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________________ २४८ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध १ . भावार्थ - जो पुरुष प्राणियों की हिंसा करता हुआ उनके साथ वैर बांधता है वह पाप की वृद्धि करता है तथा वह नरक आदि के दुःखों को प्राप्त करता है इसलिये विद्वान् मुनि धर्म को विचार कर सब अनर्थों से रहित होकर संयम का पालन करे । विवेचन - गाथा में 'वेराणुगिद्धे' शब्द दिया है जिसका अर्थ है - जो कार्य करने से प्राणियों को पीड़ा पहुंचती है उससे उन जीवों के साथ अनेक भवों के लिये वैर बन्ध जाता है। कहीं पर 'वेराणुगिद्धे' के स्थान पर 'आरम्भ सत्तो' ऐसा पाठान्तर है जिसका अर्थ है - सावद्य अनुष्ठान में जो आसक्त है वह अनुकम्पा रहित है। ऐसा व्यक्ति नरक आदि गतियों में जाकर दुःख भोगता है। इसलिये विवेकी और मेधावी (मर्यादा में स्थित) पुरुष श्रुत और चारित्र धर्म को स्वीकार करके मोक्ष प्राप्ति के कारण रूप शुद्ध संयम पालन करे। आयं ण कुज्जा इह जीवियट्ठी, असज्जमाणो य परिवएग्जा। णिसम्मभासी य विणीय गिद्धिं, हिंसण्णियं वा ण कह करेजा ॥ १० ॥ कठिन शब्दार्थ - आयं - आय-लाभ, जीवियट्ठी - जीवन का अर्थी, असज्जमाणो - आसक्त न होता हुआ, परिवएज्जा - संयम में प्रवृत्ति करे, णिसम्मभासी - विचार कर बोलने वाला, विणीयहटा कर हिंसण्णियं - हिंसा संबंधी, कहं - कथा । भावार्थ - साधु इस संसार में चिरकाल तक जीने की इच्छा से द्रव्य का उपार्जन न करे तथा स्त्री पुत्रादि में आसक्त न होता हुआ संयम में प्रवृत्ति करे । साधु विचार कर कोई बात कहे तथा शब्दादि विषयों से आसक्ति हटाकर हिंसायुक्त कथा न कहे। विवेचन - द्रव्य का लाभ अथवा आठ प्रकार के कर्मों की प्राप्ति को यहां 'आय' कहा है। असंयम जीवन की इच्छा से अथवा भोग प्रधान जीवन की इच्छा से मुनि उपर्युक्त आय को न करे। 'आयंण कुजा' के स्थान पर 'छंदणंण कुज्जा' ऐसा पाठान्तर भी है। जिसका अर्थ है - मुनि अपनी स्वच्छंद प्रवृत्ति को रोके और इन्द्रियों के विषय भोग की इच्छा न करे। आसक्ति को हटाकर विचार कर वचन बोले। हिंसा से युक्त कथा न कहे और सावध वचन न बोले। आहाकडं वा ण णिकामएग्जा, णिकामयंते य ण संथवेजा। धुणे उरालं अणुवेहमाणे, चिच्चा ण सोयं अणवेक्खमाणो ॥ ११ ॥ कठिन शब्दार्थ - णिकामएजा - कामना करे, णिकामयंते- कामना करने वालों का, संथवेजापरिचय करे, धुणे - कृश करे, उरालं - औदारिक शरीर को, सोयं - शोक को, अणुवेहमाणे - अपेक्षा रखता हुआ, देखता हुआ। अणवेक्ख-माणो- अपेक्षा नहीं करता हुआ। भावार्थ-साधु आधाकर्मी आहार आदि की इच्छा न करे और जो आधाकर्मी आहार की इच्छा । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004188
Book TitleSuyagadanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages338
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size7 MB
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