से युक्त अनगार (साधु-साध्वी) इस अनादि और अनवदन (अनन्त) दीर्घ मार्ग वाले चार गति रूप संसार कान्तार (अटवी-जंगल) को पार कर जाता है। यथा-विद्या (ज्ञान) और चारित्र । ... . प्रश्न - वीर किसे कहते हैं ? उत्तर - 'वि-विशेषण इरयति मोक्षं प्रति गच्छति, गमयति वा प्राणिनः, प्रेरयति वा कर्माणि निराकरोति, वीरयति वा रागादि शत्रून् प्रति पराक्रमयतीति वीरः।' - विशेषत ईरयति क्षिपति तिरस्करोति अशेषाण्यपि कर्माणि इति वीरः। अथवा विशेषत ईरयति शिवपदं प्रति भव्यजन्तून् गमयति इति वीरः। अथवा 'दृ' विदारणे, विदारयति कर्मरिपुसंघट्टम् इति वीरः। यदाह- . . "विदारयति यत्कर्म, तपसा च विराजते। तपोवीर्येण युक्रश्च, तस्माद् वीर इति स्मृतः ॥ For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000०००० अर्थ - जो स्वयं मोक्ष की तरफ जाता है और दूसरों को भी भेजता है उसे वीर कहते हैं तथा जो रागादि कर्म शत्रुओं को आत्मा से दूर करने में पराक्रम और पुरुषार्थ करता है उसे वीर कहते हैं। संस्कृत में "शूर' 'वीर' दो धातुयें आती हैं, जिनका अर्थ है विशेष पराक्रम करना । 'वीर' धातु से वीर शब्द बनता है जिसका अर्थ है सम्पूर्ण कर्मों को दूर करे तथा विशेष रूप से भव्य प्राणियों को मोक्ष की तरफ प्रेरित करे, उसे वीर कहते हैं। __अथवा संस्कृत में 'दृ' धातु विदारण (चीरना-नष्ट करना) अर्थ में आती है अतः जो कर्म शत्रुओं का विदारण करे उसे वीर कहते हैं। जैसा कि श्लोक में कहा है - "जो कर्मों को विदारण करे, तप और वीर्य से युक्त होकर जो विराजित अर्थात शोभित होता है उसे वीर कहते हैं।" आचाराङ्ग सूत्र के दूसरे श्रुतस्कन्ध के पन्द्रहवें अध्ययन में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के जीवन का संक्षिप्त वर्णन है। उसमें उनके अनेक नाम बताये गये हैं। जब महावीर स्वामी का जीव माता त्रिशला के गर्भ में आया तब माता-पिता की धर्म में रुचि अधिक बढ़ी। राज्य में भी सोना चान्दी धन धान्य आदि की भी खूब वृद्धि हुई इसलिये माता-पिता ने उनका नाम 'वर्द्धमान' रखा। दीक्षा लेकर भगवान् ने देव, मनुष्य और तिर्यञ्च सम्बन्धी अनेक उपसर्ग सहन किये और उनमें अचल, अडोल और अडिग रहे इसलिये देवों ने उनका नाम 'महावीर' रखा। महावीर शब्द का संक्षिप्त शब्द 'वीर' है। जिसकी व्याख्या और व्युत्पत्ति ऊपर लिख दी गई है। प्रश्न - बन्धन किसे कहते हैं ? उत्तर - मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग के निमित्त से आत्मप्रदेशों में हल-चल होती है तब जिस क्षेत्र में आत्मप्रदेश हैं उसी क्षेत्र में रहे हुए अनन्तानन्त कर्म योग्य पुद्गल जीव के साथ बन्ध को प्राप्त होते हैं। जीव और कर्म का यह मेल ठीक वैसा ही होता है जैसा दूध पानी का या अग्नि और लोहपिण्ड का। इस प्रकार आत्म प्रदेशों के साथ बन्ध को प्राप्त कार्मण वर्गणा के पुद्गल ही कर्म कहलाते हैं। इसलिये बन्धन तोड़ने का अर्थ है कर्मों को तोड़ना। कर्म प्रवाह का आत्मा के साथ अनादि का सम्बन्ध है। यह कोई नहीं बता सकता है कि - कर्मों का आत्मा के साथ सर्व प्रथम कब सम्बन्ध हुआ? जीव सदा क्रियाशील है वह सदा मन वचन काया के व्यापारों में प्रवृत्त रहता है। इससे प्रत्येक समय में उसके कर्मबन्ध होता रहता है। इस तरह कर्म सादि हैं। परन्तु यह सादिपना कर्मविशेष की अपेक्षा से हैं। कर्म सन्तति (प्रवाह) तो जीव के साथ अनादिकाल से है पुराने कर्म क्षय होते रहते हैं और नये कर्म बन्ध होते रहते हैं। ऐसा होते हुए भी सामान्य रूप से तो कर्म जीव के साथ सदा से लगे हुए ही रहे हैं। प्रश्न - कर्म जीव के साथ किस कारण से लगते हैं ? For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ उद्देशक १ उत्तर - तत्त्वार्थ सूत्र के आठवें अध्ययन में बतलाया गया है - "सकषायित्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान पुद्गलन् आदत्ते " अर्थ - कषाययुक्त होने से जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है । कषाय के भी क्रोध, मान, माया, लोभ आदि अनेक भेद हैं। इन सबका समावेश राग और द्वेष इन दो में हो जाता है। यद्यपि कर्मबन्ध के कारण में योग को भी लिया है परन्तु दसवें गुणस्थान तक कषाय के निमित्त से कर्मबन्ध होता है। ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें इन तीन गुणस्थानों में योग के निमित्त से सिर्फ 'ईरियावहि' कर्म का बन्ध होता है। वह मात्र साता रूप होता । उसकी स्थिति मात्र दो समय की है। प्रथम समय में बन्धता है दूसरे समय में वेदा जाता है और तीसरे समय में निर्जरित (क्षय) हो जाता है। इसलिये यहां पर योग को गौण कर दिया गया है। कषाय को ही कर्मबन्ध का प्रधान कारण माना गया है। चित्तमंतमचित्तं वा, परिगिझ किसामवि । अणं वा अणुजाइ, एवं दुक्खा ण मुच्चइ ॥ २ ॥ कठिन शब्दार्थ - चित्तमंतं - चित्तवान् अर्थात् ज्ञान युक्त अचित्तं अचित्त - चेतन रहित, परिगिज्झ - परिग्रह रख कर, अणुजाणइ (अणुजाणाइ) - अनुज्ञा देता है, दुक्खा ण मुच्चड़ मुक्त नहीं होता है । दुःख से, भावार्थ - जो (पुरुष) सजीव द्विपद चतुष्पद आदि चेतन प्राणी को, अथवा निर्जीव चैतन्य रहित सोना चाँदी आदि पदार्थों को, अथवा तृण भूस्सा आदि तुच्छ पदार्थों को भी परिग्रह रूप से रखता है अथवा रखवाता है और अनुमोदन करता है वह दुःख से मुक्त नहीं होता है । विवेचन - पहली गाथा में दो प्रश्न उठाये गये हैं कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने बन्धन किसे कहा है? तथा क्या जान कर उसे तोड़ दे ? इन दोनों प्रश्नों का उत्तर इस दूसरी गाथा में दिया गया है । यथा - - - - 3 ५ - उपयोग अर्थात् ज्ञान को चित्त कहते हैं। वह चित्त ( जिसमें ज्ञान रहता है) उसे चित्तवत् (चित्तवान) कहते हैं । こ For Personal & Private Use Only - दशवैकालिक के छठे अध्ययन की २१ वीं गाथा में कहा है सूत्र "मुच्छा परिग्गहो वुत्तो", इइ वुत्तं महेसिणा । अर्थ - महर्षि महावीर स्वामी ने मूर्च्छा (ममत्व भाव) को परिग्रह कहा है। श्री उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र के सातवें अध्याय में कहा है मूर्च्छा - परिग्रहः ॥ १२ ॥ - Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ ............. प्राणी इस संसार में जीवन-यापन करता हुआ चेतन या अचेतन द्रव्यों से अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है। उनमें आसक्ति रख कर अपने को उनसे बांध लेता है। यही बन्धन है। यही परिग्रह है । किन्तु बन्धन को परिग्रह रूप समझना तब ही संभव है जब कि मनुष्य की दृष्टि सम्यक् हो । प्रायः मनुष्य परिग्रह बढाने को ही सुख और सुविधा का कारण समझता है। उसमें ही उसे स्वतंत्रता एवं स्वाधीनता दिखाई देती है । यही सबसे बड़ा भ्रम है। इस भ्रम को दूर कर बन्धन के स्वरूप को समझ कर उसे तोड़ना चाहिये । परिग्रह से दूसरी तरह से दो प्रकार किये हैं यथा - बाह्य परिग्रह और आभ्यन्तर परिग्रह । बाह्य परिग्रह के ९ भेद हैं यथा - श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ **.................................................................................................... १. क्षेत्र (खुली जमीन ) २. वास्तु ( ढंकी जमीन मकान आदि) ३. सोना ४. चान्दी ५. धन ६. धान्य ७. द्विपद ८. चतुष्पद ९. कुप्य ( कुविय - घर बिखरी की चीजें टेबल, मेज, कुर्सी, सिरक पथरना आदि) । आभ्यन्तर परिग्रह के १४ भेद हैं यथा १. हास्य २. रति ३. अरति ४. भय ५. शोक ६. जुगुप्सा ७. स्त्री वेद ८. पुरुष वेद ९. नपुंसक वेद १०. क्रोध ११. मान १२. माया १३. लोभ १४. मिथ्यात्व । ये सब परिग्रह बन्धन (कर्म बन्धन) हैं। इनको तोड़ने से मुक्ति की प्राप्ति होती है । सयं तिवाय पाणे, अदुवाऽण्णेहिं घाय । - हणतं वाऽणुजाण, वेरं वड्डइ अप्पणो ॥ ३॥ कठिन शब्दार्थ - सयं स्वयं - अपने आप तिवायए अतिपात करता है - मारता है, पाणे - प्राणियों को, घायए घात करवाता है, हणंतं घात करते हुए को, वेरं वैर, वड्डइ बढाता है, अप्पणो अपना । - भावार्थ - जो पुरुष स्वयं प्राणियों का घात करता है अथवा दूसरे द्वारा घात करवाता है अथवा प्राणियों का घात करते हुए पुरुषों का अनुमोदन करता है वह, मारे जाने वाले प्राणियों के साथ अपना बढ़ाता है। 1 - विवेचन - बाह्य परिग्रह और आभ्यन्तर परिग्रह - मूर्च्छादि का कारण हो जाता है । मूर्च्छावश प्राणी आरम्भ करता महान् अनर्थ करता रहता है । इसलिये परिग्रह और आरम्भ ये दोनों सुख स्वरूप आत्मा के लिये कठोर बन्धन हैं। संसार को बढ़ाते हैं। महा आरंभ और महा परिग्रह नरक गति का कारण है । * 'अणुजाणाइ' इति पाठान्तर । - For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ उद्देशक १ 0000000000०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० पण्णवणा सूत्र के २२ वें क्रियापद में बतलाया गया है कि - 'परिग्गहिया' क्रिया में आरम्भिया क्रिया की नियमा है और 'आरम्भिया' क्रिया में 'परिग्गहिया' क्रिया की भजना है अर्थात् जिसको पारिग्रहिकी क्रिया लगती है उसको आरम्भिकी क्रिया अवश्य लगती है (नियमा) और जिसको आरम्भिकी क्रिया लगती है उसको पारिग्रहिकी क्रिया भजना से लगती है(अर्थात् लगती भी है और नहीं भी लगती है)। ठाणाङ्ग सूत्र के तीसरे ठाणे में श्रावक के तीन मनोरथ का वर्णन चलता है. वहाँ भी पहले मनोरथ में बतलाया गया है कि-वह दिन मेरा धन्य होगा जिस दिन मैं थोड़ा या बहुत परिग्रह का त्याग करूंगा। हिन्दी का दोहा इस प्रकार है आरम्भ परिग्रह कब तजूं, कब लूं महाव्रत धार। कब शुद्ध मन आलोयणा, करूं संथारो सार ॥ यद्यपि इस दोहे में आरम्भ शब्द भी दिया है किन्तु ठाणाङ्ग सूत्र के तीसरे ठाणे में केवल परिग्रह शब्द ही है। वहाँ शास्त्रकार का अभिप्राय यह है कि - जब परिग्रह छूट जायेगा तो आरम्भ तो अपने आप ही छूट जायेगा। , प्रश्न - जैन सिद्धान्त में आत्मा को अजर अमर माना है। फिर उसकी हिंसा कैसे होती है ? : उत्तर - प्रश्न उचित है उसका समाधान शास्त्रकार ने इस प्रकार दिया है - पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलंच, उच्छ्वास निःश्वा-समथान्यदायुः। प्राणा दशैते भगवद्भिक्ता, स्तेषां वियोगि-करणंतु हिंसा ॥१॥ अर्थ - पांच इन्द्रिय, मन बल, वचन बल, काया बल, उच्छ्वासनिश्वास और आयु। तीर्थङ्कर भगवान् ने ये दस प्राण कहे हैं । प्राणी से (जीव से) इन प्राणों का वियोग करना हिंसा है। अठारह पाप स्थानों में पहला पाप हिंसा न कह कर प्राणातिपात कहा है। गाथा में "तिवायए" पद दिया है। अकार का इसमें लोप हो गया है इसलिये इसकी संस्कृत छाया 'अतिपातयेत्' करनी चाहिये। प्राणियों के प्राणों . का विनाश करने वाला जीव उन प्राणियों के साथ सैकड़ों जन्मों के लिये अपना वैर बढा लेता है इस कारण वह जीव दुःख परम्परा रूप बन्धन से मुक्त नहीं होता है। अतः सुखार्थी एवं मोक्षार्थी पुरुष का कर्तव्य है कि - वह प्राणातिपात, मृषावाद आदि अठारह ही पापस्थानों का तीन करण करना, . करवाना, अनुमोदन करना) और तीन योग (मन, वचन, काया) से त्याग कर दे। ... जस्सिं कुले समुप्पण्णे, जेहिं वा संवसे णरे । ममाइ लुप्पइ बाले, अण्णे अण्णेहिं 8 मुच्छिए ॥४॥ ® 'अण्णमण्णेहिं' इति पाठान्तर। For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कठिन शब्दार्थ - जस्सिं - जिसमें, समुप्पण्णे - उत्पन्न हुआ है, संवसे - निवास करता है, ममाइ - ममत्व रखता है, लुप्पइ - पीडित होता है, मुच्छिए - मूछित होता है। भावार्थ - जो आत्मा जिस कुल में उत्पन्न होता है और जिन-जिन के संग में रहता है उनसे वह यह समझ कर ममत्व करता है कि - 'यह मेरा है।' इस प्रकार वह (आत्म विकास में) 'बाल' (अज्ञानी) एक पर से दूसरे पर आसक्त होता रहता है। विवेचन - यहां 'अण्णे अण्णेहिं' (अण्णमण्णेहिं)- अन्य अन्य शब्द दो बार दिया हैं । इससे यह बताया गया है कि ज्यों-ज्यों प्राणी का संग बढ़ता जाता है त्यों-त्यों उसकी आसक्ति भी बढ़ती जाती है या आसक्ति के पात्र बदलते रहते हैं । वह पहले माता-पिता में स्नेह करता है उसके बाद पत्नी में और फिर पुत्र आदि में स्नेह करता जाता है। ज्ञानी पुरुष फरमाते हैं कि - जीव अकेला ही आता है और पर भव में अकेला ही जाता है अपने कर्मों से पीड़ित होते हुए प्राणी के लिये उसके माता-पिता आदि कोई भी त्राण-शरणभूत नहीं हो सकते हैं और वह भी किसी के लिये त्राण-शरणभूत नहीं हो सकता है। दूसरों का अपने लिये त्राण शरणभूत मानना यही उसकी बड़ी अज्ञानता है। वित्तं सोयरिया चेव, सव्वमेयं ण ताणइ । संखाए जीवियं चेव, कम्मुणा उ तिउट्टइ ॥५॥ कठिन शब्दार्थ - वित्तं - धन, सोयरिया - सोदर्य-सहोदर, ताणइ - रक्षा करता है, संखाए - यह जान कर, जीवियं - जीवन को, कम्मुणा - कर्म से । भावार्थ - धन, दौलत और सहोदर-एक माता के उदर से जन्मे हुए सगे भाई बहिन आदि ये सब रक्षा के लिए समर्थ नहीं होते हैं तथा जीवन भी अल्प है यह जानकर जीव, कर्म से पृथक् हो जाता है । विवेचन - 'संखाए जीवियं चेव, कम्मुणा उ तिउट्टइ' इस श्लोकार्ध का टीकाकार ने यह अर्थ किया है - "और जीवन थोड़ा है यह ज्ञ परिज्ञा से जान कर, प्रत्याख्यान परिज्ञा से स्नेहादि को छोड़ कर, कर्म से दूर हो जाता है या संयम अनुष्ठान रूप क्रिया से बन्धनों को तोड देता है। ___प्रथम गाथा में यह प्रश्न उपस्थित किया गया था कि - किसे जान कर व्यक्ति कर्म-बन्धन को तोड़ सकता है ? इस का उत्तर इस पांचवीं गाथा में दिया गया है - इसमें कर्मबन्धन तोड़ने के दो उपाय बताये गये हैं यथा - १. जितने भी सजीव (माता-पिता आदि परिजन) तथा अजीव (सोना, चान्दी आदि धन) पदार्थ हैं वे अपने कर्मों से दुःखित होते हुए प्राणी की, रक्षा करने में समर्थ नहीं हैं। २. जिस जीवन और शरीर की रक्षा के लिये अनेक प्रकार के पाप कार्य करके अनेक प्रकार के साधन जुटाता है। वह जीवन और शरीर भी क्षणभङ्गर है। For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ उद्देशक १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 यदि ये दो बातें भली प्रकार से समझ में आ जाय तो प्राणी नये कर्म उपार्जन नहीं करता है और पुराने कर्म बन्धनों को तोड़ कर मुक्त हो सकता है। । एए गंथे विउक्कम्म, एगे समण माहणा । अयाणंता विउस्सित्ता, सत्ता कामेहिं माणवा ॥६॥ कठिन शब्दार्थ - गंथे - ग्रंथों (बंधनों) को, विउक्कम्म - व्युतक्रम्य-छोड़ कर, समण माहणा - श्रमण और ब्राह्मण, अयाणंता - नहीं जानते हुए-अज्ञानी, विउस्सित्ता - स्व सिद्धान्तों में बद्ध, सत्ता - आसक्त, कामेहिं - कामभोगों में । भावार्थ - कोई कोई श्रमण और ब्राह्मण इन बन्धनों को नहीं जान कर अज्ञान से अनेक प्रकार की कल्पना में फंस जाते हैं और वे अज्ञानी मनुष्य काम भोगों में डूब जाते हैं । विवेचन - प्रथम अध्ययन का अर्थाधिकार पर समय वक्तव्यता भी है इसलिये पांच गाथा तक स्व-सिद्धान्त का कथन करने के बाद अब पर-सिद्धान्त बतलाने के लिये शास्त्रकार कहते हैं । टीकाकार ने इस गाथा की निम्न आशय की टीका की है - 'कोई-कोई शाक्य भिक्षु और बृहस्पति (नास्तिक मत प्रवर्तक) मतावलम्बी इन अर्हत्कर्थित शास्त्रों को छोड़ कर, अपने स्वकल्पित शास्त्रसिद्धान्तों में अत्यन्त आग्रह रखते हैं वे अज्ञानी मानव काम भोगों में आसक्त हो जाते हैं । ____ संति पंच महब्भूया, इहमेगेसिमाहिया । पुढवी आऊ तेऊ वा, वाऊ आगास पंचमा ॥७॥ कठिन शब्दार्थ - महब्भूया - महाभूत, इह - इस लोक में, एगेसिं - किन्हीं के, आहिया - कहा है, पुढवी- पृथ्वी, आऊ - अप्-जल, तेऊ - तेजस्काय, वाऊ - वायुकाय, आगास - आकाश, पंचमा- पांचवां । . भावार्थ - पञ्च महाभूतवादियों का कथन है कि इस लोक में पृथिवी, अप् (जल), तेजस्अग्नि, वायु और पाँचवाँ आकाश, ये पाँच महाभूत हैं। एए पंच महब्भूया, तेब्भो एगो त्ति आहिया । अह तेसिं विणासेणं, विणासो होइ देहिणो ॥८॥ कठिन शब्दार्थ - तेब्भो - इन से, एगो त्ति - एक-आत्मा विणासेणं - नाश से, होइ - होता है, देहिणो - आत्मा का । भावार्थ - पूर्व गाथा में कहे हुए पृथिवी आदि पाँच महाभूत हैं। इन पाँच महाभूतों से एक आत्मा उत्पन्न होता है ऐसा लोकायतिक कहते हैं । इन महाभूतों के नाश होने से उस आत्मा का भी नाश हो जाता है यह वे मानते हैं । For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ जहा य पुढवी. थूभे, एगे णाणा हि दीसइ । एवं भो ! कसिणे लोए, विष्णू णाणा हि दीसइ ॥९॥ कठिन शब्दार्थ - पुढवी थूभे - पृथ्वी समूह, णाणा हि - नाना रूपों में, दीसइ - दिखाई देता है, कसिणे - कृत्स्न-सम्पूर्ण विण्णू - विज्ञ, विद्वान् ।। ____भावार्थ - जैसे एक ही पृथिवी समूह, नाना रूपों में देखा जाता है उसी तरह एक आत्मस्वरूप यह समस्त जगत् नाना रूपों में देखाई देता है। एवमेगेत्ति जप्पंति, मंदा आरंभणिस्सिया । एगे किच्चा सयं पावं, तिव्वं दुक्खं णियच्छइ ॥ १० ॥ कठिन शब्दार्थ - जप्पंति (जपंति) - बतलाते हैं, मैदा - मन्द-अज्ञानी, आरंभणिस्सिया - आरंभ में आसक्त, किच्चा - करके, पावं - पाप, तिव्वं - तीव्र, णियच्छइ - प्राप्त करते हैं । भावार्थ - कोई अज्ञानी पुरुष, एक ही आत्मा है ऐसा कहते हैं लेकिन आरम्भ में आसक्त रहने वाले जीव ही पाप कर्म करके स्वयं दुःख भोगते हैं, दूसरे नहीं। विवेचन - गाथा ७ से १० तक भौतिक एक तत्त्ववादी और ब्रह्म एक तत्त्ववादी के मत का प्रतिपादन और उनकी मिथ्या मान्यता का निरूपण किया गया है। दोनों वादी एक दूसरे का खण्डन करते हैं। भूतवादी (७-८ गाथा में) दृश्य का ही अस्तित्व स्वीकार करता है और द्रष्टा का निषेध करता है अर्थात् दृश्य वस्तुओं से भिन्न द्रष्टा का होना नहीं मानता है और दूसरा वादी 'एकमेवाद्वितीयम्' - एक ब्रह्म ही है, दूसरा कोई नहीं है - ऐसा मानता है। द्रष्टा के सिवाय दृश्य वस्तुओं का अस्तित्व है ही नहीं। अर्थात् जड़ और चेतन एक ही तत्त्व के दो रूप हैं। ___शास्त्रकार एक तत्त्ववाद को (१० वी गाथा में) अयुक्त बतलाते हैं। क्योंकि दोनों ही एक तत्त्ववादी के सिद्धान्तों से प्रत्यक्ष बद्ध-बन्धक का भाव का निषेध हो जाता है और इस श्रद्धा के फलस्वरूप जीव आरंभ परिग्रह में फंसता जाता है । अतः ये वाद दु:ख के कारण हैं । पत्तेयं कसिणे आया, जे बाला जे य पंडिया । संति पिच्चा ण ते संति, णत्थि सत्तोववाइया ॥ ११ ॥ कठिन शब्दार्थ - पत्तेयं - प्रत्येक, कसिणे - कृत्स्न-सम्पूर्ण, आया - आत्मा, जे - जो, पिच्चा (पेच्चा)- परभव में जाकर, सत्ता - प्राणी, उववाइया - परलोक में जाने वाला। भावार्थ - जो अज्ञानी हैं और जो ज्ञानी हैं उन सब का आत्मा भिन्न-भिन्न है एक नहीं है । मरने के पश्चात् आत्मा नहीं रहता है अतः परलोक में जाने वाला कोई नित्य पदार्थ नहीं है । For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ उद्देशक १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 ११ विवेचन - इस गाथा में तज्जीवतच्छरीर (तत् जीव तत् शरीर) वादी के मत का कथन किया गया है। "स एव जीव स्तदेव शरीरमिति वदितुं शीलमस्येति तज्जीवतच्छरीरवादी" अर्थात् वही जीव है और वही शरीर है। जो इस प्रकार मानता है उसे "तज्जीवतच्छरीरवादी" कहते हैं । यद्यपि पूर्वोक्त पञ्च भूतवादी भी शरीर को ही आत्मा कहता है तथापि उसके मत में पांच भूत ही शरीर रूप में परिणत हो कर सब प्रकार की क्रियाएं करते हैं परन्तु 'तज्जीवतच्छरीरवादी' के मत में यह नहीं है। उसकी मान्यता है कि शरीर रूप में परिणत पांच भूतों से चैतन्यशक्ति आत्मा की उत्पत्ति होती है। यही इसका भूतवादी से भेद है। णत्थि पुण्णे व पावे वा, णत्थि लोए इओवरे । सरीरस्स विणासेणं, विणासो होइ देहिणो ॥१२॥ कठिन शब्दार्थ - णत्थि - नहीं, इओवरे - इससे दूसरा, लोए - लोक। भावार्थ - पुण्य और पाप नहीं हैं । इस लोक से भिन्न दूसरा लोक भी नहीं है शरीर के नाश से आत्मा का भी नाश हो जाता है । विवेचन - प्रश्न - पुण्य किसे कहते हैं ? .. उत्तर - "पुणति शुभीकरोति, पुनाति वा पवित्रीकरोति आत्मानम् इति पुण्यम" अर्थात् जो आत्मा को शुभ करे आत्मा को पवित्र बनावे उसे पुण्य कहते हैं । वह सातावेदनीयादि ४२ प्रकार का है। थोकड़ा वाले बोलते हैं कि जो आत्मा को पवित्र करे, नीची स्थिति से ऊंची स्थिति में लावे, धर्म के सन्मुख करे उसे पुण्य कहते हैं। पुण्य उपार्जन करना बडी कठिनाई से होता है। पुण्य को भोगना सरल है पुण्य के फल जीव के लिये मधुर और सुखदायी होते हैं। . : प्रश्न - पाप किसे कहते हैं ? उत्तर - "पातयति नरकादिषु इंति पापम्।" पांशयति गुण्डयति आत्मानं पातयति च आत्मन आनन्दरसं शोषयति क्षपयतीति पापम् ।" .. अर्थात् जो आत्मा को नरकादि दुर्गतियों में डाले, आत्मा को मलिन करे तथा आत्मा के आनन्द रस को सुखावे उसे पाप कहते हैं। पाप उपार्जन करना सरल है पर उसे भोगना बड़ा कठिन है। हंसतेहंसते जीव पाप कर्म बांध लेता है पर भोगते समय बहुत रोता है किन्तु रोने से भी छुटकारा होता नहीं ... पाप के फल तो अवश्य भोगने पड़ते हैं। हरिभद्रीयाष्टक में पुण्य पाप के सम्बन्ध में एक चौभंगी कही गई है यथा - १. पुण्यानुबन्धी पुण्य - अर्थात् वर्तमान भव का ऐसा पुण्य जो आगामी काल के लिये पुण्य का अनुबन्ध करावे । जैसे - भरत चक्रवर्ती। For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ . 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000००० २. पापानुबन्धी पुण्य - वर्तमान में तो पुण्य का उदय है किन्तु आगामी काल के लिये पाप का अनुबन्ध करावे । जैसे - ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती। ३. पापानुबन्धी पाप - वर्तमान में भी पाप का उदय है और फिर आगामी काल में भी पाप का , अनुबन्ध करावे । यथा - कालसौकरिक कसाई तथा सिंह व्याघ्र सर्प बिल्ली आदि वर्तमान में भी पाप.. उदय है और मर कर नरकादि दुर्गतियों में आता है । . ४. पुण्यानुबन्धी पाप - वर्तमान में तो पाप का उदय है किन्तु आगामी काल में पुण्य (शुभ) का अनुबन्ध करावे । यथा - हरिकेशी मुनि तथा चण्डकौशिक सर्प, नन्द मणियार (मणिकार) का जीव मेंढक। प्रश्न - पुण्यानुबन्धी पुण्य का उपार्जन किस तरह होता है ? उत्तर - वीतराग कथित आगमों पर दृढ़ श्रद्धा रखते हुए निदान (नियाणा) रहित शुद्ध चारित्र का पालन करने से पुण्यानुबन्धी पुण्य का बन्ध होता है। उपरोक्त चार भङ्गों में से प्रथम भङ्ग सर्वश्रेष्ठ है, भरत चक्रवर्ती महान् पुण्य का उदय रूप चक्रवर्ती पद को भोग कर रत्नजड़ित स्वर्ण सिंहासन पर बैठे हुए केवलज्ञान प्राप्त कर उसी भव में मोक्ष चले गये । तज्जीवतच्छरीर वादी का मत है कि - पुण्य और पाप ये दोनों ही नहीं हैं क्योकि इनका धर्मी रूप आत्मा ही नहीं है जबकि आत्मा ही नहीं है तो इस लोक से भिन्न परलोक (दूसरा लोक) भी नहीं है । जहां जाकर पुण्य और पाप का फल भोगा जाता हो। कारण यह है शरीर रूप में स्थित पांच भूतों के नाश होने से अर्थात् उनके अलग अलग होने से आत्मा का विनाश हो जाता है। अतः शरीर नष्ट हो जाने पर उससे निकल कर आत्मा परलोक में जाकर पुण्य-पाप का फल भोगता है । यह मान्यता ठीक नहीं है ऐसा उपरोक्त वादी का मत है । कुव्वं च कारयं चेव, सव्वं कुव्वं न विज्जइ । एवं अकारओ अप्पा, एवं ते उ पगब्भिया ॥१३॥ कठिन शब्दार्थ - कुव्वं - करने वाला, कारयं (कारवं)- कराने वाला, ण विज्जइ - नहीं है, अकारओ - अकारक, पगब्भिया - धृष्टता करते हैं । भावार्थ - आत्मा स्वयं कोई क्रिया नहीं करता है और दूसरों के द्वारा भी नहीं करवाता है तथा वह सब क्रियायें नहीं करता है । इस प्रकार वह आत्मा 'अकारक' यानी क्रिया का कर्ता नहीं है ऐसा, अकारकवादी सांख्य आदि कहते हैं । For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जे ते उ वाइणो एवं लोए तेसिं कओ सिया । मंदा आरंभणिस्सिया ॥ १४ ॥ तमाओ ते तमं जंति, कठिन शब्दार्थ - वाइणो तमं दूसरे अज्ञान को, जंति प्राप्त करते हैं । भावार्थ - जो लोग आत्मा को अकर्त्ता कहते हैं उन वादियों के मत में यह चतुर्गतिक संसार कैसे हो सकता है ? वस्तुतः वे, मन्द अज्ञानी हैं तथा आरम्भ में आसक्त हैं । अतः वे एक अज्ञान से निकल कर दूसरे अज्ञान को प्राप्त करते हैं । अध्ययन १ उद्देशक १ - १३ वादी, सिया हो सकता है, तमाओ एक अज्ञान से निकल कर, - - विवेचन- ११ वीं से १४ वीं गाथा तक देहात्मवाद और आत्म-अकर्तृत्ववाद का स्वरूप बता कर, उनकी अपूर्णता की ओर संकेत किया गया है । पहले वादी (१९वीं १२वीं गाथा) का कहना है कि यदि पंच महाभूतों की क्रिया को ही आत्मा • मान लें तो उनमें मूर्खता - विद्वता आदि विचित्रताएं कैसे सम्भव हो सकती हैं और वैसे ही एक ज्ञाता रूप जगत् मानने पर भी यही आपत्ति खड़ी होती है, क्योंकि सभी आत्माएं भिन्न भिन्न हैं; उनके विकास की न्यूनाधिकता (कमी बेशी) प्रत्यक्ष दिखाई देती है । अतः मूर्खता विद्वत्ता और कुरूपता - सुरूपता आदि लोक की विचित्रताएं पंच महाभूतों से उत्पन्न चैतन्य शक्ति को मानने पर ही सम्भव हो सकती है अर्थात् संसार की विचित्रताएं महाभूतों के व्यवस्था क्रम से उत्पन्न आत्मा की ग्राहक शक्ति पर ही आधारित है। इस विचित्रता के लिये पुण्य पाप की कल्पना भी निराधार है। क्योंकि महाभूतों की अव्यवस्था से आत्मा नष्ट हो जाती है- दूसरा शरीर धारण करने वाला कोई तत्त्व नहीं रहता । दूसरा वादी (१३वीं गाथा ) कहता है - आत्मा का अस्तित्व शरीर नष्ट हो जाने के बाद भी रहता है । आत्मा को सक्रिय मान लेने से ही उसके निषेध का अवसर उपस्थित होता है । यद्यपि आत्मा बुरे • भले कार्य करते हुए दिखाई देता है, उसमें विचित्रताएं भी भासित होती हैं; परन्तु वस्तुतः ऐसा है नहींयह सब दृष्टि विपर्यास का परिणाम हैं। जैसे दर्पण के सामने कोई रंगीन वस्तु या नाचती हुई आकृति आती है तो दर्पण रंगीन और नृत्यमय दिखाई देने लगता है क्योंकि उस समय दर्पण से ध्यान हट कर उस दृश्य पर ही ध्यान केन्द्रित हो जाता है । परन्तु फिर भी दर्पण में इस प्रकार की विकृति होना भी समझदार स्वीकार नहीं करेगा। वैसे ही आत्मा में भी प्रकृति की क्रिया का प्रतिबिम्ब पड़ता है । परन्तु . आत्मा कर्त्ता नहीं है । इसे 'मुद्राप्रतिबिम्बोदय' न्याय कहते हैं । स्फटिक मणि के पास लाल फूल रख दिया जाय या उसमें लाल डोरा पिरो दिया जाय तो वह लाल सा प्रतीत होता है परन्तु वह वास्तव में लाल नहीं सफेद ही रहता है । तथापि लाल फूल और 'कुओ' इति पाठान्तर For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 लाल डोरे की छाया पड़ने से वह लाल हुआ सा जान पड़ता है इसी तरह सांख्य मत में आत्मा भोग रहित है तथा बुद्धि के संसर्ग से (छाया पड़ने से) बुद्धि का भोग आत्मा में प्रतीत होता है। इसी कारण आत्मा का भोग माना जाता है । यह 'जपा-स्फटिक' न्याय का अर्थ है । प्रकृति क्रिया करती है और पुरुष (आत्मा) उस क्रिया का फल भोगता है तथा बुद्धि से ज्ञात अर्थ को आत्मा अनुभव करता है यह अकारकवादी सांख्य का मत है । - इस प्रकार पहला-वादी जड़ और जड़ से उत्पन्न आत्मा ये दो तत्त्व और दूसरा वादी पुरुष और प्रकृति ये दो तत्त्व मानता है । कुछ भेद से दोनों को जड़ क्रियावादी (जड़ से 'जगत्' मानने वाले) कह सकते हैं। सूत्रकार कहते हैं कि दोनों मत युक्ति संगत नहीं हैं । यदि आत्मा महाभूतों की व्यवस्था से पैदा होता है तो उस व्यवस्था को बनाने-मिटाने वाला कौन ? उसका उपभोग करने वाला कौन ? उसको धारण करने वाला कौन ? यदि जड़ से आत्मा पैदा होता है तो बह जड़ का अंग हो जाता है न कि उससे अलग अंगी रहता है । इस प्रकार जड़ और चेतन को भिन्न तत्त्व नहीं मानने पर लोक के अभाव का प्रसंग उपस्थित होता है और यदि जड़ प्रकृति को ही कर्ता और आत्मा को अकर्ता माना जाय तो कई दूषण पैदा हो जाते हैं । यदि आत्मा अकर्ता है तो वह अभोक्ता भी होना चाहिए तो फिर यह दुःख और सुख का अनुभव किसे होता है ? मर कर जन्म कौन लेता है ? यदि आत्मा अकर्ता है तो उसे अलिप्त भी रहना चाहिए-जैसे कि प्रतिबिम्बित होने पर कांच को यह अनुभव नहीं होता कि वह रंगीन या नर्तित आकृतिमय है। इस प्रकार जगत् के अस्तित्व पर ही कुठाराघात हो जाता है। दोनों वादों से लोक की स्थिति सम्भव नहीं हो सकती । गये तो थे अन्धेरे से उजाले की ओर, अज्ञान से ज्ञान की ओर; परन्तु पहले से भी अधिक अन्धकार-अज्ञान में जा पड़े। ...संति पंच महब्भूया, इहमेगेसि-माहिया । आयछट्ठो पुणो आहु, आया लोगे य सासए ॥१५॥ कठिन शब्दार्थ - आयछट्ठो - आत्मा छठा है, पुणो - फिर, आहु - कहते हैं, लोगे - लोक, यऔर, सासए - शाश्वत-नित्य। भावार्थ - कोई कहते हैं कि इस लोक में महाभूत पाँच और छठा आत्मा है । फिर वे कहते हैं । 'कि आत्मा और लोक शाश्वत-नित्य हैं। . दुहओ ण विणस्संति, णो य उप्पज्जए असं । सव्वेऽवि सव्वहा भावा, णियत्ति भावमागया ॥१६॥ - कठिन शब्दार्थ - दुहओ - दोनों प्रकार से, ण विणस्संति- नष्ट नहीं होते हैं, उप्पजए - उत्पत्ति होती है, सव्वहा- सर्वथा, णियत्ति भावं - नियति भाव को, आगया - प्राप्त हैं। For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ उद्देशक १ १५ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 . भावार्थ - पृथिवी आदि पाँच महाभूत तथा छठा आत्मा, सहेतुक-कारण वश या निर्हेतुक-बिना कारण दोनों ही प्रकार से नष्ट नहीं होते हैं तथा असत् वस्तु की उत्पत्ति नहीं होती है । सभी पदार्थ सर्वथा नित्य हैं । विवेचन - (अ) निर्हेतुक विनाश-बिना कारण से नष्ट होना, सहेतुक विनाश-लट्ठी आदि कारण से नष्ट होना । __ (आ) 'सभी पदार्थ सब प्रकार से निश्चित भाव वाले हैं' अर्थात् सभी भाव पदार्थ में पहले से ही विद्यमान हैं-नये पैदा नहीं होते और जिसमें जो भाव पूरी तरह से गर्भित होते हैं-वही भाव प्रकट होते हैं-दूसरे नहीं । जैसे स्याही में वर्ण-चित्रों का पूर्ण रूप से सद्भाव है, तभी स्याही से उनका निर्माण होता है । यदि वर्णादि भाव स्याही में पूर्णतः विद्यमान नहीं होते तो उससे सजीव आदमी भी बन जाते । परन्तु स्याही में आदमियत-आदमीपणा-(मनुष्यपणा) रूप से विद्यमान ही नहीं हैं । पंच खंधे वयंतेगे बाला उ खणजोइणो । अण्णो अणण्णो णेवाहु हेउयं च अहेउयं ॥ १७॥ कठिन शब्दार्थ - खंधे - स्कन्ध, वयंति - बताते हैं, खणजोइणो - क्षण मात्र रहने वाले, अण्णो - अन्य-भिन्न, अणण्णो - अनन्य-अभिन्न, ण - नहीं, एव - ही, आहु - कहते हैं, हेउयं - हेतुक-कारण से, अहेउयं - अहेतुक-बिना कारण से। भावार्थ - कोई अज्ञानी क्षणमात्र स्थित रहने वाले पांच स्कन्धों को बतलाते हैं : भूतों से भिन्न अथवा अभिन्न, कारण से उत्पन्न अथवा बिना कारण उत्पन्न आत्मा, वे नहीं मानते हैं । विवेचन - पांच स्कन्ध इस प्रकार माने जाते हैं - १. रूप स्कन्ध = पृथ्वी, धातु, रूप आदि । २. वेदना स्कन्ध - दुःख, सुख और अदुःख-असुख का अनुभव । ३. विज्ञान स्कन्ध = रूप रसादि का ज्ञान । ४. संज्ञा स्कन्ध = वस्तुओं के नाम ।। ५. संस्कार स्कन्ध = पाप-पुण्य आदि । बौद्ध (बौद्धों का एक भेद) उपरोक्त रूप आदि पांच स्कन्धों को ही आत्मा मानते हैं । इनसे भिन्न आत्मा नाम का कोई स्कन्ध नहीं है । यह क्षण-क्षयी है अर्थात् पदार्थ क्षण मात्र स्थित रहते हैं । जैसे सांख्यवादी पांच भूतों से आत्मा को भिन्न मानते हैं तथा चार्वाक आत्मा को पांच भूतों से अभिन्न मानता है उस तरह से ये बुद्ध नहीं मानते हैं । एवं आत्मा को नित्य भी नहीं मानते हैं। आत्मा एवं पदार्थ अपने स्वभाव से ही अनित्य उत्पन्न होते हैं । अतः वे सब क्षणिक हैं । For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ००००० श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ .......................................................****************.66666 पुढवी आऊ तेऊ य, तहा वाऊ य एगओ । चत्तारि धाउणो रूवं, एवमाहंसु आवरे ॥ १८॥ कठिन शब्दार्थ - धाउणो धातु के, रूवं रूप, एवं इस प्रकार, आहंसु - कहा है, आवरे ( जाणगा ) - दूसरों ने । भावार्थ- पृथिवी, जल, तेज और वायु ये चार, धातु के रूप हैं । ये जब शरीर रूप में परिणत होकर एकाकार हो जाते हैं तब इनकी जीव संज्ञा होती है (चातुर्धातुकमिदं शरीरम् ) । यह दूसरे बौद्ध कहते हैं । विवेचन- १५वीं १६वीं गाथा में सत्वाद का, १७वीं गाथा में स्कन्धवादी बौद्ध और १८वीं गाथा में धातु वादी बौद्ध सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है । १४वीं गाथा से ही इनकी अपूर्णता जानी जा सकती है । कुछ बौद्धों की मान्यता है कि पृथ्वी, जल, तेज और वायु ये चारों पदार्थ जगत् को धारण और पोषण करते हैं; इसलिये धातु कहलाते हैं । ये चारों धातु जब एकाकार होकर शरीर रूप में परिणत होते हैं तब इनकी जीव संज्ञा होती है । अर्थात् यह शरीर चार धातुओं से बना है अतः इन चार धातुओं से भिन्न कोई आत्मा नहीं है । किन्तु उनकी यह मान्यता युक्तिसंगत नहीं है । यह आत्मा परिणामी, ज्ञान का आधार, परलोक में जाने वाला है अतः भूतों से भिन्न है तथा शरीर के साथ मिल कर रहने के कारण कथंचित् शरीर से अभिन्न भी है । यह आत्मा नैरयिक तिर्यञ्च मनुष्य और देवगति के कारण रूप कर्मों के द्वारा भिन्न भिन्न रूपों में बदलता रहता है इसलिये यह सहेतुक व अनित्य भी है । आत्मा के निज स्वभाव का कभी नाश नहीं होता । इसलिये यह निर्हेतुक एवं नित्य भी है । इस प्रकार शरीर से भिन्न आत्मा सिद्ध हो जाने पर भी उसे चार धातुओं से बना हुआ शरीर मात्र बताना अयुक्त है । अगारमावसंता वि, आरण्णा वा वि पव्वया । - - इमं दरिसणमावण्णा, सव्व दुक्खा विमुच्चइ ॥ १९ ॥ कठिन शब्दार्थ - अगारं घर में, आवसंता - निवास करने वाले, आरण्णा (अरण्णा ) अरण्य - वन में निवास करने वाले, पव्वया प्रव्रजित, दरिसणं- दर्शन को, आवण्णा प्राप्त हुए, सव्वदुक्खा - सब दुःखों से, विमुच्चइ - मुक्त हो जाते हैं । भावार्थ - घर में निवास करने वाले गृहस्थ तथा वन में रहने वाले तापस एवं प्रव्रज्या धारण किए हुए मुनि जो कोई इस मेरे दर्शन को प्राप्त करते हैं वे सब दुःखों से मुक्त हो जाते हैं, ऐसा वे अन्यदर्शनी कहते हैं । विवेचन - भूतवादी और देहात्मवादी के मत से भोगों से वंचित रहना ही दुःख है; अतः साधना - For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ अध्ययन १ उद्देशक १ 000000000000000000000000०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० में दुःख है । इन मतवादियों के लिये भोग के साधन जुटाने के प्रयत्नों के सिवाय और कोई साधना की आवश्यकता रहती ही नहीं है। किसी भी तरह से सुखोपभोग कर सकते हैं और कोई असाध्य दु:ख आने पर हत्या का रास्ता खुलते भी देर नहीं हो सकती है। इनके अतिरिक्त वादी उनके दर्शन के ज्ञान से या आचरण से मुक्ति बताते हैं । ते णावि संधिं णच्चा णं, ण ते धम्मविओ जणा । जे ते उ वाइणो एवं, ण ते ओहंतराऽऽहिया ॥ २०॥ कठिन शब्दार्थ - ण - नहीं, संधि - संधि को, णच्चा - जान कर, धम्मविओ (धम्मविऊ)धर्म जानने वाले, वाइणो - वादी, ओहंतरा - ओघ-संसार प्रवाह-संसार को पार करने वाला। भावार्थ - पूर्वोक्त अन्यदर्शनी, सन्धि को जान कर क्रिया में प्रवृत्त नहीं हैं तथा अफलवाद का समर्थन करने वाले वे, संसार को पार करने वाले नहीं कहे गए हैं । ते णावि संधिं णच्चा णं, ण ते धम्मविओ जणा । जे ते उ वाइणो एवं, ण ते संसार पारगा ॥ २१॥ कठिन शब्दार्थ - संसार पारगा-संसार को पार करने वाले। भावार्थ - वे अन्यतीर्थी सन्धि को जाने बिना ही क्रिया में प्रवृत्त होते हैं। वे धर्म के स्वरूप को नहीं जानते हैं तथा पूर्वोक्त सिद्धान्त को मानने वाले वे अन्यतीर्थी संसार को पार नहीं कर सकते हैं । ते णावि संधि णच्चा णं, ण ते धम्मविओ जणा । जे ते उ वाइणो एवं, ण ते गब्भस्स पारगा ॥२२॥ कठिन शब्दार्थ - गब्भस्स पारगा - गर्भ को पार करने वाले। भावार्थ - वे अवतीर्थी सन्धि को जाने बिना ही क्रिया में प्रवृत्त हैं तथा वे धर्मज्ञ नहीं है । एवं पूर्वोक्त मिथ्या सिद्धान्त को मानने वाले वे अन्यतीर्थी गर्भ को पार नहीं कर सकते हैं अर्थात् वे बारम्बार मर कर गर्भ में आते रहते हैं ।। २२॥ ते णावि संधि णच्चा णं, ण ते धम्मविओ जणा। जे ते उ वाइणो एवं, ण ते जम्मस्स पारगा ॥ २३॥ .. कठिन शब्दार्थ- जम्मस्स पारगा - जन्म को पार करने वाले। . भावार्थ - वे अन्यतीर्थी सन्धि को जाने बिना ही क्रिया में प्रवृत्त होते हैं और वे धर्म को नहीं जानते हैं । पूर्वोक्त मिथ्यासिद्धान्त की प्ररूपणा करने वाले वे अन्यतीर्थी जन्म को पार नहीं कर सकते हैं ।। २३ ॥ For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 ... ते णावि संधिं णच्चा णं, ण ते धम्मविओ जणा। जे ते उ वाइणो एवं, ण ते दुक्खस्स पारगा ॥२४॥ भावार्थ - वे अन्यतीर्थी सन्धि को जाने बिना ही क्रिया में प्रवृत्त होते हैं तथा वे धर्मज्ञ नहीं है । पूर्वोक्त प्रकार से मिथ्यासिद्धान्त की प्ररूपणा करने वाले वे अन्यतीर्थी दुःख को पार नहीं कर सकते हैं अर्थात् वे दुःख से छुटकारा नहीं पा सकते हैं ।। २४॥ ते णावि संधि णच्चा णं, ण ते धम्मविओ जणा । जे ते उ वाइणो एवं, ण ते मारस्स पारगा ॥ २५॥ कठिन शब्दार्थ - मारस्स पारगा - मृत्यु को पार करने वाला। भावार्थ - वे अन्यतीर्थी सन्धि को जाने बिना ही क्रिया में प्रवृत्त होते हैं । वे धर्म को नहीं जानते हैं अतः पूर्वोक्त मिथ्यासिद्धान्त की प्ररूपणा करने वाले वे लोग मृत्यु को पार नहीं कर सकते हैं अर्थात् बारम्बार मृत्यु को प्राप्त होते रहते हैं । _ विवेचन - गाथा १९ से लेकर २५ तक में अन्य मतावलम्बियों के मत का कथन किया गया है। उनके कथन का निष्कर्ष है - सर्वान् धर्मान् परित्यज्य, मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वाम् सर्वपापेभ्यो, मोक्षयिष्यामि मा शुच॥ अर्थ - सब धर्मों को छोड़ कर तुम मेरी शरण में आ जाओ अर्थात् मेरे मत को स्वीकार कर लो फिर तुम किसी बात का विचार और फ्रिक मत करो। मैं तुमको सब पापों से छुड़ा कर मोक्ष में पहुंचा दूंगा। - इस प्रकार का अन्य मतावलम्बियों का कथन सर्वथा अनुचित तथा मिथ्यात्व पूर्ण है। क्योंकि जो प्राणी जैसा कर्म करता है जैसे कर्म बांधता है वैसा ही उसका फल वह स्वयं भोगता है और भोग कर उस कर्म से छुटकारा पाता है। कर्म एक प्राणी करे और दूसरा उसका फल भोग कर अथवा फल भोगे बिना ही उस प्राणी को कर्मों से छुटकारा दिला दे ऐसा कभी हुआ नहीं, होता नहीं और होवेगा भी नहीं। ये अन्य मतावलम्बी अन्य-दूसरों को धोखा देते ही है किन्तु अपनी आत्मा को भी धोखा देते हैं। इन उपरोक्त गाथाओं में अन्य मतावलम्बियों के लिये ओघ गर्भ आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है उनका अर्थ इस प्रकार है - . १. ओघ - संसार का प्रवाह । २.संसार-'संसरन्ति गमनागमनं कुर्वन्ति प्राणिनो अस्मिन् इति संसारः।' अर्थात् प्राणी जिसमें निरन्तर आवागमन करते रहते हैं। For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ उद्देशक १ .....................TÜÜÜÜÜÜÜÜ*****************ÜÜÜÜÜÜÜTÜÜÜÜÜÜÜÜÜÜ***.***.000 ३. गर्भ - एक जन्म का आयुष्य पूर्ण करके दूसरी माता के गर्भ में जाना । ४. जन्म - एक गति के जन्म को पूरा करके फिर दूसरे जन्म में जाना । ५. दुःख - कष्ट पीडा । जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगाणि मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसंति जंतवो ॥ ६. मार- मृत्यु - एक भव के आयुष्य को पूरा करना । "सात भय संसार मां तिण मां मरण भय मोटो रे । " अन्य मतावलम्बी अज्ञानता के कारण ओघ, संसार, गर्भ जन्म, दुःख और मृत्यु को पार नहीं कर सकते हैं। 1 उपरोक्त गाथाओं में 'संधि' शब्द दिया है। संधि दो प्रकार की होती है १. द्रव्य संधि और २ भावसन्धि | द्रव्य सन्धि दीवार आदि को जोड़ने को द्रव्य संधि कहते हैं । ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मों को क्षय करने के अवसर को भाव सन्धि कहते हैं । १. संयोग प्राकृत शब्द कोश के अनुसार सन्धि के यहाँ छह अर्थ मुख्यतया होते हैं । यथा २. जोड़ या मेल ३. उत्तरोत्तर पदार्थ परिज्ञान ४. मत (अभिप्राय) ५. अवसर ६. विवर (छिद्र) । इन अर्थों के अनुसार व्याख्या इस प्रकार समझनी चाहिये १. संयोग - आत्मा के साथ कर्मों का संयोग कैसे और कब हुआ ? १९ २. जोड़ या मेल - आत्मा के साथ कर्मों का मेल (जोड) किस कारण से हुआ ? ३. उत्तरोत्तर पदार्थ विज्ञान आगे से आगे तत्त्वभूत पदार्थों का परिज्ञान कैसे होता है ? ४. मत (अभिप्राय) - कर्मों के साथ आत्मा का सम्बन्ध किस सिद्धान्त के अनुसार होता है । ५. अवसर - कर्मों को तोड़ने का अवसर मनुष्य भव उत्तमकुल आर्यक्षेत्र, लम्बा आयुष्य, परिपूर्ण इन्द्रियाँ आदि की प्राप्ति होना । ६. विवर (छिद्र) - - - ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मों का विवर (रहस्य) क्या है अर्थात् उनका स्वरूप क्या है और उनका क्षय करने का उपाय क्या है ? उपरोक्त बातों को जाने बिना ही अन्य मतावलम्बी क्रिया में प्रवृत्त होते हैं। इसलिये वे कर्मों का क्षय करके मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते हैं । वह दुखाई, अणुहोंति पुणो पुणो । संसार चक्कवालंमि, मच्छु वाहि जराकुले ॥ २६ ॥ कठिन शब्दार्थ - णाणाविहाई - नानाविध- नाना प्रकार के, दुक्खाई - दुःखों को, अणुहोंति - For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 000000000000000000000000000000000000०००००००००००००००००००००००००००० अनुभव करते हैं, पुणो पुणो - बार बार, संसारचक्कवालंमि - संसार रूपी चक्र में, मच्चु- मृत्यु, वाहि - व्याधि, जराकुले - वृद्धता से पूर्ण । भावार्थ - मृत्यु, व्याधि, और वृद्धता से परिपूर्ण इस संसार रूपी चक्र में वे अन्यतीर्थी बार-बार नाना प्रकार के दुःखों को भोगते हैं । उच्चावयाणि गच्छंता, गब्भमेस्संति णंतसो । णायपुत्ते महावीरे एवमाह जिणोत्तमे ॥ त्ति बेमि ॥ २७॥ . . . कठिन शब्दार्थ - उच्चावयाणि - ऊंच नीच गतियों में, गच्छंता - भ्रमण करते हुए, गब्भं - गर्भवास को एस्संति - प्राप्त करेंगे, णंतसो - अनन्तबार, णायपुत्ते - ज्ञातपुत्र, महावीरें - महावीर स्वामी, जिणोत्तमे - जिनोत्तम, एवं - इस तरह, आह - कहा है । भावार्थ - ज्ञातपुत्र जिनोत्तम श्री महावीर स्वामी ने कहा है कि पूर्वोक्त अफलवादी ऊँच नीच गतियों में भ्रमण करते हुए बार बार गर्भवास को प्राप्त करेंगे । विवेचन - इस गाथा में भगवान् महावीर को ज्ञातपुत्र कहा है । जिस प्रकार. श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की माता त्रिशला का कुल 'विदेह' था इसलिये भगवान् का नाम भी विदेह पड़ा । इसी प्रकार राजा सिद्धार्थ का वंश 'ज्ञात' (णाय) था । इसलिये भगवान् का नाम 'ज्ञातपुत्र' पड़ा। उपरोक्त पञ्च भूतवादी, तज्जीवतच्छरीरवादी आदि मिथ्या-सिद्धान्त की प्ररूपणा करने वाले हैं अतः वे मतवादी संसार, गर्भ, जन्म, मृत्यु और दुःख को पार नहीं कर सकते हैं । वीतराग सिद्धान्त को मानने वाले ही इनको पार कर सकते हैं । जैसा कि कहा है - मंत्र तंत्र औषध नहीं, जिणथी पाप पलाय । वीतराग वाणी बिना, और न कोई उपाय ।। संसार, गर्भ, मृत्यु आदि सब का मूल कारण जन्म है ऐसा ज्ञानी फरमाते हैं यथा - जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगाणि मरणाणि य । अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ किसंति जंतवो ।।। यद्यपि संसारी प्राणी तो बालक बालिका के जन्म को सुख का कारण मानते हैं परन्तु ज्ञानी फरमाते हैं कि जो जन्मा है वह मृत्यु की सूचना लेकर आया है । यथा - जातस्य हि ध्रुवं मृत्युः, मृतस्य जन्म वा न वा । अकर्मा याति निर्वाणं, सकर्मा जायते पुनः ।। अर्थ - जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु अवश्य होती है चाहे वह राजा, राणा, तीर्थङ्कर, चक्रवर्ती आदि भी क्यों न हो । जिसकी मृत्यु हुई है उसका फिर जन्म होता भी है या नहीं भी होता है। For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ उद्देशक १ ०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० क्योंकि जो आठों कर्मों को काट देता है उसका उसी भव में मोक्ष हो जाता है फिर उसका जन्म नहीं होता है। जब जन्म नहीं होता तो मरण भी नहीं होता। जिसके कर्म बाकी रहते हैं उस जीव का वापिस जन्म होता है। जब जन्म होता है तो रोग, बुढापा एवं मृत्यु भी होती है। निष्कर्ष यह निकला कि सब दुःखों का मूल कारण जन्म ही है। यही सबसे बड़ा रोग है । अत: कहा है - जन्म मरण के रोग को, जो तूं मेटा चाय।। शरण गहो जिनराज की, इम सम दूजा नाय।। जिनवाणी औषध पीओ, जन्म मरण मिट जाय। फिर अंकुर ऊगे नहीं, जड़ा मूल से जाय॥ चर्पट मञ्जरी ग्रन्थ में भी जन्म मरण के रोग को मिटाने के लिये भगवान् की भक्ति करने की प्रेरणा देते हुए कवि ने कहा हैपुनरपि जननं पुनरपि मरणम् । पुनरपि जननी जठरे शयनम् ॥ इह संसारे खलु दुस्तारे ___ कृपया पारे पाहि मुरारे ॥ भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् गोविन्दम् भज मूढमते । • प्राप्त सन्निहि ते मरणे न हि न हि रक्षति डुकृत्र करणे ॥ अर्थात् संसार में जन्म और मरण का चक्र चल रहा है। ऐसा होते हुए भी अज्ञानी प्राणी 'यह किया और यह करूंगा' इस प्रकार संसार में फंसता जा रहा है। ज्ञानी फरमाते हैं कि - हे मूढमति प्राणी ! करना' 'करना' को छोड़कर 'मरना 'मरना' याद रख । अतः संसार के कामों को छोड़ कर भगवान् का भजन कर जिससे जन्म मरण का चक्र घटे। _माता देवकी के अनेक मनोरथों की पूर्ति रूप गजसुकुमाल मुनि का जन्म हुआ। जब करीब १६ वर्ष की उम्र हुई तब भगवान् अरिष्टनेमि की वाणी सुन कर वैराग्य प्राप्त कर दीक्षा अंगीकार की उस समय माता देवकी ने उन्हें अन्तिम आशीर्वाद दिया - म्हनें छोड़ ने चाल्या लालजी बीजी मात मत कीजोजी ॥ गजसुकुमाल जी ने माता के इस आशीर्वाद को उसी दिन सफल कर दिया अर्थात् मुक्ति प्राप्त कर जन्म मरण के चक्कर को सदा सदा के लिये काट दिया। इसी प्रकार का आशीर्वाद पुरुषोत्तम कृष्ण वासुदेव ने अरिष्टनेमि कुमार को दिया था। यथा - For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ श्री सूयगडांम सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 वासुदेवो यणं भणइ, लुत्तकेसं जिइंदियं । इच्छिय-मणोरहं तुरियं, पावसुतं दमीसरा । २५ । इसी प्रकार का आशीर्वाद राजीमती को भी दिया था। यथावासुदेवो य णं भणइ, लुत्तकेसं जिइंदियं ।। संसार सागरं घोरं, तर कण्णे! लहुं लहुं । ३१ । (उत्तरा०२२) अरिष्टनेमि और राजीमती दोनों महारुपुषों ने भी इस आशीर्वाद को उसी जन्म में सफल कर दिया अर्थात् मोक्ष प्राप्त कर जन्म-मरण के चक्कर को सदा सदा के लिये काट दिया। इहलोक भय आदि सात भय बतलाये गये हैं। उसमें पूर्वाचायों का कथन है कि - .. . "सात भय संसार ना तिण में मरण भय मोटो रे" किन्तु ज्ञानियों के लिये मरण का भय मोटा नहीं है अपितु वे तो मरण को मृत्यु महोत्सव मान कर उसका मित्र रूप में स्वागत करते हैं। यथा - जगत मरण से डरत है, मो मन बड़ा आनन्द । कद मरसां कद भेटसां, पूरण परमानन्द ॥ ज्ञानी पुरुष तो मृत्यु से डरने वालों को सम्बोधित कर कहते हैंमृत्योर्बिभेषि किं मूढ ! भीतं मुञ्चति मो यमः । अजातं नैव गृह्णाति, कुरु यत्नमजन्मनि ॥ अर्थ - मृत्यु से क्यों डरत है, मृत्यु छोड़त नाय... अजन्मा मरता नहीं, कर यल नहीं जन्मायं ॥ जन्म के विषय में ऐसा कहा है - मन्येजन्मैव धीरस्य भूयो भूयस्त्रपाकरम् ॥ .. अर्थात् अपने आपको धीर और वीर मानने वाले पुरुष के लिये यही बड़ी लज्जा की बात है कि वह बारम्बार जन्म लेता रहता है। उसकी धीरता और वीरता तो इसीमें है कि वह जन्म को जड़ से उखाड़ फेंके । अर्थात् आठों कर्मों को इसी भव में क्षय करके मोक्ष प्राप्त करले ताकि फिर जन्मना ही न पड़े। ॥इति पहला उद्देशक॥ For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ अध्ययन १ उद्देशक २ 00000000000000000000000000000000000000०००००००००००००००००००००००००० दूसरा उद्देशक आघायं पुण एगेसिं, उववण्णा पुढो जिया । वेदयंति सुहं दुक्खं, अदुवा लुप्पंति ठाणओ ॥१॥ कठिन शब्दार्थ - आघायं - कहना है कि, उववण्णा - उत्पन्न हुए, वेदयंति - भोगते हैं, सुहं - सुख, दुक्खं - दुःख, लुप्पंति - लुप्त होते हैं-जाते हैं, ठाणओ - अपने स्थान से । भावार्थ - किन्ही का कहना है कि जीव, पृथक् पृथक् हैं यह, युक्ति से सिद्ध होता है तथा वे पृथक् पृथक् ही सुख दुःख भोगते हैं अथवा एक शरीर को छोड़ कर दूसरे शरीर में जाते हैं । विवेचन - प्रथम अध्ययन के प्रथम उद्देशक में भूतवादी आदि का मत बता कर उसका खण्डन किया गया है। अब इस उद्देशक में उन से बचे हुए नियतिवादी आदि मिथ्यादृष्टियों का मत बता कर उसका खण्डन किया जायेगा। नियतिवादी आदि परतीर्थियों के सिद्धान्तानुसार बन्धन का ही अस्तित्व नहीं है। यह इस उद्देशक में भली भांति बताया जायेगा। णतं सयं कडं दुक्खं, कओ अण्णकडं च णं । . सुहं वा जइ वा दुक्खं, सेहियं वा असेहियं ॥२॥ सयं कडं ण अण्णेहि, वेदयंति पुढो जिया । संगइयं तं तहा तेसिं, इह मेगेसिमाहियं ॥३॥ कठिन शब्दार्थ - सयं - स्वयं, कडं - कृत-किया हुआ, अण्णकडं - अन्यकृत-दूसरे का किया हुआ, सेहियं - सैद्धिक-सिद्धि से उत्पन्न, असेहियं - असैद्धिक-सिद्धि के बिना उत्पन्न, जिया - प्राणी, संगइयं - नियतिकृत । भावार्थ - बाह्य कारणों से अथवा बिना कारण उत्पन्न सुख दुःख को जो प्राणी वर्ग भोगते हैं वह उनका अपना तथा दूसरे का किया हुआ नहीं है । वह उनका नियति कृत है यह नियतिवादी कहते हैं । विवेचन - अब नियतिवादी के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया जाता है। नियतिवादी का कथन है कि यह जो सुख दुःख का अनुभव होता है वह जीवों के पुरुषकार (पुरुषार्थ) का किया हुआ नहीं है तथा काल, स्वभाव, ईश्वर, कर्म आदि अन्य पदार्थ के द्वारा भी किया हुआ नहीं है किन्तु नियति (भाग्य) से ही सुख दुःख मिलते हैं। जिस जीव को जिस समय जिस सुख दुःख का अनुभव करना होता है उसे संगति कहते हैं। अर्थात् नियति का दूसरा नाम संगति भी है। इससे प्राप्त होने वाले सुख दुःख आदि का 'सांगतिक' कहते हैं। For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ एवमेयाणि जंपंता, बाला पंडिए माणिणो । णिययाणिययं संतं, अयाणंता अबुद्धिया ॥ ४॥ कठिन शब्दार्थ - जंपता कहते हुए, पंडिए माणिणो संतं नियत तथा अनियत दोनों ही प्रकार का, अयाणंता नहीं जानते हुए, अबुद्धिया - बुद्धिहीन । पंडित मानते हैं, णिययाणिययं - भावार्थ- पूर्वोक्त प्रकार से नियतिवाद का समर्थन करने वाले नियतिवादी अज्ञानी होकर भी अपने को पण्डित मानते हैं । सुख दुःख नियत तथा अनियत दोनों ही प्रकार के हैं परन्तु बुद्धिहीन नियतिवादी यह नहीं जानते हैं । एवमेगे उपासत्था, ते भुज्जो विप्पगब्भिया । एवं उवट्टिया संता, ण ते दुक्ख विमोक्खया ॥ ५ ॥ कठिन शब्दार्थ- पासत्था पार्श्वस्थ, विप्पगब्भिया धृष्टता करते हैं, उवट्ठिया उपस्थित होकर, दुक्खविमोक्खया - दुःख से मुक्त होने में । भावार्थ - नियति को ही सुख दुःख का कर्त्ता मानने वाले नियतिवादी पूर्वोक्त प्रकार से एकमात्र नियति को ही कर्त्ता बताने की धृष्टता करते हैं । वे अपने सिद्धान्तानुसार परलोक की क्रिया में प्रवृत्त होकर भी दुःख से मुक्त नहीं हो सकते हैं । विवेचन जैन सिद्धान्त पुरुषार्थ वाद को विशेष प्रधानता देता है नियति को प्रधानता नहीं देता । जैसा कि कहा है। - न दैवमिति सञ्चिन्त्य, त्यजेदुद्यममात्मनः । अनुद्यमेन कस्तैलं, तिलेभ्यः प्राप्तुमर्हति ? ॥ १ ॥ अर्थात् भाग्य के भरोसे बैठकर उद्यम को नहीं छोड़ना चाहिये। क्यों कि बिना उद्यम किये क्या २४ - - तिलों से तैल निकल सकता है ? अर्थात् नहीं। नीतिकार ने फिर से कहा है - उद्यमेन हि सिद्धयन्ति, कार्याणि न मनोरथैः । - न हि सुप्तस्य सिंहस्य, मुखे प्रविशन्ति मृगाः । अर्थात् उद्यम करने से ही कार्य सिद्ध होते हैं, भाग्य भरोसे बैठे रहने से नहीं । सिंह उद्यम करता है तब उसे शिकार मिलती है किन्तु सोते हुए सिंह के मुख में स्वयं मृग आकर प्रवेश नहीं करते हैं । तथाच उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मी । दैवेन देयमिति का पुरुषा वदन्ति । For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ उद्देशक २ 00000000000000000000000000000000000000000000000000०००००००००००००० दैवं निहत्य कुरु पौरुषमात्मशक्त्या । यत्ने कृते यदि न सिद्धयति कोऽत्रदोषः ।। ... अर्थ - उद्योग करने वाले पुरुषों में सिंह के समान वीर पुरुष को लक्ष्मी प्राप्त होती है। इसलिये हे वीर पुरुष ! भाग्य के भरोसे बैठा मत रह । पुरुषार्थ कर। पुरुषार्थ करने पर भी यदि कार्य सिद्ध न हो तो फिर से विचार कर कि - मेरे पुरुषार्थ में कहां कमी रह गई है ? उस कमी को निकाल कर फिर पुरुषार्थ कर । पुरुषार्थ करने से कार्य अवश्य सिद्ध होता है।. .. अतः एकान्त नियतिवाद को मानना ही ठीक नहीं है। 'सब कुछ नियति से ही होता है' इस सिद्धान्त को मानते हुए भी वे अपने सिद्धान्त के विरुद्ध क्रिया में प्रवृत्ति करते हैं। किन्तु उनकी क्रिया सम्यग् ज्ञान पूर्वक न होने से वे अपनी आत्मा को दुःख से मुक्त कर मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते हैं । आचार्य सिद्धसेन ने 'सन्मति तर्क' नामक ग्रन्थ में बताया है कि काल, स्वभाव, नियति, कर्म (अदृष्ट) और पुरुषकार पराक्रम (पुरुषकृत पुरुषार्थ) ये पञ्च कारण समवाय हैं । इनके सम्बन्ध में एकान्त कथन मिथ्या है और परस्पर सापेक्ष कथन ही सम्यक्त्व है। जैन दर्शन सुख दुःख आदि को कथंचित् पुरुषकृत उद्योग से साध्य भी मानता है क्योंकि क्रिया से फल की उत्पत्ति होती है और क्रिया उद्योग के अधीन है। कहीं उद्योग की विभिन्नता फल की भिन्नता का कारण होती है। कहीं दो व्यक्तियों का एक साथ एक सरीखा उद्योग होने पर भी किसी को फल नहीं मिलता। यह उसके अदृष्ट (कर्म) का फल है। इस प्रकार कथंचित् अदृष्ट कर्म भी सुखादि का कारण है। जैसे आम, जामुन, अमरूद, अङ्गर आदि वृक्ष और बेलों में विशिष्ट काल (समय) आने पर ही फल की उत्पत्ति होती है। सर्वदा नहीं । एक ही समय में विभिन्न प्रकार की मिट्टियों में बोये हुए बीजों में से एक में अंकुर उग जाता है और दूसरी ऊषर मिट्टी में अंकुर नहीं उगते इसलिये स्वभाव को भी कथंचित कारण माना जाता है। आत्मा का उपयोग गुण तथा असंख्य प्रदेशी होना तथा पुद्गलों का मूर्त होना और धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय आदि का अमूर्त होना एवं गति, स्थिति में सहायक होना आदि सब स्वभाव कृत हैं। . ... इस प्रकार काल, स्वभाव, नियति, अदृष्ट कर्म और पुरुषकार पराक्रम (पुरुषकृत पुरुषार्थ) ये पांचों कारण प्रत्येक कार्य एवं सुखादि में सापेक्ष सिद्ध होते हैं। इस सत्य तथ्य को न मान कर एकान्त रूप से सिर्फ नियति को ही मानना दोषयुक्त है अतएव मिथ्या है । जविणो मिगा जहा संता, परिताणेण वज्जिया । ____ असंकियाइं संकंति, संकियाइं असंकिणो ॥६॥ For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 परियाणियाणि संकेता, पासियाणि असंकिणो। अण्णाण भय संविग्गा, संपलिंति तहिं तहिं ॥७॥ कठिन शब्दार्थ - जविणो - वेगवान-चंचल, मिगा - मृग, असंकियाइं - शंका नहीं करने के स्थान में, संकियाई- शंका के योग्य स्थान में, असंकिणो - शंका नहीं करते, परियाणियाणि - रक्षा युक्त स्थान को, संकेतो- शंका करते हुए, पासित्ताणि - पाश युक्त स्थान को, अण्णाणभयसंविग्गाअज्ञान और भय से उद्विग्न, संपलिंति - जा पड़ते हैं। भावार्थ - जैसे रक्षक हीन, अतिचञ्चल और वेगवान मृग, शङ्का के अयोग्य स्थान में शंका करते हैं और शंकायुक्त स्थान में शंका नहीं करते हैं । इस प्रकार रक्षायुक्त स्थान में शंका. करने वाले और पाशयुक्त स्थान में शंका नहीं करने वाले, अज्ञान और भय से उद्विग्न वे मृग, पाश युक्त स्थान में ही जा पड़ते हैं इसी तरह अन्यदर्शनी रक्षायुक्त स्याद्वाद को छोड़ कर अनर्थयुक्त एकान्तवाद का आश्रय लेते अह तं पवेग्ज बझं, अहे बज्झस्स वा वए । मुच्चेज पयपासाओ, तं तु मंदे ण देहए ॥८॥ . कठिन शब्दार्थ - अह - अथ-इसके पश्चात्, तं - उस, बझं (वझं) - बन्धन को, पवेज - लंघन कर जाय, वए - निकल जाय, मुच्चेज - छूट सकता है, पयपासाओ - पैर के बंधन से, मंदे - मूर्ख, देहए - देखता है । भावार्थ - वह मृग यदि कूद कर उस बन्धन को लाँघ जाय अथवा उसके नीचे से निकल जाय तो वह पैर के बन्धन से मुक्त हो सकता है परन्तु वह मूर्ख मृग इसे नहीं देखता है । .. अहियप्पा हियपण्णाणे, विसमंतेणुवागए । स बद्धे पयपासेणं, तत्थ घायं णियच्छइ ॥९॥ ... कठिन शब्दार्थ - अहियप्पा - अहितात्मा, अहियपण्णाणे- अहित प्रज्ञा-ज्ञान वाला, विसमंतेणुवागए - विषम प्रदेश में प्राप्त हो कर, णियच्छइ - प्राप्त होता है । भावार्थ - वह मृग अपना अहित करने वाला और अहित बुद्धि से युक्त है, वह बन्धन युक्त विषमप्रदेशों में जाकर वहाँ पदबन्धन से बद्ध होकर नाश को प्राप्त होता है । एवं तु समणा एगे, मिच्छदिट्ठि अणारिया । असंकियाइं संकंति, संकियाइं असंकिणो ॥१०॥ कठिन शब्दार्थ - मिच्छदिट्ठी - मिथ्यादृष्टि, अणारिया - अनार्य । For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ उद्देशक २.. २७ भावार्थ - इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि अनार्य कोई श्रमण शंका रहित अनुष्ठानों में शंका करते हैं और शंका योग्य अनुष्ठानों में शंका नहीं करते हैं । धम्म पण्णवणा जा सा, तं तु संकंति मूढगा । आरंभाइं ण संकंति, अवियत्ता अकोविया ॥११॥ कठिन शब्दार्थ - धम्म पण्णवणा - धर्म की प्रज्ञापना, आरंभाइं - आरंभ में, मूढगा - मूर्ख, अवियत्ता - अविवेकी, अकोविया - अकोविद । . भावार्थ - मूर्ख, अविवेकी और शास्त्रज्ञान वर्जित वे अन्यतीर्थी, धर्म की जो प्ररूपणा है उसमें शंका करते हैं और आरम्भ में शंका नहीं करते हैं । . विवेचन - मृग शब्द के दो अर्थ हैं हरिण और अज्ञानी। गाथा ६ से लेकर ११ तक में एक दृष्टान्त दिया गया है कि - शिकारी लोग खेत के ३ तरफ अड़वा (सीधी लकड़ी खड़ी करके सिर पर काली हंडी रख देते हैं तथा दोनों तरफ कुरते की तरह पहना देते हैं जिससे वह पुरुष की तरह मालूम होता है।) खड़ा कर देते हैं और चौथी तरफ जाल बिछा देते हैं और आप स्वयं छिप कर बैठ जाते हैं। हरिण खेत में धान खाने के लिये आते हैं तब तीन तरफ उन अड़वों को पुरुष समझ कर उधर नहीं जाते हैं। चौथी तरफ जाते हैं तो वहाँ जाल में फंस जाते हैं और शिकारी लोग उन्हें पकड कर मार डालते हैं। तीन तरफ तो अड़वा खड़े हैं इसलिये वहाँ तो कोई भय नहीं है किन्तु हरिण उधर शंका का स्थान समझ कर उधर नहीं जाते। चौथी तरफ जाल है उधर शङ्का का स्थान है उसे शङ्का का स्थान नहीं समझ कर निःशंक होकर उधर जाते हैं तो जाल में फंस कर मृत्यु को प्राप्त होते हैं। इसी तरह हरिण के समान अज्ञानी अन्य मतावलम्बी वीतराग धर्म को स्वीकार नहीं करते किन्तु आरम्भ परिग्रह में फंसते जाते हैं अतएव वे बारम्बार जन्म मरण के चक्कर में फंसते जाते हैं अतएव मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकते हैं । सव्वप्पगं विउक्कस्सं, सव्व मं विहूणिया । अपत्तियं अकम्मंसे, एयमढें मिगे चुए ॥१२॥ कठिन शब्दार्थ - सव्वप्पगं - सर्वात्मक-लोभ, विउक्कस्सं - विविध प्रकार का उत्कर्ष, णूमं - माया, विहूणिया - त्याग कर, अप्पत्तियं - क्रोध को, अकम्मंसे - कांश रहित, चुए - त्याग देता है। भावार्थ - लोभ, मान, माया और क्रोध को छोड़कर जीव कर्मांश रहित होता है परन्तु मृग के समान अज्ञानी जीव, इस वीतराग कथित सिद्धान्त को छोड़ देता है। For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 जे एयं णाभिजाणंति, मिच्छदिट्ठी अणारिया । मिगा वा पासबद्धा ते, घायमेस्संति णंतसो ॥१३॥ कठिन शब्दार्थ - ण - नहीं, अभिजाणंति - नहीं जानते हैं, घायं - घात को, एसंति - प्राप्त करेंगे, णंतसो - अनन्तबार । - भावार्थ - जो मिथ्यादृष्टि अनार्य पुरुष इस अर्थ को नहीं जानते हैं वे पासबद्ध मृग की तरह अनन्तबार घात को प्राप्त करेंगे। माहणा समणा एगे, सव्वे णाणं सयं वए । सव्वलोगेऽवि जे पाणा, ण ते जाणंति किंचणं ।।१४ ॥ भावार्थ - कोई ब्राह्मण और श्रमण ये सभी अपना अपना ज्ञान बताते हैं परन्तु सब लोक में जितने प्राणी हैं उनके विषय में भी वे कुछ नहीं जानते हैं तो फिर दूसरे तत्त्वों को तो जानेंगे ही कैसे? . मिलक्खू अमिलक्खूस्स, जहा वुत्ताणुभासए । ण हेउं स विजाणाइ, भासिअंतऽणुभासए ॥ १५॥ कठिन शब्दार्थ - मिलक्खू - म्लेच्छ, अमिलक्खूस्स - अम्लेच्छ-आर्यपुरुष के, वुत्तं - कथन का, अणुभासए - अनुवाद करता है। भावार्थ - जैसे म्लेच्छ पुरुष, आर्यपुरुष के कथन का अनुवाद करता है । वह उस भाषण का निमित्त नहीं जानता है किन्तु भाषण का अनुवाद मात्र करता है । एवमण्णाणिया णाणं, वयंता वि सयं सयं । णिच्छयत्थं ण याणंति, मिलक्खूब्ध अबोहिया ॥ १६ ॥ . कठिन शब्दार्थ - एवमण्णाणिया - इस तरह ज्ञान हीन , णिच्छयत्थं - निश्चित अर्थ को, याणंति (जाणंति)- जानते हैं, अबोहिया - अबोधिक - ज्ञान रहित । . . भावार्थ - इसी तरह ज्ञानवर्जित ब्राह्मण और श्रमण अपने अपने ज्ञान को कहते हुए भी निश्चित अर्थ को नहीं जानते हैं किन्तु आर्य भाषा का अनुवाद मात्र करने वाला अर्थ ज्ञानहीन पूर्वोक्त म्लेच्छ की तरह बोधरहित हैं। विवेचन - अपने आप को ज्ञानी मानने वाले भी वे वास्तव में ज्ञानी नहीं किन्तु अज्ञानी हैं क्योंकि उन में परस्पर मत भेद है । उनका कथन है सब ओर अज्ञान का ही राज्य है । अतः अज्ञान ही श्रेष्ठ है । यह अज्ञान वादी का कथन है । सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थङ्कर भगवान् द्वारा कथित अर्थ के आशय को न समझ कर अज्ञान को ही श्रेष्ठ For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ अध्ययन १ उद्देशक २ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 मानते हैं। इनका कथन है कि "अज्ञान मेव श्रेयो यथा यथा च ज्ञानातिशयस्तथा तथा च दोषातिरेकः इति" ज्यों ज्यों ज्ञान बढता जाता है त्यों त्यों दोष भी बढ़ता जाता है। जैसे कि कोई पुरुष जानबूझ कर दूसरों के सिर को पैर से स्पर्श करता है तो उसका अपराध महान् होता है और जो भूल से दूसरे के सिर का पैर से स्पर्श हो जाता है तो उसका अपराध कुछ भी नहीं माना जाता है इसलिये अज्ञान ही श्रेष्ठ है ऐसा अज्ञानवादी का मत है। अण्णाणियाणं वीमंसा, अण्णाणे ण णियच्छइ । अप्पणो य परं णालं, कुओ अण्णाणुसासिउं ॥१७॥ - कठिन शब्दार्थ - अण्णाणियाणं - अज्ञानवादियों का, वीमंसा - विमर्श-पर्यालोचनात्मक विचार, ण - नहीं, अलं - समर्थ है, अणुसासिउं - शिक्षा देने में । भावार्थ - "अज्ञान ही श्रेष्ठ हैं" यह पर्सालोचनात्मक विचार अज्ञान पक्ष में संगत नहीं हो . सकता है । अज्ञानवादी अपने को भी शिक्षा देने में समर्थ नहीं हैं फिर वे दूसरे को शिक्षा कैसे दे सकते . विवेचन - ज्ञान से ही व्यक्ति स्वयं शिक्षित बनता है और ज्ञान से ही दूसरों को शिक्षा दी जा सकती हैं। अज्ञानी तो स्वयं अंधेरे में है। जो स्वयं अंधेरे में है वह दूसरों को उजाले में कैसे ला सकते हैं ? वणे मूढे जहा जंत, मूढे णेयाणुगामिए । दो वि एए अकोविया, तिव्वं सोयं णियच्छइ ॥१८॥ कठिन शब्दार्थ - णेयाणुगामिए - नेता के पीछे चलने वाला है, तिव्वं - तीव्र, सोयं - शोक को, णियच्छइ - प्राप्त करता है। भावार्थ - जैसे वन में.दिशामूढ़ प्राणी दूसरे दिशामूढ़ प्राणी के पीछे चलता है तो वे दोनों ही मार्ग न जानने के कारण तीव्र दुःख को प्राप्त करते हैं । अंधो अंधं पहं णितो, दूरमद्धाणुगच्छइ । .... आवजे उप्पहं जंतू, अदुवा पंथाणुगामिए ॥ १९॥ .. कठिन शब्दार्थ - अंधं - अंधे मनुष्य को, पहं - मार्ग में, णितो - ले जाता हुआ, दूरं - दूर तक, अद्धा - मार्ग में, आवजे - प्राप्त करता है, उप्पहं - उत्पथ को, पंथाणुगामिए - पंथानुगामिक-मार्ग में चलने वाला। भावार्थ - जैसे स्वयं अन्धा मनुष्य, मार्ग में दूसरे अन्धे को ले जाता हुआ जहां जाना है वहां से दूर स्थान पर चला जाता है अथवा उत्पथ को प्राप्त करता है अथवा अन्यमार्ग में चला जाता है। For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० एवमेगे णियागट्ठी, धम्ममाराहगा वयं । धर्म के आराधक, अहम्मं - अधर्म को, आवज्जे प्राप्त करते हैं, सव्वज्जुयं - सर्व ऋजुक - सब प्रकार से सरल मार्ग को । अदुवा अहम्ममावण्जे, ण ते सव्वज्जुयं वए ॥ २० ॥ कठिन शब्दार्थ - णियागट्ठी - नियाग- अर्थी-मोक्षार्थी, धम्ममारहगा भावार्थ - इस प्रकार कोई मोक्षार्थी कहते हैं कि आराधना तो दूर रही वे अधर्म को ही प्राप्त करते हैं करते हैं । हम धर्म के आराधक हैं परन्तु धर्म की वे सब प्रकार से सरल मार्ग संयम को प्राप्त नहीं । श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ - - एवमेगे वियक्काहिं, जो अण्णं पज्जुवासिया । अप्पणो य वियक्काहिं, अयमंजुहिं दुम्मइ ॥ २१ ॥ कठिन शब्दार्थ - वियक्काहिं वितर्क के कारण, पज्जुवासिया सेवा करते हैं, अयं - यह, अंजूर्हि - सरल मार्ग से, दुम्मइ - दुर्मति-दुर्बुद्धि । भावार्थ- कोई दुर्बुद्धि जीव, पूर्वोक्त विकल्पों के कारण ज्ञानवादी की सेवा नहीं करते हैं, वे उक्त विकल्पों के कारण "यह अज्ञानवाद ही सरल मार्ग है ।" ऐसा मान लेते हैं । एवं तक्काई सार्हेता, धम्माम्मे अकोविया । दुक्खं ते णाइतुति, सउणी पंजरं जहा ॥ २२ ॥ - कठिन शब्दार्थ - तक्काई तर्कों के द्वारा, साहेंता सिद्ध करते हुए, धम्माधम्मे धर्म अधर्म को, अकोविया - अकोविद नहीं जानने वाले, ण - नहीं, अइतुट्टंति - तोड सकते, सउणी शकुनि - पक्षी, पंजरं पिंजरे को । भावार्थ- पूर्वोक्त प्रकार से अपने मत को मोक्षप्रद सिद्ध करते हुए, धर्म तथा अधर्म को न जानने वाले अज्ञानवादी, कर्मबन्धन को नहीं तोड़ सकते हैं जैसे पक्षी पिंजरे को नहीं तोड़ सकता है । विवेचन अन्य मतावलम्बी वादियों के मुख्य रूप से चार भेद बतलाये हैं १. क्रियावादी, २. अक्रियावादी, ३. अज्ञानवादी और ४. विनयवादी । - १. क्रियावादी - क्रिया ही प्रधान है, ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार क्रिया को प्रधान मानने वाले क्रियावादी हैं। ये एकान्त क्रिया को ही मानने से मिथ्यावादी हैं । इनके १८० भेद होते हैं। वे इस प्रकार हैं- जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष । इन नव तत्त्वों के स्वतः और परत: के भेद से अठारह भेद होते हैं । इन अठारह को नित्य और अनित्य से गुणा करने पर ३६ भेद हो जाते हैं। इनमें से प्रत्येक को काल, स्वभाव, नियति, ईश्वर और आत्मा की अपेक्षा पांचपांच भेद करने से १८० भेद होते हैं। जैसे कि For Personal & Private Use Only - Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ उद्देशक २ ३१ 100000 जीव स्व रूप से काल की अपेक्षा नित्य है। जीव स्व रूप से काल की अपेक्षा अनित्य है। जीव पर रूप से काल की अपेक्षा नित्य है। जीव पर रूप से काल की अपेक्षा अनित्य है। इस प्रकार काल की अपेक्षा चार भेद होते हैं। इसी प्रकार स्वभाव, नियति, ईश्वर और आत्मा के अपेक्षा जीव के चार चार भेद होते हैं। इस तरह जीव आदि नव तत्त्वों के प्रत्येक के २०-२० भेद होने से कुल १८० भेद होते हैं। २. अक्रियावादी - अक्रियावादियों का कथन है कि- क्रिया की क्या जरूरत है केवल चित्त की पवित्रता होनी चाहिये। इस प्रकार ज्ञान से ही मोक्ष मानने वाले अक्रियावादी कहलाते हैं। अक्रियावादी के ८४ भेद होते हैं। यथा - ... जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष (पुण्य पाप का आस्रव में समावेश कर दिया गया) इन सात तत्त्वों के स्वः और परतः ये १४ भेद बनते हैं। इन चौदह को काल, यदृच्छा, नियति, स्वभाव, ईश्वर और आत्मा, इन छह की अपेक्षा गुणा करने से ८४ भेद बन जाते हैं। जैसे - जीव स्वतः काल से नहीं है। जीव परतः काल से नहीं है। इस प्रकार काल की अपेक्षा जीव के दो भेद होते हैं। काल की तरह यदृच्छा आदि छह से गुणा करने पर १२ भेद हो जाते हैं । इन १२ को जीवादि सात तत्त्वों से गुणा करने पर ८४ भेद हो जाते हैं। ३. अज्ञानवादी - जीवादि अतीन्द्रिय पदार्थों को जानने वाला कोई नहीं है। न उनके जानने से कुछ सिद्धि ही होती है। इसके अतिरिक्त समान अपराध में ज्ञानी को अधिक दोष माना है और अज्ञानी को कम। इसलिये अज्ञान ही श्रेय रूप है ऐसा मानने वाले अज्ञानवादी हैं। अज्ञानवादी के ६७ भेद हैं। यथा : जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन नव तत्त्वों के सद्, असद्, सदसद्, अवक्तव्य, सदवक्तव्य, असदवक्तव्य, सदसदवक्तव्य इन सात भङ्गों से ६३ भेद हुए और उत्पत्ति , के सद्, असद्, सदसद् और अवक्तव्य की अपेक्षा से चार भङ्ग हुए इस प्रकार ६७ भेद अज्ञानवादी के होते हैं। जैसे - जीव सद् है यह कौन जानता है ? और इसके जानने का क्या प्रयोजन है ? . ४. विनयवादी - स्वर्ग, अपवर्ग आदि के कल्याण की प्राप्ति विनय से ही होती है। इसलिये विनय ही श्रेष्ठ है। इस प्रकार विनय को प्रधान रूप से मानने वाले विनयवादी कहलाते हैं। विनयवादी के ३२ भेद हैं । यथा - For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ देव, राजा, यति, ज्ञाति, स्थविर, अधम, माता और पिता, इन आठों का मन, वचन, काया और दान इन चार प्रकारों से विनय होता है। इस प्रकार आठ को चार से गुणा करने से ३२ भेद होते हैं। क्रियावादी स्व की अपेक्षा पदार्थों के अस्तित्त्व को ही मानते हैं किन्तु पर रूप की अपेक्षा नास्तित्त्व नहीं मानते हैं। यह प्रत्यक्ष बाधित है। इसलिये क्रियावादी का मत मिथ्यात्व पूर्ण है। इसी प्रकार अक्रियावादी जीवादि पदार्थ के अस्तित्त्व को नहीं मानता हैं ऐसा मानने पर उन के स्वयं का अर्थात् निषेध कर्ता का ही अभाव हो जाता है। निषेध कर्ता का अभाव होने से सभी पदार्थों का अस्तित्व स्वतः सिद्ध हो जाता है। . अज्ञानवादी अज्ञान को ही श्रेष्ठ मानते हैं परन्त यह बात भी वे बिना ज्ञान के कैसे जान सकते हैं और बिना ज्ञान के अपना समर्थन भी कैसे कर सकते हैं ? अतः इनको ज्ञान का आश्रय लेना ही पड़ता है। विनयवादी केवल विनय से ही स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति होना मानते हैं अतः वे मिथ्यादृष्टि हैं। क्योंकि ज्ञान और क्रिया दोनों से मोक्ष की प्राप्ति होती है। उनमें से किसी एक से नहीं । सयं सयं पसंसंता, गरहंता परं वयं । जे उ तत्थ विउस्संति, संसारं ते विउस्सिया ॥ २३॥ कठिन शब्दार्थ - पसंसंता - प्रशंसा करते हुए, गरहंता - गर्हा-निंदा करते, विउस्संति - विद्वता प्रकट करते हैं, विउस्सिया- दृढ़ रूप से बंधे हुए । भावार्थ - अपने अपने मत की प्रशंसा और दूसरों के मत की निन्दा करने वाले जो अन्यतीर्थी अपने मत की स्थापना और परमत के खण्डन करने में विद्वत्ता दिखाते हैं वे संसार में दृढ़ रूप से बँधे हुए हैं । विवेचन - किसी की निन्दा करना पाप है। पापं संसार को बढ़ाने वाला होता है। किसी मत की कुछ मान्यता हो किन्तु उसकी निन्दा नहीं करनी चाहिये। यदि किसी की मान्यता वीतराग वाणी के विरुद्ध है तो युक्तिपूर्वक उसका निराकरण करके उसको वीतराग मार्ग बताना जिससे कि उसके आत्मा का हित सुधरे, यह निन्दा नहीं है यह तो उसके लिये हित कारक है और सन्मार्ग प्रदर्शक है। अहावरं पुरक्खायं, किरियावाई दरिसणं । कम्म चिंतापणट्ठाणं, संसारस्स पवड्डणं ॥ २४॥ कठिन शब्दार्थ - पुरक्खायं - पूर्वोक्त, किरियावाई - क्रियावादियों का, दरिसणं - दर्शन, कम्म चिंतापणट्ठाणं - कर्म की चिन्ता से रहित, संसारस्स - संसार का, पवड्डणं - प्रवर्द्धन-बढाने वाला । For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ अध्ययन १ उद्देशक २ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ - अब, दूसरा दर्शन, क्रियावादियों का है । कर्म की चिन्ता से रहित उन क्रियावादियों का दर्शन संसार को ही बढ़ाने वाला है । विवेचन - अब क्रियावादी के मत का कथन किया जाता है। क्रियावादी सिर्फ क्रिया से ही मोक्ष प्राप्त होना मानते हैं। किन्तु मोक्ष की प्राप्ति ज्ञान एवं क्रिया दोनों से होती है। ज्ञान की उपेक्षा करने से ये एकान्त वादी हैं । इसलिये ये मिथ्या दृष्टि हैं। इनके १८० भेद होते हैं वे भेद २२ वीं गाथा के विवेचन में दे दिये गये हैं। जाणं काएणऽणाउट्टी, अबुहो जं च हिंसइ । पुट्ठो संवेयइ परं, अवियत्तं खु सावज्जं ॥२५॥ कठिन शब्दार्थ - कारण - काया से, अणाउट्टी - अनाकुट्टी-जीव की हिंसा नहीं करना, अबुहो - अबुध-नहीं जानता हुआ, पुट्ठो - स्पर्श मात्र, संवेदइ - संवेदन करता है-फल भोगता है, अवियत्तं - अव्यक्त-अस्पष्ट, सावज - सावद्य। भावार्थ - जो पुरुष क्रोधित होकर किसी प्राणी की मन से हिंसा करता है परन्तु शरीर से नहीं करता है तथा जो शरीर से हिंसा करता हुआ भी मन से हिंसा नहीं करता है वह केवल स्पर्श मात्र कर्मबन्ध को अनुभव करता है क्योंकि उक्त दोनों प्रकार के कर्मबन्ध स्पष्ट नहीं होते हैं । विवेचन - क्रियावादी ने चार प्रकार की हिंसा अव्यक्त-अस्पष्ट मानी है १. परिज्ञोपचित केवल मानसिक हिंसा, २. अविज्ञोपचित केवल कायिक हिंसा, ३. ईर्या पथ-जाने आने आदि में होने वाली हिंसा और ४. स्वप्नान्तिक-स्वप्न में की हुई हिंसा । ... संतिमे तओ आयाणा, जेहिं कीरइ पावगं । अभिकम्मा य पेसा य, मणसा अणुजाणिया ॥ २६॥ कठिन शब्दार्थ - संति - हैं, इमे - ये, तओ - तीन, आयाणा- आदान-कर्म बंध के कारण, जेहिं - जिन से, कीरइ - किया जाता है, पावगं - पाप कर्म, अभिकम्मा - आक्रमण करके, पेसा यभेज कर, मणसा - मन से, अणुजाणिया - अनुज्ञा दे कर। भावार्थ - ये तीन कर्मबन्ध के कारण हैं जिनसे पापकर्म किया जाता है - किसी प्राणी को मारने के लिए स्वयं उस पर आक्रमण करना तथा नौकर आदि को भेज कर प्राणी का घात कराना एवं प्राणी को घात करने के लिए मन से अनुज्ञा देना । विवेचन - करना, कराना, अनुमोदन करना ये तीन कर्मबन्ध के कारण हैं। इनको मन, वचन, काया से गुणित करने पर नौ हो जाते हैं। इन नौ से ही कर्मबन्ध होता है। For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 एए उ तओ आयाणा, जेहिं कीरइ पावगं । एवं भावविसोहीए, णिव्वाणमभिगच्छइ ॥ २७॥ कठिन शब्दार्थ - भावविसोहीए - भाव की विशुद्धि से, णिव्वाणं - मोक्ष को, अभिगच्छइ.प्राप्त करता है । __भावार्थ - ये तीन कर्मबन्ध के कारण हैं जिनसे पाप कर्म किया जाता है । जहाँ ये तीन नहीं हैं तथा जहाँ भाव की विशुद्धि है वहाँ कर्मबन्ध नहीं होता है अपितु मोक्ष की प्राप्ति होती है । पुत्तं पिया समारब्भ, आहारेग्ज असंजए । भुंजमाणो य मेहावी, कम्मुणा णोवलिप्पइ ॥ २८॥ कठिन शब्दार्थ - समारब्भ - आरम्भ करके-मार कर, आहारेज - खावे, असंजए - असंयतसंयम रहित, भुंजमाणो - खाता हुआ, कम्मुणा - कर्म से, ण - नहीं, उवलिप्पइ - उपलिप्त होता है। - भावार्थ - जैसे विपत्ति के समय कोई गृहस्थ पिता अपने पुत्र को मार कर उसका मांस खाता है तो वह पुत्र का मांस खाकर भी कर्म से उपलिप्त नहीं होता है इसी तरह राग द्वेष रहित साधु भी मांस खाता हुआ कर्म से उपलिप्त नहीं होता है । । । मणसा जे पउस्संति, चित्तं तेसिंण विज्जइ । अणवज्जमतहं तेसिं, ण ते संवुड चारिणो ॥ २९॥ कठिन शब्दार्थ - पउस्संति - द्वेष करते हैं, चित्तं - चित्त, विजइ - निर्मल होता है, अणवजमतहं - पाप नहीं होना मिथ्या है, संवुडचारिणो - संयम के साथ विचरने वाले । भावार्थ - जो मन से प्राणियों पर द्वेष करते हैं उनका चित्त निर्मल नहीं है तथा मन से द्वेष करने पर पाप नहीं होता है यह उनका कथन भी मिथ्या है अतः वे संयम के साथ विचरने वाले नहीं हैं । विवेचन - जो मानसिक हिंसा करता है उसका चित्त अशुद्ध होता है । जिसका चित्त अशुद्ध है वह अज्ञानी है । क्योंकि ज्ञानी के लिये अशुद्धि (क्लिष्ट चित्त वृत्ति) का कोई कारण ही नहीं रहता है । जिसका चित्त क्लिष्ट है उसे पाप बन्धन होता ही है । चित्त की विक्षिप्तता-अशुद्धता से ही बिना निरीक्षण के गमनागमन होता है और स्वप्न की हिंसा भी क्लिष्ट चित्त का परिणाम है, अतः पाप लगेगा ही। ___ 'मैं मारता हूँ' ऐसा चित्त का परिणाम हुए बिना हिंसा में प्रवृत्ति नहीं हो सकती है । और 'मैं मारता हूँ' इस चित्तवृत्ति को शुद्ध कैसे माना जाय ? जो अनासक्त है-संयमी है, वह मांस भक्षण को उद्यत ही कैसे हो सकता है । कोई मांस खाकर अनासक्त या अहिंसक नहीं रह सकता और वह निष्पाप भी नहीं रह सकता । For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ उद्देशक २ ३५. 0000000000000000000000000000000000०००००००००००००००००००००००००००००० इच्चेयाहिं य दिट्ठीहिं, सायागारव णिस्सिया । सरणंति मण्णमाणा, सेवंति पावगं जणा ॥३०॥ कठिन शब्दार्थ - सायागारवणिस्सिया - सातागारव - नि:श्रितासुख भोग तथा मान बड़ाई में आसक्त, सरणं- शरण रूप, मण्णमाणा - मानते हुएं, सेवंति - सेवन करते हैं । भावार्थ - पूर्वोक्त अन्यदर्शनी पूर्वोक्त इन दर्शनों के कारण सुख भोग तथा मान बड़ाई में आसक्त रहते हैं । वे अपने दर्शन को अपना रक्षक समझते हुए पापकर्म का सेवन करते हैं । विवेचन-- उपरोक्त क्रियावादियों का मन्तव्य है कि - चतुर्विध कर्म उपचय को प्राप्त नहीं होता है। इस मान्यता के कारण वे अपनी इच्छानुसार पाप कार्य में प्रवृत्त होते रहते हैं। पाप कार्य से मुक्ति की प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती है। पाप के त्याग से मुक्ति होती. है। जहा अस्साविणिं णावं, जाइअंधो दुरूहिया । - इच्छइ पारमागंतुं, अंतरा य विसीयइ ॥३१॥ कठिन शब्दार्थ - अस्साविणिं - आस्राविणी-जिसमें जल प्रवेश करता है, (छिद्रों वाली) जाइअंधो - जन्मान्ध, दुरूहिया - चढ़ कर, पारं - पार, आगंतुं - आने के लिये अंतरा य - मार्ग में ही, विसीयई- खेदित होता है अर्थात् डूब जाता है । . भावार्थ - जैसे जन्मान्ध पुरुष, जिसमें जल प्रवेश करता है ऐसी छिद्रों वाली नौका पर चढ़ कर पार पहुंच जाना चाहता है परन्तु वह बीच जल में ही डूब कर मर जाता है । एवं तु समणा एगे, मिच्छ-दिट्ठी अणारिया । संसार-पार-कंखी ते, संसारं अणुपरियटृति ॥ ३२ ॥ त्ति बेमि॥ कठिन शब्दार्थ - संसार पारकंखी - संसार से पार जाने का इच्छुक, संसारं - संसार में ही, अणुपरियटृति - पर्यटन-भ्रमण करते हैं । भावार्थ - इस प्रकार कोई मिथ्यादृष्टि अनार्य श्रमण संसार से पार जाना चाहते हैं परन्तु वे संसार में ही भ्रमण करते हैं । विवेचन - छिद्रों वाली नाव का दृष्टान्त देकर शास्त्रकार यह फरमाते हैं कि - उपरोक्त अन्य मतावलम्बी पाप कार्य करते हुए भी अपने आप को उस पाप कार्य से लिप्त नहीं मानते हैं और चाहते हैं कि हम संसार सागर से पार होकर मुक्ति प्राप्त कर लें किन्तु ऐसा कभी नहीं होता है क्योंकि पाप कार्य को छोड़ने से ही मुक्ति प्राप्त होती है। ॥ इति दूसरा उद्देशक ॥ For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ तीसरा उद्देशक जं किंचि उ पूइकडं, सड्डी मागंतु मीहियं । सहस्संतरियं भुंजे, दुपक्खं चेव सेवइ ॥ १॥ कठिन शब्दार्थ - पूइकडं पूतिकृत आधाकर्म आहार एक कण से भी मिश्रित, अपवित्र, सड्डी - श्रद्धावान् पुरुष ने, आगंतुमीहियं - आनेवाले मुनियों के लिए बनाया है, सहस्संतरियं - हजार घर का अंतर दे कर भी, दुपक्खं दोनों पक्षों का । भावार्थ - जो आहार आधाकर्मी आहार एक कण भी युक्त तथा अपवित्र है और श्रद्धान् गृहस्थ के द्वारा आने वाले मुनियों के लिए बनाया गया है उस आहार को जो पुरुष, हजार घर का अन्तर देकर भी खाता है वह साधु और गृहस्थ दोनों पक्षों का सेवन करता है । ३६ - विवेचन - आहाकम्म - आधाकर्म- 'आधया- साधुप्रणिधानेन यत्संचेतनं अचेतनं क्रियते, अचेतनं वा पच्यते- चीयते वा गृहादिकं, वयते वा वस्त्रादिकं तद् आधाकर्मः ।' (दशा श्रुतस्कन्ध-२ अभि-कोष - 'आहाकम्म' शब्द ) अर्थ - साधु-साध्वियों के विचार से अर्थात् साधु साध्वी के निमित्त सचित्त वस्तु को अचित्त करना, अचित्त को पकाना, स्थानक उपाश्रय आदि बनाना । वस्त्र पात्र आदि बनाना यह सब आधाकर्म दोष कहलाता है। दशाश्रुतस्कन्ध की दूसरी दशा में कहा है- 'अहाकम्मं भुंजमाणे सबले भवइ' आधाकर्म आहारादि का सेवन करने वाले को शबल दोष लगता है। उसका संयम शबल (चित्तकबरा) हो जाता है अर्थात् चारित्र दूषित हो जाता है। गौतम स्वामी के प्रश्न का उत्तर फरमाते हुए भगवान् ने भगवती सूत्र में फरमाया है कि-'हे गौतम ! आधाकर्म आहार का सेवन करने वाला साधु-साध्वी आठ कर्म प्रकृतियों को बांधता है। ढीले बन्धन में कर्म प्रकृतियों को दृढ़ बन्धन में बांधता है। वह कर्मों का चय और उपचय करता है। थोड़ी स्थिति वाली कर्म प्रकृतियों को लम्बी स्थिति वाली करता है । मन्द रस वाली को तीव्र रस वाली करता है । असाता वेदनीय बार-बार बांधता है और अनादि अनन्त संसार में परिभ्रमण करता है। (भगवती १ उद्देशक ९) । कोश में 'पूति' शब्द के कई अर्थ दिये हैं यथा पवित्रता, शुद्धता । दुर्गन्ध, बदबू, पीप, मवाद आदि । यहाँ इस प्रकरण में 'पूति' शब्द का अर्थ अशुद्धता तथा पीप लिया गया है। उदाहरण इस प्रकार है जैसे रसोई बनाने वाली किसी बहन के हाथ में फोड़ा-फून्सी हो गये हों उसमें पीप पड़ गयी हो वह लपसी, सीरा, बीणज मेवे की खीचड़ी आदि पकवान बना रही हो उस समय उसकी गरंम भाप से For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000 अध्ययन १ उद्देशक ३ फोड़ा फूट गया हो और पीप उस पक्वान्न में पड़ गई हो तो वह बहन उसं पक्वान्न को नहीं खायेगी अर्थात् यद्यपि वह पक्वान्न है तो भी उसे नहीं खायेगी बल्कि उससे उसे घृणा उत्पन्न होगी। इसी प्रकार - पूतिकर्म आहार आदि साधु-साध्वी के लिए ग्रहण करना अयोग्य है बल्कि वह संयम का घातक होने से उससे उसको घृणा होनी चाहिये । किसी ने साधु साध्वी के निमित्त आहारादि बनाया, उसे 'आधाकर्म' कहते हैं । इसका थोड़ासा भी अंश शुद्ध आहार में शामिल हो गया तो वह 'पूतिकृत' (पूतिकर्म) कहलाता है । साधु को मालूम पड़ जाने से उस आहार को ग्रहण नहीं किया तब उस गृहस्थ ने अपनी बहन बेटी या रिश्तेदार जो कि वहाँ से हजार घर की दूरी पर रहता है उसके यहाँ भेज दिया । मुनि वहाँ गोचरी चले गये । वहाँ उन्हें ' मालूम हो गया कि यह आहारादि उस गृहस्थ ने यहाँ भेज दिया है । यह वही 'आधाकर्म' और 'पूतिकृत' आहार है तो मुनि को उसे ग्रहण नहीं करना चाहिये । यदि वह उस आहारादि को लेकर अपने प्रयोग में लेता है तो वह मुनि दो पक्षों का सेवन करता है अर्थात् वेष से तो वह लोगों को साधु मालूम होता है किन्तु आचरण से वह गृहस्थ है । तमेव अवियाणंता, विसमंसि अकोविया । मच्छा वेसालिया चेव, उदगस्सऽभियागमे ॥ २ ॥ उदगस्स पभावेणं, सुक्कं सिग्धं तमिंति उ । ढकेहि कंकेहि य, आमिसत्थेहिं ते दुही ॥ ३ ॥ कठिन शब्दार्थ - अवियाणंता नहीं जानते हुए, मच्छा मत्स्य- मछली, वेसालिया - वैशालिक, उदगस्सऽभियागमे - जल की बाढ़ आने पर, उदगस्सपभावेणं जल के प्रभाव से, सुक्कं सूखे हुए, सिग्धं - स्निग्ध-गीले स्थान को तमिंति प्राप्त करते हैं, आमिसत्थेहिं - मांसार्थी । -- - - भावार्थ - आधाकर्म आहार के दोषों को न जानने वाले एवं चातुर्गतिक संसार तथा अष्टविध कर्म के ज्ञान में अकुशल आधाकर्म आहार खाने वाले पुरुष इस प्रकार दुःखी होते हैं जैसे जल की बाढ़ आने पर जल के प्रभाव से सूखे और गीले स्थान पर गई हुई विशाल जातिवाली मछली मांसाहारी ढङ्क और कंक आदि के द्वारा दुःखी की जाती है । विवेचन आधाकर्म आहार आदि का सेवन करने वाले साधु-साध्वी चतुर्गति रूप संसार में परिभ्रमण करते हुए दुःखी होते हैं । इसके लिये वैशालिक ( बड़े रोमों वाली या बड़े शरीर वाली) जाति की मछली का दृष्टान्त दिया गया है। ३७ ● 'सुक्कं सिग्धं तभिंति उ' के स्थान पर "सुकम्मि घातमिंति उ" ऐसा पाठान्तर है। पाठान्तर का अर्थ यह है कि उस पानी अथवा कीचड़ के सूख जाने पर वह मछली - घात (मृत्यु) को प्राप्त हो जाती है। For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 एवं तु समणा एगे, वट्टमाण-सुहेसिणो । मच्छा वेसालिया चेव, घातमेस्संति णंतसों ॥४॥ कठिन शब्दार्थ - वट्टमाणसुहेसिणो - वर्तमान सुख की इच्छा करने वाले, घातमेस्संति - घात को प्राप्त करेंगे। भावार्थ - इसी तरह वर्तमान सुख की इच्छा करने वाले कोई श्रमण वैशालिक मत्स्य के समान अनन्तवार घात (मृत्यु) को प्राप्त होंगे । विवेचन - ऊपर की गाथा में मछली का दृष्टान्त देकर इस गाथा में रसलोलुपी श्रमणों को द्राष्टान्तिक रूप से बतलाया गया है। रसनेन्द्रिय की लोलुपता से ही आहार के दोषों का सेवन होता है । जब तक रस (काम गुण) पर काबू नहीं होता तब तक पूर्ण ब्रह्मचर्य का, पूर्ण अहिंसा का, पूर्ण सत्य का, पूर्ण अचौर्य का और पूर्ण अपरिग्रह का पालन होना कठिन है । रसासक्त व्यक्ति अपने आपको ठगता रहता है और आत्म गुणों की घात करता रहता है । इसलिये जन्म मरण के चक्कर में फंसा रहता है । इणमण्णं तु अण्णाणं, इहमेगेसिमाहियं । . देवउत्ते अयं लोए, बंभउत्ते ति आवरे ॥५॥ कठिन शब्दार्थ - देवउत्ते - देवोप्त-देव के द्वारा उत्पन्न किया गया, बंभउत्ते - ब्रह्मोप्त-ब्रह्मा का बनाया हुआ, आवरे - दूसरे कहते हैं । भावार्थ - पूर्वोक्त अज्ञान के सिवाय दूसरा एक अज्ञान यह भी है - कोई कहते हैं कि 'यह लोक किसी देवता द्वारा बनाया गया है' और दूसरे कहते हैं कि - 'ब्रह्मा ने यह लोक बनाया है।' विवेचन - किन्हीं का यह कथन है कि जैसे किसान बीज बोकर धान्य उत्पन्न करता है इसी तरह किसी देवता ने इस लोक को उत्पन्न किया है। दूसरे किन्हीं की मान्यता है कि यह लोक ब्रह्मा के द्वारा किया गया है। ब्रह्मा जगत् का पितामह (दादा) है। वह जगत्. की आदि में एक ही था। उसने प्रजापति को बनाया और प्रजापति ने इस जगत् को बनाया। ईसरेण कडे लोए, पहाणाइ तहावरे । जीवाजीव समाउत्ते, सुह दुक्खसमण्णिए ॥६॥ कठिन शब्दार्थ - ईसरेण - ईश्वर ने, कडे - कृत किया, पहाणाइ - प्रधानादि कृत, जीवाजीवसमाउत्ते - जीव और अजीव से समायुक्त, सुहदुक्खसमण्णिए - सुख और दुःख से समन्वित। . For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ उद्देशक ३ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ - ईश्वरकृत तत्त्ववादी कहते हैं कि जीव, अजीव, सुख तथा दुःख से युक्त यह लोक ईश्वरकृत है और सांख्यवादी कहते हैं कि यह लोक प्रधानादिकृत (सत्त्व, रज, तम, गुण से बना) है । विवेचन - ईश्वरवादी का कथन है कि - जो जो कार्य होते हैं वे किसी कर्ता के द्वारा किये होते . हैं। जैसे की घट (घडा) पट-कपड़ा आदि यह जगत् भी कार्य है इसलिये इसका कोई बुद्धिमान कर्ता होना चाहिये और वह कर्ता ईश्वर ही हो सकता है सांख्यवादी इस जगत् का मूल कारण सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों को मानता है। यह सृष्टि त्रिगुणात्मक है। इन तीन गुणों की साम्य अवस्था को . प्रकृति (प्रधान) कहते हैं । सयंभुणा कडे लोए, इइ वुत्तं महेसिणा । मारेण संथुया माया, तेण लोए असासए ॥७॥ कठिन शब्दार्थ - सयंभुणा - स्वयंभू ने, मारेण - मार अर्थात् यमराज ने, संथुया - रची है, तेण - इस कारण, असासए- अशाश्वत- अनित्य ।। भावार्थ - कोई अन्यतीर्थी कहते हैं कि स्वयंभू-विष्णु ने इस लोक को रचा है, यह हमारे महर्षि ने कहा है । यमराज ने माया बनाई है इसलिए यह लोक अनित्य है । __ विवेचन - जो स्वयं अपने आप ही उत्पन्न होता है उसे स्वयंभू कहते हैं वही विष्णु है। वह पहले अकेला था जब उसने दूसरे की इच्छा की तब शक्ति उत्पन्न हुई। शक्ति से जगत् की सृष्टि उत्पन्न हुई। जगत् पर बहुत भार बढ जायेगा इस भय से जगत् को मारने वाला 'मार' अर्थात् यमराज को उत्पन्न किया और यमराज ने माया बनाई उस माया से लोग मरते रते हैं। माहणा समणा एगे, आह - 'अंडकडे जगे' । 'असो तत्तमकासी य' - अयाणंता मुसं वए ॥ ८॥ . . .. • कठिन शब्दार्थ - अंडकडे - अंडकृत-अंडे से किया हुआ, जगे - जगत् को, असो - उस, तत्तं - तत्त्व-पदार्थ समूह को, अकासी - बनाया, अयाणंता - न 'जानने वाले, मुसं - झूठ, वए - कहते हैं। भावार्थ - कोई ब्राह्मण श्रमण कहते हैं कि यह जगत् अण्डा से किया हुआ है । तथा वे कहते हैं कि ब्रह्मा ने तत्त्व समूह को बनाया। वस्तुतः वे अज्ञानी वस्तु तत्त्व को न जानते हुए मिथ्या ही ऐसा कहते हैं। - विवेचन - 'अण्डे से संसार बना' इसका आशय यह है कि-पहले प्रलय में जगत् नष्ट हो गया था । सिर्फ एक ब्रह्मा ही था। उसने जल में एक अण्डा उत्पन्न किया। फिर धीरे-धीरे वह अण्डा बढने For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ लगा। वह एक वर्ष बाद फूटा और उसके दोनों टुकड़ों के बीच में स्वर्ग लोक और मनुष्य लोक की रचना हुई । ४० सएहिं परियाएहिं, लोयं बूया कडेति य । तत्तं तेण वियाणंति, ण विणासी कयाइ वि ॥ ९ ॥ . कठिन शब्दार्थ- परियारहिं - अभिप्राय से, विणासी विनाशी, कयाइ वि - कभी भी । भावार्थ - पूर्वोक्त देवोप्त आदि वादी अपनी इच्छा से जगत् को किया हुआ बतलाते हैं । वे वस्तु स्वरूप को नहीं जानते हैं क्योंकि यह जगत् कभी भी विनाशी नहीं है । विवेचन जो अविनश्वर होता वह अजन्मा भी होता है । यदि कोई लोक को अविनाशी समझ लेता है तो वह यह भी जान लेता है कि लोक कभी उत्पन्न नहीं हुआ। वह अनादि है । अतएव वह अविनाशी भी है द्रव्यार्थ रूप से यह लोक नित्य है और पर्याय रूप अनित्य है। अमणुण्ण समुप्पायं, दुक्खमेव वियाणिया । समुप्पायमजाणंता, कहं णायंति संवरं ? ॥ १० ॥ कठिन शब्दार्थ - अमणुण्णसमुप्पायं - अशुभ अनुष्ठानं से उत्पन्न होता है, समुघायमजाणंता दुःख की उत्पत्ति का कारण नहीं जानने वाले, कहं ( किह) - कैसे, णायंति जान सकते हैं, संवरं - संवर- दुःख रोकने का उपाय । भावार्थ - अशुभ अनुष्ठान करने से ही दुःख की उत्पत्ति होती है । जो लोग दुःख की उत्पत्ति का कारण नहीं जानते हैं वे दुःख के नाश का कारण कैसे जान सकते हैं ?. सुद्धे अपावए आया, इहमेगेसिमाहियं । पुणो किड्डापदोसेणं, से तत्थ अवरज्झइ ॥ ११॥ कठिन शब्दार्थ - सुद्धे - शुद्ध, अपावए पाप रहित, आया- आत्मा, किड्डापदोसेणं - क्रीडा प्रद्वेषेण - राग द्वेष के कारण, अवरज्झइ - बंध जाता है । भावार्थ - इस जगत् में किन्ही का कथन है कि आत्मा शुद्ध और पाप रहित हैं फिर भी वह राग द्वेष के कारण बँध जाता है । - विवेचन - जो आत्मा की तीन राशि ( अवस्था) बताता है उसे 'त्रैराशिक' कहते हैं। गोशालक का मत ' त्रैराशिक' कहलाता है उनकी मान्यता है कि अनादिकाल से कर्मों से मलिन (अशुद्ध) बना हुआ आत्मा मनुष्य भव में शुद्धाचरण करके शुद्ध बन जाता है और मोक्ष में चला जाता है। किन्तु फिर For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . अध्ययन १ उद्देशक ३ ४१ . 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अपने मत का अपमान और अन्य मत का सन्मान देख कर उसे राग द्वेष पैदा होता है इसीलिए संसार में फिर अवतार (जन्म) ले लेता है। इस प्रकार आत्मा की तीन अवस्था बनती है। यथा - १. अशुद्ध २. शुद्ध ३. अशुद्ध (संसारी सकर्म अवस्था)। इह संवुडे मुणी जाए, पच्छा होइ अपावए । वियडंबु जहा भुज्जो, णीरयं सरयं तहा ॥१२॥ कठिन शब्दार्थ - संवुडे - संवृत-यम नियम में रत, वियडम्बु - विकटाम्बु-शुद्ध जल, भुजो - भूय - फिर, णीरयं - निरज-निर्मल, सरयं - सरज-मलिन । - भावार्थ - जो जीव मनुष्य भव को पाकर यम नियम में तत्पर रहता हुआ मुनि होता है वह पीछे पाप रहित हो जाता है । फिर जैसे निर्मल जल मलिन होता है । उसी तरह वह भी मलिन हो जाता है । विवेचन - मोक्ष में गया हुआ जीव फिर संसार में आ जाता है यह उपरोक्त मान्यता मिथ्या है क्यों कि दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवतिनाङ्करः । कर्म बीजे तथा दग्धे, नारोहति भवाङ्करः ॥ अर्थ - जैसे गेहूं, जौ, चना आदि का बीज जल गया हो तो फिर उसका अङ्कर नहीं निकलता है अर्थात् वह जला हुआ बीज नहीं ऊगता है। इसी प्रकार जिस जीव का कर्म रूपी बीज सर्वथा जल गया है अर्थात् मोक्ष में चला गया है। उसका संसार में पुनरागमन रूप अङ्कर पुनः उत्पन्न नहीं हो सकता है अर्थात् वह फिर से जन्म नहीं लेता है। यह मान्यता शुद्ध है। एयाणुवीइ मेहावी, बंभचेरे ण ते वसे । पुढो पावाउया सव्वे, अक्खायारो सयं सयं ॥१३॥ कठिन शब्दार्थ - मेहावी - मेधावी-बुद्धिमान् पुरुष, बंभचेरे - ब्रह्मचर्य में, वसे - स्थित है, पावाउया - प्रावादुक-वादी, अक्खायारो - आख्याता-कथन करने वाले। भावार्थ - बुद्धिमान् पुरुष, इन अन्यतीर्थियों का विचार कर यह निश्चय करे कि ये लोग ब्रह्मचर्य अर्थात् अहिंसा आदि महाव्रतों का पालन नहीं करते हैं तथा ये सभी प्रावादुक, अपने अपने सिद्धान्त को अच्छा बतलाते हैं । . विवेचन - अपने सिद्धान्त को अच्छा बतलाने मात्र से कोई भी सिद्धान्त अच्छा नहीं हो जाता । जैसा कि कहा है - For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ तरह तरह के सन्त हैं, तरह तरह के पन्थ । अन्त जहां दुष्कर्म का, वही धर्म का पन्थ ॥ यह जीव अनादि काल से कर्म मल से मलिन बना हुआ है। उन आठ कर्मों से छूटकारा पाकर सर्व शुद्ध निरंजन निराकार पुनरागमन रहित बन जाता है। इस प्रकार का उपाय और उस उपाय को. जीवन में उतारना यह सिद्धान्त जहाँ बतलाया गया है वही सिद्धान्त सत्य है । ऐसा सिद्धान्त रागद्वेष विजेता वीतराग भगवन्तों का है। सए सए उवट्ठाणे, सिद्धिमेव ण अण्णा । अहो इहेव वसवत्ती, सव्वकाम समप्पिए ॥ १४ ॥ कठिन शब्दार्थ - उवट्ठाणे उपस्थान-अनुष्ठान से ही, अण्णहा वशवर्ती - जितेन्द्रिय, सव्वकाम समप्पिए - सर्वकाम समर्पित-सब कामनाएं सिद्ध होती है । भावार्थ- मनुष्यों को अपने-अपने अनुष्ठान से ही सिद्धि मिलती है और तरह से नहीं मिलती है । मोक्ष प्राप्ति के पूर्व मनुष्य को जितेन्द्रिय होकर रहना चाहिए इस प्रकार उसकी ब. कामनायें पूर्ण होती हैं । सिद्धा य ते अरोगा य, इहमेगेसिमाहियं । सिद्धिमेव पुरोकाउं, सासए गढिया नरा ॥ १५ ॥ कठिन शब्दार्थ - अरोगा - अरोग-नीरोग, सिद्धिं सिद्धि को, एव ही, पुरोकाउं आगे रख कर, सासए - शाश्वत, गढिया - गूंथे हुए हैं । भावार्थ - अन्यदर्शनी कहते हैं कि हमारे दर्शन ( मत) के अनुष्ठान से सिद्धि को जो प्राप्त करते हैं वे नीरोग होते हैं । वे अन्यदर्शनी सिद्धि को आगे रख कर अपने दर्शन से ही बंधे रहते हैं । इस प्रकार वे कर्मों से भी छुटकारा नहीं पा सकते हैं । विवेचन - अन्य मतावलम्बियों की मान्यता है कि जो हमारे मत को स्वीकार कर लेता है उसकी सब कामनायें सिद्ध हो जाती हैं। उस पुरुष को मोक्ष जाने के पहले आठ प्रकार की ऐश्वर्यशाली सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं। यथोक्तं - अणिमा महिमा चेव, लघिमा गरिमा तथा । प्राप्तिः प्राकाम्य मीशित्वं, वशित्वं चाष्टसिद्धयः । अर्थ - - १. अणिमा - योग विद्या के प्रभाव से योगिजनों को ऐसी सिद्धि प्राप्त हो जाती है कि वे अपने शरीर को परमाणु के समान सूक्ष्म बना देते हैं इस शक्ति को अणिमा कहते हैं । For Personal & Private Use Only - अन्यथा, वसंवत्ती Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ उद्देशक ३ 0000000000000000000000000000000000000000०००००००००००००००००००००००० २. महिमा - अपने शरीर को बड़ा से बड़ा बना लेना (मेरु समान)। ३. लघिमा - अपने शरीर को रुई के समान हलका बना लेना। ४. गरिमा - अपने शरीर को भारी से भारी बना लेना। यथा लोह, वज्र । ५. प्राप्ति-जमीन पर बैठे हुए मेरुपर्वत पर हाथ फिरा लेना। ६. प्राकाम्य - सब इच्छाओं का सफल होना। ७. ईशित्वं - शरीर और मन पर पूरा अधिकार हो जाना तथा ऐश्वर्य शाली होना। ८. वशित्व - जिनको चाहे उन सभी प्राणियों को अपने वश में कर लेना। कहीं कहीं पर दो - सिद्धियां और दी है यथा अप्रतिघातित्व किसी भी वस्तु में नहीं रोका जाना। यत्र कामाव सायित्व - जिस वस्तु को भोगने की इच्छा हो उसे इच्छा पूरी होने तक नष्ट नहीं होने देना। असंवुडा अणाइयं, भमिहिंति पुणो पुणो । कप्पकालमुवति, ठाणा आसुरकिव्विसिया ।। १६ ॥ त्ति बेमि ।। कठिन शब्दार्थ - असंवुडा - असंवृत-इन्द्रिय विजय से रहित, अणाइयं - अनादि-आदि रहित संसार में, भमिहिंति - भ्रमण करेंगे, कप्पकालं - चिरकाल तक ठाणा - स्थान, आसुर किदिवसियाअसुर किल्विषिक में, उवजति - उत्पन्न होते हैं। भावार्थ - इन्द्रिय विजय से रहित वे अन्यदर्शनी बार बार संसार में भ्रमण करते रहेंगे वे बाल तप के प्रभाव से असुर स्थानों में बहुत काल तक किल्विषी देवता होते हैं । विवेचन - अम्य मतावलम्बी लोग मोक्ष की प्राप्ति के लिये उद्यत होकर भी अपनी इन्द्रियों को और मन को वश में नहीं रखते हैं इससे मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती बल्कि अपने बुरे आचरण के कारण कर्म-पाश से बद्ध होकर बार-बार नरक आदि यातना स्थानों में उत्पन्न होते रहते हैं। कदाचित् बाल-तप के कारण कभी स्वर्ग की प्राप्ति हो भी जाती है तो ऊंची जाति के देव न होकर हल्की जाति के देव किल्विषी आदि होते हैं । ॥ इति तीसरा उद्देशक ॥ For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 . चौथा उद्देशक एए जिया भो ! ण सरणं, बाला पंडियमाणिणो । हिच्चा णं पुव्वसंजोगं, सिया किच्चोवएसगा ॥१॥ कठिन शब्दार्थ - भो - हे शिष्य, जिया - जीते जा चुके, पंडियमाणिणो - अपने को पंडित मानने वाले, हिच्चा - छोड़ कर पुष्वसंजोगं - पूर्व संयोगों को, किच्चोवएसगा - गृहस्थ के कृत्य (कार्य) का उपदेश देने वाले । भावार्थ - ये अन्यदर्शनी काम क्रोधादि से पराजित हैं अतः हे शिष्य ! ये लोग संसार से रक्षा . करने में समर्थ नहीं है । ये लोग अज्ञानी हैं तथापि अपने को पण्डित मानते हैं । ये लोग अपने बन्धु बान्धवों से सम्बन्ध छोड़कर भी परिग्रह में आसक्त रहते हैं तथा गृहस्थ के सावय कर्त्तव्य का उपदेश देते हैं । विवेचन - उपरोक्त अन्य मतावलम्बी घर-बार छोड़कर मोक्ष के लिये उद्यत होते हैं परन्तु पीछे से परिग्रह और आरम्भ में आसक्त हो जाते हैं अतः ये गृहस्थ के तुल्य ही हैं। इनके मनुस्मृति ग्रन्थ में बतलाया है । पञ्चशूना गृहस्थस्य, चुल्ली पेषण्युपस्करः। कण्डनी चोदकुम्भश्च, वध्यन्ते यास्तु वाहयन् ॥ अर्थ - गृहस्थ के घर में पांच शूना (बूचड़खाना) अर्थात् छह काय जीवों के हिंसा के साधन बतलाये गये हैं- १. चुल्ली (चूल्हा) २. चक्की, ३. झाडू ४. ऊखली और ५. पलीण्डा (जल रखने का स्थान)। इन पांच के द्वारा छह काय जीवों की हिंसा होती है। इसलिये इनको 'पञ्चशूना' कहते हैं। अपने आपको निःसंग और प्रवर्जित कहने वाले ये अन्यतीर्थी सावध कार्यों से युक्त हैं तथा गृहस्थों को भी इन सावध कार्यों का उपदेश देते हैं। अतः ये मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते हैं। तं च भिक्खू परिण्णाय, विजं तेसु ण मुच्छए । अणुक्कस्से अप्पलीणे, मझेण मुणि जावए ॥२॥ कठिन शब्दार्थ - विजं - विज्ञ-विद्वान्, मुच्छए - मूर्छा करे, अणुक्कसे - किसी प्रकार का मद न करना, अप्पलीणे - किसी के साथ संबंध न रखना, मझेण - मध्यस्थ वृत्ति से, जावए - व्यवहार करे ।। . भावार्थ - विद्वान् साधु अन्यतीर्थियों को जानकर उनमें मूर्छा न करे अर्थात् इनके साथ किसी प्रकार का सम्बन्ध न रखें तथा किसी तरह का मद न करता हुआ संसर्ग रहित मध्यस्थ वृत्ति से रहे । For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. अध्ययन १ उद्देशक ४ . 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 सपरिग्गहा य सारंभा, इहमेगेसि-माहियं । अपरिग्गहा अणारंभा, भिक्खू ताणं परिव्वए ॥३॥ कठिन शब्दार्थ - सपरिग्गहा - परिग्रह रखने वाले, सारंभा- आरंभ करने वाले, अपरिग्गहा - परिग्रह रहित, अणारंभा - आरंभ रहित, ताणं - शरण, परिव्यए - जावे । भावार्थ - कोई अन्यतीर्थी कहते हैं कि परिग्रह रखने वाले और आरम्भ करने वाले जीव, मोक्ष प्राप्त करते हैं परन्तु भावभिक्षु परिग्रह रहित और आरम्भ वर्जित पुरुष के शरण में जावे ।। विवेचन - अन्यदर्शनी कहते हैं कि - 'परिग्रह रखने वाले और आरंभ करने वाले जीव मोक्ष प्राप्त करते हैं ।' उनकी यह मान्यता गलत है । ज्ञानी पुरुष फरमाते हैं कि - आरंभ और परिग्रह से रहित पुरुष ही मुक्ति प्राप्त करते हैं । यही शरण और त्राणभूत है । कडेसु घासमेसेज्जा, विऊ दत्तेसणं चरे । अगिद्धो विप्पमुक्को य, ओमाणं परिवज्जए ॥४॥ कठिन शब्दार्थ - कडेसु - कृत-दूसरे द्वारा बनाए हुए आहार में से, घासं - ग्रास आहार की, एसेना - गवेषणा करे, दत्तेसणं - दिये हुए आहार को लेने की गवेषणा, अगिद्धो - गृद्धि रहित, विप्पमुक्को - विप्रमुक्त-रागद्वेष रहित, ओमाणं - दूसरे का अपमान परिवजए - परिवर्जन करे । - भावार्थ - विद्वान् साधु दूसरे द्वारा बनाये हुए आहार की. गवेषणा करे तथा दिए हुए आहार को ही ग्रहण करने की इच्छा करे। आहार में मूर्छा और राग द्वेष न करे तथा दूसरे का अपमान कभी न करे । विवेचन - गृहस्थ के द्वारा लगने वाले औद्देशिक आदि १६ दोष तथा ग्रहण करने वाले मुनि की तरफ सें लगने वाले धात्री आदि उत्पादना के १६ दोष तथा देने वाले दाता और ग्रहण करने वाले मुनि दोनों के सम्मिलित रूप से लगने वाले शंकित आदि दस दोष इन ४२ दोषों को टाल कर शुद्ध भिक्षा ग्रहण करे तथा मांडला के अर्थात् आहार करते समय लगने वाले संयोजना, इंगाल, धूम, अकारण, अप्रमाण इन पांच दोषों को टाल कर आहार आदि का उपयोग करे। .लोगवायं णिसामिज्जा, इहमेगेसिमाहियं । विपरीय पण्णसंभूयं, अण्णउत्तं तयाणुयं ॥५॥ कठिन शब्दार्थ - लोगवायं - लोकवाद अर्थात् पौराणिकों के सिद्धान्त को, णिसामिज्जा - सुनना चाहिये, विपरीय पण्णसंभूयं - विपरीतप्रज्ञासम्भूत-विपरीत बुद्धि से रचित, अण्णउत्तंअन्यउक्त-अन्य अविवेकियों ने जो कहा है, तयाणुयं- उसका अनुगामी । भावार्थ - कोई कहते हैं कि पाषण्डी अथवा पौराणिकों की बात सुननी चाहिए परन्तु पौराणिक For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ और पौराणिकों की बात विपरीत बुद्धि से उत्पन्न होने के कारण दूसरे अविवेकियों की बात के समान ही मिथ्या है । ४६ 000000 अणं णिइए लोए, सासए ण विणस्स । अंतवं णिइए लोए, इइ धीरोऽतिपासइ ॥ ६ ॥ कठिन शब्दार्थ - अणंते - अनन्त, णिइए - नित्य, सासए शाश्वत, विणस्स - विनाश होता है, अंत - अंत वाला, अतिपासइ - देखते हैं । भावार्थ - यह लोक अनन्त, नित्य और शाश्वत है । इसका विनाश नहीं होता है तथा यह लोक अन्तवान् (सीमित) और नित्य है यह व्यास आदि धीर पुरुष देखते हैं । - विवेचन - यद्यपि यह लोक नित्य है, अनन्त है तथापि अन्य मतावलम्बी इन शब्दों का भिन्न अर्थ करते हैं जैसे कि वे नित्य शब्द का अर्थ करते हैं- जो जैसा है वह वैसा ही रहता है। जैसे कि - मनुष्य सदा मनुष्य ही रहता है, पशु सदा पशु ही रहता है। स्त्री मर कर परंभव में स्त्री ही होती है पुरुष मर कर परभव में पुरुष ही रहता है । परन्तु यह उनकी मान्यता मिथ्या है क्योंकि जीव अपने कर्म के अनुसार देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और नरक गति में जाता है और अपने कर्मानुसार ही पुरुष का स्त्री और स्त्री का पुरुष हो जाता है। अपरिमाणं वियाणाइ, इहमेगेसिमाहियं । सव्वत्थ सपरिमाणं, इइ धीरोऽतिपास ॥ ७ ॥ कठिन शब्दार्थ - अपरिमाणं परिमाण रहित, वियाणाइ जानता है, सव्वत्थ सपरिमाणं परिमाण सहित । भावार्थ - किसी की मान्यता है कि अतीन्द्रिय पदार्थों को जानने वाला पुरुष अवश्य है परन्तु सब पदार्थों का ज्ञाता सर्वज्ञ पुरुष नहीं है । परिमित पदार्थों को जानने वाला ही पुरुष है यह धीर पुरुष देखते हैं । विवेचन - अन्यतीर्थियों की मान्यता है कि - कोई भी पुरुष सर्वज्ञ नहीं हो सकता है। उसके सर्वज्ञ होने से जगत् के जीवों को कोई लाभ भी नहीं है। जैसा कि कहा है - - सर्वं पश्यतु वा मावा, इष्टं अर्थ (तत्त्वं इष्टं ) तु पश्यतु । कीट संख्यापरिज्ञानं तस्य नः क्वोपयुज्यते ॥ अर्थ- सब पदार्थों को देखे अथवा न देखे किन्तु अपनी आत्मा के इष्ट अर्थ को देख लेना चाहिये। क्योंकि सर्वज्ञ होकर सब कीडों की संख्या बतलावे यह ज्ञान हमारे किस काम में आ सकता है ? सर्वत्र, For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपरोक्त मान्यता मिथ्या है क्योंकि किसी एक पदार्थ की भूतकालीन, भविष्यत्कालीन अनन्त पर्यायों को और वर्तमान कालीन पर्यायों को जाने बिना एक पदार्थ का भी सम्पूर्ण ज्ञान नहीं हो सकता है और एक पदार्थ की सम्पूर्ण पर्यायों को जान लेना यही सर्वज्ञता है । जैसा कि आचाराङ्ग सूत्र में कहा है जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ । जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ । स्याद्वादमञ्जरी में भी कहा है कि अध्ययन १ उद्देशक ४ एको भावः सर्वथा येन दृष्टः । सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टाः ॥ - सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टाः । एको भावः सर्वथा तेन दृष्टः ॥ अर्थ - जिसने एक पदार्थ को सम्पूर्ण रूप से जान लिया उसने सब पदार्थों को सम्पूर्ण रूप से जान लिया और जिसने सम्पूर्ण पदार्थों को सर्व रूप से जान लिया उसने एक पदार्थ को भी सम्पूर्ण रूप से जान लिया। किसी अन्यतीर्थी का मत है कि धीर पुरुष सब देश और सब काल में परिमित पदार्थ को ही जानता और देखता है। जैसा कि कहा है कि ब्रह्मा दिव्य ( देवता सम्बन्धी) एक हजार वर्ष तक सोता उस समय वह कुछ नहीं जानता और देखता है तथा दिव्य एक हजार वर्ष तक जागता है उस समय वह जानता है और देखता है। ४७ - उपरोक्त मान्यता भी मिथ्या है। क्योंकि सर्वज्ञ के ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन चार घातिकर्मों का सर्वथा क्षय हो जाने से वे सर्वदा काल जागते ही रहते हैं उन्हें निद्रा नहीं आती। अतः वे सर्वथा और सर्वदा जानते और देखते हैं । जे केइ तसा पाणा, चिट्ठति अदु थावरा । परियाए अस्थि से अंजू, जेण ते तस्स थावरा ॥ ८ ॥ कठिन शब्दार्थ - अंजू - अवश्य, परियाए - पर्याय, अस्थि होता है, जेण - जिससे । भावार्थ - इस लोक में जितने त्रस और स्थावर प्राणी हैं वे अवश्य एक दूसरे पर्याय में जाते हैं. अतएव कभी त्रस स्थावर हो सकते हैं और स्थावर त्रस हो सकते हैं । - विवेचन - इस संसार में त्रस और स्थावर प्राणी हैं वे अपने अपने कर्मों का फल भोगने के लिये अवश्य एक दूसरे पर्याय में आते जाते रहते हैं । अर्थात् स प्राणी स्थावर पर्याय में आ जाते हैं और For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ स्थावर प्राणी त्रस पर्याय में चले जाते हैं परन्तु त्रस जीव दूसरे जन्म में भी त्रस ही होते हैं और स्थावर जीव स्थावर ही होते हैं अर्थात् जो इस जन्म में जैसा है वह दूसरे जन्म में भी वैसा ही होता है यह नियम नहीं है। ४८ जो एक जगह स्थिर रहते हैं उन्हें 'स्थावर' कहते हैं । पृथ्वीकाय अप्काय, तेडकाय, वाउकाय एवं वनस्पतिकाय सभी स्थावर एकेद्रिय हैं। जो अपनी इच्छानुसार चल फिर सकते हैं उन्हें 'त्रस' कहते हैं । बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय पञ्चेन्द्रिय ये सभी त्रस जीव हैं । उरालं जगओ जोगं, विवज्जासं पलेंति य । सव्वे अनंत दुक्खा य, अओ सव्वे अहिंसया ॥ ९ ॥ कठिन शब्दार्थ - उरालं उदार-स्थूल, जगओ - जगत्-औदारिक जीवों का, विवज्जासं विपर्य्यय को, पलेंति - प्राप्त होता है, अक्कंतदुक्खा - दुःख अप्रिय है, अहिंसया - हिंसा नहीं करनी चाहिये । भावार्थ - औदारिक जन्तुओं का अवस्था विशेष स्थूल है क्योंकि सभी प्राणी एक अवस्था को छोड़कर दूसरी अवस्था में जाते रहते हैं तथा सभी प्राणियों को दुःख अप्रिय है इसलिए किसी की हिंसा नहीं करनी चाहिए । विवेचन - सांसारिक सभी प्राणी शारीरिक और मानसिक दुःखों से पीड़ित हैं तथा भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त करते हुए पाये जाते हैं । सभी प्राणियों को दुःख अप्रिय और सुख प्रिय होता है । किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिये । अतः एयं खुणाणिणो सारं, जंण हिंसइ किंचणं । अहिंसा समयं चेव, एयावंतं वियाणिया ॥ १०॥ कठिन शब्दार्थ - णाणिणो ज्ञानी पुरुष का, सारं साररूप- न्यायसंगत, समयं - समता, एयावंतं - इतना, वियाणिया- जानना चाहिये । भावार्थ - किसी जीव को न मारना, यही ज्ञानी पुरुष के लिए न्यायसंगत है और अहिंसा रूप समता भी इतनी ही है । - - - विवेचन - पढ़ने लिखने और ज्ञान प्राप्त करने का यही सार है कि वह जगत् के सभी प्राणियों को अपनी आत्मा के तुल्य समझे ऐसा समझ कर किसी भी जीव की हिंसा न करें। किसी भी जीव को जरासा भी कष्ट न पहुंचावे तथा झूठ, चोरी कुशील, परिग्रह (ममता - मूर्च्छा) का सर्वथा त्याग कर दे । यही ज्ञान का सार है। For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १ उद्देशक ४ सिए य विगयगेही, आयाणं सम्मं रक्खए । चरियासणसेज्जासु, भत्तपाणे य अंतसो ॥११॥ कठिन शब्दार्थ - वुसिए - व्युषित - स्थित, विगयगेही - विगत गृद्धि-गृद्धि रहित, आयाणं - आदानीय-ग्रहण करने योग्य, सम्मं - सम्यक् प्रकार से, रक्खए - रक्षा करे, चरियासणसेज्जासुचलने फिरने. बैठने और सोने में, भत्तपाणे- भात पानी के विषय में । . भावार्थ - दस प्रकार की साधु समाचारी में स्थित आहार आदि में गृद्धिरहित मुनि, ज्ञान दर्शन और चारित्र की अच्छी तरह से रक्षा करे एवं चलने, फिरने, बैठने और सोने तथा भात पानी के विषय में सदा उपयोग रखे। विवेचन - भगवती सूत्र शतक २५ उद्देशक ७ तथा ठाणाङ्ग सूत्र १० और उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २६ में दस समाचारी का वर्णन है। साधु के आचरण को अथवा अच्छे आचरण को समाचारी कहते हैं । इसके दस भेद हैं। यथा - १. इच्छाकार - 'यदि आपकी इच्छा हो तो मैं अमूक कार्य करूं' अथवा 'मैं आपका यह कार्य करूं' इस प्रकार गुरु महाराज से पूछना इच्छाकार समाचारी है। २.मिच्छाकार (मिथ्याकार)- संयम का आचरण करते हुये कोई विपरीत आचरण हो गया हो तो उस पाप के लिये पश्चात्ताप करता हुआ साधु कहता है 'मिच्छामि दुक्कडं' अर्थात् मेरा यह पाप निष्फल हो। इसे मिच्छाकार समाचारी कहते हैं । ... ३. तथाकार - सूत्र आदि आगम के विषय में गुरु महाराज को कुछ पूछने पर वे उत्तर दें तब तथा व्याख्या आदि के समय 'तहत्ति' (जैसा आप फरमाते हैं वह ठीक है) कहना तथाकार समाचारी है। ४. आवश्यकी - उपाश्रय से बाहर निकलते समय साधु को) 'आवस्सिया' (आवश्यकी) कहना चाहिये अर्थात् मैं आवश्यक कार्य के लिये बाहर जा रहा हूँ। ५. निसीहिया (नषेधिकी)- बाहर से वापस आकर उपाश्रय में प्रवेश करते समय 'निसीहिया' कहना चाहिये अर्थात् अब मुझे बाहर जाने का कोई काम नहीं है। इस प्रकार दूसरे कार्य का निषेध करना। ६. आपृच्छना - किसी कार्य में प्रवृत्ति करने से पहले 'क्या मैं यह कार्य करूं' इस प्रकार गुरु महाराज से पूछना। ७. प्रतिपृच्छना - गुरु ने पहले जिस काम का निषेध कर दिया है इसी कार्य में आवश्यकतानुसार फिर प्रवृत्त होना हो तो गुरु से दुबारा पूछना 'भगवन् ! आपने पहले इस कार्य के लिए मना किया था किन्तु यह जरूरी है आप फरमावें तो करूं' ऐसा पूछना प्रतिपृच्छना है। For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ ८. छंदणा - गोचरी में लाये हुए आहारादि के लिये साधु को आमंत्रण देना जैसे कि 'यदि आप के उपयोग में आ सके तो इस आहार आदि में से ग्रहण कीजिये ।' - ९. निमंत्रणा - आहार लाने के लिये साधु को पूछना । जैसे कि 'क्या आपके लिये आहार आदि लाऊं ?' ५० १०. उवसंपद - ज्ञानादि प्राप्त करने के लिये अपना गच्छ छोड़ कर किसी विशेष ज्ञान वाले आचार्य आदि का आश्रय लेना उवसंपद (उपसंपदा) समाचारी है । गाथा में 'चर्या' शब्द से 'ईर्या समिति' का ग्रहण हुआ है तथा 'शय्या' शब्द से 'आदान समिति' और 'भत्तपाण' शब्द से एषणा समिति का ग्रहण किया है। किन्तु गाथा में 'च' शब्द दिया है उससे 4 'भाषा समिति' और 'उच्चार प्रस्रवण समिति' का भी ग्रहण हो जाता है। एएहिं तिर्हि ठाणेहिं, संजए सययं मुणी । उक्कसं जलणं णूमं, मज्झत्थं च विगिंचए ॥ १२॥ - कठिन शब्दार्थ- सययं सतत सदा, संजए संयत-संयम रखता हुआ, उक्कसं- उत्कर्ष - मान, जलणं - ज्वलन - क्रोध, णूमं गहन- माया, मज्झत्थं मध्यस्थ-लोभ को, विगिंचए - त्याग करे । भावार्थ - ईर्य्यासमिति, आदाननिक्षेपणासमिति और एषणासमिति इन तीनों स्थानों में सदा संयम रखता हुआ मुनि क्रोध, मान, माया और लोभ का त्याग करे । विवेचन - यद्यपि इस गाथा में 'तीन समिति' का ही ग्रहण किया है किन्तु जैसा कि ऊपर की गाथा में बतला दिया गया है तदनुसार यहाँ पांचों समितियों का ग्रहण कर लेना चाहिये। समितिवन्त मुनि को क्रोधादि चारों कषायों का त्याग कर देना चाहिये । इस गाथा में क्रोध को 'ज्वलन' कहा है। जो अपनी आत्मा को तथा चारित्र को जलाता है उसे ज्वलन कहते हैं। यह क्रोध है। जो अपने को ऊंचा समझता है व दूसरों को नीचा समझता है उसको 'उत्कर्ष' कहते हैं इसलिये यहाँ 'मान' को उत्कर्ष कहा है। माया अर्थात् छल कपट को जान लेना सरल बात नहीं है इसलिये माया को 'णूम' (गहन) कहा है। जो प्राणियों के मध्य (हृदय) में निवास करता है उसको 'मध्यस्थ' कहते हैं इसलिये यहाँ लोभ को मध्यस्थ कहा गया है। अतः मुनि इन चारों कषायों का सर्वथा त्याग कर दे। कषाय के त्याग से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। जैसा कि कहा है "कषाय मुक्तिः किलमुक्तिरेव" अर्थात् कषाय से छुटकारा पाना यही मुक्ति (मोक्ष) है। - - - 000000000000 उपलक्षण से शेष दो समितियों का भी ग्रहण समझ लेना चाहिए। For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ अध्ययन १ उद्देशक ४ ०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० समिए उ सया साहू, पंच-संवर-संवुडे । सिएहिं असिए भिक्खू, आमोक्खाय परिव्वएग्जासि ॥ १३ ॥ त्तिबेमि ।। ॥इति ससमय परसमय वत्तव्वया णामं पढमं अग्झयणं समत्तं ॥ . कठिन शब्दार्थ - समिए - समिति से युक्त, पंच संवरसंवुडे - पांच संवर से संवृत्त रहता हुआ, सिएहिं - सित-गृहस्थों में, असिए - मूर्छा न रखता हुआ, आमोक्खाय - मोक्ष पर्यन्त, परिव्वएजा - संयम का अनुष्ठान करे । भावार्थ - भिक्षणशील साधु, समिति से युक्त और पाँच संवरों से संवृत्त होकर गृहस्थों में मूर्छा न रखता हुआ मोक्ष की प्राप्ति पर्य्यन्त संयम का पालन करे, यह श्री सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं कि यह मैं कहता हूँ। . विवेचन - इस प्रकार मूलगुण और उत्तर गुणों को बतला कर इस गाथा में शास्त्रकार ने सब का उपसंहार करते हुए कहा है कि मुनि पांच संवरों से संवृत्त अर्थात् पांच महाव्रत युक्त, पांच समितियों से संयुक्त और तीन गुप्तियों से गुप्त रहे। गृहस्थों के बीच रहता हुआ भी उनमें मूर्छा न करे। जैसे कीचड़ में रहता हुआ कमल कीचड़ में लिप्त नहीं होता और जल से ऊपर रहता है इसी प्रकार साधु भी गृहस्थों के अन्दर रहता हुआ भी उनके सम्पर्क में लिप्त न होवे अपितु समस्त कर्मों का क्षय करने के लिये सदा उपरोक्त तेरह प्रकार (५ महाव्रत, ५ समिति और ३ गुप्ति) के चारित्र का पालन करने में रत रहे। यह शिष्य के प्रति उपदेश है। .. 'इति' शब्द अध्ययन की समाप्ति के लिये आता है। 'ब्रवीमि' का अर्थ है मैं कहता हूँ। यहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पांचवें गणधर श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि - हे आयुष्मन् अम्बू! जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की पर्युपासना करते हुए मैंने उन के मुखारविन्द से सुना है वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ। अपनी इच्छा से कुछ नहीं । ॥इति चौथा उद्देशक ॥ ॥ ससमय पर समय वक्तव्यता नामक प्रथम अध्ययन समाप्त । For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "वैतालिक नामक दूसरा अध्ययन __ पहला उद्देशक संबुज्झह किं ण बुझह ? संबोही खलु पेच्च दुल्लहा । णो हूवणमंति राइओ, णो सुलभं पुणरावि जीवियं ॥१॥ कठिन शब्दार्थ - संबुझह - तुम बोध को प्राप्त करो, संबोही - संबोधि-बोधः प्राप्त करना, पेच्च - प्रेत्य-मृत्यु के पश्चात्, दुल्लहा - दुर्लभ, राइओ - रात्रियों, णो - नहीं, हु - निश्चय, उवणमंति- लौट कर आती हैं, सुलभं - सुलभ, पुणरावि - पुनरपि-पुनः फिर, अपि - भी, जीवियंसंयम जीवन को। भावार्थ - हे भव्यो ! तुम बोध प्राप्त करो, तुम बोध को प्राप्त क्यों नहीं करते हो ? जो रात्रियां व्यतीत हो गई है वे फिर लौट कर नहीं आती हैं मनुष्य भव और उसमें भी फिर संयमजीवन मिलना सुलभ नहीं है। विवेचन - इस अध्ययन का नाम 'वेतालीय' है। संस्कृत में विपूर्वक 'दृ विदारणे' धातु से विदारक शब्द बनता है। जिसका अर्थ है 'भेदन करना'। प्राकृत में 'विदारक' शब्द का 'वेतालीय' (वेयालीय) शब्द बन जाता है। इस अध्ययन में कर्मों को विदारण करने के उपाय बतलाये गये हैं। इसलिये इस अध्ययन को 'वेतालीय' कहते हैं । अथवा 'वैतालीय' नामका एक छन्द विशेष है उसी छन्द में इस अध्ययन की रचना की गई है। इसलिये इस अध्ययन का नाम वेतालीय रखा गया है। टीकाकार ने इस गाथा का सम्बन्ध भगवान् ऋषभदेव के ९८ पुत्रों के साथ जोड़ा है। यथाऋषभराजा ने ८३ लाख पूर्व गृहस्थ अवस्था में रह कर फिर दीक्षा अंगीकार की। एक हजार वर्ष छद्मस्थ अवस्था में रहने के बाद विनीता (अयोध्या) नगरी के उपनगर पुरिमताल नगर के बाहर शकटमुख उद्यान में पद्मासन से विराजमान भगवान् ऋषभदेव को केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई। उसी दिन उनके बड़े पुत्र भरत राजा के यहाँ आयुधशाला में चक्ररत्न की उत्पत्ति हुई। उस चक्ररत्न की सहायता से भरतक्षेत्र के छह खण्डों को साध लिया अर्थात् छह खण्डों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया इस प्रकार भरत राजा चक्रवर्ती बन कर वापिस अयोध्या में लौटा। परन्तु चक्र रत्न अपने स्व स्थान आयुधशाला में प्रविष्ट नहीं हुआ। तब सेनापति रत्न श्री सुसेन ने भरत से निवेदन किया कि - आप के छोटे ९९ भाइयों ने अभी तक आपकी अधीनता स्वीकार नहीं की है इसलिये चक्र रत्न आयुधशाला में प्रविष्ट नहीं हो For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ उद्देशक १ ५३ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 रहा है। तब भरत राजा ने अपनी अधीनता स्वीकार करने का सन्देश छोटे भाइयों को भेजा तब ९८ छोटे भाई (बाहुबली के सिवाय) भगवान् ऋषभदेव की सेवा में उपस्थित हुए और निवेदन किया कि - हमको राज्य तो आपने दिया है अब भरत अपनी अधीनता स्वीकार करने को कह रहा है सो अब हमें क्या करना चाहिये ? तब सर्वज्ञ सर्वदर्शी वीतराग भगवान् ऋषभदेव ने उनको उपदेश दिया-संबुझह कि ण बुण्झह ! अर्थात् हे भव्यो ! तुम बोध को प्राप्त करो। क्योंकि बोध का प्राप्त करना बड़ा दुर्लभ है। प्रथम तो मनुष्य भव का मिलना ही कठिन है क्यों कि मनुष्य भव प्राप्त करने में बीच में ग्यारह विकट घाटियों को पार करना अत्यन्त कठिन है। उत्तराध्ययन सूत्र के दसवें अध्ययन में इन ग्यारह घाटियों का वर्णन इस प्रकार किया है - १. पृथ्वीकाय २. अप्काय ३. तेउकाय ४. वाउकाय ५. वनस्पतिकाय ६. बेइन्द्रिय ७. तेइन्द्रिय ८. चउरिन्द्रिय ९. तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय १०. देवगति और ११. नरक गति इन ११ घाटियों को पार करने में अनन्त काल बीत जाता है। तब कहीं जाकर मनुष्य भव का नम्बर आता है। मनुष्य भव की प्राप्ति हो जाने पर भी दस बातों की प्राप्ति होना दुर्लभ है। १. मनुष्य भव २. आर्य क्षेत्र ३. उत्तम कुल ४. पाञ्चों इन्द्रियाँ परिपूर्ण ५. दीर्घायु ६. नीरोग शरीर ६. साधु पुरुषों का समागम ८. जिन धर्म का श्रवण ९. धर्म पर श्रद्धा आना (सद्धा परम दुल्लहा) १०. धर्म में पुरुषार्थ करना। कहा भी है - आर्य क्षेत्र नरभव सुकुल, पूरण इन्द्रिय स्थान । दीर्घ आयु अरोगता, धर्म जिन देव का ध्यान ॥ शास्त्र श्रवण रुचि धर्म में, संयम में उद्योग। दुर्लभ ये दस बोल हैं, मिले पुण्य के योग ॥ अतएव भव्य जीवों को सम्बोधित किया है कि - चेतन चेतो रे ! चेतन चेतो रे ! दस बोल जीव ने मुश्किल मिलियारे ! चेतन चेतो रे ! भगवान् ने फरमाया कि - यह सांसारिक राज्य और सब सम्पत्तियां क्षण भङ्गुर हैं यथा - . • अर्थाः पादरजोपमाः गिरि नदी वेगोपमं यौवनम् । आयुष्य जललोल बिन्दु चपलं, फेनोपमं जीवनम् ॥ पैरों पर लगी हुई धुली के समान धन है, पहाड़ पर से उतरने वाली नदी के वेग के समान यौवन है, डाभ की अणी के ऊपर रही हुई जल की बून्द के समान चञ्चल आयुष्य है और पानी के बुलबुले के समान जीवन है। संसार की कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है। इसलिये सांसारिक राज्य ऋद्धि को छोड़ कर मुक्ति के लिये प्रयत्न करो। मुक्ति का राज्य सदा सदा के लिये स्थिर है। ... इस प्रकार भगवान् ऋषभदेव की अमृतमय वाणी को सुन कर उन ९८ भाइयों को वैराग्य उत्पन्न For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ ................. .........00 हो गया। भगवान् के पास दीक्षा लेकर संयम में ऐसा प्रबल पुरुषार्थ किया कि उसी भव में मोक्ष राज्य को प्राप्त कर लिया । डहरा बुड्ढा य पासह, गब्भत्था वि चयंति माणवा । सेणे जह वट्टयं हरे, एवं आउक्खयंमि तुट्टइ ॥ २॥ कठिन शब्दार्थ - डहरा - छोटे बच्चे, बुड्डा माणवा - मानव-मनुष्य, चयंति- छोड़ देते हैं, जह जैसे, सेणे श्येन पक्षी, वट्टयं वर्तक को, हरे - हर लेता है, मार डालता है, आउक्खयंमि आयु क्षय होने पर, तुट्टइ जीवन टूट अर्थात् नष्ट हो जाता है । वृद्ध, पासह- देखो, गब्भत्था - गर्भस्थ बालक, 00000000.....................00 - - - - भावार्थ - श्री ऋषभदेव स्वामी अपने पुत्रों से कहते हैं कि हे पुत्रो ! बालक, वृद्ध, और गर्भस्थ मनुष्य भी अपने जीवन को छोड़ देते हैं यह देखो । जैसे श्येन (बाज ) पक्षी वर्तक ( तीतर) पक्षी को मार डालता है इसी तरह आयु क्षीण होने पर मृत्यु मनुष्य को मार डालती है अर्थात् प्राणी अपने जीवन को छोड़ देते हैं । विवेचन - इस गाथा का सम्बन्ध भी पहली गाथा साथ ही है। मृत्यु कब आती है इसका कोई भरोसा नहीं है। वृद्ध, जवान और बालक को भी मृत्यु आ घेरती है और यहाँ तक की गर्भ में रहे हुए जीव की भी मृत्यु हो जाती है। अतः धर्म करणी करने में जरा भी ढील नहीं करनी चाहिये । मायाहिं पियाहिं लुप्पड़ णो सुलहा सुगई य पेच्चओ । एयाइं भयाइं पेहिया, आरंभा विरमेज्ज सुव्वए ॥ ३ ॥ कठिन शब्दार्थ - मायाहिं पियाहिं माता पिता के द्वारा, लुप्पइ संसार में भ्रमण करता है, एयाई - इन, भयाई - भयों को, पेहिया- देख कर, आरंभा- आरंभ से, विरमेज्ज - विरक्त हो जाय।, = - भावार्थ- कोई माता पिता आदि के स्नेह में पड़ कर संसार में भ्रमण करते हैं । उनको मरने पर सद्गति नहीं प्राप्त होती । सुव्रत पुरुष इन भयों को देखकर आरम्भ से निवृत्त हो जाय । विवेचन - माता-पिता, स्त्री, पुत्र, भाई, बन्धु आदि परिवार, के साथ ममत्व रूप स्नेह एक प्रकार का बन्ध (जंजीर) है। यद्यपि यह बन्धन लोह का नहीं है तथापि लोह के बन्धन से भी अधिक मजबूत है। इनके स्नेह में पड़ा हुआ व्यक्ति इनका पोषण करने के लिये धन के उपार्जन के लिये नीच से नीच कार्य भी कर बैठता है जिसके कारण वह दुर्गति में चला जाता है और वहाँ वह अनेक प्रकार के 'दुःख भोगता है अतः बुद्धिमान का कर्तव्य है कि आरम्भ परिग्रह से निवृत्त हो जाय । जगती पुढो जगा, कम्मेहिं लुप्यंति पाणिणो । सयमेव कडेहिं गाहइ णो तस्स मुच्चेज्जपुट्ठयं ॥ ४॥ For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ उद्देशक १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कठिन शब्दार्थ - जगती - जगत्-संसार में, पुढो - पृथक्-अलग अलग, कम्मेहिं - कर्मों के द्वारा, लुप्पंति - लुप्त होते हैं-दुःख पाते हैं, सयं - अपने, एव - ही कडेहिं - किये हुए, अपुट्ठयं - फल भोगे बिना, णो मुच्चेज - मुक्त नहीं हो सकता है। भावार्थ - जो जीव सावद्य कर्मों का अनुष्ठान नहीं छोड़ते हैं उनकी यह दशा होती है-संसार में अलग-अलग निवास करने वाले प्राणी अपने किये हुए कर्म का फल भोगने के लिए न आदि यातना स्थानों में जाते हैं । वे अपने कर्मों का फल भोगे बिना मुक्त नहीं हो सकते हैं। देवा गंधव्व-रक्खसा, असुरा भूमिचरा सरीसिवा । राया णर सेट्टि-माहणा ठाणा ते वि चयंति दुक्खिया । ५। कठिन शब्दार्थ - देवा - देव, गंधव्व - गन्धर्व, रक्खसा- राक्षस, असुरा - असुर, भूमिचरा - भूमिचर-भूमि पर चलने वाले, सरीसिवा - सरीसृप-सरक कर चलने वाले तिर्यंच, राया - राजा, णर - नर-मनुष्य, सेट्टि - श्रेष्ठि-नगर के श्रेष्ठ पुरुष, माहणा - माहन-ब्राह्मण, चयंति - छोड़ते हैं, दुक्खिया - दुःखित हो कर। - भावार्थ - देव, गन्धर्व, राक्षस, असुर, भूमिचर, तिर्यंच चक्रवर्ती, साधारण मनुष्य, नगर का श्रेष्ठ पुरुष और ब्राह्मण ये सभी दुःखी होकर अपने स्थानों को छोड़ते हैं । - विवेचन - ज्योतिष्क और वैमानिक देव तथा भवनपति और वाणव्यन्तर देव, राजा, महाराजा, बलदेव, वासुदेव, चक्रवर्ती तथा चक्रवर्ती के रत्न रूप हस्ति रत्न, अश्व रत्न आदि अपने स्थान को छोड़ते समय दुःखी होते हैं परन्तु अपने सुख मय स्थान को छोड़ना पड़ता है क्योंकि जगत् में जितने स्थान हैं वे सब अनित्य हैं। कामेहि य संथवेहि गिद्धा, कम्मसहा कालेण जंतवो। ताले जह बंधणच्चुए, एवं आउक्खयंमि तुट्टइ ॥६॥ - कठिन शब्दार्थ - कामेहि - विषय भोग की तृष्णा, संथवेहि - परिचित पदार्थों में, कम्मसहा - अपने कर्म का फल भोगते हुए, बंधणच्चुए - बंधन से छूटा हुआ, ताले - ताल फल। भावार्थ - विषय भोग की तृष्णा वाले तथा माता-पिता और स्त्री आदि परिचित पदार्थों में आसक्त रहने वाले प्राणी अवसर आने पर अपने कर्म का फल भोगते हुए आयु क्षीण होने पर इस प्रकार मृत्यु को प्राप्त होते हैं जैसे बंधन से छूटा हुआ ताल फल जमीन पर गिर पडता है। विवेचन - अज्ञानी पुरुष विषय भोग का सेवन करके अपनी तृष्णा को निवृत्त करना चाहता है वह इस लोक और परलोक में केवल क्लेश ही पाता है क्यों कि उसकी तृष्णा कभी शान्त नहीं हो सकती है। जैसे - कोई व्यक्ति अग्नि को तप्त कर देने के लिये उसमें लकड़ियां डालता रहे तो वह For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अग्नि कभी तृप्त एवं शान्त नहीं हो सकती। इसी प्रकार भोग भोगते रहने से भोगों की तृष्णा कभी तृप्त एवं शान्त नहीं होती किन्तु विषय भोगों का त्याग कर देने से वह शान्त और तृप्त हो जाती है । जे यावि बहुस्सुए सिया, धम्मिय माहण भिक्खुए सिया। अभिणम-कडेहिं मुच्छिए, तिव्वं ते कम्मेहिं किच्चइ ॥७॥ कठिन शब्दार्थ - बहुस्सुए - बहुश्रुत, सिया - हो, धम्मिय- धार्मिक, अभिणूमकडेहिं - * अभिणूमकृत-माया कृत अनुष्ठान में, मुच्छिए - आसक्त । . भावार्थ - मायामय अनुष्ठान में आसक्त पुरुष चाहे बहुश्रुत (बहुत ज्ञानी) हों, धार्मिक हों, ब्राह्मण हों, चाहे भिक्षुक हों वे अपने कर्मों के द्वारा अत्यन्त पीड़ित किये जाते हैं । .. विवेचन - कोई कितना ही बड़ा आदमी हो या ज्ञानी हो उसे अपने किये हुए कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है। यथा - 'कडाण कम्माण ण मोक्ख अत्थि' अर्थात् किये हुए कर्मों का फल भोगे बिना जीव का छूटकारा नहीं होता है। अह पास विवेगमुट्ठिए, अवितिपणे इह भासइ धुवं। णाहिसि आरं कओ परं, वेहासे कम्मेहिं किच्चइ॥ ८ ॥ कठिन शब्दार्थ - विवेगं - विवेक-छोड़ना, उट्ठिए- उत्थित प्रव्रज्या ग्रहण करना, अवितिण्णे - वे संसार सागर को पार नहीं कर सकते, धुवं - ध्रुव-मोक्ष को, णाहिसि - जान सकते हो, आरं - इस लोक को, परं - परलोक को, वेहासे - मध्य में ही, किच्चइ - पीड़ित किये जाते हैं । भावार्थ - हे शिष्य ! इसके पश्चात् यह देखो कि कोई अन्यतीर्थी परिग्रह को छोड़कर अथवा संसार को अनित्य जान कर प्रव्रज्या ग्रहण करके मोक्ष के लिए उद्यत होते हैं परन्तु अच्छी तरह संयम का अनुष्ठान नहीं कर सकने के कारण वे संसार को पार नहीं कर सकते हैं । वे मोक्ष का भाषण मात्र करते हैं परन्तु उसकी प्राप्ति का उपाय नहीं करते हैं । हे शिष्य ! तुम उनका आश्रय लेकर इसलोक तथा परलोक को कैसे जान सकते हो ? वे अन्यतीर्थी उभयभ्रष्ट होकर मध्य में ही कर्म के द्वारा पीड़ित किये जाते हैं। ... विवेचन - ज्ञान दर्शन, चारित्र इन तीन की संयुक्त त्रिपुटी से ही अर्थात् सम्मिलित रूप से ही. मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। जैसा कि उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है - णाणं च दंसणं चेव, चरितं च तवो तहा। एयं मग्गमणुप्पत्ता, जीया गच्छंति सुग्गइं॥ - उत्तराध्ययन सूत्र अ. २८ गाथा ३ तत्त्वार्थ सूत्र में भी कहा है - "सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः" For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . १ ॥ अध्ययन २ उद्देशक १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 यह सिद्धान्त त्रैकालिक है। भूतकाल में भी यह मार्ग था, वर्तमान में यही मार्ग है और भविष्य में भी यही मार्ग रहेगा। .... इस सिद्धान्त को समझे बिना अनन्त जीवों ने संसार में परिभ्रमण किया हैं वर्तमान में करते हैं और भविष्यत् में भी करेंगे। अतः बुद्धिमानों का कर्तव्य है कि उपरोक्त सम्यग् मार्ग को ग्रहण करके अपनी आत्मा का कल्याण करें। जइ वि य णगिणे किसे चरे, जइ वि य भुंजिय मासमंतसो । जे इह मायाइ मिज्जइ, आगंता गब्भाय णंतसो ॥९॥ कठिन शब्दार्थ - जइ - यदि, वि - भी, य- और, णगिणे (णिगिणे)- नग्न-वस्त्र रहित, किसे - कृश-दुबला पतला, चरे- विचरे, भुंजिय - भोजन करे, मास - एक मास, अंतसो - अन्ततः, आगंता - प्राप्त करता है, गब्भाय - गर्भवास को, णंतसो- अनंत काल तक । भावार्थ - जो पुरुष, कषायों से युक्त है वह चाहे नंगा और कृश होकर विचरे अथवा एक मास के पश्चात् भोजन करे परन्तु वह अनन्त काल तक गर्भवास को ही प्राप्त करता है । : विवेचन - क्रोध, मान, माया, लोभ रूपी कषाय से छूटकारा नहीं होता तब तक मुक्ति नहीं हो सकती है। जैसा कि कहा है - नाशाम्बरत्वे न सिताम्बरत्वे, ... न तर्कवादे न च तत्त्ववादे। न पक्षपाताश्रयणेन मुक्तिः , कषायमक्तिः किल मक्तिरेव ॥ अर्थ - आशाम्बर अर्थात् आशा-दिशा ही अम्बर (कपडा है जिसके) उसको आशाम्बर अर्थात् दिगम्बर कहते हैं। दिगम्बरपने में अर्थात् वस्त्र रहित होकर नग्न फिरने से ही मुक्ति नहीं होती है इसी प्रकार सिताम्बर अर्थात् सफेद कपडा पहन लेने मात्र से मुक्ति नहीं है इसी प्रकार तर्कवाद और तत्त्ववाद से तथा एक पक्ष पकड लेने मात्र से मुक्ति नहीं है। किन्तु कषाय से छूटकारा पाना ही वास्तव में मुक्ति है। हिन्दी कवि ने भी कहा है - . काहे को भटकत फिरे, सिद्ध होवण के काज । राग द्वेष को छोड़ दे, भैय्या सुगम इलाज ॥ पुरिसो रम पाव-कम्मुणा, पलियंतं मणुयाण जीवियं। सण्णा इह काममुच्छिया, मोहं जंति णरा असंवुडा॥ १० ॥ For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ 00000000 कठिन शब्दार्थ - रम - निवृत्त हो जा, पलियंतं पर्यन्त नाशवान्, सण्णा मग्न आसक्त, काम मुच्छिया - काम भोग में मूर्च्छित, असंवुडा - असंवृत्त पापों से अनिवृत्त । भावार्थ - हे पुरुष ! तू पापकर्म से युक्त है अतः तू उससे निवृत्त हो जा। मनुष्यों का जीवन नाशवान् है । जो मनुष्य संसार में अथवा मनुष्य भव में आसक्त हैं तथा विषय भोग में मूर्च्छित और हिंसा आदि पापों से निवृत्त नहीं हैं वे मोह को प्राप्त होते हैं । . विवेचन - मनुष्य का जीवन अल्प है उसमें भी संयमी जीवन काल तो अति अल्प है ऐसा जान कर जब तक यह मनुष्य जीवन समाप्त नहीं होता है तब तक धर्मानुष्ठान के द्वारा इस जीवन को सफल कर लेना चाहिये । श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 300000 सूक्ष्म प्राणियों से पालन करना चाहिये । - जययं विहराहि जोगवं, अणुपाणा पंथा दुरुत्तरा । अणुसासणमेव पक्कमे, वीरेहिं संमं पवेइयं ॥ ११ ॥ कठिन शब्दार्थ - जययं यत्ना करता हुआ, अणुपाणा दुरुत्तरा - दुस्तर, अणुसासणं- शास्त्रोक्त रीति, एव ही, पक्कमे भावार्थ- हे पुरुष ! तू यत्न के सहित तथा समिति गुप्ति से गुप्त होकर विचरो क्योंकि सूक्ष्म प्राणियों से पूर्ण मार्ग बिना उपयोग के पार नहीं किया जा सकता है । शास्त्र में संयम पालन की जो रीति बताई है उसके अनुसार ही संयम का पालन करना चाहिए, यही सब तीर्थंकरों ने उपदेश दिया है । विरया वीरा समुट्ठिया, कोहं कायरियाई पीसणा । पाणे ण हति सव्वसो, पावाओ विरयाऽभिणिव्वुडा ॥ १२ ॥ कठिन शब्दार्थ - विरया विरत पापों से निवृत्त, कोह कायरियाई पीसणा - क्रोध कातरिकादि पीषणा-क्रोध और माया आदि को दूर करने वाले, अभिणिव्वुडा - अभिनिर्वृत्त - शान्त । भावार्थ - जो हिंसा आदि पापों से निवृत्त तथा कषायों को दूर करने वाले और आरंभ से रहित हैं एवं क्रोध मान माया और लोभ को त्याग कर मन वचन और काय से प्राणियों का घात नहीं करते हैं, वे सब पापों से रहित पुरुष मुक्त जीव के समान ही शान्त हैं । विता अहमेव लुप्पए, लुप्पंति लोयंसि पाणिणो । एवं सहिएहिं पासए, अणिहे से पुट्ठे अहियासए ॥ १३ ॥ कठिन शब्दार्थ - लुप्प से रहित, अहियासए - सहन करे । भावार्थ - ज्ञानादि सम्पन्न पुरुष यह सोचे कि शीत और उष्णादि परीषहों से मैं ही नहीं पीडित - - 'युक्त, पंथा-मार्ग, पीड़ित किया जाता हूँ, सहिएहिं - ज्ञानादि संपन्न, अणिहे - क्रोधादि For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ उद्देशक १ 0000000000000000000000000000००००००००००००००००००००००००००0000000000 किया जाता हूँ किन्तु लोक में दूसरे प्राणी भी पीडित किये जाते हैं अतः शीत उष्णादि परीषहों को क्रोधादि रहित होकर सहन करने में विर्य छिपावे नहीं। ... विवेचन - इस जीव ने अनेक योनियों में अनेक कष्ट सहन किये हैं । परन्तु समभाव पूर्वक सहन न करने से कर्मों की वैसी निर्जरा नहीं हो सकी जैसा कि कहा है - "क्षान्तं न क्षमया गृहोचितसुखं त्यक्तं न सन्तोषतः ।। सोढाः दुःसहशीतताप पवनक्लेशाः न तप्तं तपः ।। ध्यातं वित्तमहर्निशं नियमितप्राणैर्न तत्त्वं परं । . तत्तत्कर्म कृतं सुखार्थिभिरहो तैस्तैः फलैर्वञ्चिताः ॥" अर्थ - मैंने शीत उष्ण आदि दुःखों को सहन तो किया परन्तु क्षमा के कारण नहीं । अपितु अशक्ति और परवशता के कारण। मैंने घर के सुखों का त्याग तो किया परन्तु सन्तोष के कारण नहीं अपितु अप्राप्ति के कारण । मैंने शीत, उष्ण और पवन के दुःसह दुःख सहे परन्तु तप की भावना से नहीं । मैंने दिन रात धन का चिन्तन किया परन्तु परम तत्त्व का चिन्तन नहीं किया, मैंने सुख प्राप्ति के लिये वे सभी कार्य किये जो तपस्वी मुनिराज करते हैं। किन्तु उनका फल मुझे कुछ नहीं मिला। इसलिये संयम पालन करने वाले उत्तम, विचारशील पुरुषों को कर्म निर्जरा की भावना से इन सब कष्टों · को समभाव पूर्वक सहन करना चाहिये जिससे कर्मों की भारी निर्जरा होवे । धूणिया कुलियं व लेववं, किसए देह मणासणाइहिं। अविहिंसामेव पव्वए, अणुधम्मो मुणिणा पवेइओ ।१४।। कठिन शब्दार्थ - धूणिया - लेप गिरा कर, कुलियं - भित्ति, लेववं - लेप वाली, किसए - कृश कर दें, अविहिंसां - अहिंसा धर्म को, एव- ही, मुणिणा - मुनि ने, अणुधम्मो - अनुधर्म-यही धर्म, पवेइओ - कहा है । - भावार्थ - जैसे लेपवाली भित्ति, लेप गिरा कर कृश कर दी जाती है इसी तरह अनशन आदि तप के द्वारा शरीर को कृश कर देना चाहिए तथा अहिंसा धर्म का ही पालन करना चाहिए क्योंकि सर्वज्ञ ने यही धर्म बताया है । विवेचन - दैहिक स्थूलता त्याग मार्ग में-आत्म सामीप्य में प्रायः बाधक होती है । देह के आश्रित ही मन, वचन के योग है । काया को कसने पर मन,वचन पर नियंत्रण करने में सहायता मिलती है। इसीलिए शास्त्रों में जगह-जगह पर देह-दमन का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है । "देह दुक्खं महाफलं" - दशवैकालिक अनशन शब्द से उपलक्षण के द्वारा बारह प्रकार के तप का यहां ग्रहण हो जाता है । सूत्रकार ने For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 000000 सकषाय (हिंसात्मक) तप की, ऊपर ९वीं गाथा में व्यर्थता बताकर यहां अहिंसात्मक तप की उपयोगिता बताई है । उणी जह पंसुगुंडिया, विहुणिय धंसयइ सियं रयं । एवं दवि उवहाणवं, कम्मं खवइ तवस्सी माहणे । १५ । कठिन शब्दार्थ - सउणी- शकुनिका-पक्षिणी, पंसुगंडिया- धूल से भरी हुई, विहुणिय शरीर को कंपा कर, सियं शरीर में लगी हुई, रयं रज-धूल को, उवहाणवं उपधान-तप करने वाला, खवड़ - नाश कर देता है। - भावार्थ - जैसे पक्षिणी अपने शरीर में लगी हुई धूलि को अपने पंखों को फड़फडाकर. गिरा देती है इसी तरह अनशन आदि तप करने वाला अहिंसाव्रती भव्य पुरुष अपने कर्मों का नाश कर देता है। 0000000000000000 विवेचन - 'उपधान' शब्द का अर्थ टीकाकार ने इस प्रकार किया है- "मोक्ष प्रति उप-सामीप्येन दधाति इति उपधानं अशनादिकं तपः " अर्थात् जीव को जो मोक्ष के नजदीक पहुंचावे, उसे उपधान कहते हैं अर्थात् अनशन आदि तप को उपधान कहते हैं । 'माहण' शब्द का अर्थ टीकाकार ने इस प्रकार किया है - " मा वधीः इति प्रवृत्तिः यस्सः सः माहनः" अर्थात् प्राणियों की हिंसा मत करो ऐसा जो उपदेश देता है और वैसा ही आचरण भी करता है उसको 'माहन' कहते हैं। उट्ठियमणगारमेसणं, समणं ठाणठिअं तवस्सिणं । डहरा वुड्ढा य पत्थए, कठिन शब्दार्थ - अणगारं प्रार्थना करें, सुस्से थक जाय ) भावार्थ - अनगार (गृह रहित) और एषणा के पालन में तत्पर संयमधारी तपस्वी साधु के निकट आकर उनके बेटे, पोते तथा माता पिता आदि प्रव्रज्या छोड़कर घर चलने की भले ही प्रार्थना करे और कहे कि आप हमारा पालन करें। क्योंकि आपके सिवाय दूसरा हमारा अवलम्बन नहीं है। ऐसा कहते कहते और प्रार्थना करते-करते वे थक जायँ परन्तु वस्तु तत्त्व को जानने वाले मुनि को वे अपने अधीन नहीं कर सकते हैं । अवि सुस्से ण य तं लभेज्ज णो ॥ १६ ॥ अनगार-गृह रहित, ठाणठिअं- संयम स्थान में स्थित, पत्थर जड़ कालुणियाणि कासिया, जइ रोयंति य पुत्तकारणा । दवियं भिक्खुं समुट्ठियं, णो लब्धंति ण संठवित्त ॥ १७ ॥ 'लभे जणो' पाठान्तर । For Personal & Private Use Only - Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ उद्देशक १ कठिन शब्दार्थ - कालुणियाणि - करुणा मय वचन या करुणामय कार्य, कासिया - करे, दवियं - द्रव्यभूत-मोक्ष गमन योग्य, समुट्ठिय- समुत्थित- संयम पालन में तत्पर, ण संठवित्तएस्थापित नहीं कर सकते। भावार्थ - साधु के माता पिता आदि सम्बन्धी साधु के निकट आकर यदि करुणामय वचन बोलें, या करुणा जनक कार्य करें अथवा पुत्र के लिए रुदन करें तो भी वे, संयम पालन करने में तत्पर मुक्ति गमन योग्य उस साधु को संयम से भ्रष्ट नहीं कर सकते तथा वे उन्हें गृहस्थ लिंग में नहीं स्थापन कर सकते । . विवेचन - आप स्वयं संयम में दृढ़ हैं तो उसके माता पिता स्वजन सम्बन्धी आदि उसको संयम से विचलित नहीं कर सकते हैं। जइ वि य कामेहि लाविया, जइ णेज्जाहि णं बंधिउं घरं। ' जइ जीवियं णावकंखए, णो लब्भंति ण संठवित्तए ।। १८ ॥ कठिन शब्दार्थ - लाविया - प्रलोभन दें, जाहि - ले जायं, बंधिउं - बांध कर, ण - नहीं, अवकंखए - चाहता है। भावार्थ - साधु के सम्बन्धी जन यदि साधु को विषय भोग का प्रलोभन दें अथवा वे साधु को बाँधकर घर ले जायँ, परन्तु वह साधु यदि असंयम जीवन की इच्छा नहीं करता है तो वे उसे अपने वश में नहीं कर सकते अथवा उसे वे गृहस्थ भाव में स्थापित नहीं कर सकते । सेहंति य णं ममाइणो, माया पिया य सुया य भारिया। . पोसाहिण पासओ तुमं, लोगं परं पि जहासि पोस णो॥१९॥ कठिन शब्दार्थ - सेहंति - शिक्षा देते हैं, पासओ - पश्यक-सूक्ष्मदर्शी, पोसाहि - पालन करो, जहासि - छोड़ते हो। . भावार्थ - साधु को अपना पुत्र आदि जानकर उसके माता पिता पुत्र और स्त्री आदि साधु को शिक्षा देते हैं । वे कहते हैं कि हे पुत्र ! तू बड़ा सूक्ष्म दर्शी है अतः हमारा पालन करो । तू हमें छोड़कर अपना इहलोक और परलोक दोनों बिगाड़ रहे हो अतः तुम हमारा पालन करो । विवेचन - उन स्वजनों के कहने का यह तात्पर्य है कि यदि तुम हमारे पालन रूप छोटे कर्तव्य का भी पालन नहीं कर सकते हो अर्थात् प्रत्यक्ष की उपेक्षा करते हो तो भवपार कैसे हो सकोगे अर्थात् अप्रत्यक्ष की भी उपेक्षा कर बैठोगे। - नीतिकार कहते हैं - "या गतिः क्लेशदग्धानां गृहेषु गृहमेधिनाम्। विभ्रतां पुत्रदारांस्तु तां गतिं व्रज पुत्रक ॥" .. For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ अर्थात् - हे पुत्र ! स्त्री और पुत्र आदि को पालन करने के लिये अनेक प्रकार के कष्ट सहन करने वाले गृहस्थों का जो मार्ग है उसी मार्ग से तुमको भी चलना चाहिये । अणे अण्णेहिं मुच्छिया, मोहं जंति णारा असंवुडा । विसमं विसमेहिं गाहिया, ते पावेहिं पुणो पगब्भिया ॥ २० ॥ - कठिन शब्दार्थ - मुच्छिया - मूर्च्छित - आसक्त होकर, जंति प्राप्त होते हैं, विसमेहिं विषम असंयमी पुरुषों द्वारा, विसमं असंयम, गाहिया - ग्रहण कराये हुए, पगब्भिया - धृष्ट हो जाते हैं । ६२ भावार्थ- कोई संयम हीन पुरुष सम्बन्धीजनों के उपदेश से माता पिता आदि में मूर्च्छित होकर मोह को प्राप्त होते हैं । वे, असंयमी पुरुषों के द्वारा असंयम ग्रहण कराए हुए फिर पाप कर्म करने में धृष्ट (निर्लज्ज - ढीट) हो जाते हैं । विवेचन - उपरोक्त रूप से अनुकूल और प्रतिकूल परीषह दिये जाने पर कोई नवदीक्षित कायर पुरुष संयम को छोड़ कर गृहस्थ बन जाता है और फिर गृहस्थ के वे ही सावद्य कार्य करने लग जाता है। जिस सावद्य कार्य को एक वक्त छोड़ दिया उस कार्य को फिर से करने लग जाना धृष्टता कहलाता । धृष्ट बना हुआ पुरुष उस सावद्य (पाप) कार्य करते हुए लज्जित भी नहीं होता है। तम्हा दवि इक्ख पंडिए, पावाओ विरएऽभिणिव्वुडे । पणया वीरा महावीहिं, सिद्धिपहं णेयाउयं धुवं ॥ २१ ॥ कठिन शब्दार्थ - इक्ख देखो, पणया प्रणत- प्राप्त करते हैं, महावीहिं - महावीथि महामार्ग को, सिद्धिपहं - सिद्धिपथ-सिद्धि का मार्ग, णेयाउयं नैयायिक (नेता) ले जाने वाला धुवं - ध्रुव । भावार्थ - माता पिता आदि के प्रेम में फंस कर जीव पाप करने में धृष्ट हो जाते हैं इसलिए हे पुरुष ! तुम मुक्ति गमन योग्य अथवा रागद्वेष रहित होकर विचार करो । हे पुरुष ! तुम सत् और असत् विवेक से युक्त, पाप रहित और शान्त बन जाओ । कर्म को विदारण करने में समर्थ पुरुष उस महत् मार्ग से चलते हैं जो मोक्ष के पास ले जाने वाला ध्रुव और सिद्धि मार्ग हैं । वेयालिय मग्ग मागओ, मण वयसा काएण संवुडो । चिच्च वित्तं च णायओ, आरंभं च सुसंवुडे चरे ।। २२ ।। त्ति बेमि ॥ कठिन शब्दार्थ - वेयालिय मग्गं - वैदारक मार्ग-कर्म को विदारण करने में समर्थ मार्ग में, आगओ - आकर, संवुडो - संवृत्त - गुप्त होकर, णायओ ज्ञातिजन को, सुसंवुडे - सुसंवृत्त - उत्तम संयमी होकर । - - - For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ उद्देशक २ ६३ ... भावार्थ - हे मनुष्यो ! कर्म को विदारण करने में समर्थ मार्ग का आश्रय लेकर मन वचन और काया से गुप्त होकर तथा धन ज्ञातिवर्ग और आरम्भ को छोड़कर उत्तम संयमी बनकर विचरो । विवेचन - संयम मार्ग ही कर्मों को विदारण करने में समर्थ है। अतः जितेन्द्रिय बनकर दृढ़ता पूर्वक संयम का पालन करना चाहिये। इति ब्रवीमि- शब्द का अर्थ पहले कर दिया गया है। श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बू स्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन् जम्बू ! जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से सुना वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ। ॥इति पहला उद्देशक॥ दूसरा उद्देशक मनुष्य स्थूल त्याग-बाह्य त्याग अधिक कठिनाई के बिना भी कर सकता है । परन्तु अपने आपको बड़ा समझने की वृत्ति वह बड़ी कठिनाई से छोड़ पाता है । वह संसार में रहता है तब उसे धनादि का गौरव रहता है । धनादि के अभाव में जाति-कुलादि का अभिमान हो जाता है । इस प्रकार अभिमान स्थूल से सूक्ष्म पर होता जाता है और त्याग में अपने त्याग पर ही अभिमान होने लगता है-इसलिये साधक को अपनी दृष्टि को पैनी बनाने की बड़ी आवश्यकता रहती है । अपने अवगुणों की ओर से आँखें मूंद लेने से और अपने बड़प्पन का ही हमेशा चिंतन करते रहने से अभिमान उत्पन्न होता है-दूसरे को तुच्छ समझने की वृत्ति जागृत होती है । अभिमान अशान्ति का जनक और उत्थान का अवरोधक है । अतः सूत्रकार ने बाह्य त्याग के उपदेश के बाद इस उद्देशक में अभिमान त्याग रूप आभ्यन्तर त्याग का उपदेश किया है - तयसं व जहाइ से रयं, इइ संखाय मुणी ण मज्जइ। गोयण्णतरेण माहणे, अह सेयकरी अण्णेसी इंखिणी ॥१॥ कठिन शब्दार्थ - तयसं - त्वचा को, संखाय - जान कर, मजइ - मद करता है, गोयण्णतरेणगोत्र तथा दूसरे मद के कारणों से, इंखिणी - निंदा, असेयकरी - अश्रेयकारी-कल्याण का नाश करने वाली । For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ - जैसे सर्प अपनी त्वचा को छोड़ देता है इसी तरह साधु अपने आठ प्रकार के कर्म रज को छोड़ देते हैं । यह जानकर संयमधारी मुनि अपने कुल आदि का मद नहीं करते हैं, तथा वे दूसरे की निन्दा भी नहीं करते हैं क्योंकि दूसरे की निन्दा कल्याण का नाश करती है । विवेचन - सर्प जब वृद्ध होने लगता है तब उसके शरीर पर पतली सी झिल्ली (चमड़ी) आने लगती है । उससे नजर भी मन्द पड़ जाती है । पक जाने पर सांप उस झिल्ली को छोड़ देता है, छोड़ कर भाग जाता है । इसी प्रकार साधु को जाति कुल आदि का अभिमान और आठ कर्मों को छोड़ देना : चाहिये तथा दूसरों की निन्दा भी नहीं करनी चाहिये । निंदा अपनी आत्मा के लिए अहितकारी है। जो परिभवइ परं जणं, संसारे परिवत्तइ महं । अदु इंखिणिया उ पाविया, इइ संखाय मुणी ण मग्जइ ॥२॥... कठिन शब्दार्थ - परिभवइ - परिभव-तिरस्कार करता है, परिवत्तइ- भ्रमण करता है, महं - महत्-चिर काल तक, पाविया- पाप का कारण। भावार्थ - जो पुरुष दूसरे का तिरस्कार करता है वह चिरकाल तक संसार में परिभ्रमण करता है । पर निन्दा पाप का कारण है यह जानकर मुनिराज किसी की भी निंदा नहीं करते और अपने ज्ञानादि का किसी प्रकार से मद नहीं करते हैं । विवेचन - परनिंदा पाप को उत्पन्न करती है। इस विषय में इस लोक में सूअर का दृष्टान्त है और परलोक में निन्दा करने वाला पुरोहित (ब्राह्मण) भी कुत्ते की योनि में उत्पन्न हो जाता है। परनिंदा पाप का कारण है यह जान कर मुनि को पर निन्दा नहीं करनी चाहिये कि -'मैं विशिष्ट कुल में उत्पन्न हुआ हूँ अतः कुलवान् हूं, रूपवान् हूं, शास्त्रज्ञ हूं और तपस्वी हूं। दूसरे मेरे से हीन हैं। इसको अजीर्ण कहते हैं। जैसा कि कहा है अजीर्णं तपसः क्रोधः, ज्ञानाजीर्ण महंकृतिः परतप्तिः क्रियाजीर्णं, अन्नाजीर्ण विषूचिका ॥ अर्थ - इस श्लोक में चार अजीर्ण बतलाये गये हैं। उनमें तीन भाव अजीर्ण हैं और एक द्रव्य अजीर्ण है। तपस्या करने से यदि क्रोध कषाय की वृद्धि होती है तो यह तप का अजीर्ण है। ज्ञान बढ़ने से यदि अहंकार (अभिमान) की वृद्धि होती है तो यह ज्ञान का अजीर्ण है। क्रिया का पालन करने से अपने आप को उच्च क्रिया पात्र समझता है दूसरों को हीनाचारी शिथिलाचारी समझता है तो यह क्रिया का अजीर्ण है। अधिक आहार कर लेने से यदि विषूचिका (दस्ते)लगने लगे तो आहार का अजीर्ण है। इस द्रव्य अजीर्ण की तो औषध सरल है परन्तु तीन भाव अजीर्ण की औषध तो बड़ी कठिन है। इसकी औषध वैद्य के पास नहीं है अपितु स्वयं के पास है। For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ उद्देशक २ 0000000000000000000000000000000000000000००००००००० गर्व बढ़ा जो ज्ञान से, तप से क्रोध विशेष। आचार से अभिमान बढ़ा, व्यर्थ लजाया वेष ॥ जे यावि अणायगे सिया, जे वि य पेसगपेसए सिया। जे मोणपयं उवट्ठिए, णो लज्जे समयं सया चरे ॥३॥ कठिन शब्दार्थ - अणायगे - अनायक-नायक रहित, पेसगपेसए - दास का भी दास, मोणपयं - मौन पद-संयम मार्ग में, समयं - समभाव से । भावार्थ - जो स्वयंप्रभु चक्रवर्ती आदि हैं तथा जो दास के भी दास हैं उन्हें संयम मार्ग में आकर लज्जा छोड़कर समभाव से व्यवहार करना चाहिए। . विवेचन - चाहे चक्रवर्ती भी क्यों न हो परन्तु संयम लेने के पश्चात् अपने गृहस्थावस्था के पूर्व दीक्षित दास को भी वंदन नमस्कार करने में लज्जा नहीं करनी चाहिये तथा दूसरे किसी से भी मान नहीं करते हुए समभाव का आश्रय लेकर संयम में तत्पर रहना चाहिये । आशय यह है कि - चक्रवर्ती के दास ने अथवा उस दास के भी दास ने पहले दीक्षा ले ली और चक्रवर्ती ने उसके बाद दीक्षा ली तो जैन सिद्धान्त के अनुसार वह दास मुनि बड़ा गिना जाता है और पीछे से दीक्षित चक्रवर्ती मुनि छोटा मुनि गिना जाता है। अतः चारित्र की अपेक्षा छोटा मुनि बड़े मुनि को वन्दन करता है यह आगमिक नियम है। अत: चक्रवर्ती मुनि अपने से पूर्व दीक्षित दास मुनि को वन्दन करने में लज्जित नहीं होना चाहिये। जरा-सा भी संकोच नहीं करना चाहिये तथा पूर्व चक्रवर्ती पद का मद भी नहीं करना चाहिये। क्योंकि मुनिपद चक्रवर्ती पद से भी ऊंचा पद है। दीक्षा लेने के बाद गृहस्थावस्था का पद (सेठ और मुनीम, राजा और नौकर) नहीं गिना जाता है फिर तो सबके लिये एक ही पद है। वह है मुनिपद। संसार के समस्त पदों से मुनि पद ऊंचा होता है। यहां तक कि:- अरिहंत, सिद्ध आचार्य, उपाध्याय पद भी मुनि पद आने के बाद ही प्राप्त होते हैं। अतः मुनिपद सर्वोत्कृष्ट पद है। डॉक्टर, वकील, बैरिस्टर, पी. एच. डी, डीलिट आदि पद तो मुनि पद के सामने कुछ भी महत्त्व नहीं रखते हैं। मुनिपद के सामने ये सब डिग्रियाँ हलकी हो जाती है। अपने नाम के पीछे ऐसी डिग्रियाँ जोड़ना, मुनिपद का अवमूल्यन है। समे अण्णयरंमि संजमे, संसुद्धे समणे परिव्वए । जे आवकहा समाहिए, दविए कालमकासी पंडिए॥४॥ कठिन शब्दार्थ - संसुद्धे - सम्यक् प्रकार से शुद्ध, परिव्वए- प्रव्रज्या का पालन करे, आवकहा - यावत् कथा-जीवन पर्यन्त, समाहिए - समाधिवंत-शुभ अध्यवसाय वाला, कालमकासी - मरण पर्यन्त । भावार्थ - सम्यक् प्रकार से शुद्ध, शुभ अध्यवसाय वाला, मुक्तिगमनयोग्य, सत् और असत् के For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 विवेक में कुशल तपस्वी साधु, मरण पर्यन्त किसी एक संयम स्थान में स्थित होकर समभाव के साथ प्रव्रज्या का पालन करे । . दूरं अणुपस्सिया मुणी, तीयं धम्ममणागयं तहा । पुढे फरुसेहिं माहणे, अवि हण्णू समयंमि रीयइ ॥५॥ कठिन शब्दार्थ - अणुपस्सिया - देख कर, तीयं - अतीत, अणागयं - अनागत, फरुसेहिं - परुष - कठोर वचन या लाठी आदि के द्वारा, हण्णू - हनन किया जाता हुआ, समयंमि - संयम में ही, रीयइ - चले । भावार्थ - तीन काल को जानने वाला मुनि, भूत तथा भविष्यत् प्राणियों के धर्म को तथा मोक्ष को देख कर कठिन वाक्य अथवा लाठी, डण्डा आदि के द्वारा स्पर्श प्राप्त करता हुआ अथवा मारा जाता हुआ भी संयम मार्ग से ही चलता रहे । विवेचन - यह जीव भूतकाल में ऊंची नीची गतियों में गया और भविष्यत् काल में भी जायेगा ऐसा सोच कर मुनि जाति कुल आदि का किसी प्रकार का मद न करे तथा आक्रोश परीषह को समभाव पूर्वक सहन करे। यहां 'समया अहियासए' ऐसा पाठान्तर भी मिलता है। इसका भी यही अर्थ है। . पण्णसमत्ते सया जए, समया धम्ममुदाहरे मुणी । सुहमे उ सया अलूसए, णो कुण्झे णो माणी माहणे ॥६॥ . . . कठिन शब्दार्थ- पण्णसमत्ते ( पण्हसमत्थे)- प्रज्ञासम्मत्त-पूर्ण बुद्धिमान, समयाधम्म - समता रूप धर्म को, उदाहरे - उपदेश करे, अलूसए - अविराधक होकर रहे, णो कुझे - क्रोध न करे, णो माणी - मान न करे । भावार्थ:- बुद्धिमान् मुनि सदा कषायों को जीते एवं समभाव से अहिंसा धर्म का उपदेश करे । संयम की विराधना कभी न करे, एवं क्रोध तथा मान को छोड़ देवे ।। विवेचन - गाथा में आये हुए ‘पण्णसमत्ते' का अर्थ प्रज्ञा समाप्त अर्थात पूर्ण बुद्धिमान् । पाठान्तर 'पण्हसमत्थे' जिसका अर्थ है प्रश्न समर्थ अर्थात् पूछे हुए प्रश्न का उत्तर देने में समर्थ। ऐसे मुनि भी ज्ञान का मद न करे। संयमानुष्ठान का सावधानी पूर्वक पालन करे। उसे कोई मारे-पीटें तो क्रोध न करे तथा कोई पूजा प्रशंसा करे तो गर्व न करे। बहु जण णमणमि संवुडो, सव्वद्वेहिं णरे अणिस्सिए। 'हदए व सया अणाविले, धम्मं पादुरकासी कासवं ॥७॥ कठिन शब्दार्थ - णमणमि - नमस्कार करने योग्य, अणिस्सिए - अनिश्रित-ममता को हटा कर, हदए (हरए) - तालाब, अणाविले - अनाविल-निर्मल रहता हुआ, पादुरकासी - प्रकट करे । For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ उद्देशक २ ६७ 000000000000000000000000000000000000000000०००००००००००००००००००००० भावार्थ - बहुत जनों से नमस्कार करने योग्य धर्म में सदा सावधान रहता हुआ मनुष्य, धनधान्य आदि बाह्य पदार्थों में आसक्त न रहता हुआ तालाब की तरह निर्मल होकर काश्यपगोत्रीय भगवान् महावीर स्वामी के धर्म को प्रकट करे । बहवे पाणा पुढो सिया, पत्तेयं समयं समीहिया । जे मोणपयं उवट्ठिए, विरइं तत्थ अकासि पंडिए ॥८॥ कठिन शब्दार्थ - पुढो - पृथक्-पृथक्, समयं - समभाव से, समीहिया ( उवेहिया) - देख कर, मोणपयं - संयम में, विरइं- विरति को । भावार्थ - इस संसार में बहुत से प्राणी पृथक् पृथक् निवास करते हैं उन सब प्राणियों को समभाव से देखने वाला संयम मार्ग में उपस्थित विवेकी पुरुष उन प्राणियों के घात से विरत रहे । विवेचन - सभी प्राणी सुख चाहते हैं। दुःख सबको अप्रिय है। ऐसा जान कर मुनि किसी जीव की हिंसा न करें यावत् किसी जीव को जरा सा भी कष्ट न पहुंचावे। धम्मस्स य पारए मुणी, आरंभस्स य अंतए ठिए । . सोयंति य णं ममाइणो, णो लब्भंति णियं परिग्गहं॥ ९॥ ___ कठिन शब्दार्थ - पारए - पारगामी, अंतए - अंत में ममाइणो - ममता वाले, सोयंति - शोक करते हैं, णियं- अपने । भावार्थ - जो पुरुष धर्म के पारगामी और आरम्भ के अभाव में स्थित है उसे मुाने समझना चाहिए । ममता रखने वाले जीव परिग्रह के लिए शोक करते हैं और वे शोक करते हुए भी अपने परिग्रह को प्राप्त नहीं करते ।। विवेचन - मुनि शब्द का अर्थ इस प्रकार किया है -'मुणति-प्रतिजानीते, सर्वविरतिं इति मुनिः।' अथवा मनुते, मन्यते वा जगतः त्रिकलावस्थां इति मुनिः। __ अर्थ - जो प्राणातिपात विरमण आदि विरति (संयम) को स्वीकार करे उसे मुनि कहते हैं अथवा जगत् एवं जगत् के.जीवों के त्रिकाल अवस्था को जान कर उनकी हिंसा आदि से निवृत्त हो जाय, उन्हें मुनि कहते हैं। इह लोग दुहावहं विऊ, परलोगे य दुहं दुहावहं । विद्धंसण धम्ममेव तं इइ, विज्जं कोऽगारमावसे ॥१०॥ कठिन शब्दार्थ - दुहावहः - दुःखावह-दुःख देने वाले, विऊ - विद्या, विद्धंसणधम्म - नश्वर स्वभाव, एव - ही, विज - विद्वान् जानने वाला, को- कौन पुरुष, अगारं - अगार-गृहवास में, आवसे - निवास कर सकता है। ... .. For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ - सोना, चाँदी और स्वजन वर्ग, सभी परिग्रह इसलोक तथा परलोक में दुःख देने वाले हैं तथा सभी नश्वर हैं, अत: यह जानने वाला कौन पुरुष गृहवास को पसन्द कर सकता है ? महयं परिगोवं जाणिया, जा वि य वंदण पूयणा इहं। सुहमे सल्ले दुरुद्धरे, विउमंता पयहिज्ज संथवं ॥११॥ कठिन शब्दार्थ - परिगोव (पलिगोवं)- पंक (कीचड़) है, वंदण पूयणा - वंदन और पूजन, विउमंता - विद्वान्, दुरुद्धरे- दुर्द्धर-उद्धार करना कठिन, संथवं - संस्तव-परिचय, पयहिज्ज - त्याग दे। भावार्थ - सांसारिक जीवों के साथ परिचय महान् कीचड़ है यह जानकर मुनि उनके साथ परिचय न करे तथा वन्दन और पूजन भी कर्म के उपशम का फल है। यह जानकर मुनि वन्दन पूजन पाकर गर्व न लावे क्योंकि गर्व सूक्ष्म शल्य है उसका उद्धार करना कठिन होता है । .. . विवेचन - संसारी प्राणियों के साथ परिचय करने को यहाँ 'परिगोप' कहा है। जो प्राणियों को अपने में फंसा लेता है उसे परिगोप कहते हैं। वह परिगोप दो प्रकार का है। एक द्रव्य परिगोप, दूसरा भाव परिगोप। कीचड़ को द्रव्य 'परिगोप' कहते हैं और संसारी प्राणियों के साथ परिचय या आसक्ति को भाव परिगोप कहते हैं। इसके स्वरूप और विपाक को जान कर मुनि इसका त्याग कर दे। इस गाथा की जगह दूसरी वाचना की (नागार्जुनीय वाचना) गाथा इस प्रकार है - .. पलिमंथ महं वियाणिया, जाऽविय वंदणपूयणा इह। सुहुमं सल्लं दुरुद्धरं, तंपि जिणे एएण पंडिए ॥१॥ प्रश्न - भगवान् महावीर स्वामी के निर्वाण के बाद सूत्रों की वाचनायें कब कब हुई ? उत्तर - भगवान् महावीर स्वामी के मोक्ष जाने के बाद गौतम स्वामी १२ वर्ष तक केवली रहे। उनके बाद सुधर्मास्वामी ८ वर्ष तक केवली रहे। उनके बाद जम्बूस्वामी ४४ वर्ष तक केवली रहे। इस प्रकार ६४ वर्ष तक केवलज्ञान रहा। फिर केवलज्ञान विच्छेद चला गया। फिर श्रुत केवली (चौदह पूर्वधारी) छह हुए। वे इस प्रकार - वीर निर्वाण ६४ से ७४ तक प्रभवस्वामी। ७५ से ९८ तक शय्यम्भव स्वामी। ९८ से १४८ तक यशोभद्र स्वामी। १४८ से १५६ सम्भूति विजयस्वामी। १५६ से १७० भद्रबाहु स्वामी। १७० से २१५ तक स्थूलभद्र स्वामी। इन के दस पूर्व तो अर्थ सहित और चार पूर्व केवल मूलपाठ का ज्ञान था। सूत्रों की वाचना - वीर निर्वाण से १६० वर्ष बाद पहली वाचना बारह काली (बारह वर्ष के दुष्काल) के बाद पाटलीपुत्र (पटना) में बाकी बचे हुए साधु इकट्ठे हुए। ग्यारह अङ्ग एकत्रित किये। दृष्टिवाद के ज्ञाता भद्रबाहु स्वामी नैपाल में महाप्राण ध्यान की साधना कर रहे थे। उनसे स्थूलभद्र स्वामी ने दस पूर्वो का ज्ञान अर्थ सहित चार पूर्वो का ज्ञान मूलपाठ ही दिया। For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ उद्देशक २ 00000000000000000000000000000000000000000००००००००००००००००००००००० दूसरी वाचना - वीर निर्वाण ८२७ से ८४० के बीच मथुरा में हुई। स्कन्दिलाचार्य की अध्यक्षता में हुई। इसे माथुरी वाचना या 'स्कन्दिली वाचना' कहते हैं। इसी समय तीसरी वाचना वल्लभीपुरी में नागार्जुन आचार्य की अध्यक्षता में हुई। जिसमें कण्ठस्थश्रुत को एक रूपता दी गई। इसको वल्लभी वाचना' या 'नागार्जुनीय वाचना' कहते हैं। चौथी वाचना ९८० से ९९३ तक वल्लभीपुरी में देवर्द्धिगणी क्षमा श्रमण की अध्यक्षता में हुई। --- सूत्र पाठों को संकलित कर पुस्तकारूढ किया गया दूसरी और तीसरी वाचना के पाठों को एकरूपता देने का प्रयत्न किया गया। जहाँ मतभेद रहा वहाँ माथुरी वाचना को मुख्य मानकर पाठान्तर दिया गया इसलिये 'नागार्जुनीयास्तु पठन्ति' टीकाकार ऐसा लिखते हैं। भिन्न-भिन्न पाठ होते हुए भी उनमें परिवर्तन, परिवर्द्धन आदि करने का साहस और हस्तक्षेप देवर्द्धिगणी ने नहीं किया। इससे उनमें उत्सूत्र प्ररूपणा का भय और भव भीरुता लक्षित होती है। ... उपरोक्त 'पलिमंथ' गाथा का अर्थ इस प्रकार है - स्वाध्याय और ध्यान में तत्पर एकान्त निस्पृह विवेकी पुरुष राजा महाराज आदि द्वारा किये हुए वन्दन पूजन आदि सत्कार को सत् अनुष्ठान और सद्गति का महान् विघ्न जान कर उसे छोड़ देवे। जबकि वन्दन पूजन आदि भी सत् अनुष्ठान या सद्गति का विघ्न रूप है तब फिर शब्दादि विषयों में आसक्ति की तो बात ही क्या है ? अतः बुद्धिमान् पुरुष को आसक्ति का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये। एगे चरे ठाणमासणे, सयणे एगे समाहिए सिया । भिक्खू उवहाण वीरिए, वइ गुत्ते अज्झत्त संवुडो ॥१२॥ कठिन शब्दार्थ - ठाणं - स्थान, आसणे - आसन, सयणे- शयन, समाहिए - समाहित-धर्म ध्यान से युक्त, उवहाण वीरिए- तप में बल प्रकट करने वाला, अज्झत्त (अज्झप्प) संवुडो - अध्यात्म संवृत्त मन से गुप्त । - भावार्थ - वचन और मन से गुप्त, तप में पराक्रम प्रकट करने वाला साधु, स्थान आसन और शयन अकेला करता हुआ धर्मध्यान से युक्त होकर अकेला ही विचरे । अर्थात् रागद्वेष रहित होकर धर्म ध्यान में तल्लीन रहे एवं तप संयम का पालन करने में अपना पुरुषार्थ और पराक्रम खूब प्रकट करे। णो पीहे ण याव पंगुणे, दारं सुण्ण-घरस्स संजए । पुढे ण उदाहरे वयं, ण समुच्छे णो संथरे तणं ॥१३॥ कठिन शब्दार्थ - पीहे - बंद करे, ण याव पंगुणे- न खोले, दारं - दरवाजा, सुण्णघरस्स - शून्य घर का, पुढे - पूछा हुआ, समुच्छे - कचरा निकाले, संथरे - बिछावे । For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० - श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ - इस प्रकार अकेला विचरने वाला अभिग्रहधारी साधु, शून्यगृह का द्वार न खोले और न बन्द करे। किसी के पूछने पर कुछ न बोले तथा उस घर का कचरा न निकाले और तृण भी न बिछावे । विवेचन - गाथा १२ और १३ ये दोनों गाथायें जिनकल्पी मुनि के लिये हैं क्योंकि बारहवीं गाथा में 'एगे चरे' शब्द दिया है इससे स्पष्ट होता है कि अकेला विहार करने वाले मुनि के विषय में गाथा में कहे गये सभी नियम लागू होते हैं। किन्तु स्थविरकल्पी मुनि के लिये नहीं। . .. उपरोक्त दो गाथाओं का उद्धरण देकर कोई लिखते हैं कि - स्थविरकल्पी साधु अपने ठहरे हुए . मकान के कपाट (किंवाड़) स्वयं ने खोले न बन्द करें। परन्तु यह लिखना आगम के अनुकूल नहीं है। क्योंकि ये दोनों गाथाएँ जिनकल्पी से सम्बन्धित हैं स्थविरकल्पियों से नहीं। स्थविर कल्पी में साधु की तरह साध्वी का ग्रहण हुआ है। साध्वियों को तो कपाट बंद . करके ही रात्रि में रहने का बृहत्कल्प सूत्र में विधान है। उपरोक्त दो गाथाओं में तो उस मकान में से कचरा निकालना और तृण आदि बिछाने का भी निषेध किया है इससे भी स्पष्ट है कि ये दोनों गाथाएं जिनकल्पी से सम्बन्धित है क्योंकि अपने स्थान का कचरा निकालना तृण आदि निकालना ये सब स्थविर कल्पी साधु साध्वी करते हैं। अत: यह स्पष्ट है कि ये दोनों गाथायें स्थविर कल्पी, साधु साध्वी के लिए लागू नहीं होती है। विशेष स्पष्टीकरण के लिये श्रीमदूज्जैनाचार्य पूज्य श्री जवाहरलाल जी म. सा. द्वारा विरचित सद्धर्म मण्डन में कपाट अधिकार देखना चाहिये । .. जत्थऽत्थमिए अणाउले, सम-विसमाई मुणीहियासए । चरगा अदुवा वि भेरवा, अदुवा तत्थ सरीसिवा सिया ॥ १४ ॥ कठिन शब्दार्थ - अत्यमिए - सूर्य अस्त हो, अणांउले - अनाकुल-क्षोभ रहित, समविसमाई - सम विषम यानी अनुकूल और प्रतिकूल, अहियासए - सहन करे, चरमा - चरक-दंशमशक आदि, भेरवा- भयंकर, सरीसिवा - सरीसृप-सांप आदि । भावार्थ - चारित्री पुरुष, जहाँ सूर्य अस्त हों वहीं क्षोभरहित होकर निवास करे । वह स्थान, आसन और शयन के अनुकूल हो अथवा प्रतिकूल हो उसको वह सहन करे । उस स्थान पर यदि दंश मशक आदि हो अथवा भयंकर प्राणी हों अथवा साँप आदि हों तो भी वहीं निवास करे । विवेचन - यह गाथा भी जिनकल्पी मुनि से सम्बधित है। तिरिया मणुया य दिव्वगा, उवसग्गा तिविहाऽहियासिया। लोमादीयं ण हारिसे, सुण्णागार गओ महामुणी ॥ १५॥ कठिन शब्दार्थ - तिरिया - तिर्यंच संबंधी, मणुया - मनुष्य संबंधी, दिव्यगा - देवजनित, For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिविहा - त्रिविध, उवसग्गा- उपसर्गों को, लोमादीयं - रोम आदि को भी, हारिसे (हरिसे ) - हर्षित करे सुण्णागार - शून्य गृह में, गओ गया हुआ । - भावार्थ - शून्य गृह में गया हुआ महामुनि तिर्यंच मनुष्य तथा देवता सम्बन्धी उपसर्गों को सहन करे । भय से अपने रोम को भी हर्षित न करे । अध्ययन २ उद्देशक २ - विवेचन - इस गाथा में भी जिनकल्पी मुनि के विषय में ही कहा गया है। सूर्यास्त के बाद जनकल्पी मुनि विहार करते हुए एक कदम भी आगे नहीं बढ़ते हैं । वह चाहे सड़क हो सूना घर हो, चाहे श्मशान हो । वहाँ रहे हुए जिनकल्पी मुनि को देव मनुष्य तिर्यञ्च सम्बन्धी कोई उपसर्ग हो उसे समभाव पूर्वक सहन करे । नोट - नैरयिक जीव तो नरक में स्वयं दुःख में पड़े हुए हैं वहां का आयुष्य पूर्ण हुए बिना वे बाहर नहीं आ सकते। अतएव वे किसी को दुःख पीड़ा आदि उपसर्ग नहीं दे सकते हैं। इसीलिये उपसर्ग देव, मनुष्य और तिर्यञ्च सम्बन्धी तीन ही कहे गये हैं। चौथा नैरयिक सम्बन्धी नहीं । णो अभिकंखेज्ज जीवियं, णोऽवि य पूयण पत्थर सिया । अब्भतथ मुविंति भेरवा, सुण्णागार गयस्स भिक्खुणो ॥ १६ ॥ कठिन शब्दार्थ - अभिकंखेज्ज इच्छा करे, पूयण पत्थर- पूजा का प्रार्थी, अब्भत्थं अभ्यस्त, उविंति प्राप्त होते हैं । - - - भावार्थ - उक्त उपसर्गों से पीडित होकर साधु जीवन की इच्छा न करे तथा पूजा, मान बड़ाई की भी प्रार्थना न करे । इस प्रकार पूजा और जीवन से निरपेक्ष होकर शून्य गृह में जो साधु निवास करता है उसको भैरवादिकृत उपसर्ग सहन का अभ्यास हो जाता है । विवेचन - साधु मुनिराज जीवन से निरपेक्ष होकर उपसर्गों को सहन करे तथा उपसर्गों का सहन करने से मेरी पूजा प्रशंसा होगी ऐसी इच्छा भी न करे । उवणीयतरस्स ताइणो, भयमाणस्स विविक्कमासणं । सामाइय माहु तस्स जं, जो अप्पाण भए ण दंसए ॥१७॥ कठिन शब्दार्थ - उवणीयतरस्स - उपनीततर- अत्यंत उपनीत जिसने अपनी आत्मा को ज्ञानादि में स्थापित किया है, ताइणो स्व और पर की रक्षा करने वाला, भयमाणस्स सेवन करने वाले का, विविक्कं विविक्त - स्त्री, पशु, नपंसुक वर्जित आसणं प्रदर्शित करे । आसन स्थान को, भए - भय, दंसए भावार्थ - जिसने अपने आत्मा को ज्ञान आदि में अतिशय रूप से स्थापित किया है, जो अपनी ७१ - - For Personal & Private Use Only - Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२. 00000000******** तथा दूसरे की रक्षा करता है, जो स्त्री, पशु, नपुंसक रहित स्थान में निवास करता है ऐसे मुनि का तीर्थंकरों ने सामायिक चारित्र कहा है इसलिए मुनि को भयभीत न होना चाहिए । - विवेचन - 'उपनीत' शब्द का अर्थ है नजदीक पहुंचाना। उससे भी अधिक नजदीक पहुंचाना 'उपनीततर कहलाता है | गाथा में उपनीततर शब्द दिया है। उसका आशय यह है कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र की अधिक शुद्धि और वृद्धि के कारण जिस मुनि ने अपने आत्मा को मोक्ष के अत्यन्त्य नजदीक पहुंचा दिया है। ऐसे मुनि को 'उपनीततर' कहते हैं । परीषह उपसर्गों को समभावपूर्वक सहन करने से सर्वज्ञ भगवन्तों ने उसका समभाव पूर्वक सामायिक चारित्र कहा है । उसिणोदग - तत्तभोइणो, धम्मट्ठियस्स मुणिस्स हीमओ । श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 000000000................................ संसग्गि असाहु राइहिं, असमाही उ तहागयस्स वि ॥ १८ ॥ कठिन शब्दार्थ - उसिणोदगतत्तभोइणो- उष्णोदक- तप्तभोजी गरम जल को ठंडा किये बिना पीने वाले, धम्मट्ठियस्स - धर्म में स्थित, हीमओ असंयम से लज्जित होने वाला, संसग्गि संसर्ग करना, असाहु - असाधु, बुरा, राइहिं राजा आदि के साथ तहागयस्स - तथागत-शास्त्रोक्त आचार पालने वाले का । - भावार्थ - गरम जल को ठंडा किए बिना पीने वाले, श्रुत और चारित्र धर्म में स्थित, असंयम से लज्जित होनेवाले मुनि का राजा महाराजा आदि साथ संसर्ग अच्छा नहीं है क्योंकि वह शास्त्रोक्त आचार पालने वाले मुनि का भी समाधि भंग का कारण बनता है। - विवेचन - गाथा में "उसिणोदग तत्तभोइणो" शब्द दिया है। टीकाकार ने इसके दो अर्थ किये हैं- पहला अर्थ है जिसमें तीन बार उकाला आ गया है अथवा जिसमें पानी गर्म किया जाता है। उस बर्तन में रहे हुए पानी का नीचे का भाग, मध्य का भाग और ऊपर का भाग, यों तीनों जगह का पानी गर्म हो गया है ऐसे गरम जल को जो पीता है अथवा कोई अभिग्रह धारी मुनि गर्म जल को ठंडा किये बिना पीता है। ये दोनों अर्थ तत्तं (तप्त) शब्द से निकलते हैं। गर्म जल को ठंडा करके पीना साधु के लिये किसी प्रकार की दोषोत्पत्ति का कारण नहीं है । उववाइय सूत्र में अनेक प्रकार के अभिग्रह (प्रतिज्ञा विशेष) बतलाये गये हैं। इसीलिये गरम जल को ठंडा किये बिना पीना यह भी एक अभिग्रह हो सकता है। - अहिगरणकडस्स भिक्खूणो, वयमाणस्स पसज्झ दारुणं अट्ठे परिहाइ बहु, अहिगरणं ण करेज्ज पंडिए ॥ १९ ॥ कठिन शब्दार्थ - अहिगरणकडस्स- अधिकरणकृत - कलह करने वाला, पसज्झ प्रकट रूप से, दारुणं - दारुण-कठोर, अट्ठे - अर्थ, परिहायइ - नष्ट हो जाता है । For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ अध्ययन २ उद्देशक २ ७३ 00000000000000०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० भावार्थ - जो साधु कलह करने वाला है और प्रकट ही कठोर वाक्य बोलता है उसका मोक्ष अथवा संयम नष्ट हो जाता है इसलिए विवेकी पुरुष कलह न करे । विवेचन - अधिकरण का अर्थ कलह है। कलह करने वाले मुनि का एवं दूसरे के चित्त को दुःखाने वाली कठोर और कर्कश वाणी बोलने वाले मुनि का बहुत. काल से पालन किया हुआ संयम नष्ट हो जाता है। इसलिये उसकी मुक्ति नहीं होती। अतः कलह और कर्कश वाणी का स्वत: त्याग कर देना चाहिये। सीओदग पडिदुगुंछिणो, अपडिण्णस्स लवावसप्पिणो। सामाइयमाहु तस्स जं जो, गिहिमत्तेऽसणं ण भुंजइ ॥ २० ॥ कठिन शब्दार्थ - सीओदगपडिदुगुंछिणो - शीतोदकप्रति-जुगुप्सक-कच्चा पानी पीने से घृणा करने वाला, अपडिण्णस्स - अप्रतिज्ञ-प्रतिज्ञा-निदान नहीं करने वाला, लवावसप्पिणो - कर्मबंध के कारणों से दूर रहने वाला, गिहिमत्ते - गृहस्थ के पात्र में । भावार्थ - जो साधु कच्चा पानी से घृणा करता है और किसी प्रकार की कामना नहीं करता है तथा कर्मबन्धन कराने वाले कार्यों का त्याग करता है सर्वज्ञ पुरुषों ने उस साधु का समभाव कहा है तथा जो साधु गृहस्थों के पात्र में आहार नहीं खाता है उसका भी सर्वज्ञों ने समभाव कहा है । .. ण य संखय माहु जीवियं, तह वि य बालजणो पगब्भइ। बाले पावेहि मिज्जइ, इइ संखाय मुणी ण मज्जइ ।२१। कठिन शब्दार्थ - संखयं - संस्कार (जोड़ने) योग्य, बालजणो - मूर्ख जीव, पगभइ - धृष्टता करता है, मिजइ - माना जाता है, मज्जइ - मद करता है । भावार्थ - टूटा हुआ मनुष्यों का जीवन फिर जोड़ा नहीं जा सकता है, यह सर्वज्ञों ने कहा है तथापि मूर्ख, जीव, पाप करने में धृष्टता करता है । वह अज्ञ पुरुष, पापी समझा जाता है यह जान कर मुनि, मद नहीं करते हैं । .. विवेचन - जिस प्रकार टूटा हुआ डोरा फिर जोड़ दिया जाता है। उस तरह से टूटा हुआ आयुष्य फिर नहीं जोड़ा जा सकता इसलिये जब तक आयुष्य न टूटे तब तक ही धर्मध्यान कर लेना चाहिये। छंदेण पले इमा पया, बहुमाया मोहेण पाउडा । वियडेण पलिंति माहणे, सीउण्हं वयसाहियासए॥२२॥ कठिन शब्दार्थ - छंदेण - अपनी इच्छा से, पले - जाती है, पया - प्रजा; मोहेण - मोह से, . पाउडा - प्रावृत - आच्छादित, वियडेण - कपट रहित कर्म से, पलिंति - लीन होते हैं । भावार्थ - बहुत माया करने वाली और मोह से आच्छादित प्रजाएँ अपनी इच्छा से ही नरक For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 आदि गतियों में जाती हैं । परन्तु साधु पुरुष, कपट रहित कर्म के द्वारा मोक्ष अथवा संयम में लीन होते हैं और मन वचन तथा काय से शीत उष्ण को सहन करते हैं। विवेचन - संसार में अनेक प्रकार के प्राणी हैं वे अपने अपने अभिप्राय के अनुसार हिंसा, झूठ, कपट आदि को भी धर्मकार्य मानते हैं यह उनकी अज्ञानता है अतः साधु पुरुष इन सब बातों को जानकर कषाय रहित बन कर संयम में लीन रहे तथा शीत उष्ण आदि अनुकूल और प्रतिकूल परीषहों को समभाव से सहन करे। कुजए अपराजिए जहा, अक्खेहिं कुसलेहिं दीवयं । कडमेव गहाय णो कलिं, णो तीयं णो चेव दावरं ॥२३॥ कठिन शब्दार्थ - कुजए - कुजय - जुआरी, अक्खेहिं - पासों से, दीवयं - खेलता हुआ, कडं-' कृत, एव - स्थान को ही, कलिं - कलि को तीयं - त्रेता को, दावरं - द्वापर को, गहाय - ग्रहण करके। भावार्थ - जुआ खेलने में निपुण और किसी से पराजित न होने वाला जुआरी जैसे जुआ खेलता हुआ सर्वश्रेष्ठ कृत नामक स्थान को ही ग्रहण करता है, कलि, द्वापर, और त्रेता नामक स्थानों को ग्रहण नहीं करता है उसी तरह पण्डित पुरुष सर्वश्रेष्ठ सर्वज्ञोक्त कल्याणकारी धर्म को ही स्वीकार करे जैसे-शेष स्थानों को छोड़ कर चतुर जुआरी कृत नामक स्थान को ही ग्रहण करता है । ' विवेचन - शास्त्रीय भाषा में एक की संख्या को कलि (कल्योज) दो को द्वापरयुग्म (दावर जुम्मा) तीन को त्र्योज (तेऊगा) और चार को कृतयुग्म (कडजुम्मा) कहते हैं । कृतयुग्मं (कडजुम्मा) पूर्ण संख्या है । तेऊगा तीन को कहते हैं यह चार से एक कम है । दावर जुम्मा (द्वापर युग्म) दो को कहते हैं यह चार का आधा है । कल्योज एक को कहते हैं यह चार का चौथाई हिस्सा ही है । जैसे जुआरी कृत नामक चर्तुस्थान अर्थात् सम्पूर्ण को ही ग्रहण करता है । उसी प्रकार मुनि को भी सर्वश्रेष्ठ संयम स्थान को ही ग्रहण करना चाहिये। एवं लोगंमि ताइणा, बुइए जे धम्मे अणुत्तरे । तं गिण्ह हियंति उत्तम, कडमिव सेसऽवहाय पंडिए॥२४॥ .. कठिन शब्दार्थ - ताइणा - रक्षा करने वाले, बुइए - कहा हुआ, गिण्ह - ग्रहण करे, हियं - हितकारी, कडं- कृत स्थान को, इव - तरह, सेस - शेष स्थानों को, अवहाय - छोड़ कर । भावार्थ - इस प्रकार इस लोक में जगत् की रक्षा करने वाले सर्वज्ञ ने जो सर्वोत्तम धर्म कहा है उसे कल्याण कारक और उत्तम समझकर ग्रहण करो जैसे चतुर जुआरी शेष स्थानों को छोड़कर चौथे स्थान को ग्रहण करता है। " विवेचन - ऊपर कहे हुए दृष्टान्त को इस गाथा में दार्टान्तिक रूप से कथन किया है जिस For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ उद्देशक २ ........... प्रकार चतुर जुआरी विजय प्राप्ति के साधन रूप चतुर्थ (कृत ) . स्थान को ही ग्रहण करके खेलता है । एक, दो, तीन आदि को ग्रहण नहीं करता इसी प्रकार मोक्षार्थी साधु गृहस्थ धर्म, कुप्रावचनिक और पार्श्वस्थ आदि धर्म को छोड़ कर सर्वोत्तम सर्व महान् सर्वज्ञ कथित धर्म को ही स्वीकार करे । उत्तर मणुयाण आहिया, गामधम्मा इह मे अणुस्सुयं । जंसि विरया समुट्ठिया, कासवस्स अणुधम्म चारिणो ॥ २५ ॥ कठिन शब्दार्थ - उत्तर - प्रधान-दुर्जय, गामधम्मा- ग्रामधर्म-शब्दादि विषय या मैथुन सेवन, अणुस्सुयं सुना है, जंसि उनसे, विरया - निवृत्त, अणुधम्म चारिणो- अनुयायी, कासवस्सकाश्यप गोत्री भगवान् के । 66 भावार्थ - श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी आदि शिष्य वर्ग को फरमाते हैं कि 'शब्द आदि विषय अथवा मैथुन सेवन मनुष्यों के लिए दुर्जेय कहा है" यह मैंने सुना है । उन शब्दादि विषयों और मैथुन सेवन को छोड़ कर जो संयम के अनुष्ठान में प्रवृत्त हैं वे ही काश्यप गोत्रीय भगवान् महावीर स्वामी अथवा ऋषभदेव स्वामी के अनुयायी हैं । . जे एयं चरंति आहियं, णाएण महया महेसिणा । ते उट्ठिया ते समुट्ठिया, अण्णोण्णं सारंति धम्मओ ॥२६॥ कठिन शब्दार्थ - चरंति - आचरण करते हैं, णाएण - ज्ञातपुत्र के द्वारा उट्टिया - उत्थित, समुट्ठिया समुत्थित, अण्णोण्णं- एक दूसरे को, सारंति प्रवृत्त करते हैं, धम्मओ धर्म में । - - भावार्थ - महान् महर्षि ज्ञात पुत्र श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के द्वारा कहे हुए धर्म को जो - पुरुष आचरण करते हैं वे ही उत्थित धर्म मार्ग में प्रवृत्त तथा सम्यक् प्रकार से प्रवृत्त समुत्थित हैं तथा वे धर्म से भ्रष्ट होते हुए प्राणियों को फिर धर्म में प्रवृत्त करते हैं । विवेचन - जो स्वयं धर्म में दृढ़ता पूर्वक स्थिर हैं वे ही धर्म से डिगते हुए में स्थिर कर सकते हैं । - .७५ - मा पेह पुरा पणामए, अभिकंखे उवहिं धूणित्तए । जे दूमण तेहि णो पाया, ते जाणंति समाहि माहियं ॥ २७ ॥ कठिन शब्दार्थ - मा मत, पेह - स्मरण करो, पणामए - प्रनामक शब्दादि विषयों को, उवहिं - उपधि - कर्मों को, धूणित्तए नाश करने की, दूमण मन को दुष्ट बनाने वाले, गया- नत - - For Personal & Private Use Only प्राणियों को पुनः धर्म आसक्त । भावार्थ पहले भोगे हुए शब्दादि विषयों को स्मरण नहीं करना चाहिए । माया अथवा आठ प्रकार के कर्मों को दूर करने की इच्छा करनी चाहिए । जो पुरुष, मन को दूषित करने वाले Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 शब्दादि विषयों में आसक्त नहीं हैं वे अपने आत्मा में स्थित धर्मध्यान तथा रागद्वेष के त्याग रूप धर्म को जानते हैं । णो काहिए होज्ज संजए, पासणिए ण य संपसारए। णच्चा धम्मं अणुत्तरं, कयकिरिए ण यावि मामए ॥२८॥ कठिन शब्दार्थ - काहिए - कथा करने वाला, पासणिए - प्राश्निक-प्रश्न का फल बताने वाला, संपसारए - संप्रसारक-वृष्टि एवं धनोपार्जन के उपाय बताने वाला, कयकिरिए - कृत क्रिया - संयमरूप क्रिया करने वाला, मामए - ममता करने वाला। भावार्थ - संयमी पुरुष, विरुद्ध कथा वार्ता नं करे तथा प्रश्नफल और वृष्टि तथा धनवृद्धि के उपायों को भी न बतावे । किन्तु लोकोत्तर धर्म को जानकर संयम का अनुष्ठान करे और किसी वस्तु पर ममता न करे । छण्णं च पसंसं णो करे, ण य उक्कोस पगास माहणे। तेसिं सुविवेग माहिए, पणया जेहिं सुजोसियं धुयं ॥२९॥ कठिन शब्दार्थ - छण्णं - छण्ण-माया, पसंसं - प्रशस्य-लोभ, उक्कोस - उत्कर्ष-मान, पगास - प्रकाश-क्रोध, सुविवेगं - उत्तम विवेक, आहिए - कहा है, सुजोसियं - अच्छी तरह सेवन किया है, पणया - प्रणत-धर्म में तल्लीन, धुयं - धूत-कर्मों का नाश करने वाला। ___भावार्थ - साधु पुरुष, क्रोध मान माया और लोभ न करे । जिनने आठ प्रकार के कर्मों को नाश करने वाले संयम का सेवन किया है उन्हीं का उत्तम विवेक जगत् में प्रसिद्ध हुआ है और वे ही धर्म में तल्लीन पुरुष हैं । विवेचन - 'छण्ण' शब्द का अर्थ है छिपाना । मायावी पुरुष अपने अभिप्राय को छिपाता है इसलिये यहां माया को 'छण्ण' कहा गया है। 'लोभ' सर्व व्यापक है । लोग उसको आदर देते हैं और प्रशंसा करते हैं । इसलिये यहां पर 'लोभ' को प्रशस्य कहा है। जाति कुल आदि से अपने आपको ऊंचा बताना 'उत्कर्ष' कहलाता है । उत्कर्ष का अर्थ है - 'मान' यहां पर क्रोध को प्रकाश कहा गया है इसका कारण यह है मनुष्य के अन्दर रह कर भी मुख, दृष्टि, भृकुटी भंग आदि विकारों से प्रकट हो जाता है। जिन महापुरुषों ने इन क्रोध मात्र माया, लोभ लए चार कपाय का त्याग कर दिया है उनका जीवन धन्य है । वे धर्म में प्रवृत्त हैं। अणिहे सहिए सुसंवुडे, धम्मट्ठी उवहाणवीरिए । विहरेज समाहिइंदिए, अत्तहियं खु दुहेण लब्भइ ॥३०॥ कठिन शब्दार्थ - अणिहे - अस्निह-किसी वस्तु में स्नेह न करना, सहिए - सहित-हित सहित For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ৩৩ . अध्ययन २ उद्देशक २ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 जिससे अपना हित हो, सुसंवुडे - सुसंवृत - इन्द्रिय और मन को अपने वश में रखना, समाहिइंदिए - . इन्द्रिय को वश में रखना, अत्तहियं - आत्महित-अपना कल्याण । . भावार्थ - साधु पुरुष, किसी भी वस्तु पर ममता न करे तथा जिससे अपना हित हो उस कार्य में सदा प्रवृत्त रहे । इन्द्रिय तथा मन से संवृत्त रहकर धर्मार्थी बने । एवं तप में अपना पराक्रम प्रकट करता हुआ जितेन्द्रिय होकर संयम का अनुष्ठान करे क्योंकि अपना कल्याण कठिनता से प्राप्त होता है । ण हि णूणं पुरा अणुस्सुयं, अदुवा तं तह णो समुट्ठियं। मुणिणा सामाइ आहियं, णाएणं जग सव्वदंसिणा ॥३१॥ . कठिन शब्दार्थ - Yणं - निश्चय, समुट्ठियं - सम्यक् अनुष्ठान, णाएणं - ज्ञातपुत्र ने, जगसव्वदंसिणा - जगत् सर्वदर्शी- समस्त जगत् को देखने वाले । भावार्थ - समस्त जगत् को जानने और देखने वाले ज्ञातपुत्र मुनि श्री भगवान् वर्धमान स्वामी ने सामायिक आदि का कथन किया है। निश्चय जीव ने उसे सुना नहीं है अथवा सुन कर यथार्थ रूप से उसका आचरण नहीं किया है । एवं मत्ता महंतरं, धम्ममिणं सहिया बहू जणा । गुरुणी छंदाणुवत्तगा विरया, तिण्णा महोघ माहियं ।। त्ति बेमि॥ ३२ ॥ कठिन शब्दार्थ - मत्ता - मान कर, महंतरं - महंत्तरं-सर्वोत्तम, धम्मं - धर्म-आर्हत् धर्म, इणं - इसको,, सहिया - सहित-ज्ञानादि से सम्पन्न, छंदाणुवत्तगा - छन्दानुवर्तक-अभिप्राय के अनुसार वर्तने वाले तिण्णा - पार किया है, महोघं - महौघ-महान् ओघ-प्रवाह वाले संसार सागर को । भावार्थ - प्राणियों को हित की प्राप्ति बहुत कठिन है यह जानकर तथा यह आर्हत धर्म सब धर्मों में श्रेष्ठ है यह.समझकर ज्ञानादिसम्पन्न, गुरु के उपदिष्ट मार्ग से चलने वाले, पाप से विरत बहुत पुरुषों ने इस संसार को पार किया है, यह मैं कहता हूँ। विवेचन - अपना हित करना आत्मा के लिये कल्याण का कारण है परन्तु उसकी प्राप्ति होना महान् कठिन है । गाथा में "महंतरं" शब्द दिया है जिसका अर्थ है 'महद् अंतर' अर्थात् छद्मस्थों द्वारा कथित भिन्न भिन्न धर्मों से वीतराग कथित धर्म का महान् अन्तर है। अथवा कर्म काटने का यह मनुष्य भव, आर्यक्षेत्र, उत्तम कुल आदि महान् अंतर अर्थात् अवसर प्राप्त हुआ है। ऐसे वीतराग धर्म, मनुष्य भव आदि को प्राप्त कर के बुद्धिमान् पुरुषों का कर्तव्य है कि कषाय पर सर्वथा विजय प्राप्त कर संसार । समुद्र को तीर जाय । इस सारे उद्देशक का सार यही है कि कषाय पर विजय प्राप्त करे । ॥इति दूसरा उद्देशक ॥ For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ तीसरा उद्देशक संवुडकम्मस्स भिक्खुणो, जं दुक्खं पुटुं अबोहिए। .तं संजमओऽवचिज्जइ, मरणं हेच्चं वयंति पंडिया ॥१॥ कठिन शब्दार्थ - संवुडकम्मस्स - कर्मों का आना जिसने रोक दिया, पुटुं - बंध हुआ है, अबोहिए - अज्ञान से, अवचिज्जइ- क्षीण हो जाता है, हेच्च - छोड़ कर । भावार्थ -जिस भिक्षु ने आठ प्रकार के कर्मों का आगमन रोक दिया है उसको जो अज्ञान वश कर्मबन्ध हुआ है वह संयम के अनुष्ठान से क्षीण हो जाता है । वे विवेकी पुरुष, मरण को छोड़कर मोक्ष प्राप्त करते हैं। विवेचन - संयम मार्ग में विचरण करते हुए मुनि को आने वाले परीषह उपसर्गों को समभाव से सहन करना चाहिये । इससे पूर्वोपार्जित अज्ञान जनित कर्मों का क्षय होता है कर्म क्षय से जन्म जरा मरण रहित मुक्ति की प्राप्ति होती है । जे विण्णवणाहिज्जोसिया, संतिण्णेहिं समं वियाहिया। तम्हा उडे ति पासहा, अदक्खु कामाइं रोगवं ॥२॥ कठिन शब्दार्थ - विण्णवणाहि - विज्ञापना-प्रार्थना करने वाली, अजोसिया - असेवित, संतिण्णेहि - मुक्त पुरुषों के, अदक्खु - देखा है, कामाइ - काम भोगों को, रोगवं - रोग के समान । भावार्थ - जो पुरुष, स्त्रियों से सेवित नहीं हैं, वे मुक्त पुरुष के सदृश हैं । स्त्री परित्याग के बाद मुक्ति होती है यह जानना चाहिए । जिसने काम भोग को रोग के समान जान लिया है. वे पुरुष मुक्त पुरुष के सदृश हैं। विवेचन - गाथा में 'विण्णवणाहि' शब्द दिया है जिसका अर्थ है - विज्ञापना । कामी पुरुष स्त्री के प्रति अपनी कामना प्रकट करता है अथवा जो स्त्री कामी पुरुष के सामने अपना अभिप्राय प्रकट करती है उसे विज्ञापना कहते हैं । विज्ञापना' शब्द में स्त्री और पुरुष दोनों का ग्रहण किया गया है । दोनों के संयोग से मैथुन पाप पैदा होता है । इस पाप से एवं समस्त पापों से जो निवृत्त हो गये हैं वे मुक्त पुरुष कहे गये हैं। यहां गाथा के तीसरे चरण के स्थान में पाठान्तर पाया जाता है वह इस प्रकार है - "उड्डे तिरियं अहे तहा". अर्थात् सौधर्म आदि ऊर्ध्व लोक रूप देवलोकों में और तिरछे लोक में तथा भवनपति आदि For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . अध्ययन २ उद्देशक ३ अधोलोक में जो कामभोग विद्यमान है उन्हें जो महात्मा रोग के सदृश समझते हैं वे संसार पार किये हुए पुरुषों के समान कहे गये हैं। . अग्गं वणिएहिं आहियं, भारती राइणिया इहं । एवं परमा महव्वया, अक्खाया उ सराइभोयणा ॥ ३ ॥ कठिन शब्दार्थ - वणिएहिं - वणिकों के द्वारा, आहियं - लाये हुए, अग्गं - अग्र-प्रधान, धारंती - धारण करते हैं, राईणिया- राजा महाराजा आदि, सराइभोयणा - रात्रि भोजन के त्याग सहित। भावार्थ - जैसे वणिक-बनियों (व्यापारियों) के द्वारा लाए हुए उत्तमोत्तम रत्न और वस्त्र आदि को बड़े-बड़े राजा महाराजा आदि धारण करते हैं इसी तरह तीर्थंकर भगवन्तों द्वारा कहे हुए, रात्रि भोजन विरमण के सहित पांच महाव्रतों को साधु पुरुष धारण करते हैं । - विवेचन - जिस प्रकार प्रधान रत्नों को धारण करने के पात्र (योग्य) राजा महाराजा सेठ साहुकार आदि ही हैं इसी प्रकार महाव्रत रूपी रत्नों को धारण करने योग्य महापराक्रमी साधु पुरुष ही • हैं अर्थात् महापराक्रमी शूरवीर पुरुष ही महाव्रतों को धारण कर सकते हैं, कायर पुरुष नहीं । जे इह सायाणुगा णरा, अग्झोववण्णा कामेहिं मुच्छिया। किवणेण समं पगब्भिया, न वि जाणंति समाहिमाहियं ॥ ४ ॥ · कठिन शब्दार्थ - सायाणुगा - सातानुग-साता सुख के पीछे चलने वाले, अण्झोववण्णा - अध्युपपण्ण-विषयों में आसक्त, किवणेण - कृपण-दीन, समाहिं - समाधि को-धर्मध्यान को। भावार्थ - इस लोक में जो पुरुष सुख के पीछे चलते हैं तथा समृद्धि, रस और सातागौरव में आसक्त हैं एवं काम भोग में मूर्च्छित हैं वे इन्द्रिय लम्पटों के समान ही काम सेवन में धृष्टता करते हैं । ऐसे लोग कहने पर भी धर्मध्यान को नहीं समझते हैं । विवेचन - यहां इन्द्रियवशवर्ती 'पुरुष का दृष्टान्त देकर यह बतलाया गया है कि जो मुनि प्रतिलेखन आदि समिति का पालन अच्छी तरह नहीं करते हैं वे अपने निर्मल संयम को मलिन करते हैं वे धर्मध्यान रूपी समाधि को प्राप्त नहीं कर सकते हैं । वाहेण जहावविच्छए, अबले होइ गवं पचोइए । से अंतसो अप्पथामए, णाइवहइ अबले विसीयइ ॥५॥ कठिन शब्दार्थ - वाहेण - गाड़ीवान् के द्वारा, अवविच्छए- चाबुक मार कर, पचोइए - प्रेरित किया हुआ, गवं - बैल, अप्पथामए - अल्प सामर्थ्य वाला, णाइवहइ - भार वहन नहीं कर सकता है, विसीयइ - क्लेश पाता है । भावार्थ - जैसे गाड़ीवान् के द्वारा चाबुक मारकर प्रेरित किया हुआ भी दुर्बल बैल कठिन मार्ग For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० ' श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 को पार नहीं करता है किन्तु अल्प पराक्रमी तथा दुर्बल होने के कारण वह विषम मार्ग में क्लेश भोगता है परंतु भार वहन करने में समर्थ नहीं होता है । __ एवं कामेसणं विऊ, अज्ज सुए पयहेज्ज संथवं । कामी कामे ण कामए, लद्धे वावि अलद्ध कण्हुइ ॥६॥ कठिन शब्दार्थ - कामेसणं - काम के अन्वेषण में, विऊ- विद्वान्-निपुण, अज्जसुए - आज या कल, संथवं - संस्तव-परिचय, पयहेज - छोड़ दे, लद्धे - लब्ध-मिले हुए, अलद्ध - अलब्ध-अप्राप्त । भावार्थ - काम भोग के अन्वेषण में निपुण पुरुष, आज या कल कामभोग को छोड़ दे ऐसी वह चिन्ता मात्र करता है परंतु छोड़ नहीं सकता है । अतः काम भोग की कामना ही न करनी चाहिए और. प्राप्त कामभोगों को अप्राप्त की तरह जानकर उनसे नि:स्पृह हो जाना चाहिए। __. विवेचन - कामभोग संसार में परिभ्रमण कराने वाले हैं ऐसा जानकर भी कायर पुरुष उन को छोड़ नहीं सकता है । इन्हें आज छोडूं, कल छोडूं ऐसा विचार मात्र करता रहता है । उन विचारों में ही जीवन पूरा हो जाता है । जैसा कि कहा है. - .. आज कहे मैं काल करूं, काल कहे फिर काल । आज काल के करत ही, जीवन जावे चाल ।। शूरवीर पुरुष तो प्राप्त हुए काम भोगों को भी तत्काल छोड़ देता है जैसे - जम्बूस्वामी, धन्ना शालिभद्र आदि । मा पच्छ असाहुया भवे, अच्चेहि अणुसास अप्पगं। अहियं च असाहु सोयइ, से थणइ परिदेवइ बहुं ॥७॥ .. कठिन शब्दार्थ - पच्छ - पीछे, असाहुया - असाधुता, अच्चेहि - छोड़ दे, अणुसास - शिक्षा दो, अहियं - अधिक, सोयइ - शोक करता है, थणइ - चिल्लाता है, परिदेवइ- रोता है। भावार्थ - मरण काल के पश्चात् दुर्गति न हो इसलिए विषय सेवन से अपनी आत्मा को हटा देना चाहिए और उसे शिक्षा देनी चाहिए कि असाधु पुरुष, बहुत शोक करता है वह चिल्लाता है और रोता है। विवेचन - कामभोगों से आत्मा की दुर्गति न हो इसलिये कामभोगों को तत्काल छोड़ देना चाहिये और अपनी आत्मा को इस प्रकार शिक्षा देनी चाहिये कि - अरे ! जीव ! हिंसा, झूठ, चोरी आदि पाप कर्मों का सेवन दुर्गति में ले जाने वाला है । वहां परमाधार्मिक देवों द्वारा पीड़ित किये जाने पर जीव बहुत शोक करता है । तिर्यंच गति में जाकर भूख प्यास आदि से पीड़ित होता है अतः बुद्धिमान् पुरुष को विषयसंसर्ग आदि पापकार्य नहीं करने चाहिये । For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१ अध्ययन २ उद्देशक ३ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 इह जीवियमेव पासह, तरुणए वाससयस्स तुट्टई। इत्तर वासे य बुज्झह, गिद्धणरा कामेसु मुच्छिया ॥८॥ कठिन शब्दार्थ - जीवियं - जीवन को, एव - ही, तरुणए - तरुण-युवावस्था में, तुट्टइ - नष्ट होता है, वाससयस्स (वाससयाउ) - सौ वर्ष की आयु वाले का, इत्तरवासे - थोड़े काल का निवास, गिद्ध - गृद्ध-आसक्त, णरा - मनुष्य । .. भावार्थ - हे मनुष्यो ! इस मर्त्यलोक में पहले तो अपने जीवन को ही देखो। कोई मनुष्य शतायु होकर भी युवावस्था में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। अतः इस जीवन को थोड़े काल का निवास के समान समझो। क्षुद्र मनुष्य ही विषय भोग में आसक्त होते हैं। विवेचन - जैसे समुद्र में लहर उठती है और नष्ट होती रहती है । इसी तरह आयुष्य भी प्रतिक्षण नष्ट होता रहता है । इसको आवीचि मरण कहते हैं । इससे आयुष्य प्रतिक्षण घटता जाता है । वर्तमान में सबसे बड़ा आयुष्य सौ वर्ष झाझेरा माना गया है परन्तु सागरोपम के सामने वह अति अल्प है । तथा ठाणाङ्ग सूत्र में कहे हुए अध्यवसान आदि सात कारणों से बीच में ही टूट जाता है । अतः विषयवासना को छोड़ कर तत्काल धर्म कार्य में लग जाना चाहिये । . प्रश्न - आयुष्य टूटने के सात कारण कौन से हैं ? .. उत्तर - अण्झवसाण णिमित्ते, आहारे वेयणा पराघाए। फासे आणा पाणू, सत्तविहं मिजए आउं ।। (स्थानांग - ९) अर्थ - सोपक्रम आयुष्य वाले जीव के सात कारणों से आयुष्य टूट जाता है । यथा - १. अज्झवसाण-अध्यवसान अर्थात् राग स्नेह या भय रूप प्रबल मानसिक आघात होने पर बीच में ही आयुष्य टूट जाता है । २. निमित्त - दण्ड, शस्त्र आदि का निमित्त पा कर । ३. आहार - अधिक आहार कर लेने पर अथवा आहार का सर्वथा त्याग कर देने पर । ४. वेदना - शरीर में शूल आदि असह्य वेदना होने पर । - ५. पराघात - खड्डे आदि में गिरना; बाह्य आघात पाकर । ६. स्पर्श - सांप आदि के काट खा जाने पर । अथवा ऐसी वस्तु का स्पर्श होने पर जिसको छूने से शरीर में जहर फैल जाय । ७. आणपाण - हार्ट अटैक आदि कारण से श्वांस की गति बन्द हो जाने पर अथवा किसी के द्वारा कण्ठ दबा कर श्वांस की गति रोक देने पर । - इन सात कारणों से व्यवहार नय से, अकाल मृत्यु हो जाती है। For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ इस प्रकार आयुष्य की क्षणभङ्गरता जान कर धर्म कार्य में जरा भी ढील नहीं करनी चाहिये - बील न कीजे. धर्म में, जप तप लीजे लूट । जैसी शीशी कांच की, जाय पलक में फूट । जैसी शीशी कांच की, वैसी नर की देह ।। जतन करता जावसी, हर भज लावा लेह ।। जे इह आरंभ णिस्सिया, आयदंडा एगंत लूसगा । गंता ते पाव लोगयं, चिररायं आसुरियं दिसं ॥९॥ कठिन शब्दार्थ - आरंभणिस्सिया - आरंभनिश्रित-आरंभ में आसक्त, आयदंडा- आत्मा को दंड देने वाले, एगंत - एकांत रूप से, लूसगा - जीवों के हिंसक, पावलोगयं - पापलोक - नरक में, चिररायं - चिरकाल के लिये, आसुरियं दिसं - असुर संबंधी दिशा को। भावार्थ - जो मनुष्य आरंभ में आसक्त तथा आत्मा को दंड देने वाले और जीवों के हिंसक हैं वे चिरकाल के लिए नरक आदि पापलोकों में जाते हैं । यदि बाल तपस्या आदि से वे देवता हों तो भी अधम असुर संज्ञक देवता होते हैं। ण य संखयमाह जीवियं, तहवि य बालजणो पगभइ । पच्चुपण्णेण कारियं, को दहें परलोगमागए ॥१०॥ कठिन शब्दार्थ - संखयं - संस्कार करने योग्य, पच्चुण्णेण - प्रत्युत्पन्न-वर्तमान सुख से, कारियं - कार्य-प्रयोजन, परलोगं - परलोक को, को - कौन, दटुं - देख कर, आगए - आया है । भावार्थ - सर्वज्ञ पुरुषों ने फरमाया है कि - "यह जीवन संस्कार करने योग्य नहीं है अर्थात् टूटा हुआ आयुष्य फिर जोड़ा नहीं जा सकता है ।" तथापि मूर्ख जीव पाप करने में धृष्टता करते हैं । वे कहते हैं कि हमको वर्तमान सुख से प्रयोजन है, परलोक को देखकर कौन आया है ? विवेचन - नास्तिक मतावलम्बी चार्वाकों का कहना है कि - स्वर्ग, नरक, मोक्ष आदि परलोक नहीं है, केवल जो कुछ है यह लोक ही है इसलिये इस लोक के सुखों को छोड़ कर परलोक के सुखों की आशा करना मूर्खता है । यथा - पिव खाद च साधु शोभने ! यदतीतं वरगात्रि ! तन्न ते । नहि भीरु ! गतं निवर्तते, समुदयमात्रमिदं कलेवरम् ।१। . - अर्थ - हे सुन्दरि ! अच्छे अच्छे पदार्थ खाओ और पीओ । जो वस्तु बीत गई है वह तुम्हारी नहीं है । हे भीरु ! जो वस्तु बीत गई है वह लौट कर नहीं आती है तथा यह शरीर भी पांच महाभूतों का समुदाय रूप है तथा कहा भी है - For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ उद्देशक ३ • ८३ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 एतवानेव पुरुषो यावनिन्द्रियः गोचरः। . भद्रे ! वृकपदं पश्य यद्वन्त्य बहुश्रुताः ॥२॥ अर्थ - हे भद्रे ! जितना देखने में आता है, उतना ही लोक है । परन्तु अज्ञानी लोग जिस तरह मनुष्य के पंजे को पृथ्वी पर उखडा हुआ देख कर भेडिये के पैर की मिथ्या ही कल्पना करते हैं । उसी तरह परलोक की कल्पना भी मिथ्या ही करते हैं । प्राप्त हुए सुखों को छोड़ते हैं । यह उनकी अज्ञानता है । कहा है - यावज्जीवेत् सुखं जीवेत्, ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत् । भस्मीभूतस्य देहस्य, पुनरागमनं-कुतः ॥ अर्थ - मनुष्य को चाहिये कि - जब तक जीवे सुख पूर्वक जीवे। यदि घर में सामग्री न हो तो. दूसरों से कर्ज लेकर भी घी पीवे। यदि हम से कोई प्रश्न कर ले कि - 'कर्ज लेकर आया है उसे वापिस चुकाना पड़ेगा, तो हमारा उत्तर है कि - जब यह शरीर जलकर भस्म हो जायेगा उसके साथ ही पांच भूतों से बना हुआ आत्मा भी विनष्ट होकर उन्हीं में विलीन हो जायेगा। फिर न कोई लेने वाला रहेगा न देने वाला रहेगा। . . इस प्रकार नास्तिकों की मान्यता है। जो कि अज्ञान मूलक है। अदक्खुव दक्खुवाहियं, सद्दहसु अदक्खु दंसणा। हंदि हु सुण्णिरुद्ध दंसणे, मोहणिजेण कडेण कम्मुणा॥ ११ ॥ कठिन शब्दार्थ - अदक्खु - अपश्य - नहीं देखने वाला, व - तरंह, दक्खुवाहियं - सर्वज्ञ द्वारा कहा हुआ, सद्दहसु - श्रद्धा करो, अदक्खुदंसणा - हे असर्वज्ञ दर्शन वाले, हंदि - यह जानो, सुण्णिरुद्ध - जिसकी ज्ञानदृष्टि मंद हो गई। भावार्थ - हे अन्ध तुल्य पुरुष ! तू परवादियों के सिद्धान्त को छोड़ कर सर्वज्ञ कथित सिद्धान्त में श्रद्धाशील बन । क्योंकि मोहनीय कर्म के प्रभाव से जिनकी ज्ञान दृष्टि मंद हो गई है वे सर्वज्ञ कथित आगम को नहीं मानते हैं यह समझो। विवेचन - चार्वाक लोग एक प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानते हैं किन्तु केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानने से समस्त व्यवहार का ही लोप हो जाता है। कौन किसका पिता है और कौन किसका पुत्र है यह व्यवहार भी नहीं हो सकता है और संसार का कोई भी कार्य नहीं चल सकता है अतः सर्वज्ञ कथित आगम में श्रद्धा करनी चाहिये। आगम में लोक, परलोक, स्वर्ग, नरक, मोक्ष, पुण्य पाप आदि सब का कथन किया गया है। जो प्राणी जिस प्रकार का कर्म बांधता है वह उसी प्रकार का फल भोगता भी है। अतएव सर्वज्ञ कथित मार्ग में श्रद्धा करनी चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 दुक्खी मोहे पुणो पुणो, णिविंदेज सिलोग पूयणं। एवं सहिएऽहिपासए, आयतुले पाणेहि संजए ॥१२॥ कठिन शब्दार्थ - णिविंदेज - त्याग दे, सिलोग - श्लोक-स्तुति, पूयणं - पूजा को, . अहिपासए - देखे, आयतुले - आत्म तुल्य । भावार्थ - दुःखी जीव, बार बार मोह को प्राप्त होता है इसलिए साधु अपनी स्तुति और पूजा को त्याग देवे । इस प्रकार ज्ञानादि संपन्न साधु सब प्राणियों को अपने समान देखें। . विवेचन - असाता वेदनीय कर्म के उदय से दुःख प्राप्त है। अज्ञानी जीव उस समय उस दुःख को समभाव से सहन न करके हाय-त्राय रूप आर्तध्यान करके फिर नये कर्म बांधता है। इससे बारबार दुःख की प्राप्ति होती है। अतः विवेकी पुरुष आये हुए दुःख को समभाव पूर्वक सहन करे। .. ____ गाथा में 'सिलोगपूयणं' शब्द दिया है। उसका अर्थ इस प्रकार है- 'सिंलोग' का अर्थ है श्लोक, जिसका अर्थ है आत्मश्लाघा, आत्मप्रशंसा तथा 'पूयण' शब्द का अर्थ है - पूजन। अर्थात् वस्त्रादि लाभ से लोभान्वित होना पूजन अथवा पूजा कहलाता है। विवेकी पुरुष इन दोनों को भी छोड़ देवे तथा सभी प्राणियों को सुख प्रिय है और दुःख अप्रिय है ऐसा जान कर सब प्राणियों को अपने आत्म तुल्य समझे। किसी भी प्राणी को दुःख न दें। गारं पि अ आवसे णरे, अणुपुव्वं पाणेहिं संजए । ... समया सव्वत्थ सुब्बए, देवाणं गच्छे सलोगयं ॥१३॥ . कठिन शब्दार्थ - गारं - अगार-घर, आवसे - रहता हुआ, अणुपुव्वं - क्रमशः, पाणेहिं - प्राणियों की, संजए - संयत-हिंसा से निवृत्त, सुव्वए - सुव्रत पुरुष । भावार्थ - जो पुरुष गृहस्थावस्था में निवास करता हुआ भी क्रमशः श्रावकधर्म को प्राप्त करके प्राणियों की हिंसा से निवृत्त होता है तथा सर्वत्र समभाव रखता है वह सुव्रत पुरुष देवताओं के लोक में जाता है । . विवेचन - घर में रहते हुए जिस धर्म का पालन किया जाय उसे गृहस्थ धर्म कहते हैं। उसका दूसरा नाम श्रावक धर्म या श्रमणोपासक धर्म है। उसका यथावत् पालन करने वाला श्रावक वैमानिकों में १२ वें देवलोक तक जा सकता है और इन्द्र पदवी भी पा सकता है तो फिर पञ्च महाव्रतधारी साधु की तो कहना ही क्या? वह तो सर्व कर्मों का क्षय करके उसी भव में मोक्ष जा सकता है । यदि कुछ कर्म शेष रह जाय तो वैमानिकों में सर्वार्थ सिद्ध तक जा सकता है। . सोच्या भगवाणुसासणं, सच्चे तत्थ करेग्जुवक्रम । सव्वत्थ विणीयमच्छरे, उंछं भिक्खु विसुद्धमाहरे ॥१४॥ For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ अध्ययन २ उद्देशक ३ ८५ कठिन शब्दार्थ - भगवाणुसासणं - भगवान् के अनुशासन के, करेज (करेह) - करे, उवक्कम - उद्योग, विणीयमच्छरे - मत्सर रहित, उंछं - थोड़ा, विसुद्धं - शुद्ध, आहरे - लावे । भावार्थ - भगवान् के आगम को सुनकर उसमें कहे हुए सत्य संयम में उद्योग करना चाहिए । किसी के ऊपर मत्सर (ईर्ष्या) न करना चाहिए इस प्रकार वर्तते हुए साधु को शुद्ध आहार लाना चाहिए। सव्वं णच्चा अहिट्ठए, धम्मट्ठी उवहाणवीरिए । गुत्ते जुत्ते सया जए, आय परे परमाययट्ठिए ॥१५॥ कठिन शब्दार्थ - णच्चा - जान कर, अहिट्ठए - आश्रय ले, धम्मट्ठी - धर्मार्थी, गुत्ते - गुप्त, जुत्ते - युक्त, जए - यत्न करे, आयपरे - स्व पर के लिए, परमाययट्ठिए - मोक्ष का अभिलाषी।। ... भावार्थ - साधु, सब वस्तुओं के स्वरूप को जानकर तथा उनकी हेय उपादेयता को समझ कर सर्वज्ञोक्त संवर का आश्रय लेवे अर्थात् संवर की क्रिया करे तथा वह धर्म को प्रयोजन समझता हुआ तप में पराक्रम प्रकट करे एवं मन, वचन और काय से गुप्त रह कर साधु सदा अपने और दूसरों के विषय में यत्न करे। इस प्रकार वर्तता हुआ साधु मोक्ष का अभिलाषी बने । विवेचन - उपधान का मतलब है तप विशेष । वित्तं पसवो य णाइओ, तं बाले सरणं ति मण्णइ । एए मम तेसु वि अहं, णो ताणं सरणं ण विज्जइ ॥१६ ॥ कठिन शब्दार्थ - वित्तं - धन को, पसवो - पशु णाइओ- ज्ञातिजन, सरणं - शरण रूप, तेसु- उनमें, वि - भी, अहं - मैं उनको, ताणं - त्राण रूप, ण विजइ- नहीं है । - भावार्थ - अज्ञानी जीव धन, पशु और ज्ञातिवर्ग (कुटुम्ब परिवार) को अपना रक्षक मानता है वह समझता है कि ये सब मुझ को दुःख से बचावेंगे और मैं इनकी रक्षा करूँगा परंतु वस्तुतः वे उसकी रक्षा नहीं कर सकते । विवेचन - धन, धान्य और हिरण्य आदि को 'वित्त' कहते हैं । हाथी, घोडा, गाय, भैंस आदि को 'पशु' कहते हैं । माता-पिता पुत्र, स्त्री आदि स्वजन वर्ग को 'ज्ञाति' कहते हैं । धनादि को अज्ञानी जीव शरण रूप मानता है परन्तु वे दुर्गति में गिरते हुए प्राणी की किसी प्रकार से रक्षा करने में समर्थ नहीं है । प्रश्न - धन धान्य आदि रक्षक और शरण रूप क्यों नहीं हो सकते हैं ? उत्तर - ज्ञानी पुरुष परमाते हैं -- For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध -१ रिद्धि सहावतरला, रोग - जरा-भंगुरं हयसरीरं । दोहं पि गमण सीलाणं, कियच्चिरं होज्ज संबंधो ॥१ ॥ (ऋद्धिः स्वभावतरला रोगजराभङ्गुरं हतशरीरम् । द्वयोरपि गमनशीलयोः कियच्चिरं भवति संबन्धः ॥ १ ॥ ) अर्थ - ऋद्धि (धन सम्पत्ति) स्वभाव से ही चञ्चल है। यह विनश्वर शरीर रोग और बुढापे के... कारण क्षणभंगुर है अतः इन दोनों गमनशील - नाशवान् पदार्थों का सम्बन्ध कब तक रह सकता है ? वास्तव में जिस शरीर के लिये धनादि वस्तुओं के संचय की इच्छा करता है वह शरीर ही विनाशशील है। फिर वे धनादि चञ्चल पदार्थ शरीर को नष्ट होने से कैसे बचा सकते हैं और उन्हें कैसे शरण दे सकते हैं ? ८६ प्रश्न- माता पिता आदि जीव के लिये शरणभूत रक्षक क्यों नहीं हो सकते हैं । उत्तर - ज्ञानी फरमाते हैं। मातापितृसहस्त्राणि, पुत्रदारशतानि च । प्रति जन्मनि वर्त्तन्ते, कस्य माता पितापि वा ॥ अर्थ संसार में परिभ्रमण करते हुए इस जीव के अनन्त जन्म मरण हो चुके हैं। इसलिये अनन्त माता, अनन्त पिता, अनन्त पुत्र और अनन्त पत्नियां हो चुकी हैं । प्रत्येक जन्म में ये पलटते जाते हैं ऐसी स्थिति में कौन किसकी माता और कौन किसका पिता है ? फिर भी अज्ञानी जीव मूढता और ममत्व वश मानते हैं कि ये पदार्थ मेरे हैं और मैं भी इनका हूँ। यह उस जीव की अज्ञानता है। 000000000000 अब्भागमियंमि वा दुहे, अहवा उक्कमिए भवंतिए । एगस्स गई य आगई, विउमंता सरणं ण मण्णइ ॥ १७ ॥ कठिन शब्दार्थ - अब्भागमियंमि - आने पर, उक्कमिए - उपक्रम से, भवंतिए - भवान्तिक भव का अंत (मृत्यु) होने पर, एगस्स अकेले, गइ गति- जाना, आगइ आगति आना, विउमंताविद्वान् पुरुष । भावार्थ - जब प्राणी के ऊपर किसी प्रकार का दुःख आता है तब वह उसे अकेला ही भोगता है • तथा उपक्रम के कारणों से आयु नष्ट होने पर अथवा मृत्यु उपस्थित होने पर वह अकेला ही परलोक में जाता है इसलिए विद्वान् पुरुष किसी को अपना शरण नहीं मानते हैं । - विवेचन - असातावेदनीय कर्म के उदय से जब जीव दुःखी बनता है तब वह उसे अकेला ही भोगता है। - For Personal & Private Use Only - Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ उद्देशक ३ ****30..... गाथा में " उक्कमिए " शब्द दिया है जिसका अर्थ है - उपक्रम (निमित्त, कारण) । निमित्त कारण उपस्थित होने पर आयुष्य बीच में ही टूट जाता है। ऐसे उपक्रम ठाणाङ्ग सूत्र के सातवें ठाणे में सात बतलाये गये हैं । जिनके नाम और अर्थ इस अध्ययन की ८ वीं गाथा में दिये गये हैं । 1 - सव्वे सयकम्मकप्पिया, अवियत्तेण दुहेण पाणिणो । हिंडति भयाउला सढा, जाइजरा मरणेहिऽभिदुया ॥ १८ ॥ कठिन शब्दार्थ - सयकम्मकप्पिया - स्वकर्म कल्पिता - अपने अपने कर्म से नाना अवस्थाओं से युक्त, अवियत्तेण अव्यक्त, दुहेण परिभ्रमण करते हैं, भयाउलादुःखों से, हिंडंति भयाकुल, सढा - शठ जीव, अभिदुया - अभिद्रुत पीड़ित । भावार्थ - सब प्राणी, अपने अपने कर्मानुसार नाना अवस्थाओं से युक्त हैं और सब उपार्जन किये हुए दुःख से दुःखी हैं तथा जन्म, जरा-मरण से पीडित भयाकुल वे अज्ञानीप्राणी, बार बार संसार चक्र में परिभ्रमण करते हैं । - इणमेव खणं विजाणिया, णो सुलभं बोहिं च आहियं । एवं सहिएऽहिपास, आह जिणो इणमेव सेसा ॥ १९ ॥ कठिनं शब्दार्थ - इणमेव यही, खणं अवसर अहिपासए ( अहियासए) विचारे, आहु - कहा है, जिणो - ऋषभदेव जिनेश्वर ने, सेसगा शेष तीर्थंकरों ने भी । - - - ८७ 00000000000000000 For Personal & Private Use Only - भावार्थ - ज्ञानादि संपन्न मुनि यह विचारे कि मोक्ष साधन का यही अवसर है और सर्वज्ञ · पुरुषों ने कहा है कि बोध प्राप्त करना सुलभ नहीं है आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेवजी ने अपने पुत्रों से यह उपदेश दिया था और दूसरे तीर्थंकरों ने भी यही उपदेश दिया है । सहन करे विवेचन - इस अवसर्पिणी काल के पहले तीर्थङ्कर श्री ऋषभदेव स्वामी ने अपने ९८ पुत्रों को इस प्रकार का उपदेश दिया था । ( अथवा सभी तीर्थङ्करों ने ऐसा उपदेश दिया था, देते हैं और देंगे ) कि- तुम बोध को प्राप्त करो । बोध को प्राप्त करने का यह अवसर है । क्योंकि जीव को इस प्रकार का अवसर बार-बार प्राप्त नहीं होता है। उत्तराध्ययन सूत्र के तीसरे अध्ययन में बतलाया गया है कि चार अङ्गों (बोलों की ) प्राप्ति होना बड़ा दुर्लभ है यथा- मनुष्य भव, धर्म का सुनना, उस पर श्रद्धा आना और संयम में पुरुषार्थ करना दुर्लभ है तथा दस बोलों की प्राप्ति होना महान् दुर्लभ है । (उत्तराध्ययन सूत्र के दसवें अध्ययन में दस बोल इस प्रकार बतलाये गये हैं- मनुष्य भव, आर्य क्षेत्र, उत्तम कुल, लम्बा आयुष्य, नीरोग शरीर, पांच इन्द्रियां परिपूर्ण, साधु साध्वियों का संयोग, जिन धर्म का श्रवण, जिन धर्म पर श्रद्धा आना और संयम में पुरुषार्थ करना) ऐसा अवसर प्राप्त कर बुद्धिमानों का www.jalnelibrary.org Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कर्तव्य है कि वे अपना कल्याण साध लें। भगवान् के ९८ पुत्रों ने यह उपदेश सुन कर संयम अङ्गीकार कर ऐसा पुरुषार्थ किया कि - उसी भव में भगवान् के साथ ही मोक्ष चले गये। . अभविंसु पुरावि भिक्खवो (भिक्खुवो), आएसावि भवंति सुव्वया। एयाइं गुणाई आहु ते, कासवस्स अणुधम्मचारिणो ॥ २० ॥ कठिन शब्दार्थ - पुरा - पूर्व काल में, वि - भी, अभविंसु- हो चुके, आएसा - भविष्यकाल में, सुब्धया - सुव्रत पुरुषों ने, गुणाई - गुणों को, अणुधम्मचारिणो - अनुयायियों ने । भावार्थ - जो तीर्थंकर पहले हो चुके हैं और जो भविष्यकाल में होंगे उन सभी सुव्रत पुरुषों ने तथा भगवान् ऋषभदेव स्वामी और भगवान् महावीर स्वामी के अनुयायियों ने भी इन्हीं गुणों को मोक्ष का साधन बताया है। विवेचन - "सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्ष मार्गः" . . अर्थात् सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र ही मोक्ष मार्ग है। इसकी आराधना करके भूतकाल में अनन्त सर्वज्ञ हो चुके हैं। सर्वज्ञ पुरुषों में किसी प्रकार का मतभेद नहीं होता है। उन सब का उपरोक्त एक ही सिद्धान्त था। इसी का आचरण कर वे सर्वज्ञ बने थे। भगवान् ऋषभदेव और महावीर स्वामी इन दोनों का एक ही गोत्र 'काश्यप' था अर्थात् ये दोनों 'काश्यप' गोत्रीय थे। तिविहेण वि पाण (पाणि) मा हणे, आयहिए अणियाण संवुडे। • एवं सिद्धा अणंतसो, संपइ जे अ अणागयावरे ॥२१॥ . __ कठिन शब्दार्थ - आयहिए - आत्महित-स्व हित में प्रवृत्त, अणियाण - अनिदान-स्वर्गादि की इच्छा से रहित, अणंतसो - अनंत जीव, सिद्धा - सिद्ध हुए हैं, संपइ - सम्प्रति- वर्तमान काल अणागया - अनागत-भविष्य में, अवरे - अपर-दूसरे । भावार्थ - मन, वचन और काय से प्राणियों की हिंसा न करनी चाहिए । अपने हित में प्रवृत्त और स्वर्गादि की इच्छा से रहित संयम पालन करना चाहिए । इस प्रकार अनन्त जीवों ने मोक्ष लाभ किया है तथा वर्तमान समय में करते हैं और भविष्य में भी करेंगे । । विवेचन - गाथा में सिर्फ प्राणातिपात विरमण रूप पहले महाव्रत का ही कथन है यह तो उपलक्षण है इसलिये शेष चार महाव्रतों का भी ग्रहण समझ लेना चाहिये। अर्थात् प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह इन पांच पापों का तीन करण तीन योग से त्याग कर देना चाहिये। इन For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन २ उद्देशक ३ ८९ ०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० पांच महाव्रतों का पालन कर भूत काल में अनंत सिद्ध हो चुके हैं वर्तमान में संख्यात सिद्ध हो रहे हैं और भविष्य में अनन्त सिद्ध होंगे। इससे भिन्न कोई दूसरा सिद्धि का मार्ग नहीं है। - एवं से उदाहु अणुत्तरणाणी, अणुत्तरदंसी अणुत्तरणाण दंसणधरे । अरहा णायपुत्ते भगवं वेसालिए वियाहिए ।त्ति बेमि॥२२॥ कठिन शब्दार्थ - अणुत्तरणाणी - अनुत्तरज्ञानी, अणुत्तरदंसी - अनुत्तरदर्शी, अणुत्तरणाणदंसणधरे - अनुत्तर ज्ञान दर्शन के धारक, वेसालिए - वैशालिक-विशाला नगरी में उत्पन्न, विशाल तीर्थ के नायक, वियाहिए - व्याख्यातवान् - अर्थात् कहा है, त्ति बेमि - इस प्रकार मैं कहता हूँ। भावार्थ - उत्तमज्ञानी उत्तमदर्शनी तथा उत्तम ज्ञान और दर्शन के धारक, इन्द्रादि देवों के पूजनीय ज्ञातपुत्र भगवान् श्री वर्धमान स्वामी ने विशाला नगरी में यह हम लोगों से कहा था अथवा ऋषभदेव स्वामी ने अपने पुत्रों से यह कहा था सो मैं आपसे कहता हूँ । यह श्री सुधर्मास्वामी जम्बू स्वामी आदि अपने शिष्य वर्ग से कहते हैं । . विवेचन - उपरोक्त गाथा में भगवान् महावीर के सात विशेषण दिये गये हैं। यथा १. अनुत्तर ज्ञानी - जिनसे बढ़कर कोई ज्ञानी नहीं है २. अनुत्तरदर्शी - जिनसे बढ़कर कोई तत्त्ववेत्ता नहीं है। ३. अनुत्तर ज्ञानदर्शनधर - अनुत्तर अर्थात् जिससे बढ़कर कोई ज्ञान और दर्शन नहीं ऐसे ज्ञान दर्शन दोनों को एक साथ धारण करने वाले। ४. अरहा - जिनसे कोई रहस्य छिपा हुआ नहीं है । ५. णायपुत्ते - ज्ञातृ कुल में उत्पन्न होने से ज्ञातकुल। ६. भगवं - भगवान्-ऐश्वर्य आदि छह गुणों से युक्त।.७. वेसालिए - वैशालिक अथवा वैशाल्याम् अर्थात् विशाल कुल में उत्पन्न होने से वैशालिक भगवान् ऋषभदेव अथवा महावीर अथवा वैशाली या विशाला नगरी में दिया गया भगवान् का प्रवचन। उपर्युक्त अर्थ का समर्थन करने वाली एक गाथा वृत्तिकार ने दी है वह इस प्रकार है इति कम्मवियालमुत्तमं जिणवरेण सुदेसियं सया । जे आचरंति आहियं खवितरया वइहिंति ते सिवं गतिं ॥ अर्थात - इसी प्रकार कर्म विदारक नामक उत्तम अध्ययन का उपदेश श्री जिनवर देव ने फरमाया है। इसमें कथित उपदेश के अनुसार जो जीव आचरण करते हैं वे अपने कर्म-रज को क्षय करके मोक्ष गति प्राप्त करते हैं । . .. प्रश्न - भगवान् किसे कहते हैं ? For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० GOOOOOO 00000000....00 उत्तर - अर्धमागधी भाषा में 'भगवं' या 'भयवं' शब्द आता है जिसका संस्कृत रूप भगवान् - बनता है। भगवान् शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गई है " भगं - भाग्यं विद्यते यस्य सः भगवान् " अर्थ-भग अर्थात् भाग्य के स्वामी को भगवान् कहते हैं। भग शब्द का टीकार्थ इस प्रकार किया गया है - श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ *******.***..............000 ऐश्वर्य्यस्स समग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः । धर्मस्यार्थस्य यत्नस्य, षणां भग इतीङ्गना ॥ १ ॥ अर्थ - समग्र ऐश्वर्य, रूप, यश, लक्ष्मी, धर्म और प्रयत्न ये 'भग' शब्द के छह अर्थ हैं। इनके स्वामी को भगवान् कहते हैं। शब्दकोश में तो 'भग' शब्द के अर्थ इस प्रकार किये गये हैं - श्रियां यशसि सौभाग्ये योनौ कान्तौ महिम्नि च । सूर्ये संज्ञाविशेषे च मृगाङ्केऽपि भगः स्मृतः ॥ अर्थ - श्रीलक्ष्मी, यश, सौभाग्य, योनि, कान्ति, महिमा, सूर्य, संज्ञाविशेष और चन्द्रमा । इसके सिवाय ज्ञान दर्शन आदि भी ' भग' शब्द के अर्थ किये हैं । ।। इति तीसरा उद्देशक ॥ ॥ वैतालिक नामक दूसरा अध्ययन समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसर्ग नामक तीसरा अध्ययन उत्थानिका - स्वसिद्धान्त के गुणों को और पर सिद्धान्त के दोषों को जान कर संयम का पालन करने वाले मुनि को उपसर्ग हो सकते हैं। उपसर्ग शब्द का अर्थ यह है कि - "उपसृज्यते संबध्यते पीडादिभिः सह जीवस्तेन इति उपसर्गः ।" अर्थ - पीडा आदि से जीव पीड़ित किया जाय उसे उपसर्ग कहते हैं। उपसर्ग के तीन भेद हैं - १. देवकृत २. मनुष्यकृत ३. तिर्यञ्च कृत । उपताप, शरीर पीडा उत्पादन, संयम पालने में आने वाले विघ्न, बाधा उपद्रव आपत्तिं ये उपसर्ग के पर्यायवाची शब्द हैं। उपसर्ग के दो भेद भी किये जा सकते हैं - अनुकूल उपसर्ग और प्रतिकूल उपसर्ग। शरीर आदि को पीड़ित करने वाले उपसर्ग प्रतिकूल उपसर्ग कहलाते हैं। मन और इन्द्रियों को अच्छे लगने वाले कामभोगादि के आमंत्रण रूप उपसर्ग अनुकूल उपसर्ग कहलाते हैं। प्रतिकूल उपसर्गों को जीतना उतना कठिन नहीं है जितना अनुकूल उपसर्गों को जीतना कठिन है। इस अध्ययन में दोनों प्रकार के उपसर्गों का वर्णन किया जायेगा। उन दोनों प्रकार के उपसर्गों को समभाव पूर्वक सहन कर साधक उन पर विजय प्राप्त करे। पहला उद्देशक सूरं मण्णइ अप्पाणं, जाव जेयं ण पस्सइ । जुझंतं दधम्माणं, सिसुपालो व महारहं ॥१॥ कठिन शब्दार्थ - सूरं-- शूर, अप्पाणं - अपनी आत्मा को, जेयं - विजेता पुरुष को, पस्सइ - देखता है, जुझंतं - युद्ध करते हुए, दढधम्माणं - दृढ़धर्म वाले, सिसुपालो - शिशुपाल, महारहंमहारथी । भावार्थ - कायर पुरुष भी तब तक अपने को शूर मानता है, जब तक वह विजेता पुरुष को नहीं देखता है परंतु उसे देखकर वह क्षोभ को प्राप्त होता है जैसे शिशुपाल अपने को शूर मानता हुआ भी युद्ध करते हुए महारथी दृढ़ धर्मवाले श्री कृष्ण को देखकर क्षोभ को प्राप्त हुआ था । - विवेचन - कोई तुच्छ स्वभाव वाला मनुष्य अपने आपको ऐसा मानता है कि - मेरे सरीखा शूरवीर कोई दूसरा नहीं है। परन्तु युद्ध उपस्थित होने पर सामने आते हुए शत्रु पक्ष के वीर पुरुष शस्त्र और अस्त्र की वर्षा करने लगते हैं उस समय वह घबरा जाता है। For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ यह दृष्टान्त देकर शास्त्रकार फरमाते हैं कि संयम भी एक आध्यात्मिक रणसंग्राम है। इसमें आत्मिक शूरवीर ही टिक सकते हैं कायर नहीं। जैसा कि कहा है - नानी का घर है नहीं, खराखरी का खेल। ९२ कायर का कारज नहीं, शूरा हो तो झेल ॥ पयाया सूरा रणसीसे, संगामम्मि उवट्ठिए । माया पुतं ण याणा, जेएण परिविच्छए ॥ २ ॥ कठिन शब्दार्थ- पयाया गया हुआ, रणसीसे युद्ध के शीर्ष (अग्र) भाग में, परिविच्छए छेदन भेदन किया हुआ । भावार्थ - युद्ध छिड़ने पर वीराभिमानी कायर पुरुष भी युद्ध के आगे जाता है परंतु धीरता को नष्ट करने वाला युद्ध जब आरंभ होता है और घबराहट के कारण जिस युद्ध में माता अपने गोद से गिरते हुए पुत्र को भी नहीं जानती है, तब वह पुरुष विजयी पुरुष के द्वारा छेदन-भेदन किया हुआ दीन हो जाता है । विवेचन - इस गाथा में संग्राम की भीषणता बतलाई गई है। एवं सेहे वि अप्पुट्ठे, भिक्खायरिया अकोविए । सूरं मण्णइ अप्पाणं, जाव लूहं ण सेव ॥ ३ ॥ कठिन शब्दार्थ - सेहे शैक्ष अभिनव प्रव्रजित शिष्य, अपुट्ठे अस्पृष्ट, भिक्खायरिया भिक्षाचर्या, अकोविए - अकोविद - अनिपुण, लूहं रूक्ष-संयम का सेवए सेवन करता है। भावार्थ - जैसे कायर पुरुष जब तक शत्रु-वीरों से घायल नहीं किया जाता तभी तक अपने को वीर मानता है इसी तरह भिक्षाचरी में अनिपुण तथा परीषहों के द्वारा स्पर्श नहीं किया हुआ अभिनव प्रव्रजित साधु भी तभी तक अपने को वीर मानता है जब तक वह संयम का सेवन नहीं करता है । विवेचन - केवल वचन से ऐसा कहने वाला पुरुष कि 'संयम पालन करना क्या कठिन है ?' परन्तु संयम में जब परीषह उपसर्ग आकर पीड़ित करते हैं तब वह घबरा जाता है । क्योंकि संयम पालन करना केवल वचनों से नहीं होता किन्तु आत्मा की दृढता से होता है । गाथा में दिये हुए भिक्षाचर्या शब्द का शब्दार्थ गोचरी के अतिरिक्त संयम का भी होता है। यहाँ संयम को 'लूह'- रूक्ष अर्थात् रूखा कहा है । यह रूक्ष इसलिये है कि इसमें कर्म नहीं चिपकते हैं । जया हेमंत मासम्मि, सीयं फुसइ सव्वगं । तत्थ मंदा विसीयंति, रज्जहीणा व खत्तिया ॥ ४ ॥ • - - - - For Personal & Private Use Only - Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ अध्ययन ३ उद्देशक १ 000000000000000000000000000000000000000000000000०००००००००००००००० कठिन शब्दार्थ - हेमंत मासम्मि - हेमंत मास में, फुसइ - स्पर्श करती है, सव्वगं (सवातगं)सर्वांग को, विसीयंति - विषाद का अनुभव करते हैं, रज्जहीणा - राज्यहीन-राज्य भ्रष्ट । भावार्थ - जब हेमंत ऋतु के मासों में शीत, सब अंगों को स्पर्श करती है उस समय कायर पुरुष, राज्यभ्रष्ट क्षत्रिय की तरह विषाद अनुभव करते हैं । विवेचन - गाथा में आये हुए 'सव्वगं' के स्थान पर 'सवातगं' ऐसा पाठान्तर भी मिलता है। जिसका अर्थ है - 'ठण्डी हवा सहित' जैसे राज्य भ्रष्ट राजा मन में खेद खिन्न होता है कि - मैंने लड़ाई भी लड़ी, इतने सैनिक भी मारे गये और राज्य. भी हाथ से चला गया। इसी प्रकार कायर साधक भी कड़ाके की ठण्ड और बर्फीली हवा रूप उपसर्ग आने पर यह सोच कर खिन्न होता है कि- मैंने घर बार भी छोड़ा, सुख सुविधायें भी छोड़ी, घरवालों को नाराज भी किया उनका कहना नहीं माना। अब मुझे ऐसी असह्य सर्दी का कष्ट सहना पड़ रहा है। पुढे गिम्हाहितावेणं, विमणे सुपिवासिए । तत्थ मंदा विसीयंति, मच्छा अप्पोदए जहा ॥५॥ कठिन शब्दार्थ - गिम्हाहितावेणं - ग्रीष्माभिताप-ग्रीष्म ऋतु के अभिताप (गर्मी) से, विमणे - विमन-उदास, सुपिवासिए - सुपिपासिंत-प्यास से युक्त, मच्छा - मछली, अप्पोदए - अल्पोदक-थोड़े जल में । भावार्थ - ज्येष्ठ आषाढ़ मासों में जब भयंकर गर्मी पड़ने लगती है उस समय उस गर्मी से और प्यास से पीड़ित नवदीक्षित साधु उदास हो जाता है । उस समय अल्पशक्ति कायर पुरुष इस प्रकार विषाद अनुभव करता है जैसे थोड़े जल में मछली विषाद अनुभव करती है । .... विवेचन - जैसे गर्मी के दिनों में जलाशय का जल कम हो जाने पर मछली गर्मी से तप्त होकर दुःखी होती है इसी तरह अल्प पराक्रमी साधक भी चारित्र लेकर मैल और पसीने से भीगा हुआ तथा बाहर की गर्मी से तप्त हुआ हुआ पूर्व भोगे हुए शीतल जल से स्नान, चन्दन का लेप आदि पदार्थों को स्मरण करता है। इस प्रकार व्याकुल चित्त होकर संयम के अनुष्ठान में खेद का अनुभव करता है। सया दत्तेसणा दुक्खा, जायणा दुप्पणोल्लिया ।। कम्मत्ता दुब्भगा चेव, इच्चाहंसु पुढो जणा ॥६॥ कठिन शब्दार्थ - दत्तेसणा - दत्तैषणा-दूसरे के द्वारा दी हुई वस्तु की ही अन्वेषण करना, जायणा - याचना-भिक्षा मांगने का कष्ट, दुप्पणोल्लिया - दुसह्य, कम्मत्ता - पूर्वकृत पाप कर्म का फल भोग रहे हैं, दुब्भगा -.दुर्भग-भाग्यहीन । भावार्थ - साधु को दूसरे के द्वारा दी हुई वस्तु को ही अन्वेषण करने का दुःख, सदा बना रहता For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ ०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० है । याञ्चा का परीषह सहन करना बहुत कठिन है । उस पर भी साधारण पुरुष साधु को देखकर कहते हैं कि ये लोग अपने पूर्व कृत पाप कर्म का फल भोग रहे हैं तथा भाग्यहीन हैं। विवेचन - पञ्च महाव्रतधारी साधु-साध्वी अठारह पापों के त्यागी होते हैं। इसलिये वे आरम्भ आदि स्वयं नहीं करते, न करवाते और करते हुए का अनुमोदन भी नहीं करते। संयम जीवन का निर्वाह करने के लिए शरीर को भाड़ा देने रूप गोचरी द्वारा आहार आदि दूसरों से मांग कर लाते हैं। उसको जायणा (याञ्चा) परीषह कहते हैं। संयम के स्वरूप को नहीं जानने वाले गोचरी आदि करते हुए साधु को देख कर कहते हैं कि - 'इनको कमा कर खाना नहीं आता इसलिये साधु-बनकर मांग कर खाते हैं।' ये भाग्य हीन हैं और अपने पूर्वजन्म में किये हुए पापों का फल भोग रहे हैं । अनार्य पुरुषों के ऐसे वचनों को सुन कर साधु को खेदखिन्न नहीं होना चाहिये बल्कि इन परीषहों को समभावं पूर्वक सहन । करना चाहिये। एए सद्दे अचायंता, गामेसु णगरेसु वा । तत्थ मंदा विसीयंति, संगामम्मि व भीरुया ॥७॥ कठिन शब्दार्थ - सद्दे - शब्दों को, अचायंता - सहन नहीं कर सकते हए, संगामम्मि - संग्राम में, भीरुया (भीरुणो)- भीरु (कायर) पुरुष । भावार्थ - ग्राम नगर अथवा अंतराल में स्थित मंदमति प्रव्रजित पूर्वोक्त निन्दाजनक शब्दों को सुनकर इस प्रकार विषाद करता है जैसे संग्राम में कायर पुरुष विषाद करता है । । । अप्पेगे खुधियं भिक्खू, सुणी डंसइ लूसए । तत्थ मंदा विसीयंति, तेउपुट्ठा व पाणिणो ॥८॥ कठिन शब्दार्थ - अपि - भी, एगे - कितनेक, खुधियं - क्षुधित - भूखे, लूसए - लूषक-क्रूर प्राणी, तेउपुट्ठा - तेज (अग्नि) के द्वारा स्पर्श किया हुआ, पाणिणो - प्राणी । भावार्थ - भिक्षार्थ भ्रमण करते हुए क्षुधित साधु को यदि कोई क्रूर प्राणी कुत्ता आदि काटता है तो उस समय कायर प्रव्रजित इस प्रकार दुःखी हो जाते हैं जैसे अग्नि के स्पर्श से प्राणी घबराते हैं। विवेचन - "खुधियं" के स्थान पर "खुझियं" और 'झुझियं' ऐसा पाठान्तर भी मिलता है। तीनों शब्दों की संस्कृत छाया 'क्षुधित' होती है जिसका अर्थ है - 'भूखा' । प्रथम तो साधु भूखा है इसलिये गोचरी के लिये निकला है। उस समय कुत्ता आदि क्रूर प्राणी उस पर झपटता है और काट भी खा जाता है। तब वह नव-दीक्षित एवं कायर साधक घबरा जाता है। किन्तु संयम में परीषह उपसर्ग तो आते ही हैं। मोक्षार्थी साधक को घबराना नहीं चाहिये। शूर वीर बन कर आये हुये परीषह उपसर्गों को दृढ़ता के साथ समभाव पूर्वक सहन करना चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५ अध्ययन ३ उद्देशक १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 अप्पेगे पडिभासंति, पडि-पंथिय-मागया । पडियारगया एए, जे एए एव जीविणो ॥९॥ कठिन शब्दार्थ-पडिभासंति - कहते हैं, पडिपंथियमागया- प्रातिपथिकमागत-साधु के द्वेषी, पडियारगया - प्रतीकार गता-पूर्वकृत पाप कर्म का फल भोगने वाले । भावार्थ - साधु के द्रोही पुरुष साधु को देखकर कहते हैं कि भिक्षा मांग कर जीवन निर्वाह करने वाले ये लोग अपने पूर्वकृत पाप कर्म का फल भोग रहे हैं। _ विवेचन - साधुता के स्वरूप को न जानने वाले अज्ञानी पुरुष इस प्रकार कह देते हैं कि - भिक्षा के लिये दूसरों के घरों में घूमने वाले अन्त प्रान्त भोजी, दिया हुआ आहार लेने वाले, सिर का लोच करने वाले सब सोसारिक भोगों से वंचित रह कर दुःख मय जीवन व्यतीत करने वाले जो ये साधु लोग हैं वे अपने पूर्व कृत पापकर्म का फल भोगते हैं। इस प्रकार वे अज्ञानी पुरुष पापकर्म का बन्ध करते हैं। अप्पेगे वइं जुंजंति, णगिणा पिंडोलगाहमा । मुंडा कंडू विणटुंगा, उज्जल्ला असमाहिया ॥१०॥ कठिन शब्दार्थ- जंजंति - कहते हैं, णगिणा (णिगिणा)- नंगे, पिंडोलगा - परपिंडार्थी, अहमा - अधम, मुंडा - मुंडित, कंडू - खुजली, विणट्ठगा - नष्ट अंग वाले, उज्जल्ला - मल युक्त। भावार्थ - कोई अज्ञानी द्वेषी पुरुष, जिनकल्पी आदि साधु को देखकर कहते हैं कि "ये नंगे हैं, परपिंडार्थी (भिक्षा मांग कर लाने वाले) हैं तथा अधम हैं । ये लोग मुंडित (अपशकुन करने वाले) तथा कंडुरोग (खुजली) से नष्ट अंग वाले, मल से युक्त बीभत्स (डरावने) हैं और दूसरों को असमाधि (पीड़ा) पहुँचाने वाले हैं । - विवेचन - गाथा में 'उजल्ला' शब्द दिया है जिसका अर्थ इस प्रकार है - 'उत जल्ल, उत् गतः जल्ल-शुष्कप्रस्वेदो येषां ते उज्जल्लाः ।' शरीर पर जमा हुआ मैल पसीना आने से वह वापिस गीला बना हुआ। जैन मुनि जीवन पर्यन्त स्नान नहीं करते। . एवं विप्पडिवण्णेगे, अप्पणा उ अजाणया । तमाओ ते तमं जंति, मंदा मोहेण पाउडा ॥११॥ कठिन शब्दार्थ-विप्पडिवण्णा- विप्रतिपन्नक-द्रोह करने वाले, एगे-कितनेक, तमाओ- अज्ञान रूप अंधकार से, तमं - अंधकार (अज्ञान) में ही, जंति - जाते हैं, पाउडा - प्रावृत-ढके हुए। भावार्थ - इस प्रकार साधु से और सन्मार्ग से द्रोह करने वाले स्वयं अज्ञानी, जीव मोह से ढके हुए मूर्ख हैं और वे एक अज्ञान से निकलकर दूसरे अज्ञान रूपी अंधकार में प्रवेश करते हैं। For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 00000000.......................0000000000 - विवेचन - अज्ञानी और अविवेकी पुरुष ही साधु-जन की निन्दा करते हैं। क्योंकि अज्ञान और अविवेक के कारण वे अंध पुरुष के तुल्य हैं। जैसे कि कहा है एकं हि चक्षुरमलं सहजो विवेकः, तद्वद्भिरेव सह संवसतिर्द्वितीयम् ।। एतद् द्वयं भुवि न यस्य स तत्त्वतोऽन्धः, तस्यापमार्गचलने खलु को पराध: ? ।। १ ।। अर्थ - एक नेत्र तो स्वाभाविक निर्मल विवेक है और दूसरा नेत्र विवेकी पुरुषों के साथ सङ्गति कर निवास करता है । परन्तु जिसके पास ये दोनों नेत्र नहीं है वास्तव में पृथ्वी पर वही पुरुष अन्धा है। वह यदि कुमार्ग पर जाय तो इसमें उसका क्या दोष है। ज्ञानी पुरुष इस चमडे की आंख को वास्तविक आंख न कह कर विवेक को वास्तविक आंख कहते हैं। हिन्दी कवि ने भी कहा है ९६ ..............................00 - लाखिणो तो मानव कहिये, विवेक निन्याणु हजार । एक हजार में सब गुण समझो, विवेक बिना सब निस्सार । अतः अज्ञानी और अविवेकी पुरुषों के वचनों से मुनि को खेदित नहीं होना चाहिये । पुट्ठो य दंसमसएहिं, तण - फास - मचाइया । ण मे दिट्ठे परे लोए, जइ परं मरणं सिया ॥ १२॥ कठिन शब्दार्थ - दंसमसएहिं दंशमशक- दंश और मच्छरों से, तण फासं तृण स्पर्श को, अचाइया - सहन नहीं कर सकता। भावार्थ - दंश और मच्छरों का स्पर्श पाकर तथा तृण की शय्या के रूक्ष स्पर्श को सहन नहीं कर सकता हुआ नवीन साधु यह भी सोचता है कि मैंने परलोक को तो प्रत्यक्ष नहीं देखा है परंतु इस कष्ट से मरण तो प्रत्यक्ष दीखता है । - विवेचन - इस गाथा में दंस (डांस) और मच्छरों का परीषह कहा गया है। तृणों का रूखा स्पर्श और दंसमसग परीषह मुनि को समभाव पूर्वक सहन करना चाहिये । संतत्ता केसलोएणं, बंभचेर - पराइया । तत्थ मंदा विसीयंति, मच्छा विट्ठा व केयणे ॥ १३ ॥ - कठिन शब्दार्थ - संतत्ता संतप्त पीड़ित, केसलोएणं केश लोच से, बंभचेरपराइया - ब्रह्मचर्य से पराजित, विट्ठा ( पविट्ठा) - फंसी हुई, केयणे - जाल में । - - For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. अध्ययन ३ उद्देशक.१ भावार्थ - केशलोच से पीडित और ब्रह्मचर्य पालन में असमर्थ पुरुष प्रव्रज्या लेकर इस प्रकार क्लेश पाते हैं जैसे जाल में फंसी हुई मछली दुःख भोगती है । विवेचन - जैसे जाल में फंसी हुई मछली खेदित होती है । इसी प्रकार संयम लेकर कायर पुरुष केशलोच और ब्रह्मचर्य पालन रूप कष्ट से घबरा कर सोचता है कि - मैं तो अब संयम रूपी जाल में फंस गया हूँ । ज्ञानी फरमाते हैं कि - संयम जाल (बन्धन) नहीं है । किन्तु कर्मबन्ध रूप जाल को काट कर अव्याबाध सुखों की प्राप्ति रूप मोक्ष का अमोघ उपाय है । .. आयदंडसमायारे, मिच्छासंठिय भावणा । हरिस-प्पओस-मावण्णा, केइ लूसंतिऽणारिया ॥१४॥ कठिन शब्दार्थ - आयदंडसमायरे (रा)- आत्मदंड समाचार-ऐसा आचार करने वाले जिससे आत्मा दंडित हो, मिच्छा संठिय भावणा - विपरीत चित्त वृत्ति वाले, हरिसप्पओसमा- वण्णा - राग द्वेष से युक्त, लूसंति - पीड़ा देते हैं, अणारिया - अनार्य पुरुष। भावार्थ - जिससे आत्मा दण्ड का भागी होता है ऐसा आचार करने वाले तथा जिनकी चित्तवृत्ति विपरीत है और जो राग तथा द्वेष से युक्त हैं ऐसे कोई अनार्य पुरुष साधु को पीड़ा देते हैं । विवेचन - धर्म के द्वेषी पुरुष ही साधु को पीड़ा पहुंचाते हैं। यह उनका अज्ञान है । अप्पेगे पलियंतेसिं, चारो चोरो त्ति सुव्वयं ।। बंभंति भिक्खुयं बाला, कसायवयणेहि य ॥१५॥ कठिन शब्दार्थ - पलियंतेसिं - विचरते हुए, सुव्वयं - सुव्रत, कसायवयणेहि- कटु वचनों से। भावार्थ - कोई अज्ञांनी पुरुष, अनार्य्य देश के आसपास विचरते हुए सुव्रत साधु को "यह चोर है अथवा चार-खुफिया है।" ऐसा कहते हुए रस्सी आदि से बाँध देते हैं और कटु वचन कह कर उनको पीडित करते हैं। तत्य दंडेण संवीए, मुट्ठिणा अदु फलेण वा । णाईणं सरइ बाले, इत्थी वा कुद्धगामिणी ॥१६॥ कठिन शब्दार्थ - संवीए - ताडित किया हुआ, मुट्ठिणा - मुष्टि-मुक्का से, णाईणं - ज्ञातिजन को, सरइ- स्मरण करता है, कुद्धगामिणी - क्रोधित हो कर जाने वाली। भावार्थ - उस अनार्य देश के आसपास विचरता हुआ साधु जब अनार्य पुरुषों के द्वारा लाठी मुक्का अथवा फल के द्वारा पीटा जाता है तब वह अपने बन्धु बान्धवों को उसी प्रकार स्मरण करता है जैसे क्रोधित होकर घर से निकलकर भागती हुई स्त्री अपने ज्ञातिवर्ग को. स्मरण करती है । विवेचन - ससुराल में रहती हुई किसी पुत्रवधू को उसके सासु श्वसुर कुछ कह देते हैं तो वह For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000००००००००० क्रोधित होकर घर से निकल जाती है । फिर जंगल में जाती हुई उस स्थिति को देख कर चोर जार आदि उसका पीछा कर उसे पकड़ लेते हैं और उसे अनेक तरह से कष्ट पहुँचाते हैं तब वह अपने घर वालों को याद करती है। इसी प्रकार कायर साधक भी परीषह उपसर्ग आने पर अपने पूर्व भोगी हुई सुख सुविधाओं को और स्वजनों को याद करता है। एए भो कसिणा फासा, फरुसा दुरहियासया । हत्थी वा सरसंवित्ता, कीवावस गया गिहं ।। १७ ॥ त्ति बेमि । कठिन शब्दार्थ - कसिणा - कृत्स्न-सम्पूर्ण, फरुसा - परुष-कठोर, दुरहियासया - दुःसह, सरसंवित्ता - बाणों से पीड़ित, कीवा - क्लीव-कायर-नपुंसक, अवस - घबरा कर, गिहं - घर को, गया - चले जाते हैं। भावार्थ - हे शिष्यो ! पूर्वोक्त उपसर्ग सभी असह्य और दुःखदायी हैं उनसे पीड़ित होकर कायर पुरुष फिर गृहवास को ग्रहण कर लेते हैं । जैसे बाण से पीड़ित हाथी संग्राम को छोड़कर भाग जाता है इसी तरह गुरुकर्मी जीव संयम को छोड़कर भाग जाते हैं । त्ति बेमि - इति ब्रवीमि - श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन्. जम्बू ! जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखारविन्द से सुना है वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ। विवेचन - जिस प्रकार संग्राम में गया हुआ कोई कोई हाथी बाणों के प्रहार से पीडित होने पर संग्राम छोड़ कर भाग जाता है उसी प्रकार कायर साधक भी परीषह उपसर्गों से,पीडित होकर संयम छोड़ कर वापिस गृहस्थ अवस्था में चले जाते हैं । ॥ इति पहला उद्देशक ॥ दूसरा उद्देशक उत्थानिका - प्रथम उद्देशक में प्रतिकूल परीषहों का वर्णन किया गया है । अब इस उद्देशक में अनुकूल उपसर्गों का वर्णन किया जाता है - अहिमे सुहुमा संगा, भिक्खूणं जे दुरुत्तरा । जत्थ एगे विसीयंति, ण चयंति जवित्तए ॥१॥ कठिन शब्दार्थ - सुहुमा - सूक्ष्म, संगा - संग-माता पिता आदि के साथ संबंध, दुरुत्तरा - दुस्तर, विसीपंति - विषाद को प्राप्त होते हैं-बिगड़ जाते हैं, जवित्तए - निर्वाह करने में । For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ उद्देशक २ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ - प्रतिकूल उपसर्ग कहने के पश्चात् अब अनुकूल उपसर्ग कहे जाते हैं । ये अनुकूल उपसर्ग बड़े सूक्ष्म होते हैं । साधु पुरुष, बड़ी कठिनाई के साथ इन उपसर्गों को पार कर पाते हैं। परंतु कई पुरुष इन उपसर्गों के कारण कायर और शिथिल बन जाते हैं वे संयम जीवन को निर्वाह करने में समर्थ नहीं होते हैं। विवेचन - प्रतिकूल उपसर्ग धर्मद्वेषी पुरुषों के द्वारा दिये जाते हैं और वे प्रकट रूप से बाह्य शरीर को पीडित एवं विकृत करते हैं। इसलिये उनको स्थूल उपसर्ग कहते हैं। अनुकूल उपसर्ग अपने मित्र स्नेही बन्धु बान्धवों द्वारा दिये जाते हैं । ये शरीर को नहीं किन्तु चित्त को विकृत करते हैं । इसलिये इनको आन्तरिक और सूक्ष्म तथा दुस्तर कहा है । अनुकूल उपसर्ग आने पर अल्प पराक्रमी साधक शिथिल विहारी अर्थात् संयम पालन में ढीले हो जाते हैं अथवा सर्वथा संयम को छोड़ देते हैं । अप्पेगे णायओ दिस्स, रोयंति परिवारिया । पोस णे ताय ! पुट्ठोऽसि, कस्स. ताय! जहासि णे ॥२॥ , कठिन शब्दार्थ - परिवारिया - घेर कर, पोस - पालन करो, पुट्ठो - पालन किया है, जहासि - छोड़ रहे हो। . भावार्थ - साधु के परिवार वाले, साधु को देखकर उसे घेरकर रोने लगते हैं और कहते हैं कि हे तात ! तू किसलिए हमें छोड़ता है ? हमने बचपन से तुम्हारा पालन किया है इसलिए अब तू हमारा पालन कर । विवेचन - दीक्षा लेने वाले अथवा दीक्षा लिये हुए पुरुष को उसके माता पिता आदि स्वजन स्नेही कहते हैं कि - हे पुत्र ! हमने बचपन से लेकर अब तक तुम्हारा पालन पोषण इसलिये किया है कि - 'वृद्धावस्था में तुम हमारी सेवा करोगे । अतः अब तुम हमारा पालन करो । तुम किस कारण से अथवा किसके आश्रय से हमें छोड़ रहे हो । हे पुत्र ! तुम्हारे सिवाय दूसरा हमारा कोई रक्षक या आश्रय नहीं है ।' पिया ते थेरओ ताय ! ससा ते खुड्डिया इमा । भायरो ते सगा ताय ! सोयरा किं जहासि णे ॥३॥ कठिन शब्दार्थ - थेरओ - स्थविर, ससा - स्वसा-बहिन, खुड्डिया - छोटी, सोयरा - सहोदर । भावार्थ - परिवार वाले साधु को कहते हैं कि हे तात ! यह तुम्हारे पिता वृद्ध हैं और यह तुम्हारी बहिन, अभी बच्ची है तथा ये तुम्हारे अपने सहोदर भाई हैं तू क्यों हमें छोड़ रहा है ? मायरं पियरं पोस, एवं लोगो भविस्सइ । एवं खु लोइयं ताय ! जे पालंति य नायरं ॥४॥ For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ ఆ00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कठिन शब्दार्थ - मायरं - माता. को, पियरं - पिता को, लोइयं- लौकिक-लोकाचार, पालंति (पोसेंति)- पालन करते हैं। भावार्थ - हे पुत्र ! अपने माता पिता का पालन करो । माता पिता के पालन करने से ही तुम्हारा परलोक सुधरेगा । जगत् का यही आचार है और इसीलिए लोग अपने माता पिता का पालन करते हैं। उत्तरा महुरुल्लावा, पुत्ता ते ताय ! खुड्डया । भारिया ते णवा ताय ! मा सा अण्णं जणं गमे ॥५॥ कठिन शब्दार्थ - उत्तरा - प्रधान, उत्तम, महुरुल्लावा - मधुरालाप-मधुरभाषी, खुड्डया - छोटे, णवा - नव यौवना । भावार्थ - हे तात ! एक एक कर के आगे पीछे जन्मे हुए तुम्हारे लड़के मधुरभाषी और अभी छोटे हैं। तुम्हारी स्त्री भी नवयौवना है वह किसी दूसरे के पास न चली जाय। विवेचन - छोटे छोटे बच्चों का पालन पोषण करना पिता का कर्तव्य है तथा यौवन अवस्था में स्त्री की रक्षा करना पति का कर्तव्य है। क्योंकि यदि वह उन्मार्ग गामिनी हो जाय तो महान् लोकापवाद का कारण बनता है । अत: घर में रह कर इन सब का पालन पोषण करो, यही गृहस्थ धर्म है। एहि ताय ! घरं जामो, मा य कम्म सहा वयं । बितियं पि ताय ! पासामो, जामु ताव सयं गिहं ॥६॥ कठिन शब्दार्थ - एहि - आवो, जामो - चलें, कम्म सहा- कर्म करने में सहायक, बिइयं पिदूसरी बार । भावार्थ - हे तात ! आओ घर को चलें । अब से तू कोई काम मत.करना। हम लोग तुम्हारा सब काम कर दिया करेंगे । एक बार काम से घबरा कर तू भाग आया है परंतु अब दूसरी बार हम लोग तुम्हारा सब काम कर देंगे; आओ हम अपने घर चलें । गंतुं ताय ! पुणो गच्छे, ण तेणासमणो सिया । अकामगं परिक्कम, को ते वारेउ-मरिहइ ॥७॥ कठिन शब्दार्थ - गंतुं - जा कर, असमणो - अश्रमण, अकामगे - इच्छा रहित होकर, परिक्कम - पराक्रम-कार्य करते हुए, वारेउं - निवारण करने के लिये, अरिहइ - समर्थ हो सकता है । भावार्थ - हे तात ! एक बार घर चलकर फिर आजाना ऐसा करने से तू अश्रमण (असाधु) नहीं हो सकता है । घर के कार्य में इच्छा रहित तथा अपनी रुचि के अनुसार कार्य करते हुए तुम को कौन निषेध कर सकता है ? अथवा जवान अवस्था में घर का कार्य करके माता पिता की सेवा तथा बच्चों का पालन पोषण करके वृद्धावस्था आने पर फिर संयम अंगीकार कर लेना तुम्हें कौन रोक सकता है । For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ उद्देशक २ . १०१ 00000000000000000000000000000000000000000000000 ooooooooooooooooo जं किंचि अणगं ताय ! तं पि सव्वं समीकयं । हिरण्णं ववहाराइ, तं पि दाहामु ते वयं ॥८॥ कठिन शब्दार्थ - अणगं - ऋण, समीकय - बांट कर चुका दिया है, हिरण्णं - हिरण्य-सोना चांदी, ववहाराइ - व्यवहार के योग्य, दाहामु (दासामु) - देंगे। भावार्थ - हे तात ! तुम्हारे ऊपर जो ऋण था वह भी हम लोगों ने बराबर बाँट कर ले लिया है तथा तुम्हारे व्यवहार के लिए अर्थात् व्यापार आदि करने के लिये जितने द्रव्य की आवश्यकता होगी वह भी हम लोग देंगे। इच्चेव णं सुसेहंति, कालुणीय-समुट्ठिया । . विबद्धो णाइसंगेहि, तओग्गारं पहावइ ॥९॥ कठिन शब्दार्थ - सुसेहंति - शिक्षा देते हैं, कालुंणीय समुट्ठिया- करुणा से युक्त, विबद्धो - बंधा हुआ, पहावइ - दौडता है। ___ भावार्थ - करुणा से भरे हुए बन्धु बान्धव अथवा करुणामय वचन बोल कर, साधु को उक्त रीति से शिक्षा देते हैं । पश्चात् उन ज्ञातियों के संग से बँधा हुआ गुरुकर्मी जीव, प्रव्रज्या को छोड़कर घर चला जाता है । जहा रुक्खं वणे जायं, मालुया पडिबंधइ । एवं णं पडिबंधंति, णायओ असमाहिणा ॥१०॥ .. कठिन शब्दार्थ - वणे - वन में, जायं - उत्पन्न, मालुया - मालुका-लता, असमाहिणा - असमाधि के द्वारा । ..भावार्थ - जैसे वन में उत्पन्न वृक्ष को लता बांध लेती है, उसी तरह ज्ञाति वाले असमाधि के द्वारा उस साधु को बांध लेते हैं। विवेचन - जो प्राणी को धर्म से विमुख करे वह मित्र नहीं किन्तु शत्रु है। स्वयं तो दुर्गति का भागी बनता ही है और दूसरों को भी दुर्गति में ले जाता है । जैसा कि कहा है - अमित्तो मित्तवेसेणं, कंठे घेत्तूण रोयइ । मा मित्ता सोग्गइं जाहि, दो वि गच्छामु दुग्गइं ॥ अमित्रं मित्रवेषेण, कण्ठे गृहीत्वा रोदिति ।। मा मित्र सुगतिं याहि, द्वावपि गच्छावो दुर्गतिम् ॥१॥ अर्थ - वास्तव में परिवार वर्ग मित्र नहीं किन्तु अमित्र है । वे मित्र होने का ढोंग करते हैं । मित्र For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 100000000000 0000000..... की तरह कण्ठ में लिपट कर रोता है । मानों वह यह कहता है कि- 'हे मित्र ! तू सुगति में मत जा । आओ हम और तुम दोनों ही साथ साथ दुर्गति में जायेंगे और वहां साथ साथ रहेंगे ।' विबद्धो णाइसंगेहिं, हत्थी वा वि णवग्गहे । पिट्ठओ परिसप्पंति, सुय गो व्व अदूरए ॥ ११ ॥ कठिन शब्दार्थ - णवग्गहे - नया पकड़ा हुआ, पिट्ठओ - पीछे, परिसप्पंति - चलते हैं, सुगो - नयी ब्यायी हुई गाय, अदूरए दूर नहीं होती । भावार्थ - जब वह बंधुओं के स्नेह में बंध जाता है तब वे उसे पकड़े हुए नये हाथी के समान रखते हैं और वे उसको सदा चारों ओर से इस प्रकार घेर रहते हैं कि जिस प्रकार कि गाय अपने . अभी जमे हुए बच्चे को नहीं छोड़ती । विवेचन - जैसे हाथी को पकड़ने वाले जंगल में जाकर हाथी को पकड़ते हैं तब वे लोग कुछ दिन तक नवीन पकडे हुए हाथी के इच्छानुसार बर्ताव करते हैं तथा जैसे नवीन ब्याई हुई गाय बछड़े के पीछे पीछे फिरती है इसी प्रकार वे पारिवारिक जन साधुपने से पतित अपने पुत्रादि के इच्छानुसार करते' हैं तथा उसको चारों ओर से घेरे रहते हैं । एए संगा मणूसाणं, पायाला व अतारिमा । कीवा जत्थ य किस्संति, णाइसंगेहिं मुच्छिया ॥१२॥ कठिन शब्दार्थ - पायाला पाताल - समुद्र में रहे हुए पाताल-कलश, अतारिमा दुस्तर, कीवा - क्लीव - पुरुषत्वहीन, किस्संति क्लेशित होते हैं, णाइसंगेहिं ज्ञातीजनों के संग से । भावार्थ - इस प्रकार सत्त्व - हीन - आत्मबल से रहित पुरुष, इन मनुष्यों के अतल सागर के सम स्नेह-सम्बन्धों से पार नहीं हो सकते हैं और बन्धुओं के संग से आसक्त होकर दुःखी होते हैं । विवेचन - 'पायाला' शब्द से पाताल अर्थात् समुद्र का भी ग्रहण हुआ है और लवण समुद्र में रहे हुए वडवामुख, ईश्वर, केतु और यूपक इन चार पाताल कलशों का भी ग्रहण हुआ है। ये चारों पाताल कलश लवण समुद्र में एक लाख योजन ऊंडे चलें गये हैं। जैसे समुद्र में पड़े हुए प्राणी का बाहर निकलना कठिन है किन्तु माता पिता आदि स्वजन वर्ग का स्नेह रूपी समुद्र और पातालकलश को पार करना उससे भी ज्यादा कठिन है । · - तं च भिक्खू परिण्णाय, सव्वे संगा महासवा । जीवियं णावकंखिज्जा, सोच्चा धम्म- मणुत्तरं ॥ १३ ॥ कठिन शब्दार्थ - महासवा - महाआस्रव, परिण्णाय जान कर, अणुत्तरं - अनुत्तर-प्रधान, धम्मं - धर्म को । - - For Personal & Private Use Only - Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ - साधु ज्ञातिवर्ग अर्थात् पारिवारिक जनों के संसर्ग को संसार का कारण जान कर छोड़ देवे क्योंकि सभी सांसारिक सम्बन्ध कर्म बन्ध के महान् आस्रव द्वार होते हैं । सर्वोत्तम इस जिनधर्म को सुन कर असंयम जीवन की इच्छा न करे । - अहिमे संति आवट्टा, कासवेणं पवेइया । बुद्धा जत्थावसप्पंति, सीयंति अबुहा जहिं ॥ १४॥ अथ - इसके बाद, इमे य, आवट्टा आवर्त्त, अवसप्पंति दूर हो जाते कठिन शब्दार्थ - अह - हैं, सीयंति - फंस जाते हैं । भावार्थ - काश्यप गोत्रीय श्रमण भगवान् महावीर प्रभु ने इन संगों को आवर्त्त = चक्र = भँवर कहा है । ज्ञानी तो उससे दूर हो जाते हैं और अज्ञानी उसमें पड़ कर दुःख पाते हैं । रायाणो राय मच्चा य, माहणा अदुव खत्तिया । णिमंतयंति भोगेहिं, भिक्खुयं साहु जीविणं ॥ १५॥ कठिन शब्दार्थ - रायऽमच्या राज अमात्य - राज्यमंत्री, माहणा णिमंतयंति - आमंत्रित करते हैं, भोगेहिं - भोगों से । ब्राह्मण, खत्तिया - क्षत्रिय, भावार्थ राजा महाराजा और राजमंत्री तथा ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय, उत्तम आचार से जीवन निर्वाह करने वाले साधु को भोग भोगने के लिये आमंत्रित करते हैं । . हत्थऽस्स रह जाणेहिं, विहार-गमणेहि य । - अध्ययन ३ उद्देशक २ - - भुंज भोगे इमे सग्घे, महरिसी पूजयामु तं ॥ १६॥ कठिन शब्दार्थ - हत्थ - हत्थी - हाथी, अस्स अश्व, रह- रथ, जाणेहिं यान के द्वारा, विहारगमणेहि उद्यान क्रीड़ा से, भुंज - भोगो, भोगे - भोगों को, सग्घे श्लाघनीय, महरिसी महर्षि, पूजयामु- पूजा करते हैं सत्कार करते हैं । भावार्थ- पूर्वोक्त चक्रवर्ती आदि मुनि के निकट उपस्थित होकर कहते हैं कि हे महर्षे ! तुम, हाथी, घोड़ा रथ और पालकी आदि पर बैठो तथा क्रीड़ा के लिए बगीचे आदि में चला करो । तुम इन उत्तम भोगों को भोगो । हम तुम्हारी पूजा करते हैं, सत्कार करते हैं । वत्थ-गंध-मलंकारं इत्थीओ सयणाणि य । भुंजाहिमाइं भोगाइ, आउसो ! पूजयामु तं ॥ १७॥ कठिन शब्दार्थ वस्त्र, गंधं गंध, अलंकारं सयणाणि शय्या, भोगाइ - - - १०३ ******0.000 For Personal & Private Use Only - वत्थ अलंकार, इत्थिओ - स्त्रियाँ, भोगों को, भुंजाहि- भोगो, आउसो - आयुष्मन् ! । - - Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000 000000000000000000000000000000000 भावार्थ - हे आयुष्मन् ! वस्त्र, गंध, अलंकार-भूषण, स्त्रियाँ और शव्या इन भोगों को आप भोगें। हम आपकी पूजा करते हैं, सत्कार करते हैं। जो तुमे णियमो चिण्णो, भिक्खु भावम्मि सुव्वया। अगार-मावसंतस्स, सव्वो संविग्जए तहा ॥१८॥ कठिन शब्दार्थ - चिण्णो - अनुष्ठान किया है भिक्खु भावम्मि - भिक्षु जीवन में, अगारं - घर में, आवसंतस्स - रहते हुए भी, संविजए - विद्यमान रहेंगे । भावार्थ - हे सुन्दरव्रतधारिन् ! तुमने जिन महाव्रत आदि नियमों का अनुष्ठान किया है, वह सब गृहवास करने पर भी उसी तरह बने रहेंगे। चिरं दूइज्जमाणस्स, दोसो दाणिं कुओ तव ? । इच्चेव णं णिमंतेंति, णीवारेण व सूयरं ॥१९॥ कठिन शब्दार्थ - चिरं - बहुत काल तक, दूइज्जमाणस्स-संयम पालन करने वाले के, दाणिं - इदानीं-इस समय, णीवारेण- चावल के दानों से सूयरं - सूअर को । - भावार्थ - हे मुनिवर ! आपने बहुकाल तक संयम का अनुष्ठान किया है । अब भोग भोगने पर भी आपको दोष नहीं हो सकता है इस प्रकार भोग भोगने का आमंत्रण देकर लोग साधु को उसी तरह फंसा लेते हैं जैसे चावल के दानों से सूअर को फँसाते हैं । । विवेचन - गाथा १५ से लेकर १९ तक इन पांच गाथाओं में भोग भोगने रूंप अनुकूल परीषह का वर्णन किया गया है । जिस प्रकार ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ने अपने पूर्वभव के भाई चित्तमुनि को भोगों के लिये निमंत्रित किया था । उसी प्रकार कोई चक्रवर्ती तथा राजमंत्री आदि साधु से कहते हैं कि - हे मुनिवर ! आपने बहुत लम्बे समय तक संयम का पालन किया है । अतः अब भोग भोगने में आपको कोई दोष नहीं लगता । इस प्रकार कहते हुए वे लोग हाथी, घोडा, रथ आदि तथा वस्त्र, गंध, अलंकार आदि नानाविध साधनों के द्वारा संयमी साधु को भोग बुद्धि उत्पन्न करते हैं । इस विषय में दृष्टांत दिया गया है - जैसे चावल के दानों के द्वारा सूअर को कूटपाश में फंसा लेते हैं इसी तरह ये लोग साधु को भी असंयम में फंसाने का प्रयत्न करते हैं और निर्बल एवं कायर साधु को फंसा भी लेते हैं । क्योंकि अनुकूल परीषह को जीतना बड़ा कठिन है । चोइया भिक्खुचरियाए, अचयंता जवित्तए । तत्थ मंदा विसीयंति, उजाणंसि व दुब्बला ॥ २०॥ कठिन शब्दार्थ - चोइया - प्रेरित किये हुए, भिक्खु-चरियाए - भिक्षु चर्या-साधु समाचारी, अचयंता - असमर्थ, जवित्तए - निर्वाह करने में, उज्जाणंसि - ऊंचे मार्ग में, दुब्बला - दुर्बल बैल । For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000 ***************................****600* भावार्थ - साधु समाचारी को पालन करने के लिए आचार्य आदि से प्रेरित किए हुए अज्ञानी जीव उस साधु समाचारी का पालन नहीं कर सकते हुए संयम को त्याग देते हैं जैसे ऊंचे मार्ग में दुर्बल बैल गिर जाते हैं । अध्ययन ३ उद्देशक २ अचयंता व लूहेणं, उवहाणेण तजिया । तत्थ मंदा विसीति, उज्जाणंसि जरग्गवा ॥ २१ ॥ कठिन शब्दार्थ - अचयंता असमर्थ लूहेणं - रूक्ष संयम को उवहाणेण - उपधान-तप से तज्जिया - पीडित, जरग्गवा बूढा बैल । भावार्थ- संयम को पालन करने में असमर्थ और तपस्या से भय पाते हुए अज्ञानी जीव, संयम मार्ग में इस प्रकार क्लेश पाते हैं जैसे ऊंचे मार्ग में बूढ़ा बैल कष्ट पाता है । विवेचन - गाथा क्रमांक २० और २१ वीं गाथां में "उज्जाण' शब्द दिया है जिसका प्रचलित एवं सामान्य अर्थ होता है 'उद्यान' अर्थात् बगीचा । परन्तु यहां पर टीकाकार ने उज्जाण-उद्यान शब्द का अर्थ इस प्रकार किया है - - १०५ 'उत्- ऊर्ध्वं यानं उद्यानं मार्गस्य उन्नतो भाग उट्टङ्ग इति अर्थ ः ' अर्थ - मार्ग के ऊंचे भाग को उद्यान कहते हैं अर्थात् पर्वत पर चढ़ाई आदि ऊंचे मार्ग को एवं विषम मार्ग को उद्यान कहते हैं । गाथा में 'लूह' - रूक्ष - शब्द दिया है जिसका अर्थ संयम किया गया है । क्योंकि संयम इन्द्रियों का निग्रह रूप होने से नीरस है । गाथा में 'भिक्खुचरिया' शब्द का अर्थ भिक्षु चर्या दिया है जिसका अर्थ है इच्छाकार, मिच्छाकार आदि साधु की दस प्रकार की समाचारी का पालन करना तलवार की धार के समान कहा गया है । गुरु महाराज के द्वारा इस समाचारी का पालन करने के लिये प्रेरणा किये जाने पर कई अज्ञानी और कायर पुरुष संयम पालन करने में ढीले हो जाते हैं और चिन्तामणी के तुल्य संयम को ही छोड़ देते हैं । इस विषय में शास्त्रकार ने दृष्टान्त दिया है कि जैसे महान् भार से दबे हुए निर्बल बैल ऊंचे स्थान की चढ़ाई में गर्दन को नीचा कर बैठ जाते हैं । वे उस उठाये भार को वहन करने में समर्थ नहीं होते हैं। इसी तरह अज्ञानी कायर साधक ग्रहण किये हुए पांच महाव्रत रूपी भार को वहन करने में असमर्थ होकर संयम को छोड़ देते हैं । एवं णिमंतणं लद्धुं मुच्छिया गिद्ध इत्थीसु । अझोववण्णा कामेहिं, चोइज्जता गया गिहं ॥ त्ति बेमि । — For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कठिन शब्दार्थ - लद्धं- पाकर, अज्झोववण्णा - अध्युपपन्न-दत्तचित्त-आसक्त चोइज्जंताप्रेरित किये हुए, गिहं - गृह को, गया - चले गये । भावार्थ - पूर्वोक्त प्रकार से भोग भोगने का आमंत्रण पाकर कामभोग में आसक्त, स्त्री में मोहित एवं विषय भोग में दत्तचित्त पुरुष, संयम पालन के लिए गुरु आदि के द्वारा प्रेरित होकर फिर गृहस्थ बन जाते हैं। त्ति बेमि - श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन् जम्बू ! जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखारविन्द से सुना है वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ । ॥ इति दूसरा उद्देशक ॥ तीसरा उद्देशक जहा संगाम कालम्मि, पिट्ठओ भीरु वेहइ । वलयं गहणं णूमं, को जाणइ पराजयं ॥१॥ कठिन शब्दार्थ - संगाम कालम्मि - संग्राम-युद्ध के समय में, पिट्ठओ - पीछे की ओर, भीरु - कायर, वेहइ - देखता है, वलयं - गड्ढा, गहणं - गहन स्थान, णूमं - गुफा आदि छिपा हुआ स्थान, जाणइ - जानता है, को - कौन, पराजयं - पराजय को । भावार्थ - जैसे कायर पुरुष, युद्ध के समय पहले आत्मरक्षा के लिए गड्ढा, गहन और छिपा हुआ स्थान देखता है । वह सोचता है कि युद्ध में किसका पराजय होगा यह कौन जानता है ? अतः संकट आने पर उक्त स्थानों में आत्मरक्षा हो सकती है इसलिए पहले छिपने के स्थान देख लेता है । मुहुत्ताणं मुहंत्तस्स, मुहुत्तो होइ तारिसो । पराजियाऽवसप्पामो, इइ भीरु उवेहइ ॥२॥ कठिन शब्दार्थ - मुहुत्ताणं - मुहूत्र्तों में, मुहुत्तस्स - मुहूर्त का, तारिसो - कोई ऐसा, अवसप्पामोछिप सकें, उवेहइ - देखता है । भावार्थ - बहुत मुहूर्तों का अथवा एक ही मुहूर्त का कोई ऐसा अवसर विशेष होता है जिसमें जय या पराजय की संभावना रहती है इसलिए "हम पराजित होकर जहां छिप सकें" ऐसे स्थान को कायर पुरुष पहले ही सोचता है अथति छिपने के स्थान का विचार कर लेता है । For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं तु समणा एगे, अबलं णच्चाणं अप्पगं । अणागयं भयं दिस्स, अवकप्पंतिमं सुयं ॥ ३ ॥ अध्ययन ३ उद्देशक ३ कठिन शब्दार्थ दिस्स देख कर, अवकप्पंति - रक्षक मानते हैं । भावार्थ - इसी प्रकार कोई श्रमण जीवनभर संयम पालन करने में अपने को समर्थ नहीं देखकर भविष्यत् काल में होनेवाले दुःखों से बचने के लिए व्याकरण और ज्योतिष आदि शास्त्रों को अपना रक्षक मानते हैं । - अबलं - निर्बल, असमर्थ अणागयं अनागत- भविष्य के, भयं भय को, - को जाणइ विऊवातं, इत्थीओ उदगाउ वा । चोइज्जता पवक्खामो, ण णो अस्थिपकप्पियं ॥४॥ कठिन शब्दार्थ - विऊवातं (वियावायं ) - व्यापात - संयम भ्रष्ट उदगाउ- उदक- कच्चे पानी से, चोइज्जता - किसी के पूछने पर, पवक्खामो - बतावेंगे, पकप्पियं पूर्वोपार्जित द्रव्य । भावार्थ - संयम पालन करने में अस्थिरचित्त पुरुष यह सोचता है कि " स्त्री सेवन से अथवा कच्चे पानी के स्नान से, किस प्रकार मैं संयम भ्रष्ट होऊँगा यह कौन जानता है ? मेरे पास पूर्वोपार्जित द्रव्य भी नहीं है अतः यह जो हमने हस्तिशिक्षा और धनुर्वेद आदि विद्याओं का शिक्षण प्राप्त किया है इनसे ही संकट के समय मेरा निर्वाह हो सकेगा । - १०७ विवेचन - संयम अङ्गीकार करने के बाद साधक को चाहिये कि वह वीतराग प्रणीत आगमों का अध्ययन करें । किन्तु ज्योतिष, हस्तरेखा आदि पापसूत्रों का अध्ययन न करें । इस सन्दर्भ में यह भी जान लेना चाहिये कि B. A., M. A., Ph. D., D. Lt. आदि सांसारिक उपाधियां प्राप्त करने में परिश्रम न करे क्योंकि ये सब पापसूत्रों की गिनती में आते हैं । गृहस्थ लोग दो प्रयोजनों के लिये इन डिग्रियों को प्राप्त करते हैं । यथा - १. M. A. आदि का सर्टिफिकेट हो तो सरकारी नौकरी आदि सरलता से मिल सकती है जिससे जीवन निर्वाह सरलता से हो सकता है । दूसरा प्रयोजन शादी विवाह का है कि M. A. आदि की डिग्री प्राप्त हो तो अच्छा घर, वधू, वर मिल सकता है । पंचमहाव्रतधारी साधु को ये दोनों काम करने नहीं है । उनको तो वह तीन करण तीन योग से त्यागं कर चुका हैं । उसका लक्ष्य तो मोक्ष का है । 1 - णिस्ते सियाऽमुहरी, बुद्धाणं अंतिए सया । अट्ठजुत्ताणि सिक्खिज्जा, णिरद्वाणि उ वज्जए । (उत्तराध्ययन सूत्र अ. १ गाथा ८ ) अर्थ - मोक्ष मार्ग के साधक साधु साध्वी को चाहिये कि सदा अतिशय शान्त और वाचालता For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ___ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 रहित कम बोलने वाला होवे तथा आचार्य आदि के पास में मोक्ष अर्थ वाले आगमों को सीखे और निरर्थक अर्थात् मोक्ष अर्थ से रहित ज्योतिष, वैद्यक, आदि विद्याओं का त्याग करे । - सांसारिक डिग्रियां प्राप्त करने के लिये गृहस्थों की अधीनता स्वीकार करनी पड़ती है । अध्यापकों एवं प्रोफेसरों को वेतन दिलाना, कॉलेज, युनिवर्सिटी आदि के फार्म भरना आदि परिग्रह के प्रपञ्च में पड़ना पड़ता है इसलिये ये सांसारिक डिग्रियां प्राप्त करना साधु साध्वियों के लिये उचित नहीं है । पञ्च परमेष्ठी रूप णमोकार रूपी महामंत्र का पांचवां पद प्राप्त हो गया तो मुनि पद के सामने सब डिग्रियां हलकी और तुच्छ हैं क्योंकि मुनिपद के आगे चक्रवर्ती पद भी नीचा है । यहां तक कि अरिहंत, सिद्ध आदि चार पद प्राप्त करने का मूल भी पांचवां पद है । विद्या का फल है शान्ति प्राप्त करना । वह सांसारिक विद्याओं से प्राप्त नहीं होता है । जैसा कि कहा है - उपशमफलाद् विद्याबीजात् फलं धनमिच्छतां, भवति विफलो यद्ययासस्तदत्र किं अदभुतम् ?। न नियतफलाः कर्तुर्भावाः फलान्तरमीशते, जनयंति खलु प्रीहेबीजं न जातु यवाङ्कुरम् ।।१।। अर्थ - विद्या रूपी बीज शान्ति रूप फल को उत्पन्न करता है उस विद्या रूपी बीज से जो धन रूपी फल चाहता है उसका परिश्रम यदि व्यर्थ हो तो इसमें क्या आश्चर्य है ? क्योंकि पदार्थों का फल नियत होता है इसलिये जिस पदार्थ का जो फल है उससे अन्य फल वह नहीं दे सकता है । क्योंकि जव (धान्य) का बीज चावल का अङ्कर कभी उत्पन्न नहीं कर सकता है । इच्चेव पडिलेहंति, वलया पडिलेहिणो । वितिगिच्छ समावण्णा, पंथाणं च अकोविया ॥५॥ कठिन शब्दार्थ - पडिलेहंति - विचार करते हैं, वितिगिच्छ समावण्णा - विचिकित्सा समापनकसंशय करने वाले, पंथाणं - मार्ग के, अकोविया - नहीं जानने वाले । भावार्थ - 'मैं इस संयम का पालन कर सकूँगा या नहीं' इस प्रकार संशय करने वाले अल्प पराक्रमी जीव, युद्ध के अवसर में छिपने का स्थान अन्वेषण करने वाले कायर के समान तथा मार्ग को नहीं जानने वाले अज्ञानी के समान यही सोचते रहते हैं कि संयम से भ्रष्ट होने पर इन व्याकरण आदि विद्याओं से मेरी रक्षा हो सकेगी। जे उ संगामकालम्मि, णाया सूरपुरंगमा । णो ते पिट्ठमुवेहिंति, किं परं मरणं सिया ॥६॥ For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९ अध्ययन ३ उद्देशक ३ 000000000000000000000000000000000000०००००००००००००००००००००००००००० ___ कठिन शब्दार्थ - सूरपुरंगमा - शूरों में अग्रणी, पिट्ठमुवेहिति- पीछे की बात पर विचार नहीं . करते हैं । भावार्थ - जो पुरुष संसार में प्रसिद्ध तथा वीरों में अग्रेसर हैं वे युद्ध के अवसर में यह नहीं सोचते हैं कि विपत्ति के समय मेरा बचाव कैसे होगा ? वे समझते हैं कि मरण के सिवाय दूसरा क्या हो सकता है ? . एवं समुट्ठिए भिक्खू, वोसिज्जाऽगार-बंधणं । आरंभं तिरियं कटु, अत्तत्ताए परिव्वए ॥७॥ कठिन शब्दार्थ - समुट्ठिए - समुत्थित-संयम पालन के लिए उठा हुआ, वोसिज्ज - त्याग कर, अत्तत्ताए - आत्म हित-मोक्ष के लिए परिव्वए - अनुष्ठान करें । भावार्थ - जो साधु, गृहबन्धन को त्याग कर तथा सावद्य अनुष्ठान को छोड़कर संयम पालन करने के लिए तत्पर हुआ है वह मोक्ष प्राप्ति के लिये शुद्ध संयम का अनुष्ठान करे । विवेचन - सेना के अग्रभाग में रहने वाला शूर वीर पुरुष युद्ध से भागने का विचार करता ही नहीं है । इसीलिये वह छिपने के लिये दुर्ग (किला) आदि को देखता ही नहीं है । वह सोचता है कि - युद्ध में अधिक से अधिक मरण हो सकता है इससे अधिक कुछ नहीं । जैसा कि कहा है - विशरारुभिरविश्वरमपि चपलैःस्थास्नु वाच्छतां विशदम्। प्राणैर्यदि शूराणां भवति यशः किं न पर्याप्तम् ? ॥१। अर्थ - प्राणियों के प्राण नश्वर और चञ्चल हैं । उसके बदले यदि अनश्वर और शुद्ध यश को लेने की इच्छा करने वाले शूरवीरों को यदि प्राणों के बदले यश मिलता है तो क्या वह यश प्राणों की अपेक्षा अधिक मूल्यवान् नहीं है ? . यह शूरवीर का दृष्टान्त देकर शास्त्रकार फरमाते हैं कि युद्ध में जाने वाले उस शूर वीर की तरह महापराक्रमी साधु पुरुष भी परलोक को नष्ट करने वाले इन्द्रिय और कषाय आदि शत्रुओं को विजय करने के लिये जो संयम भार को लिया है तब वह पीछे की ओर नहीं देखते हैं । पंचिंदियाणि कोहं, माणं मायं तहेव लोहं च । दुजयं चेव अप्पाणं, सव्वमप्पे जिए जियं ।।३६ ॥ उत्तरा० अध्ययन ९ गाथा ३६ अर्थ-पांच इन्द्रियाँ, क्रोध, मान, माया, लोभ और दुर्जय आत्मा ये सब अपनी आत्मा जीत लेने पर स्वत: जीत लिये जाते हैं। अतः साधक को संयम पालन के लिये दृढ़ता के साथ मोक्ष मार्ग में आगे बढ़ना चाहिये । For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० . श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 तमेगे परिभासंति, भिक्खुयं साहु-जीविणं । जे एवं परिभासंति, अंतए ते समाहिए ॥८॥ कठिन शब्दार्थ - साहु-जीविणं - साधु वृत्ति से जीने वाले, परिभासंति - आक्षेप वचन कहते हैं अंतए - दूर, समाहिए - समाधि से । भावार्थ - उत्तम आचार से अपना जीवन निर्वाह करने वाले साधु के विषय में कोई अन्यतीर्थी आगे कहा जाने वाला आक्षेप वचन कहते हैं परन्तु जो इस प्रकार आक्षेप वचन कहते हैं वे समाधि से दूर हैं। संबद्ध-समकप्पा उ, अण्ण मण्णेसु मुच्छिया । पिंडवायं गिलाणस्स, जं सारेह दलाह य ॥ ९॥ कठिन शब्दार्थ - संबद्धसमकप्पा - संबद्धसमकल्प-गृहस्थ के समान व्यवहार अण्णमण्णेसु - एक दूसरे में, पिंडवायं - पिंडपात-आहार, सारेह - लाते हो, दलाह - देते हो । . भावार्थ - अन्यतीर्थी सम्यग्दृष्टि साधुओं के विषय में यह आक्षेप करते हैं कि इन साधुओं का व्यवहार गृहस्थों के समान है जैसे गृहस्थ अपने कुटुम्ब में आसक्त रहते हैं वैसे ही ये साधु भी परस्पर आसक्त रहते हैं तथा रोगी साधु के लिये ये लोग आहार लाकर देते हैं । एवं तुब्भे सरागत्था, अण्णमण्ण मणुव्वसा । णट्ठ-सप्पह-सब्भावा, संसारस्स अपारगा ॥१०॥ कठिन शब्दार्थ - सरागत्था - सरागी, अण्णमण्ण-मणुष्वसा - एक दूसरे के वशवर्ती, णट्ठसप्पहसब्भावा - सत्पथ और सद्भाव से रहित, अपारगा - पार नहीं पाने वाले । भावार्थ - अन्यतीर्थी, सम्यग्दृष्टि साधुओं पर आक्षेप करते हुए कहते हैं कि आप लोग पूर्वोक्त प्रकार से राग सहित और एक दूसरे के वश में रहते हैं, अत: आप लोग सत्पथ और सद्भाव से रहित हैं इसलिये संसार को पार नहीं कर सकते हैं । विवेचन - अन्य मतावलम्बी जैन साधुओं के विषय में कहते हैं कि - जिस प्रकार गृहस्थ माता पिता भाई पुत्र स्त्री एक दूसरे से सम्बन्धित हैं और एक दूसरों का उपकार करते हैं इसी प्रकार आप साधु लोग भी आचार्य उपाध्याय गुरु भ्राता शिष्य आदि से सम्बन्धित हैं और परस्पर एक दूसरों का उपकार करते हैं । आहार पानी वस्त्र आदि लाकर देते हैं इसलिये आप लोग गृहस्थ के समान हैं । ऐसा अन्य मतावलम्बियों का आक्षेप है । इसका उत्तर शास्त्रकार आगे की गाथाओं में देते हैं । अह ते परिभासेज्जा, भिक्खु मोक्ख-विसारए । एवं तुब्बे पभासंता, दुपक्ख चेव सेवह ॥ ११ ॥ For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ उद्देशक ३ १११ कठिन शब्दार्थ - मोक्ख विसारए - मोक्ष विशारद-मोक्ष (रत्नत्रयी) की प्ररूपणा करने में विद्वान् दुपक्ख - द्विपक्ष का, सेवह - तुम सेवन करते हो। भावार्थ - अन्यतीर्थियों के पूर्वोक्त प्रकार से आक्षेप करने पर मोक्ष की प्ररूपणा करने में विद्वान् मुनि उनसे यह कहे कि इस प्रकार जो आप आक्षेपयुक्त वचन कहते हैं सो आप असत्पक्ष का सेवन करते हैं । . . तुब्भे भुंजह पाएस, गिलाणो अभिहडंमि य ।। तं च बीओदगं भोच्चा, तमुद्दिसादि जंकडं ॥१२॥ कठिन शब्दार्थ - पाएसु - धातु पात्रों में, भुंजह - भोजन करते हो, अभिहडंमि - गृहस्थों से भोजन मंगवाते हैं, बीओदगं - बीज और कच्चे जल का, तं - उसको, उद्दिस - उद्देश करके, आदि - आदि वगैरह, कडं- कृत-बनाया गया है । भावार्थ - आप लोग काँसी आदि के पात्रों में भोजन करते हैं तथा रोगी साधु को खाने के लिये गृहस्थों के द्वारा आहार मँगाते हैं इस प्रकार आप लोग बीज और कच्चे जल का उपभोग करते हैं तथा आप औद्देशिक आदि आहार-भोजन करते हैं। ... विवेचन - परिग्रह के सर्वथा त्यागी साधु को कांसी, पीतल आदि धातु के बर्तन रखना तथा गृहस्थ के इन बर्तनों में भोजन करना नहीं कल्पता है। इसी प्रकार गृहस्थ से भोजन आदि मंगा कर खाना और उससे सेवा करवाना भी नहीं कल्पता है। लित्ता तिव्वाभितावेणं, उझिया असमाहिया । णातिकण्डूइयं सेयं, अरुयस्सावरण्झइ ॥१३॥ कविन शब्दार्थ - लित्ता - लिप्त, तिव्वाभितावेणं - तीव्र अभिताप से, उझिया - विवेक शून्य, असमाहिया - शुद्ध अध्यवसाय से रहित, अति कण्डूइयं - अत्यंत खुजलाना, सेयं - श्रेष्ठ, अरुयस्स - घाव का, अवरज्झइ - विकार उत्पन्न होता है। भावार्थ - आप लोग कर्मबन्ध से लिप्त होते हैं तथा आप सद्विवेक से हीन और शुभ अध्यवसाय से वर्जित हैं । देखिये व्रण को अत्यन्त खुजलाना अच्छा नहीं है क्योंकि उससे विकार उत्पन्न होता है । तत्तेण अणुसिट्ठा ते, अपडिण्णेण जाणया । ण एस णियए मग्गे, असमिक्खा वई किई ॥१४॥ कठिन शब्दार्थ - तत्तेण - तत्त्व से, अणुसिट्ठा - अनुशासित अपडिण्णेण - अप्रतिज्ञ, णियए - निश्चित, असमिक्खा - असमीक्ष्य बिना विचारे, वई - वाक्-वाणी किई - कृति-करना। भावार्थ - सत्य अर्थ को बतलाने वाला तथा त्यागने योग्य और ग्रहण करने योग्य पदार्थों को For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 जानने वाला सम्यग्दृष्टि मुनि उन अन्यतीर्थियों को यथार्थ बात की शिक्षा देता हुआ यह कहता है कि आप लोगों ने जिस मार्ग को स्वीकार किया है वह युक्तिसङ्गत नहीं है तथा आप सम्यग्दृष्टि साधुओं पर जो आक्षेप करते हैं वह भी बिना विचारे करते हैं एवं आपका आचार व्यवहार भी . विवेक से रहित है । . एरिसा जा वइ एसा, अग्गवेणु व्व करिसिया । गिहिणो अभिहडं सेयं, भुंजिलं ण उ भिक्खुणं ॥१५॥ कठिन शब्दार्थ - अग्गवेणु देव - बांस के अग्र भाग की तरह, करिसिया - कृश-दुर्बल, गिहिणो - गृहस्थों के द्वारा, अभिहडं- लाया हुआ । भावार्थ - साधु को गृहस्थ के द्वारा लाया हुआ आहार खाना कल्याणकारी है परन्तु साधु के द्वारा लाया हुआ आहार खाना कल्याणकारी नहीं है यह कथन युक्ति रहित होने के कारण इस प्रकार दुर्बल है जैसे बांस का अग्रभाग दुर्बल होता है । विवेचन - गाथा क्रमाङ्क १४ और १५ में गोशालक मतानुयायी और दिगम्बर मतानुयायियों को राग द्वेष रहित पुरुष के द्वारा शिक्षा दी जाती है, कि आप लोगों ने जो यह मार्ग स्वीकार किया है कि साधु को अपरिग्रही होने के कारण धर्म के उपकरण वस्त्र पात्र आदि नहीं रखने चाहिये और उसी कारण साधु को परस्पर एक दूसरे की सेवा भी नहीं करनी चाहिये यह आपका मार्ग युक्ति संगत नहीं । है। क्योंकि बीमार साधु को गृहस्थी ला कर आहार दे और साधु ला कर न दे, यह कथन वीतराग भगवान् के कथन से विरुद्ध है । क्योंकि गृहस्थों के द्वारा लाया आहार जीवों की घात के साथ होता है । इसलिये अशुद्ध है । पर साधुओं के द्वारा लाया हुआ आहार उद्गम आदि दोष रहित होने के कारण शुद्ध है। धम्म-पण्णवणा जा सा, सारंभाणं विसोहिया । ण उ एयाहिं दिट्ठीहि, पुदमासी पग्गप्पियं ॥ १६॥ कठिन शब्दार्थ - धम्मपण्णवण्णा - धर्म प्रज्ञापना- धर्म देशना, सारंभाणं - आरम्भ सहितगृस्थों का, विसोहिया - शुद्ध करने वाली, एयाहिं - इन, दिट्ठीहिं - दृष्टियों से, पग्गप्पियं- प्रकल्पित कही गयी है । भावार्थ - साधुओं को दान आदि दे कर उपकार करना चाहिये यह जो धर्म की देशना है वह गृहस्थों को ही पवित्र करने वाली है साधुओं को नहीं, इस अभिप्राय से पहले यह धर्म की देशना नहीं की गई थी। विवेचन - रोगी साधु को आहारादि लाकर देना आदि सेवा गृहस्थ को करनी चाहिये, साधु को For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ उद्देशक ३ ११३ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 नहीं यह आपका कथन वीतराग भगवन्तों के कथन से विरुद्ध है। सर्वज्ञ भगवन्तों की ऐसी प्ररूपणा नहीं है। आप लोग भी साधु को आहार आदि लाकर देना आदि के लिये गृहस्थ को प्रेरणा करते हैं तथा इस कार्य का अनुमोदन भी करते हैं। यह साधु का रोगी साधु के प्रति उपकार ही है। सव्वाहि अणुजुत्तीहिं, अचयंता जवित्तए । तओ वायं णिराकिच्चा, ते भुज्जो वि पगब्भिया ॥१७॥ कठिन शब्दार्थ - अणुजुत्तीहिं - युक्तियों के द्वारा, वायं - वाद को, णिराकिच्चा - छोड़ कर, भुज्जो - पुनः, पगब्भिया - धृष्टता । भावार्थ - अन्यतीर्थी, सम्पूर्ण युक्तियों के द्वारा जब अपने पक्ष को स्थापन करने में समर्थ नहीं होते हैं तब वाद को छोड़कर फिर दूसरी तरह अपने पक्ष की सिद्धि की धृष्टता करते हैं । विवेचन - सत्य पक्ष को स्थापित करना वाद कहलाता है। इस वाद को छोड़ कर असत्य पक्ष को स्थापित करने के लिये युक्तियां देना विवाद (वितण्डावाद) कहलाता है। सत्य पक्ष के लिये एक ही युक्ति चन्दन के तुल्य है और असत्य पक्ष को स्थापित करने के लिये अनेक युक्तियां भी एरण्ड की लकड़ियों के समान है। एक ज्ञानी पुरुष अनेक अज्ञानियों की अपेक्षा श्रेष्ठ है। .. रागदोसाऽभिभूयप्पा, मिच्छत्तेण अभिया । आउस्से सरणं जंति, टंकणा इव पव्वयं ॥ १८॥ कठिन शब्दार्थ - रागदोसाऽभिभूयप्पा - राग द्वेष से जिनकी आत्मा दबी हुई है, मिच्छत्तेण - मिथ्यात्व से, अभिया - अभिद्रुत-व्याप्त, आउस्से - आक्रोश, टंकणा - म्लेच्छ जाति विशेष, पव्वयंपर्वत का ।.. भावार्थ - राग और द्वेष से जिनका हृदय दबा हुआ है तथा जो मिथ्यात्व से भरे हुए हैं ऐसे अन्यतीर्थी जब शास्त्रार्थ में परास्त हो जाते हैं तब गाली गलौज और मारपीट का आश्रय लेते हैं जैसे पहाड़ पर रहने वाली कोई म्लेच्छ जाति, युद्ध में हार कर पहाड़ का शरण लेती है । बहुगुणप्पगप्पाइं, कुज्जा अत्तसमाहिए। जेणऽण्णे णो विरुण्झेजा, तेण तं तं समायरे ॥१९॥ कठिन शब्दार्थ - बहुगुणप्पगप्पाइं - जिनसे बहुत गुण उत्पन्न होते ऐसे अनुष्ठानों को, अत्तसमाहिए - आत्म समाधि वाला विरुण्झेजा - विरोध करे, समायरे - आचरण करे । भावार्थ - परतीर्थी के साथ वाद करता हुआ मुनि अपनी चित्तवृत्ति को प्रसन्न रखता हुआ जिससे अपने पक्ष की सिद्धि और पर पक्ष की असिद्धि हो ऐसे प्रतिज्ञा, हेतु और उदाहरण आदि का प्रतिपादन For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 करे तथा जिस कार्य के करने से या जैसा भाषण करने से अन्य पुरुष अपना विरोधी न बने ऐसा कार्य अथवा भाषण करे। . विवेचन - अनुमान के पांच अवयव (अङ्ग) है यथा - १. पक्ष - इस पर्वत की अग्नि में गुफा है। २. हेतु - क्योंकि इस पर्वत में से धूम (धूआं) निकल रहा है। ३. दृष्टान्त - जहाँ जहाँ धूआं होता है वहाँ वहाँ अग्नि होती है (व्याप्ति) जैसे पाकशाला (रसोई घर) ४. उपनय - पक्ष में हेतु को दोहराना जैसे - इस पर्वत में भी धूम है। ५. निगमन - पक्ष में साध्य को दोहराना। जैसे इसलिये इस पर्वत की गुफा में अग्नि है। आशय यह है कि जिस हेतु दृष्टान्त आदि के कहने से अपने पक्ष की सिद्धि होती हो अथवा जिस मध्यस्थ वचन के कहने से दसरे के चित्त में किसी प्रकार का द:ख न हो साधु को वैसा कार्य करना चाहिये तथा दूसरा कोई मनुष्य इस अनुष्ठान अथवा भाषण से अपना विरोधी न बने वह अनुष्ठान साधु करे तथा वैसा वचन बोले । इमं च धम्ममादाय, कासवेण पवेइयं । कुज्जा भिक्खू गिलाणस्स, अगिलाए समाहिए ॥२०॥ कठिन शब्दार्थ - धम्म - धर्म को, आदाय - स्वीकार करके गिलाणस्स - ग्लान रोगी साधु का अगिलाए - ग्लानि रहित, समाहिए - समाधि वाला-प्रसन्नचित्त । . भावार्थ - काश्यपगोत्रीय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के द्वारा कहे हुए इस धर्म को स्वीकार करके प्रसन्नचित्त मुनि रोगी साधु को ग्लानि रहित होकर वैयावच्च (सेवा) करे । विवेचन - प्रश्न - धर्म किसे कहते हैं ? उत्तर - दशवैकालिक सूत्र के पहले अध्ययन की पहली गाथा में धर्म का स्वरूप इस प्रकार बतलाया गया है - धम्मो- अहिंसा संजमो तवो। अर्थात् - जिससे अहिंसा संयम और तप की प्राप्ति होती हो, उसे धर्म कहते हैं। इसी बात को किसी संस्कृत कवि वे भी इस प्रकार कहा है - दुर्गतौ प्रसृतान् जंतून, यस्माद्धारयते ततः। धत्ते चैतान् शुभे स्थाने, तस्माद्धर्म इति स्मृतः ॥ अर्थ - जो दुर्गति में जाने से जीवों को रोक कर शुभ स्थान (सुगति) में स्थापित करता है उसे धर्म कहते हैं। प्रश्न - वैयावच्च (वैयावृत्य) किसे कहते हैं ? उत्तर - अपने से बड़े सन्त तथा रोगी, ग्लान, असमर्थ साधु साध्वी की सेवा सुश्रूषा करने को For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ उद्देशक ३ ११५ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000००० वैयावृत्य कहते हैं। इसके दस भेद बतलाये गये हैं यथा - १. आचार्य २. उपाध्याय ३. स्थविर ४. तपस्वी ५, रोगी ६. शैक्ष अर्थात् नवदीक्षित ७. कुल (एक आचार्य का शिष्य परिवार) ८. गण (साथ पढ़ने वाले साधु तथा अनेक आचार्यों का शिष्य परिवार) ९. संघ (अनेक गणों का समूह) १०. साधर्मिक अर्थात् समान धर्म वाले साधु इन दस की वैयावृत्य करना। (भगवती २५/७) . प्रश्न- वैयावच्च का क्या फल होता है ? उत्तर - उत्तराध्ययन सूत्र के २९ वें अध्ययन में बतलाया गया है कि - वैयावृत्य करने से तीर्थङ्कर नामकर्म का बन्ध होता है। ४२ पुण्य प्रकृतियों में तीर्थङ्कर नामकर्म प्रकृति सर्वोत्कृष्ट पुण्य प्रकृति है। उत्तराध्ययन सूत्र के २६ वें समाचारी अध्ययन में साधु की दिनचर्या बतलाई गई है। इसमें वैयावृत्य विषयक जो गाथायें दी गई हैं उनसे भी यह मालूम होता है कि यह वैयावृत्य साधु के लिये आवश्यक कर्तव्य है और स्वाध्याय से भी प्रधान है। 'पुट्विाल्लम्मि चउब्भाए, आइच्चम्मि समुट्ठिए। भंडयं पडिलेहित्ता, बंदित्ता य तओ गुरुं ॥८॥ पुच्छिज्ज पंजलिउडो, किं कायव्वं मए इह। इच्छं निओइउं भंते !, वेयावच्चे व सज्झाए ॥९॥ वेयावच्चे निउत्तेणं, कायव्वं अगिलायओ। सज्झाए वा निउत्तेणं, सव्वदुक्खविमोक्खणे ॥१०॥ अर्थ - सूर्योदय होने पर पहले पहर के चौथे भाग में वस्त्र पात्र आदि की प्रतिलेखना करे . उसके बाद गुरु महाराज को वन्दना करके हाथ जोड़ कर यह पूछे कि - हे भगवन् ! मुझे क्या करना चाहिये ? आप चाहें तो मुझे वैयावृत्य में लगा दीजिये अथवा स्वाध्याय में। गुरु देव द्वारा वैयावृत्य में नियुक्त किये जाने पर साधु को अग्लान भाव से अर्थात् ग्लानि भाव त्याग कर वैयावृत्य करनी चाहिये। . ओघ नियुक्ति के टीकाकार ने गाथा ६२ की टीका में ग्लान साधु की सेवा की महत्ता दिखाने के लिये ये गाथा उद्धृत की है जो गिलाणं पडियरइ, सो ममं पडियरइ। जो ममं पडियरइ, सो गिलाणं पडियरइ ॥ - अर्थ - भगवान् कहते हैं जो ग्लान साधु की सेवा करता है वह मेरी सेवा करता है जो मेरी सेवा करता है वह ग्लान साधु की सेवा करता है। . संखाय पेसलं धम्म, दिट्टिमं परिणिव्वुडे । उवसग्गे णियामित्ता, आमोक्खाए परिव्वएज्जाऽसि।त्ति बेमि ।। For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कठिन शब्दार्थ - पेसलं - पेशल-उत्तम, दिट्ठिमं - जानने वाला परिणिव्वुडे - परिनिर्वृत्तरागद्वेष से रहित णियामित्ता - वश में करके आमोक्खाए - मोक्ष पर्यंत, तिबेमि - इति ब्रवीमिऐसा मैं कहता हूँ। भावार्थ - पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को जानने वाला शान्त मुनि इस उत्तम धर्म को जानकर तथा उपसर्गों को सहन करता हुआ मोक्ष.पर्यन्त संयम का अनुष्ठान करे । ॥इति तीसरा उद्देशक ॥ चौथा उद्देशक उत्थानिका - पूर्व उद्देशक में अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों का वर्णन किया गया है। इन उपसर्गों के द्वारा कदाचित् कोई कायर साधु संयम को छोड़ देता है फिर वह संयम पतित साधु इस प्रकार का उपदेश देता है। वह इस उद्देशक में बताया जाता है - आहेसु महापुरिसा, पुव्विं तत्त-तवोधणा । उदएण सिद्धि मावण्णा, तत्थ मंदो विसीयइ॥१॥ कठिन शब्दार्थ - तत्त-तवोधणा - तप्त तपोधन, उदएण - जल से, सिद्धिं - सिद्धि को, आवण्णा - प्राप्त हुए, विसीयइ - विषाद (खेद) को प्राप्त होता है। भावार्थ - कोई अज्ञानी पुरुष कहते हैं कि पूर्व काल में तप रूपी धन का संचय करने वाले महापुरुषों ने शीतल जल का उपभोग करके सिद्धि को प्राप्त किया था यह सुनकर अज्ञानी मनुष्य शीतल जल के उपभोग में प्रवृत्त हो जाते हैं । विवेचन - परमार्थ को नहीं जानने वाले कई अज्ञानी लोग कहते हैं कि - पूर्वकाल में वल्कलचीरी, तारागण ऋषि आदि कई महापुरुषों ने पञ्चाग्नि सेवन आदि तपस्याओं के द्वारा अपने शरीर को खूब तपाया था। उन्होंने शीतल (कच्चा) जल, कंद मूल फल आदि का उपभोग कर सिद्धि प्राप्त की थी। यह सुन कर और इस बात को सत्य मान कर कच्चा जल आदि सचित्त वस्तुओं का सेवन करने लग जाते हैं । यह उनकी कायरता और अज्ञानता है। अभुंजिया णमी विदेही, रामगुत्ते य भुंजिया । बाहुए उदगं भोच्चा, तहा तारायणे रिसी ॥२॥ For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ उद्देशक ४ 0000000000000000000000000000000000000000000000000००००००००००००००० ११७ . कठिन शब्दार्थ - अभुंजिया - आहार त्याग कर, रामगुत्ते - रामगुप्त ने, बहुए - बाहुक ने, तारायणे (नारायणे)- तारागण-नारायण, रिसी - ऋषि ने । भावार्थ - कोई अज्ञानी पुरुष, साधु को भ्रष्ट करने के लिये कहता है कि-विदेह देश का राजा नमीराज ने आहार न खाकर सिद्धि प्राप्त की थी तथा रामगुप्त ने आहार खाकर सिद्धि लाभ किया था एवं बाहुक ने शीतल जल पी कर सिद्धि पाई थी तथा तारागण-नारायण ऋषि ने भी पका हुआ जल पी कर मोक्ष पाया था । आसिले देविले चवे, दीवायण महारिसी । पारासरे दगं भोच्चा, बीयाणि हरियाणि य ॥३॥ कठिन शब्दार्थ - दीवायण - द्वैपायन, महारिसी - महर्षि, दगं - उदक-कच्चा पानी, बीयाणि - बीज, हरियाणि - हरी वनस्पति को। . भावार्थ - आसिल, देवल, महर्षि द्वैपायन तथा पाराशर ऋषि ने शीतल जल, बीज और हरी वनस्पतियों को खाकर मोक्ष प्राप्त किया था । एए पुव्वं महापुरिसा, आहिया इह संमया । ... भोच्चा बीओदगं सिद्धा, इइ मेयमणुस्सुयं ॥४॥ कठिन शब्दार्थ - संमया - सम्मत, बीओदगं - बीज और सचित्त जल का, मेयं-मैंने, अणुस्सुयं - सुना है। भावार्थ - कोई अन्यतीर्थी साधुओं को संयम भ्रष्ट करने के लिये कहता है कि पूर्व समय में ये महापुरुष प्रसिद्ध थे और जैन आगम में भी इनमें से कई माने गये हैं इन लोगों ने शीतल जल और बीज का उपभोग करके सिद्धि लाभ किया था । विवेचन - अन्यमतावलम्बियों का कथन है कि - महाभारत आदि पुराणों में इन महापुरुषों का वर्णन है। इनमें से नमिराजर्षि आदि महापुरुषों का वर्णन जैन सिद्धान्तों में भी आता है । किन्तु उपरोक्त कथन सत्य नहीं है। क्योंकि - जिन किन्हीं महापुरुषों ने मुक्ति प्राप्त की है उन सभी ने १८ पापों का त्याग करके ही मुक्ति पाई है। किन्तु १८ पापों का सेवन करके नहीं। तत्थ मंदा विसीयंति, वाह-छिण्णा व गद्दभा । पिट्ठओ परिसप्पंति, पिट्ठसप्पी य संभमे ॥५॥ कठिन शब्दार्थ - वाहछिण्णा - भार से पीड़ित, गद्दभा - गर्दभ गधा, पिट्ठओ - पीछे, परिसप्पंति - चलते हैं, पिट्ठसप्पी - पैर रहित-सरक कर चलने वाला, संभमे - भ्रमण करता है । '' भावार्थ - मिथ्यादृष्टियों की पूर्वोक्त बातों को सुनकर कोई अज्ञानी मनुष्य संयम पालन करने में For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 इस प्रकार दुःख का अनुभव करते हैं जैसे भार से पीडित गदहा उस भार को लेकर चलने में दुःख अनुभव करता है तथा जैसे लकडी के टुकड़ों को हाथ में लेकर सरक कर चलने वाला लँगड़ा मनुष्य अग्नि आदि का भय होने पर भागे हुए मनुष्यों के पीछे पीछे जाता है परन्तु वह आगे जाने में असमर्थ होकर वहीं नाश को प्राप्त होता है इसी तरह संयम पालन करने में दुःख अनुभव करने वाले वे पुरुष मोक्ष तक नहीं पहुंच कर संसार में ही भ्रमण करते रहते हैं । इहमेगे उ भासंति, सायं साएण विज्जइ । जे तत्थ आरियं मग्गं, परमं च समाहिए (यं)॥६॥ कठिन शब्दार्थ - सायं - साता-सुख, सारण - सुख से ही विजइ - प्राप्त होता है, आरियं - आर्य, मग्गं - मार्ग, समाहिए- समाधि-शांति को देने वाला। भावार्थ - कोई मिथ्यादृष्टि कहते हैं कि सुख से ही सुख की प्राप्ति होती है परन्तु वे अज्ञानी हैं क्योंकि परम शान्ति को देने वाला तीर्थंकर प्रतिपादित जो ज्ञानदर्शन और चारित्ररूप मोक्षमार्ग है उसे जो छोड़ते हैं वे अज्ञानी हैं । मा एयं अवमण्णंता, अप्पेणं लुपहा बहुं । एतस्स (उ) अमोक्खाए, अओ हारिव्व जूरह ॥७॥ कठिन शब्दार्थ - अवमण्णंता - तिरस्कार करते हुए, अप्पेणं - अल्प से, लुपहा - बिगाडो, अमोक्खाए - नहीं छोड़ने पर, अओहारिव्व - (सोना आदि को छोड़ कर) लोहा लेने वाले जूरह - पश्चात्ताप करोगे। भावार्थ - सुख से ही सुख होता है इस असत्पक्ष को मान कर जिन शासन का त्याग करनेवाले अन्य दर्शनी को कल्याणार्थ शास्त्रकार उपदेश करते हैं कि तुम इस जिनशासन को तिरस्कार करके तुच्छ विषय सुख के लोभ से अति दुर्लभ मोक्ष सुख को मत बिगाड़ों । सुख से ही सुख होता है इस असत्पक्ष को यदि तुम न छोड़ोगे तो सोना आदि छोड़ कर लोहा लेने वाला बनिया जैसे पश्चात्ताप करता है उसी तरह पश्चात्ताप करोगे । पाणाइवाए वटुंता, मुसावाए असंजया । अदिण्णादाणे वटुंता, मेहुणे य परिग्गहे ॥८॥ .. कठिन शब्दार्थ - वटुंता - वर्तमान, असंजया - असंयत, मेहुणे - मैथुन, परिग्गहे - परिग्रह में। ... भावार्थ - सुख से ही सुख होता है इस मिथ्या सिद्धान्त को मानने वाले शाक्य आदि को शास्त्रकार कहते हैं कि-आप लोग जीव हिंसा करते हैं और झूठ बोलते हैं तथा बिना दी हुई वस्तु लेते हैं एवं मैथुन और परिग्रह.में भी वर्तमान रहते हैं इस कारण आप लोग संयमी नहीं है । For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ उद्देशक ४ ११९ 0000000000000000000000000000000000000000 1000000000000000000000००००० एवमेगे उ पासत्था, पण्णवेंति अणारिया । .. इत्थी वसं गया बाला, जिणसासणपरंमुहा ॥९॥ कठिन शब्दार्थ - पासत्था - पार्श्वस्थ, इत्थी - स्त्री, वसं - वश में, गया - रहे हुए, जिणसासणपरंमुहा - जिनशासन से पराङ्गमुख । भावार्थ - स्त्री के वश में रहने वाले अज्ञानी जैन शास्त्र से विमुख अनार्य कोई पार्श्वस्थ आगे की गाथाओं द्वारा कही जाने वाली बातें कहते हैं । विवेचन - जैन सिद्धान्त को नहीं जानने से अन्यमता- वलम्बियों ने यहाँ तक कह दिया है कि - प्रियादर्शनमेवास्त, किमन्यैर्दर्शनान्तरः।। प्राप्यते येन निर्वाणं, सरागेणा पिचेतसा ॥१॥ अर्थ - मुझे मेरी प्रिया का दर्शन होना चाहिये। दूसरे दर्शनों से मुझे क्या प्रयोजन है ? क्यों कि प्रिया के दर्शन से सराग चित्त के द्वारा भी निर्वाण सुख प्राप्त होता है। यह उन अज्ञानियों की अज्ञानता पूर्ण मान्यता है। जहा गंडं पिलागं वा, परिपीलेज मुहुत्तगं । · एवं विण्णवणित्थीसु, दोसो तत्थ कओ सिया ? ॥१०॥ - कठिन शब्दार्थ - गंडं - फुसी को, पिलागं - फोडे को परिपीलेज - दबावे, विण्णवणित्थीसुस्त्रियों के प्रार्थना करने पर, दोसो - दोष, कओ (कुओ) - कैसे.। ___भावार्थ - वे अन्यतीर्थी कहते हैं कि - जैसे फुन्सी या फोडे को दबाकर उसके मवाद निकाल देने से थोड़ी देर के बाद ही सुखी हो जाते हैं इसी तरह समागम की प्रार्थना करने वाली स्त्री के साथ समागम करने से थोड़ी देर के बाद ही खेद की शान्ति हो जाती है अतः इस कार्य में दोष कैसे हो सकता है ? जहा मंधादणे णाम, थिमियं भुंजइ दगं । एवं विण्णवणित्थीस, दोसो तत्थ को सिया ?॥११॥ कठिन शब्दार्थ - मंधादणे - मेंढा (भेड) थिमियं - स्तिमित-बिना हिलाये भुजइ - पीती है, दगं- पानी को। भावार्थ - जैसे भेड़ बिना हिलाये जल पीता है ऐसा करने से किसी जीव का उपघात न होने से उसको दोष नहीं होता है, इसी तरह समागम के लिये प्रार्थना करने वाली युवती स्त्री के साथ समागम करने से किसी को पीडा न होने के कारण कोई दोष नहीं होता है, यह वे अन्यतीर्थी कहते हैं । For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ जहा विहंगमा पिंगा, थिमियं भुंजइ दगं । एवं विण्णवणित्थीस, दोसो तत्थ कओ सिया?॥१२॥ कठिन शब्दार्थ - विहंगमा - पक्षिणी, पिंगा - पिंगा (कपिंजल) नामक । - भावार्थ - कामासक्त अन्यतीर्थी कहते हैं कि जैसे पिङ्ग नामक पक्षिणी बिना हिलाये जल पान करती है इसलिये किसी जीव को उसके जलपान से दुःख नहीं होता है और उसकी तृप्ति भी हो जाती है इसी तरह समागम की प्रार्थना करने वाली स्त्री के साथ समागम करने से किसी जीव को दुःख नहीं होता है और अपनी तृप्ति भी हो जाती है इसलिये इस कार्य में दोष कहाँ से हो सकता है ? एवमेगे उ पासत्था, मिच्छदिट्ठी अणारिया । अज्झोववण्णा कामेहि, पूयणा इव तरुणए ॥ १३॥ कठिन शब्दार्थ - मिच्छदिट्ठी - मिथ्यादृष्टि, अणारिया - अनार्य, अझोववण्णा - अत्यंत मूर्च्छित, पूयणा - पूतना डाकिनी, तरुणए- बालकों पर । ___ भावार्थ - पूर्वोक्त प्रकार से मैथुन सेवन को निरवद्य बताने वाले पुरुष पार्श्वस्थ हैं मिथ्यादृष्टि हैं तथा अनार्य हैं वे कामभोग में अत्यन्त आसक्त हैं जैसे पूतना डाकिनी बालकों पर आसक्त रहती है । अणागय-मपस्संता, पच्चुप्पण्ण-गवेसगा । ते पच्छा परितप्पंति, खीणे आउंमि जोव्वणे ॥१४॥ कठिन शब्दार्थ - अणागयं - भविष्य के दुःख को, अपस्संता - न देखते हुए, पच्चुप्पण्णगवेसगा - वर्तमान सुख की खोज करने वाले, परितप्पंति - पश्चात्ताप करते हैं, खीणे (झीणे)- क्षीण होने पर, आउंमि - आयु, जोव्वणे - यौवन । भावार्थ - असत् कर्म के अनुष्ठान से भविष्य में होने वाली यातनाओं को न देखते हुए जो लोग वर्तमान सुख की खोज में रत रहते हैं वे युवावस्था और आयु क्षीण होने पर पश्चात्ताप करते हैं। जेहिं काले परिक्रतं, ण पच्छा परितप्पए । ते धीरा बंधणुमुक्का, णावकंखंति जीवियं ॥ १५ ॥ कठिन शब्दार्थ - जेहिं - जिन पुरुषों ने, काले - काल में परिक्कंतं - पुरुषार्थ किया है, धीरा - धीर पुरुष, बंधणुमुक्का - बंधन से छूटे हुए । भावार्थ - धर्मोपार्जन के समय में जिन पुरुषों ने धर्मोपार्जन किया है वे पश्चात्ताप नहीं करते हैं । बन्धन से छुटे हुए वे धीर पुरुष असंयम जीवन की इच्छा नहीं करते हैं । विवेचन - कामभोगों में आसक्त पुरुष धन और यौवन के मद में अनेक प्रकार के पापाचरण For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ उद्देशक ४ १२१ रूप अनर्थ कर डालते हैं परन्तु यौवन अवस्था बीतने पर उनको पश्चात्ताप करना पड़ता है। जैसे कि कहा है - विहवाव लेव नडिएहिं जाइं कीरति जोव्वणमएणं । वयपरिणामे सरियाई ताई हियए खुड्छति ॥१॥ संस्कृत छायाविभवावलेपनटितैर्यानि क्रियन्ते यौयन मदेन। वयः परिणामे स्मृतानि तानि हदयं व्यथन्ते ॥१॥ अर्थ - धन के घमण्ड से और जवानी के जोर से जो जो नहीं करने योग्य कार्य किये। वे सब जवानी के बीत जाने पर जब याद आते हैं तो मन में बड़ा दुःख होता है। इसी बात को हिन्दी कवि ने भी कहा है - .. जोबन धन मद कारणे, अनर्थ किये अनन्त । हृदय कांपे स्मरण से, बुढापे खटकन्त ॥ अतएव ज्ञानी पुरुष फरमाते हैं कि - अपनी आत्मा का हित चाहने वाले जिन पुरुषों ने धर्म उपार्जन करने के समय में धर्म उपार्जन करने में खूब पुरुषार्थ किया है वे वृद्धावस्था आने पर तथा मरण • के समय में पश्चात्ताप नहीं करते हैं। अत: आत्मार्थी पुरुषों को चाहिये कि जब तक शरीर में शक्ति है तब तक धर्म का आचरण कर लेना चाहिये। जैसा कि शास्त्रकार फरमाते हैं - जरा जाव ण पीलेइ, वाही जाव ण वड्डइ । जाविंदिया ण हायंति, ताव धम्मं समायरे ॥ हिन्दी दोहा - जब लग जरा (बुढापा) न पीडती, तब लग कायनीरोग। . इन्द्रियाँ हिणी ना पडे, धर्म करो शुभ योग ॥१॥ जहा णई वेयरणी, दुत्तरा इह संमया । एवं लोगंसि णारीओ, दुत्तरा अमइमया ॥१६॥ कठिन शब्दार्थ - णई - नदी, वेयरणी - वैतरणी दुत्तरा (दुरुत्तरा)- दुस्तर, संमया - मानी गयी है अमइमया - अमतिमता-निर्विवेकी मनुष्य से । भावार्थ - जैसे अतिवेगवती वैतरणी नदी दुस्तर है इसी तरह निर्विवेकी पुरुष से स्त्रियाँ दुस्तर हैं। - विवेचन - जैसे नदियों में नरक गत वैतरणी नदी अति वेगवाली और विषम तटवाली होने के For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 90000000000000000000000000000000000000000000000000 कारण दुःख से उल्लंघन करने योग्य है। इसी तरह इस लोक में सत्पुरुषार्थ हीन विवेक रहित पुरुषों के लिये स्त्रियों को अर्थात् कामवासना को जीतना बड़ा कठिन है। जेहिं णारीणं संजोगा, पूयणा पिट्ठओ कया । सव्वमेयं णिराकिच्चा, ते ठिया सुसमाहिए ॥१७॥ कठिन शब्दार्थ - णारीणं- स्त्रियों के, संजोगा - संयोग-संबंध-संसर्ग को, पूयणा - पूतना-काम वासना को णिराकिच्चा-तिरस्कार करके। भावार्थ - जिन पुरुषों ने स्त्रीसंसर्ग और कामवासना को छोड़ दिया है वे समस्त उपसर्गों को जीत कर उत्तम समाधि के साथ निवास करते हैं । एए ओघं तरिस्संति, समुदं ववहारिणो । जत्थ पाणा विसण्णासि, किच्चंति सयकम्मुणा ॥१८॥ कठिन शब्दार्थ - ओघं - ओघ संसार के प्रवाह को , तरिस्संति - पार करेंगे, ववहारिणो - व्यापार करने वाले, विसण्णा- खेदित होते हुए, किच्चंति - पीडित होते हैं । भावार्थ - अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों को जीतकर महापुरुषों द्वारा सेवित मार्ग से चलने वाले धीर पुरुष, जिस संसार सागर में पड़े हुए जीव अपने कर्मों के प्रभाव से नाना प्रकार की पीड़ा भोगते हैं उसको इस प्रकार पार करेंगे जैसे समुद्र के दूसरे पार में जाकर व्यापार करने वाला वणिक लवण समुद्र को पार करता है । - विवेचन - जैसे जहाजों के द्वारा व्यापार करने वाले पुरुष जहाज द्वारा लवण समुद्र को पार करते हैं इसी प्रकार कामवासना को जीतने वाले साधु पुरुष भाव रूप ओघ को अर्थात् संसार सागर को संयम रूपी जहाज के द्वारा पार कर जाते हैं। तं च भिक्खु परिण्णाय, सुव्वए समिए घरे । मुसावायं च वजिज्जा, अदिण्णादाणं च वोसिरे ॥१९॥ कठिन शब्दार्थ - परिण्णाय - जान कर, सुव्वए - सुव्रत-उत्तम व्रतों से युक्त समिए - समित-समितियों से युक्त, वग्जिज्जा- छोड़ दे वोसिरे - त्याग दे ।। भावार्थ - पूर्वोक्त गाथाओं में जो बातें कही गई हैं उन्हें जान कर साधु उत्तम व्रत तथा समिति से युक्त होकर रहे एवं मृषावाद और अदत्तादान को त्याग दे । विवेचन - साधु के पांच महाव्रत कहे गये हैं उन सब में प्राणातिपात विरमण रूप अहिंसा महाव्रत सब व्रतों में प्रधान है। दूसरे महाव्रत तो प्रथम महाव्रत के बाड़ रूप हैं। इसलिये इस गाथा में पांचों महाव्रतों का ग्रहण किया हुआ समझना चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ३ उद्देशक ४ ..१२३ उडमहे तिरियं वा, जे केई तस थावरा । सव्वत्थ विरइंकज्जा, संति णिव्वाणमाहियं ॥२०॥ कठिन शब्दार्थ - उग्इं - ऊर्ध्व-ऊपर अहे - अधः-नीचे, तिरियं - तिरछा, सव्वत्थ - सर्वत्र, विरई - विरति, णिव्याणं - निर्वाण पद को। भावार्थ - ऊपर नीचे अथवा तिरछे जो त्रस और स्थावर जीव निवास करते हैं उनकी हिंसा से सब काल में निवृत्त रहना चाहिये। ऐसा करने से जीव को शान्ति रूपी निर्वाणपद प्राप्त होता है । विवेचन - इस गाथा में प्राणातिपात विरमण व्रत का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव सबका ग्रहण किया गया है। मुनि को चौदह ही जीवस्थानों में तीन करण तीन योग से प्राणातिपात से निवृत्त हो जाना चाहिये। इस प्रकार यहाँ मूल गुण और उत्तर गुण का कथन किया गया है और उसका फल यह है - कर्म रूपी दाह की शान्ति हो जाती है। बस ! इसी को निर्वाण अर्थात् समस्त दुःखों की निवृत्ति रूप मोक्ष पद कहा गया है । इमं च धम्ममादाय, कासवेण पवेइयं । कुज्जा भिक्खू गिलाणस्स, अगिलाए समाहिए ॥२१॥ कठिन शब्दार्थ - गिलाणस्स - बीमार की, धम्मं - धर्म को, आदाय - ग्रहण करके । भावार्थ - काश्यपगोत्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के द्वारा कहे हुए इस धर्म को स्वीकार करके साधु समाधि युक्त रहता हुआ अग्लान भाव से ग्लान साधु की सेवा करे । संखाय पेसलं धम्मं, दिट्ठिमं परिणिव्वुडे । वसग्गे णियामित्ता, आमोक्खाए परिव्वएग्जासि ॥त्ति बेमि ।। कठिन शब्दार्थ - संखाय - अच्छी तरह जानकर, णियामित्ता - सहन करके। . भावार्थ - सम्यग्दृष्टि शान्त पुरुष मोक्ष देने में कुशल इस धर्म को अच्छी तरह जानकर उपसर्गों को सहन करता हुआ मोक्ष प्राप्ति पर्यन्त संयम का अनुष्ठान करे । ऐसा मैं कहता हूँ । ... त्ति बेमि - इति ब्रवीमि - श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन जम्बू ! जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखारविन्द से सुना है वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ। ॥इति चौथा उद्देशक ॥ .. ॥उपसर्ग नामक तीसरा अध्ययन समाप्त॥ For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्री परिज्ञा नामक चौथा अध्ययन उत्वानिका.- तीसरे अध्ययन में अनुकूल-प्रतिकूल उपसर्गों का वर्णन किया है, जिसमें अनुकूल उपसर्ग को दुःसह कहा है । अनुकूल उपसर्गों में भी स्त्री-उपसर्ग अति दुःसह है । इसी उपसर्ग का. इस अध्ययन में स्वरूप बताकर, उस पर विजय पाने का जोर दिया है । भिक्षु के लिये स्त्री का उपसर्ग है तो भिक्षुणी के लिये पुरुष का । प्रश्न- इस अध्ययन का नाम 'स्त्री परिज्ञा' देने का क्या कारण है ? उत्तर - तीन वेद कहे गये हैं - स्त्री वेद, पुरुष वेद और नपुंसक वेद । पुरुष वेद का प्रतिपक्ष स्त्री वेद है और स्त्री वेद का प्रतिपक्ष पुरुष वेद है । पुरुष की प्रधानता के कारण; उसका प्रतिपक्ष रूप स्त्री होने के कारण तथा सूत्रों का ग्रन्थन करने वाले गणधर पुरुष होते हैं इसलिये पुरुष वक्ता होने के कारण उसके प्रतिपक्ष वेद स्त्री होने से इस अध्ययन का नाम 'स्त्री परिज्ञा' रखा गया है । इस बात को .. नियुक्तिकार ने एक गाथा के द्वारा इस प्रकार कहा है - एते चेव य दोसा पुरिससमाएवि इत्थीयाणं पि । तम्हा उ अप्पमाओ विरागमग्गंमि तासिंतु ॥६३ ॥ इससे पहले और इस अध्ययन में शील नाश आदि जो दोष बताये गये हैं या बताये जायेंगे वे सभी दोष पुरुषों के सम्बन्ध से स्त्रियों में भी उत्पन्न होते हैं । अतः साध्वियों को भी पुरुष के साथ परिचय आदि को त्याग कर देना चाहिये । यही उनके लिये कल्याणकारी है । . . इस अध्ययन में स्त्री के संसर्ग से पुरुष में होने वाले दोषों के समान ही पुरुष के संसर्ग से स्त्री में होने वाले दोष भी बताये गये हैं तथा इस अध्ययन का नाम पुरुष परिज्ञा न रख कर स्त्री परिज्ञा रखने का कारण यह है कि - स्त्री की अपेक्षा पुरुष में धार्मिक दृष्टि से प्रधानता होती है । अन्यथा इस अध्ययन को पुरुष परिज्ञा भी कह सकते हैं। प्रश्न - कुछ जमानावादी सुधारक तर्कबाज यह तर्क करते हैं कि - इस स्त्री परिज्ञा अध्ययन में शास्त्रकार ने स्त्रियों की खूब निन्दा की है । क्या उनका यह कथन ठीक है ? उत्तर - नहीं, यह उनका उपरोक्त कथन ठीक नहीं है क्योंकि शास्त्रकार स्वयं निन्दा को पाप कहते हैं । तो फिर भला वे स्वयं निन्दा रूप पाप कर्म का बन्ध क्यों करेंगे ? आशय यह है कि शास्त्रकार न स्त्री की निन्दा करते हैं न पुरुष की प्रशंसा करते हैं । वे तो वस्तु का स्वरूप बताते हैं किकामवासना बुरी है । अर्थात् न पुरुष बुरा है न स्त्री बुरी है किन्तु कामवासना बुरी है । वह चाहे स्त्री में रहे या पुरुष में रहे । कामवासना बुरी है एवं सर्वथा हेय है । सभी पुरुष दूध के धुले हुए के समान For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ***************s 00000 --------০०० स्वच्छ ही हैं और स्त्रियां बुरी ही हैं ऐसा नहीं है । किन्तु पुरुषों में अच्छे बुरे दोनों मिलते हैं । इसी प्रकार स्त्रियों में भी अच्छी और बुरी दोनों प्रकार की होती है । जैसा कि राजमती ने रहनेमि को कहा है - अध्ययन ४ उद्देशक १ सहु सरीखा नर नहीं हो, सहु सरीखी नहीं नार । केई भला ने केई भुंडा, चल्यो जाय संसार ।। हो मुनिवर चित्त चलियो तूं घेर ।। इसलिये पुरुष या स्त्री बुरी नहीं किन्तु उनमें रही हुई कामवासना बुरी है । जिस प्रकार- विषय, कषाय और कामवासना का सर्वथा क्षय करके अनन्त पुरुष मोक्ष में गये हैं उसी प्रकार इस विषय, कषाय और कामवासना का सर्वथा क्षय करके अनन्त स्त्रियां भी मोक्ष गई हैं । पहला उद्देशक जे. मायरं च पियरं च, विप्पजहाय पुव्वसंजोगं । एगे सहिए चरिस्सामि, आरत- मेहुणो विवित्सु ॥ १ ॥ कठिन शब्दार्थ - विप्पजहाय छोड़ कर, पुव्वसंजोगं पूर्व संबंध को, आरत मेहुणो मैथुन रहित हो कर, विवित्तेसु विविक्त - स्त्री पुरुष नपुंसक सहित स्थानों में । भावार्थ - जो पुरुष इस अभिप्राय से दीक्षा ग्रहण करता है कि मैं माता पिता तथा पूर्व सम्बन्धों को छोड़कर तथा मैथुन वर्जित रहकर ज्ञान दर्शन और चारित्र का पालन करता हुआ अकेला पवित्र स्थानों में विचरूंगा उसको स्त्रियाँ कपट से अपने वश में करने का प्रयत्न करती हैं । सुमेणं तं परिक्कम्म, छण्णपण इत्थिओ मंदा । उव्वायं पिताउ जाणंति, जहा लिस्संति भिक्खुणो एगे ॥ २ ॥ कठिन शब्दार्थ - सुहुमेणं - सूक्ष्म, परिक्कम्म - पास आकर, छण्णपएण उव्वायं - उपाय को, लिस्संति - संग कर लेते हैं । भावार्थ - अविवेकिनी स्त्रियाँ किसी छल से साधु के निकट आकर कपट से अथवा गूढार्थ शब्द के द्वारा साधु को शील से भ्रष्ट करने का प्रयत्न करती है । वे वह उपाय भी जानती हैं जिससे कोई साधु उनका संग कर लेते हैं । पासे भिसं णिसीयंति, अभिक्खणं पोसवत्थं परिर्हिति । कायं अहे वि दंसंति, बाहू उद्धट्टु कक्खमणुव्वजे ॥ ३ ॥ १२५ For Personal & Private Use Only - - कपट से, Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 ___कठिन शब्दार्थ - पासे - निकट, भिसं - अत्यंत, णिसीयंति - बैठती हैं, अभिक्खणं - निरन्तर, पोसवत्थं - कामवर्द्धक सुन्दर वस्त्रों को, परिहिंति - पहनती है, दंसंति - दिखलाती है, बाहू - भुजा को, उद्धट्ट- ऊठा कर, कक्खं - कांख, अणुव्बजे - सन्मुख जाती है । भावार्थ - स्त्रियाँ साधु को ठगने के लिये उनके निकट बहुत ज्यादा बैठती है और निरन्तर सुन्दर वस्त्र को ढीला होने का बहाना बना कर पहिनती है तथा शरीर के नीचले भाग को भी काम उद्दीपित करने के लिये साधु को दिखलाती है एवं भुजा उठाकर कांख दिखलाती हुई साधु के सामने आती हैं । सयणासणेहिं जोगेहि, इथिओ एगया णिमंतंति । एयाणि चेव से जाणे, पासाणि विरूवरूवाणि ॥४॥ कठिन शब्दार्थ - सयणासणेहिं - शयन और आसन के द्वारा, जोगेहिं - उपभोग करने के योग्य, पासाणि - पाश-बंधनरूप, विरूवरूवाणि - विरूपरूप-नाना प्रकार के। भावार्थ - कभी एकान्त स्थान में स्त्रियाँ साधु को पलंग पर तथा उत्तम आसन पर बैठने के लिये प्रार्थना करती हैं । परमार्थदर्शी साधु इन्हीं बातों को नाना प्रकार का पाशबन्धन समझे। णो तासु चक्खू संधेज्जा, णो वि य साहसं समभिजाणे । णो सहियं पि विहरेग्जा, एवमप्पा सुरक्खिओ होइ ॥५॥ कठिन शब्दार्थ - चक्खू - आँख, संधेजा - लगावे, मिलावे, साहसं - साहस-मैथुन भावना का, समभिजाणे - अनुमोदन करे, विहरेजा - विहार करे, सुरक्खिओ - सुरक्षित, होइ - होता है । . भावार्थ - साधु स्त्रियों पर अपनी दृष्टि न लगावे तथा उनके साथ कुकर्म करने का साहस न करे एवं उनके साथ ग्रामानुग्राम विहार न करे, इस प्रकार साधु का आत्मा सुरक्षित होता है । आमंतिय उस्सविया, भिक्खं आयसा णिमंतंति । एयाणि चेव से जाणे, सहाणि विरूवरूवाणि ॥६॥ कठिन शब्दार्थ - आमंतिय - आमंत्रित कर, उस्सविया - विश्वास देकर, आयसा - अपने साथ, सहाणि - शब्दों को। भावार्थ - स्त्रियाँ साधु को संकेत देती है कि मैं अमुक समय में आपके पास आऊँगी तथा नाना प्रकार के वार्तालापों से विश्वास उत्पन्न करती हैं । इसके पश्चात् वे अपने साथ भोग करने के लिये साधु को आमन्त्रित करती हैं अतः विवेकी साधु स्त्री सम्बन्धी इन शब्दों को नाना प्रकार का पाश बन्धन जाने । मण-बंधणेहिं णेगेहिं, कलुण-विणीय-मुवगसित्ताणं । . अदु मंजुलाइं भासंति, आणवयंति भिण्णकहाहिं ॥७॥ For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ उद्देशक १ १२७ कठिन शब्दार्थ - मणबंधणेहिं - मन को बांधने वाले उपायों से, णेगेहिं - अनेक प्रकार के, कलुण - करुणोत्पादक-दीनभाव, विणीयं - विनीत भाव से, उवगसित्ताणं - साधु के पास आकर, मंजुलाई - मधुर, आणवयंति - आज्ञापित करती है, आज्ञा चलाती है, भिण्णकहाहिं - संयम से विमुख करने वाली काम संबंधी कथा के द्वारा । । भावार्थ - स्त्रियाँ साधु के चित्त को हरने के लिये अनेक प्रकार के उपाय करती हैं । वे करुणा जनक वाक्य बोलकर तथा विनीतभाव से साधु के समीप आती हैं । वे, साधु के पास आकर मधुर भाषण करती हैं और काम सम्बन्धी आलाप के द्वारा साधु को अपने साथ भोग करने की प्रार्थना करती हैं। . सीहं जहा व कुणिमेणं, णिब्भयमेगचरं पासेणं । एवित्थियाउ बंधति संवुडं, एगतिय-मणगारं ॥८॥ - कठिन शब्दार्थ - कुणिमेणं - मांस से, णिब्भयं - निर्भय, एगचरं - अकेला विचरने वाला, संवुडं- संवृत्त, इत्थियाउ - स्त्रियाँ । . भावार्थ - जैसे सिंह को पकड़ने वाले शिकारी मांस का लोभ दे कर अकेले निर्भय विचरने वाले सिंह को पाश में बांध लेते हैं इसी तरह स्त्रियां मन वचन और काय से गुप्त रहने वाले साधु को भी अपने पाश में बाँध लेती हैं। अह तत्थ पुणो णमयंति, रहकारो व णेमि आणुपुव्वीए। बद्धे मिए व पासेणं, फंदंते वि ण मुच्चए ताहे ॥९॥ कठिन शब्दार्थ - णमयंति - झुका लेती हैं, रहकारो - रथकार, णेमि - नेमि को, बद्धे - बंधा हुआ, मिए व - मृग की तरह, पासेणं - पाश से, फंदंते - स्पंदित होता हुआ, मुच्चए - छूटता है । भावार्थ - जैसे रथकार रथ की नेमि (पुट्ठी) को क्रमशः नमा देता है इसी तरह स्त्रियां साधु को वश करके उसे क्रमशः अपने इष्ट अर्थ में झूका लेती हैं । जैसे पाश में बंधा हुआ मृग छटपटाता हुआ भी पाश से मुक्त नहीं होता है इसी तरह स्त्री के पाश में बंधा हुआ साधु प्रयत्न करने पर भी उस पाश से नहीं छूटता है। - अह सेऽणुतप्पइ पच्छा, भोच्चा पायसं व विसमिस्सं। .. एवं विवेग मादाय, संवासो ण वि कप्पए दविए ॥१०॥ कठिन शब्दार्थ - अणुतप्पइ - पश्चात्ताप करता है, पायसं - खीर, विसमिस्सं - विष मिश्रित, संवासो - स्त्रियों के साथ एक साथ रहना । For Personal & Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 00000000NOM भावार्थ - जैसे विष से मिले हुए पायस (खीर) को खाकर मनुष्य पश्चात्ताप करता है इसी तरह स्त्री के वश में होने पर मनुष्य पश्चात्ताप करता है अतः इस बात को जानकर मुक्ति गमन योग्य साधु स्त्री के साथ एक स्थान में न रहे । तम्हा उ वजए इत्थी, विसलितं व कंटगं णच्चा । ओए कुलाणि वसवत्ती, आघाए ण से वि णिग्गंथे॥११॥ कठिन शब्दार्थ - वजए - त्याग करे, विसलित्तं - विष लिप्त, कंटगं - कण्टक, ओए - अकेला, वसवत्ती- वशवर्ती-वश में रहने वाला। भावार्थ - स्त्रियों को विषलिप्त कण्टक के समान जानकर साधु दूर से ही उनका त्याग करे । जो स्त्री के वश में होकर गृहस्थों के घर में अकेला जाकर धर्मकथा सुनाता है, वह साधु नहीं है। जे एयं उंछं अणुगिद्धा, अण्णयरा ते हुंति कुसीलाणं । सुतवस्सिए वि से भिक्खू , णो विहरे सह णमित्थीसु॥१२॥ कठिन शब्दार्थ - उंछ - निंदनीय कर्म में, अणुगिद्धा - आसक्त, कुसीलाणं - कुशीलों में से, सुतवस्सिए - उत्तम तपस्वी, विहरे - विहार करे, सह - साथ । ___भावार्थ - जो पुरुष स्त्रीसंसर्गरूपी निन्दनीय कर्म में आसक्त हैं वे कुशील हैं अतः साधु चाहे उत्तम तपस्वी हो तो भी स्त्रियों के साथ विहार न करे अर्थात् संगति न करे। ' अवि धूयराहिं सुण्हाहिं, धाईहिं अदुव दासीहि । महतीहिं वा कुमारीहि, संथवं से ण कुजा अणगारे॥१३॥ कठिन शब्दार्थ - भूयराहिं - कन्या के साथ, सुहाहिं - पुत्रवधू के साथ, भाईहि - धात्री के साथ, दासीहिं - दासी के साथ, महतीहिं - बड़ी स्त्री के साथ, कुमारीहिं - कुमारी के साथ, संथवं - संस्तव-परिचय । भावार्थ - अपनी कन्या हो, चाहे अपनी पुत्रवधू हो, अथवा दूध पिलाने वाली धाई हो अथवा दासी हो, बड़ी स्त्री हो या छोटी कन्या हो उनके साथ साधु को परिचय नहीं करना चाहिये । अदु णाइणं च सुहीणं वा, अप्पियं दटुं एगया होइ। गिद्धा सत्ता कामेहि, रक्खण-पोसणे मणुस्सोऽसि ॥१४॥ कठिन शब्दार्थ - णाइणं - ज्ञातिजनों को, सुहीणं - सुहृदों-मित्रों को, अप्पियं - अप्रिय भाव, दटुं - देखकर, रक्खणपोसणे - रक्षण-भरण पोषण । For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ उद्देशक १ १२९ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ - किसी स्त्री के साथ एकान्त स्थान में बैठे हुए साधु को देखकर उस स्त्री के ज्ञाति और सुहृदों को कभी कभी चित्त में दुःख भी उत्पन्न होता है और वे समझते हैं कि जैसे दूसरे पुरुष काम में आसक्त रहते हैं इसी तरह यह साधु भी कामासक्त हैं । फिर वे क्रोधित होकर कहते हैं कि तुम इसका भरण पोषण क्यों नहीं करते क्योंकि तूं इसका मनुष्य हैं ।। समणं पि दट्ठ दासीणं, तत्थ वि ताव एगे कुप्पंति । अदुवा भोयणेहिं णत्थेहि, इत्थी दोसं संकिणो होंति ॥१५॥ कठिन शब्दार्थ - दव- देख कर, दासीणं - उदासीन-रागद्वेष रहित अतएव मध्यस्थ, कुप्पंति - क्रोधित हो जाते हैं, इत्थीदोसं - स्त्री के दोष को, संकिणो - शंका करने वाले । भावार्थ - रागद्वेष से वर्जित और तपस्वी भी साधु यदि एकान्त में किसी स्त्री के साथ वार्तालाप करता है तो उसे देखकर कोई क्रोधित हो जाते हैं और वे स्त्री में दोष की शंका करने लगते हैं । वे समझते हैं कि यह स्त्री साधु की प्रेमिका है इसीलिये यह नाना प्रकार का आहार बनाकर साधु को दिया करती है । कुव्वंति संथवं ताहिं, पब्भट्ठा समाहिजोगेहिं । तम्हा समणा ण समेंति, आयहियाए सण्णि-सेज्जाओ॥१६॥ कठिन शब्दार्थ - पब्भट्ठा - भ्रष्ट पुरुष, समाहिजोगेहिं - समाधि योग से, आयहियाए - अपने कल्याण के लिए, सण्णिसेज्जाओ - स्त्रियों के स्थान पर । . . भावार्थ - धर्मध्यान से भ्रष्ट पुरुष ही स्त्रियों के साथ परिचय करते हैं परन्तु साधु पुरुष अपने कल्याण के लिये स्त्रियों के स्थान पर नहीं जाते हैं अर्थात् स्त्रियों का परिचय नहीं करते हैं। . बहवे गिहाइं अवहट्टु, मिस्सी भावं पत्थुया य एगे। धुवमग्गमेव पवयंति, वाया वीरियं कुसीलाणं ॥१७॥ कठिन शब्दार्थ - गिहाई- गृहों (घरों) को, अवहट्ट- छोड़ कर, मिस्सीभावं - मिश्रभाव-कुछ गृहस्थ कुछ साधु का मिश्रित आचार, पत्थुया - स्वीकार कर लेते हैं, धुवमग्गमेव - ध्रुवमार्ग को ही, वायावीरियं - वाक्वीर-वचन में वीर्य, कुसीलाणं - कुशीलों के। भावार्थ - बहुत लोग प्रव्रज्या लेकर भी कुछ गृहस्थ और कुछ साधु के आचार को सेवन करते हैं । वे लोग अपने इस मिश्रित आचार को ही मोक्ष का मार्ग कहते हैं क्योंकि कुशीलों की वाणी में ही बल होता है, कार्य में नहीं अर्थात् शिथिलाचारी बोलते तो बहुत अच्छा हैं किन्तु तदनुसार आचरण नहीं करते हैं। For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ सुद्धं रवइ परिसाए, अह रहस्संमि दुक्कडं करेंति । जाणंति य णं तहांविऊ, माइल्ले महासढेऽयं ति ॥ १८ ॥ .......000 कठिन शब्दार्थ - सुद्धं शुद्ध, रवइ बतलाता है, परिसाए परिषद् सभा में, रहस्संमि - एकान्त में, दुक्कडं - दुष्कृत - पाप, तहाविक ( तहाविया) - यथार्थ को जानने वाले, माइल्ले मायावी, महासढे - महा शठ । - भावार्थ - कुशील पुरुष सभा में अपने को शुद्ध बतलाता है परन्तु छिपकर पाप करता है । इनकी अङ्गचेष्टा आदि का ज्ञान रखने वाले लोग जान लेते हैं कि ये मायावी और महान् शठ हैं । सयं दुक्कडं च ण वयइ, आइट्ठो वि पकत्थइ बाले । वेयाणुवीइ मा कासी, चोइज्जतो गिलाइ से भुज्जो ॥ १९ ॥ कठिन शब्दार्थ - आइट्ठो प्रेरित करने पर, वेयाणुवीइ - वेदानुवीचि-मैथुन की कामना, चोइज्जतो कहा जाता हुआ कहे जाने पर, गिलाइ ग्लानि को प्राप्त होता है । भावार्थ - द्रव्यलिङ्गी अज्ञानी पुरुष स्वयं अपना पाप अपने आचार्य से नहीं कहता है और दूसरे की प्रेरणा करने पर वह अपनी प्रशंसा करने लगता है आचार्य आदि उसे बारबार जब यह कहते हैं कि तुम मैथुन रूपी पाप कार्य का सेवन मत करो तब वह ग्लानि को प्राप्त होता है । ओसियावि इत्थिपोसेसु, पुरिसा इत्थिवेय-खेयण्णा । पण्णा समण्णिया वेगे, णारीणं वसं उवकसंति ॥ २० ॥ कठिन शब्दार्थ - इत्थिपोसेसु स्त्रियों का पोषण करने में इत्थिवेय खेयण्णा स्त्रीवेद खेदज्ञस्त्रियों के द्वारा उत्पन्न होने वाले खेदों के ज्ञाता, पण्णासमण्णिवा - प्रज्ञा समन्वित - प्रज्ञा (बुद्धि) से युक्त, णारीणं - स्त्रियों के, वसं उवकसंति वशीभूत हो जाते हैं । भावार्थ- स्त्री को पोषण करने के लिये पुरुष को जो व्यापार करने पड़ते हैं उनका सम्पादन करके जो पुरुष भुक्तभोगी हो चुके हैं तथा स्त्रीजाति मायाप्रधान होती है यह भी जो जानते हैं तथा पातिकी बुद्धि आदि से जो युक्त हैं ऐसे भी कोई पुरुष स्त्रियों के वश में हो जाते हैं । - - - अवि हत्थ - पाय - छेयाए, अदुवा वद्ध-मंस-उक्कंते । अवि तेयसाभितावणाणि, तच्छिय खारसिंघणाई च ॥ २१ ॥ कठिन शब्दार्थ - हत्थ -पाय-छेयाए हाथ पैर काटे जाते हैं, वद्ध- वर्द्ध - चमडा, मंस - For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ उद्देशक १ १३१ . मांस, उक्कंते - काट लिये जाते, तेयसाभितावणाणि - अग्नि से तपाये जाते हैं, तच्छिय - छेदन करके, खार सिंचणाई - क्षार का सिंचन किया जाता है । .. भावार्थ - जो लोग परस्त्री सेवन करते हैं उनके हाथ पैर काट लिये जाते हैं, अथवा उनका चमड़ा और मांस काट लिये जाते हैं, तथा अग्नि के द्वारा वे तपाये जाते हैं एवं उनका अङ्ग काट कर खार के द्वारा सिञ्चन किया जाता है । अदु कण्ण-णासच्छेयं, कंठच्छेयणं तितिक्खंति । इति इत्थ पाव-संतत्ता, ण य बिंति पुणो ण काहिंति ॥२२॥ कठिन शब्दार्थ - कण्णणासच्छेयं - कान और नाक का छेदन, कंठच्छेयणं - कंठ छेदन, तितिक्खंति - सहन करते हैं, पावसंतत्ता - पाप संतप्त-पापी पुरुष, काहिंति - करेंगे। - भावार्थ - पापी पुरुष अपने पाप के बदले कान, नाक और कण्ठ का छेदन भेदन सहन करते हैं . परन्तु यह नहीं निश्चय कर लेते हैं कि हम अब पाप नहीं करेंगे । सुयमेय-मेव-मेगेसिं, इत्थीवेयत्ति हु सुयक्खायं । एवं पिता वइत्ताणं, अदुवा कम्मुणा अवकरेंति ॥ २३॥ ..कठिन शब्दार्थ - सुयं - सुना है, इत्थीवेयत्ति हु - स्त्रीवेद (कामशास्त्र) में भी, सुयक्खायं - कहा गया है, कम्मुणा - कर्म से, अवकरेंति - अपकार करती है । भावार्थ - स्त्रियों का सम्पर्क बुरा है यह हमने सुना है, तथा कोई ऐसा कहते भी हैं एवं वैशिक कामशास्त्र का यही कहना है अब मैं इस प्रकार न करूंगी यह कहकर भी स्त्रियां अपकार करती है । अण्णं मणेण चिंतेंति, वाया अण्णं च कम्मुणा अण्णं । तम्हा ण सहहे भिक्खू, बहुमायाओ इथिओ णच्चा ॥२४॥ कठिन शब्दार्थ - अण्णं - दूसरा, मणेण - मन से, चिंतेंति - सोचती हैं, सद्दहे - श्रद्धा करे, बहुमायाओ - बहुत माया वाली । भावार्थ - स्त्रियां मन में दूसरा विचारती हैं और वाणी से दूसरा कहती हैं एवं कर्म से और ही करती हैं इसलिये साधु पुरुष बहुत माया करने वाली स्त्रियों को जान कर उन पर विश्वास न करे। जुवइ समणं बूया, विचित्तलंकार-वत्थगाणि परिहित्ता। - विरता चरिस्सहं रुक्खं, धम्ममाइक्ख णे भयंतारो ॥२५॥ For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कठिन शब्दार्थ - जुवइ - युवती, समणं - साधु को, बूया - कहे, विचित्तलंकार वत्थगाणिविचित्र अलंकार और वस्त्र, परिहित्ता - पहन कर, विरता - विरत होकर, रुक्खं - रूक्ष-संयम का, चरिस्सहं - पालन करूंगी, धम्मं - धर्म को आइक्ख - कहा, भयंतारो - भय से बचाने वाले । . . भावार्थ - कोई युवती स्त्री विचित्र अलङ्कार और भूषण पहनकर साधु से कहती है कि हे भय से बचाने वाले साधो ! मैं विरत होकर संयम पालन करूँगी इसलिये आप मुझ को धर्म सुनाइये । अदु साविया पवाएणं, अहमंसि साहम्मिणी य समणाणं। जतकंभे जहा उवज्जोई, संवासे विद विसीएज्जा ॥२६॥ कठिन शब्दार्थ - साविया - श्राविका, पवाएणं - बहाने से, साहम्मिणी - साधर्मिणी, समणाणंश्रमणों की, जतुकुंभे - लाख का घड़ा, उवज्जोई , अग्नि के निकट संवासे - संवास-समीप, विदूं - विद्वान्, विसीएज्जा - विषाद को प्राप्त होता है । __ भावार्थ - स्त्री श्राविका होने का बहाना बनाकर तथा मैं साधु की साधर्मिणी हूँ यह कहकर साधु के निकट आती है । जैसे आग के पास लाख का घड़ा गल जाता है इसी तरह स्त्री के साथ रहने से विद्वान् पुरुष भी शीतलविहारी हो जाते हैं । जतुकुंभे जोइ उवगूढे, आसुऽभितत्ते णासमुवयाइ । एवित्थियाहिं अणगारा, संवासेण णासमुवयंति ॥ २७॥ कठिन शब्दार्थ - आसु - शीघ्र, अभितत्ते - तपा हुआ, णासमुवयाइ - नाश को प्राप्त होता है, संवासेण - स्त्रियों के संसर्ग से, णासं - नाश को, उवयंति - प्राप्त हो जाते हैं । .. भावार्थ - जैसे अग्नि के द्वारा आलिङ्गन किया हुआ लाख का घडा चारों तरफ से तप्त होकर शीघ्र ही गल जाता है इसी तरह अनगार पुरुष स्त्रियों के संसर्ग से शीघ्र ही ब्रह्मचर्य से पतित हो जाते हैं। कुव्वंति पावगं कम्मं, पुट्ठा वेगेव-माहिंसु । णोऽहं करेमि पावंति, अंकेसाइणी ममेस त्ति ॥२८॥ कठिन शब्दार्थ-पुट्ठा - पूछने पर, एवं - इस तरह, आहिंसु- कहते हैं, अंकेसाइणी - अंकशायिनी - गोद में सोने वाली । भावार्थ - कोई भ्रष्टाचारी साधु पापकर्म करते हैं परन्तु आचार्य के पूछने पर कहते हैं कि - मैं . पाप कर्म नहीं करता हूँ किन्तु यह स्त्री बालावस्था में मेरे अङ्क में सोई हुई है । For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ उद्देशक १ १३३ 0000000000. 000000000000000000000000000000000000000०००००० बालस्स मंदयं बीयं, जं च कडं अवजाणइ भुज्जो । दुगुणं करेइ से पावं, पूयणकामो विसण्णेसी ॥ २९॥ कठिन शब्दार्थ - बालस्स - मूर्ख पुरुष की, मंदयं - मूर्खता, बीयं (बीइयं) - दूसरी, अवजाणइ - नकारता है, दुगुणं- द्विगुण, पूयणकामो - पूजा और काम (असंयम) का, विसण्णेसीआकांक्षी । भावार्थ - उस मूर्ख पुरुष की दूसरी मूर्खता यह है कि वह पाप कर्म करके फिर उसे इनकार करता है, इस प्रकार वह दुगुना पाप करता है, वह संसार में अपनी पूजा चाहता हुआ असंयम की इच्छा करता है। संलोकणिज-मणगारं, आयगयं णिमंतणेणासु । वत्थं च ताइ ! पायं वा, अण्णं पाणगं पडिग्गाहे ॥३०॥ कठिन शब्दार्थ - संलोकणिज - संलोकनीय-दिखने में सुंदर-दर्शनीय, आयगयं - आत्मगतआत्मज्ञानी, णिमंतणेण - आमंत्रण से, आहंसु - कहा है, पडिग्गाहे - स्वीकार करें । भावार्थ - देखने में सुन्दर साधु को स्त्रियां आमन्त्रण करती हुई कहती हैं कि हे भवसागर से रक्षा करने वाले साधो ! आप मेरे यहां वस्त्र, पात्र, अन्न और पान ग्रहण करें । णीवारमेवं बुज्झेज्जा, णो इच्छे अगार-मागंतुं । . बद्धे विसय-पासेहि, मोहमावग्जइ पुणो मंदे ॥ त्ति बेमि ।। ३१ ॥ कठिन शब्दार्थ - णीवारं - नीवार-चावल के दानें, एवं - इस प्रकार, बुझेजा - समझे, अगारं - घर को, आगंतुं - आने के लिये, बद्धे - बद्ध-बंधा हुआ, विसय पासेहिं - विषय पाशों से, मोहं - मोह को, आवजइ - प्राप्त होता है । भावार्थ - पूर्वोक्त प्रकार के प्रलोभनों को साधु, सूअर को लुभाने वाले चावल के दानों के समान समझे । विषयरूपी पाश से बँधा हुआ मूर्ख पुरुष मोह को प्राप्त होता है। .. त्ति बेमि - इति ब्रवीमि - ऐसा मैं कहता हूँ । ॥इति पहला उद्देशक ॥ For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ दूसरा उद्देशक ओए सया ण रज्जेज्जा, भोगकामी पुणो विरज्जेज्जा । भोगे समणाणं सुणेह, जह भुंजंति भिक्खुणो एगे ॥ १ ॥ 0000000000 कठिन शब्दार्थ - ओए ओज-अकेला राग द्वेष से रहित, रज्जेज्जा विरजेज्जा - हटा दे, समणाणं साधुओं के, भोगे भोग भोगना, सुणेह - सुनो । - - भावार्थ - रागद्वेष रहित साधु को भोग में चित्त नहीं लगाना चाहिये । किन्तु यदि कदाचित् चित्त उधर चला जाय तो ज्ञानरूपी अंकुश लगा कर उसे हटा देना चाहिये भोग भोगना साधु के लिये लज्जा की बात है तो भी कई साधु भोग में फंस जाते हैं, उनकी कैसी बुरी हालत होती है सो आगे बताया जाता है। इस विषय में कवि ने कुत्ते का दृष्टान्त दिया है यथा कृशः काण: खंजः श्रवण रहितः पुच्छविकलः, क्षुधाक्षामो जीर्णः पिठरक कपालार्दितगलः । व्रणैः पूयक्लिनैः कृमिकुलशतैराविलतनुः, शुनीमन्वेति श्वा हतमपि च हन्त्येव मदनः ।। १॥ अर्थ - दुबला, काणा, लंगडा, बूचा (कानों से रहित) कटी पूंछ वाला, भूख और प्यास से पीड़ित, जीर्ण शरीर वाला हांडी का ठीकरा जिसके गले में पड़ा हुआ है तथा रस्सी (पीप) से भरे हुए घावों वाला एवं बिलबिलाते हुए सैकड़ों कीडों से व्याप्त शरीर वाला कुत्ता भी कुत्तिया के पीछे-पीछे भागता फिरता है यह कामदेव बडा दुष्ट है। मरे हुए को भी मार देने में कोई कसर नहीं रखता है। भोगासक्त प्राणियों की ऐसी दुर्दशा होती है। **************** अह तं तु भेय-मावणं, मुच्छियं भिक्खुं काममइवट्टं । पलिभिंदिया णं तो पच्छा, पादुद्धट्टु मुद्धि पहणंति ॥२ ॥ - कठिन शब्दार्थ - भेयं भेद को, आवण्णं प्राप्त हुए, कामं काम में, अइवट्टे - आसक्त, पलिभिंदिया - वश में जान कर, पादुद्धट्टु - पैर उठा कर, मुद्धि - शिर पर, पहणंति - प्रहार करती है। भावार्थ - चारित्र से भ्रष्ट स्त्री में आसक्त, विषय भोग में दत्तचित्त साधु को जानकर स्त्री उसके शिर पर पैर का प्रहार करती है । - जइ केसिया णं मए भिक्खू णो विहरे सह णमित्थीए । साण विहं लुंचिस्सं, णणत्थ मए चरिज्जासि ॥ ३ ॥ चित्त लगावे For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ अध्ययन ४ उद्देशक २ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कठिन शब्दार्थ - केसिया - केश वाली, मए - मुझ, केसाण - केशों का, वि - भी, हं - मैं, लुचिस्सं - लोच कर दूंगी, णणत्थ - अन्यत्र नहीं । भावार्थ - स्त्री कहती है कि हे भिक्षो ! यदि मुझ केश वाली स्त्री के साथ विहार करने में तू लज्जित होता है तो मैं इसी जगह अपने केशों को लोच कर देती हूँ परन्तु मेरे बिना तू किसी दूसरी जगह न जाओ अर्थात् मेरे बिना तुम क्षण भर भी न रहो। यही मैं आपसे प्रार्थना करती हूँ। आप जो कुछ भी मुझको आज्ञा देंगे वह सब कार्य मैं करूंगी। अह णं से होइ उवलद्धो, तो पेसंति तहाभूएहिं । अलाउच्छेदं पेहेहि, वग्गुफलाइं आहराहि त्ति ॥४॥ कठिन शब्दार्थ - उवलद्धो - उपलब्ध-वश में, पेसंति तहाभूएहिं - नौकर के समान कार्य में : प्रेरित करती है, अलाउच्छेद- तुम्बा काटने के लिए चाकू लाओ, पेहेहि - देखो, वग्गुफलाइं - अच्छे फल, आहराहि - लाओ। . भावार्थ - साधु की चेष्टा और आकार आदि के द्वारा जब स्त्री यह जान लेती है कि यह मेरे वश में हो गया है तो वह अपने नौकर के समान कार्य करने के लिए उसे प्रेरित करती है । वह कहती है कि तुम्बा काटने के लिये छुरी लावो तथा मेरे लिये स्वादिष्ट फल लाओ। विवेचन - जो स्त्री भिक्षु को पतित करके, केवल विषय-वासना के लिये ही सिर मुंडाती है वह अपनी भोगेच्छा को कब तक दबा सकती है । उसकी भोगेच्छा किस प्रकार विशाल होती जाती है और पुरुष उसकी भोगेच्छा में किस प्रकार एक दयनीय कीड़ा बन जाता है, इसका वास्तविक चित्रण शास्त्रकार ने किया है । दारूणि सागपागाए, पज्जोओ वा भविस्सइ राओ। पायाणि य मे रयावेहि, एहि ता मे पिट्ठओ मद्दे ॥५॥ कठिन शब्दार्थ - दारूणि - लकड़ी लाओ, सागपागाए - शाक पकाने के लिए, पज्जोओ - प्रकाश, पायाणि - पात्रों को अथवा पैर को, रयावेहि - रंग दो, एहि - आओ, पिट्ठओ - पीठ, मद्दे - मर्दन कर दो। भावार्थ - हे साधो ! शाक पकाने के लिये लकड़ी लाओ, रात में प्रकाश के लिये तैल लाओ । मेरे पात्रों को अथवा मेरे पैरों को रंग दो । इधर आवो मेरी पीठ मल दो । वत्थाणि य मे पडिलेहेहि, अण्णं पाणं च आहराहि त्ति । गंधं च रओहरणं च, कासवगं च मे समणुजाणाहि ॥६॥ For Personal & Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १३६ . श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कठिन शब्दार्थ - वत्थाणि - वस्त्रों को, पडिलेहेहि - देख, गंधं - सुगंधि पदार्थ, रओहरणंरजोहरण, कासवगं - काश्यप-नाई । भावार्थ - हे साधो ! मेरे कपड़े पुराने हो गये हैं इसलिये मुझको नये कपड़े लाकर दो। मेरे लिये अन्न और जल लाओ । तथा गन्ध और रजोहरण लाकर मुझको दो। मैं लोच की पीडा नहीं सह सकती हूं इसलिये मुझको नाई से बाल कटाने की आज्ञा दो । विवेचन - इस प्रकार मांग बढ़ाते बढ़ाते, भिक्षु भिक्षुणी दोनों पूरे गृहस्थ बन जाते हैं । अदु अंजणिं अलंकारं, कुक्ययं मे पयच्छाहि । लोद्धं च लोद्धकुसुमं च, वेणु-पलासियं च गुलियं च ॥ ७ ॥ कठिन शब्दार्थ - अंजणिं - अंजनदानी, अलंकारं - अलंकार-आभूषण, कुक्कययं - घूघुरूदार वीणा, पयच्छाहि - लाकर दो, लोद्धं - लोध्र का फल, लोद्धकुसुमं - लोध्र का फूल वेणू पलासियं - बांस की लकड़ी, गुलियं - गुटिका (औषध की गोली)। . . . भावार्थ - स्त्री में अनुरक्त साधु से स्त्री कहती है कि हे साधो ! मुझको अञ्जन का पात्र, भूषण तथा घुघूरूदार वीणा लाकर दो तथा लोघ्र का फल और फूल लाओं एवं एक बाँस की लकडी और पौष्टिक औषध की गोली भी लाओ। कुटुं तगरं च अगरुं, संपिटुं सम्म उसिरेणं । तेल्लं मुहुभिंजाए, वेणुफलाइं सण्णिधाणाए ॥८॥ कठिन शब्दार्थ - कुटुं - कुष्ट, तगरं - तगर, अगरु - अगर, संपिटुं - पीसा हुआ, सम्मं - साथ, उसिरेणं - उशीर (खस) के मुहुभिजाए (भिलिंजाए)- मुंह पर लगाने के लिए, वेणुफलाइं - बांस की बनी पेटी, सण्णिधाण्णाए - वस्त्र आदि रखने के लिए। . भावार्थ - स्त्री कहती है कि हे प्रिये ! उशीर के जल में पीसा हुआ कुष्ट, तगर और अगर लाकर मुझको दो तथा मुख पर लगाने के लिये तैल और कपड़ा वगैरह रखने के लिये बांस की बनी हुई एक पेटी लाओ। णंदी-चुण्णगाई पाहराहि, छत्तोवाणहं च जाणाहि। सत्थं च सूवच्छेज्जाए, आणीलं च वत्थयं रयावेहि॥९॥ कठिन शब्दार्थ - णंदी चुण्णगाई - नंदी चूर्ण, छत्तोवाणहं- छाता और जूता, सत्थ - शस्त्र, सूवच्छेज्जाए - शाक काटने के लिए, आणीलं - नीले रंग से, वत्थयं - वस्त्र को, रयावेहि - रंगा कर लाओ। भावार्थ - स्त्री अपने में अनुरक्त पुरुष से कहती है कि - हे प्रियतम ! मुझको ओठ रंगने के For Personal & Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ उद्देशक २ 000000000000000000000000000000000००००००००००००००००००००००००००००००० लिये चूर्ण लाओ तथा छाता जूता और शाक काटने के लिये छुरी लाओ । मुझको नीलवस्त्र रँगाकर लादो । सुफणिं च सागपागाए, आमलगाइं दगाहरणं च । . तिलगकरणि मंजणसलागं, प्रिंसु मे विहूणयं विजाणेहि ॥ १० ॥ कठिन शब्दार्थ - सुफणिं - तपेली को, सागपागाए - शाक पकाने के लिए, आमलगाई - आंवला, दगाहरणं - जल रखने का पात्र-कलश, तिलगकरणि मंजणसलागं - तिलककरणी और अंजन लगाने की सलाई, प्रिंसु - गर्मी में, विहूणयं - पंखा । ... भावार्थ- स्त्री शीलभ्रष्ट पुरुष से कहती है कि हे प्रियतम ! शाक पकाने के लिये तपेली लाओ तथा आंवला, जल रखने का पात्र, तिलक और अंजन लगाने की सलाई एवं गर्मी में हवा करने के लिये पंखा लाकर मुझको दो । संडासगं च फणिहं च, सीहलिपासगं च आणाहि । आदंसगं च पर्यच्छाहि, दंत-पक्खालणं पवेसाहि ॥११॥ कठिन शब्दार्थ - संडासगं - संदशक-चिपीया, फणिहं - कंघी, सीहलिपासगं - सीहलिपाशक.. चोटी बांधने के लिए ऊन का बना कंकण, आदंसगं - आदर्शक-दर्पण, दंतपक्खालणं- दंत प्रच्छालनकदातुन, दंत मंजन । .भावार्थ - स्त्री कहती है कि हे प्रियतम ! नाक के केशों को उपाडने के लिये चिपीया लाओ, केश संवारने के लिये कंघी और चोटी बाँधने के लिये ऊन की बनी आँटी, मुख देखने के लिये दर्पण तथा दांत साफ करने के लिये दन्तमञ्जन लाओ । पूयफलं तंबोलयं, सूई सुत्तगं च जाणाहि । . कोसं च मोयमेहाए, सुप्पुक्खलगं च खारगालणं च ॥ १२ ॥ - कठिन शब्दार्थ - पूयफलं - पूगफल-सुपारी, तंबोलयं - तांबूल-पान, सुत्तगं - सूत, मोय मेहाए - मूत्र के लिए, कोसं - कोश-पात्र, सुप्पुक्खलगं - सूप, ऊखली, खारगालणं - क्षार गलाने का पात्र । भावार्थ - स्त्री कहती है कि हे प्रियतम ! पान, सुपारी, सूई, सूत, पेशाब करने के लिये बर्तन, सूप, ऊखली एवं खार गलाने का बर्तन लाकर दो । चंदालगं च करगं च, वच्च घरं च आउसो ! खणाहि । सरपाययं च जायाए, गोहरगं च सामणेराए ॥ १३॥ For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कठिन शब्दार्थ - चंदालगं - चन्दालक पूजा पात्र, करग - करक-जल व मद्य रखने का पात्र, वच्चघरं - वक़गृह-संडास, खणाहि - खोद दो, सरपाययं - शरपात-धनुष, जायाए - पुत्र के लिए, गोहरगं - तीन वर्ष का बैल, सामणेराए - श्रमण पुत्र के लिए । भावार्थ - स्त्री कहती है कि हे प्रियतम ! देवता का पूजन करने के लिये तांबा का पात्र तथा जल और मद्य रखने का पात्र मुझ को लादो । मेरे लिये पाखाना बनवा दो । अपने पुत्र को खेलने के लिये एक धनुष ला दो तथा तीन वर्ष का एक बैल लादो जो अपने पुत्र को गाडी में वहन करेगा। .' घडिगं च सडिंडिमयं च, चेलगोलं कुमारभूयाए । वासं समभिआवण्णं, आवसहं च जाण भत्तं च ॥१४॥ कठिन शब्दार्थ - घडिगं - घटिका, गुडिया, सडिंडिमयं - डमरु बाजा, चेलगोलं - कपडे की बनी गेंद, कुमार भूयाए - कुमार के लिए, वासं - वर्षा, समभिआवण्णं - समीप आ गयी है, आवसहं - निवास करने योग्य स्थान-मकान । भावार्थ - शीलभ्रष्ट साधु से उसकी प्रियतमा कहती है कि हे प्रियतम ! अपने कुमार को खेलने के लिये मिट्टी की गुड़िया, बाजा और कपड़े की बनी हुई गेंद ला दो । वर्षा ऋतु आ गई है इसलिये वर्षा से बचने के लिये मकान और अन्न का प्रबन्ध करो । आसंदियं च णव सुत्तं, पाउल्लाइं संकमट्ठाए । अदू पुत्त दोहलहाए, आणप्पा हवंति दासा वा ॥१५॥ कठिन शब्दार्थ - आसंदियं - मंचिया, खटिया, णवसुत्तं - नये सूत की, पाउल्लाइं - पादुक खडाऊ, संकमट्ठाए - घूमने के लिये, पुत्त दोहलट्ठाए - गर्भस्थ पुत्र दोहद पूर्ति के लिए, आणप्पाआज्ञा, दासा वा - दास की तरह । भावार्थ - हे प्रियतम ! नये सूतों से बनी हुई एक मॅचिया बैठने के लिये लाओ तथा इधर उधर घूमने के लिये एक खडाऊ लाओ । मुझको गर्भ दोहद उत्पन्न हुआ है इसलिये अमुक वस्तु लाओ। इसस प्रकार स्त्रियां दास की तरह पुरुषों पर आज्ञा करती हैं। जाए फले समुप्पण्णे, गेहसु वा णं अहवा जहाहि । अह पुत्तपोसिणो एगे, भारवहा हवंति उट्टा वा ॥१६॥ कठिन शब्दार्थ - समुप्पण्णे - उत्पन्न होने पर, गेण्हसु - ग्रहण करो, गोद में लो, जहाहि - छोड़ दो, पुत्तपोसिणो - पुत्र के पोषण के लिए, भारवहा - भार वहन करने वाले हैं, उट्टा वा - ऊंट की तरह । For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ उद्देशक २ १३९ । भावार्थ - पुत्र जन्म होना गृहस्थों का फल है उस फल के उत्पन्न होने पर स्त्री कुपित होकर अपने पति से कहती है कि इस लड़के को गोद में लो अथवा छोड़ दो । कोई कोई पुत्र के पोषण में आसक्त पुरुष ऊंट की तरह भार वहन करते हैं । राओ वि उट्टिया संता, दारगं च संठवंति धाई वा । .. सुहिरामणा वि ते सन्ता, वत्थधोवा हवंति हंसा वा ॥१७॥ . कठिन शब्दार्थ - राओ वि - रात को भी उट्ठिया - उठ कर, दारगं - लडके को, संठवंति - गोद में लेते हैं, धाई वा - धात्री-धाई, सुहिरामणा - लज्जाशील, वत्थधोवा - वस्त्र धोते हैं, हंसावाधोबी की तरह । भावार्थ - स्त्री वशीभूत पुरुष रात में भी ऊठ कर धाई की तरह लड़के को गोद में लेते हैं वे अत्यन्त लज्जाशील होते हुए भी धोबी की तरह औरत और बच्चे का वस्त्र धोते हैं । . एवं बहुहिं कयपुव्वं, भोगत्थाए जेऽभियावण्णा । दासे मिइ व पेसे वा, पसुभूए व से ण वा केइ ॥१८॥ कठिन शब्दार्थ - भोगत्थाए - भोग के लिए, जे - जो अभियावण्णा - सावध कार्यों में आसक्त, मिइव - मृग के समान, पेसे वा - प्रेष्य के समान, पसुभूए - पशुभूत-पशु के समान । . - भावार्थ - स्त्री वशीभूत होकर बहुत लोगों ने स्त्री की आज्ञा पाली है । जो पुरुष भोग के निमित्त सावद्य कार्य में आसक्त हैं वे दास मृग क्रीतदास तथा पशु के समान हैं अथवा वे सबसे अधम तुच्छ हैं। एवं खु तासु विण्णप्पं, संथ्रवं संवासं च वज्जेज्जा । . तज्जाइया इमे कामा, वजकरा य एवमक्खाए ॥१९॥ कठिन शब्दार्थ - विणप्पं - विज्ञप्त-कहा गया है, संथवं - संस्तव-परिचय, संवासं - सहवास को, वजेज्जा - त्याग करे, वजकरा-पाप कारक, एवं-ऐसा, अक्खाए-तीर्थंकरों ने कहा है। भावार्थ - स्त्री के विषय में पूर्वोक्त शिक्षा दी गई है इसलिये साधु स्त्री के साथ परिचय और सहवास न करे । स्त्री के संसर्ग से उत्पन्न होने वाला कामभोग पाप को उत्पन्न करता है ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है। एयं भयं ण सेयाय, इइ से अप्पगं णिलंभित्ता । णो इत्थिं णो पसु भिक्खू, णो सयं पाणिणा णिलिजेज्जा ।। २० ॥ For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ ............................................****************.000 १४० कठिन शब्दार्थ - सेयाय - कल्याणकारी, अप्पगं - अपने को, णिरुंभित्ता - रोक कर, सयं अपने, पाणिणा- हाथ से, णिलिज्जेज्जा - स्पर्श करे । भावार्थ - स्त्री के साथ संसर्ग करने से पूर्वोक्त भय होता है तथा स्त्री संसर्ग कल्याण का नाशक इसलिये साधु स्त्री तथा पशु को अपने हाथ से स्पर्श न करे । विवेचन - उत्तराध्ययन सूत्र के बत्तीसवें अध्ययन में कहा है जहा बिराला सहस्स मूले, ण मूसगाणं वसही पसत्था । मेव इत्थीलियस मज्झे, ण बंभयारिस्स खमो णिवासो ॥ १३ ॥ अर्थ - जहाँ बिल्ली रहती हो वहाँ चूहों का रहना ठीक नहीं है क्योंकि चूहे चाहे कितनी ही सावधानी रखें किन्तु किसी न किसी समय उनके मारे जाने का भय बना ही रहता है। इसी प्रकार स्त्री, पशु और नपुंसक युक्त मकान में ब्रह्मचारी का रहना उचित नहीं है क्योंकि वह बिल्ली की सावधानी रखे तो भी कभी न कभी उसके ब्रह्मचर्य के विनाश की संभावना बनी ही रहती है। अतः उत्तराध्ययन सूत्र के सोलहवें अध्ययन में कहे हुए दस ब्रह्मचर्य समाधि स्थानों का पालन करना चाहिये । सुविसुद्ध लेसे मेहावी, परकिरियं च वज्जए णाणी । मणसा वयसा कायेणं, सव्व फास-सहे अणगारे ॥ २१ ॥ कठिन शब्दार्थ - सुविसुद्धलेसे विशुद्ध चित्त वाला, पर किरियं पर क्रिया का, वज्जएत्याग करे, सव्वफास सहे सभी स्पर्शों को सहन करता है । भावार्थ - विशुद्ध चित्तवाला तथा मर्य्यादा में स्थित ज्ञानी साधु मन वचन और काय से दूसरे की क्रिया को वर्जित करे । जो पुरुष, शीत, उष्ण आदि सब स्पर्शों को सहन करता है वही साधु है । - विवेचन पर क्रिया के तीन मतलब हैं १. विषय भोगों के लिये क्रिया करना २. विषयभोग- दान द्वारा दूसरे का उपकार करना और ३. दूसरे से अकारण सेवा लेना । ब्रह्मचारी पुरुष इन तीनों प्रकार से पर क्रिया का त्याग कर दें। - - इच्चेव-माहु से वीरे, धूयरए धूयमोहे से भिक्खू । तम्हा अज्झत्थ विसुद्धे, सुविमुक्के आमोक्खाए परिव्वज्जासि ॥ २२॥ ॥ त्ति बेमि ॥ कठिन शब्दार्थ - धुयर - धूतरज- कर्मों को धून डालने वाला, धूयमोहे - धूतमोह-मोह (राग - द्वेष ) से रहित, अज्झत्थ विसुद्धे- आध्यात्मविशुद्ध-शुद्ध अंतःकरण वाला, सुविमुक्क - सुविमुक्त-का भोग से मुक्त, आमोक्खाए मोक्ष पर्यंत, परिव्वज्जासि संयम पालन करें । For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ४ उद्देशक २ १४१ भावार्थ - जिसने स्त्री सम्पर्क जनित रज यानी कर्मों को दूर कर दिया था तथा जो रागद्वेष से रहित थे उस वीर प्रभु ने पूर्वोक्त बातें कहीं हैं इसलिये निर्मलचित्त और स्त्री सम्पर्क वर्जित साधु मोक्षपर्य्यन्त संयम के अनुष्ठान में प्रवृत्त रहे । विवेचन - इस अध्ययन में स्त्री की निंदा नहीं है, परन्तु वस्तु स्थिति बताकर, साधक को सचेत किया गया है । जिस प्रकार भिक्षु के लिये स्त्री का उपसर्ग है उसी प्रकार भिक्षुणी के लिये पुरुष का उपसर्ग है । कई धूर्त भोली-भाली अज्ञ साधिकाओं को, अपने सुनहरी माया जाल से उनकी सुप्त वासनाओं को भड़का कर, उन्हें पतित बना देते हैं और यहां तक कि वे पुरुष प्रेम का स्वांग भरकर, मक्कारी के साथ उनके रूप का- उनके शरीर का व्यापार करके, उनके स्त्रीत्व के साथ खिलवाड़ करते हैं । तब उन पतित स्त्रियों की दुर्दशा का पार नहीं रहता है । अत: चाहे पुरुष साधक हो चाहे स्त्री साधिका हो, उन्हें अपने विरोधी लिंग वालों से हमेशा सावधान रहने की जरूरत है, जिससे कि शास्त्रकार सम्मत हैं । परन्तु यहां भिक्षु की अपेक्षा से स्त्री-उपसर्प का स्वरूप ही वर्णित है, जो कि स्वाभाविक है। . कामभोगों का बहुत कड़वा फल होता है। जैसा कि उत्तराध्ययन सूत्र के चौदहवें अध्ययन में कहा गया है - खणमित्त सुक्खा बहुकाल दुक्खा, पगामदुक्खा अणिगामसुक्खा । संसार मोक्खस्स विपक्खभूया, खाणी अणत्थाण उ कामभोगा ॥ अर्थ - काम भोग क्षण मात्र सुख देने वाले हैं तथा चिरकाल तक दुःख। वे अत्यन्त दुःखकारक और अल्प सुखदायी होते हैं, संसार से मुक्ति के विपक्षीभूत कामभोग अनर्थों की खान है। - अतः ज्ञानी पुरुष फरमाते हैं कि अपनी आत्मा का हित चाहने वाले पुरुषों को काम भोगों का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये। ॥इति दूसरा उद्देशक ॥ ॥स्त्री परिज्ञा नामक चौथा अध्ययन समाप्त॥ For Personal & Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नरक विभक्ति नामक पांचवां अध्ययन पाप के फल हर जगह भोगे जाते हैं । परन्तु पूर्ण व्यक्त चेतना में, सारी आयुष्य तक जिस क्षेत्र में, पापों के फल स्वरूप दुःख ही दुःख भोगे जाते हो, उस नियत क्षेत्र को नरक कहा गया है । निकृष्टतम पापों के फल, व्यक्त चेतना में, नरक के सिवाय अन्यत्र भोगना संभव नहीं है । अतः "नरक है" - यह मानना युक्ति-संगत है । पहला उद्देशक पुच्छि हं केवलियं महेसिं, कहं भितावा णरगा पुरत्था । अजाओ मे मुणि बूहि जाणं, कहं णु बाला णरयं उविंति ॥ १ ॥ कठिन शब्दार्थ - हं - अहं मैंने, पुच्छिसु पूछा था, भितावा- अभितावा- पीड़ा, अजाणओ नहीं जानने वाले, होते हैं । - - - महेसिं णरयं - For Personal & Private Use Only भावार्थ - श्री सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी आदि से कहते हैं कि मैने केवलज्ञानी महर्षि महावीर स्वामी से पूर्व समय में यह पूछा था कि नरक में कैसी पीड़ा भोगनी पड़ती है, हे भगवन् ! मैं इस बात को नहीं जानता हूं किन्तु आप जानते हैं इसलिये आप मुझको यह बतलाइये तथा यह भी कहिये कि अज्ञानी जीव किस प्रकार नरक को प्राप्त होते हैं । महर्षि को, कहं - कैसी, नरक को, उविंति प्राप्त - एवं मए पुट्ठे महाणुभावे, इणमोऽब्बवी कासवे आसुपण्णे । पवेदइस्सं दुहमदुग्गं, आदीणियं दुक्कडियं पुरत्या ॥२ ॥ कठिन शब्दार्थ - पुट्ठे - पूछे जाने पर, महाणुभावे - महानुभाव - बड़े माहात्म्य वाले, कासवे - काश्यपगोत्रीय, आसुपण्णे- आशुप्रज्ञ, दुहमट्ठ- दुःखदायी, दुग्गं - अज्ञेय - विषम, पवेदइस्सं बताऊंगा, आदीणियं - अत्यंत दीन, दुक्कडियं दुष्कृतिक-पापी जीव । भावार्थ - श्री सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी आदि से कहते हैं कि इस प्रकार मेरे द्वारा पूछे हुए अतिशय माहात्म्यसम्पन्न सब वस्तुओं में सदा उपयोग रखने वाले काश्यपगोत्र में उत्पन्न भगवान् महावीर स्वामी ने कहा कि नरक स्थान बडा ही दुःखदायी और असर्वज्ञ जीवों से अज्ञेय है वह पापी और दीन जीवों का निवास स्थान है यह मैं आगे चलकर बताऊंगा । - - www.jalnelibrary.org Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अय्यपन५ उद्दशक १ 0000000000000000000000000000000000000000000००००००००००००००००००००० - जे केइ बाला इह जीवियट्ठी, पावाइं कम्माइं करेंति रुद्दा। ते घोर रूवे तमिसंधयारे, तिव्वाभितावे णरए पडंति ॥३॥ कठिन शब्दार्थ - जीवियट्ठी - जीवितार्थी-जीवन के लिए, रुद्दा - रौद्र, घोर रूवे - घोर रूप वाले, तमिसंधयारे - महान् अंधकार से युक्त, तिव्वाभितावे - तीव्र ताप वाले, णरए - नरक में, पडंति - गिरते हैं । भावार्थ - प्राणियों को भय देने वाले जो अज्ञानी जीव अपने जीवन की रक्षा के लिये दूसरे प्राणियों की हिंसा आदि पाप कर्म करते हैं वे तीव्र ताप तथा घोर अन्धकार युक्त महादुःखद नरक में गिरते हैं। तिव्वं तसे पाणिणो थावरे य, जे हिंसइ आय-सुहं पडुच्चा । जे लूसए होइ अदत्तहारी, ण सिक्खइ सेयवियस्स किंचि ॥ ४ ॥ . कठिन शब्दार्थ- आयसुहं - अपने सुख के, पडुच्चा - निमित्त, लूसए - लूषक-प्राणियों का मर्दन अंगच्छेद करने वाला, अदत्तहारी - बिना दिये दूसरे की वस्तु लेने वाला, सिक्खइ - अभ्यास करता है, सेयवियस्स - सेवनीय - सेवन करने योग्य । : भावार्थ - जो जीव अपने सुख के निमित्त त्रस और स्थावर प्राणियों का तीव्रता के साथ हनन करता है तथा प्राणियों का उपमर्दन और दूसरे की चीज को बिना दिये ग्रहण करता है एवं जो सेवन करने योग्य संयम का थोडा भी सेवन नहीं करता है । पागब्भि पाणे बहूणं तिवाइ, अणिव्वुडे घातमुवेइ बाले । णिहो णिसं.गच्छति अंतकाले, अहोसिरं कटु उवेइ दुग्गं ॥५॥ कठिन शब्दार्थ - पागभि- धृष्ट-ढीठ मनुष्य, तिवाइ - अतिपाति-घात करता है, अणिव्वुडे - अनिवृत्त, घातं - घात को उवेइ-प्राप्त होता है, णिहो - नीचे णिसं - अंधकार में, अंतकालेमरणकाल में, अहोसिरं - नीचे शिर, कट्ट- करके, दुग्गं- दुर्गम-महापीड़ाकारी स्थान को । भावार्थ - जो जीव प्राणियों की हिंसा करने में बड़ा ढीठ है और अति धृष्टता के साथ बहुत प्राणियों की हिंसा करता है जो सदा क्रोधाग्नि से जलता रहता है वह अज्ञ जीव नरक को प्राप्त होता है । वह मरण काल में नीचे अन्धकार में प्रवेश करता है और नीचे शिर करके महापीड़ा स्थान को प्राप्त करता है। विवेचन - पाप कार्य करके उसको धर्म बताना धृष्टता (धीटाई) है। जैसा कि उनका कथन है - "वेदविहिता हिंसा हिंसैव न भवति" अर्थात् वेद में कही हुई और विधान की हुई हिंसा को हिंसा नहीं कहना चाहिये तथा For Personal & Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ गि सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 राज्ञां अयं धर्मो यदुत आखेटबकेन विनोदक्रियायदिवान मांस क्षणे दोषो, न मद्ये न चे मैथुने। प्रवृत्तिरेषा भूतानां, निवृत्तिस्तु महाफला॥१॥ अर्थात् – राजाओं का यह धर्म है कि वे शिकार के द्वारा अपना चित्त विनोद करते हैं। शिकार से राजाओं का चित्त प्रसन्न होता है। अथवा मांस खाने में, मदिरा पीने में और मैथुन सेवन करने में कोई दोष नहीं है। क्योंकि ये तो जीव के स्वभाव हैं। इनसे निवृत्त होने का महान् फल है। इत्यादि उन क्रूर और हिंसक मनुष्यों का कथन है वे अपने पाप के कारण भयङ्कर यातना स्थान (नरक) को प्राप्त होते 'हण, छिंदह, भिंदह णं दहेह', सद्दे सुणित्ता परहम्मियाणं । ते णारगाओ भयभिण्णसण्णा, कंखंति कं णाम दिसं वयामो ॥६॥ कठिन शब्दार्थ - हण - मारो, छिंदह - छेदन करो, भिंद- भेदन करो, दहेह - जलाओ, सुणित्ता - सुन कर, परहम्मियाणं - परमाधार्मिक देवों के, भयभिण्णसण्णा - भयभिन्न संज्ञा-भय से संज्ञा हीन, कंखंति - चाहते हैं । ___ भावार्थ - नारकी जीव, मारो, काटो, भेदन करो, जलाओ इत्यादि परमाधार्मिकों का शब्द सुनकर : भय से संज्ञाहीन हो जाते हैं और वे चाहते हैं कि - हम किस दिशा को भाग जायें ।। - विवेचन - प्रश्न - नरक किसे कहते हैं ? उत्तर - घोर पापाचरण करने वाले जीव अपने पापों का फल भोगने के लिए अधोलोक में जिन स्थानों में पैदा होते हैं उन्हें नरक अथवा नरक पृथ्वी कहते हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं - १. घम्मा, २. वंसा. ३. सीला, ४. अंजना ५. रिट्ठा ६. मघा ७. माघवई। इन सातों के गोत्र हैं- १. रत्नप्रभा २. शर्कराप्रभा ३. वालुकाप्रभा ४. पंकप्रभा ५. धूमप्रभा ६. तमःप्रभा और ७. महातमः प्रभा। प्रश्न - परमाधार्मिक देव किसे कहते हैं ? उनका निवास स्थान कहां है ? तथा वे कितने हैं ? उत्तर - भगवती सूत्र शतक २ उद्देशक ८ में इस प्रकार बतलाया गया है - इस समतल भूमिभाग से ४० हजार योजन नीचे जाने पर भवनपति देवों के भवन हैं। असुरकुमार आदि दस भवनपतियों के भेद हैं। पहली रत्नप्रभा पृथ्वी के तेरह प्रस्तट (पाथडा) हैं । एक पाथडे से दूसरे पाथडे तक जो खाली जगह है उसे अन्तर (आंतरा) कहते हैं। तेरह प्रस्तट हैं अतः बीच के बारह अन्तर हो जाते हैं। इनमें से पहले दूसरे अन्तरे को छोड़ कर तीसरे से बारहवें अन्तरे तक दस जाति के भवनपति देवों के भवन हैं। इनमें से तीसरे अन्तर में असुरकुमार जाति के भवनपति देवों के भवन हैं। पन्द्रह परमाधार्मिक देव असुरकुमार जाति के भवनपति देव हैं। उनके नाम और कार्य इस प्रकार हैं - For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उद्देशक १ । १४५ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 १. अम्ब - नैरयिक जीवों को आकाश में ले जाकर नीचे पटक देते हैं। २. अम्बरीष - छूरी आदि से छोटे छोटे टुकड़े कर के भाड़ में पकने योग्य बनाते हैं। ३. शाम - ये काले रंग के होते हैं। ये लात घूसे आदि से नैरयिक जीवों को पीटते हैं और भयंकर स्थानों में पटक देते हैं। ४. शबल - चित्तकबरे रंग के होते हैं। जो शरीर की आंते, नसें और कलेजे को बाहर खींच लेते हैं। ५. रौद्र (भयङ्कर)- भाले आदि में पिरो देते हैं। ६. उपरौद्र (महारौद्र)- महाभयङ्कर। अङ्गोंपांगों को फाड़ डालते हैं। ७. काल- ये काले रंग के होते हैं। कढ़ाई आदि में पकाते हैं। ८. महाकाल - ये बहुत काले होते हैं। नैरयिक जीवों के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर उन्हें ही खिलाते हैं। ९. असिपत्र - असि (तलवार) के आकार वाले पत्तों से युक्त वृक्षों की विक्रिया करके उनके नीचे बैठे हुए नैरयिक जीवों के ऊपर तलवार सरीखे पत्ते गिरा कर तिल सरीखे छोटे-छोटे टुकड़े कर डालते हैं। . १०. धनुष - बाणों के द्वारा नैरयिक जीवों के कान आदि अवयव काट लेते हैं। ११. कुम्भ- भगवती सूत्र में महाकाल के बाद असि दिया है। उसके बाद असि पत्र और उसके बाद कुम्भ दिया गया है। जो कुम्भियों में पकाते हैं उन्हें कुम्भ कहते हैं। १२. वालुक - जो वैक्रिय के द्वारा बनाई हुई कदम्ब पुष्प के आकारवाली अथवा वज्र के आकारवाली बालू रेत में चणों की तरह नारकी जीवों को भूनते हैं। १३. वैतरणी - जो असुर गरम मांस, रुधिर, राध, ताम्बा, सीसा आदि गर्म पदार्थों से उबलती हुई नदी में नारकी जीवों को फैंक कर उन्हें तैरने के लिये कहते हैं वे वैतरणी कहलाते हैं। १४. खरस्वर - जो वज्र कण्टकों से व्याप्त शाल्मली वृक्ष पर नारकों को चढाकर कठोर स्वर करते हुए अथवा करुण रुदन करते हुए नारकी जीवों को खींचते हैं। १५. महाघोष - जो डर से भागते हुए नारकी जीवों को पशुओं की तरह बाड़े में बन्द कर देते हैं तथा जोर से चिल्लाते हुए उन्हें वहीं रोक रखते हैं वे महाघोष कहलाते हैं। पूर्व जन्म में क्रूर क्रिया तथा संक्लिष्ट परिणाम वाले सदा पाप में लगे हुए भी कुछ जीव पंचाग्नि तप तपना आदि अज्ञान पूर्वक किये गये काया क्लेश से आसुरी (राक्षसी) गति को प्राप्त करते हैं। वे परमाधार्मिक देव कहलाते हैं। वे तीसरी नारकी तक जाकर नैरयिक जीवों को कंष्ट देते हैं। जिस तरह यहाँ पर कुछ मनुष्य भैंसा, मेंढा, कुत्ता आदि के युद्ध को देख कर खुश होते हैं उसी तरह परमाधार्मिक For Personal & Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ देव भी कष्ट पाते हुए नैरयिक जीवों को देख कर खुश होते हैं, अट्टहास करते हैं, तालियां बजाते हैं। इन बातों से परमाधार्मिक देव बडा आनन्द मानते हैं परन्तु वे अज्ञानी जीव यह नहीं समझते हैं कि इन कार्यों से फिर उनके नये कर्म बन्ध होते हैं। • इंगालरासिं जलियं सजोई, तत्तोवमं भूमिमणुक्कमंता । ते डण्झमाणा कलुणं थणंति, अरहस्सरा तत्थ चिरविइया ॥७॥ कठिन शब्दार्थ - इंगालरासिं - अंगार राशि को, जलियं - जलती हुई, सजोइं - ज्योति सहित, भूमिं - भूमि पर, अणुक्कमंता - चलते हुए, डजमाणा - जलते हुए, कलुणं - करुण, थणंति - क्रन्दन करते हैं, अरहस्सरा - महाशब्द करते हुए, चिल्लाते हुए, चिरट्ठिइया-चिर काल तक स्थित-निवास करते हैं। - भावार्थ - जैसे जलती हुई अङ्गार की राशि बहुत तप्त होती है तथा जैसे अग्नि सहित पृथिवी बहुत गर्म होती है इसी तरह अत्यन्त तपी हुई नरक की भूमि में चलते हुए नरक के जीव जलते हुए बड़े जोर से करुण रुदन करते हैं, वे वहां चिर काल तक निवास करते हैं। जइ ते सुया वेयरणीऽभिदुग्गा, णिसिओ जहा खुर इव तिक्ख-सोया । तरंति ते वेयरणी भिदुग्गां, उसुचोइया सत्तिसु हम्ममाणा ।।८ ॥ कठिन शब्दार्थ - वेयरणी - वैतरणी नदी को, अभिदुग्गा- अति दुर्गम, खुर इव - उस्तरे (छुरे) जैसी, तिक्खसोया - तीक्ष्ण धार वाली, उसुचोइया - बाण से प्रेरित किये हुए, सत्तिसु- भाले के द्वारा, हम्ममाणा - मारे जाते हए । __ भावार्थ - उस्तरे के समान तेज धार वाली वैतरणी नदी को शायद तुमने सुना होगा । वह नदी बड़ी दुर्गम है । जैसे बाण से (लकडी के अग्र भाग में तीखी कील लगाकर उसके द्वारा टोंच मारकर बैल को चलाते हैं उसे बाण कहते हैं) और भाला से भेद कर प्रेरित किया हुआ मनुष्य लाचार होकर किसी भयङ्कर नदी में कूद पड़ता है इसी तरह सताये जाते हुए नारकी जीव घबरा कर उस नदी में कूद पड़ते हैं। कीलेहिं विझंति असाहुकम्मा, णावं उविते सइ विप्पहूणा। अण्णे तु सूलाहिं तिसूलियाहिं, दीहाहिं विदधूण अहेकरंति ॥९॥ कठिन शब्दार्थ - कोलेहिं - कीलों से,, विझंति - चुभोते हैं, असाहुकम्मा - असाधुकर्मापरमाधार्मिक, उविते - पास आते हुए, सइविप्पहूणा - स्मृति शून्य, सूलाहिं - शूलों से, तिसूलियाहिं - त्रिशूलों से, दीहाहिं - दीर्घ, विभ्रूण - बिंध कर अहे - नीचे । । भावार्थ - वैतरणी नदी के दुःख से उद्विग्न नैरयिक जीव जब नाव पर चढने के लिये आते हैं तब For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उद्देशक १ १४७ उस नाव पर पहले से बैठे हुए परमाधार्मिक उन 'बिचारे नैरयिक जीवों के कण्ठ में कील चुभोते हैं, अतः वैतरणी के दुःख से जो पहले ही स्मृति हीन हो चुके हैं वे नैरयिक जीव इस दुःख से और अधिक स्मृतिहीन हो जाते हैं वे उस समय अपने शरण का कोई मार्ग नहीं देख पाते हैं। कई नरकपाल (परमाधार्मिक) अपने चित्त का विनोद करने के लिये नैरयिक जीवों को शूल और त्रिशूल से बींध कर नीचे पृथ्वी पर पटक देते हैं । केसिं च बंधित्तु गले सिलाओ, उदगंसि बोलंति महालयंसि। कलंबुया वालु य मुम्मुरे य, लोलंति पच्चंति य तत्थ अण्णे ॥ १० ॥ कठिन शब्दार्थ - बंधित्तु - बांध कर, सिलाओ - शिला, बोलंति - डूबोते हैं, महालयंसि - अथाह, अगाध, कलंबुयावालु- अति तप्त बालु में, मुम्मुरे - मुर्मुराग्नि में, लोलंति - फेरते हैं, पच्चंति - पकाते हैं । . भावार्थ - नरकपाल किन्हीं नैरयिक जीवों के गले में शिला बांधकर अगाध जल में डुबाते हैं और दूसरे नरकपाल अतितप्त वालुका में और मुर्मुराग्नि में उन नैरयिक जीवों को इधर उधर घसीटते हैं और पकाते हैं । असूरियं णाम महाभितावं, अंधंतमं दुप्पतरं महंतं । उड्ढं अहेयं तिरियं दिसासु, समाहिओ जत्थऽगणी झियाइ ॥११ ॥ कठिन शब्दार्थ - असूरियं - असूर्य - जहाँ सूर्य नहीं है, महाभितावं - महान् ताप वाला, दुप्पतरं - दुःख से पार करने योग्य, समाहिओ - समाहित-अच्छी तरह से व्यवस्थापित, अगणीअग्नि, झियाइ - प्रज्वलित रहती है ।। भावार्थ - जिसमें सूर्य नहीं हैं तथा जो महान् तापवाला है जो घने अन्धकार से पूर्ण दुःख से पार करने योग्य और महान् है, जहाँ ऊपर नीचे तथा तिरछे अर्थात् सर्व दिशाओं में प्रज्वलित आग जलती है ऐसे नरकों में पापी जीव जाते हैं । जंसि गुहाए जलणेऽतिउट्टे, अविजाणओ डण्झइ लुत्तपण्णो । सया य कलुणं पुण धम्मठाणं, गाढोवणीयं अइ दुक्खधम्मं ॥ १२ ॥ कठिन शब्दार्थ - गुहाए - गुफा में, अतिउट्टे - अतिवृत्त-आवृत्त होकर, अविजाणओ - नहीं जानता हुआ, डण्झइ - जलता है, लुत्तपण्णो - लुप्त प्रज्ञ-संज्ञा हीन, घम्मठाणं - गर्मी का स्थान, गाढोवंणीयं - पाप कर्म से प्राप्त, दुक्खधम्म - दुःख ही जिसका धर्म है । . भावार्थ - जिस नरक में गुफा अर्थात् ऊँट के आकार में स्थापित की हुई आग में पडे हुए For Personal & Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ श्री सूयगडांग.सूत्र श्रुतस्कन्ध १ नैरयिक जीव, अपने पाप को विस्मृत और संज्ञाहीन होकर जलते हैं । नरकभूमि करुणाप्राय और ताप का स्थान है वह अत्यन्त दुःख देने वाली और पापकर्म से प्राप्त होती है। चत्तारि अगणीओ समारभित्ता, जहिं कूरकम्माऽभितति बालं । ते तत्थ चिटुंताभितप्पमाणा, मच्छा व जीवंतुवजोइपत्ता ॥ १३ ॥ कठिन शब्दार्थ - अगणीओ - अग्नि, समारभित्ता - जला कर, कूरकम्मा - क्रूर कर्म करने वाले, अभितविंति - तपाते हैं, अभितप्पमाणा - ताप पाते हुए, मच्छा व - मछली की तरह, जीवंत - जीती हुई, उवजोइ - अग्नि के पास, पत्ता - प्राप्त हुए । भावार्थ - उन नरकों में परमाधार्मिक, चारों दिशाओं में चार अग्निओं को जलाकर अज्ञानी जीवों को तपाते हैं । जैसे जीती हुई मच्छली आग में डाली जाकर वहीं तपती हुई स्थित रहती है इसी तरह वे बिचारे नैरयिक आग में जलते हुए वहीं स्थित रहते हैं । संतच्छणं णाम महाहितावं, ते णारया जत्थ असाहुकम्मा । हत्येहिं पाएहिं य बंधिऊणं, फलगं व तच्छंति कुहाडहत्था ॥ १४ ॥ कठिन शब्दार्थ - संतच्छणं - संतक्षण, महाहितावं - महान् ताप देने वाला, असाहुकम्मा - बुरा कर्म करने वाले, बंधिऊणं - बांध कर, तच्छंति - काटते हैं, कुहाडहत्था - हाथ में कुठार लिये हुए। भावार्थ - संतक्षण नामक एक नरक है । वह प्राणियों को महान् ताप देने वाला है । उस नरक में क्रूर कर्म करने वाले परमाधार्मिक अपने हाथ में कुठार (कुल्हाड़ा) लिये रहते हैं। वे नैरयिक जीवों को हाथ पैर बांधकर काठ की तरह कुठार के द्वारा काटते हैं । रुहिरे पुणो वच्चसमुस्सिअंगे, भिण्णुत्तमगे परिवत्तयंता । * पति ण णेरइए फुरते, सजीव-मच्छे व अयो-कवल्ले ॥ १५ ॥ कठिन शब्दार्थ - बच्चसमुस्सिअंगे - मल के द्वारा जिनके अंग सूजे हुए हैं, भिण्णुत्तमंगे - जिनका शिर चूर्ण कर दिया गया है, परिवत्तयंता - उलट पुलट करते हुए, फुरते - छटपटाते (तड़पते) हुए, सजीव-मच्छेव - जीवित मछली की तरह, अयोकवल्ले - लोहे की कडाह में । ___भावार्थ - नरकपाल, नैरयिक जीवों का रक्त निकाल कर उसे गर्म कडाह में डालकर उस रक्त में जीते हुए मच्छली की तरह दुःख से छटपटाते हुए नैरयिक जीवों को पकाते हैं । उन नैरयिक जीवों का शिर पहले नरकपालों के द्वारा चूर चूर कर दिया गया है तथा उनका शरीर मल के द्वारा सूजा हुआ है । " For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उद्देशक १ १४९ णो चेव ते तत्थ मसीभवंति, ण मिज्जइ तिव्वभिवेयणाए । तमाणुभागं अणुवेदयंता, दुक्खंति दुक्खी इह दुक्कडेणं ॥ १६ ॥ .. कठिन शब्दार्थ - मसीभवंति - भस्म हो जाते हैं, तिव्वाभिवेयणाए - तीव्र पीड़ा से, मिजइ - मरते हैं, दुक्कडेण- दुष्कृत-पाप कर्म के कारण, दुक्खंति - दुःख पाते हैं । . भावार्थ - नैरयिक जीव नरक की आग में जल कर भस्म नहीं होते हैं और नरक की तीव्र पीडा से मरते भी नहीं हैं किन्तु इस लोक में अपने किये हुए पाप के कारण नरक की पीडा भोगते हुए वहां दुःख पाते रहते हैं । • तहिं च ते लोलण-संपगाढे, गाढं सुतत्तं अगणिं वयंति । ण तत्थ सायं लहइऽभिदुग्गे, अरहियाभितावा तहवी तविति ॥ १७ ॥ . कठिन शब्दार्थ - लोलण संपगाढे - लोलन संप्रगाढ-नारकी जीवों से व्याप्त, सुतत्तं - तपी हुई, लहइ - पाते हैं, अभिदुग्गे - दुर्गम, अरहियाभितावा - निरन्तर ताप से युक्त । भावार्थ - शीत से पीड़ित नैरयिक जीव अपनी शीत मिटाने के लिये नरक में जलती हुई आग के पास जाते हैं परन्तु वे बिचारे वहां सुख नहीं पाते किन्तु उस भयङ्कर अग्नि में जलने लगते हैं । उन जलते हुए नैरयिक जीवों को परमाधार्मिक और अधिक जलाते हैं । से सुच्चई णगरवहे व सद्दे, दुहो-वणीयाणि पयाणि तत्थ । उदिण्ण-कम्माण उदिण्णकम्मा, पुणो पुणो ते सरहं दुहेति ॥ १८ ॥ .. कठिन शब्दार्थ - णगरवहे - नगरवध, सद्दे - शब्द, दुहोवणीयाणि - करुणामय, पयाणि-पद, उदीणकम्मा - उदीर्ण कर्म वाले, सरहं - बड़े उत्साह के साथ, दुहेति - दुःख देते हैं । . भावार्थ:- जैसे किसी नगर का नाश होते समय नगरवासी जनता का महान् शब्द होता है उसी तरह उस नरक में महान् शब्द सुनाई देता है और शब्दों में करुणमय शब्द सुनाई पड़ते हैं । मिथ्यात्व आदि कर्मों के उदय में वर्तमान परमाधार्मिक जिनका पापकर्म फल देने की अवस्था में उपस्थित है ऐसे नैरयिक जीवों को बड़े उत्साह के साथ बार बार पीडा देते हैं । . विवेचन - मिथ्यात्व, हास्य, रति आदि कर्म जिनके उदय में आये हैं ऐसे परमाधार्मिक देव नारकी जीवों को अत्यन्त असहय दुःख देते हैं उन नारकी जीवों के भी पूर्वभव में किये हुए पापाचरण का कड़वा फल देने वाला कर्म उदय में आया है । पाणेहिं णं पाव वियोजयंति, तंभे पवक्खामि जहातहेणं । दंडेहिं तत्थ सरयंति बाला, सव्वेहिं दंडेहिं पुराकएहिं ॥ १९ ॥ For Personal & Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ कंठिन शब्दार्थ - वियोजयंति वियोजन (अलग) कर देते हैं, पवक्खामि कहूंगा, जहातहेणं - यथातथ्य, सरयंति स्मरण कराते हैं, पुराकएहिं पूर्वकृत, दंडेहिं - दुःख विशेष । भावार्थ- पापी नरकपाल, नैरयिक जीवों के अङ्गों को काट कर अलग अलग कर देते हैं । इसका कारण मैं आपको बताता हूँ । वे उन प्राणियों के द्वारा पूर्वजन्म में दिये हुए दूसरे प्राणियों के दण्ड अनुसार ही दण्ड देकर उन्हें उनके पूर्वकृत कर्म याद दिलाते हैं । १५० ते हम्ममाणा णरगे पडंति, पुण्णे दुरूवस्स महाभितावे । ते तत्थ चिट्ठति दुरूवभक्खी, तुट्टंति कम्मोवगया किमिहिं ॥ २० ॥ - . कठिन शब्दार्थ - हम्ममाणा मारे जाते हुए, पडंति गिरते हैं, दुरूवस्समल और मूत्र से, पुणे - पूर्ण, तुति - काटे जाते हैं, कम्मोवगया - कर्म के वशीभूत होकर, किमिहिं - कीड़ों के द्वारा । भावार्थ - नरकपालों के द्वारा मारे जाते हुए वे नैरयिक जीव, उस नरक से निकल कर दूसरे ऐसे नरक में कूदकर गिरते हैं जो विष्ठा और मूत्र से पूर्ण हैं तथा वे वहां विष्ठा मूत्र का भक्षण करते हुए चिरकाल तक रहते हैं और वहां कीड़ों के द्वारा काटे जाते हैं । सया कसिणं पुण घम्मठाणं, गाढोवणीयं अतिदुक्खधम्मं । - - - अंदूसु पक्खिप्प विहत्तु देहं वेहेण सीसं सेऽभितावति ॥ २१ ॥ कठिन शब्दार्थ - घम्मठाणं गर्म-उष्ण तापमय स्थान, गाढोवणीयं - कर्मों से प्राप्त, अतिदुक्खधम्मं - अत्यंत दुःखमय, अंदूसु- बेड़ियों में, पक्खिप्प डाल कर, विहन्तु - हत-प्रहत कर, वेण - बिंध कर, अभितावयंति - पीड़ित करते हैं । भावार्थ - नैरयिक जीवों के रहने का स्थान सम्पूर्ण सदा गरम रहता है । वह स्थान निकाचित आदि कर्मों के द्वारा नैरयिक जीवों ने प्राप्त किया है । उस स्थान का स्वभाव अत्यन्त दुःख देना है । उस स्थान में नैरयिक जीवों के शरीर को तोड़ मरोड़ कर तथा उसे बेडी बन्धन में डाल एवं उनके शिर में छिद्र करके नरकपाल उन्हें पीडित करते हैं । - छिंदंति बालस्स खुरेण णक्कं, उट्ठे वि छिंदंति दुवे वि कण्णे । जिब्धं विणिक्कस्स विहत्थिमित्तं, तिक्खाहि सूलाहि भितावयंति ॥ २२ ॥ कठिन शब्दार्थ - छिंदंति काटते हैं, खुरेण छुरे से, णक्कं नाक की, उट्ठे - होठ, कण्णे - कान, विणिक्कस्स बाहर खींच कर, विहत्थिमित्ते वितस्तिमात्र - वित्ता भर, सूलाहि - से । ...................... - - For Personal & Private Use Only - भावार्थ- नरकपाल, निर्विवेकी नैरयिक जीवों की नासिका ओठ और दोनों कानं तीक्ष्ण उस्तुरे से. काट लेते हैं तथा उनकी जीभ को एक वित्ता बाहर खींच कर उसमें तीक्ष्ण शूल चूभी कर पीड़ा देते हैं । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ **************TTTTTTS 00000000 ते तिप्पमाणा तलसंपुडं व, राइंदियं तत्थ थणंति बाला । गति ते सोणिय - पूय-मंसं, पज्जोइया खार - पइद्धियंगा ॥ २३ ॥ ताड़ के पत्रों का संपुट, गलंति - गिरते हैं, सोणिय - शोणित-रक्त, प्रद्योतित-आग में जलाये जाते हुए, खार-पइद्धियंगा - अंगों में अध्ययन ५ उद्देशक १ कठिन शब्दार्थ - तलसंपुढं पूयं पीव, मंसं मांस, पज्जोइया खार छिड़के हुए । - भावार्थ - वे अज्ञानी नारकी जीव अपने अङ्गों से रुधिर टपकाते हुए सूखे हुए तालपत्र के समान रातदिन शब्द करते रहते हैं तथा आग में जलाकर पीछे से अङ्गों में खार लगाये गये हुए वे नैरयिक जीव रक्त, पीव और मांस का स्राव करते रहते हैं । - - जड़ ते सुया लोहिय-पूय पाई, बालागणी तेयगुणा परेणं । कुंभी महंताऽहिय- पोरुसिया, समूसिया लोहियपूयपुण्णा ।। २५ ॥ कठिन शब्दार्थ पाई पकाने वाली, अहियपोरुसिया पुरुष प्रमाण से अधिक, समूसिया - ऊँची, लोहियपूयपुण्णा - रक्त और पीव से भरी हुई । भावार्थ - रक्त और पीव को पकाने वाली तथा नवीन अग्नि के तेज से युक्त होने के कारण अत्यन्त ताप युक्तं एवं पुरुष के प्रमाण से भी अधिक प्रमाण वाली, रक्त और पीव से भरी हुई कुम्भी नामक नरकभूमि कदाचित् तुमने सुनी होगी । • पखितासुं पययंति बाले, अट्टस्सरे ते कलुणं रसंते । तण्हाइया ते तउतंब तत्तं, पज्जिज्जमाणाऽट्टतरं रसंति ॥ २६ ॥ - १५१ = कठिन शब्दार्थ - अट्टस्सरे आर्त्तस्वर, कलुणं करुण, रसंते रुदन करते हुए, तण्हाइया प्यास से व्याकुल, तउतंब. तत्तं तप्त-गर्म सीसा और ताम्बा, पज्जिज्जमाणा - पिलाये जाते हुए, अट्टतरं रसंति - आर्त स्वर से रूदन करते हैं । 0000000०००० - For Personal & Private Use Only भावार्थ - परमाधार्मिक, आर्त्तनादपूर्वक करुणक्रन्दन करते हुए अज्ञानी नैरयिक जीवों को रक्त और पीव से भरी हुई कुम्भी में डालकर पकाते हैं तथा प्यासे हुए उन बिचारों को सीसा और ताँबा गला कर पिलाते हैं इस कारण वे नैरयिक जीव और ज्यादा रुदन करते हैं । = अप्पेण अप्पं इह वंचइत्ता, भवाहमे पुव्व-सए - सहस्से । चिति तत्थ बहुकूर- कम्मा, जहा कडं कम्म तहा से भारे ॥। २७ ॥ कठिन शब्दार्थ - चइत्ता - वंचित करके, भवाहमे - अधम भवों को, पुव्वसए - सहस्से पूर्व के सैकड़ों हजारों बहुकूरकम्मा - बहुत क्रूर कर्म करने वाले, जहा कडं कम्मं- जैसा कर्म किया है, भारे - भार (दुःखपरिमाण) । - Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ भावार्थ - इस मनुष्य भव में थोड़े सुख की प्राप्ति के लिये अपने को जो वञ्चित करते हैं वे सैकडों और हजारों बार लुब्धक आदि नीच योनियों का भव प्राप्त करके नरक में निवास करते हैं। जिसने पूर्वजन्म में जैसा कर्म किया है उसके अनुसार ही उसे पीडा प्राप्त होती है। समजिणित्ता कलुसं अणज्जा, इटेहि कंतेहि य विप्पहूणा । ते दुब्भिगंधे कसिणे य फासे, कम्मोवगा कुणिमे आवसंति।।त्ति बेमि॥ २८॥ कठिन शब्दार्थ - समजिणित्ता - अर्जन-उपार्जन करके, कलुसं - पाप का, अणजा - अनार्य, विष्पहूणा - विप्रहिन-रहित, कसिणे - कृत्स्न-संपूर्ण, फासे - स्पर्श वाले, कम्मोवगा - कर्म के वशीभूत होकर, कुणिमे - मांस, आवसंति - निवास करते हैं । भावार्थ - अनार्य्य पुरुष पाप उपार्जन करके इष्ट और प्रिय से रहित दुर्गन्ध भरे अशुभ स्पर्शवाले मांस रुधिरादि पूर्ण नरक में कर्मवशीभूत होकर निवास करते हैं । त्ति बेमि - इति ब्रवीमि - ऐसा मैं कहता हूँ । ॥इति पहला उद्देशक ॥ दूसरा उद्देशक अहावरं सासय-दुक्ख-धम्म, तं भे पवक्खामि जहातहेणं । बाला जहा दुक्कडकम्मकारी, वेयंति कम्माइं पुरे कडाइं ॥१॥ कठिन शब्दार्थ - सासयदुक्खधम्म - शाश्वत दुःख धर्म-स्वभाव वाले, जहातहेणं - यथार्थ रूप . से, दुक्कडकम्मकारी - दुष्कृत-पाप कर्म करने वाले, वेयंति - वेदन करते हैं, पुरे कडाई- पूर्व कृत कम्माइं- कर्मों को। भावार्थ - श्री सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी आदि अपने शिष्य वर्ग से कहते हैं कि अब मैं निरन्तर दुःख देनेवाले नरकों के विषय में आपको यथार्थ रूप से अर्थात् जैसा उनका स्वरूप है वैसा उपदेश करूंगा । पापकर्म करने वाले प्राणिगण जिस प्रकार अपने पाप का फल भोगते हैं सो बताऊंगा । हत्येहि पाएहि य बंधिणं, उदरं विकत्तंति खुरासिएहिं । गिण्हित्तु बालस्स विहत्तु देहं, वद्धं थिरं पिट्ठओ उद्दति ॥ २ ॥ For Personal & Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५. उद्देशक २ १५३ कठिन शब्दार्थ - उदरं - पेट को, विकत्तंति - फाडते हैं, खुरासिएहिं - छुरे और तलवार से, गिण्हित्तु - ग्रहण करके, वद्धं - वर्ध-चमडे को, थिरं - स्थिर, पिट्ठओ - पीठ की, उद्दरंतिउधेडते हैं । - भावार्थ - परमाधार्मिक, नैरयिक जीवों के हाथ पैर बाँध कर उस्तरा और तलवार आदि से उनका पेट फाड़ देते हैं तथा अज्ञानी नैरयिक जीव की देह को लाठी आदि के प्रहार से चूर चूर करके फिर उसे पकड़ कर उसके पीठ की चमड़ी उखाड़ लेते हैं। बाहू पकत्तंति य मूलओ से, थूलं वियासं मुहे आडहति । रहंसि जुत्तं सरयंति बालं, आरुस्स विझंति तुदेण पिढे ॥ ३ ॥ कठिन शब्दार्थ - बाहू - भुजा को, पकत्तंति - काटते हैं, मूलओ - मूल से, वियासं - विकास-फाड़ कर, मुहे - मुख को, आडहति- जलाते हैं, रहंसि - रथ में, जुत्तं - जोत कर, आरुस्सकोप करके, विझंति - मारते हैं, तुदेण - चाबुक (कोड़ों) से, पिढे - पीठ पर ।। भावार्थ - नरकपाल, नैरयिक जीव की भुजा को जड़ से काट लेते हैं तथा उनका मुख फाड़ कर उसमें तप्तलोह का गोला डालकर जलाते हैं । रथ में जोत कर चलाते हैं एवं एकान्त में ले जाकर उनके पूर्वकृत कर्म को याद कराते हैं तथा बिना कारण कोप करके चाबुक से उनकी पीठ पर मारते हैं । अयं व तत्तं जलियं सजोई, तऊवमं भूमि मणुक्कमंता । ते उज्झमाणा कलुणं थणंति, उसु-चोइया तत्त-जुगेसु जुत्ता ॥४॥ कठिन शब्दार्थ - अयं - लोहे का, सजोइं - ज्योति सहित, तऊवमं - उपमा योग्य, अणुक्कर्मता - चलते हुए, उसुचोइया - बाण से मार कर प्रेरित किये हुए, तत्तजुगेसु - तप्त जुए में, जुत्ता - जोड़े हुएं । . . भावार्थ - तप्त लोह के गोले के समान जलती हुई ज्योति सहित भूमि में चलते हुए नैरयिक जीव जलते हुए करुण क्रन्दन करते हैं तथा बैल की तरह प्रतोद (चाबुक) मारकर प्रेरित किये हुए और तप्त जुए में जोडे हुए वे नैरयिक जीव रुदन करते हैं । बाला बला भूमि मणुक्कमंता, पविज्जलं लोहपहं च तत्तं । . जंसिऽभिदुग्गंसि पवण्जमाणा, पेसे व दंडेहि पुरा करेंति ।। ५ ॥ कठिन शब्दार्थ - पविजलं - रक्त और पीब से सनी हुई, लोहपहं - लोह पथ के समान, पवजमाणा - चलने के लिये प्रेरित किये हुए, पेसे व - प्रेष्यों (नौकरों) की तरह, दंडेहिं - दण्ड के द्वारा, पुरां करेंति - आगे चलाये जाते हैं। For Personal & Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ भावार्थ - परमाधार्मिक, निर्विवेकी नैरयिक जीवों को लोहमय मार्ग के समान तप्त भूमि पर बलात्कार से चलाते हैं तथा रुधिर और पीव से पिच्छिल (कीचड़ वाली) भूमि पर भी उनको चलने के लिये बाध्य करते हैं । जिस कठिन स्थान में जाते हुए नैरयिक जीव रुकते हैं उस स्थान में बैल की तरह दण्ड आदि से मारकर उन्हें वे ले जाते हैं । ते संपगाढंसि पवज्जमाणा, सिलाहि हम्मंति णिपातिणीहि । संतावणी णाम चिरट्ठिईया, संतप्पइ जत्थ असाहुकम्मा ॥६॥ कठिन शब्दार्थ - संपगाढंसि - तीव्र वेदना युक्त, सिलाहि- शिलाओं के द्वारा, हम्मति - मारे जाते हैं, णिपातिणाहि- गिराई जाने वाली, चिराइया - चिर काल की स्थिति वाली, संतप्पइ - संतप्त किए. जाते हैं । भावार्थ - तीव्र वेदनायुक्त नरक में पड़े हुए नैरयिक जीव सामने से गिरती हुई शिलाओं से मारे जाते हैं । कुम्भी नाम के नरक में गये हुए प्राणियों की स्थिति बहुत काल की होती है । पापी उसमें चिरकाल तक ताप भोगते हैं । कंदूसु पक्खिप्प पयंति बालं, तओ वि दड्डा पुण उप्पयंति । ते उडकाएहिं पखज्जमाणा, अवरेहिं खजति सणप्फएहिं ॥७॥ कठिन शब्दार्थ - कंदूसु - गेंद के आकार की कुंभी में, दड्डा - जलते हुए, उप्पयंति - ऊपर उठते हैं-उछलते हैं, उसकाएहिं - द्रोणकाक के द्वारा, सणफएहिं - सनखपद-सिंह व्याघ्र आदि के द्वारा, खजति - खाने जाते हैं। भावार्थ:- नरकपाल, निर्विवेकी नैरयिक जीव को गेंद के समान आकारवाली कुम्भी में डाल कर पकाते हैं, फिर वे वहां से भुने जाते हुए चने की तरह उड कर ऊपर जाते हैं वहां वे द्रोण काक द्वारा खाये जाते हैं जब वे दूसरी ओर जाते हैं तब सिंह व्याघ्र आदि के द्वारा खाये जाते हैं । " समूसियं णाम विधूम ठाणं, जं सोयतत्ता कलुणं थणंति ।। : अहोसिर कट्ट विगत्तिऊणं, अयं व सत्येहि समोसवेंति ॥८॥ कठिन शब्दार्थ - विधूम ठाणं - धूम रहित अग्नि का स्थान, सोयतत्ता - शोक तप्त, अहोसिरं - अधोशिर करके, विगत्तिऊणं - काट कर, सत्येहिं - शस्त्रों से, समोसवेंति - खण्ड-खण्ड कर देते हैं। भावार्थ - ऊंची चिता के समान निर्धूम अग्नि का एक स्थान है । वहां गये हुए नैरयिक जीव शोक से तप्त होकर करुण रोदन करते हैं । परमाधार्मिक, उन जीवों का शिर नीचे करके उनका शिर काट डालते हैं तथा लोह के शस्त्रों से उनकी देह को खण्ड खण्ड कर देते हैं । For Personal & Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उद्देशक २ १५५ विवेचन - टीकाकार ने उपर्युक्त अर्थ किया है, पर प्रसंग के अनुसार निम्न अर्थ भी प्रतीत होता है-"ऊँचे उछलने पर वे छिन्न-भिन्न दशा को प्राप्त होकर शोक से करुण विलाप करते हैं । औंधे सिर नीचे आते हुए उन प्राणियों को, नरकपाल छेदते हैं और तीक्ष्ण लोह शस्त्रों के द्वारा ऊपर उछालते हैं ।" समूसिया तत्थ विसूणियंगा, पक्खीहि खजति अयोमुहेहिं । संजीवणी नाम घिरट्टिईया, जंसि पया हम्मइ पावचेया ॥९॥ कठिन शब्दार्थ - विसूणियंगा - चमडी उखेडे हुए, अयोमुहेहिं - लोह का मुख वाले, पया - प्रजा, हम्मइ - मारी जाती है, पावचेया - पाप चित्त वाले । । भावार्थ - उस नरक में अधोमुख करके लटकाये हुए तथा शरीर का चमडा उखाड लिये हुए प्राणी लोहमुख वाले पक्षियों के द्वारा खाये जाते हैं । नरक की भूमि संजीवनी कहलाती है क्योंकि मरण के समान कष्ट पाकर भी प्राणी आयु शेष रहने पर मरते नहीं हैं तथा उस नरक में गये हुए प्राणियों की आयु भी बहुत होती है। पापी जीव उस नरक में मारे जाते हैं । तिक्खाहि सूलाहि णिवाययंति, वसोगयं सावययं व लद्धं । ते सूलविद्धा कलुणं थणंति, एगंत दुक्खं दुहओ गिलाणा ॥ १० ॥ कठिन शब्दार्थ - णिवाययंति - वेध करते हैं, मारते हैं, वसोगयं - वश में आये हुए, सावययंस्वापद जानवर, लद्धं- प्राप्त हुआ, सूल विद्धा - शूलों से विद्ध, एगंत दुक्खं - एकान्त दुःख वाले, गेलाणा - ग्लान, णिवाययंति (अभितावयंति)- पीडित करते हैं । भावार्थ - वश में आये हुए जङ्गली जानवर के समान नैरयिक जीव को पाकर परमाधार्मिक तीक्ष्ण शूल से वेध करते हैं भीतर और बाहर आनन्द रहित एकान्त दुःखी नारकी जीव, करुण क्रन्दन करते हैं। - सया जलं णाम णिहं महंतं, जंसि जलंतो अगणी अकट्ठो। चिटुंति बद्धा बहुकूरकम्मा, अरहस्सरा केइ चिरट्टिईया ।। ११ ॥ कठिन शब्दार्थ - सयाजलं - सदा जलने वाला, अकट्ठो - बिना काठ की, चिटुंति - रहते हैं, भरहस्सरा - चिल्लाते हुए, चिरट्टिईया - लंबे काल तक । भावार्थ - एक ऐसा प्राणियों का घातस्थान है जो सदा जलता रहता है और जिसमें बिना काठ की आग निरन्तर जलती रहती है उस नरक में प्राणी बाँध दिये जाते हैं वे अपने पाप का फल भोगने के लये चिरकाल तक निवास करते हैं और वेदना के मारे निरन्तर रोते रहते हैं । For Personal & Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ चिया महंतीउ समारभित्ता, छुब्भंति ते तं कलुणं रसंतं । आवट्टइ तत्थ असाहुकम्मा, सप्पी जहा पडियं जोइमाझे ॥ १२ ॥ कठिन शब्दार्थ - चिया - चिता, समारभित्ता - बना कर, छुब्भंति - डाल देते हैं, आवट्टइ - द्रवीभूत होता है, सप्पी - घी, पडियं - पडा हुआ, जोइमझे - आग में । __ भावार्थ - परमाधार्मिक, बडी चिता बनाकर उसमें करुण रुदन करते हुए नैरयिक जीव को फेंक देते हैं उसमें पापी जीव गल कर पानी हो जाते हैं जैसे आग में पड़ा हुआ घृत द्रव हो जाता है अर्थात् घी पीघल जाता है। सदा कसिणं पुण घम्मठाणं, गाढोवणीयं अइ दुक्खधम्म । हत्येहि पाएहि य बंधिऊणं, सत्तुव्व डंडेहि समारभंति ॥ १३ ॥ कठिन शब्दार्थ - कसिणं- कृत्स्न-संपूर्ण, घम्मठाणं - गर्म स्थान, गाढोवणीयं - गाढोपनीतकर्मों से प्राप्त, अइदुक्खधम्मं - अत्यंत दुःख धर्म-स्वभाव वाला, सत्तुष्व - शत्रु की तरह, .. समारभंति - ताडन करते हैं । भावार्थ - निरन्तर जलने वाला एक गर्म स्थान है वह निधत्त निकाचित आदि अवस्था वाले कर्मों : से प्राणियों को प्राप्त होता है तथा वह स्वभाव से ही अत्यन्त दुःख देने वाला है उस स्थान में नैरयिक जीव का हाथ पैर बाँध कर शत्रु की तरह नरकपाल डंडों से ताड़न करते हैं । भंजंति बालस्स वहेण पुष्टुिं, सीसंपि भिंदंति अयोधणेहिं । ते भिण्णदेहा फलगं व तच्छा, तत्ताहि आराहि णियोजयंति ॥ १४ ॥ कठिन शब्दार्थ - भंजंति - तोड़ देते हैं, पुट्टि - पीठ को, भिंदति - फोड़ देते हैं, अयोधणेहिं - लोहे के घनों से, भिण्णदेहा- भग्न अंग प्रत्यंग वाले, फलगं - फलक, तच्छा - छिले हुए चीर कर पतले किये हुए, तत्ताहि - तप्त, आराहि - आराओं से, णियोजयंति - धकेले जाते हैं, बाध्य किये जाते हैं । ___भावार्थ - नरकपाल, लाटी से मार कर नैरयिक जीवों की पीठ तोड़ देते हैं तथा लोह के घन से मार कर उनका शिर चूर चूर कर देते हैं । इसी तरह उनकी देह को चूर चूर करके उन्हें तप्त आरा से काठ की तरह चीर देते हैं फिर उनको गर्म शीशा पीने के लिये बाध्य करते हैं । अभिजुंजिया रुद्द असाहुकम्मा, उसुचोइया हत्यिवहं वहति । एगं दुरूहित्तु दुवे ततो वा, आरुस्स विझंति ककाणओ से ॥ १५ ॥ For Personal & Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *********000 कठिन शब्दार्थ - रुद्द - रौद्र, उसुचोइया - बाण से प्रेरित हो कर, हत्यिवहं - हाथी के समान, वहंति - भार वहन करते हैं, दुरुहित्तु चढ़ कर, आरुस्स - क्रुद्ध होकर, ककाणओ मर्म स्थान को, विनंति - बींध डालते हैं । अध्ययन ५ उद्देशक २ भावार्थ - नरकपाल पापी नैरयिक जीवों के पूर्वकृत पाप को स्मरण करा कर बाण के प्रहार से मार कर हाथी के समान भार ढोने के लिये उनको प्रवृत्त करते हैं । उनकी पीठ पर एक, दो तीन नैरयिकों को बैठा कर चलने के लिये प्रेरित करते हैं तथा क्रोधित होकर उनके मर्म स्थान में प्रहार करते हैं । बाला बला भूमिमणुक्कमंता, पविज्जलं कंटइलं महंतं । विबद्धतप्पेहि विवण्णचित्ते, समीरिया कोट्टबलिं करेंति ॥ १६ ॥ कठिन शब्दार्थ बला - • बलात्कार से, भूमिं - पृथ्वी पर, अणुक्कमंता - चलते हुए .. पविज्जलं - कीचड से भरी हुई, कंटइलं - कांटों से पूर्ण, विबद्धतप्पेहि अनेक प्रकार से बांधे हुए, विवण्णचित्ते (विसण्णचित्ते ) - मूर्च्छित, कोट्टबलिं - नगरबलि की तरह - खण्ड-खण्ड काट कर चारों ओर फैंक देते हैं । .. भावार्थ- पाप से प्रेरित नरकपाल, बालक के समान पराधीन बिचारे नैरयिक जीव को कीचड से भरी तथा काँटों से पूर्ण विस्तृत पृथिवी पर चलने के लिये प्रेरित करते हैं तथा दूसरे नैरयिक जीवों को अनेक प्रकार से बाँधकर मूर्च्छित उन बिचारों को खण्ड खण्ड काटकर इधर उधर फेंक देते हैं । वेतालिए णाम महाभितावे, एगायते पव्वयमंतलिक्खे । हम्मति तत्था बहुकूरकम्मा, परं सहस्साण मुहुत्तगाणं ॥ १७ ॥ कठिन शब्दार्थ - एगायते एकशिला से बनाया हुआ, अंतलिक्खे पव्वयं - पर्वत, सहस्साण हजारों, मुहुत्तगाणं- मुहूर्तों से, परं अधिक । = भावार्थ - महान् ताप देने वाले आकाश में परमाधार्मिकों के द्वारा बनाया हुआ अतिविस्तृत एक - शिला का एक पर्वत है उस पर रहने वाले नैरयिक जीव, हजारों मुहूर्त्तो से अधिक दीर्घ काल तक परमाधार्मिकों के द्वारा मारे जाते हैं । - १५७ - - For Personal & Private Use Only विवेचन - गाथा में 'सहस्साण मुहुत्तगाणं' शब्द दिया है जिसका अर्थ है हजारों मुहूर्त्त यहां सहस्र शब्द मात्र उपलक्षण है । जिसका अर्थ है बहुत लम्बे समय तक अर्थात् पल्योपम और सागरोपमों तक नैरयिक जीव वहां दुःख भोगते रहते हैं । अधर - आकाश में, Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ - संबाहिया दुक्कडो थणंति, अहो य राओ परितप्यमाणा । एगंतकूडे णरए महंते, कूडेण तत्था विसमे हया उ ॥ १८ ॥ कठिन शब्दार्थ - संबाहिया संबाधित पीड़ित किये जाते हुए, दुक्कडिणो - दुष्कृतकारीपापी, परितप्यमाणा - परितप्त होते हुए, कूडेण - गल पाश के द्वारा, विसमे विषम हया - मारे जाते हुए, तत्था - तत्स्था-वहां रहे हुए । भावार्थ - निरन्तर पीडित किये जाते हुए पापी जीव रात-दिन रोते रहते हैं । जिसमें एकान्त दुःख है तथा जो अति विस्तृत और कठिन है ऐसे नरक में पडे हुए प्राणी गले में फांसी डाल कर मारे जाते हुए केवल रुदन करते हैं । भंजंति णं पुव्वमरी सरोसं, समुग्गरे ते मुसले गहेतुं । ते भिण्णदेहा रुहिरं वमंता, ओमुद्धगा धरणितले पति ॥ १९ ॥ कठिन शब्दार्थ- पुव्वं पूर्व के, अरी शत्रु, सरोसं क्रोध युक्त, समुग्गरे मुद्गर सहित, मुसले मूसल, रुहिरं रक्त, वमंता वमन करते हुए, ओमुद्धगा - अधोमुख हो कर, धरणितले पृथ्वी पर, पडंति - गिर जाते हैं । भावार्थ - परमाधार्मिक पहले के शत्रु के समान हाथ में मुद्गर और मूसल लेकर उनके प्रहार से नैरयिक जीवों के शरीर को चूर चूर कर देते हैं । गाढ प्रहार पाये हुए और मुख से रुधिर का वमन करते हुए नैरयिक जीव, अधोमुख होकर पृथिवी पर गिर जाते हैं । 1 अणासिया णाम महासियाला, पागब्भिणो तत्थ सयावकोवा । श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ - - - 00000000000000 - - - खज्जति तत्था बहुकूर-कम्मा, अदूरगा संकलियाहि बद्धा ॥ २० ॥ कठिन शब्दार्थ - अणासिया अनशिता- क्षुधातुर, महासियाला महाकाय श्रृगाल, पागभणो - ढीठ, सया सदा अवकोवा क्रोधित रहने वाले, अदूरगा अदूर- निकट में स्थित, सांकलियाहि- सांकलों - जजीरों से, बद्धा - बंधे हुए । भावार्थ - उस नरक में सदैव क्रोधित, बडे ढीठ, विशाल शरीर वाले भूखे गीदड़ रहते हैं । वे, जंजीर से बंधे हुए तथा निकट में स्थित पापी जीवों को खाते हैं । सयाजला णाम णदी भिदुग्गा, पविज्जलं लोहविलीण- तत्ता । सि भिदुग्गंसि पवज्जमाणा, एगायताणुक्क्रमणं करेंति ॥ २१ ॥ 0000000000000 - For Personal & Private Use Only - - Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ५ उद्देशक २ १५९ ०००००००००००००००००००००००००००००000000000000000000000 कठिन शब्दार्थ - भिदुग्गा - अतिदुर्गम विषम, लोहविलीण-तत्ता - आग से गले हुए लोहद्रव के समान उष्ण जल युक्त, एगायऽताणुक्कमणं करेंति - अकेले पार करते हैं । भावार्थ - सदाजला नामक एक नरक नदी है उसमें जल सदा (हमेशा) रहता है इसलिये वह सदाजला कहलाती है । वह नदी बड़ी कष्टदायिनी है । उसका जल क्षार, पीव (रस्सी) और रक्त से सदा मलिन रहता है और वह आग से गले हुए लोह के द्रव के समान अति उष्ण जल को धारण करती है । उस नदी में बिचारे नैरयिक जीव रक्षक रहित अकेले तैरते हैं । एयाइं फासाइं फुसंति बालं, णिरंतरं तत्थ चिरट्टिईयं ।। ण हम्ममाणस्स उ होइ ताणं, एगो सयं पच्चणुहोइ दुक्खं ।। २२ ॥ कठिन शब्दार्थ - फासाई - स्पर्श (दुःख) हम्ममाणस्स - मारे जाते हुए नैरयिक का, ताणं - रक्षक, एगो - अकेला, सयं - स्वयं, पच्चणुहोइ - अनुभव करता है । भावार्थ - पहले के दो उद्देशों में जिन कठिन दुःखों का वर्णन किया है वे सब दुःख निरन्तर अज्ञानी नैरयिक जीवों को होते रहते हैं । उस नैरयिक जीव की आयु भी लम्बी होती है और उस दुःख से उसकी रक्षा भी नहीं हो सकती है वह अकेले उक्त दुःखों को भोगता है उसकी सहायता कोई नहीं कर सकता है। जं जारिसं पुव्वमकासि कम्म, तमेव आगच्छइ संपराए । एगंत दुक्खं भवमज्जणित्ता, वेयंति दुक्खी तमणंत-दुक्खं ॥ २३ ॥ कठिन शब्दार्थ - जारिसं - जैसा, पुव्वं - पूर्व जन्म में, अकासी - किया है, आगच्छइ - आता है, संपराए - संसार में, भवं - भव को, अज्जणित्ता - अर्जन करके, अणंत दुक्खं - अनंत दुःखों को, वेयंति - भोगते हैं। . भावार्थ - जिस जीव ने जैसा कर्म किया है वही उसके दूसरे भव में प्राप्त होता है । जिसने एकान्त दुःख रूप नरक भव का कर्म किया है वह अनन्त दुःखरूप उस नरक को भोगता है । एयाणि सोच्चा णरगाणि धीरे, ण हिंसए किंचण सव्वलोए । एगंत दिट्ठी अपरिग्गहे उ, बुझिज्ज लोयस्स वसं ण गच्छे ॥ २४ ॥ कठिन शब्दार्थ - धीरे - धीर पुरुष, किंचण - किसी प्रायी की, एगंतदिट्ठी - एकान्त दृष्टि, अपरिग्गहे - अपरिग्रही, बुझिज- समझे, वसं - वश में । भावार्थ - विद्वान् पुरुष इन नरकों के दुःखों को सुन कर सब लोक में किसी भी प्राणी की हिंसा For Personal & Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 000000000000000 0000000000000000 न करे । किन्तु जीवादि तत्त्वों में सम्यक् श्रद्धा रखता हुआ परिग्रह रहित होकर कषायों का स्वरूप जानें और कभी भी उनके वश में न होवे अर्थात् कषाय न करे । १६० एवं तिरिक्खे मणुया सुरेसुं, चतुरंतऽणंतं तयणुव्विवागं । स सव्वमेयं इति वेयइत्ता, कंखेज्ज कालं भुयमायरेज्ज ।। ति बेमि ॥ २५ ॥ कठिन शब्दार्थ - चतुरंत चतुर्गतिक, अणंतं अनंत संसार, तयणुव्विवागं - उनके अनुरूप विपाक को, वेयइत्ता - जान कर, कालं मरण काल की, कंखेज्ज कांक्षा करे, धुयं ध्रुव - मोक्ष अथवा संयम का, आयरेज्ज - पालन करे । भावार्थ - जैसे पापी पुरुष की नरक गति कही है इसी तरह तिर्यंच गति मनुष्य गति और देवगति: भी जाननी चाहिये । इन चार गतियों से युक्त संसार अनन्त और कर्मानुरूप फल देने वाला है । अतः बुद्धिमान् पुरुष इसे जान कर मरण पर्य्यन्त संयम का पालन करे । त्तिबेमि इति ब्रवीमि श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन् जम्बू ! जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से सुना है वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ । - विवेचन - इस नरक विभक्ति अध्ययन में नैरयिक जीवों के दुःखों का वर्णन किया गया है। शास्त्रकार फरमाते हैं कि अशुभ कर्म करने वाले प्नाणियों को दूसरी गतियों में भी अर्थात् तिर्यञ्च मनुष्य और देव गति में भी अपने किये हुए अशुभ कर्मों का फल प्राप्त होता है। इन सब बातों को जान कर बुद्धिमान् पुरुषों का कर्तव्य है कि वह अठारह ही पापों का सर्वथा त्याग कर मृत्युपर्यंत संयम का पालन करे। इससे शीघ्र ही चारों गति के दुःखों से छुटकारा पाकर मोक्ष के अव्याबाध अनन्त सुखों का भागी बन जाय । - ।। इति दूसरा उद्देशक ॥ ॥ नरक विभक्ति नामक पांचवां अध्ययन समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर स्तुति नामक छठा अध्ययन उत्थानिका - इसके पहले पांच अध्ययन कहे गये हैं उनका कथन श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने किया है। इसलिये इस अध्ययन में उनका चरित्र बताया जाता है क्योंकि कथन करने वाले पुरुष के महत्त्व से ही शास्त्र का महत्त्व होता है। इस अध्ययन का नाम महावीर स्तुति है। नियुक्तिकार ने 'महावीर' शब्द का 'निक्षेप' आदि के द्वारा बहुत विस्तृत अर्थ किया है उन सब में से यहाँ 'महत्' शब्द का अर्थ प्रधान लिया गया है जिसका अर्थ है - जितने भी प्रकार के वीर । माने जाते हैं उन सब में प्रधान वीर अर्थात् सर्वश्रेष्ठ वीर का यहां ग्रहण किया गया है। जैसा कि कहा है - कोहं माणं च मायं, लोभं पंचेंदियाणि य। दुज्जयं चेव अप्पाणं,.सव्वमप्पे जिए जियं ॥१॥ जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुजए जिणे । एक्कं जिणेज अप्पाणं, एस से परमो जओ ॥ २ ॥ अर्थ - क्रोध, मान, माया और लोभ, पांच इन्द्रियाँ दुर्जेय हैं। इसलिये आत्मा को जीत लेने पर सब जीत लिये जाते हैं ॥१॥ जो पुरुष युद्ध में दस लाख (१०००x१००० = १००००००) योद्धाओं को जीत लेता है वह युद्ध वीर शूर वीर कहलाता है। परन्तु जो व्यक्ति अपनी आत्मा पर विजय प्राप्त कर लेता है अर्थात् मन, इन्द्रियां और कंषायों को जीत लेता है उसकी जीत परम जय कहलाती है। वह परम शूर वीर अर्थात् सर्वोत्कृष्ट परम शूरवीर कहलाता है। तथा - . एक्को परिभमउ जए वियइं, जिणकेसरी सलीलाए। कंदप्पट्ठदाढो मयणो, विड्डारिओ जेणं। अर्थ - जिनेन्द्र भगवान् ही एक विकट एवं परम सिंह है जिन्होंने काम रूप तीक्ष्ण दाढ वाले मदन (काम) को चीर डाला है। अर्थात् कामवासना को सर्वथा नष्ट कर दिया है। उपरोक्त कथन से यह स्पष्ट है कि सर्वश्रेष्ठ 'वीर' भगवान् महावीर स्वामी हैं। जैसा कि आचाराङ्ग सूत्र दूसरे श्रुतस्कन्ध के पन्द्रहवें अध्ययन में कहा है - "समणे भगवं महावीरे कासवगोत्तेणं, तस्स णं इमे तिण्णि णामधेज्जा For Personal & Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 एवमाहिजति तंजहा - अम्मापिउसंतिए वद्धमाणे, सहसम्मुइए समणे, भीम, भयभेरवं, उरालं, अचले परीसहे सहइ त्ति कटु, देवेहिं से णामं कयं समणे भगवं महावीरे ।" अर्थ - काश्यपगोत्रीय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के विशेष प्रचलित ये तीन नाम है-यथा१. माता-पिता के द्वारा दिया गया नाम हैं "वर्द्धमान" २. समभाव में स्थित एवं स्वाभाविक सन्मति होने के कारण "श्रमण"। ___३. सभी प्रकार के भयंकर एवं भय को उत्पन्न करने वाले घोर परीषहों को अचल, अविचल, अडोल, अकम्प होकर सहन किये तब देवों ने उनका नाम दिया "श्रमण भगवान् महावीर।" प्रश्न - इस अध्ययन का नाम महावीर स्तुति है अथवा महावीर स्तव?.. उत्तर - मूल पाठ में इस अध्ययन का नाम 'महावीर स्तुति' दिया गया है और चूर्णिकार ने इस अध्ययन का नाम 'महावीर स्तव' दिया है। . ___प्रश्न - स्तुति और स्तव इन दोनों का क्या अर्थ है ? - उत्तर - "स्तवः गुणोत्कीर्तनम्, स्तुतिः असाधारण गुणोत्कीर्तनम्, तीर्थकर विषये तद् अतिशय वर्णनम्" अर्थ-साधारण गुणों का कथन करना स्तव कहलाता है और असाधारण (विशेष) गुणों का कथन करना स्तुति कहलाता है। प्रश्न - स्तुति और स्तव शब्द में परस्पर क्या अन्तर है ? . उत्तर - स्तवाः देवेन्द्रस्तवादयः स्तुतयः एकादिसप्त श्लोकान्ताः, यत उक्तम् - एगदुगतिसिलोगा ( ओ) अण्णेसिं जाव हुंति सत्तेव। देविदत्यवमाई तेण परं थुत्तया होति ॥१॥ अर्थ - देवेन्द्र स्तव को स्तव कहते हैं । जैसे कि-शक्रेन्द्र के द्वारा भगवान् को किया हुआ नमस्कार 'शक्रस्तव' कहलाता है। यथा - णमोत्थुणं। एक श्लोक से लेकर सात श्लोक तक गुणोत्कीर्तन करना स्तुति कहलाता है यथा - चतुर्विंशतिस्तव (लोगस्स का पाठ)। (उत्तराध्ययन सूत्र के २९ वें अध्ययन में थवथुई मंगलं' का यह अर्थ किया है) अभिधान राजेन्द्र कोश में तो अर्थ इस प्रकार किया है - 'स्तवः शक्रस्तवरूपः। स्तुतिर्या ऊर्वीभूय कथनरूपाः अथवा एकाऽऽदिसप्तश्लोकान्ताः यावदन्टोत्तरशतश्लोका वाच्याः।' अर्थ-बैठे-बैठे गुणों का कथन करना स्तव कहलाता है यथा - शक्रस्तव (णमोत्थुणं)। खड़े For Personal & Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ६ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 होकर गुणों का कथन करना स्तुति कहलाता है। एक श्लोक से लेकर सात श्लोक तक स्तुति करना साधारण (जघन्य) स्तुति है और १०८ श्लोक तक गुणों का कथन करना उत्कृष्ट स्तुति कहलाता है। ___ उपरोक्त दोनों व्याख्याओं के अनुसार इस अध्ययन का नाम महावीर स्तुति और महावीर स्तव दोनों उचित है। किन्तु मूल को प्रधानता देने पर महावीर स्तुति कहना विशेष उचित है। पुच्छिंसु णं समणा माहणा य, अगारिणो या परतित्थियां य । से के इणेगंत-हियं धम्ममाहु, अणेलिसं साहु समिक्खयाए ॥ १ ॥ कठिन शब्दार्थ - पुच्छिंसु - पूछा, समणा - श्रमण, माहणा - ब्राह्मण, अगारिणो - गृहस्थ (क्षत्रिय आदि) परतित्थिया - पर तीर्थिक, के - कौन है, इण - इस, एगंतहियं - एकान्त हितकारी, अणेलिसं - अनुपम, धम्म - धर्म को, आहु - कहा है, साहु- अच्छी तरह से-भली भांति, समिक्खयाए - सोच विचार कर । .. भावार्थ - श्रमण, ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि तथा परतीर्थियों ने पूछा कि - एकान्त रूप से कल्याण करने वाले अनुपम धर्म को जिसने सोच विचार कर कहा है वह कौन है ? । कहं च णाणं कहं दंसणं से, सीलं कहं णायसुयस्स आसी। . जाणासि णं भिक्खु जहातहेणं, अहासुयं बूहि जहा णिसंतं ॥२॥ कठिन शब्दार्थ - कहं - कैसा, णाणं - ज्ञान, दंसणं - दर्शन, सीलं - शील, णायसुयस्स - ज्ञातपुत्र का, जाणासि - जानते हो, जहातहेणं - यथार्थ रूप से, अहासुयं - जैसा सुना है, बूहि - बतलाओ, णिसंतं- निश्चय (अवधारित) किया है । भावार्थ - ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर स्वामी के ज्ञान दर्शन और चारित्र कैसे थे? हे भिक्षो ! आप यह जानते हैं इसलिये जैसा आपने सुना, देखा और निश्चय किया है सो हमें बताइये । . विवेचन - उपरोक्त दो गाथाओं में श्री जम्बूस्वामी द्वारा अपने पूज्य गुरुदेव श्री सुधर्मास्वामी से श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के उत्तमोत्तम गुणों और आदर्शों के सम्बन्ध में विनय पूर्वक पूछे गये चार प्रश्नों का कथन है। वे इस प्रकार हैं - १. एकान्त हितकारी अनुपम धर्म के प्ररूपक कौन हैं ? २. ज्ञातपुत्र श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का ज्ञान कैसा था ? ३. उनका दर्शन कैसा था? और ४. उनका चारित्र, शील कैसा था ? श्री जम्बूस्वामी स्वयं तो श्रमण भगवान् महावीरस्वामी के आदर्श गुणों को और आदर्श जीवन को भली प्रकार जानते ही थे। फिर इस प्रकार की जिज्ञासाएं प्रस्तुत करने का क्या कारण है ? इसके समाधानार्थ For Personal & Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 शास्त्रकार यहाँ स्पष्ट करते हैं कि जम्बूस्वामी की वाणी सुन कर मुमुक्षु आत्माओं ने उनसे ऐसे प्रश्न किये होंगे। तभी उन्होंने श्री सुधर्मा स्वामी के समक्ष ये जिज्ञासाएं प्रस्तुत की है। - "साहु समिक्खयाए" का अर्थ वृत्तिकार ने इस प्रकार किया है - साधु अर्थात् सुन्दर रूप से समीक्षा करके अर्थात् पदार्थ के यथार्थ स्वरूप का निश्चय करके अथवा समभाव पूर्वक दृष्टि से। चूर्णिकार ने इसका अर्थ किया है - केवल ज्ञान के प्रकाश में सम्यग् रूप से जानकर और देखकर। ज्ञान - विशेष अर्थ का प्रकाशित करने वाला बोध। दर्शन - सामान्य रूप से अर्थ को प्रकाशित करने वाला बोध अथवा समस्त पदार्थों को देखने या . उनकी यथार्थ वस्तु स्थिति पर विचार करने की दृष्टि (दर्शन या सिद्धान्त)। शील (चारित्र) - यम-महाव्रत। नियम समिति गुप्ति आदि के पोषक नियम, त्याग तप आदि रूप शील आचार। ___ज्ञात सुत - ज्ञातपुत्र-सिद्धार्थ राजा का कुल ज्ञातकुल कहलाता या इसलिये भगवान् महावीर को ज्ञातपुत्र कहा है। खेयण्णए से कसले महेसी, अणंतणाणी य अणंतदंसी । जसंसिणो चक्खुपहे ठियस्स, जाणाहि धम्मं च थिइंच पेहि ॥ ३ ॥ . कठिन शब्दार्थ - खेयण्णए - खेदज्ञ, कुसले - कुशल, महेसी - महर्षि, अणंतणाणी - अनन्तज्ञानी, अणंतदंसी - अनन्तदर्शी, जसंसिणो - यशस्वी, चक्खुपहे ठियस्स - चक्षु (आलोक) पथ में स्थित, जाणाहि - जानो, भिई- धृति (धीरता) को, पेहि - देखो। भावार्थ - श्री सुधर्मा स्वामी, जम्बूस्वामी आदि शिष्यवर्ग से कहते हैं कि - भगवान् महावीर स्वामी संसार के प्राणियों का दुःख जानते थे, वे कुशल-आठ प्रकार के कर्मों का नाश करने वाले आशुप्रज्ञ और मेधावी सदा सर्वत्र उपयोग रखने वाले थे । वे अनन्तज्ञानी और अनन्तदर्शी थे, ऐसे यशस्वी तथा भवस्थकेवली अवस्था में जगत् के लोचन मार्ग में स्थित उन भगवान् के धर्म को तुम जानो और धीरता को विचारो। विवेचन - उपरोक्त रूप से जम्बूस्वामी के प्रश्न करने पर सुधर्मास्वामी श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के गुणों का कथन प्रारम्भ करते हैं - चौतीस अतिशयों के धारक तीर्थकर भगवान् महावीर स्वामी संसार के समस्त प्राणियों के दुःखों को जानते इसलिये उनके लिये 'खेदज्ञ' यह विशेषण दिया गया है । खेदज्ञ की संस्कृत छाया क्षेत्रज्ञ भी होती है। आत्मा को क्षेत्र कहते हैं अतः आत्मा के यथार्थ स्वरूप को जानते थे अतः वे आत्मज्ञ या क्षेत्रज्ञ कहलाते थे। आकाश को भी क्षेत्र कहते हैं अतः भगवान् लोकाकाश और अलोकाकाश सभी को जानते थे। कुश नाम का एक घास होता है उसको द्रव्य कुश For Personal & Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ६ . १६५ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कहते हैं और कर्म को भाव कुश कहते हैं । भाव कुश रूपी आठ कर्मों का छेदन करने वाले को कुशल कहते हैं। - 'आशु' का अर्थ है शीघ्र । जिसको शीघ्र प्रज्ञा (बुद्धि) प्राप्त हो जाती है उसे आशुप्रज्ञ कहते हैं। भगवान् महावीर आशुप्रज्ञ थे क्योंकि वे सदा सर्वत्र उपयोग रखने वाले थे। वे छद्मस्थ की तरह सोचविचार कर नहीं जानते थे। किन्तु केवली थे अतएव वे सदा उपयोगवान् थे। आशुप्रज्ञ के बदले कही पर 'महर्षि' शब्द दिया है जिसका अर्थ है भगवान् अत्यन्त उग्र तपस्या करने से तथा अतुल परिषहो और उपसर्गों को सहन करने से महर्षि थे। कहीं पर मेहावी पाठ है। मेधावी आशुप्रज्ञ शब्द दोनों का एक ही अर्थ है भगवान् का यश मनुष्य, देवता और असुरों से बढ़कर था। इसलिये वे यशस्वी थे तथा भवस्थ केवली अवस्था में वे जगत् के नेत्र मार्ग में स्थित थे अथवा जगत् के सामने सूक्ष्म और व्यवहित पदार्थों को प्रकट करने के कारण वे जगत् के नेत्र स्वरूप थे। ऐसे भगवान् के धर्म को अर्थात् संसार से उद्धार करने के स्वभाव को अथवा उनके द्वारा कहे हुए श्रुत और चारित्र धर्म को तुम जानों अथवा उपसगों के द्वारा पीड़ित किये जाने पर भी चारित्र से अविचल एवं अकम्प स्वभाव रूप उनकी धृति (संयम में प्रीति) को देखो उसे कुशाग्र बुद्धि के द्वारा विचारों अथवा उन्हीं श्रमण आदि के द्वारा पूछे गये श्री जम्बूस्वामी ने श्री सुधर्मा स्वामी से पूछा कि यशस्वी और जगत् के नेत्रपथ में स्थित भगवान् के धर्म और धीरता को आप जानते हैं। इसीलिये यह सब आप मुझे कहने का अनुग्रह कीजिये। उड्डं अहे यं तिरियं दिसासु, तसा य जे थावर जे य पाणा। से णिच्चणिच्चेहि समिक्खपण्णे, दीवे व धम्मं समियं उदाहु ॥ ४ ॥ कठिन शब्दार्थ - उई - ऊर्ध्व, अहे - अधो, तिरियं - तिर्यक्, दिसासु - दिशाओं में, तसा - त्रस, थावर - स्थावर, पाणा - प्राणी, णिच्चणिच्चेहि - नित्य और अनित्य दोनों दृष्टियों से, समिक्ख - समीक्ष्य-भली भांति देख कर, पण्णे - प्रज्ञ (केवलज्ञानी) दीवे व - दीपक के समान, समियं - सम्यक्, धम्मं - धर्म का, उदाहु - कथन किया है। . भावार्थ - केवलज्ञानी भगवान् महावीर स्वामी ने ऊपर, नीचे और तिरछे रहने वाले त्रस और स्थावर प्राणियों को नित्य तथा अनित्य दोनों प्रकार का जान कर दीपक के समान पदार्थ को प्रकाशित करनेवाले धर्म का कथन किया है । . विवेचन - अब श्री सुधर्मास्वामी श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के गुणों का वर्णन प्रारम्भ करते हैं। ऊर्ध्वलोक, तिळलोक और अधोलोक इन तीन लोक जो कि चौदह राजु प्रमाण है। उनमें रहने वाले त्रस और स्थावर प्राणियों को वे भगवान् केवल ज्ञानी हो जाने के कारण जानते हैं। इसीलिये वे प्राज्ञ कहलाते हैं । For Personal & Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 00000000000000000000000 प्रश्न- त्रस और स्थावर प्राणी किसे कहते हैं ? उत्तर जिनके नामकर्म का उदय है वे त्रस कहलाते हैं । यथा - बेइन्द्रिय, त्रेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय तथा पञ्चेन्द्रिय । स्थावर नाम कर्म के उदय वाले जीव स्थावर कहलाते हैं । यथा पृथ्वीकाय, अप्काय, तेऊकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय । उत्तराध्ययन सूत्र के छत्तीसवें अध्ययन में और तत्त्वार्थ सूत्र के दूसरे अध्याय में इनका विभाग दूसरी तरह से किया गया है यथा अग्निकाय और वायुकाय को गति त्रस कहा है तथा बेइन्द्रिय इन्द्रिय चउरेन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय को लब्धि त्रस अथवा उदार त्रस कहा है और पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय इन तीन को ही स्थावर कहा है । प्राण दस कहे गये हैं । उनको जो धारण करे उन्हें प्राणी कहते हैं। भगवान् प्राणियों के लिये पदार्थ का स्वरूप प्रकट करने से दीपक के समान है। इसलिये भगवान् को दीपक कहा है । अथवा भगवान् संसार सागर में पड़े हुए प्राणियों को सदुपदेश देने से उनके विश्राम का कारण होने से द्वीप के समान हैं। ऐसे भगवान् ने संसार से पार करने में समर्थ श्रुत और चारित्र धर्म को कहा है। भगवान् रागद्वेष रहित हैं अतः वे सब प्राणियों को समान रूप से उपदेश देते हैं। यथा जहा पुण्णस्स कत्थइ, तहा तुच्छस्स कत्थइ । जहा तुच्छस्स कत्थइ, तहा पुण्णस्स कत्थइ ॥ अर्थ - जैसे राजा महाराजा और सेठ साहुकारों को उपदेश देते हैं। वैसे ही दरिद्र को भी उपदेश देते हैं और जैसे दरिद्र को उपदेश देते हैं वैसा ही सेठ साहुकारों को भी उपदेश देते हैं। भगवान् ने प्राणियों पर कृपा करके उक्त धर्म का कथन किया है। पूजा सत्कार के लिये नहीं । से सव्वदंसी अभिभूयणाणी, णिरामगंधे धिइमं ठियप्पा । - अणुत्तरे सव्व-जगंसि विज्जं, गंथा अतीते अभए अणाऊ ।। ५॥ कठिन शब्दार्थ - सव्वदंसी - सर्वदर्शी समस्त पदार्थों को देखने वाले, अभिभूयणाणीअभिभूतज्ञानी - केवलज्ञानी, णिरामगंधे - विशुद्ध चारित्र का पालन करने वाले, धिइमं धृतिमान् धृति (धैर्य) युक्त, ठियप्पा - स्थितात्मा - आत्म-स्वरूप में स्थित, अणुत्तरे अनुत्तर, विज्जं विद्वान्, सव्वजगंसि - सम्पूर्ण जगत् में, गंथा अतीते - बाह्य और आभ्यंतर ग्रंथि से रहित, अभए- अभय, अणाऊ - अनायु-आयु रहित । भावार्थ - भगवान् महावीर स्वामी समस्त पदार्थों को देखने वाले केवलज्ञानी थे । वे मूल और उत्तर गुणों से विशुद्ध चारित्र का पालन करने वाले बड़े धीर और आत्मस्वरूप में स्थित थे । भगवान् ***********88** For Personal & Private Use Only - - - Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000 समस्त जगत् में सर्वोत्तम विद्वान् और बाह्य तथा आभ्यन्तर ग्रन्थि से रहित निर्भय एवं आयु रहित (जन्म मरण के चक्र से मुक्त ) थे । विवेचन 44 'णाणस्स फलं विरइ" अर्थात् ज्ञान का फल विरति - वैराग्य है । जिसके हृदय में उत्कृष्ट वैराग्य का आगमन होता है उसकी प्रवृत्ति चारित्र में हुए बिना नहीं रहती और जो उत्कृष्ट चारित्र वाला होता है वह बन्धनों से मुक्त होकर, निर्भय और अनायु हो जाता है । अतः सच्चा विद्वान् वही है जो बंधन से रहित - निर्भय है और जो भवपरम्परा का विच्छेद कर देता है । जन्म मरण के चक्रवाल से मुक्त हो जाता है । अध्ययन ६ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी सर्वज्ञ सर्वदर्शी थे। सम्पूर्ण पदार्थों के सामान्य और विशेष धर्म को . जानते थे। इसीलिये वे सर्वज्ञ सर्वदर्शी कहलाते थे । वे "अभिभूयणाणी" थे। अभिभूयनाणी - अभिभूयज्ञानी शब्द का अर्थ है मति आदि चार ज्ञानों का अभिभव (पराभव - पराजय) करके केवल ज्ञानी बने हुए। इसका आशय यह है कि जब केवलज्ञान होता है तब मतिज्ञान आदि चार ज्ञान अभिभूत अर्थात् नष्ट हो जाते हैं। जैसा कि कहा है “णट्ठम्मिए छाउमत्थिए णाणे'' - मतिज्ञान श्रुतज्ञान अवधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञान ये चार ज्ञान क्षायोपशमिक ज्ञान हैं। ये च ज्ञान हो जाने पर भी जीव छद्ममस्थ ही रहता है। इसीलिये इन चार ज्ञानों को छाद्मस्थिक ज्ञान ही कहते हैं। केवल ज्ञान क्षायिक ज्ञान है । इसलिये केवलज्ञान हो जाने पर ये चार ज्ञान नहीं रहते हैं। कितनेक लोगों की मान्यता है कि इन चार ज्ञानों का केवलज्ञान में समावेश हो जाता है । किन्तु यह कहना आगमानुकूल नहीं है। क्योंकि केवलज्ञान क्षायिक है और ये चार ज्ञान क्षायोपशमिक हैं। क्षायिक भाव में क्षायोपशमिक भाव का समावेश नहीं होता है। क्योंकि क्षायोपशमिक ज्ञान में कुछ ज्ञान का अंश उपशम अर्थात् दबा रहता है। किन्तु केवलज्ञान रूप क्षायिक भाव में कुछ भी अंश दबा नहीं रहता किन्तु आवरण का सर्वथा क्षय हो जाता है। . णिरामगंधे - निर्गतः - अपगत आमः अविशोधिकोव्याख्यः तथा गन्धो-विशोधिकोटिरूपो यस्मात् स भवति निरामगन्धः, मूलोत्तरगुणभेदभिन्नां चारित्रक्रियां कृतवान इत्यर्थः । शास्त्र की परिभाषा में 'आमः' का अर्थ है अविशोधिकोटि नामक मूल गुण और 'गन्ध' का अर्थ है विशोधिकोटि रूप उत्तर गुण रूप । मूल गुण और उत्तर गुण रूप दोषों से रहित चारित्र का पालन किया था 'धिइमं' - धृतिमान् असह्य परीषह और उपसर्गों के आने पर भी कम्प रहित होकर चारित्र में दृढ़ थे और आत्म स्वरूप में स्थित थे। कुछ लोगों की मान्यता है कि सिर्फ ज्ञान से ही मुक्ति हो जाती है और कुछ की मान्यता है कि क्रिया से ही मुक्ति हो जाती है। किन्तु भगवान् महावीर स्वामी का सिद्धान्त है कि - - १६७ For Personal & Private Use Only - Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 "ज्ञान क्रियाभ्यामं मोक्षः" अर्थात् ज्ञान और क्रिया दोनों के सम्मिलित रूप से मोक्ष (मुक्ति) होता है। इस बात को उन्होंने अपने जीवन में भी उतारा था यही बात इस गाथा में कही है यथा - वे सर्वज्ञ सर्वदर्शी थे और उन्होंने निर्दोष चारित्र का पालन किया था। 'सव्वजगंसि अणुत्तरे' सर्वजगत्सु अनुत्तरः विद्वान् समस्त जगत् में भगवान् से बढ़कर कोई विद्वान् नहीं था। वे हस्तामलकवत् समस्त पदार्थों को जानने वाले थे। . प्रश्न - हस्तामलकवत् शब्द का क्या अर्थ है ? उत्तर - हस्तामलकवत् शब्द के दो अर्थ हैं यथा - हस्त+आमलक+वत्- हाथ में रखे हुए आंवले की तरह । दूसरा अर्थहस्त+अमल+क+वत्= . अर्थ - हथेली में रखे हुए निर्मल जल के समान। यहाँ पर अमल का अर्थ है मल रहित-निर्मल। 'क' का अर्थ है पानी-जल। हथेली में रखे हुए निर्मल जल का ऊपरी भाग और नीचे की सतह साफ दिखाई देती है इसी तरह केवलज्ञान में सब पदार्थों का स्वरूप स्पष्ट दिखाई देता है। श्रमण भगवान् महावीर स्वामी सात भय से रहित थे। अतः अभय थे। .. . गंथा अतीते - ग्रंथात अतीतय=बाह्य और आभ्यन्तर एवं सचित्त अचित्त मिश्र सभी प्रकार के ग्रन्थ (परिग्रह) से रहित थे। . अणाऊ-अनायु - पूर्वभव में बान्धे हुए मनुष्य भव का आयुष्य तो भोग रहे थे किन्तु अब नरक आदि चारों गतियों में से किसी भी गति का आयुष्य नहीं बांधेगे। इस अपेक्षा से भगवान् अनायु (आयु रहित) थे। से भूइपण्णे अणिएअचारी, ओहंतरे धीरे अणंतचक्खू । अणुत्तरं तप्पइ सूरिए वा, वइरोयणिंदे व तमं पगासे ॥६॥ कठिन शब्दार्थ - भूइपण्णे - भूतिप्रज्ञ-अनन्तज्ञानी, अणिए अचारी - अनियताचारी-इच्छानुसार विचरण करने वाले, अथवा अनिकेतचारी-गृहत्याग कर विचरण करने वाले, ओहंतरे - संसार सागर के पारगामी, अणंतचक्खु - अनन्त चक्षु वाले-केवलज्ञानी, सूरिए - सूर्य, वइरोयणिंदे - वैरोचनेन्द्र-प्रज्वलित अग्नि, तमं - अंधकार को, पगासे - प्रकाशित करने वाले । भावार्थ - भगवान् महावीर स्वामी अनन्तज्ञानी, इच्छानुसार अर्थात् प्रतिबन्ध रहित विचरने वाले, संसार सागर को पार करने वाले, परीषह और उपसर्गों को सहन करने वाले, केवलज्ञानी थे । जैसे सबसे ज्यादा सूर्य तपता है इसी तरह भगवान् सबसे ज्यादा ज्ञानवान् थे । जैसे अग्नि अन्धकार को दूर For Personal & Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ६ १६९ करके प्रकाश करती है इसी तरह भगवान् अज्ञान को दूर कर पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को प्रकाशित करते थे। अणुत्तरं धम्ममिणं जिणाणं, णेया मुणी कासव आसुपण्णे । इंदे व देवाण महाणुभावे, सहस्सणेया दिवि णं विसिटे ॥७॥ __कठिन शब्दार्थ - धम्म - धर्म के, इणं - इस, जिणाणं - जिनेश्वरों के, णेया - नेता, मुणीमुनि, कासव - काश्यपगोत्री, आसुपण्णे - आशुप्रज्ञ - शीघ्र बुद्धि वाले, इंदेव - इन्द्र के समान, देवाणदेवों का, सहस्स - सहस्र-हजार, दिवि - स्वर्गलोक में, विसिटे - विशिष्ट, महाणुभावे - महानुभाव-प्रभावशाली । भावार्थ - शीघ्र बुद्धि वाले काश्यपगोत्री मुनि श्री वर्धमान स्वामी ऋषभादि जिनवरों के उत्तम धर्म के नेता हैं । जैसे स्वर्गलोक में सब देवताओं में इन्द्र श्रेष्ठ हैं इसी तरह भगवान् सब जगत् में सब से श्रेष्ठ हैं। विवेचन - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का गोत्र काश्यप था। इस अवसर्पिणी काल में धर्म की प्रवृत्ति भगवान् ऋषभदेव से हुई थी। वह धर्म वहाँ से चलता हुआ भगवान् महावीर तक पहुँचा इसलिये भगवान् धर्म के नेता हैं। जैसे स्वर्ग लोक में इन्द्र हजारों देवताओं में महाप्रभावशाली है और सब का नेता है। इसी प्रकार भगवान् महावीर स्वामी भी महाप्रभावशाली और धर्म के नेता हैं। भगवान् रूप, बल और वर्ण आदि सब बातों में विशिष्ट अर्थात् सर्व प्रधान हैं। से पण्णया अक्खय-सागरे वा, महोदही वा वि अणंतपारे । _अणाइले वा अकसाई मुक्के, सक्के व देवाहिवई जुइमं ।। ८ ॥ कठिन शब्दार्थ - पण्णया - प्रज्ञा से, अक्खय - अक्षय, सागरे - सागर-समुद्र, महोदही - महोदधि-स्वयंभूरमण समुद्र, अणंतपारे - अपार-पार रहित, अणाइले - निर्मल, अकसाई - अकषायीकषायों से रहित, मुक्के (भिक्खू) - मुक्त, सक्के - शक्र-इन्द्र, देवाहिवई - देवाधिपति, जुइमं - द्युतिमान् । ... भावार्थ - भगवान् समुद्र के समान अक्षय प्रज्ञा वाले हैं । उनकी प्रज्ञा का स्वयम्भूरमण के समान पार नहीं है । जैसे स्वयम्भूरमण का जल निर्मल है इसी तरह भगवान् की प्रज्ञा निर्मल हैं। भगवान् कषायों से रहित तथा मुक्त हैं । भगवान् इन्द्र के समान देवताओं के अधिपति तथा बड़े तेजस्वी हैं । विवेचन - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी प्रज्ञा अर्थात् बुद्धि यानी केवलज्ञान वाले हैं। केवलज्ञान की रुकावट कहीं पर भी नहीं होती है। वह केवलज्ञान काल से आदि सहित और अन्त रहित है। द्रव्य, क्षेत्र और भाव से अनन्त है। केवलज्ञान की सम्पूर्ण तुल्यता का दृष्टान्त नहीं मिलता है। इसलिये For Personal & Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 शास्त्रकार एक देश दृष्टान्त बतलाते हैं। जैसे स्वयंभू रमण समुद्र अपार, विस्तृत, गंभीर जल वाला और अक्षोभित जल वाला है इसी तरह भगवान् की प्रज्ञा भी विस्तृत तथा स्वयंभू रमण समुद्र से भी अनन्त गुणा गम्भीर और अक्षोभ्य है। जैसे स्वयंभू रमण समुद्र का जल निर्मल है इसी तरह भगवान् का ज्ञान भी कर्म का लेश मात्र भी न होने के कारण निर्मल है। क्रोध आदि कषायों का सर्वथा क्षय हो जाने के कारण वें अकषायी हैं। ज्ञानावरणीय आदि कर्म बन्धन सर्वथा नष्ट हो जाने के कारण वे मुक्त थे। ____ गाथा में आये "मुक्के" शब्द के स्थान पर कहीं 'भिक्खू' शब्द दिया हुआ है। उसका अर्थ यह है कि यद्यपि भगवान् के सब अन्तराय नष्ट हो गये थे तथा वे समस्त जगत् के पूज्य भी थे तथापि वे भिक्षा वृत्ति से ही अपना जीवन निर्वाह करते थे। वे अक्षीणमहानस आदि लब्धियों का उपयोग नहीं करते थे। भगवान् देवों के अधिपति शक्रेन्द्र के समान तेजस्वी थे। से वीरिएणं पडिपुण्णवीरिए, सुदंसणे वा णगसव्व-सेटे। सुरालए वासि-मुदागरे से, विरायए णेगगुणोववेए ॥ ९ ॥ कठिन शब्दार्थ- वीरिएणं - वीर्य से, पडिपुण्ण वीरिए - पूर्ण (सर्व श्रेष्ठ) वीर्य वाले, सुदंसणे - सुदर्शन (मेरु) णगसव्व- सभी पर्वतों में, सेटे - श्रेष्ठ, सुरालए - स्वर्ग, वासि - निवास करने वाले को, मुदागरे - हर्ष उत्पन्न करने वाला, विरायए - विराजमान है, णेगगुणोववेएअनेक गुणों से युक्त । भावार्थ - भगवान् महावीर स्वामी पूर्णवीर्य और पर्वतों में सुमेरु के समान सब.प्राणियों में श्रेष्ठ हैं । वह देवताओं को हर्ष उत्पन करने वाला स्वर्ग की तरह सब गुणों से सुशोभित हैं । विवेचन - वीर्य अन्तराय कर्म के सर्वथा क्षय हो जाने से स्वाभाविक शारीरिक बल तथा धैर्य और संहनन आदि बलों से भगवान् परिपूर्ण है। जिस प्रकार मनुष्य के शरीर में नाभि ठीक बीचो-बीच होती है इसी प्रकार मेरु पर्वत जम्बूद्वीप के ठीक मध्य भाग में आया हुआ है। इसलिये जम्बूद्वीप को मेरु नाभि कहते हैं। वह मेरु पर्वत सब पर्वतों में श्रेष्ठ है इसी प्रकार भगवान् वीर्य तथा अन्य गुणों में श्रेष्ठ है। जैसे अपने ऊपर निवास करने वाले देवों को हर्ष उत्पन्न करने वाला प्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और प्रभाव आदि गुणों से सुशोभित है इसी तरह भगवान् भी अनेक गुणों से सुशोभित हैं। अथवा जैसे स्वर्ग सुखों को देने वाला और अनेक गुणों से सुशोभित है इसी तरह वह सुमेरु भी है। सयं सहस्साण उ जोयणाणं, तिकंडगे पंडग-वेजयंते। से जोयणे णवणवइ सहस्से, उद्धस्सितो हेट्ठ सहस्समेगं ॥ १० ॥ कठिन शब्दार्थ - सयं सहस्साण - सौ हजार अर्थात् एक लाख जोयणाणं- योजन, तिकंडगे - For Personal & Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अध्ययन ६ १७१ तीन कांडों (भागों) वाला, पंडग वेजयंते - पंडक वन रूपी पताका से युक्त, णवणवइ - निन्नानवें, सहस्से - हजार, उद्धस्सितो - ऊपर उठा हुआ, हेट्ठ - नीचे, सहस्समेगं - एक हजार योजन । . . ... भावार्थ - वह सुमेरु पर्वत सौ हजार अर्थात् एक लाख योजन का है । उसके विभाग तीन हैं तथा उस पर सबसे ऊंचा स्थित पण्डक वन पताका के समान शोभा पाता है । वह निनानवें हजार योजन ऊँचा और एक हजार योजन भूमि में गड़ा हुआ है । .. विवेचन - मेरु पर्वत पांच हैं। यथा - जम्बूद्वीप में एक, धातकीखण्ड में दो और अर्धपुष्करवरद्वीप में दो। इस प्रकार ये पांच मेरु पर्वत हैं । जम्बूद्वीप का मेरु पर्वत एक लाख योजन का ऊँचा है। शेष चारों मेरु पर्वत ८५ हजार योजन के हैं । जम्बूद्वीप का मेरु पर्वत सब से बड़ा है। इस मेरु पर्वत के तीन काण्ड हैं। अधस्तनकाण्ड, मध्यम और ऊपरी तन। अधस्तनकाण्ड चार प्रकार का है। पृथ्वी रूप (मिट्टी रूप)। दूसरा पत्थर रूप। तीसरा वज्र (हीरा) रूप तथा चौथा कङ्कर रूप। यह प्रथम काण्ड एक हजार योजन का है। यह धरती के अन्दर है। मध्यम काण्ड भी चार प्रकार का है। अङ्क रत्न, स्फटिक रत्न, जात (सुवर्ण या सोना), रूप रजत (चांदी) रूप। .. तीसरा काण्ड एक ही प्रकार का है। वह जम्बूनद अर्थात् लाल सोने रूप है। पहला काण्ड एक हजार योजन का है। दूसरा काण्ड त्रेसठ हजार योजन का है और तीसरा काण्ड छत्तीस हजार योजन का है। इस प्रकार मेरु पर्वत एक लाख योजन का है। उसके ऊपर चालीस योजन प्रमाण मेरु पर्वत की चूलिका है। जिस प्रकार मनुष्य की चोटी उसकी लम्बाई में नहीं गिनी जाती है। इसी प्रकार मेरु पर्वत की चूलिका भी उसके एक लाख योजन लम्बाई में नहीं गिनी जाती है। जिस प्रकार यहाँ क्षेत्र चूला बतलाई गयी है उसी प्रकार ज्योतिष शास्त्र में काल चूला बतलाई गयी है अर्थात् जो भहीना अधिक बढ़ता है वह क्षेत्र चूला की तरह कालचूला होने से गिनती में नहीं लिया जाता है। अर्थात् प्रथम मास नगण्य कर दिया जाता है। - प्रथम मास नगण्य कर देने पर संवत्सरी सदा भादवें में ही आती है अर्थात् सावण दो होने पर पहले सावण को और दो भादवा होने पर पहले भादवे को नगण्य कर देना चाहिए। फिर संवत्सरी भादवें में होने में किसी प्रकार का विवाद ही नहीं रहता है। . मेरु पर्वत के चार वन हैं। यथा - समधरती पर भद्रशाल वन है। इसमें रहे हुए वृक्षों की शाखाएँ सब सरल होती है इसलिये इसको भद्रशाल कहते हैं। इसके पांच सौ योजन ऊपर जाने पर नन्दनवन आता है। यह मनुष्यों को और देवों को भी आनन्द देने वाला होता है। इस.वन से साढे बासठ हजार योजन ऊपर जाने पर सोमनस वन है। सोमनस का अर्थ यहाँ पर देव किया गया है। यहाँ पर देवता के बैठने और क्रीड़ा करने का स्थान होने के कारण इसे सोमनस कहते हैं। इससे छत्तीस हजार योजन For Personal & Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 ऊपर जाने पर पण्डक वन है। यह सब वनों में अतिशय सम्पन्न है। क्योंकि यहां पर तीर्थंकर भगवन्तों का जन्माभिषेक किया जाता है। यहां पर चार अभिषेक शिलाएँ हैं यथा - १. पाण्डुशिला - मेरु पर्वत की चूलिका से पूर्व में है। यह उत्तर दक्षिण लम्बी और पूर्व पश्चिम में चौड़ी है। पांच सौ योजन की लम्बी और अढ़ाई सौ योजन की चौड़ी है। अर्ध चन्द्रमा के आकार है। यहाँ पर दो सिंहासन हैं। पांच सौ धनुष के लम्बे चौड़े और अढ़ाई सौ धनुष के मोटाई वाले हैं। इन पर पश्चिम महाविदेह के दो तीर्थङ्करों का जन्माभिषेक किया जाता है। २. मेरु पर्वत की चूलिका से दक्षिण दिशा में पाण्डुकम्बल शिला है। इस पर एक सिंहासन है। इस पर भरत क्षेत्र के तीर्थङ्करों का जन्माभिषेक किया जाता है। ३. मेरुपर्वत की चूलिका से पश्चिम में रक्तशिला है। इस पर दो सिंहासन हैं। पश्चिम महाविदेह के दो तीर्थङ्करों का जन्माभिषेक किया जाता है। ४. मेरुपर्वत की चूलिका से उत्तर में रक्तकम्बल शिला है। इस पर एक सिंहासन है। इस पर ऐरावत क्षेत्र के तीर्थङ्करों का जन्माभिषेक किया जाता है। समवायाङ्ग सूत्र के सोलहवें समवाय में मेरुपर्वत के सोलह नाम दिये गये हैं यथा - १. सन्दर २. मेरु ३. मनोरम ४. सुदर्शन ५. स्वयं प्रभ ६. गिरिराज ७. रत्नोच्चय ८. प्रियदर्शन ९. लोकमध्य १०. लोकनाभि ११. अर्थ १२. सूर्यावर्त १३. सूर्यावरण १४. उत्तर-सब क्षेत्रों से मेरु पर्वत उत्तर दिशा में है। १५. दिगादि - सब दिशाओं का निश्चय कराने वाला १६. अवतंस (आभूषण रूप)। पुढे णभे चिट्ठइ भूमिवहिए, जं सूरिया अणुपरिवट्टयंति। से हेमवण्णे बहुणंदणे य, जंसि रइं वेदयंति महिंदा ॥ ११ ॥ कठिन शब्दार्थ - पुढे - स्पर्श किया हुआ, णभे - आकाश, भूमिवहिए - पृथ्वी पर, चिट्ठइ - स्थित है, सूरिया - सूर्य, अणुपरिवट्टयंति - परिक्रमा करते हैं, हेमवण्णे - स्वर्ण वर्ण वाला, बहुणंदणं - बहुत नंदन वनों वाला, बहुतों को आनंद देने वाला, रतिं - आनंद का, वेदयंति - अनुभव करते हैं, महिंदा - महेन्द्र-महान् इन्द्र । भावार्थ - वह सुमेरु पर्वत आकाश को स्पर्श करता हुआ और पृथिवी में घुसा हुआ स्थित है । आदित्य गण उसकी परिक्रमा करते रहते हैं । वह सुनहरी रङ्गवाला और बहुत नन्दन वनों से युक्त हैं, उस पर महेन्द्र (स्वर्गों के इन्द्र) आनन्द अनुभव करते हैं । . .. _ विवेचन - जिस प्रकार विशालकाय मेरु-पर्वत तीनों लोकों का स्पर्श कर रहा है, पर भूमि में ही स्थित है, उसी प्रकार भगवान् अपने यश रूपी शरीर से तीनों लोक में व्याप्त होकर भी अपनी आत्मा में स्थिर थे । मेरु के ऊपर के चार वन (भद्रशाल, सौमनस, नंदन और पण्डक) के समान प्रभु में अनन्त For Personal & Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ६ १७३. 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 चतुष्टय (ज्ञान, दर्शन, शक्ति, सुख) प्रकट होकर अथवा चार अतिशय (ज्ञानातिशय, अपायापगमातिशय-निर्दोषत्वातिशय, वचनातिशय और पूजातिशय) प्रकट होकर, प्राणियों को-भव्यों को आनन्दित करते थे । मेरु के चारों ओर ग्रहगण के चक्कर काटने के समान प्रभु के पास देवगण चक्कर लगाते रहते थे । भगवान् का वर्ण भी सुनहरा था । मेरु पर्वत के तीन काण्ड हैं वैसे ही भगवान् त्रिरत्न (सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्र) के धारी थे और मेरु की पंडक वन रूप वैजयन्ती के समान यथाख्यात चारित्र रूप वैजयन्ती से युक्त थे । वह मेरु पर्वत आकाश को स्पर्श करता हुआ तथा पृथ्वी को अवगाहन करके स्थित है। वह ऊर्ध्व लोक, तिर्खा लोक और अधोलोक ऐसे तीनों लोकों का स्पर्श करने वाला है। सूर्य आदि ज्योतिषी विमान इसके चारों तरफ परिक्रमा करते हुए फिरते रहते हैं। इस पर भद्रशालवन, नन्दनवन, सोमनसवन और पण्डकवन ये चार वन हैं ये देवों को भी आनन्द देने वाले हैं इसलिये मेरु पर्वत को बहुनन्दन कहा है। ये वन स्वर्ग से भी अधिक रमणीय हैं। इसलिये स्वर्ग के इन्द्र यहाँ आकर क्रीड़ा करते हैं और आनन्द का अनुभव करते हैं। से पव्वए सहमहप्पगासे, विरायइ कंचणमट्ठवण्णे । अणुत्तरे गिरिसु य पव्वदुग्गे,, गिरिवरे से जलिए व भोमे ।। १२ ।। .. कठिन शब्दार्थ - पव्वए - पर्वत, सहमहप्पगासे - अनेक नामों से प्रसिद्ध, कंचणमट्ठवण्णे - सोने के वर्ण वाला, विरायइ (विरायए)- सुशोभित है, गिरिसु - पर्वतों में पव्वदुग्गे - पर्वत मेखलाओं से दुर्गम, गिरिवरे - पर्वत श्रेष्ठ, भोमे व जलिए - मणि और औषधियों से प्रकाशित । भावार्थ - वह सुमेरु पर्वत जगत् में अनेक नामों से प्रसिद्ध है । उसका रङ्ग सोने के समान शुद्ध है, उससे बढ़कर जगत् में दूसरा पर्वत नहीं है, वह उपपर्वतों के द्वारा दुर्गम है, वह मणि तथा औषधियों से प्रकाशित भूमि प्रदेश की तरह प्रकाश करता है । विवेचन - मेरु पर्वत के सोलह नाम हैं। जिनका नाम निर्देश १० वीं गाथा के विवेचन में दिया गया है। इसका वर्ण तपे हुए सोने को घिस कर चिकना बनाया गया हो इस तरह का शुद्ध है। यह मेखला आदि से अथवा उपपर्वतों के कारण सभी पर्वतों में दुर्गम है। इसलिये इस पर्वत पर सामान्य प्राणियों का चढ़ना बड़ा कठिन है। यह पर्वत श्रेष्ठ मणियों और औषधियों से प्रकाशित होने के कारण मानो पृथ्वी का एक भाग प्रकाशित हो रहा है। महीइ मण्झमि ठिए णगिंदे, पण्णायए सूरिय-सुद्धलेस्से। एवं सिरीए उ स भूरिवण्णे, मणोरमे जोयइ अच्चिमाली ॥ १३ ॥ - कठिन शब्दार्थ - महीइ - पृथ्वी के, मझमि - मध्य में, ठिए - स्थित, णगिंदे - नगेन्द्र-पर्वत राज, पण्णायए - प्रतीत होता है, सूरिय सुद्धलेसे - सूर्य के समान शुद्ध लेश्या कांति वाले, सिरिए - For Personal & Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १.. 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 शोभा से, भूरिवण्णे - अनेक वर्ण वाले, मणोरमे - मनोरम, अच्चिमाली - सूर्य, जोयइ - प्रकाशित हो रहा है । भावार्थ - वह पर्वतराज, पृथिवी के मध्यभाग में स्थित है वह सूर्य के समान कान्तिवाला है, . वह अनेक वर्णवाला और मनोहर है ! वह सूर्य के समान सब दिशाओं को प्रकाशित करता है। विवेचन - असंख्यात द्वीप समुद्रों के बीच में जम्बूद्वीप है। जम्बूद्वीप के ठीक मध्य भाग में मेरु पर्वत है। यह मेरु सौमनस, विद्युतप्रभ, गन्धमादन और माल्यवान् इन चार दंष्ट्रा पर्वतों से सुशोभित है। समभूमि भाग पर दस हजार योजन का विस्तार वाला है। वह प्रत्येक नव्वे योजन पर एक योजन का ग्यारहवां भाग कम विस्तार वाला (बाकी का योजन के दस भाग विस्तार वाला) अर्थात् ज्यों-ज्यों ऊँचा चढ़े त्यों-त्यों कम विस्तार वाला होता हुआ सिर पर एक हजार योजन विस्तार वाला यह मेरु पर्वत है उसके सिर पर चालीस योजन की ऊंची मन्दर चलिका (चोटी) है। यह सब पर्वतों में प्रधान और सर्य की तरह प्रकाश करने वाला है। ऊपर बताई हुई विशिष्ट शोभा से युक्त यह पर्वत अनेक रत्नों से. शोभित होने के कारण अनेक वर्ण वाला है। अतएव मन को प्रसन्न करने वाला तथा सूर्य की तरह अपने . तेज से दस दिशाओं को प्रकाशित करने वाला है। सुदंसणस्सेव जसो गिरिस्स, पवुच्चइ महतो पव्वयस्स । एतोवमे समणे णायपुत्ते, जाइ-जसो-दंसणणाणसीले ॥ १४ ॥ कठिन शब्दार्थ - सुदंसणस्स - सुदर्शन का, इव - तरह जसो - यश, पवुच्चइ - कहा जाता है, महतो - महान् पव्वयस्स- पर्वत का, समणे णायपुत्ते - ज्ञातपुत्रश्रमण भगवान् महावीर स्वामी, उवमे - उपमा, जाइ - जाति, दंसणणाण सीले - दर्शन, ज्ञान, शील । भावार्थ - पर्वतों में मेरु पर्वत का यश पूर्वोक्त प्रकार से बताया जाता है । ज्ञातपुत्र श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की उपमा इसी पर्वत से दी जाती है । जैसे सुमेरु अपने गुणों के द्वारा सब पर्वतों में श्रेष्ठ हैं इसी तरह भगवान् जाति, यश, दर्शन, ज्ञान और शील में सबसे प्रधान है । विवेचन - सुमेरु के सुदर्शन, शोभन दर्शन, मंदराचल, स्वर्णाचल, नगेन्द्र, गिरिराज, हेमाद्रि आदि अनेक सुन्दर नाम हैं वैसे ही भगवान् के सन्मति, देवार्य, ज्ञातपुत्र, वैशालीय, काश्यप, महावीर, वर्द्धमान, त्रैशलेय आदि अनेक नाम हैं अथवा सुमेरु दिव्य संगीत से गुंजित होता रहता है वैसे ही भगवान् दिव्य वाणी प्रकाशित करते हैं । सुमेरु स्वर्ण के रंग-सा शोभित है, वैसे ही भगवान् की देह स्वर्ण वर्णी है और इस से कान्ति प्रसरित होती रहती थी । जैसे पर्वतों में मेरु अनुत्तर हैं, वैसे ही धर्म स्थापकों में महावीर अनुत्तर थे । जैसे पर्वत श्रेणियों के कारण मेरु दुर्गम है, वैसे ही भगवान स्याद्वाद के कारण दुर्विजेय थे । मेरु मणियों और औषधियों से दीप्त है वैसे ही भगवान् तप से तेजस्वी थे । पृथ्वी के For Personal & Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ६ 00000000000 .............. केन्द्र-स्थल में मेरु स्थित है वैसे ही भगवान् तीर्थंकर होते हुए भी भौतिक स्वार्थों से परे थे; अतः मेरु सूर्य से शुद्ध तेज के समान वे प्रशस्त लेश्या वाले थे । प्रशस्तलेश्या में अग्रसर होने पर उनमें सूर्य के समान दिव्य ज्ञान का प्रकाश हुआ, जिससे वस्तुओं के अनंत धर्म उनकी आत्मा में झलकने लगे-अतः उनकी आत्मा की श्री लक्ष्मी बढ़ गई जिस प्रकार कि अर्चिमाली (सूर्य) के संयोग से मेरु के अन्दर की विविध मणियों के रंग चमकने लगते हैं और वह मन को अपने में रमा लेता । अतः प्रभु के ध्यान से प्राणी भी अन्तर्मुख बन कर, आनंदानुभव करने लग जाते हैं । गाथा में भगवान् महावीर स्वामी के लिये 'समणे' विशेषण दिया है। इसका अर्थ है 'श्राम्यति तपस्यति इति श्रमणः' अथवा 'सम्यग्, दर्शन ज्ञान चारित्रात्मके संयमे श्रमं पुरुषार्थम् करोति इति श्रमणः' अर्थात् जो तपस्या में अथवा सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप संयम में पुरुषार्थ करे उसे श्रमण करते हैं। रोजा सिद्धार्थ का वंश ज्ञातवंश था । इसलिये भगवान् महावीर को ज्ञात पुत्र कहा है । वे जाति यश तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र (शील) में सर्वश्रेष्ठ थे। - गिरिवरे वा सिहाऽऽययाणं, रुयए व सेट्ठे वलयायताणं । तओवमे से जगभूङ्गपणे, मुणीण मज्झे तमुदाहु पणे ॥ १५ ॥ कठिन शब्दार्थ - आययाणं आयत - लम्बे पर्वतों में, णिसह - निषध, रुयए वलयायताणं - वलयाकार - गोल पर्वतों में, जग भूड़पण्णे - जगत् में भूतिप्रज्ञ, मुणीण मुनियों के, मज्झे मध्य, पण्णे - प्राज्ञ बुद्धिमान् । रुचक, भावार्थ - जैसे लम्बे पर्वतों में निषध पर्वत श्रेष्ठ हैं तथा वर्तुल पर्वतों में रुचक पर्वत उत्तम है इसी तरह संसार के सभी मुनियों में अद्वितीय बुद्धिमान् भगवान् महावीर स्वामी श्रेष्ठ है ऐसा ज्ञानी पुरुष फरमाते हैं। विवेचन - जैसे जम्बूद्वीप में छह वर्षधर पर्वत हैं । यथा चुल्लहिमवान, महाहिमवान, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी। इनमें निषध और नील दोनों पर्वतों की लम्बाई सरीखी है। फिर भी दक्षिण दिशा के निषध पर्वत की कुछ विशेषता होने के कारण यहाँ निषध पर्वत का कथन किया गया है। आशय यह है कि जम्बूद्वीप में अथवा दूसरे द्वीपों में सभी लम्बे पर्वतों में निषध पर्वत श्रेष्ठ है तथा जम्बूद्वीप से संख्या की अपेक्षा रुचक द्वीप तेरहवाँ है। उस द्वीप के मध्य में रुचक पर्वत है। वह पर्वत मानुष्योत्तर पर्वत की तरह वलयाकार (चूड़ी के आकार) गोल है। उसका विस्तार संख्यात योजन है। इन दो पर्वतों का उदाहरण दिया गया है। आशय यह है कि लम्बे पर्वतों में निषध और वलयाकार गोल पर्वतों में रुचक पर्वत सब से प्रधान है। इसी तरह श्रमण भगवान् महावीर स्वामी भी संसार के सब ज्ञानियों में उत्तम एवं प्रधान ज्ञानी हैं। १७५ 000000 For Personal & Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ अणुत्तरं धम्ममुईरइत्ता, अणुत्तरं झाणवरं झियाइ ।। सुसुक्कसुक्कं अपगंड सुक्कं, संखिंदुएगंत-वदात-सुक्कं ॥ १६ ॥ कठिन शब्दार्थ - धम्ममुईरइत्ता - धर्म का उपदेश दे कर, अणुत्तरं - सर्वोत्तम, झाणवरं - प्रधान ध्यान, झियाइ - ध्याते थे. सुसुक्कसुक्कं - अत्यंत शुक्ल वस्तु के समान शुक्ल, अपगंडसुक्कं- . जल के फेन के समान शुक्ल, संखिंदुएगंतवदात सुक्कं - शंख तथा चन्द्रमा के समान एकांत शुक्ल । भावार्थ - भगवान् महावीर स्वामी, सर्वोत्तम धर्म बताकर सर्वोत्तम ध्यान ध्याते थे । उनका ध्यान अत्यन्त शुक्ल वस्तु के समान दोष वर्जित शुक्ल था तथा शंख और चन्द्रमा के समान शुद्ध था । .. विवेचन - जिससे बढ़कर कोई दूसरा नहीं है उसे अनुत्तर कहते हैं। ऐसे अनुत्तर धर्म का कथन करके भगवान् अनुत्तर ध्यान ध्याते थे। भगवान् को जब केवल ज्ञान उत्पन्न हो गया तब योग निरोध के . समय में सूक्ष्म काय योग को रोकते हुए शुक्ल ध्यान का तीसरा भेद जो कि सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाती है उसे ध्याते थे और जब वे योगों का निरोध कर चुके तब शुक्ल ध्यान का चौथा भेद व्युपरतक्रिय अनिवृत कहलाता है, उसे ध्याते थे। यही बात शास्त्रकार बतलाते हैं कि जो ध्यान अत्यन्त शुक्ल की तरह शुक्ल है तथा जिससे दोष हट गया है। अर्थात् जो निर्दोष शुक्ल है तथा अपगण्ड अर्थात् जल के फेन के समान शुक्ल (सफेद) है तथा शंख और चन्द्रमा के समान जो एकान्त शुक्ल है ऐसे शुक्ल : ध्यान के दो भेदों को भगवान् ध्याते थे। अणुत्तरग्गं परमं महेसी, असेसकम्मं स विसोहइत्ता । . सिद्धिं गए साइमणंतपत्ते, णाणेण सीलेण य दंसणेण ॥ १७ ॥ कठिन शब्दार्थ - असेसकम्मं - समस्त कर्मों को, विसोहइत्ता - विशोधन करके, सिद्धिं - सिद्धि को, साइमणंत- सादि अनंत जिसकी आदि है परन्तु अन्त नहीं, पत्ते - प्राप्त हुए, णाणेण - ज्ञान से, दंसणेण - दर्शन से, सीलेण - शील से। भावार्थ - महर्षि भगवान् महावीर स्वामी ज्ञान दर्शन और चारित्र के प्रभाव से ज्ञानावरणीय आदि समस्त कर्मों को क्षय करके सर्वोत्तम उस सिद्धि को प्राप्त हुए, जिसकी आदि है परन्तु अन्त नहीं है । विवेचन - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी शैलेशी अवस्था से उत्पन्न शुक्लध्यान के चौथे भेद को ध्याकर सिद्धि गति को प्राप्त हुए। जिसकी आदि तो है परन्तु अन्त नहीं। इस सिद्धि गति को पांचवीं गति भी कहते हैं। यह लोक के अग्र भाग पर स्थित है इसलिए इसको अग्या भी कहते हैं। यह क्षायिक ज्ञान, दर्शन, चारित्र से प्राप्त होती है। रुक्खेसु णाए जह सामली वा, जस्सिं रइं वेदयंति सुवण्णा। वणेसु वा णंदणमाहु सेढें, णाणेण सीलेण य भूइपण्णे ॥ १८॥ For Personal & Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ६ १७७ कठिन शब्दार्थ - रुक्खेसु - वृक्षों में, णाए - ज्ञात-प्रसिद्ध, सामली - शाल्मली, जस्सिं (जंसि)- जिस पर, रई - आनंद का सुवण्णा - सुपर्ण कुमार, वणेसु - वनों में, णंदणं - नंदन वन को सेढें- श्रेष्ठ, भूइपण्णे - भूतिप्रज्ञ-उत्कृष्ट ज्ञान दर्शन वाले । भावार्थ - जैसे वृक्षों में सुवर्ण नामक देवताओं का क्रीडास्थान शाल्मली वृक्ष श्रेष्ठ हैं तथा वनों में नन्दनवन श्रेष्ठ है इसी तरह ज्ञान और चारित्र में भगवान् महावीर स्वामी सबसे श्रेष्ठ हैं । विवेचन - जैसे देवकुरु में स्थित प्रसिद्ध शाल्मली वृक्ष सब वृक्षों में श्रेष्ठ है। क्योंकि वहाँ भवनपति जाति के सुपर्ण नामक भवनपति विशेष वहाँ आकर क्रीड़ा करते हैं तथा भद्रशाल सौमनस और पण्डक इन तीन वनों में नन्दनवन श्रेष्ठ है। इसी तरह भगवान् भी समस्त पदार्थों को प्रकट करने वाले केवलज्ञान, केवल दर्शन और क्षायिक यथाख्यात चारित्र के द्वारा सब में प्रधान और श्रेष्ठ हैं। थणियं व सहाण अणुत्तरे उ, चंदो व ताराण महाणुभावे। गंधेसु वा चंदणमाहु सेठें, एवं मुणीणं अपडिण्णमाहु ॥ १९ ॥ कठिन शब्दार्थ - थणियं- स्तनित-मेघ गर्जन, सहाण - शब्दों में, अणुत्तरे - प्रधान, ताराण - ताराओं में, महाणुभावे - महानुभाव, गंधेसु - गंधों में, चंदणं - चंदन, आहु - कहा है, मुणीणंमुनियों में, अपडिण्णं - अप्रतिज्ञ-अनासक्त। भावार्थ - जैसे सब शब्दों में मेघ का गर्जन प्रधान है और सब ताराओं में चन्द्रमा प्रधान है तथा सब गन्धवालों में जैसे चन्दन प्रधान है इसी तरह सब मुनियों में कामना रहित भगवान् महावीर स्वामी प्रधान हैं। - विवेचन - जैसे शब्दों में मेघ की गर्जना का शब्द प्रधान है तथा सब ज्योतिषी देवों में चन्द्रमा प्रधान है तथा गन्ध वाले पदार्थों में चन्दन (गोशीर्ष या मलयज-बावना चन्दन) प्रधान है। इसी तरह मुनियों में इसलोक तथा परलोक के सुख की कामना नहीं करने वाले भगवान् महावीर स्वामी सर्वश्रेष्ठ जहा सयंभू उदहीण सेटे, णागेसु वा धरणिंदमाहु सेटे । खोओदए वा रस वेजयंते, तवोवहाणे मुणि वेजयंते ॥ २० ॥ . कठिन शब्दार्थ - उदहीण - समुद्रों में, सयंभू - स्वयंभू, णागेसु - नागकुमार देवों में, धरणिंद - धरणेन्द्र, खोओदए - इक्षु रसोदक, रस - रस, वेजयंते - वैजयंत प्रधान श्रेष्ठ, तवोवहाणे - तप में। भावार्थ - जैसे सब समुद्रों में स्वयम्भूरमण समुद्र प्रधान है तथा जैसे नागों में धरणेन्द्र सर्वोत्तम For Personal & Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000 एवं जैसे सब रसवालों में इक्षुरसोदक समुद्र श्रेष्ठ है इसी तरह सब तपस्वियों में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी श्रेष्ठ हैं । विवेचन - जो अपने आप उत्पन्न होते हैं वे स्वयंभू कहलाते हैं। इस अपेक्षा से देवों को स्वयम्भू कहते हैं। वे देव जिस समुद्र के पास आकर रमण (क्रीड़ा) करते हैं उस को स्वयम्भूरण समुद्र कहते हैं। समस्त द्वीप और समुद्रों के अन्त में रहा हुआ वह स्वयम्भूरमण समुद्र सब समुद्रों में प्रधान और श्रेष्ठ है तथा नागकुमार जाति के भवनपति देवों में धरणेन्द्र श्रेष्ठ है एवं ईख के रस के समान जिसका जल मधुर है वह इक्षुरसोदक समुद्र जैसे समस्त रस वाले समुद्रों में प्रधान है क्यों कि वह अपने माधुर्य गुणों से सब समुद्रों की पताका के समान स्थित है अथवा सब रसों में इक्षु रस ( ईख का रस ) प्रधान है इसी तरह जगत् के तीनों काल की अवस्था को जानने वाले भगवान् महावीर स्वामी विशिष्ट तपश्चर्या के द्वारा समस्त लोक की पताका के समान सब से ऊपर स्थित हैं। १७८ हत्थी एरावणमाहु णाए, सीहो मियाणं सलिलाण गंगा । पक्खीसु वा गरुले वेणुदेवे, णिव्वाणवादीणिह णायपुत्ते ॥ २१ ॥ हाथियों में, एरावणं- एरावण, सीहो- सिंह, मियाणं- मृगों में, पक्षियों में, वेणुदेवे गरुले - वेणुदेव गरुड़, णिव्वाणवादीण - कठिन शब्दार्थ - हत्थीसु सलिलाणं - नदियों में, पक्खीसु निर्वाण वादियों में, इह - यहाँ । भावार्थ - हाथियों में ऐरावण, मृगों में सिंह, नदियों में गङ्गा और पक्षियों में जैसे वेणुदेव गरुड़ श्रेष्ठ हैं इसी तरह मोक्षवादियों में भगवान् महावीर स्वामी श्रेष्ठ हैं । " विवेचन पहले देवलोक का नाम सुधर्म है। उसके इन्द्र का नाम शक्र । वर्तमान में जो शक्र है वह कार्तिक सेठ का जीव है। भगवान् मुनिसुव्रतस्वामी के समय का कथानक है। यथा पृथ्वी भूषण नगर में प्रजापाल नाम का राजा राज्य करता था । वहाँ कार्तिक नाम का सेठ रहता था। वह बारह व्रत धारी श्रावक था । उसने श्रावक की पांचवीं पडिमा का एक सौ बार आराधन किया था। इसलिये उसका दूसरा नाम 'शत्क्रतु" भी कहा जा सकता है। एक समय एक परिव्राजक वहाँ आया। राजा उसका भक्त था इसलिये सब लोग उसके भक्त बन गये सिर्फ कार्तिक सेठ ने उसको वन्दना नमस्कार नहीं किया। इससे वह परिव्राजक बहुत नाराज हुआ। एक समय उस परिव्राजक को राजा ने अपने महल में पारणा करने के लिये निमंत्रित किया उसने यह शर्त रखी कि यदि कार्तिक सेठ आकर मुझे भोजन करावे तो मैं आपके यहाँ पर भोजन कर सकता हूँ। राजा ने कार्तिक सेठ को आज्ञा दी तब कार्तिक सेठ को राजा के वहाँ उसे भोजन कराने जाना पड़ा। जब वह संन्यासी को परोस रहा था तब संन्यासी ने अपने नाक पर अङ्गुली रखकर इस प्रकार की चेष्टा की कि देख तूने तो मुझे नमस्कार नहीं किया - For Personal & Private Use Only - Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ६ १७९ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 मैंने तो तेरा नाक काट लिया। दूसरे कथानक में ऐसा भी लिखा है कि कार्तिक सेठ की नङ्गी पीठ पर उस परिव्राजक ने गरम-गरम खीर से भरी हुई थाली रखकर भोजन किया जिससे उसकी पीठ जल गयी और चमड़ी ऊतर गयी। तब कार्तिक सेठ के मन में विचार आयां कि यदि मैंने पहले दीक्षा ले ली होती तो आज यह दिन देखना नहीं पड़ता। इस प्रकार उसे संसार से वैराग्य हो गया वह एक हजार आठ व्यापारियों का प्रधान मुखिया था इसलिये उन सब को बुलाकर पूछा मैं तो अब दीक्षा लेना चाहता हूँ। आप लोग क्या करोगे? तब उन्होंने कहा कि आप जब दीक्षा ले रहे हैं तो हमारे लिये तो आप ही आधार हैं हम भी आपके साथ दीक्षा लेंगे। इसके बाद कार्तिक सेठ ने एक हजार आठ वणिकों (व्यापारियों) के साथ भगवान् मुनिसुव्रत स्वामी के पास दीक्षा ली। स्थविरों के पास १२ अङ्गों का ज्ञान किया। समय आने पर एक महीने का संथारा किया और काल के समय में काल धर्म को प्राप्त होकर पहले देवलोक का इन्द्र बना। इस इन्द्र के लिये शतकतु विशेषण लगता है। वह परिव्राजक भी अज्ञान तप करके पहले देवलोक में देव हुआ। शक्र को हाथी की सवारी करने का शौक होता है। इसलिये उस देव को वैक्रिय रूपधारी हाथी बनाकर उस पर शक्र सवारी करता है। उस हाथी का नाम एरावण या एरावत होता है। वह विभंगज्ञान द्वारा अपने पूर्वभव को देखकर बड़ा दुःखित और खेदित होता है। इस प्रकार सब हाथियों में एरावण हाथी सर्वश्रेष्ठ है। सब जंगली जानवरों में और मृगों में सिंह प्रधान होता है इसीलिये उसे मृगेन्द्र कहते हैं। सब नदियों में भरतक्षेत्र की अपेक्षा गङ्गा नदी प्रधान है। एवं आकाश में उड़ने वाले पक्षियों में वेणुदेव नामक गरुड़ प्रधान है। इसी तरह निर्वाण वादियों में भगवान् महावीर सर्वश्रेष्ठ हैं। सिद्धि क्षेत्र को निर्वाण कहते हैं अथवा सम्पूर्ण कर्मों के क्षय को निर्वाण कहते हैं । निर्वाण का यथा स्वरूप बतलाने के कारण भगवान् महावीर स्वामी निर्वाणवादियों में प्रधान है। सिद्धार्थ राजा ज्ञात वंश का था इसलिये भगवान् महावीर स्वामी को ज्ञात पुत्र कहते हैं। जोहेसु णाए जह वीससेणे, पुप्फेसु वा जह अरविंदमाहु। खत्तीण सेटे जह दंतवक्के, इसीण सेटे तह वद्धमाणे ॥ २२ ॥. कठिन शब्दार्थ - जोहेसु - योद्धाओं में, वीससेणे - विश्वसेन पुप्फेसु - फूलों में, अरविंद - अरविंद (कमल) खत्तीण- क्षत्रियों में, दंतवक्के - दान्तवाक्य, इसीण - ऋषियों में। भावार्थ - जैसे यौद्धाओं में विश्वसेन प्रधान हैं तथा फूलों में जैसे अरविन्द (कमल) प्रधान है एवं क्षत्रियों में जैसे दान्तवाक्य प्रधान हैं इसी तरह ऋषियों में वर्धमान स्वामी प्रधान हैं । . विवेचन - हाथी, घोडा, रथ और पदाति (पैदल) इन चार अङ्गों वाले बल सहित जिसकी सेना है अर्थात् चतुरंगिणी सेना सहित जो हो उसको विश्वसेन कहते हैं। विश्वसेन का अर्थ चक्रवर्ती है। वह सब योद्धाओं में प्रधान है। चक्रवर्ती महान् पुण्यशाली होता है। वह जब छह खण्ड सिद्ध करने के लिये For Personal & Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० . श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ निकलता है तब चक्ररत्न उसके आगे-आगे चलता है। उसके प्रभाव से और सेनापति के प्रभाव से सब राजा लोग उसकी अधीनता स्वीकार करते जाते हैं। किसी भी राजा के साथ चक्रवर्ती को युद्ध नहीं करना पड़ता है। किन्तु विजय करने की शक्ति से सम्पन्न तो होता ही है इसलिये उसको योद्धाओं में सर्वश्रेष्ठ कहा है। क्योंकि वासुदेव से भी उसमें दुगुनी शक्ति होती है। प्रश्न - "युद्ध सूरा वासुदेवा" अर्थ - युद्ध में शूरवीर वासुदेव होते हैं। ऐसा कैसे कहा गया है? उत्तर - वासदेव तीन खण्ड के स्वामी होते हैं। वे जब तीन खण्ड सिद्ध करने के लिए निकलते हैं तो उन्हें कई जगह राजाओं के साथ युद्ध करना पड़ता है। युद्ध में वे किसी से पराजित नहीं होते हैं। इसीलिये उनको युद्ध शूर कहा है। कथानक में कहा जाता है कि कृष्ण वासुदेव ने ३६० बड़े-बड़े संग्राम किये थे। वासुदेवों से चक्रवर्ती की शक्ति सर्व बातों में अधिक होती है इसीलिये उनको योद्धाओं में शूरवीर कहा है। फूलों में कमल को श्रेष्ठ कहा है "क्षतात् त्रायन्ते इति क्षत्रियाः" -- कष्ट में पड़े हुए प्राणियों की जो रक्षा करे उसे क्षत्रिय कहते हैं। इस प्रकार क्षत्रियों में प्रधान भी चक्रवर्ती हैं। शास्त्रकार ने यहाँ पर 'दंतवक्के' शब्द दिया है। जिसका अर्थ टीकाकार ने इस प्रकार किया है - ___ "दान्ता-उपशान्ता यस्स वाक्येनैव शत्रवःस दान्तवाक्यः- चक्रवर्ती इत्यर्थः" अर्थ - जिसके वचन मात्र से ही शत्रु शान्त हो जाते हैं। उसे दान्तवाक्य कहते हैं। यहां दान्तवाक्य शब्द चक्रवर्ती के लिये प्रयुक्त हुआ है। इस प्रकार बहुत उत्तम-उत्तम दृष्टान्तों को बताकर द्राष्टान्तिक रूप से भगवान् का नाम लेकर शास्त्रकार बतलाते हैं कि इसी तरह ऋषियों में श्री वर्धमान स्वामी श्रेष्ठ हैं। दाणाण सेढे अभयप्पयाणं, सच्चेसु वा अणवण्जं वयंति। . . तवेसु वा उत्तमं बंभचेरं, लोगुत्तमे समणे णायपुत्ते ॥ २३ ॥ कठिन शब्दार्थ - दाणाण - दानों में, अभयप्पयाणं - अभयदान, सच्चेसु - सत्यवचन में, अणवजं - अनवद्य वचन, तवेसु - तपों में, बंभचेर - ब्रह्मचर्य, उत्तमं - उत्तम श्रेष्ठ, लोगुत्तमे - लोकोत्तम-लोक में प्रधान । भावार्थ - दानों में अभयदान श्रेष्ठ हैं, सत्य में वह सत्य श्रेष्ठ हैं जिससे किसी को पीडा न हो तथा तप में ब्रह्मचर्य उत्तम है इसी तरह लोक में ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर स्वामी उत्तम हैं । For Personal & Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ६ १८१ विवेचन - "स्वपरानुग्रहार्थम् अर्थिने दीयते इति दानम्" अथवा " स्व स्वत्व निवृत्तिपूर्वक पर स्वत्वोत्पादनम् दानं" अर्थ - स्व और पर के अनुग्रह के लिये जो दिया जाता है अथवा अपने अधिकार को हटाकर उस वस्तु पर दूसरे का अधिकार कर देना उसको दान कहते हैं। ठाणाङ्ग सूत्र के दसवें ठाणे में दान के दस भेद बतलाये गये हैं यथा - .. १. अनुकम्पा दान २. संग्रह दान ३. भय दान ४. कारुण्य दान ५. लज्जा दान ६. गौरव दान ७. अधर्म दान ८. धर्म दान ९. करिष्यति दान १०. कृत दान टीकाकार ने इन दानों की विस्तृत व्याख्या की है। अपेक्षा से धर्मदान सर्वोपरी है। तथापि यहाँ पर इस गाथा में "दाणाण सेटुं अभयप्पयाणं" . अर्थात् दानों में अभयदान सर्वश्रेष्ठ है। . ... भय से भयभीत बने हुए प्राणी की प्राण रक्षा करना अभयदान कहलाता है। प्रश्नव्याकरण सूत्र के प्रारम्भ में ही गणधर भगवन्तों ने फरमाया है - '"सव्वजगजीवरक्खणदयट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं।" - अर्थ - तीर्थंकर भगवन्तों ने जगत् के समस्त जीवों की रक्षा रूप दया के लिये प्रवचन अर्थात् द्वादशाङ्ग रूप वाणी का कथन किया है। भगवान् के प्रवचनों का अनुसरण करते हुए संस्कृत कवि ने भी कहा है कि - जीवानां रक्षणं श्रेष्टं, जीवाः जीवितकांक्षिणः । तस्मात् समस्त दानेभ्योऽभयदानं प्रशस्यते ॥ अर्थ - जीवों की रक्षा करना श्रेष्ठ है क्योंकि सभी जीव जीना चाहते हैं इसीलिये सब दानों में अभयदान सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। एकतः काञ्चनो मेरुः, बहुरत्ना वसुन्धरा। ... एकतोभयभीतस्य प्राणिनः प्राणरक्षणम्॥ - अर्थ - सोने का मेरु पर्वत और बहुत रत्नों से भरी हुई सारी पृथ्वी का दान एक तरफ रख दिया जाय और दूसरी तरफ भय से डरे हुए प्राणी के प्राणों की रक्षा की जाय तो उपरोक्त दोनों दानों से प्राण रक्षा करने रूप दान बढ़ जाता है। दीयते प्रियमाणस्य, कोटि जीवितमेव वा। धनकोटिं परित्यज्य, जीवो जीवितुमिच्छति॥ अर्थ - मृत्यु को प्राप्त होते हुए प्राणी को एक करोड़ मोहरें इनाम दी जाय और दूसरी तरफ For Personal & Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 जीवनदान दिया जाय तो वह करोड़ मोहरों को छोड़ कर भी जीवन लेना पसन्द करता है। इसलिये अभयदान सर्वश्रेष्ठ है। शास्त्रकार फरमाते हैं - सव्वे जीवावि इच्छंति, जीविठंण मरिज्झिउं। तम्हा पाणवहं घोरं णिग्गंथा वजयंतिणं ॥ अर्थ - संसार के सभी प्राणी जीना चाहते हैं मरना कोई नहीं चाहता है। इसीलिये निर्ग्रन्थ मुनिराज प्राणीवध को घोर पाप समझ कर उसका तीन करण तीन योग से त्याग करते हैं। अर्थात् स्वयं किसी प्राणी का प्राणवध करते नहीं, करवाते नहीं, करते हुए को भला भी नहीं जानते मन से, वचन से और काया से। उपरोक्त सब उद्धरणों से यह स्पष्ट होता है कि अभयदान सर्व श्रेष्ठ है। साधारण लोगों को दृष्टान्त देकर जो बात समझायी जाय वह सरलता से समझ में आ सकती है। इसलिये अभयदान की प्रधानता बतलाने के लिये टीकाकार ने एक कथा दी है वह इस प्रकार है - ... बसन्तपुर नगर में अरिमर्दन नामका राजा राज्य करता था उसके चार रानियाँ थी। किसी एक समय वह अपनी रानियों के साथ झरोखे में बैठा हुआ नगर की शोभा देख रहा था। उस समय उन्होंने एक चोर को देखा। उस चोर के गले में कनेर के फूलों की लाल माला पहनाई गयी थी और लाल ही कपड़े पहनाए गये थे और लाल चन्दन लगाया गया था उसके आगे आगे उसके वध की सूचना देने वाला ढिढोरा पीटा जा रहा था। चाण्डाल लोग उसको राजमार्ग से होते हुए उसे वध स्थान पर ले जा रहे थे। रानियों ने उसे देखा और पूछा कि इसने क्या अपराध किया है ? तब एक सिपाई ने रानियों से कहा कि इसने चोरी करके राजा की आज्ञा के विरुद्ध काम किया है इसलिये इसको मरण की सजा दी गयी है। यह सुनकर एक रानी ने राजा से कहा कि आपने पहले मुझको एक वरदान देने को कहा था सो आज दे दीजिए जिससे मैं इस बिचारे चोर का कुछ उपकार कर सकूँ। राजा ने वर देना स्वीकार कर लिया तब उस रानी ने चोर को स्नान आदि करा कर तथा उत्तम वस्त्र और अलङ्कारों से सुशोभित करके एक हजार मोहरों के खर्च से एक दिन शब्दादि पांचों विषयों का भोग दिया। इसके पश्चात् दूसरे दिन दूसरी रानी ने एक लाख मोहरें खर्च करके उसे सब प्रकार के भोग दिये। तीसरी ने तीसरे दिन एक करोड़ मोहरे खर्च करके उसको सब प्रकार के भोग दिये। चौथी रानी ने राजा से निवेदन किया कि स्वामिन् ! यह चोरी का एवं सब प्रकार के व्यसनों का त्याग कर शुद्ध जीवन जीने की प्रतिज्ञा करता है इसलिये इसे अभय दान देना चाहिए। राजा ने उस बात को स्वीकार कर लिया। तब चौथी रानी ने उस चोर को सब प्रकार की प्रतिज्ञा For Personal & Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १८३ अध्ययन ६ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 करा के अभय दान देकर मरण से बचा लिया। तब तीन रानियाँ चौथी रानी की हंसी करने लगी और वे कहने लगी कि यह चौथी रानी बड़ी कंजूस है इसने इस बिचारे को कुछ नहीं दिया। तब चौथी रानी कहने लगी कि मैंने तुम सब से इसका ज्यादा उपकार किया है। इस प्रकार उन रानियों में उस चोर का किसने ज्यादा उपकार किया है. इस विषय को लेकर विवाद होने लगा तब इस विषय का निर्णय देने के लिये रानियों ने राजा से निवेदन किया। तब राजा ने कहा कि मैं इसका निर्णय दूं इसकी अपेक्षा तो उस चोर को ही पूछ लिया जाय कि किसने तुम्हारा ज्यादा उपकार किया है। तब चोर को बुलाकर पूछा गया तो उसने कहा मैं मरण के भय से बहुत भयभीत बना हुआ था। इसलिये स्नान मञ्जन वस्त्राभरण भोजन आदि के सुख को मैं नहीं जान सका परन्तु जब मेरे कान में यह आवाज आयी कि मुझे अभयदान देकर मरण से बचा लिया है तो मेरे आनन्द की सीमा नहीं रही। अब मैं अपने आप को फिर से नया जन्म हुआ है ऐसा मानता हूँ। चोर के उत्तर से रानियों का विवाद समाप्त हो गया। .. इस दृष्टान्त का सार यह है कि सब दानों में अभयदान सर्वश्रेष्ठ है। वचन के चार भेद किये गये हैं - १. सत्य वचन २. असत्य वचन ३. मिश्रवचन ४. असत्यामषा वचन। इनमें से सत्य वचन और असत्यामृषा (व्यवहार भाषा) वचन बोलना चाहिए परन्तु सत्य वचन में भी अनवद्य (निष्पाप) अर्थात् जिस वचन से दूसरों को पीड़ा उत्पन्न न हो ऐसा सत्य वचन श्रेष्ठ कहा गया है। परन्तु जिससे जीव को पीड़ा उत्पन्न होती हो वह सत्य वचन भी बोलना उचित नहीं है। शास्त्रकार तो यहाँ तक फरमाते हैं - तहेव काणं काणत्ति, पंडगं पंडगत्ति वा। वाहियं वावि रोगित्ति, तेणं चोरोत्ति णो वए। अर्थ:- इसी प्रकार काणे को काणा अथवा नपुंसक को नपुंसक (हिंजड़ा) तथा व्याधित को रोगी और चोर को चोर न कहे। अर्थात् दूसरों को दुःख पहुचाने वाली सत्य भाषा भी नहीं बोलनी चाहिए। .. तप के दो भेद किये गये हैं - बाह्य तप और आभ्यन्तर तप। बाह्य तप के छह भेद हैं - यथा - अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचरी, रसपरित्याग, कायक्लेश और प्रतिसंलीनता। आभ्यन्तर तप के भी छह भेद हैं - प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग। यहाँ पर इन तपों की विवक्षा नहीं की गयी है। इसलिये अपेक्षा विशेष से यह कहा गया है कि नौ प्रकार की ब्रह्मचर्य की गुप्तियों से युक्त ब्रह्मचर्य तपों में श्रेष्ठ तप है। . उपरोक्त दृष्टान्त देकर शास्त्रकार फरमाते हैं कि इसी तरह सब लोक में उत्तम रूप सम्पत्ति तथा सबसे उत्कृष्ट शक्ति और क्षायिक ज्ञान, दर्शन, चारित्र के द्वारा श्रमण भगवान् महावीरस्वामी सब में प्रधान हैं। For Personal & Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 ठिईण सेट्ठा लवसत्तमा वा, सभा सुहम्मा व सभाण सेठ्ठा। . णिव्याणसेट्ठा जह सव्व-धम्मा, ण णायपुत्ता परमत्यि णाणी॥ २४ ॥ कठिन शब्दार्थ-ठिईण- स्थिति वालों में, लक्सत्तमा - लव सप्तम देव, सभाण- सभाओं में, सुहम्मा सभा - सुधर्मा सभा, सव्वधम्मा - सभी धर्मों में, णिव्याणसेट्ठा - निर्वाण-मोक्ष श्रेष्ठ, परमत्यि - परम-श्रेष्ठ है । भावार्थ - जैसे सब स्थिति वालों में पांच अनुत्तर विमानवासी देवता श्रेष्ठ हैं तथा जैसे सब सभाओं में सुधर्मा सभा श्रेष्ठ हैं एवं सब धर्मों में जैसे निर्वाण (मोक्ष) श्रेष्ठ हैं इसी तरह सब ज्ञानियों में भगवान् महावीर स्वामी श्रेष्ठ हैं । विवेचन - अनुत्तर विमान-वासी देवों को 'लवसप्तम' इसलिये कहते हैं कि अगर अनुत्तर विमान में उत्पन्न होने के पहले के मनुष्य भव में उनका सात लव मात्र आयुष्य अधिक होता तो (७ लव-मुहूर्त का ग्यारहवां हिस्सा अर्थात् ४ मिनिट से कुछ अधिक) वे उसी भव में सिद्ध हो जाते ऐसा कहा जाता है । एक मात्र सात लव जितने समय की कमी के कारण, तेत्तीस सागर से अधिक काल का उनके मुक्त होने में विरह हो जाता है अर्थात् वे मुक्ति के समीप का, बाह्य साधनों से-भौतिकता से रहित बहुत कुछ आत्मिक सुख का अनुभव करते हैं । अतः अधिक स्थिति वालों में वे स्वाभाविक ही श्रेष्ठ हैं। प्रश्न - लव किसे कहते हैं ? . उत्तर - अनुयोगद्वार के अन्दर कालानुपूर्वी अधिकार में गणित योग्य काल परिमाण के ४६ भेद बतलाये गये हैं । वे इस प्रकार हैं - १. समय - काल का सूक्ष्मतम भाग २. आवलिका - असंख्यात समय की एक आवलिका होती है ।३. उच्छवास - संख्यात आवलिका का एक उच्छ्वास होता है । ४. निः श्वास - संख्यात आवलिका का एक निःश्वास होता है । ५. प्राण - एक उच्छ्वास और निःश्वास का एक प्राण होता है । ६. स्तोक - सात प्राण का एक स्तोक होता है । ७. लव - सात स्तोक का एक लव होता है । ८. मुहूर्त - ७७ लव या ३७७३ प्राण का एक मुहूर्त होता है । ९. अहोरात्र - तीस मुहूर्त का एक अहोरात्र होता है । - भगवती सूत्र के चौदहवें शतक के सातवें उद्देशक में लवसप्तम देवों का वर्णन है । वहां यह भी बतलाया गया है कि श्रमण निर्ग्रन्थ षष्ठभक्त (बेला) द्वारा जितने कर्मों की निर्जरा करते हैं, उतने कर्म शेष रहने पर साधु, अनुत्तरोपपातिकपने उत्पन्न होते हैं । वहां पर लव शब्द का अर्थ दूसरा बतलाया गया है यथा - शाली (चावल), ब्रीहि, गेहूँ, जौ और जवजव आदि धान्य का एक कवलिया काटने में जितना समय लगता है, उसे 'लव' कहते हैं । ऐसे सात लव परिमाण आयुष्य कम होने से वे विशुद्ध For Personal & Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १८५ अध्यवसाय वाले मुनि मोक्ष में नहीं जा सके, किन्तु सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हुए । वे लवसप्तम देव कहलाते हैं। देवों के इन्द्र ६४ हैं यथा - भवनपति के २०, वाणव्यन्तर के ३२, ज्योतिषी के २ और वैमानिक के १० । इन ६४ इन्द्रों में से प्रत्येक के पांच पांच सभाएं होती हैं । यथा - १. उपपात सभा- जहां जाकर जीव देवरूप से उत्पन्न होता है । २. अभिषेक सभा - जहां इन्द्र का राज्याभिषेक किया जाता है । ३. अलङ्कार सभा - जिसमें देव, इन्द्र को अलङ्कार आभूषण पहनाते हैं । ४. व्यवसाय सभा - जिसमें पुस्तकें रखी हुई होती हैं, उसे पढ़ कर तत्त्वों का निश्चय किया जाता है । ५. सुधर्मा सभा - जहां इन्द्र, सामानीक, त्रायस्त्रिंश, पारिषद्य आदि एकत्रित होकर विचार चर्चा आदि करते हैं । इन पांच सभाओं में सुधर्मा सभा सर्वश्रेष्ठ है । . संसार में जितने भी मत मतान्तर हैं, वे सब अपने क्रिया का अन्तिम फल मोक्ष बताते हैं क्योंकि ३६३ पाखण्ड मत वाले कुप्रावचनिक भी अपने मत का फल मोक्ष ही बतलाते हैं इसी तरह श्रमण भगवान् महावीर स्वामी इन सब ज्ञानियों में सर्वश्रेष्ठ हैं । "हहुस्स अनवगप्पस्स, णिरुवकिट्ठस्स जंतुणो । - एगे ऊसासणिस्सासे, एस पाणुत्ति वुच्चइ ॥" "सत्त पाणूणि से थोवे, सत्त थोराणि से लवे । लवाणं सत्तहत्तरि, एस मुहते वियाहिए"त्ति ॥ अर्थ- हृष्ट अर्थात् सन्तुष्ट चित्त वाले, तीसरे चौथे आरे के जन्मे हुए तरुण पुरुष एवं नीरोग शरीर (जिसको पहले भी कभी कोई रोग नहीं आया और वर्तमान में भी कोई रोग नहीं है) वाले पुरुष के एक उच्छवास एक निश्वास को एक पाणु कहते हैं । सात पाणु का एक स्तोंक होता है । सात स्तोक का एक लव होता है और ७७ लव का एक मुहूर्त होता है । प्रश्न- एक मुहूर्त में कितने श्वासोच्छवास होते हैं ? उत्तर- . - तिण्णिसहस्सा सत्तय, सयाइं तेवत्तरिच उच्छासा। एस मुहुत्तो भणिओ, सव्वेहि अनंतनाणीहि ॥ अर्थ- एक मुहूर्त के अन्दर ३७७३ श्वासोच्छवास होते हैं । ऐसा अनन्तज्ञानी तीर्थकर भगवन्तों ने फरमाया है। For Personal & Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 पुढोवमे धुणइ विगयगेही, ण सण्णिहिं कुव्वइ आसुपण्णे । तरिउं समुदं व महाभवोघं, अभयंकरे वीर अणंत चक्खू ॥ २५ ॥ कठिन शब्दार्थ - पुढोवमे - पृथ्वी की उपमा वाले, धुणइ- कर्म मल को दूर करता है, विगयगेहीविगतगृद्धि-अनासक्त-आसक्ति रहित, सण्णिहिं - सन्निधि-संग्रह-संचय, तरिठं - पार करने के लियें, समुहं - समुद्र को, महाभवोघं - महाभवौघ-महान् संसार को, अभयंकरे - अभयंकर, अणंतचक्खू - अनंत चक्षु वाले-अनंतज्ञानी । भावार्थ - भगवान् पृथिवी की तरह समस्त प्राणियों के आधार हैं। वह आठ प्रकार के कर्मों को दूर करने वाले और गृद्धि रहित हैं। भगवान् तात्कालिक बुद्धि वाले और क्रोधादि के सम्पर्क से रहित हैं। भगवान् समुद्र की तरह अनन्त संसार को पार करके मोक्ष को प्राप्त हैं। भगवान् प्राणियों को अभय करने वाले तथा अष्टविध कर्मों को क्षपण करने वाले एवं अनन्त ज्ञानी हैं। कोहं च माणं च तहेव मायं, लोभं चउत्थं च अज्झत्थदोसा। .. एयाणि वंता अरहा महेसी, ण कुव्वइ पाव ण कारवेइ ॥ २६ ॥ कठिन शब्दार्थ - कोहं - क्रोध, माणं - मान, तहा - तथा, मायं - माया, लोभं - लोभ, चउत्थं - चौथा, अज्झत्थदोसा- अध्यात्म-दोषों का, वंता - वमन करने वाला, अरहा - अहँत्, कुव्वइ - करते, कारवेइ - दूसरों से करवाते । भावार्थ - भगवान् महावीर स्वामी महर्षि हैं वे क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों को जीत कर न स्वयं पाप करते हैं और न दूसरे से कराते हैं और न करने वालों का अनुमोदन भी करते हैं। विवेचन - दो प्रकार के दोष होते हैं । बाहरी दोष - यथा- लूला, लंगडा, काणा आदि । आभ्यंतर दोष – क्रोध, मान, माया, लोभ इन चारों को कषाय कहते हैं । कषाय शब्द का अर्थ इस प्रकार है - कष्यन्ते पीड्यन्ते प्राणिनः अस्मिन् इति कषः,संसारःइति। कषस्य संसारस्य आयः लाभः इति कषायः ।। अर्थात् जिसमें प्राणी कष्ट को प्राप्त होते हैं उसे कष कहते हैं । कष का अर्थ है संसार । जिससे संसार की वृद्धि हो उसे कषाय कहते हैं । कारण का नाश हो जाने पर कार्य का भी नाश हो जाता है । यह न्याय है । इसलिये संसार की स्थिति का कारण क्रोध आदि कषाय है जिनको यहां पर आध्यात्म दोष कहा गया है इन चारों कषायों का त्याग कर भगवान् महावीर तीर्थङ्कर और महर्षि हुए थे। महर्षिपन तभी सार्थक होता है जब For Personal & Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .......********ÛÛÛÛÛÛÛÛ006 आध्यात्म दोष(चार कषाय) जीत लिये जाते हैं । भगवान् ने अठारह पापों का त्याग तीन करण तीन योग से कर दिया था । गाथा में "वंता" शब्द दिया है जिसका अर्थ है वमन करना । अर्थात् त्याग करना । प्रश्न - त्याग करने में और वमन करने में क्या अन्तर हैं ? उत्तर - त्याग की हुई वस्तु तो त्याग की मर्यादा पूरी होने पर फिर सेवन की जा सकती है परन्तु जिस चीज का वमन कर दिया जाता है वह चीज वापिस कभी ग्रहण नहीं की जाती । यह त्याग और वमन में अन्तर है । भगवान् महावीर स्वामी ने चारों कषायों का त्याग ही नहीं किन्तु वमन ही कर दिया था । अर्थात् उन कषायों को वापिस कभी ग्रहण ही नहीं किया । इस प्रकार त्याग करने की अपेक्षा वमन करना विशेष महत्त्वपूर्ण है । किरियाकिरियं वेणइयाणुवायं, अण्णाणियाणं पडियच्च ठाणं । से सव्ववायं इति वेयइत्ता, उवट्ठिए संजम दीहरायं ॥। २७ ॥ कठिन शब्दार्थ - किरियाकिरियं क्रियावादी अक्रियावादी, वेणइयाणुवायं - विनयवादी के कथन को, अण्णाणियाणं - अज्ञानवादी के, ठाणं स्थान को-पक्ष को, पडियच्च जानकर, नव्वंषायं - सभी वादियों के मत को, वेयइत्ता - जान कर, उवट्टिए - स्थित, संजमदीहरायं - वजीवन के लिये संयम में। भावार्थ - क्रियावादी, अक्रियावादी, विनयवादी तथा अज्ञानवादी इन सभी मतवादियों के मतों को जानकर भगवान् यावज्जीवन संयम में स्थित रहे थे । अध्ययन ६ - विवेचन क्रियावादी के १८० भेद, अक्रियावादी के ८४ भेद, अज्ञानवादी के ६७ और वनयवादी के ३२, ये सब मिलाकर ३६३ भेद होते हैं । ये सभी मिथ्यादृष्टि हैं अतएव इनको खण्ड मत भी कहते हैं । इन सब का विस्तृत विवेचन इसी सूत्र के ससमय परसमय नामक पहले अध्ययन में कर दिया गया है। - से वारिया इत्थि सराइभत्तं, उवहाणवं दुक्ख खयट्टयाए । लोगं विदित्ता आरं परं च सव्वं पभू वारिय सव्व वारं ॥ २८ ॥ कठिन शब्दार्थ - वारिया - वर्जन करके, इत्थि - स्त्री, सराइभत्तं - रात्रि भोजन सहित, उवहाणवं उपधानवान् - तपस्वी, दुक्खखयट्टयाए - दुःखों का अन्त करने के लिए, लोगं - लोक को, आरं - इस, परं पर, विदित्ता जान कर, सव्वं वारियं सव्ववारं सर्ववर्जी प्रभु ने सभी पापों का त्याग कर दिया । भावार्थ - भगवान् महावीर स्वामी ने अपने अष्टविध कर्मों को क्षपण करने के लिये स्त्री - १८७ - For Personal & Private Use Only - Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ - श्री सयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भोग और रात्रि भोजन छोड़ दिया था तथा सदा तप में प्रवृत्त रहते हुए इस लोक तथा परलोक के स्वरूप को जानकर सब प्रकार के पापों को सर्वथा त्याग दिया था। विवेचन - गाथा में "इत्थी सराइभत्तं" शब्द दिया है । जिसका अर्थ है रात्रि भोजन सहित स्त्री अर्थात् कामवासना का त्याग कर दिया था । यह शब्द उपलक्षण मात्र है । उन्होंने प्राणातिपात आदि अठारह ही पापों का तीन करण तीन योग से सर्वथा त्याग कर दिया था । गाथा में "उवहाणवं" शब्द दिया है, जिसका अर्थ होता है उपधानवान् अर्थात् उत्कृष्ट तप करने वाला। तीर्थंकर उत्कृष्ट तप करने वाले होते हैं। सोच्चा य धम्मं अरहंत भासियं, समाहियं अट्ठ पओवसुद्धं। . .. तं सहहाणा य जणा अणाऊ, इंदाव देवाहिव आगमिस्संति ॥ २९ ॥ ।त्ति बेमि । कठिन शब्दार्थ - अरहंत भासियं - अरिहन्त भाषित, धम्म- धर्म को, सोच्चा - सुन कर, समाहियं - समाहित-युक्तियुक्त, अट्ठपदोवसुद्धं- अर्थ और पदों से शुद्ध, सदहाणा - श्रद्धा करने वाले, जणा - जीव मनुष्य, अणाऊ - अनायुष-मोक्ष, देवाहिव - देवों के स्वामी, आगमिस्संति - होते हैं । भावार्थ - अरिहन्त देव के द्वारा कहे हुए युक्तिसङ्गत तथा शुद्ध अर्थ और पद वाले इस धर्म को सुन कर जो जीव इसमें श्रद्धा करते हैं वे मोक्ष को प्राप्त करते हैं अथवा देवताओं के अधिपति इन्द्र होते हैं । .. विवेचन - श्री सुधर्मास्वामी तीर्थङ्कर भगवान् के गुणों को बताकर अपने शिष्यों से कहते हैं कि यह श्रुत और चारित्र रूप धर्म तीर्थङ्कर भगवन्तों द्वारा कहा हुआ है । यह शुद्ध युक्ति और निर्दोष हेतुओं से संगत है । यह अर्थ (अभिधेय पदार्थ) और पदों (वाचक शब्दों) से दोष रहित है । ऐसे जिनभाषित धर्म में जो जीव श्रद्धा रखते हैं, वे आयु कर्म से रहित होकर सिद्धि गति को प्राप्त होते हैं और यदि कुछ कर्म शेष रह जाय तो इन्द्रादि देवाधिपति होकर दूसरे भव में मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं। "तिबेमि इति ब्रवीमि" श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य श्री जम्बूस्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन् जम्बू ! जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से सुना है वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ। ॥महावीर स्तुति नामक छठा अध्ययन समाप्त। For Personal & Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुशील परिभाषा नामक सातवाँ अध्ययन पिछले अध्ययन में भगवान् की स्तुति के द्वारा शील का आदर्श उपस्थित किया गया था अब इस अध्ययन में कुशील का वर्णन एवं उसका फल बताया जायगा । . पुढवी य आऊ अगणी य वाऊ, तण रुक्ख बीया य तसा य पाणा। जे अंडया जे य जराउ पाणा, संसेयया जे रसयाभिहाणा ॥१॥ एयाइं कायाइं पवेइयाइं, एएसु जाणे पडिलेह सायं। एएण कारण य आयदंडे, एएसु या विप्परियासमुविंति ॥ २ ॥ कठिन शब्दार्थ - पुढवी - पृथ्वी, आऊ - अप्-पानी, अगणी - अग्नि, वाऊ - वायु, तणतृण, रुक्ख - वृक्ष, बीया- बीज, तसा - त्रस, पाणा - प्राणी, अंडया - अंडज, जराउ - जरायुज, संसेयया - संस्वेदज, रसयाभिहाणा - रसज-रस में उत्पन्न होने वाले, सायं - साता-सुख, जाणजानो, पडिलेह - देख, आयदंडे - आत्मा को दंड देते हैं, विप्परियासमुविंति - विपर्यास-जन्म मरण को प्राप्त होते हैं। - भावार्थ - पृथिवी, जल, तेज, वायु, तृण, वृक्ष, बीज और त्रस तथा अण्डज (पक्षी आदि) जरायुज (मनुष्य, गाय आदि) संस्वेदज और रसज (रस चलित होने पर उस रस में उत्पन्न होने वाले) इनको सर्वज्ञ पुरुषों ने जीव का शरीर कहा है इसलिये इनमें सुख की इच्छा रहती है यह जानना चाहिये। जो जीव इन शरीर वाले प्राणियों का नाश करके पाप सञ्चय करते हैं वे बार बार इन्हीं प्राणियों में जन्म धारण करते हैं। . विवेचन - पृथ्वीकाय, अप्काय, तेऊकाय, वायुकाय इनके सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त चार चार भेद होते हैं । वनस्पति के सूक्ष्म, साधारण और प्रत्येक इन तीन के पर्याप्त और अपर्याप्त ऐसे छह भेद होते हैं । इन्हें स्थावर कहते हैं । बेइन्द्रियं तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय इनको अस कहते हैं । अण्डे से उत्पन्न होने वाले पक्षी आदि को अण्डज कहते हैं और जरायु अर्थात् जम्बाल से वेष्टित होकर उत्पन्न होने वाले जीवों को जरायुज कहते हैं । जैसे - गाय, बैल, बकरी, भेड़ और मनुष्य आदि । स्वेद का अर्थ है पसीना । पसीने से उत्पन्न होने वाले जीवों को संस्वेदज कहते हैं जैसे जूं, लीख, खटमल आदि । दूध, दही, घी, मीठा आदि किसी भी प्रकार का रस विकृत हो जाने पर इनमें जो जीव पैदा होते हैं उन्हें रसज कहते हैं वे सब प्राणी हैं । वे सभी सुख की इच्छा करते हैं, दुःख सब को अप्रियं है । यह जानकर सूक्ष्म बुद्धि से विचार करो कि इन प्राणियों को पीड़ा पहुंचाने से For Personal & Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 इन पृथ्वीकाय आदि जीवों को पीड़ा देने वाले जीव इन पृथ्वीकाय आदि योनियों में ही बार बार जन्म मरण करते रहते हैं अथवा कुतीर्थी लोग मोक्ष प्राप्ति के लिये इन प्राणियों की हिंसा करते हैं परन्तु उन्हें मोक्ष प्राप्ति तो नहीं होती है परन्तु संसार परिभ्रमण करना पड़ता है। जाइपहं अणुपरिवट्टमाणे, तसथावरेहिं विणिघायमेइ। से जाइ जाइं बहुकूरकम्मे, जं कुव्वइ मिज्जइ तेण बाले ।। ३ ॥ . .. कठिन शब्दार्थ - जाइपहं - जाति पथ एकेन्द्रिय आदि जातियों में, अणुपरिवट्टमाणे - परिभ्रमण करता हुआ, तसथावरेहि- त्रस और स्थावर में, विणिघायमेइ - नाश को प्राप्त होता है, जाइ जाई - जन्म जन्म में, बहुकूरकम्मे - बहुत क्रूर कर्म करने वाला, मिज्जइ - मृत्यु को प्राप्त होता है.। भावार्थ - एकेन्द्रिय आदि पूर्वोक्त प्राणियों को दण्ड देने वाला जीव बार बार उन्हीं एकेन्द्रिय आदि योनियों में जन्मता और मरता है । वह त्रस और स्थावरों में उत्पन्न होकर नाश को प्राप्त होता है । वह बार बार जन्म लेकर क्रूर कर्म करता हुआ जो कर्म करता है उसी से मृत्यु को प्राप्त होता है । विवेचन - इस गाथा में "जाइपहं" शब्द दिया है, जिसकी संस्कृत छाया दो तरह से होती है यथा - 'जातिपथ' या 'जातिवध'। एकेन्द्रिय आदि की जातियों के मार्ग को जातिपथ कहते हैं । अथवा उत्पत्ति को जाति कहते हैं और मरण को वध कहते हैं । उसमें परिभ्रमण करता हुआ जीव अर्थात् एकेन्द्रिय आदि जातियों में परिभ्रमण करता हुआ बारबार जन्म और मरण को अनुभव करता हुआ यह जीव त्रस और स्थावर प्राणियों में उत्पन्न होकर बारबार नाश को प्राप्त होता रहता है । सत् और असत् के विवेक से हीन होने के कारण बालक के समान अज्ञानी है । स्वयं कर्म उपार्जन कर उसके द्वारा बार बार मरण को प्राप्त होता रहता है । अस्सिं च लोए अदुवा परत्था, सयग्गसो वा तह अण्णहा वा। संसार मावण्ण परं परं ते, बंधंति वेयंति य दुणियाणि ॥ ४॥ कठिन शब्दार्थ - अस्सिं - इस लोक में, परत्था - पर लोक में, सयग्गसो - सैकडों जन्मों में, तह - तथा, अण्णहा - अन्यथा एक रूप में अथवा अन्य रूप में, संसारं - संसार, आवण्ण-प्राप्त हुआ, परं परं - आगे से आगे, बंधति - बांधते हैं, वेदंति - वेदते हैं, दुण्णियाणि - दुष्कृत-पाप कर्म ।। भावार्थ - कोई कर्म, इसी जन्म में अपना फल कर्ता को देता है और कोई दूसरे जन्म में देता है । कोई एक ही जन्म में देता है और कोई सैकड़ों जन्मों में देता है । कोई कर्म जिस तरह किया गया है उसी तरह फल देता है और कोई दूसरी तरह देता है। कुशील पुरुष सदा संसार में भ्रमण करते रहते हैं . और वे एक कर्म का फल दुःख भोगते हुए फिर आर्तध्यान आदि करके दूसरा कर्म बाँधते हैं । वे अपने पाप का फल सदा भोगते रहते हैं । For Personal & Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ७ १९१ विवेचन - कर्मों की स्थिति थोड़े काल तक की भी होती है और लम्बे समय तक की भी होती है इसलिये थोड़ी स्थिति वाले कर्म तो अबाधा काल पूरा होने पर इसी जन्म में फल दे देते हैं और लम्बी स्थिति वाले कर्म अन्य अनेक जन्मों में फल देते हैं। निकाचित रूप से बन्धे हुए कर्म उसी तरह. से फल देते हैं । निधत्त आदि रूप से बन्धे हुए कर्म उसी रूप से अथवा दूसरी तरह से भी फल दे देते हैं । किन्तु यह तो निश्चित है कि, किये हुए कर्मों का फल जीव को अवश्य भोगना पड़ेगा । जैसा कि कहा है - मा होहिरे विसण्णो जीव! तुमं विमणदुम्मणो दीणो। णहु चिंतिएण फिट्टइ तं दुक्खं जं पुरा रइयं ।। जइ पविससि पायालं अडविं व दरि गुहं समुदं वा । पुष्वकयाउ ण चुक्कसि अप्पाणं घायसे जइवि ।। अर्थ - हे जीव ! तुम उदास, दीन तथा दुःखित चित्त मत बनो, क्योंकि जो कर्म तुमने पहले उपार्जन किया है वह चिन्ता करने से मिट नहीं सकता है चाहे तुम पाताल में प्रवेश कर जाओ अथवा किसी जङ्गल में चले जाओ या पहाड़ की गुफा में छिप जाओ और यहां तक कि अपने आत्मा का ही घात कर डालो किन्तु पूर्व जन्म के किये हुए कर्म के फल को भोगे बिना तुम्हारा छुटकारा हो नहीं सकता है। जे मायरं वा पियरं च हिच्चा, समणव्वए अगणिं समारभिज्जा । अहाहु से लोए कुसील धम्मे, भूयाइं जे हिंसइ आयसाए ॥ ५॥ कठिन शब्दार्थ - मायरं - माता को, पियरं - पिता को, हिच्चा - छोड़ कर, समणव्वर - श्रमण व्रत, अगणिं - अग्नि का, समारभिज्जा - आरंभ करते हैं, कुसीलधम्मे - कुशील धर्म वाले, भूयाइं - प्राणियों की, हिंसइ - हिंसा करता है, आयसाए - अपने.सुख के लिए । . भावार्थ - जो लोग माता पिता को छोड़ कर श्रमणव्रत को धारण करके अग्निकाय का आरम्भ करते हैं तथा जो अपने सुख के लिये प्राणियों की हिंसा करते हैं वे कुशील धर्म वाले हैं, यह सर्वज्ञ पुरुषों ने कहा है । .. विवेचन - पञ्चमहाव्रतधारी मुनि के लिये ठाणाङ्ग सूत्र के नववें ठाणे में भिक्षा की नौ कोटियाँ बतलाई गयी हैं वे इस प्रकार हैं - १. साधु आहार के लिये स्वयं जीवों की हिंसा न करे २. दूसरों के द्वारा हिंसा न करावे ३. हिंसा करते हुए का अनुमोदन न करे अर्थात् उसे भला न समझें ४. आहार आदि स्वयं न पकावे ५. दूसरों से न पकवावे ६. पकाते हुए का अनुमोदन न करे ७. स्वयं न खरीदे ८. दूसरों से नहीं खरीदवावे ९. खरीदते हुए किसी व्यक्ति का अनुमोदन न करे । For Personal & Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ ऊपर लिखी हुई सभी कोटियाँ मन, वचन और काया रूप तीनों योगों से हैं । अग्नि का आरम्भ किये बिना आहार आदि का पकना पकाना हो नहीं सकता है । इसीलिये मुनि होकर जो अग्नि का आरम्भ करते हैं वे कुशील (जिसके धर्म का स्वभाव कुत्सित है उसे कुशील धर्म कहते हैं।) हैं । अन्य मतावलम्बी लोग पञ्चाग्नि के सेवन रूप तपस्या से अपने शरीर को तपाते हैं तथा अग्नि होम आदि क्रिया से स्वर्ग की प्राप्ति होना बतलाते हैं । तथा लौकिक पुरुष पचन पाचन आदि के द्वारा अग्निकाय का आरम्भ करके सुख की इच्छा करते हैं वे सब कुशील हैं । तीर्थङ्कर भगवान् की आज्ञा के बाहर हैं । उज्जालओ पाण णिवायएज्जा, णिव्यावओ अगणिं णिवायएग्ज़ा । तम्हा उ मेहावी समिक्ख धम्मं, ण पंडिए अगणिं समारभिज्जा ॥६॥ कठिन शब्दार्थ - उज्जालओ - अग्नि जलाने वाला, पाण - प्राणियों का, णिवायएजा - घात करता है, णिव्यावओ - आग बुझाने वाला, मेहावी- बुद्धिमान, पंडिए - पण्डित, समिक्ख - समझ कर। भावार्थ - आग जलाने वाला पुरुष छह काय जीवों का घात करता है और आग बुझाने वाला पुरुष अग्निकाय के जीवों का घात करता है इसलिए बुद्धिमान् पण्डित पुरुष अग्निकाय का आरम्भ नं करे । विवेचन - पचन, पाचन, तपन, तापन और प्रकाश आदि का कारण रूप अग्नि को लकडी आदि डालकर जलाता है । वह अग्निकाय के जीवों का अथवा दूसरे स्थावर और त्रसं बहुत से प्राणियों का घात करता है । तथा जो पुरुष पानी आदि से अग्नि को बुझाता है । वह अग्निकाय के जीवों का घात करता है, इस विषय में भगवती सूत्र के सातवें शतक के दसवें उद्देशक में भगवान् के अन्तेवासी कालोदाई नामक अनगार ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से प्रश्न किया कि, हे भगवन् ! समान ताकत वाले दो पुरुष अग्निकाय का आरंभ करते हैं उनमें से एक अग्नि को प्रज्वलित करता है और एक पुरुष उसे बुझाता है । हे भगवन् ! इन दोनों पुरुषों में कौन महाकर्म को उपार्जन करने वाला है और कौन अल्प कर्म उपार्जन करने वाला है ? भगवान् उत्तर फरमाते हैं कि, हे कालोदाई ! जो पुरुष अग्निकाय को प्रज्वलित करता है वह बहुत से पृथ्वीकायिक, अप्पकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक जीवों का बहुत आरम्भ करता है और अग्निकाय का अल्प आरम्भ करता है । परन्तु जो अग्निकाय को बुझाता है वह पृथ्वीकाय आदि चार काय और त्रसकाय जीवों का अल्प आरंभ करता है। परन्तु अग्निकाय के जीवों का बहुत आरंभ करता है । इसलिये हे कालोदाई ! जो अग्निकाय को प्रज्वलित करता है वह महान् कर्म उपार्जन करता है और जो अग्निकाय को बुझाता है । वह अल्प कर्म उपार्जन करता है। For Personal & Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ७ पुढवी वि जीवा आऊवि जीवा, पाणा य संपाइम संपयंति । संसेयया कट्ठसमस्सिया य, एए दहे अगणिं समारभंते ।। ७ ॥ कठिन शब्दार्थ - संपाइम सम्पातिम जीव, संपयंति - गिरते हैं, संसेयया- संस्वेदज - स्वेद से उत्पन्न प्राणी, कट्ठ समस्सिया- काठ में रहने वाले जीव, समारभंते आरंभ करने वाला, दहे - जलाता है । १९३ - भावार्थ - जो जीव अग्नि जलाता है वह पृथिवीकाय के जीव को, अप्काय के जीवों को, पतङ्ग आदि सम्पातिम (उडकर गिरने वाले) जीवों को स्वेदज प्राणी को तथा काठ में रहने वाले जीवों को जलाता है । विवेचन - अग्निकाय का आरम्भ करने से दूसरे प्राणियों का घात कैसे होता है ? इस शङ्का का समाधान करते हुए शास्त्रकार फरमाते हैं कि, पृथ्वी स्वयं सचित्त है, अप्काय भी सचित्त है तथा इनके आश्रित प्राणी भी जीव हैं एवं आग जलाने पर पतङ्ग आदि जीव उडकर उसमें गिरते हैं एवं कण्डा (गोबर का छाणा) लकड़ी आदि ईन्धन में रहे हुए जीव तथा घुण कीडी आदि काठ में रहने वाले प्राणी इन सब जीवों को वह पुरुष जलाता है जो अग्निकाय का आरम्भ करता है । अतः अग्निकाय का आरम्भ मुनिजन कदापि नहीं करते हैं । हरियाणि भूयाणि विलंबगाणि आहारदेहाय पुढो सियाई । जे छिंदति आयसुहं पडुच्च, पागब्धि पाणे बहुणं तिवाई ॥ ८ ॥ - कठिन शब्दार्थ - हरियाणि - हरी वनस्पति, भूयाणि भूत-वनस्पति के जीव, विलंबगाणि - नाना अवस्थाओं को धारण करते हैं, आहार देहाय - आहार और देह के लिये, पुढो - पृथक् पृथक्, सियाइ - मूल स्कंध आदि के रूप में, छिंदति - छेदन करता है, पागब्भि- धृष्ट-ठीक, तिवाई - नाश करता है । भावार्थ - हरी दूब तथा अंकुर आदि भी जीव हैं और वे जीव वृक्षों के शाखा पत्र आदि में अलग अलग रहते हैं । इन जीवों को जो अपने सुख के लिये छेदन करता है वह बहुत प्राणियों का विनाश करता है । विवेचन - बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय ये त्रस कहलाते हैं स्वयं हलन चलन करते हैं इसलिये इनकी सजीवता साधारण लोगों के भी समझ में सरलता से आ सकती है और प्रायः सभी लोग इनको जीव मानते हैं किन्तु पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय ये स्थावर काय हैं इनकी सजीवता सरलता से समझ में नहीं आती है इसलिये शास्त्रकार ने आचाराङ्ग सूत्र के प्रथम अध्ययन में मनुष्य शरीर की समानता बतलाकर इन पांच स्थावर काय की सजीवता सिद्ध For Personal & Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 की है । वनस्पतिकाय के मूल, कन्द, स्कन्ध, शाखा, प्रशाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल और बीज ये दस भेद किये हैं इनमें संख्यात असंख्यात और अनन्त जीव होते हैं । जो मनुष्यं अपने आहार के लिये तथा शरीर की वृद्धि के लिये यावत् अपने सुख के लिये जो इनका छेदन भेदन करता है वह पापकर्म उपार्जन करता है । इन जीवों का विनाश करने से दया न होने के कारण न तो धर्म होता है और न ही आत्मा को सुख की प्राप्ति ही होती है । इसलिये ज्ञानी पुरुष फरमाते हैं कि इन जीवों की हिंसा नहीं करनी चाहिए। जाइं च बुष्टिं च विणासयंते, बीयाइ अस्संजय आयदंडे। अहाहु से लोए अणजधम्मे, बीयाइ जे हिंसइ आयसाए ॥ ९ ॥ कठिन शब्दार्थ - जाई - उत्पत्ति, वुद्दि - वृद्धि, विणासयंते- विनाश करता है, बीयाइ - बीज का, अस्संजय - असंयत, आयदंडे - आत्मदंड-अपने आप को दंडित करने वाला, अणजधम्मे - अनार्य धर्म वाला। भावार्थ - जो पुरुष अपने सुख के लिये बीज का नाश करता है वह उस बीज के द्वारा होने वाले अंकुर तथा शाखा पत्र पुष्प फल आदि वृद्धि का भी नाश करता है । वस्तुतः वह पुरुष उक्त पाप के द्वारा अपने आत्मा को दण्ड का भागी बनाता है । तीर्थंकरों ने ऐसे पुरुष को अनार्य धर्मवाला कहा है। विवेचन - जो पुरुष हरी वनस्पति का छेदन भेदन करता है वह इस वनस्पति के द्वारा होने वाली दूसरी वनस्पति की उत्पत्ति यथा - अङ्कर, पत्र, पुष्प यावत् फल और बीज का भी विनाश करता है । वह पुरुष अपनी आत्मा को दण्ड देने वाला है । वह दूसरे प्राणी का नाश करके वास्तव में अपनी आत्मा का ही विनाश करता है । जो पुरुष धर्म का नाम लेकर अथवा अपने सुख के लिये वनस्पतिकाय का विनाश करता है । वह चाहे परिव्राजक रूप पाषण्डी हो चाहे गृहस्थ हो वह अनार्य धर्म वाला है । गब्भाइ मिजंति बुयाबुयाणा, णरा परे पंचसिहा कुमारा। जुवाणगा मज्झिम थेरगा य, चयंति ते आउखए पलीणा ।। १० ॥ कठिन शब्दार्थ - गब्भाइ - गर्भ में ही, मिजंति - मर जाते हैं, बुयाबुयाणा - बोलने और नहीं बोलने की स्थिति में, पंचसिहा कुमारा - पंच शिखावाले कुमार, जुवाणगा - युवा, मझिम - मध्यम थेरगा - वृद्ध, आउखए - आयु क्षीण होने पर, पलीणा - प्रलीन हो जाते हैं । भावार्थ - हरी वनस्पति आदि का छेदन करने वाले पुरुष पाप के कारण कोई गर्भावस्था में ही मर जाते हैं, कोई स्पष्ट बोलने की अवस्था में तथा कोई बोलने की अवस्था आने के पहले ही मर जाते हैं । एवं कोई कुमार अवस्था में, कोई युवा होकर, कोई आधी उमर का होकर, कोई वृद्ध होकर मर जाते हैं आशय यह है कि वे हर एक अवस्था में मत्य को प्राप्त होते हैं । For Personal & Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ७ १९५ विवेचन - इस प्रकार हरी वनस्पति का छेदन भेदन करने वाला जीव तथा जो दूसरे स्थावर और त्रस प्राणियों का घात करते हैं, उनकी आयु का भी अनिश्चित होना जान लेना चाहिए । अर्थात् बचपन से लेकर वृद्ध अवस्था तक किसी भी अवस्था में उनका मरण हो जाता है ।। संबुज्झहा जंतवो ! माणुसत्तं, दटुं भयं बालिसेणं अलंभो। एगंत दुक्खे जरिए व लोए, सकम्मुणा विप्परियासुवेइ. ॥ ११ ॥ कठिन शब्दार्थ - संबुण्झहा - संबुझह-समझो, जंतवो !- हे प्राणी !, माणुसत्तं - मनुष्यत्व, बालिसेणं - विवेकहीन पुरुष को, अलंभो - अलाभ, एगंतदुक्खे - एकान्त दुःखमय, जरिए व- ज्वर से पीड़ित की तरह, विप्परियासुवेइ - विपर्यास को-सुख के स्थान पर दुःख को प्राप्त होता है । भावार्थ - हे जीवो ! तुम बोध प्राप्त करो । मनुष्यभव मिलना दुर्लभ है । तथा नरक और तिर्यञ्च में होने वाले दुःखों को देखो । विवेकहीन जीव को बोध नहीं प्राप्त होता है । यह संसार ज्वर से पीडित की तरह एकान्त दु:खी है और सुख के लिये पाप करके यह दुःख भोगता है । इहेगे मूढा पवयंति मोक्खं, आहार-संपज्जण-वज्जणेणं। एगे य सीओदग-सेवणेणं, हुएण एगे पवयंति मोक्खं ॥ १२ ॥ कंठिन शब्दार्थ - मूढा - मूर्ख, पवयंति - बतलाते हैं, मोक्खं - मोक्ष, आहारसंपजण वजणेणं - आहार संपज्जन-नमक खाना छोड़ने से, सीओदगसेवणेणं - शीतल जल के सेवन से, हुएण - होम (हवन) से । भावार्थ - इस लोक में कोई अज्ञानी नमक खाना छोड़ देने से मोक्ष की प्राप्ति बतलाते हैं और कोई शीतल जल के सेवन से मोक्ष कहते हैं एवं कोई होम करने से मोक्ष की प्राप्ति बताते हैं । विवेचन - गाथा में "आहारसंपज्जण" शब्द दिया है । इसका अर्थ है आहार की सम्पत्ति । अर्थात् रस की पुष्टि जो करे उसको आहारसंपज्जण कहते हैं । जिसका अर्थ है नमक । नमक पांच प्रकार का कहा गया है यथा - सैन्धव, सौवर्चल, बिड. रौम और सामद्र । सब रसों की अभिव्यक्ति नमक से ही होती है । बिना नमक का रस, बिना नेत्र के शेष इन्द्रियाँ, दया रहित धर्म और सन्तोष रहित सुख नहीं है और भी कहा है कि, रसों में नमक, चिकने पदार्थों में तैल और चर्बी बढ़ाने में घृत सर्वश्रेष्ठ है। अतः नमक के छोड़ देने से सम्पूर्ण रसों का त्याग हो जाता है और रसों के त्याग से मुक्ति प्राप्त होती है ऐसा कितने ही परवादियों का कथन है और कितनेक परवादियों का कथन है कि, लहसुन, प्याज, उँटनी का दूध, गौ मांस और मद्य इन पांच वस्तुओं के त्याग से ही मुक्ति प्राप्त होती है। वारिभद्रक आदि भागवत् विशेष की मान्यता है कि सचित्त जल का उपयोग करने से मुक्ति की प्राप्ति होती है वे युक्ति देते हैं कि जैसे जल बाहर के मैल को दूर करता है. वस्त्र की शद्धि करता है इस For Personal & Private Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 प्रकार बाहर के मैल को धोने की शक्ति जल में देखी जाती है इसी प्रकार अन्दर की शुद्धि भी जल से हो जाती है। कुछ लोगों की मान्यता है कि अग्निहोत्र आदि यज्ञ करने से स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति होती है ऐसी तापस और ब्राह्मण आदि की मान्यता है। वे युक्ति देते हैं कि अग्नि सोने के मैल को जलाती है इसलिये अग्नि में मैल को जलाने की शक्ति देखी जाती है इसी प्रकार वह आत्मा के आंतरिक पाप को भी जला डालती है शास्त्रकार फरमाते हैं कि यह सब अज्ञानियों की मान्यता है । पाओ सिणाणादिसु णत्थि मोक्खो, खारस्स लोणस्सअणासएणं । ते मज्ज-मंसं लसुणं च भोच्चा, अण्णत्थ वासं परिकप्पयंति ॥ १३॥ कठिन शब्दार्थ - पाओसिणाणादिसु - प्रातःकालीन स्नान से, खारस्स लोणस्स - क्षार नमक के, अणासएणं - न खाने से, मजमंसं - मद्य, मांस, लसुणं - लशुन, भोच्चा - खा कर, अण्णत्थ - मोक्ष के सिवाय अन्य स्थान, वासं परिकप्पयंति - निवास करते हैं । भावार्थ - प्रभातकाल के स्नान आदि से मोक्ष नहीं होता है तथा नमक न खाने से भी मोक्ष नहीं होता है वे अन्यतीर्थी मद्य मांस और लशुन खाकर संसार में भ्रमण करते हैं । विवेचन - पूर्वोक्त प्रकार से असम्बद्ध प्रलाप करने वाले अन्य तीर्थियों को उत्तर देने के लिये . शास्त्रकार फरमाते हैं कि, जो पुरुष पापों का त्याग नहीं करते हैं, वे शील (चारित्र) रहित हैं । वे प्रातः काल हाथ पैर धोना स्नान करना आदि से मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते हैं । क्योंकि जल का उपयोग करने से जल के जीवों का घात होता है । जीव घात से कदापि मुक्ति प्राप्त नहीं होती है। जल बाय शद्धि कर सकता है वह द्रव्य शद्धि है । अन्दर की शद्धि भावों की शद्धि से होती है यदि भाव रहित जीव की भी जल से अन्दर की शुद्धि हो जाती हो तो मछली मारकर आजीविका करने वाले मल्लाह आदि को भी जल स्नान से मुक्ति हो जानी चाहिए । पांच प्रकार के नमक के त्याग मात्र से भी मुक्ति नहीं मिलती है । अतः "नमक नहीं खाने से मुक्ति मिल जाती है" यह कथन युक्ति रहित है । क्योंकि एक नमक ही रस की पुष्टि करता है यह एकान्त नहीं है क्योंकि दूध, दही, घी, तैल और मीठम ये पांच विगय भी रस के पोषक हैं । तथा उक्त वादी से पूछना चाहिए कि द्रव्य से नमक का त्याग करने से मोक्ष मिलता है अथवा भाव से? यदि द्रव्य से कहो तो जिस देश में नमक नहीं होता है उस देश के सभी लोगों का मोक्ष हो जाना चाहिए पर ऐसा देखा नहीं जाता है। और यह इष्ट भी नहीं है । यदि भाव से कहो तो भाव ही प्रधान है, द्रव्य नहीं । जो लोग मद्य, मांस, लहसुन आदि खाकर संसार में निवास करते हैं । क्योंकि उनका अनुष्ठान संसार में निवास करने योग्य ही होता है । वे अज्ञानी सम्यग्दर्शन ज्ञान, चारित्र, रूप मोक्ष मार्ग का अनुष्ठान नहीं करते हैं । For Personal & Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ७ . १९७ उदगेण जे सिद्धि-मुदाहरंति, सायं च पायं उदगं फुसंता । उदगस्स फासेण सिया य सिद्धि, सिझिंसु पाणा बहवे दगंसि ॥ १४॥ कठिन शब्दार्थ - उदगेण-उदग- जल से, सिद्धिं - सिद्धि, उदाहरंति - बतलाते हैं, सायं - सायंकाल, पायं - प्रात:काल, उदगं - जल का, फुसंता - स्पर्श करते हुए, सिया - यदि (कदाचित्), उदगस्स फासेण - जल स्पर्श (स्नान) से, दगंसि- जल में रहने वाले, बहवे - बहुत से, पाणा - प्राणी, सिझिंसु - सिद्ध हो गये होते । भावार्थ - सायंकाल और प्रात:काल जलस्पर्श करते हुए जो लोग जलस्पर्श से मोक्ष की प्राप्ति बतलाते हैं वे झूठे हैं । यदि जलस्पर्श से मोक्ष की प्राप्ति हो, तो जल में रहने वाले जानवरों को भी मोक्ष मिल जाना चाहिये । विवेचन - प्रात:काल सायंकाल और मध्यान्हकाल इन तीन संध्याओं में जल से स्नान करने से मुक्ति मिलती है, ऐसी मान्यता वालों का कथन युक्ति संगत नहीं है, क्योंकि फिर तो निरन्तर जल में रहने वाले मत्स्य कच्छप आदि जलचर जीवों की मुक्ति हो जाती तथा पहले जो यह युक्ति दी गयी कि पानी बाहर के मैल को धोता है । यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि जल, शरीर पर लगे हुए अङ्गराग, कुंकुम, चन्दन आदि को भी धो डालता है । अतः जल के द्वारा पाप की तरह पुण्य भी धुल जायेगा । यह इष्ट नहीं है क्योंकि इससे तो जीव की उन्नति ही रुक जायेगी। मोक्षार्थी, संयमी (ब्रह्मचारी) के लिये स्नान करना सर्वथा वर्जित है जैसा कि कहा है - "स्नानं मददर्पकरं, कामाङ्गप्रथमं स्मृतम् । .. तस्मात्कामं परित्यज्य, न ते स्नान्ति दमे रताः ।। अर्थ- स्नान, मद और दर्प उत्पन्न करता है । वह कामवासना जागृत करने का प्रधान कारण है । इसलिये जो पुरुष इन्द्रियों को दमन करने वाले हैं वे काम का त्याग करके स्नान नहीं करते हैं । तथा - - नोदकक्लिन्नगात्रो हि, स्नात इत्यभिधीयते । स स्नातो यो व्रतस्नातः स बाहयाभ्यन्तरः शुचिः ॥ जल से भीगा हुआ शरीर वाला पुरुष स्नान किया हुआ नहीं कहा जाता है। किन्तु जो पुरुष व्रतों से स्नान किया हुआ है अर्थात् व्रतधारी है वह स्नान किया हुआ कहा जाता है क्योंकि वह पुरुष बाहर और भीतर दोनों ही प्रकार से शुद्ध है । दशवैकालिक सूत्र के छठे अध्ययन में कहा है - वाहिओ वा अरोगी वा, सिणाणं जो उ पत्थए । वुक्कंतो होइ आयारो, जढो हवइ संजमो ।।६१ ॥ For Personal & Private Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ *********......0000 तम्हा ते ण सिणायंति, सीएण उसिणेण वा । जावज्जीवं वयं घोरं, असिणाणमहिट्ठगा ॥ ६३ ॥ अर्थ - रोगी हो अथवा नीरोगी हो किन्तु जो साधु स्नान करने की इच्छा करता है, निश्चय ही वह आचार से भ्रष्ट हो जाता है और उसका संयम मलिन हो जाता है। इसलिये शुद्ध संयम का पालन करने वाले साधु साध्वी ठण्डे जल से अथवा गरम जल से कभी भी स्नान नहीं करते हैं । किन्तु जीवन पर्यन्त अस्नान नामक कठिन व्रत का पालन करते हैं। - अतः स्नान करने से मोक्ष प्राप्ति की मान्यता रखने वाला मत आगम विरुद्ध है । मच्छा य कुम्मा य सिरीसिवा य, मग्गू य उट्टा दगरक्खसा य । अट्ठाण - मेयं कुसला वयंति, उदगेण जे सिद्धि - मुदाहरति ।। १५ ॥ कठिन शब्दार्थ - मच्छा मछली, कुम्मा कूर्म (कच्छप) सिरीसिवा सरीसृप, मग्गू - बतख, उट्टा - ऊंट नामक जल चर, दगरक्खसा - जल राक्षस, अट्ठाणं अयुक्त, एवं यह, कुसला कुशल पुरुष । - भावार्थ - यदि जलस्पर्श से मुक्ति की प्राप्ति हो, तो मच्छली, कच्छप, सरीसृप तथा जल में रहनेवाले दूसरे जलचर सबसे पहले मोक्ष प्राप्त कर लेते परन्तु ऐसा नहीं होता इसलिये जो जलस्पर्श से मोक्ष बताते हैं उनका कथन अयुक्त है ऐसा मोक्ष का तत्त्व जानने वाले पुरुष कहते हैं । विवेचन - जल से स्नान करने से मुक्ति मिलती हो तो, सदा जल में रहने वाले जलचर जीवों की सबसे पहले मुक्ति हो जाती, इत्यादि बातें पहली गाथाओं में कही गयी है । अत: स्नान से मुक्ति मान्यता रखने वाला मत मिथ्या है । श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000 - - - उदयं जइ कम्ममलं हरेज्जा, एवं सुहं इच्छामित्तमेव । अंध व यार - मणुस्सरत्ता, पाणाणि चेवं विहिंति मंदा ।। १६ ।। कठिन शब्दार्थ - कम्ममलं कर्म मल को, हरेज्जा हरे, इच्छामित्तं - इच्छा मात्र, एव ही, अंधं - अंधे, णेयारं नेता के, अणुस्सरित्ता अनुसरण -पीछे चल कर, विणिहंति हिंसा करते हैं, मंदा मंदमति । भावार्थ - जल यदि पाप को हरे तो वह पुण्य को भी क्यों नहीं हर लेगा अतः जलस्पर्श से मोक्ष मानना मनोरथ मात्र है । वस्तुतः अज्ञानी जीव, अज्ञानी नेता के पीछे चलते हुए जलस्नान आदि के द्वारा प्राणियों का घात करते हैं । 00000000000000 - - For Personal & Private Use Only विवेचन - जैसे जन्मान्ध पुरुष दूसरे जन्मान्ध पुरुष के पीछे चलता हुआ वह कुमार्ग में चला जाता है किन्तु अपने इष्ट स्थान पर नहीं पहुंचता है । इसी तरह जल स्नान से मुक्ति प्राप्ति की मान्यता - Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ७ - १९९ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 वाले भी मुक्ति को तो प्राप्त नहीं करते हैं किन्तु जल के जीवों का तथा जल के आश्रित दूसरे जीवों का घात करके पाप अवश्य उपार्जन करते हैं और पापी प्राणियों की दुर्गति अवश्य होती है । - पावाई कम्माइं पकुव्वतो हि, सिओदगं तु जइ तं हरिग्जा। सिझिंसु एगे दगसत्तघाती, मुसं वयंते जलसिद्धिमाहु ।। १७ ॥ कठिन शब्दार्थ - पावाई - पाप, कम्माई - कर्म, पकुव्वतो- करने वाले के, हरिज्जा - दूर कर दे, सिझिंसु - सिद्ध हो जाते, दगसत्तघाती - पानी की जीवों का घात करने वाले, मुसं - झूठ, वयंते - बोलते हैं, जलसिद्धिं - जल से मुक्ति आहु - बतलाते हैं। भावार्थ - पापी पुरुष के पाप को यदि जल हरण करे तो जलजन्तुओं को मारने वाले मछुवे भी मुक्ति को प्राप्त कर लें अतः जलस्नान से मुक्ति बताने वाले मिथ्यावादी हैं ।। हुएण जे सिद्धिमुदाहरंति, सायं च पायं च अगणिं फुसंता। एवं सिया सिद्धि हवेज्ज तम्हा, अगणिं फुसंताण कुकम्मिणंपि ॥ १८ ॥ कठिन शब्दार्थ - हुएण - होम करने से, अगणिं - अग्नि के, फुसंता - स्पर्श करते हुए, कुकम्मिपि - कुकर्मियों को भी। भावार्थ - प्रात:काल और सायंकाल अग्नि का स्पर्श करते हुए जो लोग अग्नि में होम करने से मोक्ष की प्राप्ति बतलाते हैं वे भी मिथ्यावादी हैं । यदि इस तरह मोक्ष मिले तो अग्निस्पर्श करने वाले कुकर्मियों को भी मोक्ष मिल जाना चाहिये । विवेचन - यज्ञवादियों की मान्यता है कि अग्नि में हवन करने से स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति होती है । जैसा कि कहा है - 'अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकाम' ।अर्थ - "स्वर्ग और मोक्ष की कामना करने वाले पुरुष को अग्निहोत्र करना चाहिए ।" यह कथन अयुक्त है । यदि अग्नि में होम करने से मुक्ति मिलती होती तो अग्नि में ईन्धन डालकर कोयला बनाने वाले तथा कुम्हार और लोहार आदि अग्नि का कार्य करने वालों को मुक्ति मिल जानी चाहिए । यदि यह कहा जाय कि, मन्त्र से पवित्र अग्नि होम करने से मुक्ति मिलती है तो यह कहना भी युक्ति संगत नहीं है । क्योंकि जैसे अग्नि साधारण पुरुषों के द्वारा (मन्त्रित किये बिना) डाली हुई चीज को भस्म करती है उसी तरह अग्निहोत्री ब्राह्मण के द्वारा मन्त्रित कर डाली हुई चीज को भी भस्म कर डालती है इसीलिये साधारण पुरुष की अपेक्षा अग्निहोत्री के अग्नि कार्य में कोई विशेषता नहीं देखी जाती है तथा जिन लोगों का कथन है कि अग्नि देवताओं का मुख है यह कहना भी युक्ति रहित होने के कारण कथन मात्र है क्योंकि अग्निहोत्री के द्वारा डाली हुई चीज को अग्नि जिस प्रकार भस्म करती है उसी तरह अग्नि कूड़ा कचरा और यहां For Personal & Private Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० *************** तक कि विष्ठा को भी भस्म कर देती है तो क्या देवता विष्ठा खाते हैं । यह तो और अनिष्ट की प्राप्ति होती है । अतः ऐसा मानने से बहुत दोषों की उत्पत्ति होती है । अपरिक्ख दिट्ठ ण हु (एव) सिद्धि, एहिंति ते घायमबुज्झमाणा । भूएहि जाणं पडिलेह सायं, विज्जं गहाय तस - थावरेहिं ।। १९ ॥ कठिन शब्दार्थ - अपरिक्ख परीक्षा के बिना, एहिंति प्राप्त करेंगे, घायं घात-विनाश को, अबुझमाणा - बोध को प्राप्त नहीं होने वाले, विज्जं विद्या- ज्ञान को, गहाय - ग्रहण करके । श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ .............................................................. - भावार्थ - जो अग्निहोत्र से अथवा जलावगाहन से सिद्धिलाभ कहते हैं वे परीक्षा करके नहीं. देखते हैं । वस्तुतः इन कर्मों से सिद्धि नहीं मिलती है । अतः उक्त मन्तव्य वाले विवेक रहित हैं, वे इन कर्मों के द्वारा संसार में परिभ्रमण करते हैं । अतः ज्ञान प्राप्त करके त्रस और स्थावर जीवों में सुख की इच्छा जान कर उनका घात नहीं करना चाहिये । - विवेचन - " जल से स्नान करने से और अग्नि में होम करने से मुक्ति की प्राप्ति होती है " वे इन कार्यों को धर्म समझ कर प्राणी हिंसा करते हैं । परन्तु प्राणियों की हिंसा करने से तो प्राप का बन्ध होता है। उससे जीव की दुर्गति होती है, सद्गति नहीं । क्योंकि सभी जीव जीना चाहते हैं । सभी जीव सुख की अभिलाषा करते हैं। इसलिये जीवादि का ज्ञान पहले करना चाहिए। जैसा कि कहा है - पढमं णाणं तओ दया, एवं चिट्ठइ सव्वसंजए । अण्णाणी किं काही, किं वा णाही सेयपावगं ॥ अर्थ - सब से पहला स्थान ज्ञान का है, उसके बाद दया अर्थात् क्रिया है । ज्ञानपूर्वक क्रिया करने से ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है । अज्ञानी, जिसे साध्य और साधन का भी ज्ञान नहीं है, जीव अजीव का भी ज्ञान नहीं है, वह क्या कर सकता है ? वह अपने कल्याण - अकल्याण को भी कैसे समझ सकता है ? अर्थात् नहीं समझ सकता है । हिन्दी में भी कहा है - प्रथम ज्ञान पीछे दया, यह जिन मत का सार । कठिन शब्दार्थ - थणंति करुण रुदन करते हैं, भीत होते हैं, कम्मी- पाप कर्म करने वाले, परिसंखाय आयगुत्ते - आत्मगुप्त, पंडिसंहरेज्जा - घात न करे । - - ज्ञान सहित क्रिया करे, उतरे भव जल पार || थति लुप्यंति तति कम्मी, पुढो जगा परिसंखाय भिक्खू । तम्हा विऊ विरओ आयगुत्ते, दठ्ठे तसे या पडिसंहरेज्जा ॥ २० ॥ लुप्यंति - छेदन किये जाते हैं, तसंति - भय जान कर, विऊ - विद्वान्, विरओ विरत, For Personal & Private Use Only - Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ७ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 २०१ . भावार्थ - पापी प्राणी नरक आदि में दुःख भोगते हैं यह जानकर विद्वान् मुनि पाप से निवृत्त होकर अपनी आत्मा की रक्षा करे । वह त्रस और स्थावर प्राणियों के घात की क्रिया न करे । विवेचन - जो लोग अग्निकाय आदि जीवों का आरम्भ करके सुख प्राप्त करने की इच्छा करते हैं । उन्हें सुख प्राप्त होना तो दूर रहा अपितु नरक आदि दुर्गति में जाकर असह्य दुःखों को और तीव्र वेदनाओं को सहन करना पड़ता है । प्राणियों का घात करने वाले जीव संसार में परिभ्रमण करते हुए अनेक प्रकार के क्लेश भोगते रहते हैं । अतः ज्ञानी पुरुषों का कर्तव्य है कि, त्रस और स्थावर सभी प्रकार के प्राणियों की हिंसा से निवृत्त हो जाय । - जे धम्मलद्धं विणिहाय भुंजे, वियडेण साह? य जे सिणाइं। जे धोवई लूसयई व वत्थं, अहाहु ते णागणियस्स दूरे ॥ २१ ॥ कठिन शब्दार्थ - धम्मलद्धं - धर्म (भिक्षा) से प्राप्त, विणिहाय - छोड़ कर, वियडेण - अचित्त जल से, साहट्ट - संकुचित कर, सिणाई - स्नान करता है, धोवई - धोता है, लूसयई - छोटा बड़ा करता है, णागणियस्स - नाग्न्य (संयम) से, दूरे - दूर है । ___ भावार्थ - जो साधुनामधारी दोषरहित आहार को छोड़ कर दूसरा स्वादिष्ट भोजन खाता है तथा अचित्त जल से अचित्त स्थान में अङ्गों को संकोच करके भी स्नान करता है तथा जो शोभा के लिये अपने हाथ पैर तथा वस्त्र आदि को धोता है एवं जो श्रृङ्गार के लिये छोटे वस्त्र को बड़ा और बड़े को छोटा करता है वह नग्नत्व-निग्रंथ भाव-श्रामण्य (संयम) से दूर है ऐसा तीर्थकर और गणधरों ने कहा है । .. विवेचन - नग्न-भाव शब्द का अर्थ है-आत्मा का दिगंबरत्व-विषय-कषाय से रहित आत्मप्रवृत्ति, शरीर के प्रति भी बेदरकारी होना । किसी भी प्रकार की पौद्गलिकता का अनाग्रह ही असलियत में नग्नत्व है । ऐसी भाव नग्नता के आ जाने पर आत्मा की मुक्ति अवश्यंभावी है । भाव नग्नता के बिना द्रव्य नग्नता की मोक्ष-मार्ग में कुछ भी कीमत नहीं है । द्रव्य-नग्नत्व तो हर प्राणी ने अनंतबार धारण किया है । इसी गाथा को लेकर अभिधान राजेन्द्र कोष' के 'सेयंबर' शब्द की टीका करते हुए लिखा है - - "इत्यत्र प्रासुकोदकेनापि क्षार (साबुन) आदिना वस्त्रधावने साधुनां कुशीलित्वं टीकाकारेण भणित्तमिति स्वच्छन्दं तदाचरन्तः कुशीलिनः शुद्ध जैन धर्म प्रतिकूला एवेत्यलं बहुना ।" अर्थ - प्रासुक अर्थात् अचित्त जल (गरम जल अथवा धोवन) से भी सोडा साबुन आदि लगाकर जो मुनि वस्त्र धोता है वह कुशील है। भगवान् की आज्ञा नहीं है किन्तु वह अपनी स्वच्छन्दता पूर्वक साबुन सोडा आदि लगाते हैं। उनका चारित्र कुशील (मलिन) हो जाता है। ऐसा करना शुद्ध जैन धर्म के प्रतिकूल For Personal & Private Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ है। इसका तात्पर्य यह है कि शुद्ध संयम का पालन करने वाले साधु साध्वी को सौडा साबुन आदि का प्रयोग नहीं करना चाहिए। कम्मं परिण्णाय दगंसि धीरे, वियडेण जीविज्ज य आदिमोक्खं । से बीय कंदाइ अभुंजमाणे, विरए सिणाणाइसु इत्थियासु ।। २२ ॥ कठिन शब्दार्थ - दगंसि जल स्नान-जल के समारंभ में, जीविज्ज - जीवन धारण करे, आदिमोक्खं संसार से मोक्ष पर्यंत, बीयकंदाइ - बीज कन्द का अभुंजमाणे भोजन नहीं करता हुआ, सिणाणाइसु - स्नान में, इत्थियासु - स्त्रियों में, विरए - विरत रहे। भावार्थ - बुद्धिमान् पुरुष, जलस्नान से कर्मबन्ध जानकर मुक्तिपर्य्यन्त प्रासुक जल से जीवन धारण करे, वह बीजकाय तथा कन्द आदि का भोजन न करे एवं स्नान तथा मैथुन सेवन से दूर रहे। . विवेचन - गाथा में " आदिमोक्खं" शब्द दिया है, जिसका अर्थ है - यहां संसार को आदि कहते हैं उससे मुक्त होना वह आदि मोक्ष कहलाता है । साधु पुरुष जब तक मोक्ष न हो तब तक अथवा इस शरीर का विनाश न हो तब तक प्रासुक जल और प्रासुक आहार से ही अपना जीवन निर्वाह करे । शरीर की विभूषा और सावद्य चिकित्सा आदि क्रियाएँ भी न करे । गाथा में दिये हुए "इत्थियासु " शब्द से सभी आस्रव द्वारों का ग्रहण किया गया है अतः मुनि किसी भी आस्रव द्वार का सेवन न करे । सभी आस्रव द्वारों का तीन करण तीन योग से त्याग कर दे । २०२ जे मायरं च पियरं हिच्या, गारं तहा पुत्त-पसुं धणं च । कुलाई जे धावइ साउगाई, अहाहु से सामणियस्स दूरे ।। २३ ॥ कठिन शब्दार्थ - अगारं - घर को, पुत्तपसुं पुत्र और पशु को, हिच्चा - छोड़कर, धावइ - दौड़ता है, साउगाई - स्वादिष्ट भोजन वाले, कुलाई कुलों की ओर, सामणियस्स - श्रामण्य साधुपने से- श्रमणभाव से, अह - अथ - इसके बाद, आहु - कहा है। भावार्थ - जो पुरुष माता, पिता, घर, पुत्र, पशु और धन आदि को छोड़ कर दीक्षा ग्रहण करके भी स्वादिष्ट भोजन के लोभ से स्वादिष्ट भोजन वाले घरों में जाता है वह साधुपने से दूर है ऐसा तीर्थंकर भगवन्तों ने कहा है । - - कुलाई जे धावइ साउगाई, आघाइ धम्मं उदराणुगिद्धे । अहां से आयरियाण सयंसे, जे लावएज्जा असणस्स हेऊ ।। २४ ॥ कठिन शब्दार्थ - आंघाइ आख्यान (कथन) करता है, उदराणुगिद्धे - उदर पोषण में आसक्त, सयंसे- शतांश, लावएज्जा प्रशंसा कराता है, असणस्स अशन के । For Personal & Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ७ २०३ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ - जो पेटु स्वादिष्ट भोजन के लिये लोभ से स्वादिष्ट भोजन वाले घरों में भिक्षार्थ जाया करते हैं और वहां जाकर धर्मकथा सुनाते हैं तथा जो भोजन के लिये अपना गुण वर्णन कराते हैं वे आचार्यों के शतांश भी नहीं है, यह तीर्थंकरों ने कहा है । विवेचन - ऊपर की गाथा में बतलाया गया है कि, जो साधु स्वादिष्ट आहार आदि के लिये रस . लोलुपता के कारण स्वादिष्ट भोजन वाले घरों में गोचरी के लिये जाता है वह साधु नहीं है । इसी बात को विशेष रूप से दिखाने के लिये शास्त्रकार फरमाते हैं कि वह साधु "उदरानुगृद्ध" है अर्थात् जो पेट भरने में आसक्त (पेटू) है । वह कुशील है स्वादिष्ट आहार आदि के निमित्त दान में श्रद्धा रखने वाले घरों में जाकर धर्मकथा कहता है वह कुशील है । उसमें साधुता नहीं है । इसी प्रकार स्वादिष्ट भोजन और वस्त्रादि के लिये दूसरे के द्वारा अपना गुणवर्णन करवाता है अथवा अपने मुख से ही अपने गुणों का वर्णन करता है वह भी साधुता से रहित है उसमें साधुता का अंश भी नहीं है। णिक्खम्म दीणे परभोयणंमि, मुहमंगलीए उदराणुगिद्धे । णीवारगिद्धे व महावराहे, अदूरए एहिइ घायमेव॥ २५॥ - कठिन शब्दार्थ - णिक्खम्म - निष्क्रमण कर, दीणे - दीन, परभोयणमि - दूसरे के भोजन में, मुहमंगलीए - मुख मांगलिक-दूसरों की प्रशंसा करने वाला, णीवारगिद्धे - चावल में आसक्त, महावराहे - महावराह-विशाल काय सूअर, अदूरए - शीघ्र ही, एहिइ - प्राप्त होता है, घायमेव-नाश को ही। भावार्थ - जो पुरुष अपना घर तथा धन धान्य आदि छोड़ कर दूसरे के भोजन के लिये दीन होकर भाट की तरह दूसरे की प्रशंसा करता है वह चावल के दानों में आसक्त बडे सूअर की तरह पेट भरने में आसक्त है, वह शीघ्र ही नाश को प्राप्त होता है। विवेचन - पांच समिति और तीन गुप्ति का वर्णन उत्तराध्ययन सूत्र के चौबीसवें अध्ययन में हैं । पांच समिति में से तीसरी समिति का नाम एषणा समिति है । उसके बयालीस दोष बतलाये गये हैं उद्गम के १६, उत्पादना के १६ और एषणा के १० । इनमें उत्पादना दोषों के वर्णन में बताया गया है 'पुष्विंपच्छा संथव' अर्थात् भिक्षा लेने से पहले और पीछे दाता की प्रशंसा करना जैसे कि तुम्हारे पिता और दादा ऐसे उदार दानशील थे कि, दूध और घी से साधु का पात्र भर देते थे । आप भी वैसे ही दानशील हैं । यह बात पहले मैं केवल सुनता था किन्तु आज प्रत्यक्ष देख लिया। इस प्रकार दाता की प्रशंसा कर आहारादि लेना दोष का कारण है। अतः ऐसा करना साधु चारित्र को मलिन करना है । शुद्ध यम पालन करने वाले साधु-साध्वी को इन रस लोलुपता के दोषों से बचना चाहिए । For Personal & Private Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ अण्णस्स पाणस्सिहलोइयस्स, अणुप्पियं भासइ सेवमाणे । पासत्थयं चेव कुसीलयं च णिस्सारए होइ जहा पुलाए ।। २६ ॥ कठिन शब्दार्थ - अण्णस्स अन्न के, पाणस्स पान के, इहलोइयस - इहलौकिक, अणुप्पियं - प्रिय वचन, पासत्थयं पार्श्वस्थ भाव को, कुशीलयं कुशील भाव को, णिस्सारए - नि:सार-सार रहित, पुलाए पुलाक- भूस्सा के समान । भावार्थ - जो पुरुष अन्न पान तथा वस्त्र आदि के लोभ से दाता पुरुष की रुचिकर बातें कहता है, २०४ - - - वह पार्श्वस्थ तथा कुशील है और वह भूस्सा के समान संयमरूपी सार से रहित है । विवेचन जैसे राजा का सेवक या उसकी हाँ में हाँ मिलाने वाला पुरुष राजा के वचन का अनुसरण करता है उसी तरह जो साधु दाता को प्रसन्न रखने के लिये उसकी हाँ में हाँ मिलाता है और दाता को प्रसन्न कर स्वादिष्ट भोजन आदि प्राप्त करता है वह आचार भ्रष्ट साधु पार्श्वस्थ और कुशीलपने को प्राप्त होता है । जैसे भूस्सा अन्न के दाने से रहित होकर निःसार होता है उसी तरह वह साधु भी अपने संयम को निःसार कर डालता है। ऐसा साधु केवल साधुवेश को धारण करने वाला है । किन्तु चारित्रवान नहीं है । वह इस लोक में भी निन्दित होता है और परलोक में दुर्गति का भागी बनता है । - अण्णाय - पिंडेणऽहियासज्जा, णो पूयणं तवसा आवहेज्जा । सद्देहि रूवेहि असज्जमाणं, सव्वेहि कामेहि विणीय गेहिं ॥। २७ ॥ कठिन शब्दार्थ - अण्णायपिंडेण - अज्ञात पिण्ड से, अहियासएज्जा निर्वाह करे, पूयणं पूजा (प्रतिष्ठा) प्राप्त करने की, तवसा तप से, आवहेज्जा - इच्छा करे, असज्जमाणं- आसक्त न होता हुआ, गेहिं - आसक्ति, विणीय हटा कर । भावार्थ - साधु अज्ञात पिण्ड के द्वारा अपना जीवन निर्वाह करे । तपस्या के द्वारा पूजा की इच्छा न करें एवं शब्द रूप और सब प्रकार के विषयभोगों से निवृत्त होकर शुद्ध संयम का पालन करे । - - 000000000000000 विवेचन - कुशील पुरुषों का स्वरूप ऊपर बताया गया है । अब उनके प्रतिपक्ष भूत सुशील पुरुषों का वर्णन किया जाता है । इस गाथा में " अण्णाय" शब्द दिया है, जिसका अर्थ है साधु अज्ञात घरों में गोचरी करे अर्थात् जिन घरों में यह मालूम नहीं कि, साधु साध्वी आज हमारे यहां गोचरी आवेंगे उसको अज्ञात घर कहते हैं । ऐसे अज्ञात घरों से आन्तप्रान्त आहार लेकर साधु अपना जीवन निर्वाह करे । किन्तु आन्तप्रान्त आहार मिलने से मन में दीन भाव न लावे । शुद्ध संयमी पूजा सत्कार अथवा दूसरी किसी भी वस्तु की इच्छा से तप न करे । ऐसा करने से तप निः सार हो जाता है । जैसा कि कहा है For Personal & Private Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ अध्ययन ७. 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 "परं लोकाधिकं धाम, तपःश्रुतमिति व्दयम् । तदेवार्थित्वनिर्लुप्तसारं तृणलवायते ॥" __ अर्थ - परलोक में श्रेष्ठ स्थान दिलाने वाले तप और श्रुत (ज्ञान) ये दो ही वस्तु हैं । इनसे सांसारिक पदार्थ की इच्छा करने पर इनका सार निकल जाने से ये तृण के टुकडे की तरह निःसार हो जाते हैं । मुनि पांच इन्द्रियों के विषय में आसक्त न बने अर्थात् मनोज्ञ शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श में राग भाव न करे और अमनोज्ञ में द्वेष भाव न करे । सव्वाइं संगाई अइच्च धीरे, सव्वाइं दुक्खाइं तितिक्खमाणे । ____ अखिले अगिद्धेऽणिएयचारी, अभयंकरे भिक्खू अणाविलप्पा ॥ २८ ॥ कठिन शब्दार्थ- संगाई - संबंधों को, अइच्च - छोड़ कर, तितिक्खमाणे - सहन करता हुआ, अखिले - सम्पूर्ण, अगिद्धे - अगृद्ध-अनासक्त, अणिएयचारी - अनियतचारी-अप्रतिबद्धविहारी, अभयंकरे - अभय देने वाला, अणाविलप्पा - विषय कषायों से अनाकुल आत्मा वाला। भावार्थ - बुद्धिमान् साधु सब सम्बन्धों को छोड़कर सब प्रकार के दुःखों (परीषह उपसर्गों) को सहन करता हुआ ज्ञान दर्शन और चारित्र से सम्पूर्ण होता है तथा वह किसी भी विषय में आसक्त न होता हुआ अप्रतिबद्धविहारी होता है । एवं वह प्राणियों को अभय देता हुआ विषय और कषायों से अनाकुल आत्मा वाला होकर योग्य रीति से संयम का पालन करता है । भारस्स जाता मुणि भुंजएग्जा, कंखेज पावस्स विवेग भिक्खू । दुक्खेण पुढे धुयमाइएज्जा, संगामसीसे व परं दमेज्जा ।। २९ ॥ ..कठिन शब्दार्थ - भारस्स - पांच महाव्रतरूपी भार, जाता - (जत्ता)- संयम रूपी यात्रा, . भुंजएज्जा - भोजन करे, पावस्स - पाप का, विवेग - विवेक (त्याग) कंखेज - इच्छा करे, दुक्खेणदुःख से, पढे - स्पर्श पाता हुआ, धुयम (धुव)- ध्रुव-संयम (मोक्ष), आइएज्जा - ग्रहण करे, ध्यान रखे, संगामसीसे व- युद्ध भूमि में अग्रिम पंक्ति के योद्धा के समान, दमेजा - दमन करे। ... भावार्थ - मुनि संयम के निर्वाह के लिये आहार ग्रहण करे तथा अपने पूर्व पाप को दूर करने की इच्छा करे । जब साधु पर परीषह और उपसर्गों का कष्ट पड़े तब वह मोक्ष या संयम में ध्यान रखे । जैसे सभट परुष यद्धभमि में शत्र को दमन करता है उसी तरह वह कर्मरूपी शत्रओं को दमन करे । अवि हम्ममाणे फलगावयट्ठी, समागमं कंखइ अंतगस्स । णिधूय कम्मं ण पवंचुवेइ, अक्खक्खए वा सगडं। त्ति बेमि ॥ ३० ॥ For Personal & Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ कठिन शब्दार्थ - हम्ममाणे - पीड़ित किया जाता हुआ, फलगावयट्ठी - छिले जाते हुए काष्ठ के फलक की तरह कृश, कंखइ - आकांक्षा करता है, अंतगस्स - अंत समय-मृत्यु की, णिधूय - क्षीण कर, पवंचुवेइ - प्रपंच (जन्म मरण-संसार) को प्राप्त नहीं करता है, अक्खक्खए - धुरा के टूट जाने से, सगडं- शकट-गाड़ी। भावार्थ - परीषह और उपसर्गों के द्वारा पीडित किया जाता हुआ साधु दोनों तरह से छिली जाती हुई काठ की पाटिया की तरह रागद्वेष न करे किन्तु मृत्यु की प्रतीक्षा करे । इस प्रकार अपने कर्म को क्षय करके साधु संसार को प्राप्त नहीं करता, जैसे धुरा टूट जाने से गाड़ी नहीं चलती है । विवेचन - जैसे लकड़ी का पाटिया दोनों तरफ से छिला जाता हुआ पतला हो जाता है और वह रागद्वेष नहीं करता इसी प्रकार साधु भी अनशन आदि बाह्य तप और प्रायश्चित्त आदि आभ्यन्तर तप के द्वारा शरीर को खूब तपाने से दुर्बल शरीर होकर भी रागद्वेष न करे । जिस प्रकार अक्ष (धुरा) के टूट जाने पर गाड़ी नहीं चलती है इसी प्रकार साधु भी आठ प्रकार के कर्मों का क्षय हो जाने से जन्म, जरा, मरण, रोग और शोक आदि प्रपञ्च रूप संसार में परिभ्रमण नहीं करता है । इसलिये आठ प्रकार के कर्मों का क्षय करने के लिये मुनि को निरन्तर प्रबल पुरुषार्थ करना चाहिए। त्तिबेमि इति ब्रवीमि । श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बू स्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन् जम्बू ! जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखारविन्द से सुना है वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ । किन्तु अपनी मनीषिका (बुद्धि) से नहीं कहता हूँ। । ॥ कुशील परिभाषा नामक सातवाँ अध्ययन समाप्त॥ ★ ★ ★ For Personal & Private Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर्य नामक आठवाँ अध्ययन पहले के अध्ययनों में कुशील (दुराचारी-पतित) और सुशील (सदाचारी, उत्तम) साधुओं का कथन किया गया है । संयम-वीर्यान्तराय कर्म के उदय से कुशीलपना होता है और संयम वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से सुशीलपना होता है अतः वीर्य (शक्ति) का स्वरूप बतलाने के लिये यह वीर्य नामक आठवाँ अध्ययन कहा जाता है । वीर्य के तीन भेद कहे गये हैं - बालवीर्य, बालपण्डित वीर्य और पण्डितवीर्य । पण्डितवीर्य से जीव धर्म कार्य में पुरुषार्थ करता है । अतः मोक्षार्थी पुरुषों को मोक्ष प्राप्ति के लिये संयम में पण्डित वीर्य के द्वारा पुरुषार्थ करना चाहिए । जड़ और चेतन दोनों में शक्ति है । इस शक्ति गुण के द्वारा दोनों अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं और शक्ति के द्वारा ही दोनों का परिणमन होता है अर्थात् जो द्रव्य के ध्रौव्य, उत्पाद और व्यय में सहायक होती है वही शक्ति है । पर जड़ और चेतन दोनों की शक्ति में भेद है-भिन्नता है । जड़ की शक्ति को साधारणतः गुण कहा जाता है और चेतन की शक्ति को वीर्य-शक्ति । जब चेतन के अस्तित्व में ही बल-वीर्य का प्रमुख हाथ है तब फिर चेतन-प्राणी के प्रत्येक कार्य में इसकी झलक मिलेगी ही। हाँ, यह बात दूसरी है कि अपने-अपने उपादान के आवरणअनावरण के कारण उसमें तर-तमता हो या उसकी गति के लक्ष्य विपरीत दशा में हो । पर प्रत्येक कार्य बिना शक्ति के सम्पादित नहीं हो सकते । भव-भ्रमण भी बल-वीर्य के द्वारा ही होता है और मुक्त भी बल-वीर्य के द्वारा हो सकते हैं । इसीलिए तत्त्व-विचारक कह बैठते हैं 'नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः' प्रस्तुत अध्ययन में बलवीर्य के दोनों रूपों का वर्णन किया गया है। दुहा वेयं सुयक्खायं, वीरियंति पवुच्चइ । किं णु वीरस्स वीरतं, कहं चेयं पवुच्चइ ? ।। १॥ कठिन शब्दार्थ - सुयक्खायं - स्वाख्यात-भली प्रकार प्रतिपादन किया हुआ, वीरियं - वीर्य, ति - इति, वीरस्स - वीरपुरुष की, वीरत्तं - वीरता (वीर्य) पवुच्चइ - कहा गया है, वा - अथवा, इयं - यह । भावार्थ - तीर्थंकर और गणधरों ने वीर्य के दो भेद कहे हैं। अब प्रश्न होता है कि वीर पुरुष की वीरता क्या है ? और वह क्यों वीर कहा जाता है ? For Personal & Private Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कम्ममेगे पवेदंति, अकम्मं वावि सुव्वया । एएहिं दोहि ठाणेहि, जेहिं दीसंति मच्चिया ॥२॥ कठिन शब्दार्थ - कम्मं - कर्म को, अकम्मं - अकर्म को, सुव्वया - सुव्रत, ठाणेहिं - स्थानों (भेदों) में, दीसंति - देखे जाते हैं, मच्चिया - मृत्यलोक के जीव ।। भावार्थ - श्री सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी आदि से कहते हैं कि हे सुव्रतो ! कोई कर्म को वीर्य कहते हैं और दूसरे अकर्म को वीर्य कहते हैं इस प्रकार वीर्य के दो भेद हैं । इन्हीं दो भेदों में मर्त्यलोक के सब प्राणी देखे जाते हैं । विवेचन - कई व्यक्ति क्रिया में प्रवृत्तिशील होने को ही वीरत्व मानते हैं और कर्म-त्याग-निर्वृत्ति को हीनता कायरता और दिमागी गुलामी आदि शब्दों से अभिहित करते हैं । कई व्यक्ति जो कि ईश्वर को कर्त्ता मानते हैं, वे कहते हैं - 'ईश्वर ही सबका स्रष्टा है । उसने ही वर्णाश्रम आदि धर्म बनाये हैं । अतः ईश्वर के द्वारा ही जिसको जो कर्म मिले हैं. उसे ही समर्पित करके उन्हें करते रहने में ही. आत्म सिद्धि के लिये सच्चा वीरत्व है ।' कई व्यक्ति-जो कि ईश्वर के अस्तित्व और परलोकादिं को नहीं मानते हैं-उनका यही मन्तव्य है कि-'अपने मन भाये ऐसे कार्य को करना ही सच्चा वीरत्व है; जिससे कि अपना भी भला हो और दूसरे का भी भला हो और सृष्टि का प्रवाह भी न रुके ।' इस तरह कई प्रकार की रुचि वाले अनेक प्रकार से प्रवृत्ति मार्ग का ही प्रतिपादन करते हैं । जब कि अनेकांतवादी ज्ञानी पुरुष कहते हैं-'बिना वीर्य के कोई भी कार्य नहीं होता है-चाहे वह संसार-प्रवाह की गति देने वाला कार्य हो या चाहे वह संसार-प्रवाह का शोषण करने वाला-मुक्ति के लिये किये जाने वाला कर्म हो । मानव की अपनी-अपनी रुचि के अनुसार ही उस वीर्य (बल) का लक्ष्य होता है । अत: कर्मवीर्य (प्रवृत्ति वीर्य) और निष्कर्मवीर्य (निवृत्ति वीर्य) ये लक्ष्यानुसार वीर्य के दो भेद मानना योग्य है ।' इस प्रकार मनुष्यों में ये दो विभाग दिखाई देते हैं। - कोई भी कार्य करना उसको वीर्य कहते हैं । अथवा आठ प्रकार के कर्मों को ही वीर्य कहते हैं क्योंकि जो औदयिक भाव से उत्पन्न होता है उसे कर्म कहते हैं और इसी को बाल वीर्य कहते हैं । वीर्य का दूसरा भेद यह है कि अकर्मा (जिसमें कर्म नहीं) यह वीर्यान्तराय कर्म के क्षय आदि से उत्पन्न जीव का स्वाभाविक वीर्य है । इसी को पण्डित वीर्य कहते हैं । यह जो सकर्मक और अकर्मक नाम के दो वीर्य के भेद बतलाये हैं । ये ही बाल वीर्य और पण्डित वीर्य है । संसारी समस्त प्राणी इन्हीं दो भेदों के अन्तर्गत होते हैं। पमा कम्म-माहंसु, अप्पमायं तहाऽवरं । तब्भावादेसओ वावि, बालं पंडियमेव वा ॥३॥ For Personal & Private Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ८ २०९ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कठिन शब्दार्थ - पमायं - प्रमाद को, कम्मं - कर्म, आहंसु - कहा है, अप्पमायं - अप्रमाद को, तब्भावादेसओ- सद्भाव की अपेक्षा से, बालं - बाल, पंडियं - पण्डित । भावार्थ - तीर्थंकरों ने प्रमाद को कर्म और अप्रमाद को अकर्म कहा है । अतः प्रमाद के होने से बाल वीर्य और अप्रमाद के होने से पण्डित वीर्य होता है । विवेचन - उपरोक्त गाथा में कारण में कार्य का उपचार करके कर्म को ही बाल वीर्य कहा है अब इस गाथा में कारण में कार्य का उपचार करके प्रमाद को ही कर्म रूप से बताया गया है धार्मिक कार्य को छोड़ कर पापकार्य में प्रवृत्त होना प्रमाद कहलाता है । प्रमाद के पांच भेद बतलाये गये हैं । यथा मजं विसय कसाया, निदा विगहा य पञ्चमी भणिया । एए पञ्च पमाया, जीवं पाति संसारे ।। अर्थ - शराब तमाखू आदि नशीले पदार्थों का सेवन करना, पांच इन्द्रियों के विषय में आसक्त होना, क्रोध आदि कषाय करना, नींद लेना और स्त्री कथा आदि विकथा करना । ये पांच प्रमाद हैं । इनका सेवन करना कर्म का कारण होने से इन पांच प्रमादों को कर्म कहा है और अप्रमाद को अकर्म कहा है. । प्रमाद के कारण जीव कर्म बांधता है इसी को बालवीर्य कहते हैं । प्रमाद रहित पुरुष के आचरण में कर्मबन्ध का अभाव होता है । इसलिये इसको पण्डितवीर्य कहते हैं । इनमें अभव्य जीवों का बालवीर्य अनादि और अनन्त होता है और भव्य जीवों का अनादि सान्त होता है तथा सादि सान्त भी होता है परन्तु पण्डित वीर्य सादि सान्त ही होता है । अतः ज्ञानी पुरुषों का कथन है कि वे पण्डित वीर्य में ही पुरुषार्थ करें। सत्थमेगे.तु सिक्खंता, अतिवायाय. पाणिणं । एंगे मंते अहिजंति, पाणभूय-विहेडिणो ॥४॥ कठिन शब्दार्थ - सत्थं - शस्त्र, सिक्खंता - सीखते हैं, अतिवायाय - मारने के लिये, मंते - मंत्रों का, अहिज्जति - अध्ययन करते हैं, पाणभूय विहेडिणो - प्राण-भूत को बाधा पहुंचाने वालेमारने वाले। भावार्थ - कोई बालजीव, प्राणियों का नाश करने के लिये शस्त्र तथा धनुर्वेदादि शास्त्रों क अभ्यास करते हैं और कोई प्राणियों के विनाशक मन्त्रों का अध्ययन करते हैं। विवेचन - इस गाथा का इस प्रकार भी अर्थ किया जाता है-कई व्यक्ति प्राणी-घात के लि शस्त्र विद्या सीखते हैं और कई व्यक्ति प्राण-भूतों को पराभूत-स्ववश करने के लिये मंत्र सीखते हैं धनुर्वेद कामशास्त्र आदि पापसूत्र है । इन्हें सीखना बालवीर्य है तथा जीव हिंसा के उपदेशक अथर्ववे.. - For Personal & Private Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 आदि के मन्त्रों को सीखना जिनमें कि अश्वमेध, पुरुषमेध और सर्वमेध आदि का वर्णन है । जैसा कि कहा है - ... षट् शतानि नियुज्यन्ते, पशूनां मध्यमेऽहनि । अश्वमेधस्य वचनान्न्यूनानि पशुभिस्त्रिभिः ॥ अर्थ - ऋग्वेद के अन्दर अश्वमेध यज्ञ के प्रकरण में लिखा है कि, अश्वमेध यज्ञ के वचनों के अनुसार बीच के दिन में तीन कम छह सौ अर्थात् ५९७ पशु यज्ञ में होम करने चाहिए । इत्यादि ग्रन्थों का अध्ययन करना वर्जनीय है । क्योंकि जीव हिंसा का उपदेश देने वाले पाप सूत्र हैं । माइणो कटु माया य, काम भोगे समारभे । हंता छेत्ता पगभित्ता, आयसायाणुगामिणो ॥५॥ __ कठिन शब्दार्थ - माइणो - मायावी, कामभोगे - कामभोगों को समारभे - आरम्भ करते हैं (सेवन करते हैं), हंता - हनन करने वाला, छेत्ता - छेदन करने वाला, पगभित्ता - काटने वाला आयसायाणुगामिणो - अपने सुख के अनुगामी हो कर ।। भावार्थ - कपटी जीव कपट के द्वारा दूसरे का धनादि हर कर विषय सेवन करते हैं तथा अपने . सुख की इच्छा करने वाले वे, प्राणियों का हनन छेदन और कर्त्तन करते हैं । अर्थात् मारते हैं, छेदन . भेदन करते हैं और नाक कान आदि काट लेते हैं । मणसा वयसा चेव, कायसा चेव अंतसो । आरओ परओ वावि, दुहा वि य असंजया ॥६॥ कठिन शब्दार्थ - अंतसो - अन्तशः-अन्त में अथवा मन से, आरओ - इस लोक के लिये, परओपर लोक के लिये, असंजया - असंयत.। - भावार्थ - असंयमी पुरुष मन, वचन और काया से तथा काया की शक्ति न होने पर मन वचन से इसलोक और परलोक दोनों के लिये स्वयं प्राणियों का घात करते हैं और दूसरों के द्वारा भी करवाते हैं । विवेचन - असंयमी मनुष्य मन, वचन और काया रूप तीन योग से तथा करने, कराने और अनुमोदन रूप तीन करण से प्राणियों का घात करते हैं। वे काया की शक्ति न होने पर भी तन्दुल मत्स्य की तरह मन से ही पाप कर्म करके कर्म बान्धते हैं। यह लौकिक शास्त्रों का कथन है ऐसा विचार कर इस लोक और परलोक के लिये स्वयं जीव घात करते हैं और दूसरों से भी करवाते हैं। अतः लौकिक शास्त्र पाप सूत्र कहे जाते हैं। For Personal & Private Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ............................. वेराइं कुव्वइ वेरी, तओ वेरेहि रज्जइ । पावोवंगा य आरंभा, दुक्खफासा य अंतसो ॥ ७ ॥ कठिन शब्दार्थ - वेराइं वैर, वेरी वैरी, रज्जइ अनुरक्त हो जाता है, पाओवगा पाप उत्पन्न करती है, दुक्खफासा - दुःख स्पर्श-दुःख देती है । भावार्थ - जीव हिंसा करने वाला पुरुष उस जीव के साथ अनेक जन्म के लिये वैर बांधता है क्योंकि दूसरे जन्म में वह जीव इसे मारता है और तीसरे जन्म में यह उसे मारता है इस प्रकार इनकी परस्पर वैर की परम्परा चलती रहती है तथा जीव हिंसा पाप उत्पन्न करती है और इसका विपाक दुःख भोग होता है । - - अध्ययन ८ - संपरायं नियच्छंति, अत्त- दुक्कड - कारिणो । राग - दोस स्सिया बाला, पावं कुव्वंति ते बहुं ॥ ८ ॥ कठिन शब्दार्थ - संपरायं साम्परायिक कर्म, णियच्छंति- बांधते हैं, अत्तदुक्कडकारिणो - स्वयं पाप करने वाले, रागदोस स्सिया - राग द्वेष के आश्रय से । भावार्थ- स्वयं पाप करने वाले जीव, साम्परायिक कर्म बाँधते हैं तथा रागद्वेष के स्थानभूत वे अज्ञानी बहुत पाप करते हैं । विवेचन कर्म को क्रिया कहते हैं। उस क्रिया के दो भेद हैं- ईर्यापथिकी और साम्परायिकी । कषाय को सम्पराय कहते हैं। दसवें गुणस्थान तक कषाय रहता है इसलिये दसवें गुणस्थान तक जीवों को साम्परायिकी क्रिया लगती है। कषाय से मलिन आत्मा वाले पुरुष रागद्वेष के आश्रय भूत होने से तथा सत् और असत् के विवेक से हीन होने के कारण वे बालक समान अज्ञानी है। उनका पुरुषार्थ बालवीर्य कहा जाता है। - २११ - . एयं सकम्मवीरियं, बालाणं तु पवेइयं । इतो अकम्मवीरियं, पंडियाणं सुणेह मे ।। ९॥ कठिन शब्दार्थ - सकम्मवीरियं - सकर्मवीर्य को, बालाणं- बालकों का अज्ञानियों का, अकम्मवीरियं - अकर्मवीर्य को, पंडियाणं पंडित पुरुषों का । भावार्थ - यह अज्ञानियों का सकर्मवीर्य्य कहा गया है अब यहां से पण्डितों का अकर्मवीर्य्य कहा जायेगा वह मुझसे सुनो । विवेचन - यह जो पहले कहा गया कि- प्राणियों का घात करने के लिये कोई शस्त्र और कोई शास्त्र (पापसूत्र) सीखते हैं तथा प्राणियों को पीड़ा देने वाली विद्या और मन्त्रों को सीखते हैं । एवं कितनेक कपटी नाना प्रकार का कपट करके काम भोग के लिये आरम्भ करते हैं तथा कितनेक ऐसा For Personal & Private Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ कर्म करते हैं कि जिससे बैर की परम्परा बढ़ती चली जाती है जैसे कि - जमदग्नि ने अपनी स्त्री के साथ अनुचित व्यवहार करने के कारण कृतवीर्य को जान से मार डाला था। इस बैर का बदला लेने के लिये कृतवीर्य के पुत्र कार्तवीर्य ने जमदग्नि को मार डाला फिर जमदग्नि के पुत्र परशुराम ने सारी पृथ्वी को सात बार क्षत्रिय रहित कर दिया। फिर कार्तवीर्य के पुत्र सुभूम ने सारी पृथ्वी को इक्कीस बार ब्राह्मणों से रहित कर दिया। इस प्रकार कषाय के वशीभूत पुरुष ऐसा कार्य करते हैं। इससे बेटे पोते और पड़पोते आदि तक बैर की परम्परा चलती रहती है। इस प्रकार प्रमादी और अज्ञानी पुरुषों का वीर्य कहा गया है। अब यहाँ से आगे पण्डित वीर्य का कथन किया जाता है। उसे तुम ध्यान पूर्वक सुनो। दव्विए बंधणुम्मुक्के, सव्वओ छिण्ण बंधणे । पणोल पावगं कम्मं, सलं कंतइ अंतसो ॥१०॥ कठिन शब्दार्थ - बंधणुम्मुक्के - बंधन से मुक्त, छिण्ण - नष्ट किया हुआ, पणोल्ल - छोड़ कर, सल्लं - शल्य को, कंतइ - काट देता है । भावार्थ - मुक्ति जाने योग्य पुरुष सब प्रकार के बन्धनों को काटकर एवं पाप कर्म को दूर करके आठ प्रकार के कर्मों को काट डालता है । .. विवेचन - गाथा में 'दविए' शब्द दिया है जिसका अर्थ है द्रव्य और द्रव्य का अर्थ है भव्य (द्रव्य शब्द का प्रयोग भव्य अर्थ में होता है) मुक्ति जाने के योग्य पुरुष को भव्य कहते हैं। अथवा रागद्वेष रहित होने के कारण जो पुरुष द्रव्यभूत अर्थात् कषाय रहित है वह द्रव्य कहलाता है वह पुरुष कषाय रूप बन्धन से छूटा हुआ है क्योंकि कषाय होने पर ही कर्म का स्थितिकाल बन्धता है जैसा कि बतलाया गया है "बंधट्टिई कसायवसा" अर्थात् बन्धन की स्थिति कषाय के वश होती है। इसलिये कषाय रहित पुरुष बन्धन से छूटे हुए पुरुष के समान होने के कारण बन्धन मुक्त एवं छिन्नबन्धन है यहाँ पर "सल्लं कंतइ अप्पणो" ऐसा पाठान्तर भी मिलता है इसका अर्थ है कांटे की तरह अपनी आत्मा के साथ लगे हुए आठ कर्मों को वह पुरुष काट देता है। णेयाउयं सुयक्खायं, उवादाय समीहए । भुजो भुज्जो दुहावासं, असुहत्तं तहा तहा ॥११॥ . कठिन शब्दार्थ - णेयाउयं - नैयायिक-नेता मोक्ष की ओर ले जाने वाला, उवादाय - ग्रहण कर, समीहए - समीहते-मोक्ष के लिए पुरुषार्थ करता है, दुहावासं - दुःखावास, असुहत्तं - अशुभ ।। भावार्थ - सम्यग् ज्ञान दर्शन और चारित्र मोक्ष को प्राप्त कराने वाले हैं यह तीर्थंकरों ने कहा है । इसलिये बुद्धिमान् पुरुष इन्हें ग्रहण कर मोक्ष की चेष्टा करते हैं । बाल वीर्य्य, जीव को बार बार दुःख देता है और ज्यों ज्यों बालवीर्य्य वाला जीव दुःख भोगता है त्यों त्यों उसका अशुभ विचार बढ़ता जाता है । For Personal & Private Use Only | Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन८ २१३ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 विवेचन - जो अच्छे रास्ते से ले जाता है उसको नेता या नायक कहते हैं । सम्यग् ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र रूप मोक्ष का मार्ग है अथवा श्रुत और चारित्र रूप धर्म मोक्ष का मार्ग है । इसलिये इसको मोक्ष मार्ग का नेता कहा है। अतः बुद्धिमान् पुरुष उसे ग्रहण करके धर्म ध्यान आदि में प्रयत्न करते हैं। बालवीर्य वाला जीव नरक आदि दुर्गतियों में भटकता फिरता है और उसका अध्यवसाय अशुभ होने से अशुभ कर्म ही बन्धता है। इसीलिये शास्त्रकार ने इसको दुःखावास कहा है। दुःखावास के कारणभूत बालवीर्य को छोड़कर सुखावास के कारणभूत पण्डितवीर्य में पुरुषार्थ करना चाहिए। ठाणी विविह-ठाणाणि, चइस्संति ण संसओ । अणियए अयं वासे, णायएहि सुहीहि य ।।१२॥ कठिन शब्दार्थ - ठाणी - स्थानी, विविह ठाणाणि - विविध स्थानों को, चइस्संति - छोडेंगे, संसओ - संशय, अणियए - अनित्य, वासे - वास, णायएहि - ज्ञातिजनों के साथ, सुहीहि - मित्रों के साथ । भावार्थ - स्थानों के अधिपति लोग एक दिन अवश्य अपने स्थानों को छोड़ देंगे तथा ज्ञाति और मित्रों के साथ संवास को भी छोड़ देंगे क्योंकि यह भी अनित्य है । - विवेचन - संसार में उत्तम, मध्यम और निकृष्ट ये तीन प्रकार के स्थान हैं। देवलोक में इन्द्र, सामानिक तथा मनुष्य लोक में चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि के स्थान उत्तम एवं उच्च पद वाले हैं। मध्य पद में माण्डलिक राजा, सेठ, सार्थवाह आदि हैं। इनके अतिरिक्त सब निकृष्ट स्थान हैं। इन सब के अधिपति एक दिन अपने स्थान को अवश्य छोड़ देते हैं। एवमादाय मेहावी, अप्पणो गिद्धिमुद्धरे । आरियं उवसंपज्जे, सव्व-धम्म-मकोवियं ॥१३॥ कठिन शब्दार्थ - गिद्धिं - गृद्धि (आसक्ति) को, उद्धरे- छोड़ दे, आरियं - आर्य धर्म को, उवसंपजे - ग्रहण करे, सव्वधम्म- सब धर्मों को, अकोवियं- अकोपित-अदूषित। भावार्थ - सभी उच्चपद अनित्य हैं यह जान कर विवेकी पुरुष अपनी ममता को उखाड़ देवे तथा सब कुतीर्थिक धर्मों से अदूषित इस आर्य धर्म को (श्रुत और चारित्र को) ग्रहण करे । विवेचन - मेधावी अर्थात् भले बुरे का विवेक रखने वाला एवं मर्यादा में रहने वाला पुरुष ऐसा विचार करे कि संसार के सभी पदार्थ अनित्य है। ऐसा विचार कर ममता का त्याग कर दे तथा "यह वस्तु मेरी है और मैं उसका स्वामी हूँ" इस प्रकार के अहंकार को भी त्याग दे । जो सभी पापों से रहित है उसे आर्य धर्म कहते हैं अथवा तीर्थङ्कर आदि आर्य पुरुषों द्वारा प्ररूपित धर्म को आर्यधर्म कहते For Personal & Private Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 हैं। ऐसा मार्ग सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन और सम्यक् चारित्र रूप मोक्ष मार्ग है। बुद्धिमान् पुरुष उसी को ग्रहण करे। ३६३ पाखण्डं मत कुतीर्थिक मत कहलाते हैं उनसे यह किसी भी प्रकार से खण्डित नहीं किया जा सकता है । यही इस स्याद्वाद एवं अनेकान्त वाद रूप मोक्ष मार्ग की विशेषता है । . ... सह संमइए णच्चा, धम्म-सारं सुणेत्तु वा । समुवट्ठिए उ अणगारे, पच्चक्खाय-पावए ।॥१४॥ कठिन शब्दार्थ - सह - साथ, संमइए - सन्मति अर्थात् निर्मल बुद्धि के द्वारा, धम्मसारं - धर्म के सार को, सुणेत्तु - सुन कर, समुवट्ठिए - आचरण के लिए उपस्थित, पच्चक्खायपावए - पाप का प्रत्याख्यान करने वाला। भावार्थ - सन्मति अर्थात् निर्मल बुद्धि के द्वारा अथवा गुरु आदि से सुनकर धर्म के सत्य स्वरूप को जानकर ज्ञान आदि गुणों के उपार्जन में प्रवृत्त साधु पाप को छोड़कर निर्मल आत्मा वाला होता है । विवेचन - गाथा में 'संमइए' शब्द दिया है। जिसका अर्थ है सत्-मति (सन्मति) अथवा स्वमति। अपने विशिष्ट मतिज्ञान, श्रुतज्ञान एवं अवधिज्ञान द्वारा अथवा तीर्थङ्कर, गणधर एवं आचार्य भगवन्तों आदि द्वारा धर्म के स्वरूप को सुन कर धर्म के सार रूप चारित्र को प्राप्त करना चाहिए। . चारित्र को प्राप्त करके पहले बांधे हुए कर्मों का क्षय करने के लिये पण्डित वीर्य द्वारा साधु उत्तरोत्तर गुणों की वृद्धि करता हुआ एवं पाप का प्रत्याख्यान करके निर्मल बनकर मुक्ति को प्राप्त करे । . जं किंचुवक्कम जाणे, आउक्खेमस्स अप्पणो । तस्सेव अंतरा खिप्पं, सिक्खं सिक्खेज्ज पंडिए ॥१५॥ कठिन शब्दार्थ - किंच - कुछ भी, उवक्कम - कोई उपक्रम, आउखेमस्स - आयु क्षेम का, तस्सेव अंतरा - उसके अंतर में ही, खिप्पं - शीघ्र, सिक्खं - संलेखना रूप शिक्षा का, सिक्खेजसेवन करे । भावार्थ - विद्वान् पुरुष किसी प्रकार अपनी आयु का क्षयकाल यदि जाने तो उसके पहले ही संलेखना रूप शिक्षा को ग्रहण करे । विवेचन - जिससे आयु क्षय को प्राप्त होती है उसे उपक्रम कहते हैं। यदि साधु किसी प्रकार अपनी आयुष्य का उपक्रम (विनाश का कारण) जान ले। उसे जानकर आकुल-व्याकुल न बने तथा लम्बे जीवन की आकांक्षा से रहित होकर संलेखना आदि करके पण्डित मरण को स्वीकार करे। पण्डित मरण के तीन भेद बतलाये गये हैं - भक्त परिज्ञा (तिबिहार अथवा चौविहार) तथा इङ्गित मरण या इङ्गणीमरण (मर्यादित जगह में शरीर के अवयवों को चलाना फिराना आदि छूट रखकर चौविहार) तथा पादपोपगमन (कटी हुई वृक्ष की डाली की तरह शरीर के किसी भी अवयव को हिलाये डुलाये बिना For Personal & Private Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ८ . . २१५ निश्चल रहना) इन तीनों पण्डित मरणों में से किसी एक पण्डित मरण को स्वीकार करके आयुष्य को पूरा करे एवं धर्मध्यान और शुक्लध्यान में तल्लीन रहे। .. जहा कुम्मे सअंगाई, सए देहे समाहरे । एवं पावाई मेहावी, अझप्पेण समाहरे ॥१६॥ कठिन शब्दार्थ - कुम्मे - कूर्म-कछुआ, सअंगाई - अपने अंगों को, देहे - शरीर में, समाहरे - समेट लेता है, अज्झप्पेण - अध्यात्म-शुभ ध्यान से । ___ भावार्थ - जैसे कछुआ अपने अङ्गों को अपनी देह में संकुचित कर लेता है इसी तरह विद्वान् . पुरुष धर्म ध्यान की भावना से अपने पापों को संकुचित कर दे अर्थात् अपनी आत्मा को पापों से सर्वथा दूर रखे। साहरे हत्थपाए य, मणं पंचेंदियाणि य । पावगं च परीणामं, भासा-दोसंच तारिसं ।।१७॥ कठिन शब्दार्थ-साहरे - संकुचित (संयमित) रखे, पावर्ग- पाप रूप, परीणाम - परिणाम को, भासादोसं-भाषा के दोषों का। ___भावार्थ - साधु अपने हाथ पैर को स्थिर रखे जिससे उनके द्वारा किसी जीव को दुःख न हो तथा मन के द्वारा बुरा संकल्प और पांच इन्द्रियों के विषयों में रागद्वेष तथा पाप परिणाम और पापमय भाषा दोष को वर्जित करे । विवेचन - आत्म-साधना के लिये कायिक स्थिरता पर भी अधिक जोर दिया गया है । शरीर की चंचलता चंचल मन की निशानी है । अतः शारीरिक चंचलता पर काबू पाकर कितने ही अंशों में मन पर भी काबू किया जा सकता है । यह बात पाश्चात्य विद्वान् भी मानते हैं। “A would be psychologist must first learn, not to make any movement of the body with out any reason." अर्थात्जो व्यक्ति मानसिक शक्ति से सम्पन्न होना चाहता है वह पहले यह सीखे कि अकारण अपना अंग संचालित न होने दे। अणु माणं चं मायं च, तं परिणाय पंडिए । साया-गारव-णिहुए, उवसंते णिहे चरे ।। १८॥ कठिन शब्दार्थ - अणु - अणुमात्र-थोड़ा भी, परिण्णाय - जान कर, साया-गारव-णिहुए - सुखशीलता से रहित, उवसंते - उपशांत, अणिहे - माया रहित । भावार्थ - साधु थोड़ा भी मान और माया न करे । मान और माया का फल बुरा है इस बात को For Personal & Private Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ . 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 जानकर पण्डित पुरुष, सुखभोग की तृष्णा न करे एवं क्रोधादि को छोड़ शान्त और माया रहित होकर विचरे । विवेचन - संयम में अच्छा पुरुषार्थ करते हुए उत्तम साधु को देखकर यदि कोई चक्रवर्ती आदि यदि साधु की सत्कार सन्मान आदि रूप पूजा करे तो साधु थोड़ा भी अहंकार न करें तथा मैं उत्तम मरण में उपस्थित हूँ एवं उग्र तपस्या करने से मेरा शरीर कितना दुर्बल हो गया है इस प्रकार थोड़ा भी गर्व न करे इस प्रकार क्रोध और लोभ भी न करे। यहाँ पर पाठान्तर इस प्रकार मिलता है "अइमाणं च मायं च तं परिण्णाय पंडिए" __ अर्थ - पण्डित पुरुष अत्यन्त मान और माया के स्वरूप को जानकर उसका भी परित्याग कर दे। दूसरा पाठान्तर भी मिलता है - "सुयं मे इहमेगेसिं, एयं वीरस्स वीरियं" अर्थ - युद्ध के अग्रभाग में बड़े-बड़े सुभट पुरुषों के समूह में जिस बल के द्वारा शत्रु की सेना जीत ली जाती है, वस्तुतः वह वीर्य नहीं है किन्तु जिसके द्वारा काम क्रोध एवं रागद्वेष जीत लिये जाते हैं वही पुरुष का सच्चा वीर्य है ऐसा तीर्थङ्कर भगवन्तों के द्वारा फरमाया हुआ वाक्य मैंने सुना है। अथवा "आयतटुंसु आदाय, एवं वीरस्स वीरियं" । अर्थ - यहाँ पर आयत शब्द का अर्थ है मोक्ष । उस मोक्ष रूप अर्थ को अथवा उस मोक्ष को देने वाले सम्यग् ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप मोक्ष मार्ग को आयतार्थ कहते हैं। उसको प्राप्त करने के लिये जो पुरुषार्थ किया जाता है वही वास्तविक वीर्य है। इस पण्डित वीर्य के द्वारा पुरुषार्थ करके मोक्ष प्राप्त करना, यही वीर पुरुष की वीरता है। पाणे य णाइवाएग्जा, अदिण्णं पि य णायए । साइयं ण मुसं बुया, एस धम्मे वुसीमओ ॥१९॥ कठिन शब्दार्थ - ण - नहीं, अइवाएजा - घात करे, अदिण्णं - अदत्त, आयए - ग्रहण करे, . साइयं - कपट सहित, मुसं-झूठ, बुया-बोले, वुसीमओ - जितेन्द्रिय पुरुष मुनि का । भावार्थ- प्राणियों की हिंसा न करे तथा न दी हुई चीज न लेवे एवं कपट के साथ झूठ न बोले, जितेन्द्रिय पुरुष का यही धर्म है । विवेचन - इस गाथा में हिंसा, झूठ और चोरी इन तीन का ही ग्रहण किया गया है किन्तु यह तो उपलक्षण मात्र है किन्तु हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पांचों का त्याग रूप पांच ही महाव्रतों का ग्रहण कर लेना चाहिए। ___ इस गाथा में "साइयं ण मुसं बुया" शब्द दिया है इस पाठ की टीका करते हुए लिखा है - For Personal & Private Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ८ २१७ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 ____ सादिकं-समायं मृषावादं न ब्रूयात्, तथाहि परवञ्चनार्थं मृषावादोऽधिक्रियते, स च न मायामन्तरेण भवतीत्यतो मृषावादस्य माया आदिभूता वर्तते, इदुमुक्तं भवति-यो हि परवञ्चनार्थ समायो मृषावादः स परिहियते, यस्तु संयमगुप्त्यर्थं "न मया मृगा उपलब्धा" इत्यादिकः स न दोषाय इति । अर्थ - दूसरे को ठगने के लिये जो झूठ कपट के साथ बोला जाता है उसी का निषेध यहाँ पर किया गया है। परन्तु संयम की रक्षा के निमित्त जो झूठ बोला जाता है उसका निषेध नहीं किया गया है। जैसे कि विहार कर आते हुए मुनियों से मार्ग में सामने से कोई शिकारी आकर यह पूछे कि क्या आपने इधर से जाते हुए हिरणों को देखा है क्या ? तो मुनि कह दे कि हमने नहीं देखा है। यह वचन झूठ होते हुए भी दोष के लिये नहीं है। क्योंकि यह संयम रक्षार्थ और जीव रक्षार्थ झूठ बोला गया है। समाधान-टीकाकार का उपरोक्त लिखना आगमानुकूल नहीं है क्योंकि दशवैकालिक सूत्र अध्ययन ६ की गाथा इस प्रकार है - अप्पणट्ठा परट्ठा वा, कोहा वा जइ वा भया। हिंसगंण मुसंबूया, णो वि अण्णं वयावए ॥१२॥ - अर्थ - अपने लिये अथवा दूसरों के लिये क्रोध, मान, माया लोभ, हास्य और भय के वशीभूत होकर स्वयं झूठ न बोले, न दूसरों से बुलवावे और झूठ बोलने वालों का अनुमोदन भी न करे क्योंकि झूठ बोलना दूसरों के लिये पीड़ाकारी होता है तथा दशवैकालिक सूत्र के सातवें सुवाक्यशुद्धि नामक अध्ययन में कहा है - चउण्हं खलु भासाणं, परिसंखाय पण्णवं। 'दुण्हं तु विणयं सिक्खे, दो ण भासिज सव्वसो ॥ अर्थ- बुद्धिमान् साधु सत्य, असत्य, मिश्र और व्यवहार इन चार भाषाओं के स्वरूप को भली प्रकार जान कर सत्य और व्यवहार, इन दो भाषाओं का विवेक पूर्वक उपयोग करना सीखे और असत्य और मिश्र इन दो भाषाओं को सभी प्रकार से नहीं बोले। ... इस गाथा में "सव्वसो" शब्द दिया है जिसका अर्थ है सर्वथा प्रकार से झूठ न बोले अर्थात् प्राणान्त कष्ट आ जाय तो भी झूठ न बोले। - शास्त्रकार का जब ऐसा स्पष्ट निर्देश है तब फिर टीकाकार का यह लिखना कि संयमार्थ और जीवरक्षार्थ झूठ बोल जाय यह कैसे ठीक हो सकता है। यह इस आगम पाठ से सर्वथा विपरीत है। आचाराङ्ग सूत्र दूसरा श्रुतस्कन्ध के ईर्या नामक तीसरे अध्ययन में - For Personal & Private Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 "जाणं वा णो जाणं ति वदेजा।" ऐसा पाठ आया है अनुमान ऐसा लगता है कि इस पाठ को लक्ष्य करके टीकाकार ने उपरोक्त अर्थ लिख दिया है परन्तु इस पाठ की पूर्वापर संगति को देखते हुए ऐसा अर्थ करना आगमानुकूल है कि जानता हुआ भी मैं जानता हूँ ऐसा न कहे. अर्थात् मौन रहे। ऐसा अर्थ करने से ही साधु का व्रत निर्मल रह सकता है। जैसा यह आलापक है ऐसे इसी अध्ययन में दूसरे आलापक भी हैं। जैसे कि अमुक गांव यहाँ से कितना दूर है ? अमुक गांव का राजा कौन है ? इत्यादि प्रश्नों के उत्तर में भी यही पाठ आया है ( जाणं वाणो जाणं ति वदेजा) इसलिये उपरोक्त आलापक का भी यही अर्थ करना चाहिए कि साधु जानता हुआ भी मैं जानता हूँ ऐसा उत्तर न दे किन्तु मौन रहे। दीक्षा ग्रहण करते समय झूठ बोलने का तीन करण तीन योग से त्याग किया था। इस व्रत का पालन जीवन पर्यन्त करे। अतिक्कम्मं ति वायाए, मणसा वि ण पत्थए । सव्वओ संवुडे दंते, आयाणं सुसमाहरे ॥२०॥ कठिन शब्दार्थ-अतिक्कम्म- अतिक्रम, पत्थए - इच्छा करे, संवुडे - संवृत, दंते - दान्त, इन्द्रियों का दमन करने वाला, आयाणं - आदान-उपादान, सुसमाहरे - अच्छी तरह से ग्रहण करे। .. भावार्थ - वाणी या मन से किसी जीव को पीडा देने की इच्छा न करे किन्तु बाहर और भीतर से गुप्त और इन्द्रियों का दमन करता हुआ साधु अच्छी रीति से संयम का पालन करे । विवेचन - व्रत के चार दोष हैं - अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार। यहाँ पर अतिक्रम का अर्थ है व्रत की मर्यादा का उल्लंघन करना। मुनि का पहला महाव्रत है-प्राणातिपात विरमण। प्राणियों को पीड़ा देना अर्थात् मन, वचन, काया से पीड़ा देना, पीड़ा दिलवाना और अनुमोदन करना इन तीनों करणों से और तीनों योगों से प्राणातिपात आदि पाप क्रिया न करे तथा सब प्रकार से बाहर और भीतर से गुप्त और इन्द्रियों का दमन करता हुआ साधु मोक्ष देने वाले सम्यग्-दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि का तत्परता के साथ पालन करे। कडं च कज्जमाणं च, आगमिस्सं च पावगं । सव्वं तं णाणुजाणंति, आयगुत्ता जिइंदिया ।। २१॥ कठिन शब्दार्थ - कडं - कृत-किया हुआ, कजमाणं - क्रियमाण-किया जाता हुआ, आगमिस्संभविष्य में किया जाने वाला, ण - नहीं, अणुजाणंति - अनुमोदन करते हैं, आयगुत्ता - आत्मगुप्तगुप्तात्मा, जिइंदिया - जितेन्द्रिय । भावार्थ - अपनी आत्मा को पाप से गुप्त रखने वाले जितेन्द्रिय पुरुष किसी के द्वारा किये हुए तथा किये जाते हुए और भविष्य में किये जाने वाले पाप का अनुमोदन नहीं करते हैं । For Personal & Private Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन८ २१९ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 विवेचन - अकुशल (पापकारी) मन, वचन और काया को रोक कर जिन्होंने अपनी आत्मा को निर्मल रखा है तथा जिन्होंने पांच इन्द्रियों को वश किया है ऐसे महापुरुष प्राणातिपात से लेकर मिथ्या दर्शन शल्य तक अठारह ही पापों का भूत, वर्तमान और भविष्यत्काल सम्बन्धी पाप कार्य करे नहीं, करावे नहीं, करते हुए को भला जाने नहीं मन, वचन, काया से। इस प्रकार पापकार्य का तीन करण तीन योग से त्याग होता है। जे याऽबुद्धा महाभागा, वीरा असमत्त-दंसिणो । असुद्धं तेसिं परवंतं, सफलं होइ सव्वसो ।। २२॥ कठिन शब्दार्थ - अबुद्धा - अबुद्ध-धर्म के रहस्य को नहीं जानने वाले, महाभागा - महाभाग (महापूज्य) असमत्तदंसिणो - असम्यक्त्वदर्शी, असुद्धं - अशुद्ध, परक्कंतं - पराक्रम, सफलं - सफल-कर्म बंध युक्त । . . ___ भावार्थ - जो पुरुष लोक पूज्य तथा बड़े वीर हैं वे यदि धर्म के रहस्य को न जानने वाले मिथ्या दृष्टि हैं तो उनका किया हुआ सभी तप दान आदि अशुद्ध हैं और वह कर्म बन्धन को उत्पन्न करता है । जे य बुद्धा महाभागा, वीरा समत्तदंसिणो । . सुद्धं तेसिं परवंतं, अफलं होइ सव्वसो ॥२३॥ कठिन शब्दार्थ - बुद्धा - बुद्ध-तत्त्व को जानने वाले, समत्तदंसिणो - सम्यक्त्वदर्शी, अफलं - अफल-कर्म बंध रहित। भावार्थ - जो वस्तु तत्त्व को जानने वाले महापूजनीय एवं कर्म को विदारण करने में समर्थ सम्यग्दृष्टि हैं उनका तप आदि अनुष्ठान शुद्ध तथा कर्म के नाश के लिये होता है । ..विवेचन - स्वयंमेव बोध को प्राप्त हुए तीर्थङ्कर तथा उनके उपदेश से बोध पाये हुए बुद्धबोधित गणधर आदि जों कर्म विदारण करने में समर्थ है, ज्ञानादि गुणों से युक्त है तथा वस्तु के सच्चे स्वरूप को जानने और देखने वाले हैं उन महापुरुषों का तप-जप, यम, नियम आदि क्रिया कर्म बन्ध के प्रति निष्फल होती है। वह संसार परिभ्रमण रहित केवल निर्जरा के लिये होती है। क्योंकि सम्यग् दृष्टियों की सभी क्रियाएं संयम और तप प्रधान होती है। उसमें संयम से आस्रव का निरोध होता है और तप से निर्जरा होती है। जैसा कि भगवती सूत्र का पाठ है - "संजमे अणण्हयफले तवे वोदाणफले" अर्थ - संयम से आने वाले आस्रवों का निरोध होता है और तप से पूर्व संचित आस्रवों की निर्जरा होती है। तेसिं पि ण तवो सुद्धो, णिक्खंता जे महाकुला । जंणेवण्णे वियाणंति, ण सिलोगं पवेज्जए ।। २४॥ For Personal & Private Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ . कठिन शब्दार्थ - तवो - तप, सुद्धो - शुद्ध, णिक्खंता - अभिनिष्क्रमण कर, महाकुला - बड़े कुलों से, अण्णे- दूसरे लोग, सिलोगं - प्रशंसा । भावार्थ - जो लोग बड़े कुल में उत्पन्न होकर अपने तप की प्रशंसा करते हैं अथवा पूजा सत्कार .. पाने के लिये तप करते हैं उनका भी तप अशुद्ध है अतः साधु अपने तप को इस प्रकार गुप्त रखे जिसमें दान में श्रद्धा रखने वाले लोग न जाने तथा साधु अपने मुख से अपनी प्रशंसा भी न करे । । विवेचन - जिनका इक्ष्वाकु आदि बड़ा कुल है तथा शूरवीरता आदि के द्वारा जिनका यश जगत् में फैला हुआ है उनका तप भी यदि पूजा और सत्कार पाने की इच्छा से किया गया हो तो वह तप अशुद्ध हो जाता है अतः आत्मार्थी पुरुषों को चाहिए कि उसके तप को लोग न जान सके। इस प्रकार गुप्त रखे तथा वह अपने तप की प्रशंसा भी न करें कि "मेरा उत्तम कुल है, मेरा धनवन्तों के यहां जन्म हुआ है और अब तप से अपने शरीर को तपाने वाला उत्कृष्ट तपस्वी हूँ।" इस प्रकार अपने आप प्रगट करके अपने अनुष्ठान को निःसार न बनावे। . अप्प-पिंडासि-पाणासि, अप्पं भासेज्ज सुव्वए। खंतेऽभिणिव्वुडे दंते, वीतगिद्धी सया जए ॥२५॥ कठिन शब्दार्थ - अप्प - थोड़ा, पिंडासि - आहार करे, पाणासि - जल पीवे, भासेज - : बोले, सुव्वए - सुव्रत, खंते - क्षमाशील, अभिणिव्वुडे - शांत, दंते - दांत, वीतगिद्धी - आसक्ति रहित, जए - संयम में रत रहे । भावार्थ - साधु उदर निर्वाह मात्र के लिये थोड़ा भोजन करे एवं थोड़ा जल पीवे । थोड़ा बोले तथा क्षमाशील और लोभादि रहित, जितेन्द्रिय एवं विषय भोग में अनासक्त रहा हुआ सदा संयम का अनुष्ठान करे । विवेचन - जो ग्रास (कुवा-कवल) मुख में सरलता पूर्व आ सके, आँख आदि विकृत न बने, गाल न फूल जाय इस प्रकार के कवल को कुकुटी अण्डक प्रमाण कहा है। जिस साधु-साध्वी का जितना आहार होता है अर्थात् जितने आहार से उसकी उदर पूर्ति होकर तृप्ति हो जाय उतने आहार को बत्तीस कवल प्रमाण कहा है अर्थात् पुरुष के लिये बत्तीस, स्त्री के लिए अट्ठाईस और नपुंसक के लिये चौबीस कवल प्रमाण आहार प्रमाणोपेत कहा गया है। इससे कम आहार करना ऊणोदरी तप कहलाता है। साधु-साध्वी को हमेशा ऊणोदरी तप ही करना चाहिए। जिससे शरीर स्वस्थ रहे, मन की शान्ति बनी रहे और स्वाध्याय में चित्त सरलता से लगा रहे। इसी तरह पानी में कुछ कमी रखना पानक ऊणोदरी है अतः साधु को एक-एक कवल घटाने का अभ्यास करके सदा ऊणोदरी तप करना चाहिए। इसी तरह पानी और दूसरे उपकरणों में भी ऊणोदरी करनी चाहिए। For Personal & Private Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ८ २२१ झाणजोगं समाहट्ट, कायं विउसेज सव्यसो । तितिक्खं परमं णच्चा, आमोक्खाए परिव्वएग्जासि ॥त्ति बेमि ॥ २६ ॥ कठिन शब्दार्थ - झाणजोगं - ध्यान योग को, समाहट्ट- स्वीकार कर, विउसेज - व्युत्सर्ग करे, तितिक्खं - तितिक्षा को, आमोक्खाए - मोक्ष पर्यंत, परिव्वएजासि - संयम का पालन करे। भावार्थ - साधु ध्यान योग को ग्रहण करके सभी बुरे व्यापारों से शरीर तथा मन वचन को रोक देवे । एवं परीषह और उपसर्ग के सहन को अच्छा जानकर मोक्ष की प्राप्ति पर्य्यन्त संयम का अनुष्ठान करे । - विवेचन - मन, वचन और काया के विशिष्ट व्यापार को ध्यान योग कहते हैं । इस ध्यान योग को अच्छी तरह से ग्रहण करके अकुशल योग (बुरे कार्य) में जाते हुए मन, वचन काया के योगों को रोके। परीषह उपसर्गों को समभाव पूर्वक सहन करे एवं सब कर्मों के क्षय होने तक संयम में प्रबल पुरुषार्थ करता रहे। . त्ति बेमि - इति ब्रवीमि - श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि - हे आयुष्मन् जम्बू ! जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखारविन्द से सुना है वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ। अपनी बुद्धि से कुछ नहीं । ॥वीर्य नामक आठवाँ अध्ययन समाप्त॥ * ** For Personal & Private Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म नामक नववां अध्ययन धर्म क्या है ? धर्म की जरूरत क्यों है ? आदि चिरंतन प्रश्न, जबसे मानव के हृदय में विकास की जिज्ञासा जगी, तब से होते आ रहे हैं और यह भी नहीं कह सकते कि इन प्रश्नों का सर्वथा अभाव हो जायगा अर्थात् ये प्रश्न सामूहिक अपेक्षा से अनादि अनन्त हैं । इन प्रश्नों का हल व्यक्ति की अपेक्षा से होता है और वे अपने-अपने विकास के अनुसार उत्तर प्राप्त करते हैं इस प्रकार धर्म के अनेक रूप हो जाते हैं । मानसिक कल्पना और बौद्धिक तरतमता धर्म को विचित्र रूप दे देती है । अतः सत्य के विश्वासी के लिये अथवा जो समझ, विश्वास और आचरण की क्षायोपशमिकता से अनभिज्ञ है उसके सामने यह प्रश्न और अधिक ज्वलंत हो उठता है किं धर्म क्या है ? उसकी क्या जरूरत है ? * आठवें अध्ययन में बाल वीर्य और पण्डित वीर्य इन दो प्रकार के वीर्यों (शक्ति) का वर्णन : किया गया है। धर्म में किये गये पुरुषार्थ को पण्डित वीर्य कहते हैं। इस अध्ययन में तथा आगे के दो अध्ययनों (दसवें और ग्यारहवें ) में धर्म का स्वरूप बतलाया जायेगा। धर्म का लक्षण बतलाते हुए कहा है - दुर्गतौ पततः जीवान् यस्माद् धारयते ततः । धत्ते चैतान् शुभे स्थाने, तस्माद् धर्मः इति स्मृतः ॥ अर्थ - दुर्गति में जाने की तैयारी में स्थित जीवों को दुर्गति से बचा कर जो सुगति में स्थापित करता है उसको धर्म कहते हैं। इस धर्म का स्वरूप दशवैकालिक सूत्र के पहले तथा छठे अध्ययन में विस्तार पूर्वक बतलाया गया है। इस धर्म के दो भेद हैं श्रुत धर्म और चारित्र धर्म । अथवा क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि दस भेद भी बतलाये गये हैं और इसी को भाव समाधि भी कहा है। क्योंकि क्षमा आदि गुणों को अपनी आत्मा में स्थापित करना भाव समाधि है और इस को भाव धर्म भी कहते हैं। भाव धर्म के दूसरी तरह से दो भेद किये हैं लौकिक और लोकोत्तर । . लौकिक धर्म दो प्रकार का है- एक गृहस्थों का और दूसरा पाषण्डियों का । लोकोत्तर धर्म के तीन भेद हैं ज्ञान, दर्शन और चारित्र । इनमें मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यव और केवल के भेद से ज्ञान पांच प्रकार का है। दर्शन ( समकित ) भी पांच प्रकार का हैं ग्रंथा औपशमिक, सास्वादन, क्षायोपशमिक, वेदक और क्षायिक । चारित्र भी पांच प्रकार का है - सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्म सम्पराय और यथाख्यात । मुनि को लोकोत्तर धर्म में पुरुषार्थ करना चाहिए । अब धर्म का स्वरूप बतलाने के लिये शास्त्रकार गाथा का उच्चारण करते हैं। For Personal & Private Use Only - - Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. अध्ययन ९ २२३ कयरे धम्मे अक्खाए, माहणेण मइमया । अंजु धम्मं जहातच्चं, जिणाणं तं सुणेह मे ॥१॥ कठिन शब्दार्थ - कयरे - कौनसा, धम्मे - धर्म, अक्खाए - कहा है, माहणेण - जीवों को न मारने का उपदेश देने वाले, मइमया - मतिमान् (केवलज्ञानी), अंजु - ऋजु (सरल) जहातच्चयथातथ्य, जिणाणं- जिनेश्वरों के। ___ भावार्थ - केवलज्ञानी तथा जीवों को न मारने का उपदेश करने वाले भगवान् महावीर स्वामी ने कौनसा धर्म कहा है ? यह जम्बू स्वामी आदि का प्रश्न सुनकर श्री सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि जिनवरों के सरल उस धर्म को मेरे से सुनो। ... विवेचन - 'माहन' शब्द का अर्थ है मा-मत, हन-मारो। किसी भी जीव को मत मारो, ऐसा जो उपदेश देते हैं उनको माहन कहते हैं। यहाँ पर यह विशेषण भगवान् महावीर स्वामी के लिये है। गाथा में - 'मतिमता' जो शब्द दिया है इसे यहां पर मतिज्ञान नहीं समझना किन्तु यहां पर मति शब्द से केवलज्ञान का ग्रहण किया गया है। जो रागद्वेष को सर्वथा जीत लेता है । उसे जिन कहते हैं। इन सब विशेषणों को भगवान् महावीर के लिये प्रयुक्त किया गया है। श्री जम्बूस्वामी ने अपने धर्माचार्य श्री सुधर्मास्वामी से प्रश्न किया है कि माहन, मतिमान् (केवलज्ञानी) जिन (रागद्वेष को जीतने वाला) भगवान् महावीर स्वामी ने कौनसा धर्म कहा है इसी का उत्तर देते हुए श्री सुधर्मा स्वामी फरमाते हैं कि यथातथ्य एवं सरल (माया कपट से रहित) धर्म को मैं तुम्हें कहता हूँ तुम ध्यान पूर्वक सुनो। "जिणाणं तं सुणेह मे" के स्थान पर "जाणगा तं सुणेह मे" ऐसा पाठान्तर मिलता है। अर्थ - हे जीवो ! उस धर्म का मैं कथन करता हूँ सो तुम ध्यान पूर्वक सुनो। माहणा खत्तिया वेस्सा, चंडाला अदु बोक्कसा ।। एसिया वेसिया सुद्दा, जे य आरंभ-णिस्सिया ॥२॥ परिग्गह-णिविट्ठाणं, वेरं तेसिं पवइ । । आरंभ-संभिया कामा, ण ते दुक्ख-विमोयगा ॥३॥ कठिन शब्दार्थ - माहणा - ब्राह्मण, खत्तिया - क्षत्रिय, वेस्सा - वैश्य, चंडाला - चाण्डाल, बोक्कसा - वोक्कस, एसिया - एषिक, वेसिया - वैशिक, सुद्धा - शुद्र, आरंभ-णिस्सिया - आरंभ में आसक्त, परिग्गहणिविट्ठाणं - परिग्रह में आसक्त, आरंभ संभिया - आरंभ से पुष्ट, दुक्ख विमोयणा - दुःखविमोचक-दुःख का विमोचन करने वाले । भावार्थ - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, चाण्डाल, वोक्कस, एषिक, वैशिक, शूद्र तथा जो प्राणी आरम्भ में आसक्त रहते हैं, उन परिग्रही जीवों का दूसरे जीवों के साथ अनन्तकाल के लिये वैर For Personal & Private Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ . श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ ही बढ़ता है, आरम्भ में लगे हुए, विषय लोलुप वे जीव, दुःख देने वाले आठ प्रकार के कर्मों को त्यागने वाले नहीं हैं । आघाय-किच्चमाहेङ, णाइणो विसएसिणो । अण्णे हरंति तं वित्तं, कम्मी कम्मेहि किच्चइ ॥४॥ कठिन शब्दार्थ - आघाय - आघात-मरण, किच्चं-कार्य आहे - करके णाइणो - ज्ञातिजन, विसएसिणो - विषय की एषणा करने वाले, हरंति - हरण कर लेते हैं, वित्तं - धन को, कम्मी- पाप कर्मी, कम्मेहि - कर्म से, किच्चइ - करता है-दुःख पाता है-फल भोगता है। भावार्थ - ज्ञातिवर्ग धन के लोभी होते हैं वे दाहसंस्कार आदि मरणक्रिया करने के पश्चात् उस मृत व्यक्ति का धन हर लेते हैं । परन्तु पापकर्म करके धनसञ्चय किया हुआ वह मृत व्यक्ति अकेला ही अपने पाप का फल भोगता है.। विवेचन - जब व्यक्ति मर जाता है तब उसके स्वजन सम्बन्धी उसका अग्नि संस्कार आदि मृत्यु कार्य करके फिर उसके धन को बांट लेते जैसा कि कहा है - ततस्तेनार्जितैव्यैर्दा रैश्च परिरक्षितैः। क्रीडन्त्यन्ये नरा राजन् ! हृष्टास्तुष्टा हलङ्कृताः॥ अर्थ - 'जिस पुरुष ने अनेक पाप कार्य करके धन संग्रह किया है तथा जिन स्त्रियों का अच्छी तरह से रक्षण किया है उसके मर जाने के पश्चात् दूसरे लोग उस धन के मालिक बन जाते हैं और अलंकृत होकर स्त्री आदि के साथ क्रीड़ा करते हैं और मौज उड़ाते हैं। परन्तु धन के लिये पापकर्म करने वाला पुरुष अकेला ही उस पाप कर्म का फल भोगता है और संसार में परिभ्रमण करता हुआ दुःखी होता है। माया पिया ण्हुसा भाया, भज्जा पुत्ता य ओरसा। णालं ते तव ताणाय, लुप्पंतस्स सकम्मुणा ॥५॥ कठिन शब्दार्थ - ण्हुसा - स्नुषा-पुत्रवधू, भाया - भ्राता-भाई, भज्जा - भार्या-स्त्री, ओरसा - औरस पुत्र, ण - नहीं अलं - समर्थ, लुप्पंतस्स - दुःख भोगते हुए, ताणाय - रक्षा करने में । भावार्थ - अपने पाप का फल दुःख भोगते हुए प्राणी को, माता, पिता, पुत्रवधू, भाई, स्त्री और औरस पुत्र आदि कोई भी नहीं बचा सकते हैं । . विवेचन - जन्म देने वाले माता-पिता, सहोदर भाई, अपनी स्त्री तथा अपने निजी बेटे, सासू, ससुर आदि कोई भी दुःख से पीड़ित होते हुए उस पुरुष की रक्षा करने में समर्थ नहीं है। जब कि वे इसी लोक के दुःख से प्राणी की रक्षा नहीं कर सकते तो परलोक में तो रक्षा कर ही कैसे सकते हैं ? For Personal & Private Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ९ एयमट्टं सपेहाए, परमाणुगामियं । णिम्ममो णिरहंकारो, चरे भिक्खू जिणाहियं ॥ ६ ॥ इस विषय में कालसौकरिक कसाई के पुत्र सुलस का दृष्टान्त दिया गया है- यथा राजा श्रेणिक के समय कालसौकरिक नाम का एक कसाई था । वह प्रतिदिन पांच सौ भैंसों को मारता था । राजा श्रेणिक ने उससे हिंसा बन्द करवाने का प्रयत्न किया किन्तु उसमें उसको सफलता नहीं मिली तब अभयकुमार ने कालसौकरिक के पुत्र सुलस के साथ मित्रता की। तो वह श्रावक बन गया और जीव हिंसा का त्याग कर दिया। जब कालसौकरिक कसाई मृत्य को प्राप्त हो गया तब उनके कुटुम्ब परिवार वालों ने सुलस को अपने पिता सम्बन्धी खानदानी जीव हिंसा रूप धन्धा करने की प्रेरणा दी। सुलस ने उसे स्वीकार नहीं किया तब परिवार वालों ने कहा कि तुम हिंसा के पाप से क्यों डरते हो । हम सब उस पाप का हिस्सा बटा लेंगे। तब हाथ में कुल्हाड़ी लेकर सुलस ने अपने पैर के ऊपर चोट मारी जिससे खून बहने लगा तब उसने अपने परिवार वालों से कहा कि आप मेरी इस पीड़ा को बटा लो । तब उन्होंने लाचार होकर कहा कि आपकी पीड़ा तो आपको ही भोगनी पड़ेगी। तब सुलस ने कहा कि जब आप लोग इस लोक सम्बन्धी प्रत्यक्ष पीड़ा को भी नहीं बटा सकते तो परलोक में पाप का फल भोगते समय उसका हिस्सा बटा लेंगे इसका विश्वास कैसे किया जा सकता है ? अतः मैं जीव हिंसा रूप कार्य नहीं करूँगा ऐसा कहकर उसने जीव हिंसा नहीं की और अपनी प्रतिज्ञा का पालन किया । कठिन शब्दार्थ एवं इस अट्ठ - अर्थ को, सपेहाए समझ कर, परमट्ठाणुगामियं - परमार्थ की ओर ले जाने वाले, णिम्ममो - ममता रहित, णिरहंकारो - अहंकार रहित, जिणाहियंजिन भाषित तत्त्व - जिनवाणी का, चरे आचरण करे । - - २२५ भावार्थ अपने किये हुए कर्मों से सांसारिक दुःख भोगते हुएं प्राणी की रक्षा करने के लिये कोई भी समर्थ नहीं है तथा मोक्ष या संयम का कारण सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र है इन बातों को जानकर साधु ममता और अहङ्कार रहित होकर जिनभाषित धर्म का अनुष्ठान करे । विवेचन- 'परम' शब्द का अर्थ है, मोक्ष या संयम । उसका कारण है ज्ञान, दर्शन और चारित्र । बुद्धिमान पुरुष इन बातों को अच्छी तरह विचार कर संयम में पुरुषार्थ करे । बाह्य और आभ्यन्तर वस्तुओं में ममता न करे एवं पहले के ऐश्वर्य और जाति मद से उत्पन्न तथा स्वाध्याय तपस्या आदि से उत्पन्न अहंकार भी न करे। किन्तु राग द्वेष रहित होकर तीर्थङ्कर भगवन्तों द्वारा आचरित एवं कथित मार्ग का अनुसरण करे । चिच्या वित्तं च पुत्ते य, णाइओ य परिग्गहं । चिच्वा णं अंतगं सोयं, णिरवेक्खो परिव्वए ॥ ७ ॥ 1000000000000 For Personal & Private Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ कठिन शब्दार्थ - चिच्चा त्याग कर, अंतगं आंतरिक- भीतर के, सोयं - स्रोत को, णिरवेक्खो - निरपेक्ष होकर, परिव्वए संयम का पालन करे । भावार्थ - धन, पुत्र, ज्ञाति, परिग्रह और आन्तरिक शोक को छोड़कर मुनि संयम का पालन करे।. विवेचन - बाहरी और आभ्यन्तर परिग्रह को छोड़ कर अर्थात् धन कुटुम्ब, परिवार आदि बाह्य परिग्रह तथा मिथ्यात्व, अविरंति, प्रमाद, कषाय और अशुभयोग रूप आस्रव द्वारों को छोड़ कर मोक्ष प्राप्ति के लिये संयम का अनुष्ठान करे। जैसा कि कहा है - छलिया अवयक्खता निरावयक्खा गया अविग्घेणं । 'तम्हा पवयणसारे निरावयक्खेण होयव्वं ॥ भोगे अवयक्खता पडंति संसारसागरे घोरे । २२६ - भोगेहि निरवयवखा तरंति संसारकंतारं ॥ अर्थ- जिन्होंने परिग्रह आदि में ममता रखी वे ठगे गये। परन्तु जो निरपेक्ष रहे वे सुखपूर्वक संसार सागर को तिर गये । अतः सिद्धान्त के रहस्य को जानने वाले पुरुष को निरपेक्ष रह कर शुद्ध संयम का पालन करना चाहिए। पुढवी उ अगणी वाऊ, तण - रुक्ख-सबीयगा । अंडया पोय - जराऊ, रस- संसेय- उब्भिवा ॥ ८ ॥ कठिन शब्दार्थ - अंडया - अंडज, पोय पोत, जराऊ - संस्वेदज, उब्भिया उद्भिज्ज । भावार्थ- पृथिवी, अग्नि, वायु, तृण, वृक्ष, बीज, अण्डज, पोत, जरायुज, रसज, संस्वेदज, और उद्भिज्ज ये सब जीव हैं । विवेचन- यहाँ पर जीवों के भेदों का कथन किया गया है। पृथ्वीकाय, अप्काय, ते काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय ये पांच स्थावर काय हैं। छठा त्रसकाय है। उसके कुछ भेद यहां पर बतलाये गये हैं। यथा - अण्डे से उत्पन्न होने वाला अण्डज कहलाता है यथा- कौआ, कबूतर, चिड़िया आदि । कपड़े की कौथली सहित उत्पन्न होने वाले पोतज कहलाते हैं। जैसे- हाथी, चमगादड़ आदि । जरायु अर्थात् जम्बाल से वेष्टित होकर उत्पन्न होने वाले जरायुज कहलाते हैं । यथा - गाय, भैंस, मनुष्य आदि । किसी भी प्रकार के रस के चलित अर्थात् विकृत हो जाने पर उसमें उत्पन्न हो जाने वाले रसज कहलाते हैं । यथा - दही, मीठा रस खट्टा रस के बिगड़ जाने पर उत्पन्न होने वाले बेइन्द्रिय आदि जीव । स्वेद अर्थात् पसीना से उत्पन्न होने वाले जीव यथा - जूँ, लीख, खटमल आदि। जमीन फोड़कर उत्पन्न जराज, रस - रस, संसेय - For Personal & Private Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ९ २२७ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 होने वाले जीव उद्भिज कहलाते हैं जैसे खंजरीट, टिड्डी, पतंग आदि। इन सब जीवों के भेदों को जानकर मुनि उनकी रक्षा करने में निरन्तर सावधान रहे। . एएहिं छहिं काएहि, तं विजं परिजाणिया । मणसा काय-वक्केणं, णारंभी ण परिग्गही ॥९॥ कठिन शब्दार्थ - परिजाणिया - जाने, मणसा - मन से कायवक्केणं - वचन और काया से, ण- नहीं, आरंभी - आरंभ करे ।, भावार्थ - विद्वान् पुरुष पूर्वोक्त इन छह ही कायों को जीव समझ कर मन, वचन और काया से इनका आरम्भ और परिग्रह न करे। विवेचन - गाथा नं. ८ के अर्थ में और विवेचन में छह काय जीवों का वर्णन कर दिया गया है। उन त्रस और स्थावर जीवों के सक्षम, बादर, अपर्याप्त और पर्याप्त भेदों को जान कर इनका आरम्भ न करे तथा इन पर ममत्व भाव भी न रखे अर्थात् विद्वान् पुरुष ज्ञ परिज्ञा से इनके स्वरूप को जानकर • प्रत्याख्यान परिज्ञा से उनके आरम्भ और परिग्रह का त्याग करे । मुसावायं बहिद्धं च, उग्गहं च अजाइया । सत्थादाणाइं लोगंसि, तं विजं परिजाणिया ।१०। कठिन शब्दार्थ- मुसावायं - मृषावाद, बहिद्धं- बहिद्ध -बाहरी वस्तु (मैथुन और परिग्रह), उग्गहं - अवग्रह, अजाइया - अयाचित, सत्थ - शस्त्र, आदाणाई - आदान-कर्म बंध के कारण, विज-विद्वान् । भावार्थ - झूठ बोलना, मैथुन सेवन करना, परिग्रह ग्रहण करना और अदत्तादान लेना ये सब लोक में शस्त्र के समान और कर्म बन्ध के कारण हैं इसलिये विद्वान् मुनि इन्हें ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग करे । ... विवेचन - इस गाथा में मुनि के पांच महाव्रतों का कथन किया गया है । 'सत्थादाणाई' शब्द से अहिंसा व्रत रूप पहला महाव्रत । मुसावायं' शब्द से मृषावाद अर्थात् झूठ का सर्वथा त्याग रूप दूसरा महाव्रत 'उग्गहं अजाइया' (अवग्रहं अयाचितं) शब्द से अदत्तादान विरमण रूप तीसरा महाव्रत लिया गया है और 'बहिद्धं' शब्द से मैथुन विरमण रूप चतुर्थ महाव्रत और परिग्रह विरमण रूप पांचवां महाव्रत लिया गया है । अर्थात् बहिद्धादान शब्द में दो महाव्रतों का ग्रहण है । बहिद्धादान' शब्द का अर्थ है बाहरी वस्तु को लेना । कामवासना की वस्तु स्त्री आदि तथा हिरण्य सुवर्ण आदि परिग्रह की वस्तु भी बाहरी है । इसलिये बाहरी वस्तु को ग्रहण करने रूप व्रत को बहिद्धादान इस एक शब्द से लिया गया है । यही बात ठाणाङ्ग सूत्र के चौथे ठाणे के प्रथम उद्देशक में कही गयी है यथा - . For Personal & Private Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ . "सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं, सव्वाओ अदिण्णादाणाओ वेरमणं, सव्याओ बहिद्धादाणाओ वेरमणं।" अर्थ - भरत क्षेत्र और एरवत क्षेत्र के प्रथम और अन्तिम (पहला और चौबीसवाँ) तीर्थंकर को छोड़कर बीच के बाईस तीर्थङ्करों के समय में और महाविदेह क्षेत्र के सब तीर्थङ्करों के समय में चार याम धर्म होता है । यथा -- सर्वथा १. प्राणातिपात विरमण (निवृत्ति) २. सर्वथा मृषावाद विरमण ३. सर्वथा अदत्तादान विरमण ४. सर्वथा बहिद्धादान विरमण। यहां पर बहिद्धादान शब्द से सर्वथा मैथुन विरमण और सर्वथा परिग्रह विरमण का ग्रहण किया गया है। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह ये सब प्राणियों को पीड़ा देने के कारण शस्त्र के समान हैं तथा आठ प्रकार के कर्मबन्ध के कारण हैं । अतः विद्वान् पुरुष इन बातों को ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग कर दे। पलिउंचणं च भयणंच, थंडिल्लुस्सयणाणि य । . .. धूणादाणाइं लोगंसि, तं विजं परिजाणिया ॥११॥ कठिन शब्दार्थ - पलिउंचणं - माया, भयणं - लोभ, थंडिल्लुस्सयणाणि - क्रोध और मान को, धूण - त्याग करो। . भावार्थ - माया, लोभ, क्रोध और मान, संसार में कर्मबन्ध के कारण हैं इसलिये विद्वान् मुनि इनका त्याग करे । विवेचन - जिस जीव में कषाय विदयमान है उसका पञ्च महाव्रत धारण करना निष्फल है। इसलिये पञ्च महाव्रत को सफल करने के लिये, कषाय का त्याग करना चाहिए । यह बात इस गाथा : में बताई गयी है । जिससे मनुष्य की क्रिया में टेढापन आ जाता है उसे पलिकुञ्चन कहते हैं । माया का नाम पलिकुञ्चन है। जिससे आत्मा सर्वत्र झुक जाता है उसे भजन कहते हैं । यहां लोभ को भजन कहा है । जिसके उदय से आत्मा सत् और असत् के विवेक से रहित होकर स्थण्डिल के समान हो जाता है। उसे स्थण्डिल कहते हैं । यहां क्रोध को स्थण्डिल कहा है । जिसके उदय से जीव उत्तान (अभिमानी) हो जाता है, उसे उच्छाय कहते हैं । यहां मान को उच्छाय कहा है । इन उपरोक्त चारों कषायों के स्वरूप को जानकर बुद्धिमान् पुरुष इनका सर्वथा त्याग कर दें । क्योंकि यह कषाय ही कर्म बन्धन का कारण है और यही संसार में परिभ्रमण कराने वाली हैं ।। ११ ।। For Personal & Private Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ९ २२९ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 धोयणं रयणं चेव, वत्थीकम्मं विरेयणं । वमणंजण-पलीमंथं, तं विजं परिजाणिया ॥१२॥ कठिन शब्दार्थ - धोयणं - धोना, रयणं - रंगना, वत्थीकम्मं - वस्तिकर्म, विरेयणं - विरेचन, वमणं - क्मन, अंजण - अंजन, पलीमंथं - संयम को नष्ट करने वाले । भावार्थ - हाथ पैर धोना और उनको रंगना एवं वस्तिकर्म, विरेचन, वमन और नेत्र में अञ्जन लगाना ये सब संयम को नष्ट करने वाले हैं इसलिये विद्वान् मुनि इनका त्याग करे । विवेचन - 'वस्तिकर्म' का मतलब हठ योग की एक प्रक्रिया से हैं, जिसमें गुदा द्वार से पानी पेट के अन्दर खींचकर, अंतडियों का मल साफ किया जाता है । एनिमा लेना भी वस्तिकर्म में गिना जाता है और विरेचन व वमन और अंजन भी हठयोग से सम्बन्धित किन्हीं प्रक्रियाओं की संज्ञा प्रतीत होती है । ये क्रियाएं शरीर शुद्धि के लिये की जाती है । उपर्युक्त क्रियाओं में हिंसा तो है ही, पर उनसे बहिर्मुख वृत्ति हो जाने का सबसे बड़ा भय है । अतः इन क्रियाओं के सेवन में अधर्म और संयम के लिये त्याम में धर्म है । हाथ, पैर, वस्त्र आदि को धोना और रंगना, वस्तिकर्म अर्थात् एनिमा लेना, जुलाब लेना तथा दवा लेकर वमन करना और शोभा के लिये आँख में अंजन लगाना इन सब को तथा दूसरे भी शरीर संस्कार आदि भी जो संयम के विघातक हैं उनके स्वरूप और फल को जानकर- बुद्धिमान् मुनि त्याग कर दे ।। १२॥ , गंध-मल्ल-सिणाणं च, दंत-पक्खालणं तहा । परिग्गहित्थिकम्मं च, तं विजं परिजाणिया ।।१३॥ - कठिन शब्दार्थ - गंध-गंध, मल्ल - मल्य-माला, सिणाणं - स्नान, दंत पक्खालणं - दंत प्रक्षालन, परिग्गह- परिग्रह, इथि- स्त्री, कम्मं - हस्तकर्म करना । भावार्थ - गन्ध, फूलमाला, स्नान, दांतों को धोना, परिग्रह रखना, स्त्रीसेवन करना, हस्तकर्म करना, इनको पाप का कारण जानकर विद्वान् मुनि त्याग कर दे। विवेचन - कोष्ठपुट आदि गन्ध (आजकल इत्र, सेन्ट आदि) चमेली आदि फूलों की माला, देशस्नान और सर्वस्नान तथा किसी भी प्रकार के टुथपेस्ट आदि से दान्तों को धोना, सचित्त या अचित्त वस्तुओं का संग्रह करना, विषय सेवन, हस्तकर्म आदि सावद्य अनुष्ठानों को कर्मबन्ध और संसार भ्रमण का कारण जानकर विद्वान् मुनि इन सब का सर्वथा त्याग कर दे ।। १३ ।। उद्देसियं कीयगडं, पामिच्चं चेव आहडं । पूर्य अणेसणिज्जंच, तं विजं परिजाणिया ।।१४॥ कठिन शब्दार्थ - उद्देसियं - औद्देशिक, कीयगडं - क्रीतकृत-खरीदा हुआ, पामिच्चं - For Personal & Private Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० . श्री सयगडांग सत्र श्रतस्कन्ध १ . 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 प्रामीत्य-उधार लिया हुआ, आहडं - आहत-लाया हुआ, पूर्व - पूति-आधाकर्मी से मिश्रित, अणेसणिजं - अनेषणीय । भावार्थ - साधु को दान देने के लिये जो आहार वगैरह तैयार किया गया है तथा जो मोल लिया गया है एवं गृहस्थ ने साधु को देने के लिये जो आहार आदि लाया गया है तथा जो आधाकर्मी आहार से मिश्रित है इस प्रकार जो आहार आदि किसी भी कारण से दोषयुक्त है उसको संसार का कारण जानकर विद्वान् मुनि त्याग कर दे । विवेचन - किसी खास साधु के लिये बनाया गया आहार आदि यदि वही साधु ले तो आधाकर्म दोष लगता है और यदि दूसरा साधु ले तो औद्देशिक दोष लगता है । साधु के लिये खरीद कर लायी गयी वस्तु यदि साधु को दे तो साधु को क्रीतकृत दोष लगता है । किसी दूसरे से उधार लेकर मुनि को दिया गया आहारादि पामित्य दोष युक्त कहलाता है । गृहस्थ अपने घर से कोई भी वस्तु लाकर दे तो मुनि को आहड (आहत) दोष लगता है । साधु के लिये जो आहारादि बनाया जाता है उसको आधाकर्म दोष कहते हैं । उस आधाकर्म आहार के एक कण से युक्त होने पर शुद्ध आहारादि भी अशुद्ध हो जाता है । उस आहार को पूत (पूतिकर्म) दोष युक्त कहते हैं । कहने का आशय यह है कि, . किसी भी दोष से जो आहारादि दूषित हो गया है ऐसे अशुद्ध आहारादि को मुनि ग्रहण न करे किन्तु उसका सर्वथा त्याग कर दे ।। १४ ।। आसूणि-मक्खिरागं च, गिद्धवधाय कम्मगं । उच्छोलणं च कवं च, तं विजं परिजाणिया।॥१५॥ कठिन शब्दार्थ - आसूणिं - वीर्य वर्द्धक आहार या रसायन, अक्खिरागं - आंखों को आंजना, गिद्ध - आसक्त, उवधाय कम्मगं - उपघात कर्म जिससे जीव की घात हो, उच्छोलणं- हाथ पैर आदि धोना, कक्कं - कल्क-उबटन करना ।। भावार्थ - रसायन आदि का सेवन करके बलवान् बनना तथा शोभा के लिये आंख में अंजन लगाना तथा शब्दादि विषयों में आसक्त होना, एवं जिससे जीवों का घात हो ऐसा कार्य करना जैसे कि हाथ पैर आदि धोना तथा शरीर में पीट्ठी लगाना इन बातों को संसार का कारण जानकर साधु त्याग कर दे। विवेचन - घृत पीना अथवा रसायन का सेवन आदि जिस आहार विशेष के कारण मनुष्य बलवान् बनता है और शरीर फूल जाता है उसे 'आशूनी' कहते हैं । अथवा साधारण प्रकृति वाला मनुष्य अपनी प्रशंसा से फूल जाता है। इसलिये प्रशंसा को भी 'आशूनी' कहते हैं । मुनि इसका त्याग कर दे ।। १५ ।। For Personal & Private Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ९ २३१ संपसारी कयकिरिए, पसिणायतणाणि य । सागारियं च पिंडंच, तं विजं परिजाणिया ॥१६॥ कठिन शब्दार्थ - संपसारी - असंयतों के साथ वार्तालाप करना, कयकिरिय - कृत क्रिय-असंयम की प्रशंसा करना, पसिणायतणाणि - ज्योतिष के प्रश्नों का उत्तर देना, सागारियं पिंडं- शय्यातर पिण्ड। भावार्थ - असंयतों के साथ सांसारिक वार्तालाप करना तथा असंयम के अनुष्ठान की प्रशंसा करना एवं ज्योतिष के प्रश्नों का उत्तर देना तथा शय्यातर का पिण्ड लेना, इन बातों को संसार परिभ्रमण का कारण जानकर साधु त्याग कर दे । विवेचन - गाथा में 'सागारियं पिंड' शब्द आया है जिसका अर्थ है, शय्यातर का पिण्ड (आहारादि) लेना । (जिसकी आज्ञा लेकर साधु मकान में ठहरे हैं उस मकान मालिक को शय्यातर कहते हैं ।) - यही अर्थ आगमों में जगह जगह मिलता है । किन्तु टीकाकार ने इस शब्द का अर्थ लिखा है - 'सूतकगृहपिण्डं जुगुप्सितं वापसदपिण्डं वा' अर्थ - सूतक वाले घर का पिण्ड अथवा नीच के घर का पिण्ड । टीकाकार का यह अर्थ आगमानुकूल नहीं है यह उनकी मन कल्पना मात्र है क्योंकि शय्यातर पिण्ड का यह अर्थ नहीं होता है ।। १६ ।। अट्ठावयं ण सिखिज्जा, वेहाईयं च णो वए । हत्थकम्मं विवायंच, तं विजं परिजाणिया ॥१७॥ . कठिन शब्दार्थ- अट्ठावयं - अष्टापद-जुआ खेलना, वेहाईयं - वेधातीत-अधर्म प्रधान वचन। भावार्थ- साधु जुआ न खेले तथा अधर्मप्रधान वाक्य न बोले एवं वह हस्तकर्म तथा विवाद न करे। इन बातों को संसार परिभ्रमण का कारण जानकर विद्वान् पुरुष त्याग कर दे । - विवेचन - गाथा में 'अट्ठावयं' शब्द दिया है । जिसकी संस्कृत छाया दो तरह से हो सकती है - अर्थपद या अष्टापद । जिससे धन, धान्य, हिरण, स्वर्ण आदि की प्राप्ति की जाती है उसको अर्थपद कहते हैं अथवा धन का उपार्जन करने के लिये जो उपाय बतलाता है उस शास्त्र को अर्थपद कहते हैं । वह चाणक्य आदि का बनाया हुआ अर्थ शास्त्र है तथा प्राणियों के घात की शिक्षा देने वाले जो कुशास्त्र हैं साधु उनका अभ्यास न करे । अष्टापद शब्द का अर्थ है जुआ खेलना । साधु जुआ, शतरंज, चौपड़पासा, ताश आदि न खेले । धर्म के उल्लंघन को 'वेध' कहते हैं । जिससे धर्म का उल्लंघन हो ऐसा अधर्म युक्त वचन साधु न बोले । अथवा वेध अर्थात् वस्त्रवेध यह जुए की एक जाति है उससे सम्बन्धित वचन भी न बोले । हस्तकर्म का अर्थ प्रसिद्ध है अथवा परस्पर हाथ से मारामारी करना For Personal & Private Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ - श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ अथवा निरर्थक विवाद करना इसको भी हस्तकर्म कहते हैं । इन सब बातों को संसार परिभ्रमण का कारण जानकर साधु सर्वथा त्याग कर दे ।। १७ ।। पाणहाओ य छत्तं च, णालीयं वालवीयणं । परकिरियं अण्णमण्णं च, तं विजं परिजाणिया॥१८॥ .. कठिन शब्दार्थ - पाणहाओ - उपानह-जूता, छत्तं - छाता, णालीयं - नालिका (जुआ खेलना.) वालवीयणं - पंखे से हवा करना, परिकिरियं - परक्रिया, अण्णमण्णं - परस्पर की। भावार्थ - जूता पहनना, छत्ता लगाना, जुआ खेलना, पंखे से पवन करना तथा जिसमें कर्मबन्ध हो ऐसी परस्पर की क्रिया, इनको कर्म बन्ध का कारण जानकर विद्वान् मुनि त्याग कर दे। विवेचन - गाथा में 'पाणहाओ' शब्द दिया है जिसका अर्थ जूता, बूंट, चप्पल, खडाऊ, मोजा. आदि होता है । नालिका - जुआ का एक भेद हैं । बालवीयण' शब्द का अर्थ मोर की पांख आदि से बना हुआ पंखा है । इन सब का आचरण करना साधु के लिये अनाचार का कारण है अतः साधु इनका सर्वथा त्याग कर दे ।। १८ ।। उच्चारं पासवणं, हरिएसु ण करे मुणी। वियडेण वावि साहट्ट, णावमजे कयाइ वि । १९। कठिन शबदार्थ - उच्चारं - मल, पासवणं - प्रस्रवण-मूत्र, हरिएसु - हरी वनस्पति पर, वियडेण - अचित्त जल से, ण - नहीं, अवमज्जे - आचमन करे, साहट्ट - हटा कर । भावार्थ - साधु हरी वनस्पति वाले स्थान पर टट्टी या पेशाब न करे एवं बीज आदि हटा कर अचित्त जल से भी आचमन न करे। . विवेचन - टट्टी जाने के बाद मलद्वार को पानी से धोकर साफ करने को 'आचमन' कहते हैं । साधु सचित्त वनस्पति पर बीजों पर एवं अयोग्य स्थान पर मलमूत्र का त्याग न करे तथा आचमन भी न करे ।। १९॥ . . परमत्ते अण्णपाणं, ण भुंजेज कयाइ वि । परवत्थं अचेलो वि, तं विजं परिजाणिया ॥२०॥ कठिन शब्दार्थ - परमत्ते - गृहस्थ के पात्र में, अचेलो - अचेल-वस्त्र रहित, परवत्थं - गृहस्थ का वस्त्र । . भावार्थ - साधु गृहस्थ के बर्तन में भोजन न करे तथा जल न पीवे एवं वस्त्ररहित होने पर भी साधु गृहस्थ का वस्त्र न पहिने। क्योंकि ये सब संसारभ्रमण के कारण हैं इसलिये विद्वान् मुनि इनका त्याग कर दे। For Personal & Private Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ९ २३३ . 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 विवेचन - साधु गृहस्थ के पात्र में आहार पानी न करे तथा गृहस्थ का कुण्डा परात आदि लेकर उसमें वस्त्र आदि भी न धोवे क्योंकि गृहस्थ द्वारा उस पात्र को पहले या पीछे कच्चे पानी से धोने आदि की सम्भावना रहती है। साधु सर्दी के समय गृहस्थ की कम्बल आदि लेकर रात में ओढे अथवा उसके कपडे लेकर बिछावे और प्रातःकाल गृहस्थ को वापस दे देवे ऐसा करना भी साधु को नहीं कल्पता है, यह उसके लिये अनाचार सेवन है । आसंदी पलियंको य, णिसिज्जं च गिहतरे । संपुच्छणं सरणं वा, तं विजं परिजाणिया ॥२१॥ कठिन शब्दार्थ - आसंदी - आसंदी-मंचिया, पलियंके - पलंग, णिसिजं - बैठेना, गिहतरे - गृहस्थ के घर में, संपुच्छणं - सावद्य पृच्छा, सरणं - भुक्त भोगों का स्मरण । भावार्थ - साधु मंचिया पर न बैठे और पलंग पर न सोवे एवं गृहस्थ के घर के भीतर या दो घरों के बीच में जो छोटी गली होती है उसमें न बैठे एवं गृहस्थ का कुशल न पूछे तथा अपनी पहिली क्रीड़ा का स्मरण न करे । इन सभी बातों को संसार भ्रमण का कारण समझकर त्याग कर दे । विवेचन - इस गाथा में बावन अनाचारों में से कुछ अनाचारों का वर्णन किया गया है । बेंत की बनी हुई कुर्सी तथा आराम कुर्सी आदि आसनों पर बैठने सोने आदि का निषेध किया गया है जैसा कि गंभीरझुसिरा ( गंभीरविजया) एए, पाणा दुप्पडिलेहगा। अगुत्ती बंभचेरस्स, इत्थीओ वावि संकणा ।। अर्थ - मंचिया, कुर्सी आदि आसनों के छिद्र गहरे होने से उनमें जीव दिखाई न देने से उनका प्रतिलेखन होना कठिन है तथा गृहस्थ के घर में अथवा दो घरों के बीच में छोटी गली में न बैठे क्योंकि ब्रह्मचर्य की रक्षा नहीं हो सकती है एवं स्त्रियों की शङ्का भी होती है । गृहस्थ के घर का अथवा व्यापार आदि का समाचार पूछना, उसका क्षेमकुशल पूछना एवं पहले भोगे हुए सांसारिक विषय भोगों को याद करना ये सब अनर्थ के कारण हैं । इसलिये विद्वान् मुनि इन सब बातों का सर्वथा त्याग कर दे ।। २१ ।। जसं कित्तिं सिलोयं च, जा य वंदण-पूयणा । सव्वं लोयंसि जे कामा, तं विजं परिजाणिया ॥२२॥ .. कठिन शब्दार्थ - जसं - यश, कित्तिं - कीर्ति, सिलोयं - श्लोक-श्लाघा, वंदण-पूयणा -- वंदन पूजन, कामा - कामभोग । भावार्थ - यश, कीर्ति, श्लाघा, वन्दन और पूजन तथा समस्त लोक के विषय भोग को संसार भ्रमण का कारण समझकर विद्वान् मुनि त्याग कर दे । For Personal & Private Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000 विवेचन - सब दिशाओं में फैलने वाली प्रशंसा को कीर्ति कहते हैं, किसी एक दिशा में फैलने वाली प्रशंसा को यश (वर्ण) कहते हैं, कुछ क्षेत्र में फैलने वाले यश को शब्द कहते हैं, उसी नगर में फैलने वाले यश को श्लोक कहते हैं । देवेन्द्र, असुरेन्द्र, चक्रवर्ती बलदेव, वासुदेव आदि राजा, महाराजाओं द्वारा तथा सेठ साहुकारों आदि द्वारा जो नमस्कार किया जाता है उसे वन्दना कहते हैं तथा इन लोगों द्वारा सत्कार सन्मान सहित वस्त्र आदि दिये जाते हैं, उसे पूजा कहते हैं । मुनि मन से भी इन सब की चाहना न करे । २३४ 00000000 जेणेह णिव्वहे भिक्खू, अण्णं-पाणं तहाविहं । अणुप्पयाण-मण्णेसिं, तं विज्जं परिजाणिया ।। २३ ॥ - " कठिन शब्दार्थ - जेण जिससे, इह इस संसार में णिव्वहे नष्ट हो अणुप्पयाणं - प्रदान करना, अण्णेसिं - दूसरो को । भावार्थ - इस जगत् में जिस अन्न या जल के ग्रहण करने से साधु का संयम नष्ट हो जाता है वैसा अन्न जल साधु स्वयं ग्रहण न करे तथा दूसरे साधु को भी न देवे क्योंकि वह संसार भ्रमण का कारण है अतः विद्वान् मुनि इसका त्याग कर दे । विवेचन - साधु किसी भी परिस्थिति में अर्थात् दुर्भिक्ष और रोगादि के समय भी अशुद्ध आहार पानी को ग्रहण न करे तथा दूसरे साधु को भी न देवे क्योंकि अशुद्ध आहार पानी संयम का नाश करने वाला होता है । एवं उदाहु णिग्गंथे, महावीरे महामुनी । अनंत - णाण- दंसी से, धम्मं देसितवं सुयं ।। २४॥ - कठिन शब्दार्थ - अणंतणाणदंसी - अनंतज्ञान दर्शन से युक्त, देसितवं उपदेश दिया, सुयं - श्रुत, धम्मं धर्म का । - भावार्थ - अनन्त ज्ञान तथा दर्शन से युक्त एवं बाहर और भीतर की ग्रन्थि रहित महामुनि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने इस चारित्र तथा श्रुतरूप धर्म का उपदेश दिया है । विवेचन - क्षेत्र (खुली जमीन), वास्तु (ढ़की जमीन, महल, मकान बंगला आदि), हिरण्य (चांदी) सुवर्ण (सोना), द्विपद (नौकर चाकर आदि), चतुष्पद (हाथी घोड़ा · आदि) कुप्य (कुविय - घर बिखेरी का सामान टेबल, कुर्सी, मेज, सीरख, पथरणा आदि ) ये बाह्य ग्रन्थि (बाह्य परिग्रह) कहलाती है । मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, यह चौदह आभ्यन्तर ग्रन्थि (परिग्रह) कहलाती है । दोनों प्रकार की ग्रन्थि जिसमें न हो, वह निर्ग्रन्थ कहलाता । ऐसे निर्ग्रन्थ अनन्त ज्ञानी अनन्त दर्शी श्रमण भगवान् महावीर For Personal & Private Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ९ २३५ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 स्वामी ने संसार समुद्र से पार करने में समर्थ श्रुत चारित्र रूप धर्म तथा जीवादि पदार्थों का उपदेश दिया है ।। २४ ।। भासमाणो ण भासेज्जा, णेव वंफेज मम्मयं । माइहाणं विवज्जेज्जा, अणुचिंतिय वियागरे।।२५॥ कठिन शब्दार्थ - भासमाणो - बोलता हुआ, मम्मयं - मर्मकारी वचन, वंफेज - बोले, अभिलाषा करे, माइट्ठाणं - मातृ स्थान-माया को, विवजेजा - वर्जन करे, अणुचिंतिय - सोच विचार कर, वियागरे - बोले । भावार्थ - जो साधु भाषासमिति से युक्त है वह धर्म का उपदेश करता हुआ भी न बोलने वाले के समान ही है । जिससे किसी को दुःख हो ऐसा वाक्य साधु न बोले । साधु कपटभरी बात न बोले किन्तु सोच विचार कर बोले । -- विवेचन - जो साधु भाषासमिति से युक्त है वह धर्म कथा का उपदेश करता हुआ भी अभाषक (मौनी-नहीं बोलने वाले) के समान ही है जैसा कि कहा है - वयणविहत्तीकुसलोवओगयं बहुविहं वियाणंतो । . दिवसंपि भासमाणो साहू वयगुत्तयं पत्तो ।। छाया - वचनविभक्तिकुशलो वचोगतं बहुविधं विजानन् । दिवसमपि भाषमाणः साधुर्वचनगुप्ति सम्प्राप्तः ।। अर्थ - जो साधु वचन के विभाग को जानने में निपुण है तथा वाणी विषयक बहुत भेदों को जानता है । वह दिन भर बोलता हुआ भी वचनगुप्ति से युक्त ही है । साधु पीड़ाकारी, मर्मकारी, परवञ्चनकारी वचन न बोले । । "पुव्विं बुद्धीए पेहित्ता, पच्छा वक्कमुदाहरे" अर्थ - साधु पहले बुद्धि से सोच लेवे पीछे वचन बोले । जैसा कि कहा है - वचन रत्न अमोल है, मिले न लाखों मोल । पहले हृदय विचारिके, फिर मुख बाहर बोल ।। . तत्थिमा तइया भासा, जं वदित्ताऽणुतप्पइ । जं छण्णं तं ण वत्तव्वं, एसा आणा णियंठिया ॥ २६॥ कठिन शब्दार्थ - वदित्ता - कह कर, अणुतप्पइ - पश्चात्ताप करना होता है, छण्णं - छिपाने योग्य, आणा - आज्ञा, णियंठिया - निग्रंथ की । For Personal & Private Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 00000000 भावार्थ - भाषायें चार प्रकार की हैं उनमें झूठ से मिली हुई भाषा तीसरी है, वह साधु न बोले तथा जिस वचन के कहने से पश्चात्ताप करना पड़े ऐसा वचन भी साधु न कहे । एवं जिस बात को सब लोग छिपाते हैं वह भी साधु न कहे । यही निर्ग्रन्थ भगवान् की आज्ञा है । २३६ 000000 विवेचन भाषा चार प्रकार की है १. सत्या २ असत्या ३. सत्यामृषा ४. असत्या अमृषा । इन चार भाषाओं में सत्यामृषा तीसरी भाषा है । इसका अर्थ है कुछ झूठ और कुछ सच जैसे किसी ने अन्दाज से कह दिया कि इस शहर में दस लड़के जन्मे हैं। इस भाषा में 'जन्मे हैं' इतना अंश मात्र सत्य हैं किन्तु दस की संख्या में सन्देह है क्योंकि कम या ज्यादा उत्पन्न हुए हों ऐसा हो सकता है । इसलिये यह भाषा सत्यामृषा अर्थात् मिश्र भाषा है । अथवा जिस वचन को कहकर दूसरे जन्म में अथवा इसी जन्म में दुःख का पात्र होता है अथवा उसे पश्चाताप करना पड़ता हैं कि - " मैंने ऐसी बात क्यों कह दी" ऐसा वचन भी साधु न बोले । जब कि सत्यामृषा भाषा बोलने का भी निषेध है तब फिर जो सर्वथा असत्य है वह तो बोली ही केसे जा सकती हैं ?" पहली भाषा (सत्या) यद्यपि सर्वथा सत्य है तथापि उससे प्राणियों को पीड़ा उत्पन्न होती हो तो वह भी दोष उत्पन्न करने वाली है । इसलिये साधु को नहीं बोलनी चाहिए । • नोट इस गाथा की टीका करते हुए टीकाकार ने यह लिख दिया है- "चतुर्थी अपि असत्यामृषा भाषा या बुधैरनाचीर्णा सा न वक्तव्या इति ।" अर्थ - चौथी भाषा असत्यामृषा है वह भी विद्वानों के द्वारा सेवित नहीं है इसलिये नहीं बोलनी चाहिए । टीकाकार का यह लिखना आगमानुकूल नहीं है क्योंकि दशवैकालिक सूत्र के "सुवक्कसुद्धी" नामक सातवें अध्ययन की प्रथम गाथा में कहा है यथा - चउन्हं खलु भासाणं, परिसंखाय पण्णवं । दुहं तु विण सिक्खे, दो ण भासिज्ज सव्वसो । अर्थ- सत्य, असत्य, सत्यामृषा (मिश्र) और असत्यामृषा (व्यवहार) इन चार भाषाओं के स्वरूप को भली प्रकार जानकर बुद्धिमान् साधु सत्य और असत्यामृषा (व्यवहार) इन दो भाषाओं का विवेक पूर्वक उपयोग करना सीखे तथा असत्य और सत्यामृषा (मिश्र) इन दो भाषाओं को सर्वथा न बोले । अतः असत्यामृषा (व्यवहार) भाषा साधु को नहीं बोलनी चाहिए. ऐसा टीकाकार का लिखना आगमानुकूल नहीं है ।। २६ ।। For Personal & Private Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होलावायं सहीवायं, गोयावायं च णो वए । तुमं तुमंत अमणुण्णं, सव्वसो तं ण वत्तए ॥ २७ ॥ कठिन शब्दार्थ - होलावायं - होलावाद - निष्ठुर तथा नीच संबोधन से पुकारना, सहीवायं सखिवाद - मित्र आदि कहना, गोयावायं - गोत्रवाद - गोत्र से संबोधन करना, तुमं तुमंति- तू-तू कहना, अमणुण्णं - अमनोज्ञ वचन, वत्तए - कहे । भावार्थ - साधु निष्ठुर तथा नीच सम्बोधन से किसी को न बुलावे तथा किसी को " हे मित्र ! " कहकर न बोले एवं हे वशिष्ठ गोत्रवाले ! हे काश्यप गोत्रवाले ! इत्यादि रूप से खुशामद के लिये गोत्र का नाम लेकर किसी को न बुलावे तथा अपने से बड़े को 'तू' कहकर न बुलावे एवं जो वचन दूसरे को 'बुरा लगे वह, साधु सर्वथा न बोले । विवेचन किसी भी व्यक्ति को हल्के शब्दों से सम्बोधित नहीं करना चाहिए तथा किसी को प्रसन्न करने के लिये खुशामदी के वचन भी साधु को नहीं बोलना चाहिए ।। २७ ।। कुसीले समा भिक्खू, णेव संसग्गियं भए । सुहरूवा तत्थुवस्सग्गा, पडिबुज्झेज्ज ते विऊ ॥ २८ ॥ कंठिन शब्दार्थ - अकुसीले - अकुशील, संसग्गियं - संगति, सुहरूवा उवस्सग्गा - उपसर्ग, पडिबुझेज्ज - समझे । अध्ययन ९ - भावार्थ - साधु स्वयं कुशील न बने और कुशीलों के साथ सङ्गति भी न करे क्योंकि कुशीलों की सङ्गति में सुखरूप उपसर्ग वर्तमान रहता है, यह विद्वान् पुरुष जाने । विवेचन शील का अर्थ है आचार, आचरण । जिसका आचरण बुरा हो उसे कुशील कहते हैं । जिसने ज्ञान दर्शन चारित्र को अपने पास न रख कर दूर रख दिया है उसे पासत्थ (पार्श्वस्थ ) कहते हैं । जो संयम पालन करते हुए संयम की क्रियाओं से थक गया है अतएव प्रतिलेखना आदि कार्यों में प्रमाद करता है उसे अवसन्न कहते हैं । शुद्ध संयम पालन करने वाले मुनि को चाहिए कि वह इन कुशील आदि की सङ्गति न करे । इनके संसर्ग से संयम में दोष लगने की सम्भावना रहती है क्योंकि ये कुशील आदि पुरुष कहते हैं कि, "प्रासुक जल से हाथ पैर और दांत आदि को धोने में क्या दोष है ?" इस प्रकार कुशील पुरुषों का कथन सुनकर अल्प पराक्रमी जीव संयम में शिथिल बन जाते हैं अतः विवेकी पुरुष इन सब बातों को जानकर कुशील, पासत्थ, अवसन्न आदि का संसर्ग न करे । णण्णत्थ अंतराएणं, परगेहे ण णिसीयए । गाम - कुमारियं किड्डु, णाइवेलं हसे मुणी ।। २९॥ - २३७ For Personal & Private Use Only सुख रूप, Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयंगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ *******........ कठिन शब्दार्थ - परगेहे - गृहस्थ के घर में, णिसीयए बैठे, गामकुमारियं ग्राम के लड़कों का, किड्डुं क्रीडा, अइवेलं - मर्यादा रहित । भावार्थ - साधु, किसी रोग आदि अन्तराय के बिना गृहस्थ के घर में न बैठे तथा ग्राम के लड़कों का खेल न खेले एवं वह मर्य्यादा छोड़कर न हँसे । विवेचन - साधु को गृहस्थ के घर जाकर नहीं बैठना चाहिए । इस विषय में दशवैकालिक सूत्र के छठे अध्ययन में कहा भी है २३८ गोयरग्गपविट्ठस्स, णिसिज्जा जस्स कप्पड़ । इमेरिसमणायारं, आवज्जइ अबोहियं ॥ ५७ ॥ विवत्ती बंभचेरस्स, पाणाणं च वहे वहो । वणीमगपडिग्धाओ, पडिकोहो अगारिणं ॥ ५८ ॥ अगुत्ती बंभचेरस्स, इत्थीओ वा वि संकणं । कुशीलवगुणं ठाणं, दूरओ परिवज्जए ॥ ५९ ॥ तिण्हमण्णयरागस्स, णिसिज्जा जस्स कप्पड़ । जराए अभिभूयस्स, वाहियस्स तवस्सिणो ॥ ६० ॥ साधु के अर्थ - साधु को गृहस्थी के घर बैठना नहीं चाहिए क्योंकि गृहस्थ के घर बैठने से ब्रह्मचर्य का नाश होने की तथा प्राणियों का वध होने से संयम दूषित होने की संभावना रहती है। उस समय यदि कोई भिखारी भिक्षा के लिये आवे तो उसकी भिक्षा में अन्तराय होने की सम्भावना रहती है। और साधु के चारित्र पर सन्देह होने से गृहस्थ कुपित भी हो सकता है । यहाँ तक कि मिथ्यात्व की प्राप्ति हो सकती है ।। ५७-५८ ।। गृहस्थ के घर बैठने से साधु के ब्रह्मचर्य की गुप्ति अर्थात् रक्षा नहीं हो सकती है और स्त्रियों के विशेष संसर्ग से ब्रह्मचर्य व्रत में शङ्का उत्पन्न हो सकती है। इसलिये कुशील को बढ़ाने वाले इस स्थान को साधु दूर से ही वर्ज दे ।। ५९ ॥ ऊपर बतलाया हुआ उत्सर्ग (सामान्य) मार्ग है अब इस विषय में शास्त्रकार अपवाद मार्ग बताते हैं जरा ग्रस्त (बुड्डा), व्यधित ( रोगी) और तपस्वी इन तीन में से किसी भी साधु को कारणवश गृहस्थ के घर बैठना कल्पता है अर्थात् शारीरिक दुर्बलता आदि के कारण यदि ये गृहस्थ के घर बैठें तो पूर्वोक्त दोषों की संभावना नहीं रहती है। ये तीन अपवाद आगमिक हैं इनके अतिरिक्त चौथा कोई अपवाद नहीं है। गांव के लड़के-लड़की जहाँ गेन्द या गुल्ली डण्डा आदि खेलते हैं उसको ग्रामकुमारिका कहते हैं । - For Personal & Private Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ९ २३९ साधु वह खेल न खेले तथा उस खेल के बीच होकर भी न जावे। साधु अपनी मर्यादा का पालन करे किन्तु हंसी, ठठ्ठा, मजाक न करे। क्योंकि भगवती सूत्र में कहा है - "जीवे णं भंते ! हसमाणे वा उस्सूयमाणे वा कइ कम्मपगडीओ बंधइ ? गोयमा!, सत्तविहबंधए वा अट्ठविहबंधए वा" . अर्थ - हे भगवन् ! हंसता हुआ अथवा उत्सुक होता हुआ जीव कितनी कर्म प्रकृतियों को बांधता है ? उत्तर - हे गौतम ! सात (आयुष्य को छोड़कर) या आठ कर्म प्रकृतियों को बान्धता है। हंसने के विषय में हिन्दी कवि ने तो इस प्रकार कहा है । ज्ञानी तो घट में हंसे, मुनि हंसे मुलकन्त। पण्डित तो नैना हंसे, हड़ हड़ मूर्ख हसन्त । अणुस्सुओ उरालेसु, जयमाणो परिव्यए । चरियाए अप्पमत्तो, पुट्ठो तत्थ हियासए ॥३०॥ कठिन शब्दार्थ - अणुस्सुओ - अनुत्सक-उत्सुक न हो, उरालेसु - उदार विषयों में, जयमाणो - यल पूर्वक, परिव्वए - संयम पालन करे, चरियाए - चर्या में, अप्पमत्तो - अप्रमत्त, अहियासए- सहन करे । भावार्थ - साधु मनोहर शब्दादि विषयों में उत्कण्ठित न हो किन्तु यत्नपूर्वक संयम पालन करे तथा भिक्षाचरी आदि में प्रमाद न करे एवं परीषह और उपसर्गों की पीड़ा होने पर सहन करे । हम्ममाणो ण कुप्पेज, वुच्चमाणो ण संजले । सुमणे अहियासिज्जा, ण य कोलाहलं करे ।।३१॥ कठिन शब्दार्थ.- हम्ममाणो - मारा जाता हुआ, कुप्पेज - क्रोध करे, वुच्चमाणो - गाली देने पर, संजले- उत्तेजित होना, समणे- प्रसन्नता पर्वक, कोलाहलं- हल्ला । भावार्थ - साधु को यदि कोई लाठी आदि से मारे या गाली देवे तो साधु प्रसन्नता के साथ सहन करता रहे परन्तु विपरीत वचन न बोले और हल्ला न करे । विवेचन - कोई अज्ञानी पुरुष साधु को लाठी, डण्डा, मुक्का आदि से मारे अथवा गाली आदि देकर तिरस्कार करे तो साधु होहल्ला आदि न करते हुए तथा मन में भी दुर्भाव न लाते हुए समभाव पूर्वक सहन करे। लद्धे कामे ण पत्येज्जा, विवेगे एवमाहिए । आयरियाई सिक्खेज्जा, बुद्धाणं अंतिए सया ॥३२॥ For Personal & Private Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 00000000........****************0000 कठिन शब्दार्थ - लद्धे प्राप्त (लब्ध) पत्थेज्जा - इच्छा करे, आयरियाई - आचार्य के पास रह कर, आचार की, सिक्खेज्जा- शिक्षा ग्रहण करे, बुद्धाणं ज्ञानियों के, अंतिए - पास में । भावार्थ साधु मिले हुए कामभोगों की इच्छा न करे । ऐसा करने पर निर्मल विवेक साधु को उत्पन्न हो गया है यह कहा जाता है । साधु उक्त रीति से रहता हुआ सदा आचार्य के पास रहकर ज्ञान दर्शन और चारित्र की शिक्षा ग्रहण करता रहे । २४० विवेचन - जो कामभोग प्राप्त हुए हैं और स्वाधीन हैं, उन्हें जो छोड़े वह वास्तविक त्यागी कहलाता है तथा मुनि परभव के लिये ऐसे काम भोग प्राप्त करने के लिये ब्रह्मदत्त की तरह नियाणा भी न करे। मोक्षार्थी मुनि को अपने गुरु के पास रह कर सदा शास्त्रों का अभ्यास करते रहना चाहिये । सुस्सूसमाणो उवासेज्जा, सुपण्णं सुतवस्सियं । वीराजे अत्तपणेसी, धिइमंता जिइंदिया ॥ ३३ ॥ कठिन शब्दार्थ - सुस्सूसमाणो सुश्रूषा करता हुआ, उवासेंज्जा उपासना करे, सुपण्णंसुप्रज्ञ, सुतवस्सियं सुतपस्वी की, अत्तपण्णेसी जिइंदिया - जितेन्द्रिय । आत्म प्रज्ञा के अन्वेषी, धिइमंता - धृतिमान्, - - भावार्थ - जो स्वसमय और परसमय को जानने वाले तथा उत्तम तपस्वी हैं ऐसे गुरु की शुश्रूषा करता हुआ साधु उपासना करे। जो पुरुष कर्म को विदारण करने में समर्थ तथा केवलज्ञान के धृतिमान् और जितेन्द्रिय हैं वे ही ऐसा कार्य करते हैं । गिहे दीव - मपासंता, पुरिसादाणीया गरा । ते वीरा बंधणुम्मुक्का, णावकंखंति जीवियं ॥ ३४ ॥ - कठिन शब्दार्थ - दीवं दीप- ज्ञान का प्रकाश अथवा द्वीप, अपासंता- नहीं देखने वाले, पुरिसादाणीया - पुरुषादानीय, बंधणुम्मुक्का - बंधनों से मुक्त, ण नहीं अवकंखंति - इच्छा करते हैं। भावार्थ - गृहवास में ज्ञान का लाभ नहीं हो सकता है यह सोचकर जो पुरुष प्रव्रज्या धारण करके उत्तरोत्तर गुणों की वृद्धि करते हैं वे ही मोक्षार्थी पुरुषों के आश्रय करने योग्य हैं । वे पुरुष बन्धन मुक्त हैं तथा वे असंयम जीवन की इच्छा नहीं करते हैं। - - विवेचन- गृहस्थ अवस्था पाश (बन्धन) रूप है। इसमें रहते हुए यथेष्ट श्रुतज्ञान रूप भाव दीप (दीपक) प्राप्त नहीं हो सकता अथवा समुद्र आदि में प्राणियों को विश्राम देने वाले द्वीप के समान जो संसार समुद्र में प्राणियों को विश्राम देने वाला सर्वज्ञ भगवान् के द्वारा प्ररूपित चारित्र धर्म रूप भाव द्वीप है वह प्राप्त नहीं हो सकता। यह समझकर जो प्रव्रज्या अङ्गीकार करते हैं वे मूल गुण और उत्तर गुणों में उत्तरोत्तर वृद्धि करते हुए वे स्वयं तो अपनी आत्मा का कल्याण करते ही हैं किन्तु मोक्षार्थी दूसरे पुरुषों के लिये भी आश्रय रूप बनते हैं । For Personal & Private Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....................................... इस गाथा में "पुरिसादाणिया" शब्द दिया है जिसका शब्दार्थ है - पुरुषों के द्वारा आदानीय अर्थात् ग्रहण करने योग्य । सम्यग् ज्ञान, दर्शन, चारित्र को पुरुषादानीय कहते हैं अथवा मोक्ष को पुरुषादानीय कहते हैं। क्योंकि आत्मार्थी पुरुष ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप मोक्ष मार्ग को अङ्गीकार करके मोक्ष को प्राप्त करते हैं । अध्ययन ९ वैसे तो आगमों में जहाँ जहां भगवान् पार्श्वनाथ का वर्णन आया है वहाँ सब जगह भगवान् पार्श्वनाथ के लिये 'पुरुषादानीय' विशेषण आया है तथा पुरुषादानीय भगवान् पाश्वर्वनाथ की परम्परा के गांगेय आदि अनगारों को उनके प्रश्नों का उत्तर देते हुए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने भी भगवान् पार्श्वनाथ के लिये यह विशेषण लगाया है कि पुरुषादानीय भगवान् पार्श्वनाथ ने जैसी प्ररूपणा की है, वैसी ही प्ररूपणा मैं भी करता हूँ। उपरोक्त गुण वाले महापुरुष ही आठ प्रकार कर्मों को विशेष रूप से नाश करने वाले वीर हैं एवं पुत्र कलत्र आदि के स्नेह रूप बाह्य और आभ्यन्तर बन्धन से वे ही मुक्त हैं। वे पुरुष असंयम जीवन की अथवा प्राण धारण रूप जीवन की इच्छा नहीं करते हैं । अगिद्धे सह फासेसुं, आरंभेसु अणिस्सिए । सव्वं तं समयातीतं, जमेतं लवियं बहु ।। ३५ ॥ कठिन शब्दार्थ - अगिद्धे अगृद्ध-अनासक्त, सद्दफासेसु- शब्द और स्पर्श में, अणिस्सिए - अनिश्रित-अप्रतिबद्ध, लवियं - कहा गया है । भावार्थ - साधु मनोहर शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श में आसक्त न रहें तथा वह सावद्य अनुष्ठान न करे । इस अध्ययन के आदि से लेकर जो बातें (निषेध रूप से) बताई गई हैं वे जिनागम से विरुद्ध होने के कारण निषेध की गई है परन्तु जो अविरुद्ध हैं उनका निषेध नहीं है । विवेचन - शब्द आदि पांच विषयों में जो मनोहर हैं उनमें साधु राग भाव न करे और अमनोहर में द्वेष न करे। जिनागमों से विरुद्ध बातों का आचरण न करे किन्तु आगम विहित अनुष्ठानों में प्रबल पुरुषार्थ करे । - २४१ 0000 अइमाणं च मायं च तं परिण्णाय पंडिए । गारवाणि य सव्वाणि, णिव्वाणं संधए मुणि ।। ।। त्ति बेमि ।। ३६ ॥ कठिन शब्दार्थ - अइमाणं अतिमान, गारवाणि - गौरवों को, णिव्वाणं- निर्वाण-मोक्ष की, संध - प्रार्थना करे । भावार्थ - विद्वान् मुनि अतिमान, माया और सब प्रकार के विषय भोगों को त्याग कर मोक्ष की प्रार्थना करे । - For Personal & Private Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ *********00 विवेचन - आत्मार्थी मुनि क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषाय के यथार्थ स्वरूप को ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग कर दे । गारव अथवा गौरव के तीन भेद हैं - ऋद्धि गौरव, रस गौरव, साता गौरव । इन गौरवों को संसार का कारण जानकर मुनि छोड़ देवे और समस्त कर्मों का क्षय रूप मोक्ष में अपने चित्त का अनुसंधान करे। जैसे जिस पानी के नीचे अग्नि जलती रहती है, वह पानी उछाल खाते रहता है, उबलता रहता है । परन्तु अग्नि जब बुझ जाती है तब पानी अपने स्वाभाविक गुण में आकर सर्वथा शीतल बन जाता है । इसी प्रकार आठ प्रकार की कर्म रूपी अग्नि अथवा कषाय रूपी अग्नि जलती रहती है तब तक जीव संसार में परिभ्रमण करता हुआ दुःखी होता है। परन्तु जब आठकर्म और कंषाय रूपी अग्नि का सर्वथा क्षय हो जाता है तब जीव अपने स्वाभाविक गुण में स्थित हो जाता है। सर्वथा शीतल बन जाता है यही निर्वाण शब्द का अर्थ हैं। "निर्वाति सर्वथा शीतली भवति इति निर्वाणम्" २४२ तिमि इति ब्रवीमि । श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य श्री जम्बूस्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन् जम्बू ! जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखारविन्द से सुना है वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ। अपनी मनीषिका (बुद्धि) से कुछ नहीं कहता हूँ । इस अध्ययन में धर्म का स्वरूप बताने के लिए निषेधात्मक शैली ग्रहण की है अर्थात् 'धर्म क्या है ?' इस प्रश्न के उत्तर में 'अमुक कर्त्तव्य नहीं करना चाहिए' यह कहा है और अन्त में एक वाक्य में धर्म की विधि- प्रवृत्ति के विषय में कह दिया है । वह वाक्य है "निर्वाण का अनुसंधान करे ।" यदि इसे धर्म का विधानात्मक वाक्य न कहकर, धर्म की परिभाषा के लिए 'ध्रुव वाक्य' कहा जाय तो अत्युक्ति नहीं है । क्योंकि जैन धर्म के सारे विधि-निषेध इस वाक्य के आशय पर ही आधारित हैं'आत्म- मुक्ति का विरोधी एक भी कर्तव्य मत करो-' यही जैन धर्म का सार है । इसलिए धर्म स्वरूप के प्रतिपादन में निषेधात्मक शैली ही अधिक सफल हो सकती है और एक कारण यह भी है कि निषेधात्मक शैली से त्याग-भावना पर अधिक जोर देना । क्योंकि साधक को, विवेकशील त्याग के द्वारा धर्म का, खुद को ही साक्षात् करना होता है ।. कुछ शब्दों में अध्ययन की सार रूप धर्म की निम्न परिभाषा बनाई जा सकती है-' वीतराग व्यक्तियों द्वारा कथित श्रुत को समझ कर, पूर्ण विश्वास के साथ, स-यत्न आत्मा के अनुकूल आचरण करना ही धर्म है ।' ॥ धर्म नामक नववां अध्ययन समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधि नामक दसवाँ अध्ययन उत्थानिका - नववें अध्ययन में धर्म का स्वरूप बतलाया गया है। वह चित्त की समाधि होने पर ही हो सकता है। इसलिये इस अध्ययन में समाधि का वर्णन किया जाता है। समाधि के चार भेद हैं - नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। यहाँ पर ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप रूप भाव समाधि का वर्णन किया जाता है। आघं मइमं अणुवीइ धम्मं, अंजू समाहि तमिणं सुणेह.। अपडिण्ण भिक्खू उ समाहि-पत्ते, अणियाणभूएसु परिव्वएण्जा ॥ १ ॥ कठिन शब्दार्थ - आघं - कथन किया है, अणुवीइ - विचार कर-जान कर, अंजू - ऋजु, अपडिण्ण - अप्रतिज्ञ-तप का फल नहीं चाहता हुआ, समाहिपत्ते - समाधि प्राप्त, अणियाणभूएसु - प्राणियों की हिंसा न करता हुआ, परिव्वएज्जा - संयम का पालन करे । - भावार्थ - केवलज्ञानी भगवान् महावीर स्वामी ने सरल तथा मोक्षदायक धर्म का कथन किया है। हे शिष्यो. ! तुम उस धर्म को सुनो । अपने तप का फल नहीं चाहता हुआ तथा समाधियुक्त और प्राणियों का आरम्भ न करता हुआ साधु शुद्ध संयम का पालन करे । विवेचन - गाथा में 'मइम' शब्द दिया है - जिसका अर्थ है मर्तिमान। यहाँ पर मतिमान . शब्द का अर्थ किया गया है केवलज्ञानी तीर्थङ्कर। ऐसे वीतराग तीर्थङ्कर भगवान् महावीर स्वामी ने श्रुत चारित्र रूप धर्म का कथन किया है। मूल में 'अणुवीइ' शब्द दिया है जिसका अर्थ होता है विचार कर। सर्वज्ञ भंगवन्त तो सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को देखते और जानते हैं परन्तु प्रज्ञापना योग्य पदार्थों का ही कथन करते हैं तथा कैसा श्रोता है, किस सिद्धान्त को मानने वाला है और किस देव को नमस्कार करने वाला है। इत्यादि बातों को विचार कर फिर.धर्मोपदेश फरमाते हैं। श्री सुधर्मा स्वामी फरमाते हैं कि हे भव्य जीवो ! भगवान् द्वारा प्ररूपित धर्म और समाधि को मैं कहता हूँ सो आप लोग ध्यान पूर्वक सुनो।। १ ॥ उहुं अहेयं तिरियं दिसासु, तसा य जे थावर जे य पाणा । हत्थेहि पाएहि य संजमित्ता, अदिण्ण-मण्णेसु य णो गहेज्जा ॥ २ ॥ कठिन शब्दार्थ - दिसासु - दिशाओं में, संजमित्ता - संयम का पालन करे, अदिण्णं - न दी हुई, अण्णेसु- दूसरों के द्वारा, गहेजा - ग्रहण करे । For Personal & Private Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ भावार्थ - ऊपर, नीचे और तिरछे तथा आठ ही दिशाओं में जो त्रस और स्थावर प्राणी निवास करते हैं उनको, हाथ पैर वश करके पीड़ा न देनी चाहिये तथा दूसरे से न दी हुई चीज न लेनी चाहिये । सुयक्खाय-धम्मे वितिगिच्छ-तिण्णे, लाढे घरे आयतुले पयासु । ... आयं ण कुज्जा इह जीवियट्ठी, चयं ण कुजा सुतवस्सी भिक्खू ॥३॥ .. कठिन शब्दार्थ - सुयक्खाय धम्मे - स्वाख्यात (अच्छी तरह प्रतिपादन करने वाला) धर्म, वितिगिच्छतिण्णे - धर्म में शंका नहीं करने वाला, लाढे - प्रधान-प्रासुक आहार से जीवन निर्वाह करने वाले आयतुले - आत्म तुल्य, पयासु - प्रजा-जीवों को, जीवियट्ठी-जीवन का अर्थी, चय-संचय, सुतवस्सी- उत्तम तपस्वी। भावार्थ - श्रुत और चारित्र धर्म को सुन्दर रीति से कहने वाला तथा तीर्थंकरोक्त धर्म में शङ्कारहित, प्रासुक आहार से शरीर का निर्वाह करने वाला उत्तम तपस्वी साधु समस्त प्राणियों को अपने समान समझता हुआ संयम का पालन करे और इस लोक में चिरकाल तक जीने की इच्छा से आस्रवों का सेवन न करे एवं भविष्य काल के लिये धनधान्य आदि का सञ्चय न करे । __ : विवेचन - आत्म-शांति के चार साधन उपर्युक्त गाथा में बताये हैं; ये चार साधन ही मुख्य हैं१. ज्ञानाध्ययन, २. विश्वास या विनय, ३. आत्म-तुल्य व्यवहार और ४. तपश्चरण व आजीविका की निश्चिन्तता यानी अकिञ्चन वृत्ति । साधक इन चारों साधनों को साथ में लेकर ही, लक्ष्य वेधं में सफल हो सकता है। .. गाथा में दिये हुये 'सुयक्खाय धम्मे' (स्वाख्यात धर्म) शब्द से ज्ञान समाधि का कथन किया गया है। 'वितिगिच्छ-तिण्णे' (विचिकित्सा तीर्णः) चित्त की अस्थिरता अथवा अपने व्रत के कारण साधु-साध्वी के मलिन शरीर और वस्त्र को देख कर घृणा करना, ये दोनों बातें जिसके चित्त से निकल गई है उसको विचिकित्सातीर्ण कहते हैं। इस शब्द से शास्त्रकार ने दर्शन समाधि का कथन किया है। 'आयतुले पयासु' (आत्मवत् सर्व प्रजासु) इस शब्द से चारित्रं समाधि रूप भाव समाधि का कथन किया गया है और यही भाव साधुता है। जैसा कि कहा है - जह मम ण पियं दुक्खं, जाणिय एमेव सव्वजीवाणं। ण हणइ ण हणावेइ य, सममणइ तेण सो समणो ॥१॥ : छाया - यथा मम न प्रियं दुःखं, ज्ञात्वा एवमेव सर्वसत्त्वानां। नहन्ति न घातयति च समणणति तेन स श्रमणः ॥१॥ अर्थ - जिस प्रकार मुझे दुःख प्रिय नहीं है उसी प्रकार सभी जीवों को दुःख प्रिय नहीं है। ऐसा For Personal & Private Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १० २४५ जानकर जो किसी जीव की हिंसा करता नहीं, करवाता नहीं और करते हुए की अनुमोदना भी नहीं करता। इस प्रकार समभाव युक्त चित्त वाला होने से श्रमण कहलाता है। - जो असंयम जीवन की इच्छा नहीं करता तथा बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह का संचय नहीं करता तथा उत्कृष्ट तप से कर्मों की निर्जरा करता है वही सच्चा भाव भिक्षु है ॥ ३ ॥ सव्विंदिया-भिणिव्वुडे पयासु, चरे मुणी सव्वउ विप्पमुक्के । पासाहि पाणे य पुढो वि सत्ते, दुक्खेण अट्टे परितप्पमाणे ॥ ४ ॥ कठिन शब्दार्थ - सव्विंदिय - सभी इन्द्रियाँ, अभिणिब्युडे- अभिनिर्वृत-संयत, विप्पमुक्के - विप्र मुक्त, पुढो - पृथक् पृथक्, अट्टे- आर्त, परितप्पमाणे- तप्त होते हुए। भावार्थ - साधु स्त्रियों के विषय में अपनी समस्त इन्द्रियों को रोककर जितेन्द्रिय बने तथा सब प्रकार के बन्धनों से मुक्त होकर शुद्ध संयम का पालन करे । इस लोक में अलग अलग प्राणिवर्ग दुःख भोग रहे हैं, यह देखो। - विवेचन - यहाँ 'पयासु' शब्द से 'स्त्री' शब्द का ग्रहण हुआ है। उसमें पांचों विषयों की विषयवासना रही हुई है। इसीलिए मुनि संवृतेन्द्रिय अर्थात् जितेन्द्रिय होकर शुद्ध संयम का पालन करे। गाथा में 'पाणे' और 'सत्ते' दो शब्द दिये हैं यद्यपि सूक्ष्म दृष्टि से सभी जीवों के लिए चार शब्दों का प्रयोग किया गया है यथा - प्राणाः द्वि, त्रि, चतुः प्रोक्ताः, भूतास्तु तरवः स्मृताः । जीवाः पञ्चेन्द्रियाः प्रोक्ताः, शेषाः सत्त्वाः उदीरिताः ॥ अर्थ - बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, जीवों को प्राण कहते हैं। पञ्चेन्द्रिय को जीव कहते हैं। पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय को सत्त्व कहते हैं । तरु अर्थात् वनस्पति को भूत कहते हैं। यह विशेष व्याख्या है। सामान्य व्याख्या में तो प्राण, भूत, जीव, सत्त्वइन चारों शब्दो में से किसी एक का प्रयोग होने पर सभी जीवों का अर्थात् एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक ग्रहण कर लेना चाहिए। . इन सब जीवों के विषय में आत्म तुल्य समझ कर मुनि संयम का पालन करे ॥४॥ एएसु बाले य पकुव्वमाणे, आवट्टइ कम्मसु पावएसु । अइवायओ कीरइ पावकम्म, णिउंजमाणे उ करेइ कम्मं ॥ ५ ॥ कठिन शब्दार्थ- पकुव्वमाणे - कष्ट देता हुआ, आवट्टइ - भ्रमण करता है, अइवायओजीव हिंसा से, णिउंजमाणे- दूसरों को हिंसा में नियुक्त करता हुआ। भावार्थ - अज्ञानी जीव पृथिवीकाय आदि प्राणियों को कष्ट देता हुआ पापकर्म करता है और For Personal & Private Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२४६ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ अपने पाप का फल भोगने के लिये वह पृथिवी काय आदि प्राणियों में ही बार बार जन्म लेता है। जीवहिंसा स्वयं करने और दूसरे के द्वारा करवाने एवं अनुमोदन करने से पाप उत्पन्न होता है । विवेचन - चौथी गाथा में जीव हिंसा का कथन किया गया है। यह तीन करण तीन योग से जीव हिंसा करने वाला प्राणी पापकर्म करने वाला है। इस कारण वह अपने किये हुए पाप का फल भोगने के लिये इन्हीं पृथ्वीकायादि जीवों में बार-बार जन्म लेकर अनन्त काल तक ताड़न, तापन और गालन आदि दुःखों का पात्र बनता रहता है। .. ____ मूल में "आवट्टइ" शब्द दिया है उसके स्थान पर "आउट्टइ" ऐसा पाठान्तर मिलता है। जिसका अर्थ यह है कि - बुद्धिमान् पुरुष अशुभ कर्मों का दुःख रूप फल देखकर, सुनकर, अथवा जानकर अठारह ही पापकर्मों से निवृत्त हो जाते हैं ॥ ५ ॥ आदीण-वित्ती व करेइ पावं, मंता उ एगंत-समाहिमाहु । बुद्धे समाहीय रए विवेगे, पाणाइवाया विरए ठियप्पां ॥ ६ ॥ कठिन शब्दार्थ - आदीण वित्ती - दीन वृत्ति वाला, एगंतसमाहिं - एकान्त समाधि का, आहु - उपदेश दिया, समाहीय - समाधि में, रए - रत, पाणाइवाया - प्राणातिपात से, विरए - ' विरत, ठियप्पा - स्थितात्मा । भावार्थ - जो पुरुष कंगाल और भिखारी आदि के समान करुणाजनक धंधा करता है वह भी पाप करता है यह जानकर तीर्थंकरों ने भावसमाधि का उपदेश दिया है । अतः विचारशील शुद्धचित्त पुरुष भावसमाधि और विवेक में रत होकर प्राणातिपात आदि अठारह ही पापों से निवृत्त रहे । विवेचन - जो करुणाजनक शब्द बोलकर कंगाल और भिखारी की तरह पेट भरने का धन्धा, करते हैं उसे आदीनवृत्ति कहते हैं। आदीनवृत्ति' की जगह कहीं पर 'आदीनभोगी' ऐसा पाठ भी मिलता है। इसका अर्थ यह है कि जो पुरुष दुःख से पेट भरता है वह भी पापकर्म उपार्जन करता है जैसा कि , कहा है - पिंडोलगेव दुस्सीले, णरगाओ ण मुच्चइ । अर्थ - रोटी टुकड़े के लिये भटकता हुआ पुरुष दुराचार, पापाचार करके नरक से नहीं छूट'; सकता है। अर्थात् कभी अच्छा आहार न मिलने से आर्तध्यान और रौद्रध्यान करके नरक में भी उत्पन्न हो सकता है। सव्वं जगं तू समयाणुपेही, पियमप्पियं कस्सइ णो करेजा । उट्ठाय दीणो य पुणो विसण्णो, संपूयणं चेव सिलोयकामी ॥ ७ ॥ कठिन शब्दार्थ - समयाणुपेही - समतानुप्रेक्षी-समभाव से देखने वाला, पियं - प्रिय, । For Personal & Private Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अध्ययन १० २४७ अप्पियं - अप्रिय, उहाय - उठकर, विसण्णो - विषण्ण-संयम से पतित, शिथिल, सिलोयकामी - श्लोककामी- प्रशंसा का अभिलाषी। . भावार्थ - साधु समस्त जगत् को समभाव से देखे । वह किसी का प्रिय अथवा अप्रिय न करे । कोई कोई प्रव्रज्या धारण करके परीषह और उपसर्गों की बाधा आने पर दीन हो जाते हैं और प्रव्रज्या छोड़कर पतित हो जाते हैं कोई अपनी पूजा और प्रशंसा के अभिलाषी हो जाते हैं । आहाकडं चेव णिकाममीणे, णियामचारी य विसण्णमेसी । इत्थीसु सत्ते य पुढो य बाले, परिग्गहं चेव पकुव्वमाणे ॥ ८ ॥ कठिन शब्दार्थ - आहाकडं - आधाकर्म, णिकाममीणे- अत्यन्त कामना करता है, णियामचारीनिकामचारी-अत्यन्त भ्रमण करता है, विसण्णं. - विषण्ण-अवसन्न-थका हुआ एसी - चाहने वाला, सत्ते - आसक्त । . . भावार्थ - जो पुरुष प्रव्रज्या लेकर आधाकर्मी आहार आदि की चाहना करता है और आधाकर्मी आहार आदि के लिये अत्यन्त भ्रमण करता है वह कुशील है तथा जो स्त्री में आसक्त होकर उसके विलासों में मोहित हो जाता है तथा स्त्री प्राप्ति के लिये परिग्रह का संचय करता है वह पाप की वृद्धि करता है । 'विवेचन - प्रश्न - आधाकर्म किसे कहते हैं ? ... उत्तर - 'आधया साधुप्रणिधानेन यत् सचेतनं अचेतनं क्रियते, अचेतनं वा पच्यते, यूयते वस्त्रादिकं विरच्यते गृहादिकं इति आधाकर्मः।' ... अर्थ - साधु साध्वियों के लिये सचित्त वस्तु को अचित्त बनाना, अचित्त को पकाना, कपड़े आदि बूनना तथा प्रकान आदि बनवाना आदि आधाकर्म कहलाता है। .. - गाथा में 'निकाममीणे' शब्द दिया है जिसका अर्थ है - आधाकर्मी आहारादि की अत्यन्त चाहना करता है। इसी बात को विशेष स्पष्ट करने के लिये गाथा में 'णिकामचारी' शब्द भी दिया है जिसका अर्थ है - आधाकर्मी आदि वस्तु के लिये निमंत्रण की चाहना करता है। ऐसा साधु संयम पालन करने में ढीला, पासत्था, अवसन्न (संयम पालन से थका हुआ), कुशील बनकर गृहस्थ तक बन जाता है। फिर वह कामभोगों में आसक्त हो कर धन का संचय रूप परिग्रह करता है। वेराणुगिद्धे णिचयं करेइ, इओ चुए से इहमट्ठदुग्गं । तम्हा उ मेहावी समिक्ख धम्मं, चरे मुणी सव्वउ विप्पमुक्के ॥ ९ ॥ . कठिन शब्दार्थ - वेराणुगिद्धे - वैर में गृद्ध, णिचयं - संचय, चुए - च्युत होकर, इहं - यह, अट्ठदुग्गं - दुःखदायी स्थानों में, समिक्ख - समीक्षा कर, सव्वउ - सब से, विप्पमुक्के - मुक्त हो कर। For Personal & Private Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ . भावार्थ - जो पुरुष प्राणियों की हिंसा करता हुआ उनके साथ वैर बांधता है वह पाप की वृद्धि करता है तथा वह नरक आदि के दुःखों को प्राप्त करता है इसलिये विद्वान् मुनि धर्म को विचार कर सब अनर्थों से रहित होकर संयम का पालन करे । विवेचन - गाथा में 'वेराणुगिद्धे' शब्द दिया है जिसका अर्थ है - जो कार्य करने से प्राणियों को पीड़ा पहुंचती है उससे उन जीवों के साथ अनेक भवों के लिये वैर बन्ध जाता है। कहीं पर 'वेराणुगिद्धे' के स्थान पर 'आरम्भ सत्तो' ऐसा पाठान्तर है जिसका अर्थ है - सावद्य अनुष्ठान में जो आसक्त है वह अनुकम्पा रहित है। ऐसा व्यक्ति नरक आदि गतियों में जाकर दुःख भोगता है। इसलिये विवेकी और मेधावी (मर्यादा में स्थित) पुरुष श्रुत और चारित्र धर्म को स्वीकार करके मोक्ष प्राप्ति के कारण रूप शुद्ध संयम पालन करे। आयं ण कुज्जा इह जीवियट्ठी, असज्जमाणो य परिवएग्जा। णिसम्मभासी य विणीय गिद्धिं, हिंसण्णियं वा ण कह करेजा ॥ १० ॥ कठिन शब्दार्थ - आयं - आय-लाभ, जीवियट्ठी - जीवन का अर्थी, असज्जमाणो - आसक्त न होता हुआ, परिवएज्जा - संयम में प्रवृत्ति करे, णिसम्मभासी - विचार कर बोलने वाला, विणीयहटा कर हिंसण्णियं - हिंसा संबंधी, कहं - कथा । भावार्थ - साधु इस संसार में चिरकाल तक जीने की इच्छा से द्रव्य का उपार्जन न करे तथा स्त्री पुत्रादि में आसक्त न होता हुआ संयम में प्रवृत्ति करे । साधु विचार कर कोई बात कहे तथा शब्दादि विषयों से आसक्ति हटाकर हिंसायुक्त कथा न कहे। विवेचन - द्रव्य का लाभ अथवा आठ प्रकार के कर्मों की प्राप्ति को यहां 'आय' कहा है। असंयम जीवन की इच्छा से अथवा भोग प्रधान जीवन की इच्छा से मुनि उपर्युक्त आय को न करे। 'आयंण कुजा' के स्थान पर 'छंदणंण कुज्जा' ऐसा पाठान्तर भी है। जिसका अर्थ है - मुनि अपनी स्वच्छंद प्रवृत्ति को रोके और इन्द्रियों के विषय भोग की इच्छा न करे। आसक्ति को हटाकर विचार कर वचन बोले। हिंसा से युक्त कथा न कहे और सावध वचन न बोले। आहाकडं वा ण णिकामएग्जा, णिकामयंते य ण संथवेजा। धुणे उरालं अणुवेहमाणे, चिच्चा ण सोयं अणवेक्खमाणो ॥ ११ ॥ कठिन शब्दार्थ - णिकामएजा - कामना करे, णिकामयंते- कामना करने वालों का, संथवेजापरिचय करे, धुणे - कृश करे, उरालं - औदारिक शरीर को, सोयं - शोक को, अणुवेहमाणे - अपेक्षा रखता हुआ, देखता हुआ। अणवेक्ख-माणो- अपेक्षा नहीं करता हुआ। भावार्थ-साधु आधाकर्मी आहार आदि की इच्छा न करे और जो आधाकर्मी आहार की इच्छा । For Personal & Private Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करता है उसके साथ परिचय न करे तथा निर्जरा की प्राप्ति के लिये शरीर को कृश करे और शरीर की परवाह न रखता हुआ शोक को छोड़कर संयम पालन करे । विवेचन- आधाकर्मी आहार आदि कर्म बन्ध एवं दुर्गति का कारण है। आधाकर्मी आहार आदि का सेवन करने वाले मुनियों के साथ लेना देना, साथ रहना, बातचीत करना, परिचय करना आदि व्यवहार भी न करे । शुद्ध आहार का सेवन भी सदा न करे किन्तु तपस्या के द्वारा शरीर को कृश (दुर्बल) करे और शरीर की दुर्बलता को देख कर शोक चिन्ता भी नहीं करे। तपस्या से कर्मों की भारी निर्जरा होती है। एगत्तमेयं अभिपत्थरज्जा, एवं पमोक्खो ण मुसं ति पासं । एसप्पमोक्खो अमुसे वरे वि, अकोहणे सच्च - रए तवस्सी ।। १२ ॥ कठिन शब्दार्थ - एगत्तं एकत्व, एवं प्रमोक्ष, अमुसे - अमृषा, वरे श्रेष्ठ, अकोहणे तपस्वी । यह अभिपत्थरज्जा- भावना करे, पमोक्खो अक्रोध-क्रोध रहित, सच्चरए - सत्यरत, तवस्सी - - अध्ययन १० - - भावार्थ साधु एकत्व की भावना करे क्योंकि एकत्व की भावना से ही निःसङ्गता को प्राप्त होता है । यह एकत्व की भावना ही उत्कृष्ट मोक्ष है अतः जो इस भावना से युक्त होकर क्रोध नहीं करता है तथा सत्य भाषण और तप करता है वही पुरुष सबसे श्रेष्ठ है । विवेचन - मुनि एकत्व की इच्छा करे। दूसरे की सहायता की इच्छा न करे। क्योंकि जन्म, जरा, मरण, रोग और शोक से परिपूर्ण इस जगत् में अपने किये हुए कर्मों से दुःख भोगते हुए प्राणी की रक्षा करने में कोई भी समर्थ नहीं है। जैसा कि कहा है - - २४९ ." एगो मे सासओ अप्पा, णाणदंसणसंजुओ । सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा ॥ १ ॥ " ज्ञान दर्शन से युक्त मेरा एक आत्मा ही शाश्वत है बाकी के सभी पदार्थ बाहरी हैं और वे कर्म के कारण संयोग को प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार साधु सदा एकत्व की भावना करता रहे। एकत्व की भावना करने से ही मुक्ति की प्राप्ति होती है ॥ १२ ॥ इत्थी या आरय मेहुणाओ, परिग्गहं चेव अकुत्र्वमाणे । उच्चावसु विसएसु ताई, णिस्संसयं भिक्खू समाहि पत्ते ।। १३ ॥ कठिन शब्दार्थ - आरय अरत निवृत्त-विरत, उच्चावएसु- उच्च और अवच अर्थात् ऊंचा और नीचा नाना प्रकार के, विसएस विषयों में, ताई रक्षक, णिस्संसयं निःसंदेह, समाहि - समाधि को, पत्ते प्राप्त होता है । For Personal & Private Use Only - - Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० . . श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ भावार्थ - जो साधु स्त्रियों के साथ मैथुन नहीं करता है तथा परिग्रह नहीं करता है एवं नाना प्रकार के विषयों में रागद्वेष रहित होकर जीवों की रक्षा करता है वह निःसन्देह समाधि को प्राप्त है। विवेचन - मैथुन के तीन प्रकार कहे गये हैं - यथा- देव सम्बन्धी, मनुष्य सम्बन्धी और तिर्यञ्च सम्बन्धी इन तीन प्रकार के मैथुन से जो निवृत्त हैं। यहाँ मैथुन शब्द तो उपलक्षण है इससे प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान और परिग्रह इन चारों का भी ग्रहण हो गया है । अर्थात् पञ्च महाव्रतधारी मुनि किसी भी वस्तु में रागद्वेष न करता हुआ तथा मूल गुण और उत्तर गुणों में जो निरन्तर सावधान रहता है, वह भाव समाधि को प्राप्त होता है अर्थात् मुक्ति को प्राप्त होता है ॥ १३ ॥ अरइं रइं च अभिभूय भिक्खू, तणाइफासं तह सीयफासं ।. .. उण्हं च दंसं चाहियासएग्जा, सुब्भिं व दुब्भिं व तितिक्खएग्जा ॥ १४ ॥ कठिन शब्दार्थ - अरई - अरति को, रई - रति को, अभिभूय - तिरस्कृत करके, अहियासएज़ासहन करें, तितिक्खएज्जा - समभाव पूर्वक सहन करे। भावार्थ - साधु संयम में खेद और असंयम में प्रेम को त्याग कर तृण आदि तथा शीत, उष्ण, दंशमशक और सुगन्ध तथा दुर्गन्ध को सहन करे। . . . . विवेचन - वह भाव साधु परमार्थदर्शी है जो शरीर आदि से निस्पृह होकर आये हुए शीत, उष्ण, दंशमशक, भूख, प्यास आदि परीषहों को समभाव पूर्वक निर्जरा के लिये सहन करता है। इस गाथा में 'अहियासएज्जा और तितिक्खएजा' ये दो शब्द दिये हैं जिसमें अहियासएजा का अर्थ है सहन करना। संसार में रहता प्राणी लोभ की प्रवृत्ति आदि कारणों से अपने लिये प्रयुक्त किये गये अपमान जनक हलके शब्दों को सहन करता है। किन्तु सहन करने में वैसी सकाम निर्जरा नहीं होती। इसीलिए यहाँ शास्त्रकार ने दूसरा शब्द दिया है - 'तितिक्खएजा' जिसका अर्थ है प्रतीकार करने की शक्ति होते हुए भी उसका प्रतीकार नहीं करे। किन्तु समभाव पूर्वक सहन करे वह भी केवल मोक्ष प्राप्ति के अत्यन्त प्रबल कारण मात्र निर्जरा के लिये सहन करे। यही बात’ श्री वाचक मुख्य उमास्वाति ने अपने तत्त्वार्थ सूत्र के ९वें अध्ययन में कहीं है - 'मार्गाच्यवन निर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहाः ॥८॥ अर्थ - संयम मार्ग में स्थिर रहने के लिये और निर्जरा के लिये मुनियों को जो सहन करने चाहिये उन्हें परीषह कहते हैं ॥ ८ ॥ ।। १४ ॥ गुत्तो वइए य समाहि-पत्तो, लेसं समाहट्ट परिवएज्जा । गिहं ण छाए ण वि छायएज्जा, संमिस्स-भावं पयहे पयासु ॥ १५ ॥ For Personal & Private Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000 कठिन शब्दार्थ - गुत्तो गुप्त, वइए छाए - छावे, छायएज्जा - छवावे, संमिस्सभावं अध्ययन १० - - भावार्थ - जो साधु वचन से गुप्त है वह भावसमाधि को प्राप्त है । साधु शुद्ध लेश्या को ग्रहण करके संयम का अनुष्ठान करे तथा वह स्वयं घर न छावे और दूसरों से भी न छवावे तथा स्त्रियों के साथ संसर्ग न करे । 0000000000000000000 वचन से, समाहट्टु- ग्रहण करके, गिहं - गृह को, - मिश्रभाव का । विवेचन -: अनुयोगद्वार में साधु के लिये बारह उपमाएं दी गई हैं । उनमें से एक उपमा है 'उरग' अर्थात् सर्प। यह उपमा इस प्रकार घटित की गई है कि जैसे सर्प अपने लिये बिल नहीं बनाता है किन्तु दूसरों के द्वारा बनाये हुए बिल में निवास करता है। उसी प्रकार साधु अपने लिये मकान बनावे नहीं, बनवावे नहीं तथा उनके लिये बनाकर दिये गये मकान में भी निवास करे नहीं । इस प्रकार मकान पर छप्पर छाना, छवाना तथा छवाने का अनुमोदन भी करे नहीं । परन्तु गृहस्थों ने जो मकान अपने लिये बनाये हैं ऐसे निर्दोष स्थान में साधु ठहरे। गृहस्थों के साथ एवं स्त्रियों के साथ अधिक परिचय करे नहीं ॥ १५ ॥ . जे केइ लोगंमि उ अकिरिय-आया, अण्णेण पुट्ठा धुय-मादिसंति । आरंभ सत्ता गढिया य लोए, धम्मं ण जाणंति विमोक्ख हेडं ॥ १६ ॥ कठिन शब्दार्थ - लोगंमि - लोक में, अकिरिय क्रिया रहित, आया - आत्मा, अण्णेण - दूसरों के, पुट्ठा - पूछने पर, धुयं धूत- मोक्ष का, आदिसंति- आदेश करते हैं, आरंभ सत्ता आरंभ में आसक्त, गढिया - मूच्छित, विमोक्ख हेउं मोक्ष के कारण को । भावार्थ - इस लोक में जो आत्मा को क्रियारहित मानते हैं और दूसरे के पूछने पर मोक्ष का आदेश करते हैं वे आरम्भ में आसक्त और विषयभोग में मूर्च्छित हैं वे मोक्ष के कारण धर्म को नहीं जानतें हैं । विवेचन सांख्य मतावलम्बी आत्मा को अकर्त्ता, अमूर्त और सर्वव्यापी मानते हैं और इस . अक्रियावाद से मुक्ति भी मानते हैं परन्तु क्रिया रहित आत्मा में बन्ध और मोक्ष भी घटित नहीं होते हैं। उनके तथाकथित साधु कच्चे जल से स्नानादि सावद्य क्रिया करते हैं इसलिये मोक्ष के कारणभूत श्रुत और चारित्र धर्म को भी वे नहीं जानते हैं । अतएव वे मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते हैं ॥ १६ ॥ पुढो य छंदा इह माणवा उ, किरियाकिरियं च पुढो य वायं । पवड्डइ वेरमसंजयस्स ।। १७॥ I जायस बालस्स पकुव्व देहं कठिन शब्दार्थ - छंदा - छंद, रुचि, अभिप्राय, माणवा - मनुष्य, किरियाकिरियं - क्रिया अक्रिया को, पुढो भिन्न भिन्न जायस्स असंजयस्स - असंयत का । - जन्मे हुए, वेरं - वैर को, पवड्डइ बढाता है, - २५१ - For Personal & Private Use Only - Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ - मनुष्यों की रुचि भिन्न भिन्न होती है इस कारण कोई क्रियावाद और कोई अक्रियावाद को मानते हैं तथा कोई जन्मे हुए बालक की देह काटकर अपना सुख उत्पन्न करते हैं वस्तुतः अंसंयमी पुरुष का प्राणियों के साथ वैर बढ़ता है । विवेचन - क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी, इन चार वादियों के ३६३ भेद होते हैं। जिनका वर्णन पहले कर दिया गया है। दूसरे को पीड़ा देने वाली क्रिया करने वाला और किसी भी पाप का त्याग नहीं किया हुआ असंयति जीव अनेक जन्मों तक प्राणियों के साथ वैर बढाता है अतएव वह मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता है। आउक्खयं चेव अबुज्झमाणे, ममाइ से साहसकारी मंदे। .. अहो य राओं परितप्पमाणे, अद्वेसु मूढे अजरामरे व्व ।। १८ ॥ कठिन शब्दार्थ - आउक्खयं - आयु क्षय को अबुज्झमाणे- नहीं जानता हुआ, ममाइ - ममत्वशील. साहसकारी - बिना सोचे काम करने वाला. परितप्पमाणे - पीडित होता हआ. अजरामरे -व्व - अजर अमर की तरह । भावार्थ - आरम्भ में आसक्त अज्ञानी जीव अपनी आयु का क्षय होना नहीं जानता है । वह : वस्तुओं में ममता रखता हुआ पापकर्म करने से नहीं डरता है । वह रात दिन धन की चिन्ता में पड़ा हुआ अजर अमर की तरह धन में आसक्त रहता है । विवेचन - आरम्भ और परिग्रह में आसक्त जीव अपने आयुष्य के अमूल्य क्षण बीतते जा रहे हैं' इस बात को भी नहीं जानता। वह निरन्तर परिग्रह बढ़ाने में आसक्त रहता है और ज्यों ज्यों परिग्रह बढ़ता है त्यों-त्यों उसको स्वाभाविक मिला हुआ आनन्द और सुख घटता जाता है। जैसा कि कहा है - सोना तूं तो बडा कुपातर, तूने हमको खार किया । तूं तो सोता सुख से अन्दर, हमको चोकीदार किया। सोना जब तूं था नहीं, सोना था आराम। सोना जबतूं आ गया, सोना हुआ हराम ॥ सोना जिसके पास हो, सोने में है हार। सो ना सो ना कह रहा, बारम्बार पुकार॥. अतः मोक्षार्थी पुरुष को आरम्भ परिग्रह का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये। जहाहि वित्तं पसवो य सव्वं, जे बंधवा जे य पिया य मित्ता। लालप्पइ सेवि य एइ मोह, अण्णे जणा तंसि हरंति वित्तं ॥ १९ ॥ For Personal & Private Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३ अध्ययन १० 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कठिन शब्दार्थ - जहाहि - छोड़ो, वित्तं - धन को, पसवो- पशु आदि को, पिया - प्रिय, मित्ता - मित्र, लालप्पइ - रोता है, हरंति - हर लेते हैं । ... भावार्थ - धन और पशु आदि सब पदार्थों को छोड़ो । बान्धव तथा प्रियमित्र कुछ भी उपकार नहीं करते तथापि मनुष्य इनके लिये रोता है और मोह को प्राप्त होता है । जब वह प्राणी मर जाता है तब दूसरे लोग उसका कमाया हुआ धन हर लेते हैं । । सीहं जहा खुड्डुमिगा चरंता, दूरे चरंति परिसंकमाणा। एवं तु मेहावी समिक्ख धम्मं, दूरेण पावं परिवज्जएज्जा ॥ २० ॥ कठिन शब्दार्थ - खुड्डुमिगा - छोटे मृग, चरंता - विचरते हुए, परिसंकमाणा - शंका करते हुए, मेहावी - मेधावी-बुद्धिमान्, समिक्ख - विचार कर, दूरेण - दूर से ही, परिवजएज्जा - वर्जित करे । भावार्थ - जैसे पृथिवी पर विचरते हुए छोटे मृग मरण की शंका से सिंह को दूर ही छोड़कर विचरते हैं इसी तरह बुद्धिमान् पुरुष धर्म का विचार कर पाप को दूर ही छोड़ देवे । विवेचन - शास्त्रकार यहाँ दृष्टान्त देकर समझाते हैं कि- जिस प्रकार जंगल में हरिण और सिंह दोनों रहते हैं। परन्तु सिंह के द्वारा मारे जाने के भय से सिंह से दूर ही घास पानी आदि आहार करते हैं। इसी प्रकार संयम मर्यादा में स्थित बुद्धिमान् मनि पाप के कारण रूप सावद्य अनुष्ठान को छोड़ कर शुद्ध संयम का पालन करे।। २० ॥ संबुज्झमाणे उ णरे मइमं, पावाउ अप्पाणं णिवट्टएज्जा। हिंसप्पसूयाइं दुहाई मत्ता, वेराणुबंधीणि महब्भयाणि ॥ २१ ॥ कठिन शब्दार्थ-संबुझमाणे - समझने वाला, मइमं - मतिमान-बुद्धिमान्, पावाउ - पाप कर्म से, अप्पाणं - अपनी आत्मा को, . णिवठ्ठएज्जा - निवृत्त करे, हिंसप्पसूयाई - हिंसा से उत्पन्न, वेराणुबंधीणि - वैर उत्पन्न करने वाले, महन्भयाणि- महाभयदायी। . . भावार्थ - धर्म के तत्त्व को समझने वाला पुरुष पाप से अलग रहता है । हिंसा से उत्पन्न कर्म वैर उत्पन्न करने वाले महाभयदायी तथा दुःख उत्पन्न करते हैं यह जानकर हिंसा न करे । मुसं ण बूया मुणि अत्तगामी, णिव्वाणमेयं कसिणं समाहिं। सयं ण कुज्जा ण य कारवेज्जा, करंतमण्णं पि य णाणुजाणे ॥ २२ ॥ • कठिन शब्दार्थ - मुसं - मृषा-असत्य, बूया - बोले, अत्तगामी- आत्मगामी, एयं - यह, णिव्वाणं - निर्वाण-मोक्ष, कसिणं - कृत्स्न-संपूर्ण, समाहिं - समाधि को, करंतं - करते हुए, अण्णं - दूसरे को, ण - नहीं, अणुजाणे - अच्छा जाने । For Personal & Private Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४. . सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ - सर्वज्ञोक्त मार्ग से चलने वाला मुनि झूठ न बोले । झूठ बोलने का त्याग सम्पूर्ण भावसमाधि और मोक्ष कहा गया है । इसी तरह साधु दूसरे व्रतों में भी दोष न लगावें और दूसरे के द्वारा भी दोष लगाने की प्रेरणा न करे एवं दोष लगाते हुए पुरुष को अच्छा न जाने । विवेचन - गाथा में 'अत्तगामी' शब्द दिया है। जिसका अर्थ है आप्तगामी। प्रश्न - आप्त किसे कहते हैं ? उत्तर - "अभिधेय वस्तु, यथावस्थितं। यो जानीते यथाज्ञानं च। अभिधते स आप्तः।" अर्थ - वस्तु का जैसा शुद्ध स्वरूप है वैसा ही जो जानता है और जैसा जानता है वैसा ही कहता है। उसे 'आप्त' कहते हैं। आप्त' का अर्थ है - 'सर्वज्ञ'। उसके द्वारा उपदेश किये हुए मार्ग से चलने वाले पुरुष को आप्तगामी कहते हैं। . गाथा में 'मुसं' शब्द दिया है यह तो मात्र उपलक्षण है। इससे प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह इन पांचों पापों का तीन करण तीन योग से मुनि को त्याग कर देना चाहिये। तब ही मुनिपना है। यही सम्पूर्ण भाव समाधि है और इसी से निर्वाण (मोक्ष) की प्राप्ति होती है। ..... सुद्धे सिया जाए ण दूसएज्जा, अमुच्छिए ण य अज्झोववण्णे । धिइमं विमुक्के ण य पूयणट्ठी, ण सिलोयगामी य परिव्वएज्जा ॥ २३ ॥ - कठिन शब्दार्थ - सुद्धे - शुद्ध, जाए - जात-लब्ध, दूसएजा - दूषित करे, अमुच्छिए - अमूछित, अग्झोववण्णे - अत्यन्त आसक्त, धिइमं - धृतिमान्, विमुक्के - परिग्रह से मुक्त, पूयणट्ठी- पूजा का अर्थी, सिलोयगामी - श्लाघा का कामी, परिव्यएजा - परिव्रजन- शद्ध संयम का पालन करे । . भावार्थ - उद्गमादि दोषरहित शुद्ध आहार प्राप्त होने पर साधुरागद्वेष करके चारित्र को दूषित न करे तथा उत्तम आहार में मूर्च्छित और बार बार उसका अभिलाषी न बने । साधु धीरतावान् बने और परिग्रह से मुक्त होकर रहे तथा वह अपनी पूजा प्रतिष्ठा और कीर्ति की इच्छा न करता हुआ शुद्ध संयम का पालन करे। विवेचन - साधु को पांच समिति का शुद्ध पालन करना चाहिये। उसमें तीसरी समिति का नाम है एषणा समिति। इसके ४२ दोष बतलाये गये हैं। यथा - उद्गम के १६, उत्पादना के १६, ग्रहणैषणा के १०। इन दोषों से रहित शुद्ध आहार का मिलना बड़ा कठिन है। ऐसा शुद्ध आहार मिल जाने पर भी आहार करते समय मुनि को रसलोलुपता के कारण अपनी तरफ से पांच दोष फिर लग सकते हैं यथा - इंगाल, धूम, संयोजना, अकारण और अपरिमाण। इन दोषों से बचने के लिए शास्त्रकार फरमाते हैं - For Personal & Private Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १० २५५ 00000000000000 बायालीसेसणसंकडंमि गहणंमि जीव ण हु छलिओ। __ इण्हिं जह ण छलिञ्जसि भुंजंतो रागदोसेहिं ॥१॥ छाया - द्विचत्वारिंशदेषणादोषसंकटे जीव ! नैव छलितः। इदानीं यदि न छल्यसे भुञ्जन् रागद्वेषाभ्यां (तदा सफलं तत्) ॥ १ ॥ अर्थ - हे जीव ! ४२ दोष रूप गहन सङ्कट में तो तूने धोखा नहीं खाया है परन्तु अब आहार करते समय यदि तू राग द्वेष के द्वारा धोखा नहीं खायेगा तो तेरा सब सफल है। शरीर निर्वाह के लिये आहार करना है। इसलिये मुनि को विशिष्ट आहार की इच्छा नहीं करते हुए अन्त प्रान्त आहार से संयम का निर्वाह करना चाहिये। साधु को संयम पालन में धैर्यवान् होना चाहिये और उसे बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह से रहित होकर पूजा प्रतिष्ठा का अभिलाषी नहीं होना चाहिये। णिक्खम्म गेहाउ. णिरावकंखी, कायं विउसेज णियाणछिण्णे । णो जीवियं णो मरणाभिकंखी, चरेज्ज भिक्खू वलया विमुक्के ।त्ति बेमि॥ कठिन शब्दार्थ - णिक्खम्म - निकल कर, गेहाउ - घर से, णिरावकंखी - निरवकांक्षीअनासक्त, विउसेज - व्युत्सर्ग करे, णियाणछिण्णे - निदान को छिन्न करे, मरणाभिकंखी - मरण की चाहना वाला, वलया - भव के वलय-संसार-से, विमुक्के - मुक्त होकर, चरेज - विचरे । भावार्थ - प्रव्रज्या धारण किया हुआ पुरुष अपने जीवन से निरपेक्ष होकर काया का व्युत्सर्ग करे एवं वह अपने तप के फल की भी इच्छा न करे इस प्रकार जीवन और मरण की इच्छा छोड़ कर संसारी संकटों से अलग रहता हुआ साधु विचरे । - विवेचन - गृहवास को छोड़ कर दीक्षा धारण करने वाले मुनि को चाहिये कि वह असंयम जीवन की इच्छा नहीं करे तथा शरीर का मोह छोड़ कर उसकी सेवा शुश्रूषा न करता हुआ किसी भी प्रकार का निदान (नियाणा) नहीं करे। इसी तरह साधु जीवन और मरण की इच्छा भी न करे। कर्म बन्धनों से मुक्त होकर शुद्ध संयम का पालन करे। इसी से मुक्ति की प्राप्ति होती है। - इति ब्रवीमि - अर्थात् सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि आयुष्मन् जम्बू ! जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखारविन्द से सुना है वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ मैं अपनी मनीषिका (बुद्धि) से कुछ नहीं कहता हूँ। ॥समाधि नामक दसवां अध्ययन समाप्त॥ For Personal & Private Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्ग नामक ग्यारहवाँ अध्ययन किसी निर्दिष्ट लक्ष्य को प्राप्त करना हो या वहाँ तक पहुँचना हो तो कुछ प्रयत्न करना पड़ता हैचलना या आचरण करना पड़ता है । प्रयत्न, गमन या आचरण का जो माध्यम होता है उसी का नाम मार्ग है । अतः मुक्ति एक निर्दिष्ट लक्ष्य होने के कारण उसका भी मार्ग होना ही चाहिये । उसी मार्ग का इस अध्ययन में कथन किया गया है। दसवें अध्ययन में समाधि का कंथन किया गया है। वह ज्ञान दर्शन चारित्र और तप रूप होती है तथा भाव मार्ग भी यही है। उसी मार्ग का कथन इस ग्यारहवें अध्ययन में किया गया है। कयरे मग्गे अक्खाए, माहणेणं मइमया । जं मग्गं उज्जु पावित्ता, ओहं तरइ दुत्तरं ॥ १ ॥ कठिन शब्दार्थ कयरे कौनसा, मग्गे मार्ग, अक्खाए- कहा है, माहणेणं - भगवान् महावीर स्वामी ने मइमया मतिमान् (केवलज्ञानी) उज्जु- सरल, पावित्रा पा कर, ओहं ओघ संसार प्रवाह को, तर - पार होता है, दुत्तरं - दुस्तर । भावार्थ - अहिंसा के उपदेशक केवलज्ञानी भगवान् महावीर स्वामी ने कौनसा मोक्ष का मार्ग बताया है, जिसको प्राप्त कर जीव संसार सागर से पार होता है । - - - - विवेचन - मा-हन- जीवों को मत मारो ऐसा जो उपदेश देते हैं उसे 'माहन' कहते हैं। यहाँ पर गाथा में 'मतिमान्' शब्द दिया । जो लोक तथा अलोक में रहने वाले सूक्ष्म, व्यवहित, दूर, भूत, भविष्य और वर्तमान सभी पदार्थों को प्रकाशित करती है उसे मंति कहते हैं । यहाँ केवलज्ञान को मति कहा है। वह भगवान् में विद्यमान हैं इसलिये भगवान् को मतिमान् कहा है। उन भगवान् के द्वारा बताया हुआ जो मोक्ष मार्ग है वह प्रशस्त भाव मार्ग है तथा वह वस्तु का यथार्थ स्वरूप बताने के कारण मोक्ष प्राप्ति के लिये सरल मार्ग है । वह मार्ग सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन और सम्यक् चारित्र रूप है। यद्यपि संसार सागर को तिरना दुस्तर ( मुश्किल से तिरने योग्य) कहा है । परन्तु वास्तव में देखा जाय तो संसार समुद्र को तिरना उतना कठिन नहीं है जितना तिरने की सामग्री को पाना कठिन है। जैसा कि कहा है - माणुसखेत्तजाईकुल रुवारोगमाठयं बुद्धी । सवणोग्गहसद्धासंजमो य लोयंमि दुलहाई ॥ १ ॥ अर्थ- मनुष्य जन्म, आर्य क्षेत्र, उत्तम जाति, उत्तम कुल, उत्तम रूप, नीरोग शरीर, लम्बा आयुष्य, बुद्धि, सुनने का योग, जिनेन्द्र भगवान् के वचनों पर श्रद्धा और शुद्ध संयम का पालन। इन दस बातों की For Personal & Private Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ११ २५७ प्राप्ति होना दुर्लभ है। इन को प्राप्त करके धार्मिक कार्य में जरा भी विलम्ब नहीं करना चाहिये। यही बुद्धिमानों का कर्तव्य है। तं मग्गं णुत्तरं सुद्ध, सव्व-दुक्ख विमोक्खणं । जाणासि णं जहा भिक्खू, तं णो बूहि महामुणी ॥२॥ कठिन शब्दार्थ - अणुत्तरं - अनुत्तर-श्रेष्ठ, सव्वदुक्ख-विमोक्खणं - सब दुःखों को छुड़ाने वाले, जाणासि - जानते हो, बूहि - बताइये ।। __भावार्थ - जम्बूस्वामी श्री सुधर्मा स्वामी से पूछते हैं कि - हे महामुने ! आप सब दुःखों को छुड़ाने वाले तथा सबसे श्रेष्ठ तीर्थंकर के कहे हुए मार्ग को जानते हैं इसलिये हमें वह सुनाइये । जइ णो केइ पुच्छिण्जा, देवा अदुव माणुसा । तेसिं तु कयरं मग्गं, आइक्खेज कहाहि णो ॥३॥ कठिन शब्दार्थ - पुच्छिज्जा - पूछे, अदुव - अथवा, आइक्खेज - बतलाए, कहाहि - कहो । भावार्थ - जम्बूस्वामी श्री सुधर्मा स्वामी से कहते हैं कि - यदि कोई देवता या मनुष्य हमसे मोक्ष का मार्ग पूछे तो हम उनको कौनसा मार्ग बतावें, यह आप हमें बतलाइये । - विवेचन - जम्बूस्वामी अपने धर्माचार्य गुरुदेव श्री सुधर्मा स्वामी से निवेदन करते हैं कि हे भगवन् ! यद्यपि हम तो आप के असाधारण गुणों को जानने के कारण आपके वचनों पर विश्वास होने से मान लेते हैं तथा दूसरे लोगों को हम किस प्रकार समझावें यह हमें बताने की कृपा करें। देवता और मनुष्य ही प्रश्न कर सकते हैं इसलिये इस गाथा में उन्हीं का ग्रहण किया गया है। जइ वो केइ पुच्छिज्जा, देवा अदुव माणुसा । . . तेसिमं पडिसाहिज्जा, मग्गसारं सुणेह मे ॥४॥ ... कठिन शब्दार्थ - पडिसाहिजा - कहना चाहिये, मग्गसारं- मार्ग सार, सुणेह - सुनो, मे - मुझ से । - भावार्थ - श्री सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं कि यदि कोई देवता या मनुष्य मोक्ष का मार्ग पूछे तो उनसे आगे कहा जाने वाला मार्ग कहना चाहिये । वह मार्ग मेरे से तुम सुनो । - अणुपुव्वेण महाघोरं, कासवेण पवेइयं । जमादाय इओ पुव्वं, समुहं ववहारिणो ॥५॥ कठिन शब्दार्थ - अणुपुब्वेण - अनुक्रम से-क्रमशः, महाघोरं - महाघोर-अत्यंत कठिन मार्ग For Personal & Private Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 000000000000000000000RROOMMONOMORRO000000000000000000000000000 को, कासवेण - काश्यप गोत्रिय भगवान् ने, पवेइयं - कहा हुआ, जं - जिसे, आदाय - प्राप्त कर, समुईसमुद्र को, ववहारिणो - व्यवहार करने वाले । . भावार्थ - श्री सुधर्मास्वामी, अपने शिष्य वर्ग से कहते हैं कि - मैं भगवान् महावीर स्वामी का कहा हुआ मार्ग क्रमशः बताता हूँ तुम उसे सुनो । जैसे व्यवहार करने वाले पुरुष समुद्र को पार करते हैं इसी तरह इस मार्ग का आश्रय लेकर बहुत जीवों ने संसार को पार किया है । . . विवेचन - भगवान् महावीर स्वामी के आगमों में अनेक नाम हैं यथा - १. वर्द्धमान २. श्रमण ३. महावीर ४. विदेह ५. विदेहदत्त ६. ज्ञातपुत्र ७. वैशालिक ८. मुनि ९. माहन १०. सन्मति ११. महत्ति वीर १२. अन्त्यकाश्यप १३. देवार्य, १४. ज्ञातनन्दन १५. त्रिशला तनय १६. सिद्धार्थ नन्दन आदि और भी नाम हैं। ___इस गाथा में भगवान् महावीर के लिये 'काश्यप' शब्द दिया है। इसी सूत्र के तीसरे अध्ययन के तीसरे उद्देशक में तथा दशवैकालिक सूत्र के चौथे अध्ययन में भगवान् को 'काश्यप' शब्द से विशिष्ट करके सम्बोधित किया है। क्योंकि भगवान् का गोत्र काश्यप था। भगवान् काश्यप गोत्र के होकर अन्तिम तीर्थंकर थे। इसलिये महाकवि धनञ्जय ने अपने धनञ्जय माला कोश में भगवान् को . अन्त्यकाश्यप कहा है। भगवान् महावीर स्वामी के कहे हुए मार्ग को सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी आदि से कहते हैं। प्रश्न - वह मार्ग कैसा है ? उत्तर - जैसे कायर पुरुष युद्ध में जाना तो दूर किन्तु युद्ध के नाम से ही घबराने लगता है इसी तरह से यह मार्ग अल्प शक्ति वाले पुरुष के लिये महान् घोर अर्थात् महान् पयदायक हैं किन्तु शूरवीर - पुरुष के लिये यह बड़ा सरल है। इसको धारण करके अनेक महापुरुष इस संसार सागर को तिर गये हैं जैसे कि व्यापार करने वाले नावो-वणिक समुद्र को पार कर जाते हैं। इसी तरह अव्यावाध और अनन्त सुख की इच्छा करने वाले मुनि महात्मा इस दुस्तर संसार सागर को पार कर जाते हैं। अतरिसु तरंतेगे, तरिस्संति अणागया । तं सोच्चा पडिवक्खामि, जंतवो तं सुणेह मे ॥६॥ कठिन शब्दार्थ - अतरिंसु- तिर गये, तरंति - तिरते हैं, तरिस्संति - तिर जायेंगे, अणागया - अनागत-भविष्य में, एगे -कितनेक, पडिवक्खामि - कहूँगा। भावार्थ - श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य वर्ग से कहते हैं कि- तीर्थंकर के बताये हुए मार्ग से चलकर पूर्वकाल में बहुत जीवों ने संसार सागर को पार किया है तथा वर्तमान में भी करते हैं और For Personal & Private Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ........................00000 भविष्य में भी करेंगे । वह मार्ग मैंने तीर्थंकर भगवान् से सुन रखा है और आप लोगों को सुनने की इच्छा है इसलिये मैं उस मार्ग का वर्णन करता हूँ इसलिये आप उसे ध्यानपूर्वक सुनें । विवेचन - प्रश्न सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन और सम्यक् चारित्र रूप मोक्ष का मार्ग है क्या इसका आचरण करके किन्हीं महापुरुषों ने मोक्ष प्राप्त किया है ? उत्तर - इस मार्ग पर चल कर भूत काल में अनंत जीव संसार समुद्र को तिर गये, वर्तमान में ( महाविदेह क्षेत्र से ) संख्यात जीव तिर रहे हैं, भविष्यत् काल में फिर अनन्त जीव तिर जायेंगे। इस प्रकार तीर्थंकर भगवन्तों द्वारा कथित यह मार्ग तीनों काल में संसार सागर से पार उतारने वाला मोक्ष प्राप्ति का कारण भूत प्रशस्त भाव मार्ग है। . पुढवीजीवा पुढो सत्ता, आउजीवा तहाऽगणी । वाउजीवा पुढो सत्ता, तणरुक्खा सबीयगा ॥७॥ - अध्ययन ११ 000000 कठिन शब्दार्थ- पुढो - पृथक्, सत्ता - सत्व, तणरुक्खा- तृण वृक्ष, सबीयगा- बीज पर्यंत । भावार्थ- पृथिवी जीव है तथा पृथिवी के आश्रित भी जीव हैं एवं जल और अग्नि भी जीव हैं तथा वायुकाय के जीव भी भिन्न भिन्न एवं तृण, वृक्ष, और बीज भी जीव हैं । अहावरा तसा पाणा, एवं छक्काय आहिया । यावर जीवकाए, णावरे कोइ विज्जइ ॥ ८ ॥ कठिन शब्दार्थ - अहावरा - इनसे भिन्न, तसा - त्रस, पाणा- - जीव, छक्काय- छह जीव काय, आहिया - कहे हैं, एयावए इतने ही हैं, अवरे इनसे भिन्न, विज्जइ होता है । भावार्थ - पूर्वोक्त पाँच और छठा त्रसकाय वाले जीव होते हैं। तीर्थंकर ने जीव के छह भेद बताये हैं । अतः जीव इतने ही हैं इनसे भिन्न कोई दूसरा जीव नहीं होता है । सव्वाहिं अणुजुत्तीहिं, मइमं पडिलेहिया । सव्वे अक्कंतदुक्खा य, अओ सव्वे ण हिंसया ॥ ९ ॥ - कठिन शब्दार्थ - अणुत्तीहिं- युक्तियों से, पडिलेहिया दुःख अप्रिय है, अओ - अतः ण हिंसया - हिंसा न करे । २५९ - पर्यालोचना करे, जाने, अक्कंतदुक्खा के भावार्थ - बुद्धिमान् सब युक्तियों के द्वारा इन जीवों का जीवपना सिद्ध करके ये सभी दुःख द्वेषी हैं यह जाने तथा इसी कारण किसी की भी हिंसा न करे । विवेचन - पृथ्वीकाय आदि एकेन्द्रिय जीव हैं इस बात की सिद्धि आचारांग सूत्र के प्रथम अध्ययन में अनेक युक्तियाँ देकर की है। बेइन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीव तो हलन चलन करते हैं इसलिए उनका जीवपणा तो स्वतः सिद्ध है तथा सर्ववादी निर्विवाद रूप से स्वीकार करते हैं। जिस For Personal & Private Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ ******........ प्रकार हमको दुःख अप्रिय है, इसी प्रकार सभी जीवों को दुःख अप्रिय है। इन प्राणियों को होने वाली स्वाभाविक और औपक्रमिक वेदना को जानकर बुद्धिमान् पुरुष मन, वचन और काय से तथा करने, कराने और अनुमति देने रूप नव भेदों से इनकी पीडा से निवृत्त हो जाए। एयं खु णाणिणो सारं, जं ण हिंसइ कंचण । २६० अहिंसा समयं चेव, एयावंतं विजाणिया ।। १० ॥ कठिन शब्दार्थ - णाणिणो - ज्ञानी पुरुष का, कंचण किसी की, एयावंतं इतना ही, विजाणिया (वियाणिया ) - जाने, एयं ( एवं ) - इस प्रकार । भावार्थ - ज्ञानी पुरुष का यही उत्तम ज्ञान है कि वे किसी जीव की हिंसा नहीं करते हैं । अहिंसा का सिद्धान्त भी इतना ही जानना चाहिये । विवेचन जीव हिंसा से बचना और जीव हिंसा से होने वाले कर्म बंध को जानना, यही ज्ञानी का प्रधान कर्तव्य है तथा यही ज्ञानी के ज्ञान का सार है जैसा कि कहाँ है - " किं ताए पढियाए ? पयकोडीए पलालभूयाए । जत्थित्तियं ण णायं परस्स पीडा न कायव्वा । अर्थ - उस पढाई करने से क्या लाभ ? तथा पलाल (निःसार) के समान करोड़ों पदों को पढ़ने से भी क्या लाभ ? जिनसे इतना भी ज्ञान नहीं होता हो कि दूसरे को पीड़ा नहीं पहुँचानी चाहिए। यही अहिंसा प्रधान शास्त्र का उद्देश्य है, इतना ही ज्ञान पर्याप्त है, दूसरे बहुत ज्ञानों का क्या प्रयोजन है ? क्योंकि मोक्ष जाने वाले पुरुष के इष्ट अर्थ की प्राप्ति इतने से ही हो जाती है अतः किसी जीव की हिंसा न करनी चाहिये । उड्डुं अहे य तिरिगं, जे केइ तस - थावरा । सव्वत्थ विरइं कुज्जा, संति णिव्वाण-माहियं ॥। ११ ॥ कठिन शब्दार्थ तस थावरा त्रस और स्थावर प्राणी, सव्वत्थ- सर्वत्र, विरई - विरति, संति शांति, णिव्वाणं निर्वाण, आहिंयं कहा है । भावार्थ - ऊपर नीचे और तिरछे जो त्रस और स्थावर प्राणी निवास करते हैं उन सभी की हिंसा से निवृत्त रहने से मोक्ष की प्राप्ति कही गई है । पभू दोसे णिराकिच्चा, ण विरुज्झेज्ज केणइ । मणसा वयसा चेव, कायसा चेव अंतसो ॥ १२ ॥ - - कठिन शब्दार्थ पभू प्रभु- समर्थ जितेन्द्रिय पुरुष, दोसे- दोषों को, णिराकिच्या दूर कर, विरुज्झेज्ज - विरोध करे, केणइ क़िसी के साथ । - For Personal & Private Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ११ २६१ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ - जितेन्द्रिय पुरुष दोषों को हटा कर मन वचन और काया से जीवन पर्यन्त किसी के साथ विरोध न करे । विवेचन - इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने वाले को अथवा संयम को रोकने वाले कर्मों को जीतकर जो मोक्ष मार्ग का पालन करने में समर्थ है उस पुरुष को यहाँ पर प्रभु कहा है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभयोग रूप दोषों को दूर करके तीन करण तीन योग से किसी भी प्राणी के साथ वैर विरोध न करें यही ज्ञान का सार है ॥ संवुडे से महापण्णे, धीरे दत्तेसणं चरे । एसणासमिए णिच्चं, वज्जयंते अणेसणं ॥१३॥ कठिन शब्दार्थ - संखुडे - संवृत, महापण्णे - महाप्राज्ञ, धीरे - धीर, दत्तेसणं - दत्त-दिया हुआ . एषणीय आहार, चरे - ग्रहण करे, एसणा समिए - एषणा समिति से युक्त, णिच्चं - नित्य, वज्जयंते - वर्जन करे, अणेसणं - अनेषणीय का। . भावार्थ - वह साधु बड़ा बुद्धिमान् और धीर है जो सदा दूसरे का दिया हुआ एषणीय ही आहार आदि ग्रहण करता है तथा जो एषणा समिति से युक्त रह कर अनेषणीय आहार आदि को वर्जित करता है । विवेचन - एषणा समिति के ग्रहण से दूसरी चारों समितियों १. ईर्या समिति २. भाषा समिति ३. आदानः भण्ड मात्र निक्षेपणा समिति ४. उच्चार प्रस्रवण खेल सिंघाण जल परिस्थापनिका समिति का ग्रहण हो जाता है। क्योंकि एषणा के कारण ही चलना, बोलना, उठना, धरना और त्यागना होता है। - गाथा में एषणीय शब्द दिया है, इससे आहार, वस्त्र, पात्र, मकान आदि सबका ग्रहण कर लेना चाहिए। ये चारों चीजें साधु के निमित्त बनाई गई हों तो साधु के लिए अनेषणीय और अकल्पनीय हो जाती है। मकान के विषय में मकान मालिक से अच्छी तरह पूछताछ कर लेनी चाहिए। यह मकान साधु के निमित्त से तो नहीं बनाया गया है ? मकान बनाते समय साधु के निमित्त भाव भी मिल गए हों अर्थात् मन में भी यह विचार आ गया हो कि श्रावक, श्राविका तो धर्मध्यान करेंगे ही किन्तु साधु, साध्वी के लिए भी काम आएगा, तो वैसा मकान साधु साध्वी के लिए अनेषणीय एवं अकल्पनीय है ऐसे मकान में साधु, साध्वी को नहीं उतरना चाहिए ।। १३ ॥ भूयाइं च समारंभ, तमुहिस्सा य जं कडं । तारिसं तं ण गिण्हेज्जा, अण्ण-पाणं सुसंजए ॥१४॥ कठिन शब्दार्थ - भूयाई - भूतों-प्राणियों का, समारंभ- समारंभ कर, तमुदिस्सा - साधु के उद्देश्य For Personal & Private Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 से, जं - जो, कडं - कृत-किया है, तारिसं - वैसे, अण्णपाणं - आहार पानी को, सुसंजए - सुसंयत । भावार्थ - जो आहार भूतों को पीड़ा देकर तथा साधुओं को देने के लिये किया गया है उसे उत्तम साधु ग्रहण न करे । विवेचन - गाथा में भूत शब्द दिया है, इससे प्राण, भूत, जीव, सत्व चारों का ग्रहण कर लेना चाहिए। यथा - प्राणाः द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः, भूतास्तु तरवः स्मृताः। जीवाः पञ्चेन्द्रियाः प्रोक्ताः, शेषाः सत्त्वाः उदीरिताः ॥ अर्थ - बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय को प्राण कहते हैं। वनस्पति को भूत कहते हैं, पञ्चेन्द्रिय को जीव कहते हैं तथा पृथ्वीकाय, अप्काय, तेऊकाय, वायुकाय को सत्त्व कहते हैं । उपरोक्त प्राणियों की हिंसा करके जो आहार, वस्त्र, पात्र, मकान आदि बनाये जाते हैं वे सब आधाकर्मी दोष से दूषित है। अतः शुद्ध संयम का पालन करने वाले मुनि को इन सब वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से ही मोक्ष मार्ग का पालन होता है।। १४ ॥ पूईकम्मं ण सेविग्जा, एस धम्मे वुसीमओ। जे किंचि अभिकंखेज्जा, सव्वसो तं ण कप्पए ।। १५॥ कठिन शब्दार्थ - पूईकम्मं - पूतिकर्म का, सेविजा - सेवन करे, वुसीमओ - संगमी का, अभिकंखेजा - शंकित-शंका युक्त हो, कप्पए - कल्पता है । भावार्थ - आधाकर्मी आहार के एक कण से भी मिला हुआ आहार साधु न लेवे । शुद्ध संयम पालने वाले साधु का यही धर्म है तथा शुद्ध आहार में यदि अशुद्धि की शङ्का हो जाय तो उसे भी साधु ग्रहण न करे । विवेचन - आधाकर्मी आदि दोषों से दूषित आहार का एक कप भी जिसमें मिल गया हो उसको पूतिकर्म दोष कहते हैं। साधु ऐसे आहारादि का सेवन न करे जिस आहारादि में थोड़ी-सी भी शंका से युक्त हो वह भी साधु के ग्रहण करने योग्य नहीं है ॥ हणंतं णाणुजाणेज्जा, आय-गुत्ते जिइंदिए । ठाणाई संति सड्ढीणं, गामेसु णगरेसु वा ।। १६॥ कठिन शब्दार्थ - णाणुजाणेजा - अनुमति न देवे, आयगुत्ते - आत्मगुप्त, जिइंदिए - जितेन्द्रिय, ठाणाई - स्थान, सड्डीणं- श्रद्धालुओं के । भावार्थ - श्रावकों के ग्रामों में या नगरों में साधुओं को रहने के लिये स्थान प्राप्त होता है अतः For Personal & Private Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ११ २६३ वहां यदि कोई धर्मबुद्धि से जीव हिंसामय कार्य करे तो आत्मा को पाप से दूर रखने वाला जितेन्द्रिय साधु उसकी अनुमति न देवे । विवेचन - मुनि का धर्मोपदेश सुनकर कोई श्रद्धालु व्यक्ति दानशाला, प्याऊ, अन्न क्षेत्र आदि खोलना चाहता हो और वह साधु के पास आकर पूछे कि इस कार्य में धर्म है या नहीं अथवा न पूछे तो साधु उसके लिहाज से, शर्म से अथवा भय से, प्राणियों की हिंसा करते हुए उस पुरुष को अनुज्ञा (अनुमोदन) न करें। अर्थात् मन-वचन-काया से गुप्त होकर तथा इन्द्रियों को वश में करके साधु सावद्य अनुष्ठान का अनुमोदन न करे।। १६॥ . तहा गिरं समारब्भ, अत्थि पुण्णंति णो वए । अहवा णत्थि पुण्णंति, एवमेयं महब्भयं ॥१७॥ कठिन शब्दार्थ - गिरं - वाणी को, समारब्भ - सुन कर, पुण्णंति - पुण्य है यह, वए - कहे, महब्भयं - महान् भयदायक। भावार्थ - यदि कोई कूप आदि खोदाना चाहता हुआ साधु से पूछे कि मेरे इस कार्य में पुण्य है या नहीं है ?" तो इस वाणी को सुनकर साधु, पुण्य है यह न कहे तथा पुण्य नहीं है यह कहना भी भय का कारण है इसलिये यह भी न कहे । - विवेचन - यदि कोई राजा, महाराजा, सेठ-साऊकार आदि श्रद्धालु व्यक्ति साधु से यह पूछे कि मैं कुआँ खुदाना चाहता हूँ तथा अन्नक्षेत्र बनाना चाहता हूँ। मेरे इस कार्य में पुण्य है या नहीं? तो उसकी वाणी सुनकर साधु 'पुण्य है या नहीं इन दोनों उत्तरों में दोष जानकर साधु कुछ न कहे किन्तु मौन रहे। मौन रहने का कारण शास्त्रकार अगली गाथा में बता रहे हैं। दाणट्ठया य जे पाणा, हम्मति तस थावरा । तेसिं सारक्खणट्ठाए, तम्हा अस्थि त्ति णो वए । १८। कठिन शब्दार्थ - दाणट्ठया - दान के लिए, हम्मंति - मारे जाते हैं, सारक्खणट्ठाए - संरक्षणरक्षा के लिए। ____ भावार्थ - अन्नदान और जलदान देने के लिये जो त्रस और स्थावर प्राणी मारे जाते हैं उनकी रक्षा के लिये साधु "पुण्य होता है" यह न कहे । विवेचन - अन्न शाला या जलशाला आदि कार्यों में पचन-पाचन आदि क्रिया के द्वारा आहार बनाया जाता है और जलशाला बनाने में साक्षात् जल के जीवों का एवं उसके आश्रित दूसरे त्रस और स्थावर प्राणियों का नाश होता है। अतः इनकी रक्षा के लिए आत्मगुप्त जितेन्द्रिय साधु इस कार्य से । पुण्य है ऐसा न कहें। For Personal & Private Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ . जेसिं तं उवकप्पंति, अण्ण पाणं तहाविहं । तेसिं लाभंतरायंति, तम्हा णत्थि त्ति णो वए ॥१९॥ कठिन शब्दार्थ - उवकप्पंति - बनाये जाते हैं, लाभंतरायं- लाभान्तराय-प्राप्ति में विघ्न । .. भावार्थ - जिन प्राणियों को दान देने के लिये वह अन्न जल तय्यार किया जाता है उनके लाभ में अन्तराय न हो, इसलिये पुण्य नहीं है यह भी साधु न कहे। विवेचन - अन्नदान के लिए पचन-पाचन आदि क्रिया करने में तथा जलदान के लिए कूप खुदवाना आदि कार्य में बहुत जीव मारे जाते हैं। इसलिए इस कार्य में पुण्य नहीं होता है, ऐसा साधु । क्यों नहीं कह देता है, उसका उत्तर यह है कि जिन प्राणियों को दान देने के लिए अन्न और जल धर्म समझ कर बनाया जाता है, उस अन्न, जल दान देने में पुण्य नहीं है। ऐसा कह देने पर जिन प्राणियों को वह अन्न, जल दिया जाने वाला है, उनके लाभ में अन्तराय पडेगी, इसलिए इन कार्यों में पुण्य नहीं होता है, ऐसा भी साधु साध्वी न कहें। जे य दाणं पसंसंति, वहमिच्छंति पाणिणं । जे य णं पडिसेहंति, वित्तिच्छेयं करंति ते ॥२०॥ कठिन शब्दार्थ - दाणं - दान की, पसंसंति - प्रशंसा करते हैं, वहं - वध, इच्छंति - इच्छा करते हैं, पडिसेहंति - प्रतिषेध-निषेध करते हैं, वित्तिच्छेयं - वृत्ति छेद । भावार्थ - जो दान की प्रशंसा करते हैं वे प्राणियों के वध की इच्छा करते हैं और जो दान का निषेध करते हैं वे प्राणियों की वृत्ति का छेदन करते हैं। .. विवेचन - इसी बात को संक्षेप से स्पष्ट बताने के लिए, शास्त्रकार.कहते हैं कि अन्नशाला और जलशाला खोलने आदि दानों को बहुत जीवों का उपकारक है। ऐसा मानकर जो इनकी प्रशंसा करते हैं, उनको प्राणियों की हिंसा का अनुमोदन रूप पाप लगता है तथा जो इनका निषेध कर देता है, उनको अन्तराय का पाप लगता है। दुहओ वि ते ण भासंति, अत्थि वा णत्थि वा पुणो। , आयं रयस्स हेच्या णं, णिव्वाणं पाउणंति ते ॥२१॥ कठिन शब्दार्थ - दुहओ - दोनों, आयं - आगमन, रयस्स- कर्मरज का, हेच्चा - त्याग कर, णिव्याणं - निर्वाण को, पाउणंति- प्राप्त करते हैं । . भावार्थ - अन्नशाला जलशाला आदि दानों में पुण्य होता है या पुण्य नहीं होता है ये दोनों ही बात साधु नहीं कहते हैं । इस प्रकार कर्म का आना त्याग कर वे मोक्ष को प्राप्त करते हैं । For Personal & Private Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ११ २६५ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 विवेचन - राजा, महाराजा, सेठ, साहूकार आदि कोई धनवान् पुरुष, यदि कूप खुदवाना एवं तालाब खुदवाना, अन्नशाला व जलशाला बनवाना आदि कार्यों के लिए उद्यत होकर साधु से पुण्य का होना या न होना पूछे तो मोक्षार्थी मुनि को क्या कहना, यह बात शास्त्रकार इस गाथा में बताते हैं। ___ अन्नशाला और जलशाला आदि दानों में पुण्य होता है, यदि साधु ऐसा कहे तो इनको बनाने में जीवों का विनाश होता है। इसलिए उपरोक्त दानों में पुण्य होता है, ऐसा साधु न कहे । यदि इन दानों में पुण्य नहीं होता है। ऐसा साधु कहे तो दानार्थी जीवों के लाभ में अन्तराय पड़ती है. इसलिए मोक्षार्थी पुरुष उपरोक्त दानों में पुण्य या पाप होना न कहे किन्तु किसी के पूछने पर मौन धारण करें, यदि कोई विशेष आग्रह करें तो साधु को कहना चाहिए कि हम लोग आरंभ परिग्रह के सर्वथा त्यागी साधु हैं, इसलिए उपरोक्त विषय में हम कुछ नहीं कहते हैं। णिव्वाणं परमं बुद्धा, णक्खत्ताण व चंदिमा। . तम्हा सदा जए दंते, णिव्वाणं संधए मुणी ।। २२॥ कटिन शब्दार्थ - परमं - परम-श्रेष्ठ प्रधान, णक्खत्ताण - नक्षत्रों में, जए - प्रयत्नशील, दंते - दान्त-जितेन्द्रिय, संधए - संधान (साधन) करे । - .. भावार्थ - जैसे चन्द्रमा सब नक्षत्रों में प्रधान है इसी तरह मोक्ष को सबसे उत्तम जानने वाला पुरुष सबसे प्रधान है अतः मुनि सदा प्रयत्नशील और जितेन्द्रिय होकर मोक्ष का साधन करे । विवेचन - अव्याबाध सुख को निर्वाण कहते हैं उसको सबसे प्रधान मानने वाले परलोकार्थी तत्त्वज्ञ पुरुष निर्वाण वादी होने के कारण सबसे प्रधान है, जैसे अश्विनी आदि नक्षत्रों में सौम्यता, प्रमाण, आयु और प्रकाश रूप गुणों के द्वारा चन्द्रमा प्रधान है। मोक्ष सबसे श्रेष्ठ है, इसलिए साधु इन्द्रिय तथा मन को वश में करके सदा मोक्ष के लिए प्रयत्न शील रहे। वुज्झमाणाण पाणाणं, किच्चंताणं सकम्मुणा । . आघाइ साहु तं दीवं, पइटेसा पवुच्चइ ॥२३॥ कठिन शब्दार्थ - वुण्झमाणाण - प्रवाह में बहते हुए, किच्चंताणं - कष्ट पाते हुए, आघाइबताते हैं, दीवं - द्वीप, पइट्ठा - प्रतिष्ठा-मोक्ष का साधन । . भावार्थ - मिथ्यात्व कषाय आदि तेज धारा में बहे जाते हुए तथा अपने कर्म के वशीभूत होकर कष्ट पाते हुए प्राणियों को विश्राम देने के लिये सम्यग्दर्शन आदि द्वीप तीर्थंकरों ने बताया है । ज्ञानियों का कथन है कि - सम्यग्दर्शन आदि के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती है । आयगुत्ते सया दंते, छिण्णसोए अणासवे । जे धम्मं सुद्धमक्खाइ, पडिपुण्ण-मणेलिसं ।। २४॥ For Personal & Private Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 1000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कठिन शब्दार्थ - छिण्णसोए - छिन्नस्रोत-मिथ्यात्व आदि स्रोतों को छिन्न करने वाला, अणासवे - अनास्त्रव-आस्रव रहित, सुद्धं - शुद्ध धर्म का, अक्खाइ - आख्यान (उपदेश) करता है, डिपुण्णं - परिपूर्ण, अणेलिसं - अनुपम-उपमा रहित । भावार्थ - मन वचन और काया से आत्मा को पाप से बचाने वाला, जितेन्द्रिय एवं संसार । की मिथ्यात्व आदि धारा को काटा हुआ आस्रव रहित पुरुष परिपूर्ण उपमा रहित शुद्ध धर्म का उपदेश करता है। विवेचन - जिसने अपनी आत्मा, मन और इन्द्रियों को वश में कर लिया है एवं जो राग द्वेष पहित है वही पुरुष अनुपम, अद्वितीय एवं मोक्ष जाने के कारण रूप समस्त दोषों से रहित सर्वविरति रूप शुद्ध धर्म का उपदेश कर सकता है।। २४ ।। तमेव अवियाणंता, अबुद्धा बुद्धमाणिणो । बुद्धा मोत्ति य मण्णंता, अंत एए समाहिए ॥२५॥ कठिन शब्दार्थ - अवियाणंता - नहीं जानते हुए, अबुद्धा - अबुद्ध-अज्ञानी, बुद्धमाणिणो - बुद्ध मानने वाले, अंत एए - दूर हैं, समाहिए - समाधि से । भावार्थ - पूर्वोक्त शुद्ध धर्म को न जानते हुए, अविवेकी होकर भी अपने को विवेकी सानने वाले अन्यदर्शनी समाधि से दूर हैं । विवेचन - पूर्वोक्त शुद्ध धर्म को न जानने वाले अविवेकी पुरुष "हम ही धर्म के तत्त्व को जानते हैं" ऐसा मानते हैं। परन्तु वे सम्यग्दर्शन आदि भाव समाधि से दूर है। अतएव वे अज्ञानी हैं। ते य बीओदगं चेव, तमुहिस्सा य जंकडं । भोच्चा झाणं झियायंति, अखेयण्णाऽसमाहिया ॥ २६॥ कठिन शब्दार्थ - बीओदगं - बीज और कच्चा जल तमुहिस्सा - उनके उद्देश्य से, भोच्चा - . भोग कर, झाणं- ध्यान, झियायंति- ध्याते हैं, अखेयण्णा - अखेदज्ञ, असमाहिया- समाधि रहितः । भावार्थ - बीज और कच्चा जल तथा उनके लिये बनाये हुए आहार को उपभोग करने वाले वे अन्यतीर्थी आर्त्तध्यान ध्याते हैं तथा वे भावसमाधि से दूर हैं। विवेचन - बुद्ध धर्म को मानने वाले को शाक्य कहते हैं। उन्हें जीव अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञान न होने के कारण वे कच्चा जल और कच्चे अनाज आदि का सेवन करते हैं उनके निमित्त बने हुए आहारादि को भोगते हैं तथा भक्तों को कह कर अपने लिए आहारादि बनवाते हैं एवं वे बुद्ध संघ के लिए आहार बनवाने और उसकी प्राप्ति के लिए चिंतित रहते हैं, यह आर्तध्यान है, वे रूपया पैसा आदि परिग्रह रखते हैं यह आर्तध्यान का कारण है। जैसा कि कहा है - . For Personal & Private Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ११ . २६७ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 "ग्रामक्षेत्रगृहादीनां, गवां प्रेष्यजनस्य च। यस्मिन् परिग्रहो दृष्टो, ध्यानं तत्र कुतः शुभम् ? ॥ अर्थ - जो पुरुष ग्राम, क्षेत्र और घर आदि का परिग्रह करता है, उसको शुभ ध्यान कहाँ से होगा ? परिग्रह मोह का घर है, शान्ति का विनाशक है, चित्त को चंचल करता है, अतः आरंभ परिग्रह में प्रवृत्त रहने वाले और उसी बात की चिंता करने वाले पुरुषों को शुभ ध्यान कहाँ से हो सकता है ? बौद्ध लोग तो मांस, मदिरा आदि तक का सेवन करते हैं। मदिरा, मांस का दूसरा नाम धर देते हैं, पर इतने मात्र से मांस मदिरा निर्दोष नहीं हो जाते हैं। उपरोक्त कारणों से ये भाव समाधि से दूर हैं। जहा ढंका य कंका य, कुलला मग्गुका सिही । मच्छेसणं झियायंति, झाणं ते कलुसाहमं ।। २७॥ एवं तु समणा एगे, मिच्छदिट्ठी अणारिया । विसएसणं झियायंति, कंका वा कलुसाहमा ॥२८॥ कठिन शब्दार्थ - ढंका - ढंक, कंका - कंक, कुलला - कुरर, मग्गुका - जल मुर्गा, सिही - शिखी, मच्छेसणं - मछली की खोज में, कलुसा - कलुष पापी, अहमा - अधम, मिच्छदिट्ठी - मिथ्यादृष्टि, अणारिया- अनार्य विसएसणं-विषय की एषणा में। भावार्थ - जैसे ढंक, कंक, कुरर, जलमूर्ग और शिखी नामक पक्षी जल में रह कर सदा मच्छली पकडने के ख्याल में रत रहते हैं इसी तरह कोई मिथ्यादृष्टि अनार्या श्रमण सदा विषय प्राप्ति का ध्यान करते रहते हैं, वे वस्तुतः पापी और नीच हैं । सुद्धं मग्गं विराहित्ता, इह मेगे य दुम्मइ । उम्मग्ग-गया दुक्खं, घायमेसंति तं तहा ।। २९॥ कठिन शब्दार्थ - विराहित्ता - विराधना करके, दुम्मतइ - दुर्मति, उम्मग्ग गया - उन्मार्ग में प्रवृत्त, घायमेसंति - घात (मृत्यु) की कामना करते हैं । . भावार्थ - इस जगत् में शुद्ध मार्ग की विराधना करके उन्मार्ग में प्रवृत्त शाक्य आदि दुःख और नाश को प्राप्त करते हैं । - विवेचन - सम्यग्दर्शन आदि मोक्ष मार्ग है, उससे विपरीत कुमार्ग की प्ररूपणा करके वे अनन्त संसार में परिभ्रमण करते हैं। जहा आसाविणिं णावं, जाइअंधो दुरूहिया । इच्छइ पारमागंतुं, अंतरा य विसीयइ ।। ३०॥ For Personal & Private Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ कठिन शब्दार्थ - आसाविणिं (आसाविणीं)- छिद्र वाली, जाइअंधो - जन्मान्ध, दुरूहिया - चढ़ कर, इच्छइ - चाहता है, पारमागंतुं पार पाना, अंतरा-बीच में ही, विसीय - डूब जाता है। भावार्थ - जैसे जन्मान्ध पुरुष छिद्रवाली नाव पर चढ कर नदी को पार करना चाहता है परन्तु त्रह मध्य में ही डूब जाता है । विवेचन - जिस प्रकार सैकड़ों छिद्र वाली नाव पर चढ़ कर जन्मान्ध पुरुष नदी के पार जाना. चाहता है परन्तु नाव में छिद्र होने के कारण उसमें पानी भर जाता है और वह सवारियों के सहित पानी में डूब जाती है। इसी प्रकार ये अन्यमतावलम्बी मोक्ष का सम्यग् मार्ग न जानने के कारण संसार समुद्र ही डूब जाते हैं। अर्थात् संसार समुद्र में परिभ्रमण करते रहते हैं । । ३० ॥ एवं तु समणा एगे, मिच्छदिट्ठी अणारिया । सोयं कसिणमावण्णा, आगंतारो महंब्भयं ॥ कठिन शब्दार्थ - सोयं - स्रोत- आस्रव, कसिणं भागंतारो - प्राप्त करेंगे, महब्भयं महान् भय को । ३१ ॥ कृत्स्न- संपूर्ण, आवण्णा २६८ - भावार्थ - इसी तरह मिथ्यादृष्टि अनार्य्य कोई श्रमण पूर्ण रूप से आस्रव का सेवन करते हैं, वे महान् भय को प्राप्त होंगे । विवेचन - ऊपर की गाथा में छिद्र वाली नाव का दृष्टांत दिया है, इसी तरह ये शाक्य आदि अन्यमतावलम्बी आस्रवों का निरोध न करने के कारण बारबार संसार में परिभ्रमण करते हुए नरकादि के दुःखों को भोगते हैं । - इमं च धम्ममादाय, कासवेण पवेइयं । तरे सोयं महाघोरं, अत्तत्ताए परिव्वए ।। ३२ ॥ - कठिन शब्दार्थ - धम्मं धर्म को, आदाय स्वीकार कर, तरे पारं करे, सोयं - स्रोत- संसार नगरको, अत्तत्ता - आत्म कल्याण के लिए, परिव्वए संयम पालन करे । - - सेवन कर, भावार्थ - काश्यपगोत्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के कहे हुए इस धर्म को प्राप्त कर बुद्धिमान् पुरुष महाघोर संसार सागर को पार करे तथा आत्मकल्याण के लिये संयम का पालन करे । विवेचन - राग द्वेष के विजेता वीतराग भगवान् का कहा हुआ श्रुत चारित्र रूप धर्म मोक्ष का मार्ग है। संसार सागर को तिरने के लिए वीतरागों के धर्म को स्वीकार करना चाहिए। कहीं-कहीं उत्तरार्ध का पाठ इस प्रकार मिलता है कि "कुज्जा भिक्खू गिलाणस्स अगिलो समाहिए " For Personal & Private Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ११ . २६९ अर्थ - साधु दूसरे रोगी साधु की सेवा ग्लानि रहित होकर प्रसन्न चित्त से करे और रोगी साधु को जिस तरह से समाधि प्राप्त हो उस तरह का कार्य करे।। ३२॥ ... विरए गाम-धम्मेहिं, जे केई जगई जगा । तेसिं अत्तुवमायाए, थाम कुव्वं परिव्वए ।। ३३॥ कठिन शब्दार्थ - गामधम्मेहिं - ग्रामधर्म-शब्दादि विषयों से, विरए - विरत, जगई - जगत् में, जगा - प्राणी, अत्तुवमायाए- आत्मोपमया-आत्मा के समान जान कर, थाम - बल के साथ, कुव्वं - करे । . भावार्थ - साधु शब्दादि विषयों को त्याग कर संसार के प्राणियों को अपने समान समझता हुआ श्रद्धा के साथ संयम का पालन करे । विवेचन - शब्द आदि विषयों को ग्राम धर्म कहते हैं। साधु उनसे निवृत्त हो जाए, अर्थात् मनोज्ञ शब्दादि में राग भाव न करे तथा अमनोज्ञ में द्वेष भाव न करे। जगत् के सभी जीव सुख चाहते हैं कोई भी दुःख नहीं चाहता। अतः उन प्राणियों को अपनी आत्मा के समान समझकर साधु उनको दुःख न देवे, किन्तु उनकी रक्षा के लिए पूरी यतना के साथ संयम का पालन करे।। ३३ ॥ अईमाणं च मायं च, तं परिणाय पंडिए । सव्वमेयं णिराकिच्चा, णिव्वाणं संधए मुणी ॥३४॥ कठिन शब्दार्थ - अइमाणं - अतिमान, परिण्णाय - जान कर, णिराकिच्चा - त्याग कर, संधए - अनुसंधान करे । भावार्थ - विद्वान् साधु अतिमान और माया को जान कर तथा उन्हें त्याग कर मोक्ष का अनुसन्धान करे । विवेचन - गाथा में मान और माया ये दो शब्द दिए हैं, किन्तु उपलक्षण से क्रोध और लोभ का भी ग्रहण कर लेना चाहिए। अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों कषाय संयम का विनाश करने वाले हैं। जैसा कि कहा है - .. ."सामण्णमणुचरंतस्स, कसाया जस्स उक्कडा होति। मण्णामि उच्छुपुष्कं व, निष्फलं तस्स सामण्णं॥ अर्थ - संयम का पालन करते हुए, जिस साधु के कषाय प्रबल होते जाते हैं, उसका साधुपना ईख (गन्ना) के फूल के समान निष्फल है। जिस प्रकार घर में कचरा बिना लाए आता है, इसी प्रकार कषाय भी जीव में बिना बुलाए आते हैं। अतः साधु को कषाय को छोड़कर प्रशस्त भावों के साथ संयम का पालन करना चाहिए।। ३४ ॥ For Personal & Private Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000०००००० संधए साहुधम्मं च, पावधम्मं णिराकरे । उवहाण-वीरिए भिक्खू, कोहं माणं ण पत्थए ।। ३५॥ कठिन शब्दार्थ - साहुधम्म - साधुधर्म को, पावधम्म - पाप धर्म का, णिराकरे - निराकरण-त्याग करे, उवहाणवीरिए - उपधान वीर्य-तप में पराक्रम करने वाला, पत्थए - इच्छा करे । भावार्थ - साधु, क्षान्ति आदि धर्म की वृद्धि करे और पापमय धर्म का त्याग करे एवं तप में अपना पराक्रम प्रकट करता हुआ क्रोध और मान का सर्वथा त्याग कर दे। विवेचन - क्षमा, मार्दव, आर्जव, मुक्ति, तप, संयम, सत्य, शौच, अकिंचनत्व, ब्रह्मचर्य, ये दस श्रमण धर्म हैं। बुद्धिमान् पुरुष इन धर्मों की वृद्धि करे तथा हर समय नए-नए ज्ञानों को सीखकर ज्ञान की वृद्धि करे तथा शंका आदि दोषों को छोड़कर जीवादि पदार्थों को अच्छी तरह स्वीकार करके सम्यग्-दर्शन की वृद्धि करे एवं अतिचार रहित मूल गुण और उत्तर गुणों को पूर्ण रूप से पालन करके तथा प्रतिदिन नए-नए अभिग्रहों को धारण करके चारित्र और तप की वृद्धि करे। जो कार्य प्राणियों की हिंसा से युक्त होने के कारण पाप का कारण रूप है, इसका त्याग करे। ___गाथा में क्रोध और मान का ग्रहण किया गया है। उपलक्षण से माया और लोभ का भी ग्रहण कर . लेना चाहिए अर्थात् मुनि को चारों कषाय का त्याग करके तप करने में पूर्ण पुरुषार्थ करना चाहिए। जे य बुद्धा अइकता, जे य बुद्धा अणागया । संति तेसिं पइद्वाणं, भूयाणं जगई जहा ॥३६॥ कठिन शब्दार्थ - बुद्धा - बुद्ध (तीर्थंकर) अइक्कंता - अतिक्रांत-भूतकाल में हो चुके हैं, अणागया - अनागत में-भविष्यकाल में, संति - शांति, पइट्ठाणं - आधार, जगई - पृथ्वी, भूयाणं - भूतों-जीवों का। भावार्थ - जो तीर्थंकर भूतकाल में हो चुके हैं और जो भविष्यकाल में होंगे उन सभी का शान्ति ही आधार है जैसे समस्त प्राणियों का त्रिलोकी आधार है । विवेचन - भूतकाल में अनन्त तीर्थंकर भगवंत हो चुके हैं। वर्तमान काल में महाविदेह क्षेत्र में संख्यात (बीस) तीर्थंकर भगवन् विद्यमान हैं तथा भविष्यकाल में अनन्त तीर्थंकर होवेंगे। वे सभी स्वयमेव बोध को प्राप्त करते हैं। इसलिए वे स्वयंबुद्ध कहलाते हैं। उन्हें दूसरों के उपदेश की आवश्यकता नहीं होती है। इसीलिए गाथा में 'बुद्ध' शब्द दिया है। बुद्ध शब्द का अर्थ यहाँ पर तीर्थंकर भगवंत् है । सब तीर्थंकर भगवंतों का उपदेश शान्ति मार्ग का हैं। अर्थात् जिस प्रकार जगत् के सब जीव अजीव आदि पदार्थों का आधार पृथ्वी है, इसी प्रकार तीर्थंकर भगवन्तों के उपदेश का आधार भी शान्ति For Personal & Private Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन ११ २७१ ०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० है। उन्होंने जगत् के सब जीवों को शान्ति का उपदेश दिया और स्वयं ने भी शान्ति का आचरण किया था इसलिए तीर्थङ्करों का आधार शान्ति है।। ३६ ॥ नोट - इस गाथा का उद्धरण दे कर जो यह कहते हैं कि जैन शास्त्रों में भी बौद्ध धर्म के प्रवर्तक बुद्ध भगवान् का वर्णन आता है। उनका कथन आगमानुकूल नहीं है क्योंकि यहाँ 'बुद्ध' का अर्थ तीर्थंकर भगवंत है। अह णं वयमावण्णं, फासा उच्चावया फुसा । ण तेसु विणिहण्णेग्जा, वारण वा महागिरी ।। ३७॥ कठिन शब्दार्थ - वयं - व्रत, आवण्णं - ग्रहण किये हुए को, फासा फुसा - परीषह उपसर्ग स्पर्श कर, उच्चावया - उच्चावच - नाना प्रकार के, विणिहण्णेजा - विचलित हो, वाएण- वायु से, महागिरी - महान् पर्वत 1 1 - भावार्थ - व्रत ग्रहण किये हुए साधु को यदि नाना प्रकार के परीषह और उपसर्ग स्पर्श करें तो साधु अपने संयम से विचलित न हो जैसे पवन से महान् पर्वत डिगता नहीं है । विवेचन - जैसे मेरु पर्वत महान् वायु से भी विचलित नहीं होता है, उसी प्रकार मुनि को भी परीषह उपसर्गों के आने पर संयम मार्ग से विचलित नहीं होना चाहिए।। ३७ ॥ संवुडे से महापण्णे, धीरे दत्तेसणं चरे । णिव्वुडे कालमाकंखी, एवं केवलिणो मयं॥ ३८॥॥त्ति बेमि॥ कठिन शब्दार्थ - णिव्वुडे - निर्वृत्तः-शांत रहता हुआ, कालं - काल (मृत्यु) की, आकंखी - आकांक्षा करे, केवलिणो - केवली का, मयं - मत है ।। भावार्थ - आस्रव द्वारों को निरोध किया हुआ महा बुद्धिमान् धीर वह साधु दूसरे से दिया हुआ ही आहार आदि ग्रहण करे । तथा शान्त रह कर मरणकाल की इच्छा करे, यही केवली का मत है। - इति ब्रवीमि - - अर्थात् सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि आयुष्मन् जम्बू ! जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखारबिन्द से सुना है वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ। मैं अपनी मनीषिका (बुद्धि) से कुछ नहीं कहता हूँ। विवेचन - धर्म, समाधि और मार्ग इन तीनों अध्ययन में, धर्म, समाधि और मार्ग की परिभाषा बताते हुए दो बातों पर अधिक जोर दिया है-अहिंसा और अपरिग्रह । इसमें भी अहिंसा की बात बहुत For Personal & Private Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 दुहराई गई है। इससे हमें जैनधर्म की एक विशेषता का संकेत मिलता है-वह है अहिंसा में ही तमाम गुणों का समावेश कर लेना । पूर्वाचार्य इसी विशेषता से प्रेरित होकर कह गये हैं कि - जस्स दया तस्स गुणा, जस्स दया तस्स उत्तमो धम्मो। जस्स दया सो पत्तो, जस्स दया सो जए पुग्जो॥ १॥ जस्स दया सो तवस्सी, जस्स दया सो सील-संपत्ति। जस्स दया सो णाणी, जस्स दया तस्स निव्वाणं ॥२॥ अर्थ - जिस पुरुष के हृदय में दया है उसी में गुण, उत्तम धर्म, शान्ति की प्राप्ति आदि गुण टिकते हैं वही पूज्य है, वही तपस्वी है, वही शील सम्पन्न है, वही ज्ञानी है और उसी को निर्वाण (मोक्ष) की प्राप्ति होती है। अतः जैन धर्म अहिंसा (दया) प्रधान धर्म है। दया और अहिंसा एकार्थक शब्द हैं । जो केवल मानवों के लिये ही हितकारी हो वही धर्म है-यह नहीं पर-प्राणी मात्र के लिये हितकारी हो वही धर्म है । स्वाश्रय-आत्माश्रय के बिना प्राणी मात्र का हित नहीं साधा जा सकता है; अतः अकिञ्चन-वृत्ति पर जोर देना योग्य ही है । सबके हित की बात इसीलिये कही जाती है कि पराये अहित की भावना से आत्मा की विभाव-रमणता बढ़ती है - फिर आत्म-रमणता के नाम पर जहाँ प्रवृत्ति में पर दया की उपेक्षा है वहाँ स्वभाव-स्थिति को निश्चय की ओट में कल्पना की क्रीड़ा ही समझना चाहिए । इस प्रकार जिस सिद्धान्त में स्व-पर-दया का सामञ्जस्य पूर्ण समन्वय हो उसी सिद्धान्त में और उसके अनुसार आचरणों में ही धर्म है, समाधि है और वही सच्चा मार्ग है । इस अध्ययन में वर्णित गुणों को ध्यान करने वाला शांत मुनि मुक्ति को प्राप्त करता है। ॥मार्ग नामक ग्यारहवां अध्ययन समाप्त॥ * * * For Personal & Private Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवसरण नामक बारहवाँ अध्ययन . संसार में जितने व्यक्ति हैं-उन सब व्यक्तियों के सभी विचार परस्पर नहीं मिलते हैं; पर अनेक विचारों में समानता रहती है, इस प्रकार उनका समूह बन जाता है । इस प्रकार अलग-अलग विचारों के अलग-अलग वर्ग बन जाते हैं और विचार-भेद बढ़ता जाता है । इस विचार-भेद ने ही कलह का बीज बोया है-यह सही है, पर विचार-क्रम से ही मनन शील जीव के उत्थान का पता लगाया जा सकता है । यही कारण है कि विचार धाराओं का आत्यन्तिक विनाश कभी नहीं होता; हां उनके प्रवाह में मंदता-तीव्रता का भेद मौजूद रहता है । अतः यह कहने में कोई हरकत नहीं है कि विचार प्रणालियाँ युगानुकूल चोले बदल कर, हर काल में करवटें बदलती रहती है । महावीर जिनेन्द्र ने ऐसी कई विचार-प्रणालियों को, मोटे तौर से चार वर्गों में विभाजित करके, उनका कथन किया है । चत्तारि समोसरणाणिमाणि, पावादुया जाइं पुढो वयंति । किरियं अकिरियं विणियं ति तइयं, अण्णाणमाहंसुचउत्थमेव ॥१॥ कठिन शब्दार्थ - चत्तारि - चार, समोसरणाई - समवसरण, पावादुया - प्रावादुक-परतीर्थी, किरियं - क्रियावाद, अकिरियं - अक्रियावाद, विणियं - विनयवाद, अण्णाणं - अज्ञानवाद । भावार्थ - अन्यदर्शनियों ने जिन सिद्धान्तों को एकान्त रूप मान रखा है वे सिद्धान्त ये हैं - क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद और चौथा अज्ञानवाद । विवेचन - अन्यमतावलम्बियों के मुख्य रूप से चार भेद हैं। इनमें से क्रियावादी जीव के अस्तित्व को मानते हैं, इनके १८० भेद हैं। अक्रियावादी जीव आदि किसी भी पदार्थ का अस्तित्व नहीं मानते, इनके ८४ भेद हैं। अज्ञानवादी अज्ञान से ही मोक्ष की प्राप्ति मानते हैं, इनके ६७ भेद हैं। विनयवादी विनय से ही मोक्ष की प्राप्ति मानते हैं। इसके ३२ भेद हैं। इस प्रकार इन चारों वादियों के भेदों को जोड़ने से ३६३ भेद होते हैं, इनका विस्तृत विवेचन पहले कर दिया गया है।। १॥ अण्णाणिया ता कुसला वि संता, असंथुया णो वितिगिच्छतिण्णा।। अकोविया आहु अकोविएहिं, अणाणुवीइत्तु मुसं वयंति ॥ कठिन शब्दार्थ - अण्णाणिया - अज्ञानवादी, कुसला - कुशल, असंथुया - असंस्तुत-सम्मत नहीं है, वितिगिच्छ तिण्णा- संशय से रहित, अकोविया - अकोविद, अणाणुवीइत्तु - पूर्वापर का विचार न करके । भावार्थ - अज्ञानवादी अपने को निपुण मानते हुए भी विपरीत भाषी हैं तथा वे भ्रमरहित नहीं For Personal & Private Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 किन्तु भ्रम में पड़े हुए हैं । वे स्वयं अज्ञानी हैं और अज्ञानी शिष्यों को उपदेश करते हैं । वे वस्तु तत्त्व का विचार न करके मिथ्या भाषण करते हैं । विवेचन - इन चार वादियों में से पहले अज्ञानवादी का कथन किया जाता है। क्योंकि वे विपरीत भाषी हैं। वे अपने को कुशल मानते हुए भी अज्ञान ही कल्याण का साधन है।' यह कथन असम्बद्ध प्रलाप है इसी कारण वे स्वयं भ्रम में पड़े हुए हैं। वे स्वयं अज्ञानी होते हुए अपने शिष्यों को भी अज्ञान का उपदेश देते हैं। जीव अनादि काल से अज्ञानी हैं, इसलिए उसे अज्ञान का उपदेश देने की आवश्यकता ही नहीं है। ये लोग अज्ञान पक्ष का आश्रय लेकर बिना विचारे बोलने के कारण सदा झूठ बोलते हैं। क्योंकि ज्ञान होने पर ही विचार कर बोला जाता है और सत्य भाषण विचार पर ही निर्भर रहता है। अतः ज्ञान को स्वीकार न करने के कारण विचार कर नहीं बोलते हैं और विचार कर न बोलने के कारण वे मिथ्यावादी हैं यह बात स्वतः सिद्ध हो जाती है।। २॥ सच्चं असच्चं इति चिंतयंता, असाहु साहुत्ति उदाहरंता । . . जेमे जणा वेणइया अणेगे, पुट्ठा वि भावं विणइंसु णाम ॥३॥ ... • कठिन शब्दार्थ - चिंतयंता - चिंतन करते हुए, असाहु - असाधु, साहु - साधु, उदाहरंता - बताते हुए, वेणइया - विनयवादी, पुट्ठा - पूछने पर, विणइंसु- विनय को । भावार्थ - सत्य को असत्य तथा असाधु को साधु बताने वाले विनयवादी पूछने पर केवल विनय को ही मोक्ष का मार्ग कहते हैं । विवेचन - विनयवादी अर्थात् जिनमें भक्ति का अतिरेक हो गया हो-ऐसे व्यक्ति । यहां तक कि वे भक्ति को मुक्ति से भी बढ़कर मान लेते हैं-साधन को ही साध्य मान लेते हैं । देवता, शासक, यति, जाति, वृद्ध, अधर्म, माता और पिता में से किसी में अपने इष्ट का आरोपण करके, उनके प्रति मन, वचन, काया और दान अर्थात् सर्वस्व-समर्पण का नाम है विनय । कोई चारों के योग में विनय मानते है तो कोई एक में भी । स्त्रियों के लिये पति को ही परमाराध्य बताने वाले भी इसी कोटि में आते हैं और प्राणी मात्र में अपने आराध्य के दर्शन करके, उन्हें नमस्कार करने वाले भी विनयवादी ही है। - सम्यग् ज्ञान, दर्शन, चारित्र मोक्ष का मार्ग हैं। उसको वे असत्य बताते हैं और विनय को ही स्वर्ग और मोक्ष का मार्ग बताते हैं। इसलिए ये मिथ्यावादी हैं। . अणोवसंखा इति ते उदाहु, अढे स ओभासइ अम्ह एवं । लवावसंकीय अणागएहि, णो किरिय-माहंसु अकिरियवाई ॥४॥ कठिन शब्दार्थ - अणोवसंखा - अज्ञानवश, अद्वे - अर्थ, ओभासइ - अवभाषित होता है, लबावसकी - कर्मबंध की शंका करने वाले, अणागएहिं - भविष्य में । For Personal & Private Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १२ २७५ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ - विनयवादी कहते हैं कि - हमको अपने प्रयोजन की सिद्धि विनय से ही दिखती है परन्तु वे वस्तु तत्त्व को न समझकर ऐसा कहते हैं । इसी तरह कर्मबन्ध की आशङ्का करने वाले अक्रियावादी भूत और भविष्यकाल के द्वारा वर्तमान को उड़ा कर क्रिया का निषेध करते हैं। विवेचन- गाथा में अणोवसंखा' शब्द दिया है, इसमें वस्तु के ज्ञान को संख्या कहते हैं और सम्यक् प्रकार के वस्तु के स्वरूप को जानने का नाम उपसंख्या है। उपसंख्या के अभाव को अनूप संख्या कहते हैं। जिसका अर्थ है ज्ञान रहित, इस गाथा के पूर्वार्द्ध में विनयवादी का कथन है और उत्तरार्द्ध में अक्रियावादी का कथन है। इन दोनों का विस्तृत विवेचन पहले कर दिया गया है। .. सम्मिस्सभावंच गिरा गहीए, से मुम्मई होइ अणाणुवाई। इमं दुपक्खं इम-मेगपक्खं, आहंसु छलाययणं च कम्मं ॥५॥. कठिन शब्दार्थ - सम्मिस्सभावं - मिश्रित भाव को, गिरा - वाणी द्वारा, गही - स्वीकार किये हुए, मुम्मुई - मौन (मूक), अणाणुवाई - अनुवाद नहीं करने वाला, दुपंक्खं - द्विपाक्षिक, एगपक्खं- एक पाक्षिक, छलाययणं - वाक् छल आदि का स्थान। ___ भावार्थ - पूर्वोक्त नास्तिक गण पदार्थों का प्रतिषेध करते हुए उनका अस्तित्व स्वीकार कर बैठते हैं । वे स्याद्वादियों के वचनों का अनुवाद करने में भी असमर्थ होकर मूक ही जाते हैं । वे अपने मत को प्रतिपक्षरहित और परमत को प्रतिपक्ष के सहित बताते हैं । वे स्याद्वादियों के साधनों को खण्डन करने के लिये वाक्छल आदि का प्रयोग करते हैं । विवेचन - इस गाथा में नास्तिक मत, सांख्य मत और बौद्ध मत का खंडन किया गया है। इन . मतों की मान्यता का पूर्व पक्ष और उत्तर पक्ष पहले बताया जा चुका हैं। जब वे स्याद वादियों के सामने उत्तर नहीं दे पाते हैं तब वाक् छल आदि का प्रयोग करते हैं। जैसे कि 'नव' शब्द के दो अर्थ हैं। नया और नौ की संख्या। जैसे कि किसी ने कहा "नवकम्बलो अयं देवदत्तः" अर्थात् -- इस देवदत्त के पास नया कम्बल है तब वाक्छल वादी पूर्ववादी का खण्डन करते हुए कहता कि इस देवदत्त के पास तो एक कम्बल है, "नौ' (९) कम्बल नहीं है, तुम झूठ बोलते हो। इस प्रकार प्रश्न का वास्तविक उत्तर न दे .. सकने पर ये अन्यमतावलम्बी वाक् छल आदि का प्रयोग करते हैं। .. ते एव-मक्खंति अबुज्झमाणा, विरूवरूवाणि अकिरियवाई। जे मायइत्ता बहवे मणूसा, भमंति संसारमणोवदग्गं ॥६॥ कठिन शब्दार्थ - अबुझमाणा - वस्तु स्वरूप को नहीं समझते हुए, विरूवरूवाणि - नाना प्रकार के, आयइत्ता - आश्रय लेकर, भमंति - भ्रमण करते हैं, संसारं - संसार में, अणोवदग्गं - अनवदन - अनंत। For Personal & Private Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ भावार्थ - वस्तु स्वरूप को न जानने वाले वे अक्रियावादी नाना प्रकार के शास्त्रों का कथन करते हैं, जिन मिथ्या शास्त्रों का आश्रय लेकर बहुत मनुष्य अनन्त काल तक संसार में भ्रमण करते हैं । विवेचन - इस गाथा में भी अक्रियावादी (चार्वाक- नास्तिक) और बौद्ध मत का खण्डन किया गया है। उनकी मान्यता के अनुसार आत्मा का अस्तित्त्व है ही नहीं अथवा आत्मा क्षणस्थायी है तो फिर जप तप आदि क्रिया का फल बताना केवल लोगों को दिखावा मात्र अथवा ठगना मात्र है जैसा कि वे कहते हैं। "दानेन महाभोगाश्च, देहिमां सरगतिश्च शीलेन। भावनया च विमुक्तिस्तपसा सर्वाणि सिध्यन्ति ॥" अर्थात् - दान देने से महान् भोग मिलते हैं और शील पालन करने से देवगति प्राप्त होती है और शुभ भावना करने से मुक्ति की प्राप्ति होती है तथा तप करने से सब कार्य सिद्ध होते हैं। . जब उपरोक्त मतावलम्बियों के मत में आत्मा है ही नहीं तब फिर इन फलों की प्राप्ति किसको होगी अतः यह उनका कथन केवल प्रलाप मात्र है। णाइच्चो उएइण अस्थमेइ, ण चंदिमा वडा हायइ वा । सलिला ण संदंति ण वंति वाया, वंझो णियतो कसिणेहुलोए ॥७॥ कठिन शब्दार्थ - आइच्चो - आदित्य-सूर्य, उएइ - उगता है, अत्थमेइ - अस्त होता है, बंदिमा - चन्द्रमा, सलिला - नदी (पानी) संदंति - बहती है, वाया - वायु, वंति - चलती है, बंझो - वन्ध्य (शून्य) णियतो - नियत । भावार्थ - सर्वशून्यतावादी कहते हैं कि सूर्य उगता नहीं और अस्त भी नहीं होता है तथा चन्द्रमा न बढ़ता है और न घटता है एवं पानी बहता नहीं है और हवा भी चलती नहीं है किन्तु यह समस्त विश्व झठा और अभावरूप है। विवेचन - सर्वशून्यतावादी के मत में सूर्य का उदय और अस्त तथा चन्द्रमा का कृष्ण पक्ष में घटना और शुक्ल पक्ष में बढ़ना, पानी का बहना, हवा का चलना आदि कुछ नहीं है किन्तु यह समस्त विश्व झूठा और काल्पनिक हैं अर्थात् इस जगत् में जो वस्तु उपलब्ध होती है। वह सब माया, स्वप्न और इन्द्रजाल के समान मिथ्या है। जहा हि अंधे सह जोइणा वि, रूवाइं णो पस्सइ हीण-णेत्ते । संतं पि ते एवमकिरियवाई, किरियं ण पस्संति णिरुद्ध-पण्णा ॥८॥ कठिन शब्दार्थ - जोइणा - ज्योति (प्रकाश) सह - साथ, परस्सइ - देखता है, हीणणेत्ते - नेत्रहीन होने के कारण, संतं पि - विद्यमान भी, णिरुद्धपण्णा - निरुद्धप्रज्ञ-बुद्धिहीन । भावार्थ - जैसे अन्ध मनुष्य दीपक के साथ रहता हुआ भी घटपटादि पदार्थों को नहीं देख For Personal & Private Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १२ २७७ . पाश्चवा सकता है इसी तरह जिनके ज्ञान पर पर्दा पडा हुआ है ऐसे अक्रियावादी विद्यमान भी घटपटादि पदार्थों को नहीं देख सकते हैं । विवेचन - सर्वशून्यतावादी जगत् की वस्तुओं को माया, स्वप्न और इन्द्रजाल के समान मानता है, किन्तु यह अटल नियम है कि वास्तविक वस्तु के होने पर ही कल्पना की जा सकती है। किसी भी वस्तु का अत्यन्त तुच्छ रूप अभाव नहीं है, क्योंकि अभाव रूप से जो शशविषाण (खरगोश के सींग) कूर्म रोम (कछुए के केश) और गगनारविन्द (आकाश के कमल) आदि शब्दों में दो-दो शब्दों का समास है, इसलिए समासवाची शब्द संसार में मिल भी सकते हैं और नहीं भी मिल सकते हैं किन्तु प्रत्येक पदवाच्य अर्थात् बिना समास का शब्द का वाच्य अवश्य हैं जैसे कि - खरगोश है, सींग (गाय आदि के) हैं इसी प्रकार कछुआ है तथा केश (गाय मनुष्य आदि के) हैं तथा आकाश है और अरविन्द अर्थात् कमल भी है। इसी तरह संसार के समस्त पदार्थों का अस्तित्व हैं, सर्वशून्य नहीं है। संवच्छरं सुविणं लक्खणं च, णिमित्तं देहं च उप्पाइयं च । अटुंग-मेयं बहवे अहित्ता, लोगंसि जाणइ अणागयाइं ॥९॥ .. कठिन शब्दार्थ - संवच्छरं - संवत्सर (ज्योतिष) सुविणं - स्वप्न, लक्खणं - शारीरिक लक्षण, णिमित्तं - निमित्त, देहं - शरीर के तिल आदि, उप्पाइयं - औत्पातिक उत्कापात आदि, अटुंग - आठ अंग वाले, अहित्ता - पढ़ कर, अणागयाइं- भविष्य की बातों को। भावार्थ - जगत् में बहुत से पुरुष ज्योतिष शास्त्र, स्वप्नशास्त्र, लक्षणशास्त्र, निमित्तशास्त्र, शरीर के तिल आदि का फल बतानेवाला शास्त्र और उल्कापात तथा दिग्दाह आदि का फ शास्त्र, इन आठ अङ्गों वाले शास्त्रों को पढ़ कर भविष्य में होने वाली बातों को जानते हैं । विवेचन - शून्यवाद में सर्वशून्यता का कथन है, उनके मत में भौम, उत्पात, स्वप्न, आन्तरिक्ष, आङ्ग, स्वर, लक्षण, व्यञ्जन तथा नवमा निमित्त शास्त्र है, इनको पढ़कर लोग इस लोक में भूत और भविष्य की बातों को जान लेते हैं और आजीविका चलाते हैं। परन्तु शून्यवाद मानने पर यह सब घटित नहीं हो सकता है केई णिमित्ता तहिया भवंति, केसिंचि तं विप्पडिएइ णाणं । ते विज भावं अणहिज्जमाणा, आहंसु विजापरिमोक्ख-मेव ॥१०॥ कठिन शब्दार्थ - केई - कुछ, तहिया - सत्य, विप्पडिएइ - विपरीत होता है, विजभावं - विद्या के भाव को, अणहिजमाणा - नहीं जानते (पढ़ते) हुए, विजापरिमोक्खमेव- विद्या के त्याग को ही। For Personal & Private Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ - कोई निमित्त सत्य होता है और किसी किसी निमित्तवादी का वह ज्ञान विपरीत होता है। यह देखकर विद्या का अध्ययन करते हुए अक्रियावादी विद्या के त्याग को ही कल्याणकारक कहते हैं। विवेचन - उपरोक्त प्रकार से क्रियावाद का समर्थन करने पर शून्यवादी कहता है कि उपरोक्त अष्टांग निमित्त कहीं झूठा भी हो जाता है, इसलिए हमारा सिद्धांत शून्यवाद ही उत्तम हैं परन्तु शून्यवाद का खण्डन तो पहले कर दिया गया है। ते एवमक्खंति समिच्चलोगं, तहा तहा समणा माहणा य । सयं कडंणण्णकडंच दुक्खं, आहंसु विज्जाचरणं पमोक्खं ॥११॥ कठिन शब्दार्थ - लोगं - लोक को, समिच्च - भलीभांति जान कर, सयं - स्वयं, कडं - कृत, णण्णकडं - अन्यकृत नहीं है, विजाचरणं - विद्या (ज्ञान) और आचरण (क्रिया) से, पमोक्खं - मोक्ष । भावार्थ - शाक्य, भिक्षु और ब्राह्मण आदि अपने अभिप्राय के अनुसार लोक को जानकर क्रिया के अनुसार फल होना बताते हैं और वे यह भी कहते हैं कि दु:ख अपने करने से होता है दूसरे के . करने से नहीं होता है परन्तु तीर्थंकरों ने ज्ञान और क्रिया से मोक्ष कहा है। .. विवेचन - क्रियावादियों का कथन हैं कि सब कार्य क्रिया से ही सिद्ध होता है.। ज्ञान की आवश्यकता नहीं है, क्रियावाद का यह कथन मिथ्या हैं क्योंकि - पढमं णाणं तओ दया, एवं चिट्ठइ सव्वसंजए। अण्णाणी किं काही, किंवा णाही सेयपावगं॥ अर्थात् - पहले ज्ञान है, उसके बाद दया है इस प्रकार सभी साधु आचरण करते हैं, सम्यग् ज्ञान , से रहित अज्ञानी पुरुष क्या कर सकता है ? अर्थात् ज्ञान पूर्वक क्रिया करने से ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। अज्ञानी जिसे साध्य-साधन का भी ज्ञान नहीं है वह क्या कर सकता है ? वह अपने पुण्यपाप एवं कल्याण अकल्याण को भी कैसे समझ सकता है ? इसलिए मोक्ष प्राप्ति के लिए ज्ञान और क्रिया दोनों की आवश्यकता है।। ११ ॥ ते चक्खु लोगंसिह णायगा उ, मग्गाणुसासंति हियं पयाणं । तहा तहा सासय-माहु लोए, जंसि पया माणव! संपगाढा ।।१२ ॥ कठिन शब्दार्थ - चक्खु - चक्षु-नेत्र, णायगा - नायक, मग्गाणुसासंति - मार्ग का अनुशासन करते हैं, हियं - कल्याण, पयाणं - प्रजा के लिए, सासयं - शाश्वत, संपगाढ - संप्रगाढ-आसक्त । भावार्थ - वे तीर्थंकर आदि जगत् के नेत्र के समान हैं वे इस लोक में सबसे श्रेष्ठ हैं वे प्रजाओं For Personal & Private Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १२ को कल्याणमार्ग की शिक्षा देते हैं । वे कहते हैं कि - ज्यों ज्यों मिथ्यात्व बढ़ता है त्यों त्यों संसार मजबूत होता जाता है जिस संसार में प्रजा निवास करती हैं। विवेचन - जिस प्रकार योग्य स्थान पर रहे हुए पदार्थ को आंख आदि इन्द्रियाँ जानती एवं प्रकाशित करती हैं। इसी तरह तीर्थंकर और गणधर आदि भी लोक के पदार्थों का यथार्थ स्वरूप प्रकाशित करते हैं । इसलिए वे लोक में सबसे प्रधान हैं। उनका फरमाना है कि जीव अनादि काल से मिथ्यात्व आदि के कारण संसार में परिभ्रमण करता रहा है, जब तक मिथ्यात्व नहीं छूटता है, तब तक संसार की वृद्धि होती रहती है अत: सुज्ञ प्राणियों का कर्त्तव्य है कि वे मिथ्यात्व आदि सभी पापों का सर्वथा त्याग कर दे ।। १२ ॥ जे रक्खसा वा जमलोइया वा, जे वा सुरा गंधव्वा य काया । आगास- गामी य पुढो - सिया जे, पुणो पुणो विप्परियासुर्वेंति ।। १३ ॥ कठिन शब्दार्थ - रक्खसा राक्षस, जमलोइया - यमलोक के देव, सुरा - देव, गंधव्वा गंधर्व, आगासगामी - आकाशगामी, पुढोसिया - पृथ्वी के आश्रित, विप्परियासुर्वेति- विपर्यास (जन्म मरण) को प्राप्त होते हैं । - भावार्थ - राक्षस, यमपुरवासी, देवता, गन्धर्व, आकाशगामी तथा पृथिवी पर रहने वाले प्राणी सभी बार बार भिन्न भिन्न गतियों में भ्रमण करते हैं । महु ओहं सलिलं अपारगं, जाणाहि णं भवगहणं दुमोक्खं । जंसि विसण्णा विसयंगणाहिं, दुहओऽवि लोयं अणुसंचरंति ॥ १४ ॥ कठिन शब्दार्थ - ओघं- ओघ - प्रवाह सलिलं सलिल - पानी - स्वयंभूरमण समुद्र के जल के समान, अपारगं - अपार, भवगहणं गहन संसार को, दुमोक्खं दुर्मोक्ष, विसयंगणाहिं विषय और स्त्रियों में, विसण्णा - आसक्त, अणुसंचरंति- अणुसंचरण (भ्रमण) करते हैं । भावार्थ - इस संसार को जिनेश्वर देव ने स्वयम्भू रमण समुद्र के समान दुस्तर कहा है अत: इस गहन संसार को जुन दुर्मोक्ष समझो । विषय तथा स्त्री में आसक्त जीव इस जगत् में बार बार स्थावर और जङ्गम जातियों में भ्रमण करते रहते हैं । - ण कम्मुणा कम्म खवेंति बाला, अकम्मुणा कम्म खवेंति धीरा । मेधाविणो लोभमयावतीता, संतोसिणो णो पकरेंति पावं ।। १५॥ कठिन शब्दार्थ - कम्मुणा पापकर्म से, खवेंति लोभ और मद से दूर, संतोसिणो- संतोषी । २७९ 1000 - - For Personal & Private Use Only - क्षय (क्षीण) करते, लोभमयावतीता Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ - मूर्ख जीव. अशुभ कर्म करके अपने पापों का नाश नहीं कर सकते हैं । परन्तु धीर पुरुष अशुभ कर्मों को त्याग कर अपने कर्मों को क्षपण करते हैं । बुद्धिमान् पुरुष लोभ और मद से दूर रहते हैं और वे सन्तोषी होकर पापकर्म नहीं करते हैं । विवेचन - अज्ञानी पुरुष सावध कार्य अर्थात् आरम्भ व परिग्रह से कर्मों का क्षय करना चाहते हैं किन्तु ऐसा नहीं होता है। धीर पुरुष अठारह पापों के त्याग से कर्मों का क्षय करते हैं। सन्तोषी पुरुष व बुद्धिमान् पुरुष तो लोभ और आठ प्रकार के मद अथवा सात प्रकार के भय से दूर रह कर अर्थात् इनका त्याग करके वे फिर से पाप का आचरण नहीं करते हैं अतएव वे संसार समुद्र को पाप कर जाते हैं।। १५ ॥ ते तीयउप्पण्णमणागयाई, लोगस्स जाणंति तहागयाई। णेतारो अण्णेसि अणण्णणेया, बुद्धा हु ते अंतकडा भवंति ॥१६॥ कठिन शब्दार्थ - तीयउप्पण्णमणागयाइं - अतीत, वर्तमान और भविष्य को, तहागयाइं - यथार्थ रूप में, णेतारो - नेता, अणण्णणेया - उनका कोई नेता नहीं है, अंतकडा - अंत करने वाले। भावार्थ - वे वीतराग पुरुष जीवों के भूत, वर्तमान और भविष्य वृत्तान्तों को ठीक ठीक जानते हैं। वे सबके नेता हैं, परन्तु उनका कोई नेता नहीं हैं वे जीव संसार का अन्त करते हैं। विवेचन - तीनों काल की बात को यथार्थ रूप से जानने वाले वीतराग तीर्थंकर और गणधर आदि जगत् के जीवों के नेता हैं। अर्थात् मोक्ष मार्ग को बतलाने वाले है, वे सर्व कर्मों का क्षयकर मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं ।। १६ ॥ तेणेव कुव्वंति ण कारवेंति, भूताहिसंकाइ दुगुंछमाणा। सया जता विप्पणमंति धीरा, विण्णत्ति-धीरा य हवंति एगे ।।१७ ॥ .. कठिन शब्दार्थ - भूताहिसंकाइ - प्राणियों के घात के भय से, दुगुंछमाणा - पाप से घृणा करने वाले, विप्पणमंति - संयम पालन करते हैं, विण्णत्तिधीरा - ज्ञान से धीर वीर। भावार्थ - पाप से घृणा करने वाले तीर्थंकर और गणधर आदि प्राणियों के घात के भय से स्वयं पाप नहीं करते हैं और दूसरे से भी नहीं कराते हैं किन्तु कर्म को विदारण करने में निपुण वे पुरुष, सदा पाप के अनुष्ठान से निवृत्त रहकर संयम का पालन करते हैं परन्तु कोई अन्यदर्शनी ज्ञानमात्र से वीर बनते हैं अनुष्ठान से नहीं। विवेचन - वीर पुरुष प्राणातिपात आदि अठारह ही पापों का त्याग करके शुद्ध संयम का पालन करते हैं, इसलिए वे शीघ्र ही मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं। यहाँ - For Personal & Private Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ amanna......000000 अध्ययन १२ .. . २८१ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000 "पण्णति वीरा य भवंति एगे" ऐसा पाठ भी मिलता है। जिसका अर्थ है - कोई गुरुकर्मी अल्पपराक्रमी जीव ज्ञान मात्र से वीर बनते हैं परन्तु आचरण से नहीं परन्तु ज्ञान मात्र से इष्ट साध्य की सिद्धि नहीं होती है। जैसा कि कहा है - "अधीत्य शास्त्राणि भवन्ति मूर्खाः, यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान्। संचिन्त्यतामौषधमातुरं हि, न ज्ञानमात्रेण करोत्यरोगम् ॥" अर्थात् - शास्त्र पढ़कर भी कोई मूर्ख रह जाते हैं अर्थात् आचरण रहित रह जाते हैं, किन्तु जो पुरुष शास्त्रोक्त क्रिया का आचरण करता है वहीं पंडित है क्योंकि अच्छी तरह से जानी हुई भी औषधी ज्ञान मात्र से रोग की निवृत्ति नहीं करती है। अतः मोक्ष प्राप्ति के लिए ज्ञान और क्रिया दोनों की आवश्यकता है।। १७॥ डहरे य पाणे वुड्ढे य पाणे, ते आत्तओ पासइ सव्वलोए। . उव्वेहइ लोगमिणं महंतं, बुद्धेऽपमत्तेसु परिव्वएज्जा ॥१८॥ कठिन शब्दार्थ - डहरे - छोटे, वुड्डे - वृद्ध-बड़े, आत्तओ - आत्मा के समान, उव्वेहइ - समझता है, अपमत्तेसु - अप्रमत्त पुरुषों (साधुओं) के पास, परिव्वएज्जा - संयम धारण करें । ... भावार्थ - इस जगत् में छोटे शरीर वाले भी प्राणी हैं और बड़े शरीर वाले भी प्राणी हैं इन प्राणियों को अपने समान समझ कर तत्त्वदर्शी पुरुष संयम पालने वाले साधुओं के निकट जाकर दीक्षा ग्रहण करे । विवेचन - यह संसार सूक्ष्म-बादर अर्थात् छोटे व बड़े प्राणियों से भरा हुआ है सबको सुख प्रिय हैं. दुःख कोई भी नहीं चाहता। सभी प्राणियों के स्थान अनित्य हैं तथा दुःख भरे इस संसार में सुख का लेश भी नहीं है। ऐसा मानकर वे शुद्ध संयम का पालन करते हैं। एवं ऐसे शुद्ध संयमी साधुओं के • पास दीक्षा अंगीकार करते हैं। वे अपनी आत्मा का कल्याण साध लेते हैं। अतः ऐसे शुद्ध संयमी साधुओं के पास ही दीक्षा अंगीकार करनी चाहिए। जे आयओ परओ वा विणच्चा, अलमप्पणो होइ अलं परेसिं।... तं जोइभूतं च सयावसेज्जा, जे पाउकुज्जा अणुवीइ धम्मं ॥१९॥ कठिन शब्दार्थ - आयओ - स्वतः (स्वयं), परओ - परतः (दूसरे से), अलं- समर्थ, जोइभूतं - ज्योर्तिभूत, सया - सदा, वसेजा - निवास करे, पाउकुज्जा - प्रकट करे, अणुवीइ - सोच विचार कर । भावार्थ - जो स्वयं या दूसरे के द्वारा धर्म को जानकर उसका उपदेश देता है वह अपनी तथा For Personal & Private Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ दूसरे की रक्षा करने में समर्थ हैं । जो सोच विचार कर धर्म को प्रकट करता है उस ज्योतिःस्वरूप मुनि के निकट सदा निवास करना चाहिये ।। विवेचन - तीनों काल और तीनों लोकों को जानने वाले तीर्थंकर भगवान् अपनी और दूसरों की रक्षा करने में समर्थ होते हैं। वे पदार्थों के प्रकाशक होने के कारण चन्द्रमा और सूर्य के समान हैं। अपनी आत्मा का कल्याण चाहने वाले पुरुष को उनकी सेवा में रहना चाहिए । जैसा कि कहा है - "णाणस्स होइ भागी थिरयरओ दंसणे चरित्ते य । धण्णा आवकहाए गुरुकुलवासं ण मुंचंति ॥" अर्थात् - गुरु के पास निवास करने से जीव ज्ञान का भागी होता है और दर्शन तथा चारित्र में दृढ़ बनता है। इसलिए पुण्यात्मा पुरुष जीवन भर गुरुकुल वास को नहीं छोड़ते हैं। अतः शिष्य का कर्तव्य है कि वह सदा अपने गुरु की सेवा में रहे ।। १९ ॥ अत्ताण जो जाणइ जो य लोगं, गइंच जो जाणइ.णागइंच। जो सासयं जाण असासयंच, जाइंच मरणं च जणोववायं ॥२०॥ कठिन शब्दार्थ - अत्ताण - आत्मा को, णागई - अनागति (मोक्ष) को, सासयं - शाश्वत, असासयं - अशाश्वत को, जाई - जन्म, मरणं - मृत्यु को, जणोववायं - प्राणियों के च्यवन व उपपात को । भावार्थ - जो अपने आत्मा को जानता है तथा लोक के स्वरूप को जानता है एवं जो शाश्वत यानी मोक्ष और अशाश्वत यानी संसार को जानता है तथा जो जन्म मरण और प्राणियों के नानांगतियों में जाना जानता है। विवेचन - जो जीव-अजीव, लोक-अलोक, गति-आगति शाश्वत-अशाश्वत, जन्म-मरण आदि को जानता है वह परुष अनागति (जहाँ जाकर जीव वापिस लौटता नहीं उस अनागति अर्थात मोक्ष) को भी जानता है। अतः बुद्धिमान् पुरुष का कर्तव्य है कि वह अनागति (मोक्ष) के लिए पुरुषार्थ करें। अहो वि सत्ताण विउट्टणंच, जो आसवं जाणइ संवरं च । ...." दुक्खं च जो जाणइ णिज्जरं च, सो भासिउ-मरिहइ किरियवायं ॥२१॥ कठिन शब्दार्थ - अहो - अधोलोक, वि - अपि-भी विउट्टणं - विवर्तन (पीड़ा) को, दुक्खं - दुःख को, णिजरं - निर्जरा को, भासिउमरिहइ - प्रतिपादन कर सकता है, किरियवायं- क्रियावाद का। भावार्थ - नरकादि गतियों में जीवों की नाना प्रकार की पीडा को जो जानता है तथा जो आस्रव, | संवर, दुःख और निर्जरा को जानता है वही ठीक ठीक क्रियावाद को बता सकता है । For Personal & Private Use Only Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १२ २८३ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 विवेचन - जो जीवादि नव तत्त्वों को जानता हैं और वैसी ही प्ररूपणा करता है वह क्रियावादी है। यहाँ पर सम्यग्दृष्टि क्रियावादी का ग्रहण किया गया है। यह क्रियावादी भव्य और मोक्षगामी होता है।। २१ ॥ सद्देसुरूवेसुअसज्जमाणे, गंधेसु रसेसु अदुस्समाणे । णो जीवियं णो मरणाहिकंखी, आयाणगुत्ते वलया विमुक्के ॥त्ति बेमि॥२२॥ कठिन शब्दार्थ - असजमाणे - आसक्त न होता हुआ, अदुस्समाणे - द्वेष न करता हुआ, जीवियं - जीने की, मरणाहिकंखी - मृत्यु की इच्छा न करने वाला, आयाणगुत्ते - संयम से गुप्त, वलया - वलय (संसार) से, विमुक्के - विमुक्त हो जाता है । भावार्थ - साधु मनोज्ञ शब्द और रूप में आसक्त न हो, तथा अमनोज्ञ गन्ध और रस में द्वेष न करे एवं वह जीने या मरने की इच्छा न करे किन्तु संयम से युक्त तथा मायारहित होकर विचरे यह मैं कहता हूँ। विवेचन - पाँच इन्द्रियों के मनोज्ञ विषयों में राग न करे और अमनोज्ञ विषयों में द्वेष न करे। अर्थात् राग-द्वेष रहित होकर रहे, असंयम जीवन की इच्छा न करे तथा परीषह उपसर्गों से पीड़ित होकर मरण की इच्छा न करे। ऐसा आचरण करने वाला मुनि शीघ्र ही मुक्ति को प्राप्त कर लेता है । . - इति ब्रवीमि - . अर्थात् - श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि आयुष्मन् जम्बू ! जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखारविन्द से सुना है वेसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ। मैं अपनी मनीषिका (बुद्धि) से कुछ नहीं कहता हूँ। ॥समवसरण नामक बारहवां अध्ययन समाप्त॥ For Personal & Private Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याथातथ्य नामक तेरहवाँ अध्ययन आहत्तहियं तु पवेयइस्सं, णाणप्पकारं पुरिसस्स जातं । सओ य धम्मं असओ असीलं, संतिं असंतिं करिस्सामि पाउं ।।१॥ . कठिन शब्दार्थ - आहत्तहियं - याथातथ्य को, पवेयइस्सं- प्रकट करूँगा, णाणप्पकार - ज्ञान के प्रकार, पुरिसस्स - पुरुषों के, जातं - गुण को, सओ - साधुओ के, असओ - असाधुओं, असीलंकुशील (अधर्म) को, संति - शांति (मोक्ष) असंतिं- अशांति (संसार) को पाउं - प्रकट करने के लिए। भावार्थ - श्री सुधर्मास्वामी कहते हैं कि - मैं सच्चा तत्त्व, और ज्ञान दर्शन चारित्र एवं जीवों के भले और बुरे गुण तथा साधुओं के शील और असाधुओं के कुशील और मोक्ष तथा बन्ध के रहस्य को प्रकट करूंगा। विवेचन - बारहवें अध्ययन में अन्य मतावलम्बियों के मत का कथन कर उसका खण्डन किया गया है। वह खण्डन तत्त्व का यथार्थ कथन करने से होता है, इसलिए इस अध्ययन में याथातथ्य (सत्य) वचन का कथन किया जाता है। जिस व्यक्ति में जैसा गुण होता है उस गुण को सज्जन पुरुषों के गुण, सच्चचारित्र और इससे विपरीत कुशील पुरुषों के दुर्गुण और इनके द्वारा होने वाले बन्ध और मोक्ष आदि तत्त्वों को यहाँ प्रकट किया जाएगा। अहो य राओ य समुट्ठिएहि, तहागएहिं पडिलब्भ धम्मं । समाहि-माघात-मजोसयंता, सत्थारमेवं फरुसं वयंति ॥२॥ कठिन शब्दार्थ - समुट्ठिएहिं - अनुष्ठान में प्रवृत्त, तहागएहिं - तथागतों (तीर्थङ्करों) से, पडिलब्भ - प्राप्त कर, समाहिं - समाधि का, आघातं - आख्यात, अजोसयंता - सेवन नहीं करते हुए, सत्थारं - शास्ता (तीर्थङ्करों) को, एवं . ही, फरुसं - कठोर शब्दों को, वयंति - कहते हैं । भावार्थ - रात दिन अनुष्ठान करने में प्रवृत्त रहने वाले तीर्थंकरों से धर्म को पाकर भी तीर्थंकरोक्त समाधिमार्ग का सेवन न करते हुए जमालि आदि निह्नव तीर्थंकर की ही निन्दा करते हैं। विवेचन - सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकर भगवान् संसार समुद्र को पार करने के उपाय रूप श्रुत और चारित्र रूप धर्म का कथन करते हैं उस धर्म को प्राप्त करके भी अशुभ कर्म के उदय से एवं मंद भाग्यता के कारण कितनेक पुरुष उस मोक्ष मार्ग का सेवन नहीं करते हैं। अपितु उससे विपरीत मार्ग की प्ररूपणा करते हैं। वे निह्नव कहलाते हैं। वे तीर्थंकर भगवान् के मार्ग को असत्य बताकर निंदा भी करते For Personal & Private Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000000000000...... हैं। कुछ कायर पुरुष उठाए हुए संयम भार में शिथिल हो जाते हैं यदि गुरु महाराज उन्हें प्रेरणा करे तो वे उन शिक्षा देने वाले को ही कठोर वचन कहने लगते हैं। ऐसे निह्नवों और अविनीतों को मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती हैं । विसोहियं ते अणुकाहयंते, जे आत्त भावेण वियागरेज्जा । अट्ठाणिए होइ बहुगुणाणं, जे णाणसंकाइ मुसं वदेज्जा ॥ ३ ॥ कठिन शब्दार्थ - विसोहियं - अच्छी तरह से शोधित, अणुकाहयंते विपरीत प्ररूपणा करते हैं, आत्तभावेण - अपनी रुचि के अनुसार, वियागरेज्जा - विरुद्ध अर्थ करते हैं, बहुगुणाणं- बहुत गुणों का, अट्ठाणिए - अस्थान, णाणसंकाइ - ज्ञान में शंका करके, मुसं - मृषा । भावार्थ वीतराग मार्ग सब दोषों से रहित है तथापि अहंकार के कारण निह्नव आदि उसमें दोषारोपण करते हैं । जो पुरुष अपनी रुचि के अनुसार परम्परागत व्याख्यान से भिन्न व्याख्यान करता है तथा वीतराग के ज्ञान में शंका करके मिथ्या भाषण करता है वह उत्तम गुणों का भाजन नहीं होता है । जो थोड़ी-सी विद्या पढ़कर अपने आप को पंडित मानने लगता हैं और ज्ञान का . विवेचन घमण्ड करके केवली के कथित वचनों में शंका करते हुए मिथ्या भाषण करता है और कहता है कि 44 'यह आगम सर्वज्ञ का कहा हुआ हो ही नहीं सकता है अथवा इसका अर्थ दूसरा हैं मैं जैसा कहता हूँ उसी तरह अर्थ ठीक है । दूसरी तरह से नहीं ।" ऐसा कहने वाला मिथ्याप्रलापी है, वह निह्नव कहलाता । उसे मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती । जे या वि पुट्ठा पलिउंचयंति, आयाण-मठ्ठे खलु वंचयंति । असाहुणी ते इह साहुमाणी, मायण्णि एसंति अणंत- घातं ।। ४ ।। कठिन शब्दार्थ पलिउंचयंति कपट करते हैं, आयाणमट्ठ आदान अर्थ (मोक्ष) से, वंचयंति - वंचित हो जाते हैं, साहुमाणी - साधु मानते हैं, मायण्णि मायावी, अणंतघातं- अणंत बार घात (जन्म मरण) को, एसंति प्राप्त करते हैं । भावार्थ - जो पुरुष पूछने पर अपने गुरु का नाम छिपाते हैं और दूसरे किसी बड़े आचार्य्य आदि का नाम बताते हैं वे मोक्ष से अपने को वञ्चित करते हैं । वे वस्तुतः साधु नहीं हैं तथापि अपने को साधु मानते हैं । वे मायावी जीव अनन्तबार संसार के दुःखों के पात्र होते हैं । विवेचन - जो जीव सत्य तत्त्व को नहीं जानते हैं और थोड़ासा ज्ञान प्राप्त कर बहुत अभिमान करते हैं तथा कोई यह पूछे कि आपने किसके पास पढ़ा है तो "ज्ञान के गर्व से अपने सच्चे गुरु का नाम छिपाकर दूसरे किसी प्रसिद्ध आचार्य का नाम लेते हैं अथवा "मैंने स्वयं इन शास्त्रों का अध्ययन - अध्ययन १३ - - For Personal & Private Use Only - २८५. - - Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000 किया है" यह कहकर ज्ञान के गर्व से गुरु का नाम छिपाते हैं। वे मिथ्याभाषणं करते हैं । वे साधु नहीं हैं, माया कपट करने वाले हैं। वे दो दोषों से दूषित होते हैं। जैसा कि कहा है - “पावं काऊण सयं अप्पाणं सुद्धमेव वाहरइ । २८६ 00000000 दुगु करेइ पावं बीयं बालस्स मंदत्तं ॥" अर्थात् - जो स्वयं पाप करके भी अपने को शुद्ध बतलाता है वह दुगुना पाप करता है। प्रथम यह है कि वह स्वयं असाधु है और दूसरा यह है कि वह अपने को साधु मानता है । इस प्रकार निह्नव पुरुष अपने गर्व के कारण सम्यक्त्व का भी नाश करते हैं और अनन्तकाल तक संसार में परिभ्रमण भी करते रहेंगे। कोह होइ जयदृभासी, विसोहियं जे उ उदीरएज्जा । अंधे व से दंडपहं गहाय, अविओसिए धासइ पावकम्मी ॥ ५ ॥ कठिन शब्दार्थ - जगदृभासी दूसरों के दोषों को कहने वाला, विसोहियं को, उदीरएज्जा - उदीरणा (प्रदीप्त) करने वाला, दण्डपहं- राजपथ पर, धासइ पावकम्मी- पाप कर्म करने वाला । - भावार्थ - जो पुरुष सदा क्रोध करता है और दूसरे के दोषों को कहता है एवं शान्त हुए कलह : को जो फिर प्रदीप्त करता है वह पुरुष पापकर्म करनेवाला है तथा वह बराबर झगड़े में पड़ा रहता है । वह छोटे मार्ग से जाते हुए अन्धे की तरह अनन्त दुःखों का भाजन होता है । विवेचन - क्रोध करने वाला तथा जो एक वक्त शान्त हुए कषाय की फिर उदीरणा करता है। तथा कठोर वचन बोलता है वह साधु के वेश को धारण करने वाला कटुभाषी पापी पुरुष चार गति वाले इस संसार में कष्टकारी स्थानों को प्राप्त होकर बारंबार संसार में परिभ्रमण करता रहता है। जे विग्गही अण्णाभासी, ण से समे होई अझंझ-पत्ते । वायकारी य हीरीमणे य, एगंत-दिट्ठी य अमाइ-रूवे ॥ ६ ॥ कठिन शब्दार्थ - विग्गहीए - विग्रह करने वाला झगडालू, अण्णायभासी न्याय को छोड़ कर भाषण करने वाला, अझंझपत्ते कलह रहित, उवायकारी आज्ञा पालन करने वाला, हीरीमणे - लज्जालु, एगंतदिट्ठी - एकांत दृष्टि वाला । भावार्थ - जो कलह करता है तथा अन्याय बोलता है वह समता को प्राप्त नहीं होता है अतः साधु, गुरु की आज्ञा का पालन करने वाला, पापकर्म करने में गुरु आदि से लज्जित होने वाला और जीवादि तत्त्वों में पूरी श्रद्धा रखने वाला बने, जो पुरुष ऐसा है वही अमायी है । For Personal & Private Use Only शांत हुए कलह कंष्ट पाता है, - - Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १३ २८७ विवेचन - ऊपर की गाथा में कहे हुए दोषों से रहित जो साधु है वह सच्चा साधु है अर्थात् क्रोध न करने वाला गुरु का नाम न छिपाने वाला, शांत, कषाय की उदीरणा न करने वाला, माया, कपट से रहित, अनाचार सेवन से लज्जित होने वाला और गुरु की सेवा करने वाला वह सच्चा साधु है। से पेसले सुहुमे पुरिसजाए, जच्चण्णिए चेव सुउज्जुयारे । बहुं पि अणुसासिए जे तहच्चा, समे हु से होइ अझंझ पत्ते ॥७॥ कठिन शब्दार्थ - पेसले - पेशल-प्रिय, जच्चण्णिए - उत्तम जाति वाला, सुरज्जुपारे - संयम पालन करने वाला, अणुसासिए - अनुशासित होने पर, तहच्चा - शांत चित्त वाला। . भावार्थ - किसी विषय में प्रमादवश भूल हो जाने के कारण जो गुरु आदि के द्वारा शिक्षा दिया हुआ चित्तवृत्ति को पवित्र रखता है अर्थात् क्रोध न करता हुआ फिर शुद्ध संयम पालन में प्रवृत्त हो जाता है वही विनयादि गुणों से युक्त है तथा वही सूक्ष्म अर्थ को देखने वाला और पुरुषार्थ करने वाला है एवं वही जातिसम्पन्न और संयम को पालने वाला है । वह पुरुष वीतराग पुरुषों के समान मानने योग्य है । जे यावि अप्पं वसुमंति मत्ता, संखाय-वायं अपरिक्ख कुज्जा। तवेण वाहं सहिउत्ति मत्ता, अण्णं जणं पस्सइ बिंब भूयं ।।८ ॥ .. कठिन शब्दार्थ - वसुमंति - वसुमान्-संयम रूपी धन से युक्त-संयमी, संखायवायं - संख्यावान्-ज्ञानी, मत्ता - मान कर, अपरिक्ख - बिना परीक्षा किये, तवेण - तपस्या से, अण्णं - . दूसरे को, पस्सइ - देखता है, बिंबभूयं - प्रतिबिम्ब भूत ।। भावार्थ:- जो अपने को संयमी, ज्ञानवान् और तपस्वी मानता हुआ अपनी बड़ाई करता है और दूसरे को जल में पड़े हुए चन्द्रबिम्ब के समान निरर्थक देखता है वह अभिमानी जीव अविवेकी है । - विवेचन - मुनि को किसी बात का अभिमान नहीं करना चाहिए किन्तु जो अपने आप को ज्ञानी, तपस्वी मानकर दूसरों को जल चन्द्र की तरह तथा नकली सिक्के की तरह निःसार मानता है वह अविवेकी है। ऐसे पुरुष को मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती है। एगंत-कूडेण उ से पलेइ, ण विजई मोण-पयंसि गोत्ते । जे माणणद्वेण विउकासेग्जा, वसुमण्णतरेण अबुज्झमाणे ॥९॥ कठिन शब्दार्थ - एगंतकूडेण - एकान्त रूप से मोह में फंस कर, पलेइ - भ्रमण करता है, मोणपयंसि - मुनि पद में-सर्वज्ञ के मत में, गोत्ते - गोत्र, माणणद्वेण - मान-पूजा के लिये, विठक्कसेजा - मद करने वाला, वसुमण्णतरेण - संयम पालन करते हुए, अबुझमाणे - परमार्थ को नहीं जानने वाला-अज्ञानी। For Personal & Private Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ . श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ - अहंकारी पुरुष एकान्त मोह में पड़कर संसार में भ्रमण करता है तथा वह सर्वज्ञ प्रणीत , मार्ग का अनुगामी भी नहीं है एवं जो मानपूजा की प्राप्ति से अभिमान करता है तथा संयम लेकर भी ज्ञान आदि का मद करता है वह वस्तुतः मूर्ख है पण्डित नहीं हैं। विवेचन - मद आठ प्रकार के कहे गए हैं यथा - जाति मद, कुल मद, रूप मद, बल मद, .. श्रुत मद, ऐश्वर्य मद, तप मद, लाभ मद। मुनि को इन आठ मदों में से किसी प्रकार का मद नहीं. करना चाहिए। जे माहणे खत्तिय-जायए वा, तहुग्ग-पुत्ते तह लेच्छई वा । जे पव्वइए परदत्तभोई, गोत्ते ण जे थब्भइ माण-बद्धे ।।१० ॥ कठिन शब्दार्थ - माहणे - ब्राह्मण, खत्तियजायए - क्षत्रिय जाति वाला, उग्गपुत्ते - उग्रपुत्र, लेच्छई - लिच्छवी, परदत्तभोई - परदत्तभोजी-दूसरे का दिया हुआ आहार खाने वाला, गोत्ते - गोत्र का, थब्भइ - मद करता है, माणबद्धे- अभिमान युक्त हो कर । भावार्थ - ब्राह्मण, क्षत्रिय, उग्रपुत्र अथवा लिच्छवी वंश का क्षत्रिय जाति वाला जो पुरुष दीक्षा लेकर दूसरे का दिया हुआ आहार खाता है और अपने उच्च गोत्र का अभिमान नहीं करता है वही पुरुष सर्वज्ञ के मार्ग का अनुगामी है । - विवेचन - जो पुरुष विशिष्ट कुल में उत्पन्न होने के कारण सब लोगों का माननीय होता है। उसे : दीक्षा लेकर कदापि गर्व नहीं करना चाहिए। ण तस्स जाई व कुलं व ताणं, णण्णत्थ विज्जाचरणं सच्चिणं । । णिक्खम्म से सेवइग्गारिकम्मं, ण से पारए होइ पिमोयणाए ॥११ ॥ कठिन शब्दार्थ - ताणं - त्राण रूप, विजाचरणं - ज्ञान और चारित्र, सुच्चिण्णं - सुआचरित, णिक्खम्म - निष्क्रमण कर, अगारिक्रम्मं - गृहस्थ कर्म का, पारए - पार जाने में समर्थ, विमोयणाए - विमुक्ति-कर्मों के क्षय के लिये । ___ भावार्थ - जाति और कुल मनुष्य को दुर्गति से नहीं बचा सकते । वस्तुतः अच्छी तरह सेवन किये हुए ज्ञान और चारित्र के सिवाय दूसरी कोई वस्तु भी मनुष्य को दुःख से नहीं बचा सकती है । जो मनुष्य प्रव्रज्या लेकर भी फिर गृहस्थ के कर्मों का सेवन करता है वह अपने कर्मों को क्षय करने में समर्थ नहीं होता है । विवेचन - सम्यग्-ज्ञान, दर्शन, चारित्र ये मोक्ष के. मार्ग हैं यही त्राण और शरण रूप है एवं आत्मा का कल्याण करने वाला है। जाति मद आदि मद तो आत्मा का पतन करने वाले हैं। इसलिए मुनि को इनका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। For Personal & Private Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १३ २८९ ०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० णिकिंचणे भिक्खु सुलूह-जीवी, जे गारवं होइ सिलोग-गामी । आजीव-मेयं तु अबुझमाणो, पुणो पुणो विप्परियासुर्वेति ।। १२ ॥ कठिन शब्दार्थ - णिक्किंचणे - निष्किंचन, सुलूहजीवी - रूक्ष जीवी, सिलोगकामी - प्रशंसा चाहने वाला, आजीवं - आजीविका, अबुझमाणो. - नहीं जानता हुआ, विप्परियासुर्वेति - विपर्यास (जन्म मरण) को प्राप्त करता है । भावार्थ - जो पुरुष द्रव्य आदि न रखता हुआ भिक्षा से पेट भरता है और रूखा सूखा आहार खाकर जीता है परन्तु वह यदि अभिमान करता है और अपनी स्तुति की इच्छा करता है तो उसके ये पूर्वोक्त गुण उसकी जीविका के साधन हैं और वह अज्ञानी बार बार जन्म जरा और मरण आदि दुःखों को भोगता है । जे भासवं भिक्खु सुसाहुवादी, पडिहाणवं होइ विसारए वा । आगाढ-पण्णे सुविभावियप्पा, अण्णं जणं पण्णया परिहवेज्जा ।। १३ ॥ कठिन शब्दार्थ - भासवं - भाषा के गुण दोष को जानने वाला, सुसाहुवादी - सुसंस्कृत भाषीमधुर भाषी, पडिहाणवं - प्रतिभा संपन्न, विसारए - विशारद, आगाटपप्णे - आगाढप्रज्ञ - प्रखर प्रज्ञावान्, सुभावियप्पा - श्रुत धर्म से भावित आत्मा, परिहवेजा - तिरस्कार करे । भावार्थ - जो साधु अच्छी तरह भाषा के गुण और दोषों को जानता है तथा मधुरभाषी बुद्धिमान् और शास्त्र के अर्थ करने में तथा श्रोता के अभिप्राय जानने में निपुण है एवं सत्य तत्व में जिसकी बुद्धि प्रवेश की हुई है और हृदय धर्म की वासना से वासित है वही सच्चा साधु है । परन्तु इतने गुणों से युक्त होकर भी जो इन गुणों के मेद से दूसरे पुरुष का तिरस्कार करता है वह विवेकी नहीं हैं । विवेचन - भाषा के गुण और दोषों को जानने वाला, मधुरभाषी, निपुण, बुद्धिमान् इत्यादि गुणों से युक्त भी साधु यदि अभिमान करता है, तो उसका साधुपना नि:सार हो जाता है। एवं ण से होइ समाहि-पत्ते, जे पण्णवं भिक्खु विउक्कसेज्जा । अहवाविजे लाभमयावलित्ते, अण्णं जणं खिंसइ बालपण्णे ।।१४ ॥ कठिन शब्दार्थ -समाहिपत्ते - समाधिप्राप्त, विउक्क-सेजा- गर्व करता है, लाभमयावलित्ते- . लाभ के मद से मत्त हो कर, खिंसइ - निन्दा करता है, बालपण्णे - बालप्रज्ञ-बचकानी बुद्धि वाला । .. भावार्थ - जो साधु बुद्धिमान् होकर भी अपनी बुद्धि का गर्व करता है अथवा जो लाभ के मद से मत्त होकर दूसरे की निन्दा करता है वह मूर्ख समाधि को प्राप्त नहीं करता है। - विवेचन - ज्ञान कषाय को नष्ट करने वाला होता है। किन्तु किन्हीं-किन्हीं की शान कषाय की For Personal & Private Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 बढोत्तरी करने वाला हो जाता है उसमें भी विशेषकर मान कषाय को बढ़ाने वाला हो जाता है। मान कषाय साधुपने को निःसार कर देता है। यह श्रुत मद का कथन है। पण्णामयं चेव तवोमयं च, णिण्णामए गोयमयं च भिक्ख। आजीवगं चेव चउत्थमाहु, से पंडिए उत्तमपोग्गले से ।।१५ ॥ कठिन शब्दार्थ - पण्णामयं - प्रज्ञा मद को, तवोमयं - तप मद को, णिण्णामए - त्याग देता है, गोयमयं - गोत्र मद को, आजीवगं - आजीविका मद को, उत्तमपोग्गले - उत्तम आत्मा । भावार्थ - साधु, बुद्धिमद, तपोमद, गोत्रमद और आजीविका का मद न करे । जो ऐसा करता है वही पण्डित है तथा वही सबसे श्रेष्ठ है । विवेचन - गाथा में 'पोग्गले' शब्द दिया है जिसका यहाँ पर 'प्रधान' अर्थ किया गया है इसलिए इसका अर्थ यह हुआ कि वही पुरुष उत्तम से भी उत्तम और बड़े से भी बड़ा होता है, जो आठों मदों का त्याग कर देता है । मान विनय गुण को नष्ट करने वाला होता है। माणो विणय णासणो' अतः मान का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। एयाइं मयाइं विगिंच धीरा, ण ताणि सेवंति सुधीर-धम्मा । ते सव्व-गोत्तावगया महेसी, उच्चं अगोतंच गई वयंति ।।१६ ॥ कठिन शब्दार्थ - विगिंच - त्याग कर, सुधीर धम्मा - श्रुत और चारित्र धर्म से युक्त, सव्व । गोत्तावगया - सभी गोत्रों से मुक्त, अगोत्तं - गोत्र रहित, वयंति - प्राप्त करते हैं। भावार्थ - धीर पुरुष पूर्वोक्त मदस्थानों को अलग करे क्योंकि ज्ञान दर्शन और चारित्र सम्पन्न पुरुष गोत्रादि का मद नहीं करते हैं अतः वे सब प्रकार के गोत्रों से रहित महर्षि होकर सबसे उत्तम मोक्षगति को प्राप्त करते हैं। विवेचन - ऊपर यह बतलाया गया है कि मुनि आगे मद का त्याग कर देवे। गोत्र मद का त्याग करने से पुरुष अगोत्र बन जाता है अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। क्योंकि मोक्ष में किसी प्रकार का गोत्र नहीं होता है। भिक्खू मुयच्चे तह दिट्ठधम्मे, गामं च णगरं च अणुप्पविस्सा। से एसणं जाण-मणेसणं च, अण्णस्स पाणस्स अणाणुगिद्धे ॥१७॥ कठिन शब्दार्थ - मुयच्चे - शरीर संस्कार से रहित उत्तम लेश्या वाला, दिधम्मे - धर्म को देखा हुआ, अणुप्पविस्सा - प्रवेश करके, एसणं - एषणा को, अणाणुगिद्धे - अननुगृद्ध-गृद्धि रहित । भावार्थ - उत्तम लेश्या वाला तथा धर्म को देखता हुआ साधु भिक्षा के लिये ग्राम या नगर में प्रवेश करके एषणा और अनेषणा का विचार रख कर अन्न और पान में गृद्धि रहित होकर शुद्ध भिक्षा लेवे । For Personal & Private Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000000000000000 विवेचन - कल्पनीय और अकल्पनीय, एषणीय और अनेषणीय आदि बातों को जान कर आहारादि के लिए गया हुआ साधु आहारादि में मूर्च्छित न होकर शुद्ध भिक्षा ग्रहण करें । अरतिं रतिं च अभिभूय भिक्खू, बहुजणे वा तह एगचारी । एगंतमोणेण वियागरेज्जा, एगस्स जंतो गइरागइ य ॥ १८ ॥ कठिन शब्दार्थ - अभिभूय अभिभूत-तिरस्कृतत करके, बहुजणे - बहुत से लोगों के साथ, एगचारी - अकेला रहने वाला, एगंतमोणेण एकांत मौन ( संयम) के साथ, वियागरेज्जा - निरूपण करे, गइरागइ - गति आगति-जाता है और आता है । भावार्थ साधु असंयम में प्रेम और संयम में अप्रेम न करे वह गच्छ में रहने वाले बहुत साधुओं के साथ रहता हो अथवा अकेला रहता हो, जिससे संयम में बाधा न आवे ऐसा वाक्य बोले और यह ध्यान में रखे कि प्राणी अकेला ही परलोक में जाता है और अकेला ही आता है । अध्ययन १३ ************** - - विवेचन - अनादि काल के अभ्यास से यदि मुनि को असंयम में रति (प्रेम) उत्पन्न हो तथा संयम में अरति उत्पन्न हो तो उसे दूर करना चाहिए। जीव अकेला ही अपने शुभ अशुभ कर्म को लेकर परलोक में जाता है और वह उसी कर्म को लेकर दूसरे भव से आता भी है, जैसा कि कहा है - “एकः प्रकुरुते कर्म, भुनक्त्येकश्च तत्फलम्। जायते म्रियते चैक, एको याति भवान्तरम् ॥ अर्थात् प्राणी अकेला ही कर्म करता है और अकेला ही उसका फल भोगता है। वह अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही मरता है तथा दूसरे भव में भी वह अकेला ही जाता है। अत: इस संसार में धर्म के सिवाय कोई दूसरी वस्तु सहायक नहीं है। अतः साधु को संयम में रत रहना चाहिए । •सयं समेच्चा अदुवाऽवि सोच्चा, भासेज्ज धम्मं हिययं पयाणं जे गरहिया सणियाण-प्पओगा, ण ताणि सेवंति सुधीर धम्मा ।। १९ ॥ कठिन शब्दार्थ - समेच्या - जान कर, सोच्या सुन कर भासेज्ज भाषण करे, हिययं - हितकारी, पयाणं प्रजा के लिए, गरहिया गर्हित ( निंदित), सणियाणप्पओगा निदान प्रयोग सहित । भावार्थ - धर्म को अपने आप जानकर अथवा दूसरे से सुनकर प्रजा के हित के लिये उपदेश करे तथा जो कार्य्य निन्दित है और जो पूजा लाभ और सत्कार आदि के लिये किया जाता है उसे धीर पुरुष नहीं करते हैं । विवेचन - निन्दित और फल की इच्छा से युक्त प्रयोगों का आशय यह है- व्याख्यान को आजीविका का साधन बनाना, यश-आदि की कामना से व्याख्यान करना और निन्दित-प्रयोग अर्थात् २९१ For Personal & Private Use Only - Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ __ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और सावद्य-प्रवृत्ति का उपदेश नहीं करना चाहिए। मुनि को सदा हितकारी वचन बोलना चाहिए। केसिंचि तक्काइ अबुज्झ भावं, खुइंपिगच्छेज्ज असदहाणे। आउस्स कालाइयारं वधाए, लद्धाणुमाणे य परेसु अट्टे ॥२०॥. कठिन शब्दार्थ - तक्काइ - तर्क से, अबुझ - नहीं समझ कर, खुइं - क्षुद्र-क्रोध को, असदहाणे - श्रद्धा न करता हुआ, कालाइयारं - कालातिचार, वघाए - घटा सकता है, लद्धाणुमाणेअनुमान से जान कर। भावार्थ - अपनी बुद्धि से दूसरे का अभिप्राय न समझ कर धर्म का उपदेश करने से दूसरा पुरुष श्रद्धा न करता हुआ क्रोधित हो सकता है और क्रोध करके वह साधु का वध भी कर सकता है इसलिये साधु अनुमान से दूसरे का अभिप्राय समझ कर पीछे धर्म का उपदेश करे । विवेचन - परिषद् को देखकर मुनि को धर्मोपदेश करना चाहिए। जैसे कि परिषद् में बैठे हुए . राजा आदि पुरुष किस देवता को नमस्कार करने वाला और किस दर्शन को मानने वाला है तथा इसको किसी मत का आग्रह है या नहीं। यह अच्छी तरह जानकर ही धर्म का उपदेश करना चाहिए। जो मुनि इन बातों को जाने बिना, धर्मोपदेश के द्वारा दूसरों के विरोधी वचन बोलता है, वह तिरस्कार को प्राप्त होता है और यहाँ तक कि मरणान्त कष्ट को भी प्राप्त हो जाता है। अत: परिषद् को देखकर यथा अवसर धर्म का उपदेश करना चाहिए। यही स्वपर कल्याण का कारण होता है। कम्मं च छंदं च विगिंच धीरे, विणइच्छ उ सव्वओ आयभावं। रूवेहिं लुप्पंति भयावहेहि, विजं गहाया तस-थावरेहिं ॥ २१ ॥ कठिन शब्दार्थ - छंद - रुचि, अभिप्राय को, विगिंच - जान कर, आयभावं - आत्म भाव को, लुप्पंति - नाश को प्राप्त होते हैं, भयावहेहिं - भय उत्पन्न करने वाले, तस थावरेहिं - त्रस और स्थावरों की। भावार्थ - धीर पुरुष सुनने वाले लोगों के कर्म और अभिप्राय को जानकर धर्म का उपदेश करे और उपदेश के द्वारा उनके मिथ्यात्व को दूर करे । उन्हें समझावे कि - हे बान्धवो ! तुम स्त्री के रूप में मोहित होते हो परन्तु स्त्री का रूप भय देने वाला है, उसमें लुब्ध मनुष्य नाश को प्राप्त होता है । इस प्रकार विद्वान् पुरुष सभा के अभिप्राय को जानकर त्रस और स्थावरों की जिससे भलाई हो ऐसे धर्म का उपदेश करे । विवेचन - उपरोक्त गाथा में बताया गया है कि परिषद् को देखकर मुनि को धर्मोपदेश करना चाहिए। अर्थात् उपदेश देने में निपुण पुरुष दूसरे के अभिप्राय को जानकर विषय वासना को निवारण करने वाला त्रस और स्थावर सभी जीवों के लिए हितकारक धर्म का उपदेश करे। For Personal & Private Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १३ २९३ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 ण पूयणं चेव सिलोय-कामी, पिय-मप्पियं कस्सइ णो करेज्जा। सव्वे अणटे परिवज्जयंते, अणाउले या अकसाई भिक्खू ॥२२॥ . कठिन शब्दार्थ - पूयणं - पूजा का, सिलोयकामी - आत्म श्लाघा का अभिलाषी, पियमप्पियं - प्रिय अप्रिय, अणटे - अनर्थ का, परिवजयंते - परिवर्जन करता हुआ, अणाउले - आकुलता रहित, अकसाई - कषाय रहित । भावार्थ - साधु धर्मोपदेश के द्वारा अपनी पूजा और स्तुति की कामना न करे तथा किसी का प्रिय और किसी का अप्रिय न करे एवं वह सब अनर्थों को वर्जित करता हुआ आकुलता रहित और कषायरहित होकर धर्मोपदेश करे । विवेचन - साधु पूजा (वस्त्र, पात्र आदि के लाभ रूप) की इच्छा न करें तथा अपनी प्रशंसा की कामना भी ना करें। परिषद् को जानकर एवं श्रोता के अभिप्राय को समझकर धर्मोपदेश करे एवं दृढ़ता के साथ अपने संयम का पालन करे। आहत्तहियं समुपेहमाणे, सव्वेहिं पाणेहिं णिहाय दंडं। ' णों जीवियं णो मरणाभिकंखी, परिवएज्जा वलया-विमुक्कं ।।त्तिबेमि॥ - कठिन शब्दार्थ - आहत्तहियं - याथातत्थ्य-सत्य भाव को, समुपेहमाणे - देखता हुआ, णिहाय - छोड कर, मरणाभिकंखी - मरण की इच्छा से रहित, परिवएज्जा - विचरे, वलया - वलय से, माया से, विमुक्कं - विमुक्त होकर ।। .. भावार्थ - साधु सच्चे धर्म को देखता हुआ सब प्राणियों को दण्ड देना छोड़कर, अपने जीवन और मरण की इच्छा से रहित होकर माया को त्याग कर विचरे । विवेचन - मुनि सूत्र के अनुसार सम्यक्त्व और चारित्र का विचार कर छह काय जीवों की रक्षा करता हुआ संयम का पालन करे। संयम में आने वाले परीषह उपसर्गों से घबराकर बाल मरण की इच्छा न करें। धीर-वीर पुरुष परीषह उपसर्गों को जीतकर शुद्ध संयम का पालन करता हुआ मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। ___- इति ब्रवीमिअर्थात् - श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन् जम्बू ! जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखारविन्द से सुना है वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ। मैं अपनी मनीषिका (बुद्धि) से कुछ नहीं कहता हूँ। ॥याथातथ्य नामक तेरहवां अध्ययन समाप्त। For Personal & Private Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ नामक चौदहवाँ अध्ययन जड़ के प्रति आकर्षण, उसके अनुसार उन वस्तुओं का संग्रह और संग्रह में साधक-बाधक साधनों के प्रति राग-द्वेष का नाम हैं 'ग्रन्थ' अर्थात् आवेग और आवेगों के साधक पदार्थ ही ग्रन्थ है। जिसकी शास्त्रीय संज्ञा आभ्यन्तर ग्रन्थि और बाह्य ग्रन्थि है । आभ्यन्तर ग्रन्थि जब शिथिल होती ह्य-ग्रन्थि का त्याग सम्भव हो सकता है और बाह्य ग्रंथि त्यागने पर, आभ्यन्तर ग्रन्थि को समूल नष्ट करने की सुदृढ़ भूमिका-स्थिति प्राप्त होती है । ग्रन्थि का मूल अविचार-अज्ञान में हैं और ग्रन्थि-नाश का मूल विचार-ज्ञान में हैं । ग्रन्थि-नाश के लिये सच्चा विश्वास, ज्ञान और तदनुसार आचरण-अभ्यास की आवश्यकता है अर्थात् ज्ञानी बाह्य उपाधियाँ स्थूल ग्रन्थि का त्याग करके सूक्ष्म-सूक्ष्मतम ग्रन्थियों के विनाश की ओर मुड़ता है । कभी कभी साधक के पूर्व जन्म के अभ्यास के कारण उल्टा क्रम भी हो जाता है । पर इसमें साधक के पहले का अभ्यास ही मुख्य कारण होता है । इसलिये इस अध्ययन में बाह्य (स्थूल) ग्रन्थ के त्याग के बाद आभ्यन्तर (आन्तर) ग्रन्थ के त्याग और निर्ग्रन्थता की स्थिरता के लिये ज्ञान प्राप्ति के साधनों का वर्णन किया है और . अभ्यास पर जोर दिया है। इस अध्ययन का नाम यद्यपि 'ग्रन्थ' है, पर इसमें ग्रन्थ के स्वरूपों का स्पष्टता से कथन नहीं हैग्रन्थ के त्याग और ज्ञान अभ्यास का वर्णन है । इसलिये यह मानना उचित है कि इस अध्ययन का नामकरण पहली गाथा के आदिम शब्द पर से हुआ है। जैसे कि मानतुंग आचार्य के विरचित 'आदिनाथ स्तोत्र' का नाम, श्लोक के प्रथम पाद पर से 'भक्तामर स्तोत्र' और 'पार्श्वनाथ स्तोत्र' का नाम 'कल्याण मन्दिर' प्रचलित है। ____ इसके पहले तेरहवें अध्ययन की पहली गाथा में 'आहत्तहियं' शब्द आया है इस पर से उस अध्ययन का नाम भी 'आहत्तहियं' (याथातथ्य) रखा गया है तथा उत्तराध्ययन सूत्र के दसवें अध्ययन की पहली गाथा में 'दुमपत्तए' शब्द आया है तो अंध्ययन का नाम भी 'दुमपत्तए' दिया गया है, इसी प्रकार तीसरे अध्ययन की पहली गाथा में 'चत्तारि' शब्द आया है, इस पर से अध्ययन का नाम 'चाउरंगिजं' एवं चौथे अध्ययन की पहली गाथा में 'असंखयं' शब्द आया है, इस पर से अध्ययन का नाम भी 'असंखयं दिया गया है। कहने का अभिप्राय यह है कि पहली गाथा में आए हुए प्रथम शब्द के अनुसार अध्ययन का नाम भी वही दे दिया जाता है। यह परिपाटी प्राचीन काल से चली आई है। तदनुसार इस चौदहवें अध्ययन की पहली गाथा में 'गंथं' शब्द आया है इसलिए इस अध्ययन का नाम भी 'गंथ' (ग्रन्थ) अध्ययन है। For Personal & Private Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १४ २९५ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000०००००००००० गंथं विहाय इह सिक्खमाणो, उट्ठाय सुबंभचेरं वसेज्जा । ओवायकारी विणयं सुसिक्खे, जे छेय से विप्पमायं न कुज्जा ॥१॥ कठिन शब्दार्थ - गंथं - ग्रंथ (परिग्रह) को, विहाय - छोड़ कर, सिक्खमाणो - शिक्षा पाता हुआ, उट्ठाय - प्रवजित हो कर, सुबंभचेरं - ब्रह्मचर्य का अच्छी तरह से, वसेज्जा - पालन करे, ओवायकारी - आज्ञा का पालन करता हुआ, सुसिक्खे - सीखे, छेय - निपुण, विप्पमायं - विप्रमाद । भावार्थ - इस लोक में परिग्रह को छोड़कर शिक्षा पाता हुआ पुरुष दीक्षा लेकर अच्छी तरह ब्रह्मचर्य का पालन करे । तथा वह आचार्य की आज्ञा पालन करता हुआ विनय सीखे । एवं संयम पालन करने में निपुण पुरुष कभी भी प्रमाद न करे ।। . विवेचन- तेरहवें अध्ययन में शुद्ध चारित्र पालन का वर्णन किया गया है। परन्तु वह शुद्ध चारित्र का पालन बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थि को छोड़े बिना नहीं हो सकता है, इसलिए इस चौदहवें अध्ययन में उस ग्रन्थ का वर्णन किया जाता है। दीक्षा लेकर बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह का त्याग करके ग्रहण रूप और आसेवन रूप शिक्षा को एवं गुरु की आज्ञा का सदा पालन करता रहे, इसमें किसी प्रकार का प्रमाद न करें, जिस प्रकार रोगी पुरुष वैद्य के बताए हुए पथ्य का पालन करता हुआ, प्रशंसा का पात्रं होकर स्वस्थ बन जाता है, उसी प्रकार जो साधु सावद्य अनुष्ठानों का त्याग करके औषध रूप गुरु के उपदेश का पालन करता है, वह संसार में प्रशंसा का पात्र होता हुआ समस्त कर्मों का क्षय कर के मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। जहा दिया-पोत-मपत्त-जातं, सावासगा पविडं मण्णमाणं । तमनाइयं तरुण-मपत्त-जातं, ढंकाइ अव्वत्तगमं हरेज्जा ॥२॥ कठिन शब्दार्थ - दिया - द्विज-पक्षी, अपत्तजातं - पूरे पंख आये बिना, पोतं - पक्षी के बच्चे को, सावासगा - अपने घोंसले से, पवित्रं - उड़ने की, तं - उसको, अचाइयं - समर्थ नहीं होता, तरुणमपत्तजातं - पंख हीन बच्चे को, ढंकाइ - ढंक आदि पक्षी से, अव्वत्तगयं - उड़ने में असमर्थ, हरेजा - हर लिया जाता है । . भावार्थ - जिसको अभी पूरा पक्ष (पंख) नहीं आया है ऐसा पक्षी का बच्चा जैसे उड़ कर अपने ' घोसले से अलग जाना चाहता हुआ उड़ने में समर्थ नहीं होता है किन्तु झूठ ही फड़फड़ करता हुआ वह ढंक आदि मांसाहारी पक्षियों से मार दिया जाता है इसी तरह जो साधु आचार्य की आज्ञा बिना अकेला विचरता है वह नष्ट हो जाता है । एवं तु सेहपि अपुट्ठ-धम्मं, णिस्सारियं वुसिमं मण्णमाणा । दियस्स छायं व अपत्त-जायं, हरिसु णं पावधम्मा अणेगे ॥ ३ ॥ For Personal & Private Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कठिन शब्दार्थ - सेहंपि - शैक्ष भी, अपुटुधम्म - अपुष्ट धर्म वाला, णिस्सारियं - निस्सार गच्छ से निकले हुए को देख कर, दियस्स - पक्षी के, छायं - बच्चे को, अपत्तजायं - पंख हीन, हरिसु - हर लेते हैं, पावधम्मा - पाप धर्म वाले (पाखण्डी)। __ भावार्थ - जैसे पक्षरहित पक्षी के बच्चे को मांसाहारी पक्षी हर लेते हैं इसी तरह धर्म में अनिपुण शिष्य को गच्छ से निकल कर अकेला विचरते हुए देखकर बहुत से पाषण्डी बहका कर धर्मभ्रष्ट कर देते हैं। विवेचन - परमतावलम्बी अपने विचारों के प्रति मोह के कारण, सच्चे साधक की हंसी-मजाक करते हैं, उटपटांग प्रश्न करते हैं-प्रलोभन देते हैं और कष्ट भी देते हैं; ऐसी कच्ची शिक्षा वाले साधक का डिग जाना-पतित हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। क्योंकि उसके पास उन विरोधी विचारों के परिमार्जक विचारों का सञ्चय नहीं होता है। अतः ऐसे भिक्षु के अकेले विचरने में, परमतावलम्बियों द्वारा उसका मर्माहत हो जाना सरल है। ओसाण-मिच्छे मणुए समाहिं, अणोसिएशंतकरि ति णच्चा। ओभासमाणे दवियस्स वित्तं, ण णिकसे बहिया आसुपण्णो ॥ ४ ॥ कठिन शब्दार्थ - ओसाणं - गुरुकुल में निवास, समाहिं - समाधि को, अणोसिए - गुरुकुल वास नहीं करता है, अंतकरि - कर्मों का नाश कर सकता, ण- नहीं, ओभासमाणे - स्वीकार करता हुआ, दवियस्स - मुक्ति जाने योग्य पुरुष के, वित्तं - वृत्त-आचरण को, णिक्कसे - निकले । भावार्थ - जो मुनि गुरुकुल में निवास नहीं करता है वह अपने कर्मों का नाश नहीं कर सकता है यह जान कर मुनि सदा गुरुकुल में निवास करे और समाधि की इच्छा रखे । वह मुक्ति जाने योग्य पुरुष के आचरण को स्वीकार करे और गच्छ से बाहर न जाय । जे ठाणओ य सयणासणे य, परक्कमे यावि सुसाहु जुत्ते । समिइसु गुत्तिसु य आयपण्णे, वियागरिते य पुढो वएज्जा ॥ ५ ॥ कठिन शब्दार्थ - ठाणओ - स्थान से, सयणासणे - शयन और आसन पर, परक्कमे - पराक्रम में, सुसाहुजुत्ते - सुसाधु से युक्त, समिइसु - समितियों में, गुत्तिसु - गुप्तियों में, आयपण्णे - आत्म प्रज्ञ, वियागरिते - उपदेश करता है । भावार्थ - गुरुकुल में निवास करने वाला साधु स्थान शयन आसन और पराक्रम के विषय में उत्तम साधु के समान आचरण करता है तथा वह समिति गुप्ति के विषय में पूर्णरूप से प्रवीण हो जाता है और दूसरे को भी उसका उपदेश करता है। विवेचन - गुरु महाराज की सेवा में रहता हुआ मुनि अपने गुरुदेव के आचरपा.को तथा For Personal & Private Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १४ दूसरें मुनियों के आचरण को देखकर वह स्वयं समिति गुप्ति युक्त उत्तम आचरण वाला मुनि बन जाता है फिर वह दूसरे मुनियों के लिए अनुकरणीय बन जाता है एवं उसके उपदेश का भी दूसरों पर असर पड़ता है। सद्दाणि सोच्चा अदु भेरवाणि, अणासवे तेसु परिव्वज्जा । हिं च भिक्खू ण पमाय कुज्जा, कहं कहं वा वितिगिच्छ-तिण्णे ॥ ६ ॥ कठिन शब्दार्थ - सद्दाणि - शब्दों को, भेरवाणि भयंकर (कठोर) अणासवे- अनास्रव - राग द्वेष रहित होकर, परिव्वज्जा - विचरे, वितिगिच्छ - विचिकित्सा संशय को, तिण्णे तिर जाय । भावार्थ - ईर्य्यासमिति आदि से युक्त साधु मधुर या भयङ्कर शब्दों को सुनकर राग द्वेष न करे तथा वह निद्रारूप प्रमाद न करे और किसी विषय में भ्रम होने पर गुरु से पूछ कर उससे पार हो जाय । - विवेचन – मुनि को चाहिए कि अनुकूल या प्रतिकूल शब्द कान में पड़े तो उनमें राग द्वेष न करता हुआ मध्यस्थ वृत्ति धारण करके तथा निद्रा, विकथा आदि पांच प्रमादों का निवारण करके सावधानी पूर्वक संयम का पालन करे । : डहरेण वुड्डेणऽणुसासिए उ, राइणएणावि समव्वएणं । सम्मंतयं थिरओ णाभिगच्छे, णिज्जंतए वावि अपारए से ॥ ७ ॥ २९७ - कठिन शब्दार्थ - डहरेण - छोटे के द्वारा, वुड्डेण - वृद्ध के द्वारा, अणुसासिए - अनुशासित होने पर - शिक्षा दिया हुआ, राइणिएण - रत्नाधिकों के द्वारा, समव्वएणं समवयस्क - सहदीक्षित के द्वारा, णाभिगच्छे स्वीकार न करता हुआ, णिज्जंतए - संसार के पार ले जाया जाता हुआ, अपारए - पार नहीं पा सकता। भावार्थ - कभी प्रमादवश भूल होने पर अपने से बड़े छोटे अथवा प्रव्रज्या में बड़े या समान. अवस्था वाले साधु के द्वारा भूल सुधारने के लिये कहा हुआ जो साधु उसे स्वीकार न करके क्रोध करता है वह संसार के प्रवाह में बह जाता है वह संसार को पार करने में समर्थ नहीं होता है । विवेचन - जो अपनी गलती को स्वीकार करके, उसे सुधार लेता है, वही ऊंचा उठ सकता है। सरल मनुष्य ही अपने उत्थान के मार्ग को निष्कण्टक बना सकता है । जो मनुष्य सत्संगति करते हुए भी अपने दोषों को स्वीकार न करके छिपाता है, उसको सत्संगति का कुछ भी लाभ नहीं मिल सकता। वह तो छोटी-छोटीसी बातों में तनता रहकर अपने उत्थान का मार्ग अवरुद्ध बना लेता है । अतः वह आत्म-कल्याण नहीं कर सकता है एवं संसार समुद्र को पार नहीं कर सकता है। विट्ठणं समयासिट्ठे, डहरेण वुड्ढेण उ चोइए य । अच्चुट्टियाए घडदासिए वा, अगारिणं वा समयाणुसि ॥ ८ ॥ For Personal & Private Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ ... कठिन शब्दार्थ - विउद्विते - शास्त्र विरुद्ध कार्य करने वाले के द्वारा, समगाणुसिटे - समयानुशिष्ट-समय के अनुसार शिक्षा दिया हुआ, अच्चुट्टियाए - निन्दित, पतित, घडदासिए - घट दासी के द्वारा, अगारिणं - गृहस्थ के द्वारा । भावार्थ - शास्त्र विरुद्ध कार्य करने वाला गृहस्थ, परतीर्थी आदि तथा अवस्था में छोटे या बड़े एवं अत्यन्त निन्दित घटदासी यदि साधु को शुभ आचरण करने की शिक्षा दे तो साधु को क्रोध न करना चाहिये। ... विवेचन - साधुता के विरुद्ध आचरण करते हुए मुनि को यदि कोई सत् शिक्षा दे और यहाँ तक कि पानी भरने वाली दासी भी साधु को हित शिक्षा दे तो मुनि उस पर क्रोध न करे एवं मन में थोड़ा भी दुःख न माने किन्तु ऐसा समझे कि यह हित शिक्षा मेरे आत्म-कल्याण के लिए है।। ८ ॥ ण तेसु कुण्झे ण य पव्वहेज्जा, ण यावि किंचि फरुसं वयएंग्जा । तहा करिस्संति पडिस्सुणेज्जा, सेयं खु मेयं ण पमायं कुज्जा ॥ ९ ॥ कठिन शब्दार्थ - कुझे - क्रोध करे, पव्वहेज्जा - पीड़ित करे, फरुसं - कठोर, वयएज्जा - बोले, पडिस्सुणेजा - प्रतिज्ञा करता हुआ, सेयं - श्रेय-कल्याणकारी, पमायं - प्रमाद । भावार्थ - पूर्वोक्त प्रकार से शिक्षा दिया हुआ साधु शिक्षा देने वालों पर क्रोध न करे तथा उन्हें पीड़ित न करे एवं कटु वचन न कहे किन्तु "अब मैं ऐसा ही करूँगा" ऐसी प्रतिज्ञा करता हुआ साधु प्रमाद न करे । विवेचन - साधु से संयम पालन में भूल हो जाने पर अपने पक्ष वाले यदि उसकी भूल बतावें अथवा दुर्वचन कहें तो भी साधु क्रोध न करे किन्तु यह विचार करें - .. 'आक्रुष्टेन मतिमता तत्त्वार्थविचारणे मतिःकार्या। यदि सत्यं कः कोपः ? स्यादनृतं किं नु कोपेन ? ॥ अर्थात् - किसी के द्वारा आक्रोश वचन एवं निंदा को सुनकर बुद्धिमान् पुरुष सत्य बात के अन्वेषण में अपनी बुद्धि लगावे और यह विचार करे कि यदि यह निंदा सच्ची है तो फिर मुझे क्रोध क्यों करना चाहिए और यदि मिथ्या है तो भी क्रोध करने की क्या आवश्यकता है ? ऐसा विचार करके उसे कटु वचन न कहे और सन्तप्त भी न करे किन्तु पूर्व पुरुषों द्वारा आचरित शुद्ध संयम का पालन करे ॥९॥ वणंसि मूढस्स जहा अमूढा, मग्गाणुसासंति हियं पयाणं । तेणेव मण्झं इणमेव सेयं, जं मे बुद्धा समणुसासयंति ।।१०॥ For Personal & Private Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १४ २९९ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कठिन शब्दार्थ - वर्णसि - वन में, मूढस्स - दिग्मूढ व्यक्ति के, मग्गाणुसासंति - मार्ग की शिक्षा देते हैं, हियं - कल्याणकारी, पयाणं - प्रजा को, समणुसासयंति - सम्यक् शिक्षा देते हैं । - भावार्थ - जैसे जङ्गल में भूला हुआ पुरुष मार्ग जानने वाले के द्वारा मार्ग की शिक्षा पाकर प्रसन्न होता है और समझता है कि- उस उपदेश से मुझ को कल्याण की प्राप्ति होगी इसी तरह उत्तम मार्ग की शिक्षा देने वाले जीव के ऊपर साधु प्रसन्न रहे और यह समझे कि ये लोग जो उपदेश करते हैं इसमें मेरा ही कल्याण है। - विवेचन - जिस प्रकार जंगल में मार्ग भूले हुए व्यक्ति को कोई दयालु सज्जन उसे नगर का सही मार्ग बता दे तो वह उसका उपकार मानता है। इसी प्रकार असंयम मार्ग में प्रवृत्त साधु को यदि कोई सन्मार्ग की शिक्षा. दे तो उसे उस पर क्रोध नहीं करना चाहिए किन्तु उसका उपकार मानना चाहिए उसको यह समझना चाहिए कि जैसे माता-पिता अपने पुत्र को अच्छे मार्ग की शिक्षा देते हैं इसी तरह ये लोग भी मुझे सन्मार्ग पर चलने की शिक्षा देते हैं। अतः ये मेरे पर उपकार करते हैं इसमें मेरा ही कल्याण है ॥ १० ॥ : अह तेण मूढेण अमूढगस्स, कायव्वा पूया सविसेस-जुत्ता । एओवमं तत्थ उदाहु वीरे, अणुगम्म अत्थं उवणेइ सम्मं ॥ ११ ॥ कठिन शब्दार्थ - कायव्या - कर्त्तव्य करनी चाहिये, पूया - पूजा, सविसेसजुत्ता - विशेष रूप से, एओवमं - यही उपमा, अणुगम्म - समझ कर, उवणेइ - उपनय (स्थापित) करता है । भावार्थ - जैसे मार्गभ्रष्ट पुरुष मार्ग बताने वाले की विशेष रूप से पूजा करता है इसी तरह सन्मार्ग.का उपदेश देने वाले पुरुष का संयम पालन में भूल करने वाला साधु विशेष रूप से सत्कार करे और उसके उपदेशं को हृदय में स्थापित करके उसका उपकार माने यही उपदेश तीर्थंकर और गणधरों ने दिया है । विवेचन - जैसे जंगल में मार्ग भूले हुए व्यक्ति को सही मार्ग बताने वाला तथा अग्नि से जलते हुए मकान में सोये हुए पुरुष को जगाने वाला एवं विष से मिश्रित मधुर आहार को खाने के लिए तत्पर पुरुष को उस आहार को सदोष बताकर सोने से निवृत्त करने वाला पुरुष उसका परम उपकारी है इसी तरह संयम पालन में भूल करने वाले साधु को जो सन्मार्ग का उपदेश करता है वह उसका परम उपकारी है एवं परम बन्धु है । यही बात इन गाथाओं में कही गई हैं - यथा - गेहंमि अग्गिजालाउलंमि जह णाम डण्झमाणंमि। जो बोहेइ सुयंतं सो तस्स जणो परमबंधू ॥ For Personal & Private Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 जह वा विससंजुत्तं भत्तं निद्धमिह भोत्तुकामस्स। जोवि सदोसं साहइ सो तस्स जणो परम बंधू । ऐसे उपकारी का उपकार मानकर अपनी भूल सुधार लेनी चाहिए॥ ११ ॥ णेया जहा अंधकारंसि राओ, मग्गंण जाणाइ अपस्समाणे। से सूरिअस्स अब्भुग्गमेणं, मग्गं वियाणाइ पगासियंसि ।१२।। कठिन शब्दार्थ - णेया - नेता-मार्गदर्शक, अंधकारंसि - अंधेरी, राओ:- रात्रि में, अपस्समाणे - नहीं देखता हुआ, सूरिअस्स- सूर्य के, अब्भुग्गमेणं - उदित होने पर, वियाणाइ - जानता है, पगासियंसि - प्रकाश में । भावार्थ - जैसे मार्गदर्शक पुरुष अँधेरी रात्रि में न देखता हुआ मार्ग को नहीं जान सकता है परन्तु सूर्योदय होने के पश्चात् प्रकाश फैलने पर मार्ग जान लेता है (इसी तरह जिनवचन के ज्ञान से जीव सन्मार्ग को जान लेता है)। एवं तु सेहे वि अपुटु-धम्मे, धम्मंण जाणाइ अबुज्झमाणे। से कोविए जिणवयणेण पच्छा, सूरोदएं पासइ चक्खुणेव ॥१३॥ कठिन शब्दार्थ - अपुदुधम्मे - अपुष्ट धर्म वाला, अबुझमाणे - न समझता हुआ, कोविए - कोविद-ज्ञानी, जिणवयणेण - जिन वचनों के द्वारा, सूरोदए - सूर्योदय होने पर, चक्खुणा - चक्षु के द्वारा, इव - तरह। भावार्थ - सूत्र और अर्थ को न जानने वाला धर्म में अनिपुण शिष्य धर्म के स्वरूप को नहीं जानता है परन्तु वह जिनवचनों का ज्ञाता होकर इस प्रकार धर्म को जान लेता है जैसे सूर्योदय होने पर नेत्र के द्वारा घटपटादि पदार्थों को जान लेता है ।। विवेचन - जैसे व्यक्ति बादल युक्त अंधेरी रात में जंगल में मार्ग को नहीं जानता है किन्तु सूर्योदय होने से अंधकार हट जाने पर मार्ग को अच्छी तरह जान लेता है, इसी तरह नवदीक्षित शिष्य भी श्रुत और चारित्र धर्म को अच्छी तरह से नहीं जानता है परन्तु वही शिष्यं गुरु महाराज के पास आगम का अध्ययन करने पर जीवादि पदार्थों को इस प्रकार जान लेता है और देख लेता है जैसे सूर्योदय होने पर नेत्रों के द्वारा पदार्थों को देखता है ॥ १२-१३ ।। उड़े अहेयं तिरियं दिसासु, तसा य जे थावरा जे य पाणा । सया जए तेसु परिव्वएज्जा, मणप्पओसं अविकंपमाणे ॥ १४ ॥ कठिन शब्दार्थ - उडे- ऊर्ध्व ऊपर, अहे - अधो-नीचे, तिरिय - तिरछी, दिसासु - दिशाओं में, For Personal & Private Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सया 0000000000000000000 सदा, जए - यत्न पूर्वक, परिव्वज्जा संयम पालन करे, मणप्पओसं मन से भी द्वेष, अविकंपमाणे - संयम में निश्चल दृढ रहे । भावार्थ - ऊपर नीचे तथा तिरछी दिशाओं में जो त्रस और स्थावर प्राणी निवास करते हैं उनकी हिंसा जिसमें न हो ऐसा यत्न करता हुआ साधु संयम पालन करे तथा मन सें भी उनके प्रति द्वेष न करता हुआ संयम में दृढ़ रहे । विवेचन - संसार में सूक्ष्म और बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त, त्रस और स्थावर सभी प्रकार के प्राणियों की तीन करण-तीन योग से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप से हिंसा न करे । इसी प्रकार सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप पांचों महाव्रतों का सम्यक्त्व रूप से पालन करे ॥ १४ ॥ . कालेण पुच्छे समियं पयासु, आइक्खमाणे दवियस्स वित्तं । कठिन शब्दार्थ - कालेण वाले, दवियस्स - सर्वज्ञं के, वित्तं कर, इमं - इसको । तं सोयकाची य पुढो पवेसे, संखा इमं केवलियं समाहिं ॥ १५ ॥ समय देख कर, पुच्छे - पूछे, आइक्खमाणे - उपदेश करने मार्ग को, पवेसे स्थापित करे, संखा सम्यक् रूप से जान भावार्थ - साधु अवसर देख कर सदाचारी आचार्य से प्राणियों के सम्बन्ध में प्रश्न करे और सर्वज्ञ के आगम का उपदेश करने वाले आचार्य का सन्मान करे तथा आचार्य्य की आज्ञानुसार प्रवृत्ति करता हुआ साधु आचार्य्य के द्वारा कहे हुए केवली सम्बन्धी ज्ञान को सुन कर उसे हृदय में धारण करे । विवेचन - गाथा में दिये 'दवियस्स' शब्द का अर्थ दिये है- द्रव्य के यहाँ द्रव्य से आशय सर्वज्ञ से है क्योंकि मुक्ति जाने योग्य भव्य पुरुष को द्रव्य कहते हैं अथवा राग द्वेष रहित वीतराग अथवा तीर्थंकर भगवान् को द्रव्य कहते हैं। प्रश्न करने योग्य काल देखकर शिष्य गुरु महाराज से प्रश्न करे और गुरु महाराज सर्वज्ञ कथित आगम के अनुसार जो उत्तर फरमावें उसको हृदय में धारण करे । । १५ ॥ अस्सिं सुठिच्चा तिविहेण तायी, एएसु या संति णिरोह -माहु । ते एव-मक्खंति तिलोयदंसी, ण भुज्जमेयंति पमाय-संगं ।। १६ ॥ C अध्ययन १४ 0000000000 - - ३०१ - कठिन शब्दार्थ - सुठिच्चा - सम्यग् स्थित हो कर, तायी - छह काय जीवों का रक्षक, संतिशांति, णिरोहं - कर्मों का, निरोध, तिलोयदंसी - त्रिलोकदर्शी, पमायसंगं - प्रमाद का संग । भावार्थ - गुरु के उपदेश में अच्छी तरह निवास करता हुआ साधु मन, वचन और काया से प्राणियों की रक्षा करे इस प्रकार समिति गुप्ति के पालन से ही सर्वज्ञों ने शान्तिलाभ और कर्मों का क्षय होना बताया है । वे त्रिलोकदर्शी पुरुष कहते हैं कि साधु फिर कभी प्रमाद का सङ्ग न करे । 1 विवेचन - त्रिलोकदर्शी सर्वज्ञ तीर्थंकर भगवान् ने केवलज्ञान के द्वारा समस्त पदार्थों को जानकर For Personal & Private Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ और देखकर जो संयम मार्ग फरमाया है उसमें समिति गुप्ति से युक्त होकर एवं प्रमाद रहित होकर शुद्ध संयम का पालन करे।। २६ ॥ णिसम्म से भिक्खू समीहियटुं, पडिभाणवं होइ विसारए य । आयाण-अट्ठी वोदाण-मोणं, उवेच्च सुद्धेण उवेइ मोक्खं ॥१७॥ कठिन शब्दार्थ - णिसम्म - सुन कर, समीहियटुं - समीहितार्थ-इष्ट अर्थ, पडिभाणवं - प्रतिभानवान् , आयाणट्ठी - आदान (ज्ञान आदि का) अर्थी, वोदाण - तप, मोणं - संयम को, उवेच्च - प्राप्त करके, सुरेण - शुद्ध आहार के द्वारा, उवेइ - प्राप्त करता है, मोक्खं - मोक्ष को । भावार्थ - गुरुकुल में निवास करनेवाला साधु उत्तम साधु के आचार को सुन कर और अपने इष्ट अर्थ मोक्ष को जान कर बुद्धिमान् और अपने सिद्धान्त का वक्ता हो जाता है तथा सम्यग्ज्ञान आदि से ही प्रयोजन रखता हुआ वह तप और संयम को प्राप्त करके शुद्ध आहार के द्वारा मोक्ष को प्राप्त करता है । संखाइ धम्मं च वियागरंति, बुद्धा हु ते अंतकरा भवंति । . ते पारगा दोण्ह वि मोयणाए, संसोधियं पण्हमुदाहरंति ॥१८॥ ___ कठिन शब्दार्थ - संखाइ - जान कर, वियागरंति - उपदेश करते हैं, अंतकरा - अंत करने वाले, पारगा - पार करने वाले, दोण्ह - दोनों को-अपने और दूसरे को, मोयणाए - कर्मों से मुक्त कराने के लिए, संसोधियं - संशोधित, पण्हं - प्रश्न का उदाहरंति - उत्तर देते हैं । - भावार्थ - गुरुकुल में निवास करने वाले पुरुष सद्बुद्धि से धर्म को समझ कर दूसरे को उसका उपदेश करते हैं । तथा तीनों कालों को जानने वाले वे पुरुष पूर्वसंचित कर्मों का अन्त करते हैं। वे पुरुष अपने और दूसरे को कर्मपाश से मुक्त करके संसार से पार हो जाते हैं । वे पुरुष सोच विचार कर प्रश्न का उत्तर देते हैं। विवेचन - गाथा में 'संखाइ' शब्द दिया है उसका अर्थ है अच्छी तरह से पदार्थ को जानना अर्थात् उत्तम बुद्धि । गुरु की सेवामें रहने वाला शिष्य धर्म के तत्त्व को अच्छी तरह से समझकर फिर दूसरों को उपदेश देता है एवं पूछे हुए प्रश्न को अच्छी तरह से समझकर उत्तर देता है वह गीतार्थ पुरुष अपनी आत्मा का कल्याण तो करता ही है साथ ही दूसरे प्राणियों को भी संसार सागर से पार कराने में समर्थ होता है ॥ १८ ॥ णो छायए णो वि य लूसएग्जा, माणं ण सेवेज्ज पगासणं च । ण यावि पण्णे परिहास कुण्जा, ण याऽऽसियावायं वियागरेजा ॥ १९ ॥ कठिन शब्दार्थ - छायए - छिपावे, लूसएज्जा - अपसिद्धान्त का निरूपण करे, पगासणं - प्रकाश करे, परिहास - हंसी, कुजा- करे, आसियावायं - आशीर्वचन, विपागरेणा - कहे । For Personal & Private Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १४ भावार्थ - प्रश्न का उत्तर देता हुआ साधु शास्त्र के अर्थ को न छिपावे तथा अपसिद्धान्त का आश्रय लेकर शास्त्र की व्याख्या न करे एवं मैं बड़ा विद्वान् तथा बड़ा तपस्वी हूँ ऐसा अभिमान न करे तथा अपने गुण का प्रकाश भी न करे । किसी कारणवश श्रोता यदि पदार्थ को न समझे तो उसकी हँसी न करे तथा साधु किसी को आशीर्वाद न दे । विवेचन - प्रश्न का उत्तर देने वाला साधु चाहे चार ज्ञान चौदह पूर्वं धारी हो तो भी छद्मस्थ है। इसलिए अपने ज्ञान का गर्व न करें एवं शास्त्र के अनुसार सोच विचार कर उत्तर दे। यदि श्रोता प्रश्न के उत्तर को न समझ सके तो उसकी हंसी न करें तथा ३०३ " आशीर्वादं बहुपुत्रो बहुधनो (बहुधर्मो ) दीर्घायुस्त्वं भूया इत्यादि न व्यागृणीयात् भाषा समितियुक्तेन भाण्यमिति ॥ " अर्थात् - तुम पुत्रवान्, धनवान्, धर्मवान् और दीर्घायु हो इत्यादि आशीर्वाद का वाक्य भी किसी कोन कहे किन्तु भाषा समिति का पालन करे । इस गाथा की टीका करते हुए नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि कहते हैं कि मुनि किसी को दुराशीष अथवा शुभाशीष नं दे यहाँ तक की तुम धर्मवान् हो ऐसा भी न कहे तो फिर 'धर्मलाभ' कहना तो कहां तक उचित है। क्योंकि इसमें तो खुद का स्वार्थ है वह श्रावक को कहता है कि तुम मुझे वंदना करो आहारादि बहराआं तो तुमको धर्म का लाभ होगा। यह तो एक तरह से सौदेबाजी हो जाती है। प्रश्न - वंदन करने वाले को यदि धर्मलाभ न कहा जाए तो क्या कहा जाए क्योंकि स्थानकवासी मुनिराज 'दया पालो' कहते हैं । मूर्तिपूजक बंधु पूछते हैं कि दया पालो का क्या अर्थ है ? "दया पालो" कहना तो उपदेश रूप है। श्रावक पौषध में भी मुनिराज को वंदन करता है तब भी मुनिराज दया पालो ही कहते हैं। पौषध में तो दया का पालन होता ही है तो फिर 'दया पालो' कहने का क्या अर्थ है? 7 उत्तर जब कोई मुनिराज को वंदना करता है तो उसकी वंदना को स्वीकार करने रूप कुछ उत्तर तो देना ही चाहिए। इसीलिए उसकी वंदना को स्वीकार करने रूप 'दया पालो' कहना उचित ही है और उसका उपदेशात्मक अर्थ भी ठीक है। व्यावहारिक दृष्टि से वंदनकर्त्ता को ( ध्यान मौन आदि के सिवाय) प्रत्युत्तर देने के लिए किसी न किसी शब्द का प्रयोग करना उचित लगता है । दया (अहिंसा) व्रत सभी व्रतों का मूल है, गौण रूप से सभी व्रतों का समावेश इसी में हो जाता है । सब महाव्रतों में सर्वप्रथम स्थान इसी का है। अतः स्थानकवासी मुनिराज वंदन कर्त्ता को शुद्ध प्रवृत्ति में प्रेरित करने के लिए 'दया पालो' शब्द का प्रयोग करते हैं । अर्थात् वंदन करना तो वंदन है, परन्तु आत्मा का पूर्ण कल्याण करने हेतु शुद्ध प्रवृत्ति करना आवश्यक है। अतः शुद्ध प्रवृत्ति की तरह ध्यान आकर्षित करने के लिए सदैव 'दया पालो' शब्द का उपयोग करना उचित लगता है। - For Personal & Private Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 पौषध में भी करण-योग और समय की अपेक्षा श्रावक के सम्पूर्ण दया नहीं होती है। अतः उसको सम्पूर्ण दया की ओर प्रेरित करने के लिए दया पालो कहना उचित ही लगता है। 'धर्मलाभ' शब्द आशीर्वाद वचन है अर्थात् वंदन करने से तुम्हें धर्म का लाभ होगा। परन्तु यह शब्द खास अहिंसा आदि धर्म करने की प्रवृत्ति की ओर प्रेरित नहीं करता है, केवल वंदन रूप विनय प्रवृत्ति का ही प्रेरक है। अतः अहिंसा आदि प्रवृत्ति में प्रेरित करने वाले 'दया पालो' शब्द का प्रयोग - विशेष उचित लगता है। मुनिराज के लिए तो यह प्रसिद्ध है - 'लेवे एक, न देवे दोय' अर्थात् - मुनिराज एक संयम ग्रहण करते हैं अथवा सिर्फ एक परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं इसलिए लेते 'एक हैं' और 'दो नहीं देते' अर्थात् किसी पर नाराज होकर उसे दुराशीष नहीं देते हैं और किसी पर प्रसन्न होकर उसे शुभाशीष भी नहीं देते हैं, किन्तु राग द्वेष की प्रवृत्ति से दूर रहते हुए मध्यस्थ वृत्ति रखते हैं ॥ १९ ॥ भूयाभिसंकाइ दुगुंछमाणे, ण णिव्वहे मंत-पएण गोयं । - ण किंचिमिच्छे मणुए पयासुं, असाहु-धम्माणि ण संवएज्जा ॥ २० ॥ . कठिन शब्दार्थ - भूयाभिसंकाइ - प्राणीवध की शंका से, दुगुंछमाणे - घृणा (जुगुप्सा) करता हुआ, णिव्वहे - निर्वाह करे, मंतपएण - मंत्र पद के द्वारा, पयासु - प्रजा से, इच्छे - इच्छा करे, असाहुधम्माणि - असाधु के धर्मों का, संवएज्जा- कहे। . - भावार्थ - पाप से घृणा करता हुआ साधु प्राणियों के विनाश की शङ्का से किसी को आशीर्वाद न देवे तथा मन्त्रविद्या का प्रयोग करके अपने संयम को नि:सार न बनावे एवं वह प्रजाओं से किसी वस्तु की इच्छा न करे तथा वह असाधुओं के धर्म का उपदेश न करे । विवेचन - मुनिराज वाणी पर संयम रखने वाला होता है इसलिए पाप सहित वस्तु में घृणा करता हुआ साधु प्राणियों के विनाश की आशंका से किसी को दुराशीष अथवा आशीर्वाद वाक्य न कहे तथा मंत्र आदि का प्रयोग करके संयम को निःसार न बनावे। धर्मोपदेश देता हुआ साधु श्रोताओं से लाभ पूजा और सत्कार आदि की इच्छा न करे तथा साधुता से विपरीत उपदेश न देवे॥ २० ॥ हासं-पि णो संधइ पावधम्मे, ओए तहियं फरुसं वियाणे । णो तुच्छए णो य विकथइज्जा, अणाइले. या अकसाई भिक्खू ॥ २१ ॥ . कठिन शब्दार्थ - हासं पि - हास्य से भी, पावधम्मे - पाप धर्म की, तहिय - सत्य वचन को, फरुसं - कठोर, तुच्छए - तुच्छता, विकंथइजा - प्रशंसा करे, अणाइले - निर्मल, अकसाई- अकषायी। For Personal & Private Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १४ ३०५ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भावार्थ - जिससे हास्य उत्पन्न होता हो ऐसा शब्द तथा शरीर आदि का व्यापार साधु न करे तथा हास्य से भी पापमय धर्म को न कहे । रागद्वेष रहित साधु जो वचन दूसरे को दुःखित करता है वह सत्य हो तो भी न कहे । एवं साधु पूजा सत्कार आदि को पाकर मान न करे और अपनी प्रशंसा न करे । साधु सदा लोभ आदि और कषायों से रहित होकर रहे । विवेचन - झूठ बोलने के चार कारण हैं - क्रोध, लोभ, हंसी और भय। मुनिराज इन चारों के • वश होकर कदापि झूठ न बोले किन्तु कषाय के ऊपर विजय प्राप्त करे। जो वचन सत्य है किन्तु कठोर है और दूसरें की हीनता दिखाने वाला है ऐसा वचन न बोले तथा अपनी आत्मा प्रशंसा न करे॥ २१ ॥ संकेज याऽसंकिय-भाव भिक्खू, विभजवायं च वियागरेग्जा। भासादुयं धम्म-समुट्ठिएहि, वियागरेजा समयासुपण्णे ॥ २२ ॥ कठिन शब्दार्थ - असंकियभाव - शंका रहित, विभज्ज-वायं - विभज्यवाद-स्याद्वादमयवचन, वियागरेजा - बोले, भासादुयं - दो प्रकार की भाषा, धम्म समुट्ठिएहि - धर्माचरण करने में प्रवृत्त, समया - समभाव से, आसुपण्णे - आशुप्रज्ञ-बुद्धिमान्। भावार्थ - सूत्र और अर्थ के विषय में शङ्का रहित भी साधु शङ्कितसा वाक्य बोले । व्याख्यान आदि के समय स्याद्वादमय वचन बोले । धर्माचरण करने में प्रवृत्त रहने वाले साधुओं के साथ विचरता हुआ साधु सत्यभाषा और जो भाषा सत्य नहीं तथा मिथ्या भी नहीं है इन दोनों भाषाओं को बोले । धनवान् और दरिद्र दोनों को समभाव से धर्म कहे । .....अणुगच्छमाणे वितहं विजाणे, तहा तहा साहु अकक्कसेणं । - ण कत्थइ भास विहिंसइज्जा, णिरुद्धगं वावि ण दीहइज्जा ॥ २३ ॥ ___कठिन शब्दार्थ - अणुगच्छमाणे - अनुसरण करते हुए यथार्थ रूप में समझते हुए, वितहं - विपरीत, विजाणए - समझते हैं, अकक्कसेणं - अकर्कश वचन से-कोमल शब्दों से, विहिंसइजा - निंदा (तिरस्कार) करे, णिरुद्धगं - छोटी बात को, दीहइजा-दीर्घ करे। . भावार्थ - पूर्वोक्त दो भाषाओं का आश्रय लेकर धर्म की व्याख्या करते हुए साधु के कथन को कोई बुद्धिमान् पुरुष ठीक ठीक समझ लेते हैं और कोई मन्दमति पुरुष विपरीत समझते हैं । उन विपरीत समझने वाले मन्दमतिओं को साधु कोमल शब्दों के द्वारा समझाने का प्रयत्न करे और जो अर्थ छोटा है उसे व्यर्थ शब्दाडम्बरों से विस्तृत न करे । समालवेज्जा पडिपुण्णभासी, णिसामिया समिया-अट्ठदंसी । आणाइ सुद्धं वयणं भिउंजे, अभिसंधए पाव-विवेग भिक्खू ॥ २४ ॥ For Personal & Private Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ कठिन शब्दार्थ - समालवेजा - विस्तृत रूप से कहे, पडिपुण्णभासी - प्रतिपूर्णभाषी, णिसामिया - सुन कर, समिया- सम्यक् प्रकार से, अट्ठदंसी - अर्थ को जानने वाला, आणाइ - आज्ञा से, अभिउंजे - बोले, अभिसंधए - निर्दोष वचन बोले । ___ भावार्थ - जो अर्थ थोड़े शब्दों में कहने योग्य नहीं है उसे साधु विस्तृत शब्दों में कहकर समझावे तथा साधु गुरु से पदार्थ को सुनकर उसे अच्छी तरह समझकर आज्ञा से शुद्ध वचन बोले । साधु पाप का विवेक रखता हुआ निर्दोष वचन बोले । विवेचन - शास्त्रकार का जो गूढ़ रहस्य हैं उसको इस तरह विस्तार करके समझाने का प्रयत्न करें कि वह श्रोता के समझ में आ जाए। अहाबुइयाई सुसिक्खएग्जा, जइजय णाइवेलं वएग्जा । से दिट्ठिमं दिढेि ण लूसएग्जा, से जाणई भासिहं तं समाहि ॥ २५ ॥ कठिन शब्दार्थ - अहाबुइयाइं - यथोक्त-तीर्थकर गणधरों के वचन को, सुसिक्खएज्जा - सम्यक् प्रकार से सीखे, जइज्जय- सदैव प्रयत्न करे, अइवेलं - मर्यादा का उल्लंघन कर, दिट्ठिमं - दृष्टिमान् (सम्यग्-दृष्टि) दिदि- सम्यग् दर्शन को, लूसएज्जा - दूषित करे। . भावार्थ - साधु तीर्थंकर और गणधर के वचनों का सदा अभ्यास किया करे तथा उनके उपदेशानुसार ही वचन बोले । वह मर्यादा का उल्लंघन करके अधिक न बोले । सम्यग्दृष्टि साधु सम्यग्दर्शन को दूषित न करे । जो साधु इस प्रकार उपदेश करना जानता है वही सर्वज्ञोक्त भावसमाधि को जानता है एवं प्राप्त करता है। विवेचन - मुनि नया-नया ज्ञान सीखने में निरन्तर पुरुषार्थ करता रहे जैसा कि कहा है - खीण निकम्मो रहणो नहीं, करणो आतमकाम । भणणो गुणणो सीखणो, रमणो ज्ञान आराम ॥ - मुनि प्रतिलेखन, स्वाध्याय, ध्यान आदि सब क्रियाएं यथा समय करे किन्तु मर्यादा का उल्लंघन न करे, सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप भाव समाधि को प्राप्त करे॥ २५ ॥ अलूसए णो पच्छण्ण-भासी, णो सुत्तमत्थं च करेज ताई। सत्यार-भत्ती अणुवीइ वायं, सुयं च सम्मं पडिवाययंति ॥ २६ ॥ कठिन शब्दार्थ - अलूसए - दूषित न करे, पच्छण्णभासी- प्रच्छन्नभाषी-सिद्धान्त को छिपाने वाला, सुत्तमात्य - सूत्र और अर्थ को, सत्यार भत्ती - गुरु की भक्ति का, अणुवीइ - सोच विचार कर, परिवापति - प्रतिपादन करे । . For Personal & Private Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...... अध्ययन १४ भावार्थ - साधु आगम के अर्थ को दूषित न करे तथा शास्त्र के सिद्धान्त को न छिपावे । प्राणियों की रक्षा करने वाला साधु सूत्र और अर्थ को अन्यथा न करे तथा शिक्षा देने वाले गुरु की भक्ति का ध्यान रखते हुए सोच विचार कर कोई बात कहे एवं गुरु से जैसा सुना है वैसा ही दूसरे के प्रति सूत्र की व्याख्या करे । ३०७ विवेचन - मुनि सर्वज्ञोक्त आगम की व्याख्या करता हुआ अप सिद्धांत की प्ररूपणा करके सर्वज्ञोक्त आगम को दूषित न करे तथा गूढ़ रहस्य युक्त सिद्धान्त को अपात्र एवं अयोग्य व्यक्ति को न सीखावे। जैसा कि दशवैकालिक सूत्र के चौथे अध्ययन में हरिभद्रसूरी कृत टीका में लिखा है - गुणवते शिष्यायागमरहस्यं देयं मा गुणवते । - अर्थ- गुणवान् शिष्य को आगम का रहस्य बताना चाहिए किन्तु अगुणवान् (अपात्र, अयोग्य) को आगम का रहस्य नहीं बताना चाहिए। प्रश्न- एक शिष्य को ज्ञान सीखावे और दूसरे शिष्य को न सीखावे, क्या यह गुरु का पक्षपात नहीं होगा ? उत्तर- पक्षपात नहीं होगा, क्योंकि टीकाकार ने लिखा है - तदनुकम्पा प्रवृत्तेरिति । अर्थ - अपात्र को गूढ़ रहस्य नहीं बताते हैं यह गुरु महाराज उसके ऊपर अनुकम्पा (दया) करते हैं, अर्थात् इसमें उसका हित सोचते हैं यथा आमे बड़े निहितं जहा जलं तं घडं विणासेइ । इअ सिद्धंतरहस्स अप्पाहारं विणासेइ ।। संस्कृत छाया - आमे घटे निहितं यथा जलं तं घटं विनाशयति । इति (एवं ) सिद्धान्त रहस्य मल्याधारं विनाशयति ॥ अर्थ - जैसे अग्नि में बिना पकाए हुए मिट्टी के कच्चे घड़े में जल भरे तो घड़ा भी नष्ट हो जाएगा और जल भी नष्ट हो जाएगा। इसी तरह अल्पाधार (अयोग्य, अपात्र) शिष्य को यदि सिद्धान्त का रहस्य बताया जाए तो वह ज्ञान भी दूषित हो जाएगा और उस शिष्य का भी अहित हो जाएगा। इसलिए उस शिष्य का हित सोचकर उसको आगम का रहस्य नहीं बतलाते हैं। शिक्षा देने वाले गुरु की बहुमान पूर्वक भक्ति करे तथा, जैसा अर्थ गुरुदेव से सुना है वैसा ही दूसरे को कहे एवं प्ररूपणा करे ॥ २६ ॥ For Personal & Private Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ से सुद्ध-सुत्ते उवहाणवं च, धम्मं च जे विंदइ तत्थ तत्थ । आदेग्ज-वक्के कुसले वियत्ते, स अरिहइ भासिउं तं समाहिं । तिबेमि॥ २७ ॥ कठिन शब्दार्थ - सुद्ध सुते - शुद्धता पूर्वक सूत्र का उच्चारण करने वाला, उवहाणवं - तपस्वी, विंदइ - अंगीकार करता है, आदेज - आदेय-ग्रहण करने योग्य, वक्के - वाक्य वाला, वियत्तेव्यक्त, अरिहइ - व्याख्या कर सकता है, भासिठं- कहने के लिए, समाहि- समाधि का । भावार्थ - जो साधु शुद्धता के साथ सूत्र का उच्चारण करता है तथा शास्त्रोक्त तप का अनुष्ठान करता है एवं जो उत्सर्ग के स्थान में उत्सर्ग रूप धर्म को और अपवाद के स्थान में अपवादरूपं धर्म को स्थापित करता है वही पुरुष ग्राह्यवाक्य है अर्थात् उसी की बात मानने योग्य है । इस प्रकार अर्थ करने ' में निपुण तथा बिना विचारे कार्य न करनेवाला पुरुष ही सर्वज्ञोक्त भावसमाधि का प्रतिपादन कर सकता है एवं भाव समाधि को प्राप्त कर सकता है। - इति ब्रवीमि - अर्थात् - श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि आयुष्मन् जम्बू ! जैसा मैंने . श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखारविन्द से सुना है वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ। मैं अपनी मनीषिका. (बुद्धि) से कुछ नहीं कहता हूँ। ॥ग्रन्थ नामक चौदहवां अध्ययन समाप्त॥ For Personal & Private Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदानीय नामक पन्द्रहवाँ अध्ययन जमतीतं पडुप्पण्णं आगमिस्सं च णायओ ।। सव्वं मण्णइ तं ताई, दसणावरणंतए ॥१॥ कठिन शब्दार्थ - जं - जो, अतीतं - अतीत-भूत में हो चुके, पडुप्पण्णं - प्रत्युत्पन्न-वर्तमान में हैं, आगमिस्सं - भविष्य में होंगे, णायओ - नायक-नेता, मण्णइ - जानता है, ताई - जीव रक्षक, दंसणावरणंतए - दर्शनावरणीय कर्म का अंत करने वाला । भावार्थ - जो पदार्थ उत्पन्न हो चुके हैं और जो वर्तमानकाल में विद्यमान हैं तथा जो भविष्यकाल में होंगे उन सब पदार्थों को, दर्शनावरणीय कर्म को अन्त करने वाला जीवरक्षक नेता पुरुष जानता है । . . . विवेचन - चौदहवें अध्ययन में यह बतलाया गया है कि साधु को बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार के ग्रन्थों को त्याग करना चाहिए। ग्रन्थ (परिग्रह) का त्याग करने से चारित्र शुद्ध होता . है यह बात इस अगले अध्ययन में बताई जा रही है। । जो पुरुष भूतकाल, वर्तमान काल और भविष्यकाल में होने वाले उन सब के यथार्थ रूप को जानता व देखता है वह सर्वज्ञ सर्वदर्शी नेता (नायक) होता है. अर्थात् वह स्वयं सुगति को प्राप्त करता है और दूसरों को भी संसार सागर से पार उतार कर सुगति में स्थापित करता है। ऐसा पुरुष सर्वजीव रक्षक होता है। . . गाथा में 'दंसणावरणंतए' शब्द दिया है अर्थात् दर्शनावरणीय का अन्त करने वाला। यह केवल उपलक्षण मात्र हैं इससे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन चारों घाती कर्मों का ग्रहण कर लेना चाहिए॥ १ ॥ अंतए.वितिगिच्छाए, से जाणइ अणेलिसं । अणेलिसस्स अक्खाया, ण से होइ तहिं तहिं ॥२॥ कठिन शब्दार्थ - अंतए - अंत करने वाला, वितिगिच्छाए- विचिकित्सा-संशय का, अणेलिसं - अनुपम तत्त्व को, अक्खाया- आख्यान करने वाला, तहिं - वहाँ । . - भावार्थ - संशय को दूर करनेवाला पुरुष सबसे बढ कर पदार्थ को जानता है । जो पुरुष सबसे बढ कर वस्तु तत्त्व का निरूपण करनेवाला है वह बौद्धादि दर्शनों में नहीं है । For Personal & Private Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 विवेचन - सर्वज्ञ सर्वदर्शी वीतराग पुरुष को किसी भी विषय में शंका और संशय नहीं होता है ऐसा निर्मल ज्ञान वीतराग को ही होता है । सांख्य मीमांसक आदि में वीतरागता न होने के कारण ऐसा निर्मल ज्ञान नहीं होता है ॥ २ ॥ तहिं तहिं सुयक्खायं, से य सच्चे सुआहिए । सया सच्चेण संपण्णे, मेत्तिं भूएहिं कप्पए ॥३॥ कठिन शब्दार्थ - सुयक्खायं - सम्यक् प्रकार से उपदेश किया है, सुआहिए - सुभाषित, सच्चेण - सत्य से, संपण्णे - संपन्न, मेत्तिं - मैत्री, भूएहिं - जीवों के साथ, कप्पए - करे । भावार्थ - श्री तीर्थंकर देव ने भिन्न-भिन्न स्थलों में जो जीवादि तत्त्वों का अच्छी तरह उपदेश किया है वही सत्य है और वही सुभाषित है इसलिये मनुष्य को सदा सत्य से युक्त होकर जीवों में . मैत्रीभाव रखना चाहिये । विवेचन - सर्वज्ञ सर्वदर्शी वीतराग भगवन्तों का वचन सदा सत्य होता हैं वे तप संयम से अपनी आत्मा को भावित करते हुए जगत् के समस्त प्राणियों पर रक्षा रूप दया करते हैं ॥ ३ ॥ भूएहिं ण विरुण्झेजा, एस धम्मे वुसीमओ। . सिमं जगं परिण्णाय, अस्सिं जीविय-भावणा । ४। कठिन शब्दार्थ - विरुण्झेजा - विरोध (वैर) करे, वुसीमओ - तीर्थंकर का अथवा संयमी (साधु) का, वुसिमं - वुसिमान्-साधु, परिण्णाय - जानकर, जीविय भावणा - जीवित भावना ।। भावार्थ - प्राणियों के साथ विरोध न करना साधु का धर्म है। इसलिये जगत् के स्वरूप को जानकर साधु धर्म की भावना करे। विवेचन - मुनि हिंसा का सर्वथा त्यागी होता है इसलिए त्रस या स्थावर किसी भी प्राणि की हिंसा न करें। मुनि पंचमहाव्रत धारी होता है। प्रत्येक महाव्रत की पांच-पांच भावनाएं होती हैं, इस प्रकार पांच महाव्रत की पच्चीस भावनाएं हैं। मुनि उनका प्रतिदिन चिंतन मनन करता हुआ पूर्ण रूप से पालन करे॥ ४ ॥ भावणा-जोग-सुद्धप्पा, जले णावा व आहिया । .. णावा व तीर-संपण्णा, सव्व-दुक्खा तिउट्टइ ॥५॥ कठिन शब्दार्थ - भावणा-जोग-सुद्धप्पा - भावना योग शुद्धात्मा-भावना रूपी योग से शुद्ध आत्मा वाला, णावा - नाव, तीरसंपण्णा - तीर को प्राप्त, सव्वदुक्खा - सब दुःखों से, तिउट्टाछूट जाता है। For Personal & Private Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .......000 - भावार्थ - पूर्वोक्त पच्चीस प्रकार की अथवा बारह प्रकार की भावना से जिसका आत्मा शुद्ध हो गया है वह पुरुष जल में नाव के समान कहा गया है । जैसे तीरभूमि को पाकर नाव विश्राम करती है इसी तरह वह पुरुष सब दुःखों से छूट जाता है । विवेचन उत्तम भावना के योग से जिसका अन्तःकरण शुद्ध हो गया है वह पुरुष संसार के सब झंझटों को छोड़कर जल में नाव की तरह संसार सागर के ऊपर रहता है। जैसे नाव जल में नहीं डूबती है, इसी तरह वह पुरुष भी संसार सागर में नहीं डूबता है। जैसे निपुण कर्णधार (नाव का खिवैया) युक्त और अनुकूल पवन से प्रेरित नाव सब प्रकार के विघ्न बाधाओं से रहित होकर तीर पर पहुँच जाती है इसी तरह शुद्ध चारित्रवान् जीव रूपी नाव सर्वज्ञोक्त आगम रूप कर्णधार से युक्त तथा तप रूपी पवन प्रेरित होकर दुःख रूपी संसार से छूट कर समस्त दुःखों के अभाव रूप मोक्ष को प्राप्त कर लेती है ॥ ५ ॥ - अध्ययन १५ तिउट्टइ उ मेहावी, जाणं लोगंसि पावगं । तुट्टंति पाव-कम्माणि, णवं कम्म मकुव्वओ ॥ कठिन शब्दार्थ जाणं जानने वाला, लोगंसि - लोक में, पावगं नया, कम्मं कर्म, अकुव्वओ- नहीं करने वाला । ६ ॥ भावार्थ - लोक में पाप कर्म को जानने वाला पुरुष सब बन्धनों से मुक्त हो जाता है तथा नूतन कर्म न करने वाले पुरुष के सभी पापकर्म छूट जाते हैं ! विवेचन मुनि मर्यादा में स्थित मुनि एवं सत्-असत् का विवेकी पुरुष आठ प्रकार के कर्मों को एवं उनके कारणों को त्यागता हुआ मुक्त हो जाता है क्योंकि उत्कृष्ट तप करते हुए मुनि के पूर्व संचित पाप कर्म नष्ट हो जाते हैं और जो पुरुष नूतन कर्म नहीं करता है उसके समस्त कर्मों का क्षय हो जाता है ॥ ६ ॥ - 1000000000000 - कुव्व णवं णत्थि, कम्मं णाम विजाणइ । विण्णाय से महावीरे, जेण जाइ ण मिज्जइ ॥ ७ ॥ कठिन शब्दार्थ - विजाणइ - जानता है, विण्णाय मिज्जइ मरता है । 0000000000000 ३११ For Personal & Private Use Only - पाप को, णवं - - जान कर, जाइ जाति जन्म, भावार्थ जो पुरुष कर्म नहीं करता है उसको नूतन कर्मबन्ध नहीं होता है । वह पुरुष अष्टविध कर्मों को जानता है । वह महावीर पुरुष आठ प्रकार के कर्मों को जानकर ऐसा प्रयत्न करता है जिससे वह संसार सागर में न तो कभी उत्पन्न होता है और न मरता है । Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 00000000000000 विवेचन कुछ मतावलम्बियों की मान्यता है कि अपने तीर्थ का अपमान देखकर सिद्ध जीव फिर संसार में आ जाता है किन्तु उनकी यह मान्यता उचित नहीं है क्योंकि जब सब कर्मों का विनाश हो गया तो संसार में आने का कोई कारण ही नहीं है। वे राग-द्वेष रहित हैं इसलिए उनके लिए स्वमत और अन्यमत ऐसी कल्पना ही नहीं होती है। कर्मों को विदारण करने में समर्थ वह महावीर पुरुष ऐसा कार्य करता है जिससे वह इस संसार में फिर जन्म नहीं लेता है जब जन्म ही नहीं लेता है तो मरण भी नहीं होता ॥ ७ ॥ ३१२ - ण मिज्जइ महावीरे, जस्स णत्थि पुरेकडं । वाउव्व जाल- मच्चेइ, पिया लोगंसि इत्थिओ ॥ ८ ॥ कठिन शब्दार्थ - मिज्जइ मरता है, पुरेकडं पूर्व कृत कर्म, वाउव्व - वायु, जालं- अग्नि की ज्वाला को अच्छे - पार कर जाता है, पिया प्रिय, लोगंसि लोक में, इथिओ - स्त्रियों को । भावार्थ - जिसको पूर्वकृत कर्म नहीं है वह पुरुष जन्मता मरता नहीं है जैसे वायु अग्नि की ज्वाला को उल्लंघन कर जाता है इसी तरह वह महावीर पुरुष प्रिय स्त्रियों को उल्लंघन कर जाता है अर्थात् वह प्रिय स्त्रियों के वश में नहीं होता । : विवेचन तपस्या आदि के द्वारा पूर्व कर्मों को जिसने नष्ट कर दिया है तथा संयम के द्वारा आने वाले आस्रवों को रोक दिया है ऐसे पुरुष को यहाँ महावीर कहा है ऐसा पुरुष मुक्ति को प्राप्त कर लेता है इसीलिए वह जन्म-मरण के चक्कर में नहीं फंसता है। गाथा में 'इत्थिओ' शब्द दिया है इससे विषय वासना को ग्रहण करना चाहिए तथा चौथे महाव्रत को ग्रहण करने से पांचों महाव्रतों को ग्रहण कर लेना चाहिए । इथिओ जे ण सेवंति, आइमोक्खा हु ते जणा । ते जणा बंधणुम्मुक्का, णावकंखंति जीवियं ॥ ९ ॥ कठिन शब्दार्थ - आइमोक्खा प्रथम मोक्षगामी, बंधणुम्मुक्का - बंधन से मुक्त, णावकंखंति - इच्छा नहीं करते हैं, जीवियं जीने की । भावार्थ - जो स्त्री का सेवन नहीं करते हैं वे पुरुष सबसे प्रथम मोक्षगामी होते हैं । तथा बन्धन मुक्त वे पुरुष असंयम जीवन की इच्छा नहीं करते हैं । विवेचन - इस गाथा में भी 'इत्थिओ' शब्द दिया है उसका अर्थ कामवासना, विषय भोग एवं पांच इन्द्रियों के विषय विकार लिए गए है क्योंकि न स्त्रियाँ बुरी हैं और न पुरुष बुरा है किन्तु उनमें रही हुई विषय वासना बुरी है । शास्त्रकार का अभिप्राय विषय वासना के निषेध का है क्योंकि स्त्रियाँ - - For Personal & Private Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १५ । ३१३ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 भी विषय वासना को जीतकर मुक्ति को प्राप्त कर लेती हैं और पुरुष भी तभी मुक्ति को प्राप्त कर सकता है जब वह विषय वासना को जीत ले ॥९॥ जीवियं पिट्ठओ किच्चा, अंतं पावंति कम्मुणं । . कम्मुणा संमुहीभूता, जे मग्ग-मणुसासइ ॥१०॥ कठिन शब्दार्थ - पिट्ठओ - पीछे, अंतं - अंत को, पावंति- प्राप्त करते हैं, कम्मुणं - कर्म के, संमुहीभूता - संमुखीभूत, मग्गं- मोक्षमार्ग को, अणुसासइ - शिक्षा देते हैं । भावार्थ - साधु पुरुष जीवन से निरपेक्ष होकर ज्ञानावरणीय कर्मों के अन्त को प्राप्त करते हैं । वे .. पुरुष उत्तम अनुष्ठान के द्वारा मोक्ष के सम्मुख हैं जो मोक्षमार्ग की शिक्षा देते हैं । अणुसासणं पुढो पाणी, वसुमं पूयणासु (स) ए । अणासए जए दंते, दढे आरय-मेहुणे ॥ ११॥ . कठिन शब्दार्थ-वसुमं - वसुमान्-संयमी, पूयणासु( स )ए- पूजा को भोगने वाला, अणासए-- अनाशय-आशय (इच्छा) नहीं रखने वाला, जए - संयत-संयम परायण, दंते - जितेन्द्रिय, दढे - दृढ़, 'आरय-मेहुणे- मैथुन से रहित । . भावार्थ - धर्मोपदेश भिन्न भिन्न प्राणियों में भिन्न भिन्न रूप में परिणत होता है । संयमधारी, देवादिकृत पूजा को प्राप्त करने वाला परन्तु उस पूजा में रुचि न रखने वाला, संयमपरायण जितेन्द्रिय, संयम में दृढ़ और मैथुन रहित पुरुष मोक्ष के सम्मुख है। विवेचन - वसु का अर्थ है धन । संयम रूपी धन जिसके पास है उसको वसुमान् कहते हैं। मूल गाथा. में पूयणासए' शब्द दिया है जिसकी संस्कृत छाया की है 'पूजनास्वादकः' जिसका अर्थ है - देवों द्वारा की हुई अशोकवृक्ष आदि पूजा को तीर्थंकर भगवान् भोगते हैं, किन्तु उसमें उनकी रूचि व इच्छा न होने के कारण उनको आधाकर्म आदि कोई दोष नहीं लगता है इसलिए वे सत्संयमी हैं सब पापों के त्यागी होने से वे मोक्ष के सम्मुख हैं ॥ ११ ॥ .णीवारे व ण लीएज्जा, छिण्णसोए अणाविले । .. अणाइले सया दंते, संधि पत्ते अणेलिसं ॥ १२॥ कठिन शब्दार्थ - णीवारे - नीवार-चावल के दाने, लीएज्जा - लिप्त हो, छिण्णसोए - छिन्नस्रोत, अणाविले - राग द्वेष रूप मल से रहित, अणाइले - स्थिर चित्त, संधि - संधि को, पत्ते - प्राप्त करता है, अणेलिसं - अनुपम ।। भावार्थ - जैसे चावल के दानों को खाने के लोभ से सुअर आदि प्राणी वध्यस्थान पर पहुँच जाते For Personal & Private Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 हैं इसी तरह स्त्री सेवन के लोभ में पड़कर जीव संसार भ्रमण करता है अतः सुअर आदि को वध्यस्थान में पहुंचाने वाले चावल के दाने के समान स्त्री प्रसङ्ग जीव के नाश का कारण है इसलिये विद्वान् पुरुष स्त्री प्रसङ्ग कदापि न करे । जो पुरुष अपनी इन्द्रियों को विषयभोग में प्रवृत्त नहीं करता है तथा रागद्वेष को जीतकर वीतराग हो गया है वह इन्द्रिय और मन को वश किया हुआ पुरुष अनुपम भावसन्धि को प्राप्त करता है। अणेलिसस्स खेयण्णे, ण विरुझिज्ज केणइ । मणसा-वयसा चेव, कायसा चेव चक्खुमं॥ १३॥ कठिन शब्दार्थ - खेयण्णे - खेदज्ञ, विरुझिज - विरोध करे, चक्खुमं - चक्षुष्मान् । भावार्थ - जो पुरुष संयम पालन करने में तथा तीर्थंकरोक्त धर्म के सेवन में निपुण है वंह मन वचन और काया से किसी प्राणी के साथ विरोध न करे । जो पुरुष ऐसा है वही परमार्थदर्शी है। विवेचन - वीतराग भगवान् के फरमाए हुए धर्म के समान अन्य कोई धर्म नहीं है ऐसे धर्म को प्राप्त कर जगत् के सर्व जीवों के साथ मैत्री भाव स्थापित करता हुआ जो किसी भी प्राणी के साथ वैर विरोध नहीं करता है। वह वास्तव में परमार्थ दर्शी हैं ॥ १३ ॥ से हुचक्खू मणुस्साणं, जे कंखाए य अंतए । अंतेण खुरो वहइ, चक्कं अंतेण लोट्टइ ॥१४॥ कठिन शब्दार्थ - चक्खू - नेत्र, कंखाए - आकांक्षा का, अंतेण - अंत से, खुरो - क्षुरप-उस्तरा, .. वहइ - चलता है, चक्कं- चक्र, लोट्टइ - चलता है । ___ भावार्थ - जिस पुरुष को भोग की तृष्णा नहीं है वही सब मनुष्यों को नेत्र के समान उत्तम मार्ग दिखाने वाला है । जैसे अस्तुरा का अग्रभाग और चक्र का अन्तिम भाग ही चलता है इसी तरह मोहनीय कर्म का अन्त ही संसार को क्षय करता है। विवेचन - जिस पुरुष ने विषय वासना का अन्त कर दिया वह अन्य जीवों को मोक्ष के मार्ग को दिखाने वाला होने से नेत्र के समान है। जैसे नाई का उस्तरा और चक्र का अंतिम भाग ही मार्ग में चलता है उसी तरह विषय और कषाय रूप मोहनीय कर्म का अन्त ही इस दुःख रूप संसार का अंत करने वाला है ॥ १४ ॥ अंताणि धीरा सेवंति, तेण अंतकरा इह । इह माणुस्सए ठाणे, धम्म-माराहिउं णरा ।। १५॥ For Personal & Private Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १५ ३१५ 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 कठिन शब्दार्थ - अंताणि - अंत प्रांत, अंतकरा - अंत करने वाले, धम्मं - धर्म की, आराहिउं - आराधना करके, माणुस्सए ठाणे - मनुष्य लोक में । भावार्थ - विषय सुख की इच्छा रहित पुरुष अन्तप्रान्त आहार का सेवन करके संसार का अन्त करते हैं । इस मनुष्य लोक में धर्म का सेवन करके जीव संसार सागर से पार हो जाते हैं। . विवेचन - विषय वासना और कषाय की इच्छा से रहित पुरुष अंत प्रान्त आहार का सेवन करते हैं। अथवा संसार का कारण जो कर्म है उनका अन्त करके मुक्ति प्राप्त करते हैं ॥१५ ॥ णिट्ठियट्ठा व देवा वा, उत्तरीए इयं सुयं । सुयं च मेयमेगेसिं, अमणुस्सेसु णो तहा ॥ १६ ॥ कठिन शब्दार्थ - णिट्ठियट्ठा - निष्टितार्थ-मुक्त होता है, उत्तरीए - लोकोत्तर प्रवचन में, सुयं - सुना है, अमणुस्सेसु - मनुष्य से भिन्न गति वाले । भावार्थ - मैंने तीर्थंकर से सुना है कि - मनुष्य ही कर्मक्षय करके सिद्धि को प्राप्त होता है अथवा देवता होता है परन्तु दूसरी गतिवाले जीवों की ऐसी योग्यता नहीं होती है । .. विवेचन - गतियां चार कही गई हैं यथा - नरक गति, तिर्यञ्च गति, मनुष्य गति, देव गति। इनमें से नरक गति और देव गति के जीव तो मर कर मनुष्य और तिर्यञ्च में ही जाते हैं। तिर्यञ्च गति के जीव मर कर अधिक से अधिक ८ वें देवलोक तक जा सकते हैं किन्तु मुक्ति में तो ये तीन गति के जीव नहीं जा सकते। सिर्फ मनुष्य गति की ही यह विशेषता है कि मनुष्य समस्त कर्मों का क्षय करके उसी भव में मुक्ति प्राप्त कर सकता है। मनुष्य से भिन्न ये तीन गतियाँ हैं। उनमें सम्यक् चारित्र का परिणाम न होने से मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते हैं। अंतं करंति दुक्खाणं, इहमेगेसि-माहियं । आघायं पुण एगेसिं, दुल्लहेऽयं समुस्सए ॥ १७॥ कठिन शब्दार्थ - दुक्खाणं - दुःखों का, आघायं - कथन, दुल्लहे - दुर्लभ, समुस्सए - समुच्छ्य -मनुष्य भव का शरीर। भावार्थ - तीर्थङ्कर भगवन्तों का कथन है कि मनुष्य ही समस्त दुःखों का नाश कर सकते हैं दूसरे प्राणी नहीं । प्रथम तो मनुष्यभव प्राप्त करना बड़ा कठिन है । - विवेचन - समस्त कर्मों का क्षय कर उसी भव में मुक्ति प्राप्त करने की योग्यता सिर्फ मनुष्य में ही है। बौद्ध आदि किन्हीं मतावलम्बियों का कथन है कि देवता ही उत्तरोत्तर उत्तम स्थानों को प्राप्त For Personal & Private Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ करते हुए समस्त दुःखों का नाश कर मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। किन्तु यह कथन वीतराग भगवन्तों का नहीं है। देव चौथे गुणस्थान से आगे नहीं बढ़ सकते हैं। आगमकार फरमाते हैं कि - "दुल्लहे खलु माणुसे भवे" अर्थात् चार गति चौबीस दण्डक और चौरासी लाख जीव योनि में भटकते हुए इस जीव को मनुष्य भव की प्राप्ति होना महान् कठिन है। उत्तराध्ययन सूत्र के तीसरे अध्ययन की टीका में तथा आवश्यक नियुक्ति में दस दृष्टान्त देकर यह बतलाया गया है कि इन दस दृष्टान्तों का मेल होना कठिन है उसी तरह मनुष्य भव की प्राप्ति होना महान् कठिन है। अतः मनुष्य भव को प्राप्त कर बुद्धिमानों का कर्तव्य है कि वे निरंतर धर्म में पुरुषार्थ करें। इओ विद्धंसमाणस्स, पुणो संबोहि दुलहा । दुलहाओ तहच्चाओ, जे धम्मटुं वियागरे ॥१८॥ कठिन शब्दार्थ - विद्धंसमाणस्स - मनुष्य शरीर से च्युत (भ्रष्ट) को, संबोहि - संबोधि, दुल्लहाओ - दुर्लभ, तहच्याओ - सम्यग् दर्शन प्राप्ति योग्य अंतःकरण, धम्म8 - धर्म की, वियागरेव्याख्या करते हैं। . भावार्थ - जो जीव इस मनुष्य शरीर से भ्रष्ट हो जाता है उस को फिर बोध प्राप्त होना दुर्लभ है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के योग्य अन्तःकरण का परिणाम होना बड़ा कठिन है । जो जीव धर्म की व्याख्या करते हैं तथा धर्म की प्राप्ति के योग्य हैं उनकी लेश्या प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है । . विवेचन - जिस जीव ने मनुष्य भव प्राप्त करके धर्म करणी नहीं की उस पुरुष का दूसरे भव में सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के योग्य सामग्री का मिलना अत्यन्त दुर्लभ है। मनुष्य भव प्राप्त करके भी दस बोलों की प्राप्ति होना महान् कठिन है- १. मनुष्य भव २. आर्यक्षेत्र ३. उत्तम कुल ४. नीरोग शरीर ५. पांच इन्द्रिय परिपूर्ण ६. लम्बा आयुष्य ७. साधु साध्वी का संयोग ८. जिनवाणी श्रवण ९. श्रद्धा १०. संयम (धर्म में पुरुषार्थ) । ज्ञानी पुरुष फरमाते हैं कि - चेतन चेतो रे, चेतन चेतो रे दस बोल जीव ने मुश्किल मिलिया रे - चेतन चेतोरे, चेतन चेतो रे ।।टेर ।। जे धम्मं सुद्धमक्खंति, पडिपुण्ण-मणेलिसं । अणेलिसस्स जं ठाणं, तस्स जम्मकहा कओ? ॥ १९ ॥ For Personal & Private Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १५ कठिन शब्दार्थ - सुद्धं - शुद्ध, अक्खंति आख्यान (व्याख्या) करते हैं, पडिपुण्णं प्रतिपूर्ण, अणेलिसं - अनुपम, जम्मकहा- जन्म कथा (पुनर्जन्म) । भावार्थ जो पुरुष प्रतिपूर्ण, सर्वोत्तम और शुद्ध धर्म की व्याख्या करते हैं और स्वयं आचरण करते हैं वे सर्वोत्तम पुरुष सब दुःखों से रहित स्थान अर्थात् मुक्ति को प्राप्त करते । उनके जन्म लेने और मरने की बात भी नहीं है। अर्थात् मोक्ष में गया हुआ जीव फिर जन्म मरण नहीं करता है । विवेचन - जैसे बीज जल जाने पर अंकुर उत्पन्न नहीं होता है इसी तरह कर्म रूपी बीज जल जाने पर संसार रूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होता है अर्थात् मोक्ष में गया हुआ जीव फिर संसार में नहीं आता है। कओ कयाइ मेहावी, उप्पज्जति तहागया । तागया अप्पडण्णा, चक्खू लोगस्सणुत्तरा ॥ २० ॥ कठिन शब्दार्थ - उप्पज्जंति - उत्पन्न होते हैं, तहागया- तथागत, अप्पडिण्णा अप्रतिज्ञ निदान रहित, लोगस्स - लोक के, अणुत्तरा - सर्वोत्तम । भावार्थ - इस जगत् में फिर नहीं आने के लिये मोक्ष में गये हुए ज्ञानी पुरुष कभी भी किस प्रकार इस जगत् में उत्पन्न हो सकते हैं ? निदान न करने वाले तीर्थंकर और गणधर आदि, प्राणियों के सर्वोत्तम नेत्र हैं । ३१७ 0000000 विवेचन - ऊपर यह बता दिया गया है कि मोक्ष में गया हुआ जीव वापिस संसार में नहीं आता है सर्वज्ञ पुरुष पदार्थ का यथा स्वरूप बताने के कारण प्राणियों के लिए सबसे उत्तम नेत्र के समान है। . अणुत्तरे य ठाणे से, कासवेण पवेइए । जं. किच्चा णिव्वुडा एगं, णिट्टं पावंति पंडिया ॥ २१ ॥ कठिन सब्दार्थ - ठाणे स्थान का, णिव्वुडा - निर्वृत- संसार का अंत करने वाले, णि मोक्ष को, पावंति - प्राप्त करते हैं। भावार्थ - काश्यप गोत्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के द्वारा कहा हुआ संयम नामक स्थान सबसे प्रधान है । पंडित पुरुष इसको पालकर निर्वाण को प्राप्त करते हैं और वे संसार के अन्त को प्राप्त करते हैं । 1 - विवेचन काश्यप गोत्र में उत्पन्न काश्यप गोत्रीय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने फरमाया है कि दो स्थान अनुत्तर अर्थात् सर्वोत्कृष्ट है संयम और मोक्ष । शुद्ध संयम का पालन करके मुनि मोक्ष को प्राप्त करते हैं। For Personal & Private Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ पंडिए वीरियं लब्द्धं णिग्यायाय पवत्तगं । धुणे पुव्वकडं कम्म, णवं वा वि ण कुव्वइ ॥२२॥ कठिन शब्दार्थ - वीरियं - वीर्य को, लद्धं - प्राप्त कर, णिग्यायाय - कर्म क्षय के लिए, धुणे - नाश करे, णवं - नवीन, कम्मं - कर्म का। भावार्थ - पंडित पुरुष, कर्म को विदारण करने में समर्थ वीर्य को प्राप्त करके पूर्वकृत कर्म को । नाश करे और नवीन कर्म न करे । ण कुव्वइ महावीरे, अणुपुवकडं रयं । रयसा संमुहीभूता, कम्मं हेच्याण जं मयं ॥ २३॥ कठिन शब्दार्थ - अणुपुवकडं - अनुक्रम से पूर्व कृत, रयं - कर्म रज को, हिच्चाण - छोड़ कर, संमुहीभूता - सम्मुखीभूत - मोक्ष के सन्मुख, मयं - मत । _____ भावार्थ - दूसरे प्राणी मिथ्यात्व आदि क्रम से जो पाप करते हैं उस कर्म को विदारण करने में समर्थ पुरुष नहीं करता है । पूर्वभवों में किये हुए पाप के द्वारा ही नूतन पाप किये जाते हैं परन्तु उस पुरुष ने पूर्वकृत पापों को रोक दिया है और आठ प्रकार के कर्मों को त्याग कर वह मोक्ष के संमुख हुआ है । विवेचन - मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग से पाप कर्म का बन्ध होता है। जो पुरुष उनका त्याग कर देता है वह मोक्ष या तप संयम के सन्मुख हुआ है ऐसा जानना चाहिए। जं मयं सव्वसाहूणं, तं मयं सालगत्तणं । साहइत्ताण तं तिण्णा, देवा वा अभविंसु ते।। २४॥ .कठिन शब्दार्थ - सव्यसाहूणं - सभी साधुओं का, सल्लगत्तणं - शल्य को काटने वाला, साहइत्ताण - साधना करके, तिण्णा - तिर गये हैं, अभविंसु- प्राप्त किया है । भावार्थ - सब साधुओं का मान्य जो संयम है वह पाप को नाश करनेवाला है इसलिये बहुत जीवों ने उसकी आराधना करके संसार सागर को पार किया है अथवा देवलोक को प्राप्त किया है। विवेचन - शुद्ध संयम का पालन करने वाले मुनि उसी भव में मोक्ष जाते हैं किन्तु कुछ कर्म यदि शेष रह जाय तो वैमानिक देवों में उत्पन्न होते हैं। अभविंसु पुरा भी(वी)रा, आगमिस्सा वि सुब्बया । दुण्णिबोहस्स मग्गस्स, अंतं पाठकरा तिण्णा ।।२५।। तिमि॥ For Personal & Private Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १५ - कठिन शब्दार्थ पुरा- पूर्व समय में, धी(वी)रा - धीर (वीर), सुव्वया - सुव्रत पुरुष, दुणिबोहस्स मग्गस्स - दुर्निबोध मार्ग कठिनाई से प्राप्त करने योग्य मार्ग के, अंतं - अंत को, पाउकराप्रकट करके, तिण्णा - पार हुए हैं । भावार्थ- पूर्व समय में बहुत से धीर वीर पुरुष हुए हैं और भविष्य में भी होंगे । वे कठिनाई से प्राप्त करने योग्य सम्यग् दर्शन ज्ञान और चारित्र का अनुष्ठान करके तथा इनका प्रकाश करके संसार से पार हुए हैं । ऐसा मैं कहता हूँ । ३१९ 0000000000000 विवेचन सम्यग् ज्ञान, दर्शन, चारित्र तप, यह मोक्ष का मार्ग है। यह भूतकाल में भी था वर्तमान "में है और भविष्य काल में भी रहेगा। यह अनादि है । इसका आचरण करके भूतकाल में अनंत जीव संसार सागर से तिर गये हैं। वर्तमान में संख्याता जीव तिर रहे हैं और भविष्यत् काल में फिर अनन्त जीव तिर जायेंगे। सभी तीर्थङ्कर भगवन्त इसी मार्ग का उपदेश देते हैं। - इति ब्रवीमि - अर्थात् - श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि आयुष्मन जम्बू ! जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखारविन्द से सुना है वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ। मैं अपनी मनीषिका (बुद्धि) से कुछ नहीं कहता हूँ । ॥ आदानीय नामक पन्द्रहवां अध्ययन समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा नामक सोलहवाँ अध्ययन अहाह भगवं-एवं से दंते दविए वोसट्टकाए त्ति वच्चे माहणे ति.वा, समणे त्ति वा, भिक्खु त्ति वा, णिग्गंथे त्ति वा । पडिआह-भंते ! कहं णु दंते दविए वोसट्टकाए त्ति वच्चे माहणे त्ति वा, समणे त्ति वा, भिक्खु त्ति वा, णिग्गंथे त्ति वा । तं णो बूहि महामुणी । इति विरए सव्व-पाव-कम्मेहिं पिज्जदोस-कलह, अब्भक्खाण, पेसुण्ण, परपरिवाय, अरति-रति, मायामोस, मिच्छादंसण-साल-विरएं समिए सहिए सया जए णो कुण्झे णो माणी माहणेत्ति वच्चे। कठिन शब्दार्थ - दंते - दान्त, दविए - द्रव्य-मुक्ति जाने योग्य गुणों से युक्त, वोसट्टकाए - काया का व्युत्सर्ग करने वाला, माहणे - माहण, समणे - श्रमेण, भिक्खु - भिक्षु, णिग्गंथे - निर्ग्रन्थ, पडिआह - शिष्य ने पूछा, विरए - विरत, पिज-दोस - रागद्वेष, अब्भक्खाण - अभ्याख्यान, मिच्छादसणसल्लविरए - मिथ्यादर्शन शल्य से विरत, समिए - समित-समितियों से युक्त, सहिए - ज्ञानादि गुणों सहित, जए - संयत, कुण्झे - क्रोध, माणी - मान । ___ भावार्थ - पन्द्रह अध्ययन कहने के पश्चात् भगवान् ने कहा कि - पन्द्रह अध्यायों में कहे हुए अर्थ से युक्त जो पुरुष इन्द्रिय और मन को वश किया हुआ मुक्ति जाने योग्य शरीर को व्युत्सर्ग किया हुआ है उसे माहन, श्रमण, भिक्षु, अथवा निर्ग्रन्थ कहना चाहिये । शिष्य ने पूछा - हे भदन्त ! पन्द्रह अध्ययनों में कहे हुए अर्थ से युक्त जो पुरुष इन्द्रिय और मन को जीता हुआ मुक्ति जाने योग्य तथा काय-व्युत्सर्ग किया हुआ है वह क्यों माहन, श्रमण, भिक्षु अथवा निर्ग्रन्थ कहने योग्य हैं ? हे महामुने! यह मुझ को आप बताइये ? पूर्वोक्त पन्द्रह अध्ययनों में जो उपदेश किया है उसके अनुसार आचरण करने वाला जो पुरुष सब पापों से हटा हुआ है तथा किसी से राग द्वेष नहीं करता है, किसी से कलह नहीं करता है, किसी पर झूठा दोष नहीं लगाता है, किसी की चुगली नहीं करता है, किसी की निन्दा नहीं करता है एवं संयम में अप्रेम और असंयम में प्रेम नहीं करता है, कपट नहीं करता है, झूठ नहीं बोलता है, मिथ्यादर्शन शल्य से अलग रहता है पाँच गुप्तिओं से गुप्त और ज्ञानादि गुणों के सहित, सदा इन्द्रियों को जीतने वाला किसी पर क्रोध नहीं करता है, मान नहीं करता है वह 'माहन' कहने योग्य है। विवेचन - पूर्वोक्त पन्द्रह अध्ययनों में विधि निषेध के द्वारा जो अर्थ कहे गये हैं उनका उसी For Personal & Private Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्ययन १६ ३२१ तरह से आचरण करने वाला पुरुष साधु होता है। यह इस अध्ययन में बतलाया जाता है। इस अध्ययन का नाम 'गाथा' है। गाथा शब्द का अर्थ नियुक्तिकार ने अनेक तरह से किया है। संक्षिप्त अर्थ यह है - 'अलग-अलग स्थित अर्थं जिसमें एकत्र मिले हुए होते हैं उसे गाथा कहते हैं।' गाथा का उच्चारण कानों को प्रिय लगता है क्योंकि वह प्राकृत भाषा में मधुर शब्दों से बनी हुई होती है। अथवा जो गाई जाती है उसे गाथा कहते हैं।' इन्द्रियों को दमन करने वाले को दान्त कहते हैं। मुक्ति जाने की जिसमें योग्यता है उसे द्रव्य (भव्य) कहते हैं। जो शरीर का प्रतिकर्म (स्नानादि द्वारा सेवा सुश्रूषा एवं श्रृंगार) नहीं करता है उसे व्युत्सृष्ट काय (शरीर की ममता से रहित) कहते हैं। जीवों को 'मत मारो' ऐसा जो उपदेश देता है और स्वयं भी आचरण करता है उसको 'माहन् कति हैं। अथवा ब्राह्मण को माहण कहते हैं। ... 'श्रमु' तपसि खेदे च इस संस्कृत धातु से 'श्रमण' शब्द बनता है जिसका अर्थ है - जो स्वयं तपस्या में श्रम करता है और जगत् के जीवों के स्वरूप को समझ कर उनके दुःख निवारण के लिए प्रयत्न करता है एवं उनकी रक्षा करता है उसको 'श्रमण' कहते हैं। - जो पांच महाव्रतों का पालन करता है और समिति गुप्ति से युक्त है ऐसा मुनि केवल शरीर निर्वाह के लिये ४२ दोष टालकर गृहस्थों के घर से थोड़ी-थोड़ी भिक्षा लेकर अपने शरीर का निर्वाह करता है उसे 'भिक्षु' कहते हैं। जो नौ प्रकार का बाह्य और चौदह प्रकार का आभ्यन्तर ग्रन्थ (परिग्रह) का तीन करण तीन योग से त्याग कर देता है उसे निर्ग्रन्थ कहते हैं। .यहाँ पर प्राणातिपात आदि अठारह पापों के त्यागी को 'माहन' कहा है। एत्य वि समणे अणिस्सिए, अणियाणे, आयाणं च अइवायं च मुसावायं च बहिद्धं च कोहं च माणं च मायं च लोहं च पिग्जं च दोसं च इच्चेव जओ, जओ आदाणं अप्पणो पहोस-हेउ तओ तओ आयाणाओ पुव्वं पडिविरए पाणाइवाइया सिया, दंते दविए वोसट्टकाए समणे त्ति वच्चे ॥२॥ कठिन शब्दार्थ - अणिस्सिए - अनिश्रित-अनासक्त, अणियाणे - निदान रहित, अइवायं - प्राणातिपात, मुसावायं - मृषावाद, बहिद्धं - मैथुन और परिग्रह, पहोस हेउ - द्वेष का हेतु, आयाणाओ - आदान-कर्म बंध के कारणों से, पडिविरए - प्रति विरत । भावार्थ - जो साधु पूर्वोक्त गुणों से युक्त होकर शरीर आदि में आसक्त न रहता हुआ अपने तप आदि का सांसारिक सुख आदि फल की कामना नहीं करता है एवं प्राणातिपात नहीं करता है, झूठ नहीं For Personal & Private Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ बोलता है, मैथुन और परिग्रह नहीं करता है, क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेम और द्वेष नहीं करता है तथा । जिन जिन कार्यों से कर्म बन्ध होता है अथवा आत्मा द्वेष का पात्र बनता है उन उनसे निवृत्त होकर इन्द्रियों का विजय करता है एवं मुक्ति जाने की योग्यता प्राप्त करके शरीर की सेवा सुश्रूषा (स्नान . आदि) नहीं करता है उसे श्रमण कहना चाहिए। विवेचन - जो शरीर आदि किसी भी पदार्थ में आसक्त नहीं होता है उसे अनिश्रित कहते हैं। जो निदान (अपनी धर्म क्रिया के फल को तुच्छ वस्तु के लिये खो देता है उसे निदान कहते हैं।) नहीं करता, उसे 'अनिदान' कहते हैं। जिससे आठ प्रकार के कर्म बांधे जाते हैं उसे 'आदान' कहते हैं। उपरोक्त गुणों के साथ जो तपस्या में रत रहता है और प्राणातिपात आदि अठारह ही पापों का त्याग कर . . देता है, उसे ' श्रमण' कहते हैं। ___ एत्थ वि भिक्खू अणुण्णए, विणीए, णामए, दंते दविए, वोसट्ठकाए, संविधुणीय विरुवलवे परीसहोव-सग्गे, अण्झप्प-जोग-सुद्धादाणे, उवट्ठिए, ठिअप्पा, संखाए परदत्त भोई भिक्खू त्ति वच्चे ॥३॥ कठिन शब्दार्थ - अणुण्णए - अनुन्नत-गर्वोन्नत नहीं, नामए - नम्रता, संविधुणीय - सहन कर, परीसहोवसग्गे - परीषह उपसर्गों को, अझप्पजोग सुद्धादाणे - अध्यात्म योग से शुद्ध स्वरूप (चारित्र) वाला, उवट्ठिए - उपस्थित, ठिअप्पा - स्थितात्मा, संखाए - विवेकी-संसार को असार जान कर, परदत्त भोई - परदत्तभोजी-दूसरों के द्वारा दिये हुए आहार को खाकर निर्वाह करने वाला। . . भावार्थ - माहन पुरुष के सूत्र में जो गुण सूत्रकार ने बताये हैं उन सभी गुणों से युक्त जो पुरुष अभिमान नहीं करता है गुरु आदि के प्रति विनय और नम्रता से व्यवहार करता है, जो इन्द्रिय और मन को वश में रखता हुआ मुक्ति के योग्य गुणों से युक्त है, एवं शरीर का शृङ्गार न करता हुआ नाना प्रकार के परीषह और उपसर्गों को सहन करता है एवं जिसका चारित्र अध्यात्म योग के प्रभाव से निर्मल है, जो शुद्ध चारित्र का पालन करता है और मोक्षमार्ग में स्थित है तथा जो संसार को सार रहित जान कर दूसरे के द्वारा दिये हुए भिक्षान्न मात्र से अपना निर्वाह करता है उसे भिक्षु कहना चाहिये । विवेचन - जो ऊपर कहे हुए श्रमण और माहण के सम्पूर्ण गुणों से युक्त है तथा अभिमान रहित, विनीत, आठ कर्मों का क्षय करने वाला, इन्द्रियों का दमन करने वाला मोक्ष का अभिलाषी, शरीर की ममता से रहित, अनेक प्रकार के परीषह उपसर्गों को समभाव पूर्वक सहन करने वाला, अध्यात्म ज्ञान ध्यान में तल्लीन, धैर्यवान् है एवं शरीर निर्वाह के लिये भिक्षा के ४२ दोषों को टाल कर गृहस्थों के घर से शुद्ध और एषणीक थोड़ी-थोड़ी भिक्षा लेकर अपने शरीर का निर्वाह करता है, उसे भिक्षु कहते हैं। For Personal & Private Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ............... -- अध्ययन १६ एत्थ विणिग्गंथे एगे, एगविऊ, बुद्धे, छिण्णसोए, सुसंजए, सुसमिए, सुसामाइए, आयवाय- पत्ते, विऊ दुहओ वि सोय-पलिछिण्णे, णो पूया-सक्कारलाभट्ठी, धम्मट्ठी, धम्मविऊ, णियाग-पडिवण्णे, समियं चरे, दंते दविए वोसट्टकाए णिग्गंथेति वच्चे ॥ ४ ॥ स एवमेव जाणह जमहं भयंतारो ।। तिबेमि ॥ इति सोलसमं गाहानामज्झयणं समत्तं ॥ ।। पढमो सुक्खंधो समत्तो ॥ १ ॥ कठिन शब्दार्थ एगे - एक रागद्वेष रहित, एगविक एकत्व भावना को भाने वाला, छिण्णसोए - छिन्नस्रोत - जिसके स्रोत छिन्न हो चुके, सुसंजए - सुसंयत, सुसमिए - सुसमित, सुसामाइए- सम्यक् समभाव वाला, आयवायपत्ते आत्म स्वरूप को प्राप्त, सोयपलिच्छिण्णे - स्त्रोत का छेदन करने वाला, पूयासक्कार लाभट्ठी - पूजा सत्कार और लाभ का अर्थी, धम्मविऊधर्म का विद्वान्, णियागपडिवण्णे - मोक्ष मार्ग को समर्पित, भयंतारो भय से रक्षा करने वाला । भावार्थ- पूर्व सूत्र में भिक्षु के जितने गुण बताये हैं वे सभी निर्ग्रन्थ में भी होने चाहिये । इसके सिवाय ये गुण भी निर्ग्रन्थ में आवश्यक हैं. जो पुरुष रागद्वेष रहित है और " यह आत्मा परलोक में अकेला ही जाता है" यह जानता है तथा जो पदार्थों के स्वभाव को जानने वाला और आस्रव द्वारों को रोक कर रखने वाला है जो प्रयोजन के बिना अपने शरीर की कोई क्रिया नहीं करता है अथवा इन्द्रिय और मन को वश में रखता है, जो पांच प्रकार की समितियों से युक्त रह कर शत्रु और मित्र में समभाव रखता है तथा जो आत्मा के सच्चे स्वरूप को जानता है, जो समस्त पदार्थों के स्वरूप को जानने वाला विद्वान् है एवं जिसने संसार में उतरने के मार्ग को द्रव्य और भाव दोनों ही प्रकार से छेदन किया है, तथा पूजा सत्कार और लाभ की इच्छा न रखता हुआ केवल धर्म की इच्छा रखता है, जो धर्म के तत्त्व को जानने वाला और मोक्षमार्ग को प्राप्त है उसे समभाव से विचरना चाहिये। इस प्रकार जो जितेन्द्रिय, मुक्ति जाने योग्य और शरीर का व्युत्सर्ग किया हुआ है उसे निर्ग्रन्थ कहना चाहिये । श्री सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी आदि शिष्यवर्ग से कहते हैं कि यह मैंने तीर्थंकर देव से सुन कर आप लोगों से जो कहा है सो आप सत्य समझें क्योंकि जगत् को भय से रक्षा करने वाले श्री तीर्थंकर देव अन्यथा उपदेश नहीं करते हैं । - - For Personal & Private Use Only ३२३ - 00000000०००००० Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्धः । विवेचन - जो ऊपर श्रमण माहण निर्ग्रन्थ और भिक्षु के गुण कहे हैं, उन सब गुणों से युक्त है तथा राग द्वेष से रहित, आत्म स्वरूप को जानने वाला, बुद्ध-ज्ञानी, आस्रव द्वारों को सर्वथा रोक देने वाला, १७ प्रकार के संयम से युक्त, ५ समितियों से समित, तीन गुप्तियों से गुप्त, समभावी, आत्मवाद को जानने वाला अर्थात् आत्मा के स्वरूप को समझने वाला, विद्वान, द्रव्य स्रोत और भाव स्रोत को रोकने वाला, पूजा सत्कार और लाभ को नहीं चाहने वाला, धर्मार्थी, धर्मज्ञ, अपनी आत्मा को मोक्ष मार्ग में लगाने वाला, समताधारी, इन्द्रियों का दमन करने वाला, द्रव्य (भव्य) मोक्ष जाने की योग्यता वाला, शरीर की ममता से रहित, बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह से रहित है, वह निर्ग्रन्थ कहलाता है। . इस श्रुतस्कंध की शुरूआत 'बुझह' शब्द से हुई और 'भयंतारो' शब्द पर समाप्ति । दोनों शब्दों को मिलाने से यह सुन्दर अर्थ निकलता है- भव्यो ! बोध को प्राप्त करो। बोध को प्राप्त करने से एक दिन तुम अभय (निर्भय) बन जाओगे। (यदि जागे तो) भय को पार करने वाले-निर्भय हो जाओगे' और यही तो इस सूत्र के प्रतिपादन का विषय है । प्रमाद को त्यागने पर ही ज्ञान की प्राप्ति होती है और ज्ञानी अपने ज्ञान के अनुसार आचरण करके भय से मुक्त हो सकता है। बुज्झह' शब्द से 'ज्ञान और क्रिया' दोनों का संकेत मिलता है और सद्ज्ञान तथा क्रिया के सङ्गम से होने वाले फल का संकेत भयंतारो' शब्द से मिलता है। - इति ब्रवीमि - . अर्थात् श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि - हे आयुष्मन् जम्बू ! जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखारविन्द से सुना है वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ। मैं अपनी मनीषिका (बुद्धि) से कुछ नहीं कहता हूँ। ॥गाथा नामक सोलहवाँ अध्ययन समाप्त॥ ● प्रथम श्रुतस्कन्ध समाप्त • * पहला भाग समाप्त * For Personal & Private Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावयण णिग्गथी सच्च जो उ० ICTIO ज्वमिज्जय राणायरं वद इसययंत श्री अ.भा.सुधन तं संघगुण संघ जोधपुर जन संस्कृति रक्षा भारती खल भारतीय अखिल भारतीय संघ अखिल भारतीय अखि रक्षक संघ अखिल भारतीय अखिल भारत स्कृति रक्षक संघ अखिल भारती अखिल भारतीय सुधा जनसंस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय अखिल भारतीय सुधर्मजैगसस्कृत पगारतीयसुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिलभारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय अखिलभारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिलभारतीय अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिलभारतीय अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अस्तिलभारतीय AUDIOMSeminent अखिलभारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय शा